Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 430
________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र ७८०-७८२ ४०५ [४]अहावरा चउत्था भावणा-भयं परिजाणति से निग्गंथे ,णो य भयभीरुए सिया। केवली बूया- भयपत्ते भीरू समावदेजा मोसं वयणाए। भयं परिजाणति से निग्गंथे, णो य भयभीरुए सिया, चउत्था भावणा। [५] अहावरा पंचमा भावणा- हासें परिजाणति से निग्गंथे, णो य हासणाए सिया। केवली बूया-हासपत्ते हासी समावदेजा मोसं वयणाए।हासं परिजाणति से णिग्गंथे, णो य हासणाए सिय त्ति पंचमा भावणा। ७८२. एताव ताव [दोच्चे ] महव्वए सम्मं काएणं फासिते जाव आणाए आराहिते यावि भवति। दोच्चं भंते ! महव्वयं [मुसावायातो वेरमणं]। ७८०. इसके पश्चात् भगवन् ! मैं द्वितीय महाव्रत स्वीकार करता हूँ। आज मैं इस प्रकार से मृषावाद (असत्य) और सदोष-वचन का सर्वथा प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ। (इस सत्य पहाव्रत के पालन के लिए) साधु क्रोध से, लोभ से, भय से या हास्य से न तो स्वयं मृषा (असत्य) बोले, न ही अन्य व्यक्ति से असत्य भाषण कराए और जो व्यक्ति असत्य बोलता है, उसका अनुमोदन भी न करे । इस प्रकार तीन करणों से तथा मन-वचन-काया, इन तीनों योगों से मृषावाद का सर्वथा त्याग करे। इस प्रकार मृषावादविरमण रूप द्वितीय महाव्रत स्वीकार करके हे भगवन् ! मैं पूर्वकृत मृषावाद रूप पाप का प्रतिक्रमण करता हूँ, आलोचना करता हूँ, आत्मनिन्दा करता हूँ, गुरुसाक्षी से गर्दा करता हूँ, जो अपनी आत्मा से मृषावाद का सर्वथा व्युत्सर्ग (पृथक्करण) करता हूँ। ७८१. उस द्वितीय महाव्रत की ये पांच भावनाएँ हैं [१] उन पाँचों में से पहली भावना इस प्रकार है- वक्तव्य के अनुरूप चिन्तन करके बोलता है, वह निर्ग्रन्थ है, बिना चिन्तन किये बोलता है, वह निर्ग्रन्थ नहीं। केवली भगवान् कहते हैंबिना विचारे बोलने वाले निर्ग्रन्थ को मिथ्याभाषण का दोष लगता है। अत: वक्तव्य विषय के अनुरूप चिन्तन करके बोलने वाला साधक ही निर्ग्रन्थ कहला सकता है, बिना चिन्तन किये बोलने वाला नहीं। यह प्रथम भावना है। [२] इसके पश्चात् दूसरी भावना इस प्रकार है- क्रोध का कटुफल जानकर उसका परित्याग कर देता है, वह निर्ग्रन्थ है। इसलिए साधु को क्रोधी नहीं होना चाहिए। केवली भगवान् कहते हैंक्रोध आने पर क्रोधी व्यक्ति आवेशवश असत्य वचन का प्रयोग कर देता है। अत: जो साधक क्रोध का अनिष्ट स्वरूप जानकर उसका परित्याग कर देता है, वही निर्ग्रन्थ कहला सकता है, क्रोधी नहीं। यही द्वितीय भावना है। १. 'णो य हासणाए' के बदले पाठान्तर है-'णो य भासणाए', 'णो भासणाए।' २. एताव ताव (दोच्चे) महब्वए के बदले पाठान्तर हैं- 'एताव महव्वए', 'एत्तावता महव्वए,''एताव महव्वए,'"एताव ताव महव्वए' अर्थ प्रायः समान है।

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