Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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छठा अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र ६०३-६०४
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६०३. साधु या साध्वी गृहस्थ के यहाँ आहार-पानी के लिए गये हों और गृहस्थ घर के भीतर से अपने पात्र में सचित्त (शीतल) जल लाकर उसमें से निकाल कर साधु को देने लगे, तो साधु उस प्रकार के पर-हस्तगत एवं पर-पात्रगत शीतल (सचित्त) जल को अप्रासुक और अनेषणीय जान कर अपने पात्र में ग्रहण न करे।
कदाचित असावधानी से वह जल (अपने पात्र में) ले लिया हो तो शीघ्र दाता के जल पात्र में उड़ेल दे। यदि गृहस्थ उस पानी को वापस न ले तो फिर वह जलयुक्त पात्र को लेकर किसी स्निग्ध भूमि में या अन्य किसी योग्य स्थान में उस जल का विधिपूर्वक परिष्ठापन कर दे। उस जल से स्निग्ध पात्र को एकान्त निर्दोष स्थान में रख दे।
६०४. वह साधु या साध्वी जल से आई और स्निग्ध पात्र को जब तक उसमें से बूंदें टपकती रहें, और वह गीला रहे, तब तक न तो पोंछे ओर न ही धूप में सुखाए। जब वह यह जान ले कि मेरा पात्र अब निर्गतजल (जल-रहित) और स्नेह-रहित हो गया है, तब वह उस प्रकार के पात्र को यतानापूर्वक पोंछ सकता है और धूप में सुखा सकता है।
विवेचन – प्रस्तुत सूत्र में सर्वप्रथम गृहस्थ के हाथ और बर्तन से अपने पात्र में सचित्त जल ग्रहण करने का निषेध है, तत्पश्चात् असावधानी से सचित्त जल पात्र में ले लिया गया हो तो उस पात्र को पोंछने और सुखाने आदि की विधि बताई गई है।
चूर्णिकार इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण करते हैं- "..... सचित्त जल हिलाकर निकाल कर देने लगे तो वैसा... पर-हस्तगत पात्र ग्रहण न करे। भूल से वैसा सचित्त जल संसृष्ट पात्र ग्रहण कर लेने पर यदि वही गृहस्थ उस जल को स्वयं वापस ले लेता है तो सबसे अच्छा; अन्यथा वह उस उदक को दूसरी जगह अन्य भाजन में डाल दे। २ ।
'परिभाएत्ता' आदि पदों का अर्थ- परिभाएत्ता विभाग करके, चूर्णिकार के अनुसारहिलाकर 'पीहट्ट—निकाल कर। ३
जलग्रहण परक या पात्र ग्रहण-परक-चूर्णिकार इस सूत्र को पात्रैषणा-अध्ययन होने से पात्र- ग्रहण विषयक मानते हैं किन्तु वृत्तिकार इसकी पानक-ग्रहण विषयक व्याख्या करते हैंगृहस्थ के घर में प्रविष्ट भिक्षु प्रासुक पानी की याचना करे इस पर कदाचित वह गृहस्थ असावधानी से, भ्रान्ति से या धर्म-द्वेषवश (प्रतिकूलतावश) अथवा अनुकम्पावश विचार करके घर के भीतर पड़ा हुआ दूसरा अपना बर्तन ला कर , उसमें से कुछ हिस्सा रख कर पानी निकाल कर देने लगे तो साधु
१. आचारांग मूल पाठ एवं वृत्ति पत्रांक ४०० के आधार पर
आचारांग चूर्णि मू. पा. टि. पृ. २१७ - "परियाभाएत्त ति छुभित्तु पडिग्गहं परहत्थगयं ण गेण्हेज्जा। आहच्च गहिते गिहत्थो एस चेव उदए जति परिसाहरति, लटुं । अण्णत्थ वा उदए (उएझइ?) अन्ने हिं भायणे
पक्खिवति।" ३. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक ४०० (ख) आचारांग चूर्णि मू. पा. टि. पृ. २१७