Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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त्रयोदश अध्ययन : सूत्र ७२९
'तुयट्टावेत्ता' आदि पदों के अर्थ - तुयट्टावेत्ता- करवट बदलवा कर, लिटाकर या बिठाकर। उरत्थं - वक्षस्थल पर पहने जाने वाले आभूषण । आविंधेज - पहनाए या बाँधे । पिणीधेज - पहनाए या बाँधे । आउट्टे-करना चाहे। वइबलेण- वाणी (मन्त्रविद्या आदि) के बल से। खणित्तु - खोदकर, उखाड़कर। कड्ढेत्तु -निकाल कर।
कडुवेयणा ....... वेदंति' सूत्र का तात्पर्य - चूर्णिकार के शब्दों में - इसलिए साधु को शरीर परिकर्म से रहित होना चाहिए। क्योंकि चिकित्सा की जाने पर भी मानव पचते हैं। वे पचते हैं पूर्वकृत-कर्म के कारण । इस प्रकार पचते हुए वे दूसरों को भी संताप-दुःख देते हैं। जो इस समय पचते हैं, वे भविष्य में पचेंगे। कर्म अपने अनन्त गुने कटु विपाक (फल) को लेकर आता है। किसमें आता है? कर्ता के पीछे-पीछे कर्म आते हैं । अर्थात् - कर्ता कर्म करके या किये हुए कर्मों का वेदन करता है। वेदन का वेत्ता ही इस वेदन के द्वारा कर्म वेदन को विदारित करता है। सभी कर्म से विमुक्त होता है। अथवा कर्म करके दुःख होता है या दुःख स्पर्श करता है इसलिए इस समय दुःख नहीं करना चाहिए। २
वेदना के समय साधु का चिन्तन - इस संसार में जीव अपने पूर्वकृत कर्मफल के विषय में स्वाधीन हैं । कर्मफल को कटु वेदना मानकर कर्मविपाक, शारीरिक एवं मानसिक वेदनाएं संसार के सभी जीव स्वतः ही भोगते हैं।
७२९. एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव्वढे [ हिं] सहिते समिते सदा जते, सेयमिणं मण्णेज्जासि त्ति बेमि॥
७२९. यही (परक्रिया से विरति ही) उस साधु या साध्वी का समग्र आचार सर्वस्व है, जिसके लिए समस्त इहलौकिक-पारलौकिक प्रयोजनों से युक्त तथा ज्ञानादि-सहित एवं समितियों से समन्वित होकर सदा प्रयत्नशील रहे और इसी को अपने लिए श्रेयस्कर समझे।
- ऐसा मैं कहता हूँ। ॥ तेरहवां अध्ययन, छठी सप्तिका सम्पूर्ण॥
१. (क) आचा. वृत्ति पत्रांक ४१६
(ख) आचा. चूर्णि मूल पाठ टि० पृ० २५६ -वाग्बलेन मंत्रादिसामर्थ्येन चिकित्सां व्याध्युपशमं आउट्टे
त्ति कर्तुमभिलषेत्। २. (क) 'तम्हा अपडिंकम्मसरीरेण होयव्वं, किं कारणं? जेण तिगिच्छाए कीरमाणीए पच्चंति पयंति माणवा,
पच्चंति पूर्वकृतेन कर्मणा, ते पच्चमाणा अ [न्या] न्यपि संतापयंति य, दुक्खापयंतीत्यर्थः। अहवा कृत्वा दुक्खंभवति फुसति च तम्हा संपयं न करेमि दुक्खं । - आचा. चूर्णि पृ. १५७ (ख) आचा. वृत्ति पत्रांक ४१६ - जीवाः कर्मविपाककृतकटुकवेदनाः कृत्वा परेषां वेदनाः स्वतः प्राणिभूत-जीव सत्वाः तत्कर्मविपाकनां वेदनामनुभवन्तीति।