Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 418
________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र ७७१-७७४ ३९३ मचाऊँगा, न ही निमित्तों को कोदूँगा, न रोऊंगा-चिल्लाऊँगा या किसी के सामने गिड़गिड़ाऊँगा, न विलाप करूँगा, न आर्तध्यान करूँगा। बल्कि उसे अपने ही कृतकर्मों का फल मानकर उसे सम्यक् प्रकार से या समभावपूर्वक सहन कर लूँगा।"खमिस्सामि का अर्थ है—जो कोई भी मुझ पर उपसर्ग करने आएगा, उसके प्रति क्षमाभाव रखुंगा, न तो किसी प्रकार का द्वेष या वैर रखूगा, न ही द्वेषवश बदला लेने का प्रयत्न या संकल्प करूँगा, न कष्ट देने वाले को मारूंगा-पीटूंगा या उसे हानि पहुँचाने का प्रयत्न करूँगा। उसे क्षमा कर दूंगा। अथवा उसे तपश्चरण समझ कर कर्म क्षय करूँगा। अथवा उपसर्ग सहने में समर्थ बनूँगा। 'अधियासइस्सामि' का अर्थ होता है शान्ति से, धैर्य से झेलूंगा। खेद-रहित होकर सहूँगा। भगवान् का विहार एवं उपसर्ग ____७७०. ततो णं समणे भगवं महावीरे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हित्ता वोसट्ठकाए' चत्तदेहे दिवसे मुहत्तसेसे कम्मारगामं समणुपत्ते। ततो णं समणे भगवं महावीरे वोसट्टकाए चत्तदेहे अणुत्तरेणं आलएणं अणुत्तरेणं विहारेणं, एवं संजमेणं पग्गहेणं संवरेणं तवेणं बंभचेरवासेणं खंतीए मुत्तीए तुट्ठीए समितीए गुत्तीए ठाणेणं कम्मेणं सुचरितफलणेव्वाणमुत्तिमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। ७७१.' एवं ' चाते विहरमाणस्स जे केई उवसग्गा समुप्पजंति दिव्वा वा माणुस्सा वा तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पण्णे समाणे अणाइले अव्वहिते अहीणमाणसे तिविहमण-वयण-कायगुत्ते सम्मं सहति खमति तितिक्खति अहियासेति। १. (क) 'पाइअ-सद्द-महण्णवो ८८५, २७१, ९८ (ख) आयारो (प्रथम श्रुत०) ९/२/१३-१६ (ग) अर्थागम भा. १. (आचारांग) पृ. १५७-१५८ २. 'इसंयएतारूवं ' के बदले पाठान्तर हैं—'इमेयारूवं, इमेयारूवे।' ३. 'वोसट्ठकाए चत्तदेहे' के बदले पाठान्तर हैं- 'वोसट्ठचत्तदेहे' । ४. 'कम्मारगाम समणुपत्ते' के बदल पाठान्तर हैं-'कम्मारं गामं समणुपत्ते' 'कुमारगामं समणुपत्ते वोसट्टकाए।' भगवान् महावीर स्वामी के विशेषणों और उपमाओं वाला विस्तृतपाठ यहाँ सूत्र ७७० में होना चाहिए था क्योंकि स्थानांगसूत्र ९ एवं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (वक्षस्कार(२)ऋषभदेव वर्णन ) में विस्तार से 'जहाँ भावणाए' इस प्रकार आचारांग सूत्र भावनाऽध्ययन के अन्तर्गत जो पाठ है, उसका निर्देश किया गया है, परन्तु वह वर्तमान में इस भावनाऽध्ययन में उपलब्ध नहीं है। यह विचारणीय है। ६. 'एवं चाते' के बदले पाठान्तर हैं—'एवं गते विहरमाणस्स', 'एवं विहरमाणस्स' 'एवं वा विहरमाणस्स।' अर्थात्-इस प्रकार का अभिग्रह धारण करके विहार करते हुए....। ७. 'समुपज्जंति' के बदले पाठान्तर हैं- 'समुप्पज्जति, ' 'समुप्पज्जंसु"समुप्पज्जति', 'समुवत्तिंसु।' अर्थ प्रायः समान-सा है। ८. 'अणाइले' के बदले पाठान्तर है-'अणाडले' अर्थ होता है-अनाकुल। ९. कुछ प्रतियों में 'सहति' के बाद ही 'तितिक्खति' पाठ है।

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