Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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अत्यन्त आवश्यक है, इसलिए यहाँ सूत्र में संक्षेप में उल्लेख कर दिया है। १
आम्रवन निवास आदि से सम्बन्धित सूत्र — यद्यपि तीन सूत्रों में इन तीनों वनों से सम्बन्धित अवग्रह - विवेक का समावेश हो जाता, तथापि विशेष स्पष्ट करने की दृष्टि से १० सूत्रों में इनका वर्णन किया है। इन तीनों वनों (क्षेत्र) में निवास करने के सूत्र प्रणयन का रहस्य वृत्तिकार एवं चूर्णिकार दोनों ने संक्षेप में खोला है।
चूर्णिकार के अनुसार आम्रवन में दारुक - दोष या अस्थिदोष नहीं होते, इसलिए किसी रोगादि कारणवश औषध के कार्य हेतु (वैद्यादि के निर्देश पर ) श्रद्धालु श्रावक से गवेषणा करने पर वह प्रार्थना करता है, भगवन्! मेरे आम्रवन में निवास करें। किसी वस्तु के गंध से भी व्याधि नष्ट होती है। जैसे रसोई की गंध से ग्लान को तृप्ति-सी होने लगती है, हर्डे की गंध से कई व्यक्तियों को विरेचन होने लगता है, स्वर्ण से व्याकुलता दूर होती है" -व्याधि-निवारण के निमित्त इक्षुवन लहसुन के वन में भी व्याधि के कारण रहा जा सकता है, इसलिए
में निवास करना उचित है।
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लहसुन का विकल्प भी प्रतिपादित किया गया है । २ वृत्तिकार का कथन है - कारण उपस्थित होने पर कोई साधु आम खाना चाहे ......... • प्रासुक आम कारण होने पर ले सकता है । ....... · यहाँ आम्रादि सूत्रों के अवकाश के सम्बन्ध में निशीथसूत्र के १६ वें उद्देशक से जान लेना चाहिए। ३
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'अंब भित्तगं' आदि पदों का अर्थ - भित्तगं (भत्तगं ) – आधाभाग या चतुर्थभाग, पेसी — चौथाई भाग आम की लंबी फाडी, चोयगं - त्वचा या छाल (किसी के मत से), मोयगं - अन्दर का गर्भ या गिरी, सलांग -नखादि से अक्षुण्ण बाहर की छाल अथवा रस, डालगं - छोटे-छोटे मुलायम टुकड़े अथवा डलगं ( रूपान्तर ) • जो लम्बे और सम न हों, ऐसे चक्रिकाकार खण्ड अथवा आधा भाग, अंतरुच्छुयं - पर्वरहित या पर्व का मध्य-भाग, खंडं -
पर्व सहित भाग;
१.
३.
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४.
आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
गंडिका गंडेरी ।
(क) दशवै० अ० ८ / ४८ गा० 'अपत्तियं जेण सिया आसु कुप्पेज्ज वा परो । ' (ख) आचारांग मूलपाठ, वृत्ति पत्रांक ४०४ ४०५
२. आचारांग चूर्णि मू. पा. टि. पृ. २२३-२२४ में - "अंबवणे ण वट्टति, दारुय अट्टिमादि दोसा, कारणे ओसहकज्जे सड्डो मग्गिओ भणति - भगवं अंबवणे द्वाह । कस्सवि गंधेण चेव णस्सति वाही, जहा रसवईए गिलाणो, जहा वा हरीडईए गंधेण विरिच्चति, हेमयाए कलं । वाधिणिमित्तं उक्खुवणेवि
४
वाहिकारणे लसणुं विभासियव्वं । "
आचारांग वृत्ति पत्रांक ४०५ " तत्रस्थश्च सति कारणे आम्रं भोक्तुमिच्छेत् । व्यवच्छिन्नं यावत्प्रासुकं कारणे सति गृहीयात् । ---- 'आम्रादिसूत्राणामवकाशो निशीथषोडद्देशकादवगन्तव्यः ।
(क) आचारांग चूर्णि मू. पा. टि. पृ. २२३
(ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक ४०५
(ग) निशीथचूर्णि उद्दे० १५, पृ. ४८१, ४८२