Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 401
________________ आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध भगवान् के माता-पिता की धर्मसाधना ___७४५. समणस्सणं भगवतो महावीरस्स अम्मापियरो पासावच्चिजा समणोवासगा यावि होत्था। ते णं बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पालयित्ता छण्हं जीवणिकायाणं सारक्खणणिमित्तं आलाइत्ता णिदित्ता गरहिता पडिक्कमित्ता अहारिहं उत्तरगुणं पायच्छित्ताइं? पडिवज्जिता कुससंथारं दुरुहित्ता भत्तं पच्चक्खायंति २, भत्तं पच्चक्खाइत्ता अपच्छिमाए मारणंतियाए सरीरसंलेहणाए झूसियसरीरा कालमासेणं कालं किच्च तं सरीरं विप्पजहित्ता अच्चुते कप्पे देवत्ताए उववन्ना। ततो णं आउक्खएणं भवक्खएण ठितिक्खएणं चुते (ता) चइत्ता महाविदेहे वासे चरिमेणं उस्सासेणं ३ सिझिस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति, परिणिव्वाइस्संति, सव्वदुक्खाणं अंतं करस्संति। ७४५. श्रमण भगवान् महावीर के माता पिता पार्थापत्य—पार्श्वनाथ भगवान् के अनुयायी थे, दोनों श्रावक-धर्म का पालन करने वाले श्रमणोपासक-श्रमणोपासिका थे। उन्होंने बहुत वर्षों तक श्रावक-धर्म का पालन करके (अन्तिम समय में) षड्जीवनिकाय के संरक्षण के निमित्त आलोचना, आत्मनिन्दा, (पश्चाताप), आत्मगर्दा एवं पाप दोषों का प्रतिक्रमण करके, मूल और उत्तर गुणों के यथायोग्य प्रायश्चित स्वीकार करके, कुश के संस्तारक पर आरूढ़ होकर भक्तप्रत्याख्यान नामक अनशन (संथारा) स्वीकार किया। चारों प्रकार के आहर-पानी का प्रत्याख्यान—त्याग करके अन्तिम मारणान्तिक संलेखना से शरीर को सखा दिया। फिर कालधर्म का अवसर आने पर आयुष्य पूर्ण करे उस (भौतिक) शरीर को छोड़कर अच्युतकल्प नामक देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुए। तदनन्तर देव सम्बन्धी आय, भव, (जन्म) और स्थिति का क्षय होने पर वहाँ से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में चरम श्वासोच्छ्वास द्वारा सिद्ध , बुद्ध, मुक्त एवं परिनिवृत होंगे और वे सब दुःखों का अंत करेंगे। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर के माता-पिता के धार्मिक जीवन की झांकी बताई गई है। साथ ही उस जीवन की फलश्रुति भी अंकित कर दी है। इसके द्वारा शास्त्रकार ने एक आदर्श श्रमणोपासक का जीवन चित्र प्रस्तुत किया है। भगवान् के माता-पिता राजा-रानी होते हुए भी सांसारिक भोगों में ही नहीं फंसे रहे किन्तु, उन्होंने एक श्रमणोपासक का धर्म-मर्यादित जीवन स्वीकार किया। त्याग, सेवा व अनासक्त भाव से जीवन जीया और अन्तिम समय निकट आने पर समस्त भोगों, यहाँ तक कि आहार, शरीर और समस्त साधनों का सर्वथा परित्याग करके आत्मशुद्धिपूर्वक १. 'पायच्छिताई' के बदले पाठान्तर है-'पायच्छितं'। २. 'पच्चक्खायंतिं' के बदले पाठान्तर हैं-पच्चक्खिति, पच्चाइक्खंति, पच्चक्खाइंति। अर्थ एक-सा है। ३. 'उस्सोसेणं' के बदले पाठान्तर है- ऊसासेणं। ४. 'परिणिव्वाइस्संति' के बदले पाठान्तर है-'परिण्णेवाइस्संति मुच्चिस्संति।'

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