Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चतुर्थ अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र ५३२
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जैन शास्त्रानुसार ये देव नहीं, पुद्गलादि द्रव्य हैं या प्राकृतिक उपहार हैं। सचित्त अग्नि, जल, वनस्पति, पृथ्वी, वायु आदि में जीव है। १
निरवद्य और यथातथ्य भाषा का प्रयोग करने वाले जैन साधु को इस मिथ्यावाद से बचनेबचाने के लिए यह विवेक बताया है, वह आकाश, मेघ, विद्युत् आदि प्राकृतिक पदार्थों को देव न कहकर उनके वास्तविक नाम से ही उनका कथन करें; अन्यथा लोगों में मिथ्या धारणा फैलेगी। २
इसी सूत्र के उत्तरार्द्ध में वर्षा-वर्णन, धान्योत्पादन, रात्रि का आगमन, सूर्य का उदय, राजा की जय हो या न हो, इस विषय में साधु को तटस्थ रहना चाहिए; क्योंकि वर्षा-वर्षण आदि के कहने से सचित्त जीव विराधना का दोष लगेगा, अथवा वर्षा आदि के सम्बन्ध में भविष्य कथन करने से असत्य का दोष लगने की संभावना है, अमुक राजा की जय हो, अमुक की नहीं या अमुक की जय होगी, अमुक की पराजय, ऐसा कहने से युद्ध का अनुमोदन-दोष तथा साधु के प्रति एक को मोह, दूसरे को द्वेष पैदा होगा। इसीलिए दशवैकालिक सूत्र में वायु, वृष्टि, सर्दी-गर्मी, क्षेम, सुभिक्ष, शिव आदि कब होंगे, या न हों, इस प्रकार की भाषा बोलने का तथा मेघ, आकाश और मानव के लिए देव शब्द का प्रयोग करने का निषेध किया है, इनके सम्बन्ध में क्या कहा जाए यह भी स्पष्ट निर्देश किया गया है।
_ 'संमुच्छिते' आदि पदों के अर्थ-संमुच्छिते-संमूच्छ्रित हो रहा है - उमड़ रहा है, अथवा उन्नत हो रहा है, णिवइए - झुक रहा है, या बरस रहा है। वुट्ठ बलाहगे-मेघ बरस पड़ा है। ५
५३२. एयं खलु भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव्वढेहिं सहिएहि [सया जए] ज्जासि ति बेमि।
५३२. यही (भाषाजात को सम्यक् जान कर भाषाद्वय का सम्यक् आचार ही) उस साधु और साध्वी की साधुता की समग्रता है कि वह ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप अर्थों से तथा पाँच समितियों से युक्त होकर सदा इसमें प्रयत्न करे।
- ऐसा मैं कहता हूँ।
॥प्रथम उद्देशक समाप्त॥ १. (क) 'पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः' धर्माधर्माकाशकालपुद्गल, द्रव्याणि' ।- तत्त्वार्थ अ०५
(ख) उत्तराध्ययन सूत्र अ०३६, गा०८,७ २. (क) दशवै० अ०७ गा० ५२, हारि० टीका०- 'मिथ्यावादलाघवादिप्रसंगात्।
(ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक ३८८ 3. धर्मरत्न प्रकरण टीका (९/गुण ४) में वारत्त मुनि का उदाहरण दिया गया है कि चंडप्रद्योत के आक्रमण के
समय उन्होंने निमित्त कथन किया, जिससे बहुत अनर्थ हो गया। ४. (अ) तुलना के लिए देखिए - दशवै० अ०७ गा० ५०, ५१, ५२, ५३ तथा टिप्पण पृ० ३६४-६५
(आ) आचारांग वृत्ति पत्रांक ३८८ ५. (क) आचारांग वृत्ति पृ० ३८८ (ख) दशवै० (मुनि नथमलजी ) अ० ७।५२ विवेचन पृ० ३६४