Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध वह गृहस्थ अशुद्ध मंत्रबल से साधु की व्याधि उपशान्त करना चाहे, अथवा वह गृहस्थ किसी रोगी साधु की चिकित्सा सचित्त कंद, मूल, छाल या हरी को खोदकर या खींचकर बाहर निकाल कर या निकलवा कर चिकित्सा करना चाहे, तो साधु उसे मन से भी पसंद न करे, और न ही वचन से कहकर या काया से चेष्टा करके कराए।
यदि साधु के शरीर में कठोर वेदना हो तो (यह विचार कर उसे समभाव से सहन करे कि) समस्त प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व अपने किए हुए अशुभ कर्मों के अनुसार कटुक वेदना का अनुभव करते हैं।
विवेचन-विविध परिचर्यारूप परक्रिया का निषेध- सू० ७२५ से ७२८ तक गृहस्थ द्वारा साधु की विविध प्रकार से की जाने वाली परिचर्या के मन, वचन, काया से परित्याग का निरूपण है। इन सत्रों में मुख्यतया निम्नोक्त परिचर्या के निषेध का वर्णन है- (१) साधु को अपने अंक या पर्यंक में बिठाकर या लिटाकर उसके चरणों का आमार्जन-परिमार्जन करे, (२) आभूषण पहनाकर साधु को सुसजित करे, (३) उद्यानादि में ले जाकर पैर दबाने आदि के रूप में परिचर्या करे, (४) शुद्ध या अशुद्ध मंत्रबल से रोगी साधु की चिकित्सा करे, (५) सचित्त कंद, मूल आदि उखाड़ कर या खोद कर चिकित्सा करे।
अंक-पर्यंक का विशेष अर्थ - चूर्णिकार के अनुसार अंक का अर्थ उत्संग या गोद है जो एक घुटने पर रखा जाता है, किन्तु पर्यंक वह है जो दोनों घुटनों पर रखा जाता है। २
मैथुन की इच्छा से अंक-पर्यंक शयन - अंक या पर्यंक पर साधु को गृहस्थ स्त्री द्वारा लिटाया जा बिठाया जाता है, उसके पीछे रति-सहवास की निकृष्ट भावना भी रहती है, अंक यां पर्यंक पर बिठाकर साधु को भोजन भी कराया जाता है, उसकी चिकित्सा भी सचित्त समारम्भादि करके की जाती है। निशीथसूत्र उ० ७ एवं उसकी चूर्णि में इस प्रकार का निरूपण मिलता है। अगर इस प्रकार की कुत्सित भावना से गृहस्थ स्त्री या पुरुष द्वारा साधु की परिचर्या की जाती है, तो वह परिचर्या साधु के सर्वस्व स्वरूप संयम-धन का अपहरण करने वाली है। साधु को इस प्रकार के धोखे में डालने वाले मोहक, कामोत्तेजक एवं प्रलोभन कारक जाल से बचना चाहिए।
पर-क्रिया के समान ही सूत्र ७२७ में अन्योन्यक्रिया (साधुओं की पारस्परिक क्रिया) का भी निषेध किया है। १. आचारांग वृत्ति पत्रांक ४१६ २. (क) आचारांग चूर्णि मू० पा० टि० पृ० २५६ - अंको उच्छंगो एगम्मि जणुगे उक्खित्ते; पलियंको
दोसु वि।
(ख) निशीथचूर्णि पृ० ४०८/४०९ –'एगेण उरुएणं अंको, दोहिं वि उरुएहिं पलियंको।' ३. देखिए निशीथ सप्तम उद्देशक चर्णि प० ४०८ - 'जे भिक्ख माउग्गामस्स मेहणवडियाए अंकसि वा
पलिअंकंसि वा णिसीयावेत्ता वा तुयट्टावेत्ता वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अणुग्घासेज वा अणुपाएज वा।' – एत्थ जो मेहुणट्ठाए णिसीयावेति तुयट्टावेति वा ते चेव दोसा।