Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
५८४. साधु या साध्वी सुन्दर वर्ण वाले वस्त्रों को विवर्ण (असुन्दर) न करे, तथा विवर्ण (असुन्दर) वस्त्रों को सुन्दर वर्ण वाले न करे । 'मैं दूसरा नया (सुन्दर) वस्त्र प्राप्त कर लूँगा', इस अभिप्राय से अपना पुराना वस्त्र किसी दूसरे साधु को न दे और न किसी से उधार वस्त्र ले, और न ही वस्त्र की परस्पर अदलाबदली करे । दूसरे साधु के पास जाकर ऐसा न कहे—'आयुष्मन् श्रमण! क्या तुम मेरे वस्त्र को धारण करना या पहनना चाहते हो?" इसके अतिरिक्त उस सुदृढ़ वस्त्र को टुकड़े-टुकड़े करके फेंके भी नहीं, साधु उसी प्रकार का वस्त्र धारण करे, जिसे गृहस्थ या अन्य व्यक्ति अमनोज्ञ (असुन्दर) समझे।
__ (वह साधु) मार्ग में सामने से आते हुए चोरों को देखकर उस वस्त्र की रक्षा के लिए चोरों से भयभीत होकर साधु उन्मार्ग से न जाए अपितु जीवन-मरण के प्रति हर्ष-शोक रहित, बाह्य लेश्या से मुक्त, एकत्वभाव में लीन होकर देह और वस्त्रादि का व्युत्सर्ग करके समाधिभाव में स्थिर रहे। इस प्रकार संयमपूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे।
५८५. ग्रामानुग्नम विचरण करते हुए साधु या साध्वी के मार्ग के बीच में अटवीवाला लम्बा मार्ग हो, और वह जाने के इस अटवीबहुल मार्ग में बहुत से चोर वस्त्र छीनने के लिए इकट्ठे होकर
आते हैं, तो साधु उनसे भयभीत होकर उन्मार्ग से न जाए, किन्तु देह और वस्त्रादि के प्रति अनासक्त यावत् समाधिभाव में स्थिर होकर संयमपूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे।
५८६. ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए साधु या साध्वी के मार्ग में चोर इकट्ठे होकर वस्त्रहरण, करने के लिये आ जाएं और कहें कि आयुष्मन् श्रमण! वह वस्त्र लाओ, हमारे हाथ में दे दो, या हमारे सामने रख दो, तो जैसे ईर्याऽध्ययन में वर्णन किया है, उसी प्रकार करे। इतना विशेष है कि यहाँ वस्त्र का अधिकार है।
विवेचन-नये वस्त्र के लोभ और वस्त्रग्रहण के भय से मुक्त हो— प्रस्तुत तीन सूत्रों में से प्रथम सूत्र में साधु को नये वस्त्र पाने के लोभ में पुराने वस्त्र को मलिन, विकृत एवं फाड़कर फेंकने, उधार दे देने, विनिमय करने या दूसरे साधु को दे देने का निषेध किया है, इसके उत्तरार्द्ध में तथा आगे दो सूत्रों में चोरों से डरकर विहारमार्ग बदलने, चोरों द्वारा वस्त्र लूटे जाने पर उनसे दीनतापूर्वक पुनः लेने की याचना करने का निषेध है। उस समय देहादि के प्रति अनासक्ति और समाधिभाव में स्थिरता रखने का भी निर्देश किया है। सभी स्थितियों में वस्त्र का उपयोग ममत्व, राग-द्वेष, लोभ और मोह से रहित होकर करने का शास्त्रकार का स्पष्ट आदेश है।
वण्णमंताई विवण्णाई करेजा- का तात्पर्य है - जो वस्त्र अच्छा है, अधिक पुराना नहीं है, उसे भद्दा बना देता है। २
१. आचारांग वृत्ति पृ० ३९८ के आधार पर २. आचारांग वृत्ति पृ० ३९८