Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पंदरहवां अध्ययन : सूत्र ७५५-७६५
७६४. वरपडह-भेरि झल्लरि-संखसतसहस्सिएहिं तूरेहिं । गगणयले धरणितले तूरणिणाओ' परमरम्मो ॥ १२६ ॥ ७६५. तत-विततं घण झुसिरं आतोज्जं चउविहं बहुविहीयं । वाएं तिरे तथ्य देवा बहूहिं आणट्टगसएहिं ॥ १२७॥ ७५५. जरा-मरण से विमुक्त जिनवर महावीर के लिए शिविका लाई गई, जो जल और स्थल पर उत्पन्न होने वाले दिव्यपुष्पों और देव वैक्रियलब्धि से निर्मित पुष्पमालाओं से युक्त थी॥ ११७॥ ७५६. उस शिविका के मध्य में दिव्य तथा जिनवर के लिए श्रेष्ठ रत्नों की रूपराशि से चर्चित (सुसज्जित) तथा पादपीठ से युक्त महामूल्यवान् सिंहासन बनाया गया था ॥ ११८ ॥
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७५७. उस समय भगवान् महावीर श्रेष्ठ आभूषण धारण किये हुए थे, यथास्थान दिव्य माला और मुकुट पहने हुए थे, उन्हें क्षौम (कपास से निर्मित) वस्त्र पहनाए हुए थे, जिसका मूल्य एक लक्ष स्वर्णमुद्रा था । इन सबसे भगवान् का शरीर देदीप्यमान हो रहा था ॥ ११९ ॥
७५८. उस समय प्रशस्त अध्यवसाय से, पष्ठ भक्त प्रत्याख्यान (बेले की ) तपश्चर्या से युक्त शुभ लेश्याओं से विशुद्ध भगवान् उत्तम शिविका (पालकी) में विराजमान हुए॥ १२० ॥ ७५९. जब भगवान् शिविका में स्थापित सिंहासन पर विराजमान गए, तब शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र उसके दोनों ओर खड़े होकर मणि- रत्नादि से चित्र-विचित्र हत्थे - डंडे वाले चामर भगवान् पर दुलाने लगे ॥ १२१ ॥
७६०. पहले उन मनुष्यों ने उल्लासवश वह शिविका उठाई, जिनके रोमकूप हर्ष से विकसित हो रहे थे। तत्पश्चात् सुर, असुर, गरुड़ और नागेन्द्र आदि देव उसे उठाकर ले चलने लगे ॥ १२२॥ ७६१. उस शिविका को पूर्वदिशा की ओर से सुर (वैमानिक देव) उठाकर ले चलते हैं, जबकि असुर दक्षिण दिशा की ओर से, गरुड़देव पश्चिम दिशा की ओर से और नागकुमार देव उत्तर दिशा की ओर से उठाकर ले चलते हैं ॥ १२३ ॥
७६२. उस समय देवों के आगमन से आकाशमण्डल वैसा ही सुशोभित हो रहा था, जैसे हुए पुष्पों से वनखण्ड (उद्यान), या शरत्काल में कमलों के समूह से पद्म सरोवर सुशोभित होता है ॥ १२४ ॥
खिले
७६३. उस समय देवों के आगमन के गगनतल भी वैसा ही सुहावना लग रहा था, जैसे सरसों, कचनार या कनेर या चम्पकवन फूलों के झुण्ड से सुहावना प्रतीत होता है ॥ १२५ ॥
७६४.उस समय उत्तम ढोल, भेरी, झांझ (झालर), शंख आदि लाखों वाद्यों का स्वर-निनाद गगनतल और भूतल पर परम रमणीय प्रतीत हो रहा था ॥ १२६ ॥
१. 'तूरणिणाओ' के बदले पाठान्तर है— 'तुडियणिणादो, तुरियनिनाओ । '
२. 'चउविहं बहुविहियं' के बदले पाठान्तर है— 'चउव्विहं बहुविहियं ।' अर्थ होता है— चार प्रकार के वाद्य जो कि अनेक तरह से (बजाये) ।
३. 'वाएंति' के बदले पाठान्तर है— वाइंति, वातेंति, वायंति ।