Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
सप्त सप्तिका : द्वितीया चूला स्थान-सप्तिका : अष्टम अध्ययन
प्राथमिक
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आचारांग सूत्र (द्वि० श्रुत०) के आठवें अध्ययन का नाम 'स्थान-सप्तिका' है। यहाँ से सप्त-सप्तिका नाम की द्वितीय चूला प्रारम्भ होती है। साधु को रहने तथा अन्य धार्मिक क्रियाएँ करने के लिए स्थान की आवश्यकता अनिवार्य है। स्थान के बिना वह स्थिर नहीं हो सकता। साधु जीवन में केवल चलना, खड़े रहना या थोड़ी देर बैठना ही नहीं है, यथासमय उसे शयन, प्रतिलेखन, प्रवचन, कायोत्सर्ग आदि क्रियाएँ करने के लिए स्थिर भी होना पड़ता है। किन्तु साधु कायोत्सर्ग, स्वाध्याय, आहार, उच्चारप्रस्रवणादि के लिए किस प्रकार के स्थान में, कितनी भूमि में, कब तक, किस प्रकार से स्थित हो, इसका विवेक करना अनिवार्य है। साथ ही कायोत्सर्ग के समय स्थान से सम्बन्धित प्रतिज्ञाएँ भी होनी आवश्यक हैं, ताकि स्थान के सम्बन्ध में जागृति रहे। इसी उद्देश्य से 'स्थान-सप्तिका' अध्ययन का प्रतिपादन किया गया है। जहाँ ठहरा जाए, उसे स्थान कहते हैं। यहाँ द्रव्यस्थान - ग्राम, नगर यावत् राजधानी में ठहरने योग्य स्थान विवक्षित है। औपशमिकभाव आदि या स्वभाव में स्थिति करना आदि भावस्थान विवक्षित नहीं है। साधु को कैसे स्थान का आश्रय लेना चाहिए? ऊर्ध्व (प्रशस्त) या उक्त भावस्थान आदि प्राप्त करने के लिए द्रव्य-स्थान के सम्बन्ध में प्रतिपादन है। २ . स्थान (ठाणं) एक विशेष पारिभाषिक शब्द है, शय्याध्ययन में जगह-जगह इस शब्द का प्रयोग किया गया है—कायोत्सर्ग अर्थ में। वहाँ 'ठाणं वासेजं वाणिसीहियं वा चेतेज्जा' वाक्य-प्रयोग यत्र-तत्र किया है। यही कारण है कि स्थान (कायोत्सर्ग) सम्बन्धी चार प्रतिमाएँ इस अध्ययन के उत्तरार्द्ध में दी गई हैं। ३ अतः द्रव्यस्थान एवं कायोत्सर्ग रूप स्थान के सात विवेक सूत्रों का वर्णन इस अध्ययन में है। यद्यपि सात अध्ययनों में सातों ही सप्तिकाएँ एक-से-एक बढ़कर हैं, सातों ही उद्देशकरहित हैं, तथापि सर्वप्रथम स्थान के सम्बन्ध में कहा जाना अभीष्ट है, इसलिए सर्वप्रथम 'स्थानसप्तिका ' नाम अध्ययन का प्रतिपादन किया गया है।
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१. आचारांग वृत्ति पत्रांक ४०६ के आधार पर २. (क) आचारांग नियुक्ति गा. ३२० (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक ४०६ ३. आचारांग मूल पाठ सू. ४१२ से ४२३ तक वृत्ति सहित ४. आचारांग वृत्ति पत्रांक ४०६