Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सप्तम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र ६२०
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के शरीर पर तेल, घी आदि लगाते हों, इसी प्रकार स्नानादि, शीतल सचित्त या उष्ण जल से गात्रसिंचन आदि करते हों या नग्नस्थित हों इत्यादि वर्णन शय्याऽध्ययन के आलापकों की तरह यहाँ समझ लेना चाहिए। इतना ही विशेष है कि वहाँ वह वर्णन शय्या के विषय में हैं, यहाँ अवग्रह के विषय में है। अर्थात्- इस प्रकार के किसी भी स्थान की अवग्रह-अनुज्ञा ग्रहण नहीं करनी चाहिए।
६१९. साधु या साध्वी ऐसे अवग्रह-स्थान को जाने, जिसमें अश्लील चित्र आदि अंकित या आकीर्ण हों, ऐसा उपाश्रय प्रज्ञावान् साधु के निर्गमन-प्रवेश तथा वाचना से धर्मानुयोग चिन्तन तक (स्वाध्याय) के योग्य नहीं है। ऐसे उपाश्रय की अवग्रह-अनुज्ञा एक या अधिक बार ग्रहण नहीं करनी चाहिए।
विवेचन–अवग्रह-ग्रहण के अयोग्य स्थान- सूत्र ६१२ से ६१९ तक आठ सूत्रों से अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करने के लिये अयोग्य, अनुचित, अकल्पनीय, अशान्तिजनक एवं . कर्मबन्धजनक स्थानों का शय्याऽध्ययन में उल्लिखित क्रम से उल्लेख किया है एवं उन स्थानों के अवग्रह-याचन का निषेध है। १ इन सूत्रों का वक्तव्य एवं आशय स्पष्ट है। पहले वस्त्रैषणापिण्डैषणा-शय्या आदि अध्ययनों के सूत्र ३५३, ५७६, ५७७, ५७८, ४२०, ४४८, ४४९, ४५०, ४५१,४५२, ४५३, ४५४, आदि सूत्रों में इसी प्रकार का वर्णन आ चुका है, और वहाँ उनका विवेचन भी किया जा चुका है। २ ।
६२०. एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सवढेहिं [ समिते सहिते सदा जएजासि त्ति बेमि]।
६२०. यही (अवग्रह-अनुज्ञा-ग्रहण विवेक ही) वास्तव में साधु या साध्वी का समग्र सर्वस्व है, जिसे सभी प्रयोजनों एवं ज्ञानादि से युक्त, एवं समितियों से समित होकर पालन करने के लिए वह सदा प्रयत्नशील है। ३
—ऐसा मैं कहता हूँ।
॥प्रथम उद्देशक समाप्त॥
१. आचारांग मूलपाठ एवं वृत्ति पत्रांक ४०४ के आधार पर २. आचारांग (मूलपाठ टिप्पण सहित) पृ. २२१, २२२ ३. इसका विवेचन सू. ३३४ में किया जा चुका है।