Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
उच्चार-प्रस्त्रवणसप्तक : दशम अध्ययन प्राथमिक
आचारांग सूत्र (द्वि० श्रुत०) के दसवें अध्ययन का नाम 'उच्चार- प्रस्त्रवणसप्तक' है। उच्चार और प्रस्रवण ये दोनों शारीरिक संज्ञाएँ (क्रियाएँ) हैं, इनका विसर्जन करना अनिवार्य है। अगर हाजत होने पर इनका विसर्जन न किया जाए तो अनेक भयंकर व्याधियाँ उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है । १
मल और मूत्र दोनों दुर्गन्धयुक्त चीजें हैं, इन्हें जहाँ-तहाँ डालने से जनता के स्वास्थ्य को हानि पहुँचेगी, जीव-जन्तुओं की विराधना होगी, लोगों को साधुओं के प्रति घृणा होगी। इसीलिए मल-मूत्र विसर्जन या परिष्ठापन कहाँ, कैसे और किस विधि से किया जाए, कहाँ और कैसे न किया जाए, इन सब बातों का सम्यक् विवेक साधु को होना चाहिए। यह विवेक नहीं रखा जाएगा तो जनता के स्वास्थ्य की हानि, कष्ट एवं व्यथा होगी, अन्य प्राणियों को पीड़ा एवं जीवहिंसा होगी तथा साधुओं के प्रति अवज्ञा की भावना पैदा होगी, इनसे बचने लिए ज्ञानी एवं अनुभवी अध्यात्मपुरुषों ने इस अध्ययन की योजना की है । २ 'उच्चार' का शाब्दिक अर्थ है- शरीर से जो प्रबल वेग के साथ च्युत होता – निकलता है । मल या विष्ठा का नाम उच्चार है। प्रस्रवण का शब्दार्थ है - प्रकर्षरूप से जो शरीर से बहता है, झरता है । प्रस्रवण (पेशाब) मूत्र या लघुशंका को कहते हैं ।
इन दोनों का कहाँ और कैसे विर्सजन या परिष्ठापन करना चाहिए? इसका किस प्रकार आचरण करने वाले षड्जीवनिकाय-रक्षक साधु की शुद्धि होती है, महाव्रतों एवं समितियों में अतिचार - दोष नहीं लगता, उसका विधि-निषेध -सात मुख्य विवेक सूत्रों द्वारा बताने के कारण इस अध्ययन का नाम रखा गया है— उच्चार - प्रस्त्रवणसप्तक । ३ इस अध्ययन में उन सभी बिधि - निषेधों का प्रतिपादन किया गया है, जो साधु के मलमूत्रविसर्जन एवं परिष्ठापन से सम्बन्धित हैं । ४
१.
(क) दशवै०हारि०टीका 'दच्चमुत्तं न धारए' - 'जओ मुत्तनिरोहे चक्खुबाधाओ भवति, वच्च निरोहे जीविओपघाओ, असोहणा य आयविराहणा । ' - अ० ८ / गा० २६ (ख) मुत्तनिरोहे चक्खुं वच्चनिरोहे च जीवियं चयति ।
उड्डनिरोहे कोढं, सुक्कनिरोहे भवे अपुमं ॥
- ओघनियुक्ति गा० १५७
२. जै० सा० का वृहत् इतिहास (पं० बेचरदासजी) भा० १ - अंगग्रन्थों का अन्तरंग परिचय, पृ० ११९ (ख) आचारांग नियुक्ति गा० ३२१, ३२२
३.
(क) आचारांग वृत्ति पत्रांक ४०९
४. आचारांग वृत्ति पत्रांक ४०९