Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सप्तम अध्ययन : प्रथम उद्देशक: सूत्र ६०८-६११
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छत्रक आदि उपकरणों का उल्लेख क्यों?- प्रस्तुत पाठ में छाता (छत्रक) चर्मच्छेदनक आदि उपकरणों का उल्लेख है। जबकि दशवैकालिक में छत्तस्सधारणट्ठाए' कह कर इसे अनाचीर्ण में बताया है, तब इनका उल्लेख शास्त्रकार ने यहाँ क्यों किया?
वृत्तिकार एवं चूर्णिकार इसका समाधान करते हैं- छत्र वर्षाकल्पादि के समय किसी देश विशेष में कारणवश साधु रखता है। कहीं कोंकण आदि देश में अत्यन्त वृष्टि होने के कारण छत्र भी रख सकता है। उसे अभिमानवृद्धि एवं राजसी ठाटबाट का सूचक नहीं बनाना चाहिए। चर्मच्छेदनक भी प्रातिहारिक रूप में गृहस्थ से किसी कार्य के लिए साधु लाता है; उपकरण के रूप में नहीं रखता।
'समणा भविस्सामो' आदि प्रतिज्ञा का पाठ सूत्रकृतांग में इसी क्रमपूर्वक मिलता है। इस प्रतिज्ञा को दोहरा कर साधु को अपनी अदत्तादान-विरमण की प्रतिज्ञा पर दृढ़ रह कर सर्वत्र अवग्रह ग्रहण करने की बात पर जोर दिया है।
__'अकिंचन' का तात्पर्य - चूर्णिकार ने अकिंचन का स्पष्टीकरण यों किया है- साधु द्रव्य से अपुत्र एवं धन-धान्यादि रहित है, भाव से क्रोधादि रहित है, इसलिए वह द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से अकिंचन- अपरिग्रही है। ३
'ओगिण्हेज पगिण्हेज' दोनों शब्दों के अर्थ में चूर्णिकार अन्तर बताते हैं- एक बार ग्रहण करना अवग्रहण है, बार-बार ग्रहण करना प्रग्रहण है। ४ अवग्रह-याचनाः विविध रूप
६०८.से आगंतारेसुवा५४ अणुवीइ उग्गहं जाएजा, जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समाहिट्ठाए ते उग्गहं अणुण्णवेज्जा–कामं खलु आउसो! अहालंदं अहापरिण्णायं वसामो, जाव आउसो; जाव आउसंतस्स उग्गहे, जाव साहम्मिया, एत्ताव ताव उग्गहं ओगिहिस्सामो, तेण परं विहरिस्सामो।
१. (क) आचा. वृत्ति पत्रांक ४०२ (ख) आचा. चूर्णि मू.पा. टि. पृ. २१९ २. तुलना कीजिए-"समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसू परदत्त्भोइणो भिक्खुणो पावं कम्म
नो करिस्सामो समुट्ठाए - सूत्रकृतांग २/१/२ ३. अकिंचणा-दव्वे अपुत्ता अपसू, भावे अकोहा- आचा. चूर्णि मू.पा. टि. पृ. २१९ ४. "ओगिण्हति एक्कासि, पगिण्हति पुणो पुणो'- आचा. चूर्णि मू. पा. टि. पृ. २१९ ५. 'आगंतारेसुवा' के आगे'४' का अंक सूत्र ४३२ के अनुसार "आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु
वा" पाठ का सूचक है। ६. चूर्णिकार के अनुसार पाठान्तर है -"इस्सरो, समधिट्ठाए।" अर्थ किया गया है-इस्सरो-राया भोइओ
जाव सामाइओ। समाधिट्ठाए-प्रभसंदिट्ठो गहवतिमादी। - ईश्वर का अर्थ है-राजा, ग्रामाध्यक्ष, ग्रामाध्यापक, स्वामी या मालिक आदि। समाधिष्ठाता का अर्थ है-स्वामी के द्वारा आदिष्ट या नियुक्त अधिकारी, गृहपति आदि।