Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
२९०
आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
६३२. से भिक्खू वा २ अभिकंखेजा ल्हसुणवणं उवागच्छित्तए, तहेव तिण्णि वि आलावगा, नवरं ल्हसुणं।
से भिक्खू वा २ अभिकंखेजा ल्हसुणं वा ल्हसुणकंदं वा ल्हसुणचोयगं वा ल्हसुणणालंग वा भोत्तए वा पायए वा।से जं पुण जाणेजा ल्हसुणं वा जाव ल्हसुणबीजं वा सअंडं जाव णो पडिगाहेजा। एवं अतिरिच्छच्छिण्णे वि। तिरिच्छच्छिण्णे जावरे पडिगाहेज्जा।
६२१. साधु धर्मशाला आदि स्थानों में जाकर, ठहरने के स्थान को देखभालकर विचार पूर्वक अवग्रह की याचना करे। वह अवग्रह की अनुज्ञा मांगते हुए उक्त स्थान के स्वामी या अधिष्ठाता (नियुक्त अधिकारी) से कहे कि - आयुष्मन् गृहस्थ! आपकी इच्छानुसार -जितने समय तक
और जितने क्षेत्र में निवास करने की आप हमें अनुज्ञा देंगे, उतने समय तक और उतने ही क्षेत्र में हम ठहरेंगे। हमारे जितने भी साधर्मिक साधु यहाँ आयेंगे, उनके निवास के लिए भी काल और क्षेत्र की सीमा की अनुज्ञा माँगने पर जितने काल और जितने क्षेत्र तक इस स्थान में ठहरने की आपकी अनुज्ञा होगी, उतने काल और क्षेत्र में वे ठहरेंगे। नियत अवधि के पश्चात् वे और हम यहाँ से विहार कर देंगे।
६२२. उक्त स्थान के अवग्रह की अनुज्ञा प्राप्त हो जाने पर साधु उसमें निवास करते समय क्या करे? वह यह ध्यान रखे कि - वहाँ (पहले से ठहरे हुए) शाक्यादि श्रमणों या ब्राह्मणों के दण्ड, छत्र, यावत् चर्मच्छेदनक आदि उपकरण पड़े हों, उन्हें वह भीतर से बाहर न निकाले और न ही बाहर से अन्दर रखे, तथा किसी सोए हुए श्रमण या ब्राह्मण को न जगाए। उनके साथ किंचित् मात्र भी अप्रीतिजनक या प्रतिकूल व्यवहार न करे, जिससे उनके हृदय को आघात पहुँचे।
६२३. वह साधु या साध्वी आम के वन (बगीचे) में ठहरना चाहे तो सर्वप्रथम वहाँ उस आम्रवन का जो स्वामी या अधिष्ठाता (नियुक्त अधिकारी) हो, उससे पूर्वोक्त विधि से अवग्रह की अनुज्ञा प्राप्त करे कि आयुष्मन् ! आपकी इच्छा होगी उतने समय तक, उतने नियत क्षेत्र में हम आपके आम्रवन में ठहरेंगे, इसी बीच हमारे समागत साधर्मिक भी इसी नियम का अनुसरण करेंगे। अवधि पूर्ण होने के पश्चात् हम लोग यहाँ से विहार कर जाएंगे।
उस आम्रवन में अवग्रहानुज्ञा ग्रहण करके ठहरने पर क्या करें? यदि साधु आम खाना या उसका रस पीना चाहता है, तो वहाँ के आम यदि अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त देखेजाने तो उस प्रकार के आम्रफलों को अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर ग्रहण न करे।
६२४. यदि साधु या साध्वी उस आम्रवन के आमों को ऐसे जाने कि वे हैं तो अण्डों यावत् १. 'तहेव' शब्द से यहाँ अंबवणं सूत्र ६२३, २४, २५ के अनुसार सारा पाठ समझें। २. 'णालगं' के बदले कहीं कहीं 'नालं' पाठ है। ३. यहाँ जाव शब्द 'तिरिच्छछिण्णे' से 'पडिगाहेज्जा' तक के पाठ का सूत्र ६२५ के अनुसार सूचक है।