Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
करे। ये और जितने भी इस प्रकार के अन्य व्यक्ति हों, उन्हें इस प्रकार की (सौम्य) भाषाओं से सम्बोधित करने पर वे कुपित नहीं होते। अतः इस प्रकार की निरवद्य-सौम्य भाषाओं का विचार करके साधु-साध्वी निर्दोष भाषा बोले।
५३५. साधु या साध्वी यद्यपि कई रूपों को देखते हैं, जैसे कि उन्नतस्थान या खेतों की क्यारियाँ, खाइयाँ या नगर के चारों ओर बनी नहरें, प्राकार (कोट), नगर के मुख्य द्वार, (तोरण), अर्गलाएँ, आगल फंसाने के स्थान, गड्ढे, गुफाएँ, कूटागार, प्रासाद, भूमिगृह (तहखाने), वृक्षागार, पर्वतगृह, चैत्ययुक्त वृक्ष, चैत्ययुक्त स्तूप, लोहा आदि के कारखाने, आयतन, देवालय, सभाएँ, प्याऊ, दुकानें, मालगोदाम, यानगृह, धर्मशालाएँ, चूने, दर्भ, वल्क के कारखाने, वन कर्मालय, कोयले, काष्ठ आदि के कारखाने, श्मशान-गृह, शान्तिकर्मगृह, गिरिगृह, गृहागृह, पर्वत शिखर पर बने भवन आदि; इनके विषय में ऐसा न कहे ; जैसे कि यह अच्छा बना है, भलीभाँति तैयार किया गया है, सुन्दर बना है, यह कल्याणकारी है, यह करने योग्य है; इस प्रकार की सावध यावत् जीवोपघातक भाषा न बोलें।
५३६. साधु या साध्वी यद्यपि कई रूपों को देखते हैं, जैसे कि खेतों की क्यारियाँ यावत् भवनगृह; तथापि (कहने का प्रयोजन हो तो) इस प्रकार कहें- जैसे कि यह आरम्भ से बना है सावद्यकृत है, या यह प्रयत्न-साध्य है, इसी प्रकार जो प्रसादगुण से युक्त हो, उसे प्रासादीय, जो देखने योग्य हो, उसे दर्शनीय, जो रूपवान हो, उसे अभिरूप, जो प्रतिरूप हो, उसे प्रतिरूप कहे। इस प्रकार विचारपूर्वक असावद्य यावत् जीवोपघात से रहित भाषा का प्रयोग करे।
५३७. साधु या साध्वी अशनादि चतुर्विध आहार को देखकर भी इस प्रकार न कहे जैसे कि यह आहारादि पदार्थ अच्छा बना है, या सुन्दर बना है, अच्छी तरह तैयार किया गया है, या कल्याणकारी है और अवश्य करने योग्य है। इस प्रकार की भाषा साधु या साध्वी सावद्य यावत् जीवोपघातक जानकर न बोले।
५३८. साधु या साध्वी मसालों आदि से तैयार किये हुए सुसंस्कृत आहार को देखकर इस प्रकार कह सकते हैं, जैसे कि यह आहारादि पदार्थ आरम्भ से बना है, सावद्यकृत है, प्रयत्नसाध्य है या भद्र अर्थात् आहार में प्रधान है, उत्कृष्ट है, रसिक (सरस) है, या मनोज्ञ है; इस प्रकार की असावद्य यावत् जीवोपघात से रहित भाषा का प्रयोग करे।
५३९. वह साधु या साध्वी परिपुष्ट शरीर वाले किसी मनुष्य, सांड, भैंसे, मृग, या पशु पक्षी, सर्प या जलचर अथवा किसी प्राणी को देखकर ऐसा न कहे कि वह स्थूल (मोटा) है, इसके शरीर में बहुत चर्बी - मेद है, यह गोलमटोल है, यह वध या वहन करने (बोझा ढोने) योग्य है, यह पकाने योग्य है। इस प्रकार की सावद्य यावत् जीवघातक भाषा का प्रयोग न करे।
५४०. संयमशील साधु या साध्वी परिपुष्ट शरीर वाले किसी मनुष्य, बैल, यावत् किसी भी विशालकाय प्राणी को देखकर ऐसे कह सकता है कि यह पुष्ट शरीर वाला है, उपचितकाय है,