Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र ७७४
गति, स्थिति, व्यवन, उपपात, उनके भुक्त (खाए हुए) और पीत (पीए हुए) सभी पदार्थों को तथा उनके द्वारा कृत (किये हुए) प्रतिसेवित, प्रकट एवं गुप्त सभी कर्मों (कामों) को तथा उनके द्वारा बोले हुए, ,कहे हुए तथा मन के भावों को जानते, देखते थे । वे सम्पूर्ण लोक में स्थित सब जीवों के समस्त भावों को तथा समस्त परमाणु पुद्गलों को जानते-देखते हुए विचरण करने लगे ।
७७४. जिस दिन श्रमण भगवान् महावीर को अज्ञान - दुःख - निवृत्तिदायक सम्पूर्ण यावत् अनुत्तर केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हुआ, उस दिन भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं विमानवासी देव और देवियों के आने-जाने से एक महान् दिव्य देवोद्योत हुआ, देवों का मेला-सा लग गया, देवों का कल-कल नाद होने लगा, वहाँ का सारा आकाशमंडल हलचल से व्याप्त हो गया। विवेचन - भगवान् को केवलज्ञान की प्राप्ति और उसका महत्त्व प्रस्तुत सूत्रत्रय में भगवान् को प्राप्त हुए केवलज्ञान का वर्णन है। इन तीनों सूत्रों में मुख्यतया तीन बातों का उल्लेख किया गया है -
中
(१) केवलज्ञान कब, कहाँ, कैसी स्थिति में, किस प्रकार का प्राप्त हुआ ?
(२) केवलज्ञान होने के बाद भगवान् किस रूप में रहे, किन गुणों से और किन उपलब्धियों युक्त बने ।
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(३) भगवान् के केवलज्ञान - केवलदर्शन का सभी प्रकार के देवों पर क्या प्रभाव पड़ा ? १. राजप्रश्नीय सूत्र के अंतिम सूत्र में इसी तरह का पाठ मिलता है। कल्पसूत्र में भी हूबहू इसी प्रकार का पाठ उपलब्ध है ।
केवलज्ञान साधक - जीवन की महत्तम उपलब्धि है । केवलज्ञान होने पर अन्दर-बाहर सर्वत्र उसके प्रकाश से भूमण्डल जगमगा उठता है । आत्मा का पूर्ण विकास हो जाता है, आत्मा, विशुद्ध निर्मल और निष्कलुष बन जाता है। चार घातीकर्म तो सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं । साधक अब स्वयं पूर्ण ज्ञानी सर्वदर्शी भगवान् बन जाता है।
३.
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'कट्ठकरणंसि' आदि पदों का अर्थ-कट्ठकरणं— काष्टकरण नामक एक क्षेत्र । भुत्तेपीतं खाया हुआ, पीया हुआ । आवीकम्मं – प्रकट में किया हुआ कर्म । रहोकम्मं — गुप्त कार्य, एकान्त में किया हुआ कर्म । मणोमाणसियं— मन के मानसिक भाव। णेव्वाणे — निर्वाण या अज्ञान दुःख निवृत्ति । ३
१. आचारांग मूलपाठ के टिप्पण पृ. २२७
२. 'तएण से भगवं अरहा जिणे जाणिहितक्कं कडं मणोमाणसियं खइमं भुत्तं पडिसेवियं आवीकम्मं रहोकम्मं अरहा अहस्सजोगे ततं मणवायकायजोगे वट्ठमाणाणं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभाए जाणमाणे पासमाणे विहरिस्सइ । ' - राजप्रश्नीय अन्तिम सूत्र पाठ, (ख) कल्पसूत्र पाठ सू. १२
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(क) पाइअ - सद्द-महण्णवो पृ. २१५ (ख) अर्थागम खण्ड १, ( आचारांग ) पृ. १५८ - १५९