Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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एकादश अध्ययन : सूत्र ६८०-६८६
स्थानों में, किन्तु इन शब्दों को सुनने हेतु किसी भी स्थान में जाने का संकल्प न करे।
६७८. साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे कि- तिराहों पर, चौकों में, चौराहों पर, चतुर्मुख मार्गों में तथा इसी प्रकार के अन्य स्थानों में , परन्तु इन शब्दों को श्रवण करने के लिये कहीं भी जाने का संकल्प न करे।
६७९. साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द श्रवण करते हैं, जैसे कि- भैसों के स्थान, वृषभशाला, घुड़साल, हस्तिशाला यावत् कपिंजल पक्षी आदि के रहने के स्थानों में होने वाले शब्दों या इसी प्रकार के अन्य शब्दों को, किन्तु उन्हें श्रवण करने हेतु कहीं जाने का मन में विचार न करे।
विवेचन-विविध स्थानों में विभिन्न शब्दों की श्रवणोत्कण्ठानिषेध- प्रस्तुत सात सूत्रों (६७३ से ६७९) में विभिन्न स्थानों में उन स्थानों से सम्बन्धित आवाजों या उन स्थानों में होने वाले श्रव्य गेय आदि स्वरों को श्रवण करने की उत्सुकतावश जाने का निषेध किया गया है। ये स्वर कर्णप्रिय लगते हैं। किन्तु साधु उसे चला कर सुनने न जाए, न ही सुनने की उत्कण्ठा करे। अनायास शब्द कान में पड़ ही जाते हैं, मगर इन शब्दों को मात्र शब्द ही माने, इनमें मनोज्ञता या अमनोज्ञता का मन के द्वारा आरोप न करे। राग द्वेष का भाव उत्पन्न न होने दे।
निशीथसूत्र के १७ वें उद्देशक में इन स्थानों में होने वाले शब्दों को सुनने का मन में संकल्प करने वाले साधु या साध्वी के लिए इन शब्दों को सुनने में प्रायश्चित बताया है—जे भिक्खू वप्पाणि वा ..कण्णसवणपडियाए अभिसंधारेइ...' चूर्णिकार इनके सम्बन्ध में बताते हैं कि जैसे १२ वें उद्देशक में ये १४ (रूप दर्शन सम्बद्ध) सूत्र प्रतिपादित किये हैं, वैसे यहाँ (शब्द-श्रवण-सम्बद्ध सूत्र १७ वें उद्देशक में भी प्रतिपादित समझ लेना चाहिए। विशेष इतना ही है कि वहाँ चक्षु से रूपदर्शन की प्रतिज्ञा से गमन का प्रायश्चित है, जबकि यहाँ कानों से शब्द श्रवण प्रतिज्ञा से गमन करने का प्रायश्चित है। वप्र आदि स्थानों में जो शब्द होते हैं, उन्हें ग्रहण करने के लिये जो साधु जाता है, वह प्रायश्चित का भागी होता है। २ मनोरंजन स्थलों में श्रब्दश्रवणोत्सुकता निषेध
६८०. से ३ भिक्खू वा २ अहावेगतियाइं सहाई सुणेइ, तंजहा- महिसजुद्धाणि वा वसभजुद्धाणि वा अस्सजुद्धाणि वा जाव कविंजलजुद्धाणि वा अण्णतराई वा तहप्पगाराई सद्दाइं णो अभिसंधारेजा गमणाए।
६८१. से भिक्खू वा २ अहावेगतियाइं सद्दाइं सुणेति, तंजहा- जूहियट्ठाणाणि वा १. आचारांग वृत्ति पत्रांक ४१२ .. २. निशीथ सूत्र उ०१७ चूर्णि पृ०२०१-२०३ ३. सूत्र ६८० का आशय वृत्तिकार ने स्पष्ट किया है-"कलहादिवर्णन तत्स्थान वा श्रवणप्रतिज्ञया न
गच्छेत्।" अर्थात्- कलह आदि का वर्णन या उस स्थान में होने वाले कलह का श्रवण करने के लिए न
जाए। ४. सूत्र ६८१ में उल्लिखित पाठ के अतिरिक्त अनेक पाठ निशीथसूत्र १२ वें उद्देशक में हैं।