Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
इसके अतिरिक्त मूलपाठ में भी यह बताया गया है कि वहाँ रहने वाले पशु-पक्षी डरेंगे, एक या अनेक प्रकार से त्रस्त होकर इधर-उधर भागेंगे, शरण ढूँढेंगे। भागते हुए पशु पक्षियों को कोई पकड़ कर मार भी सकता है।
चूर्णिकार कहते हैं—'चक्षु-लोलुपता के कारण साधु के ईर्यापथ-संयम में विघ्न पड़ेगा। वहाँ चरते हुए पशु-पक्षियों के चरने में भी अन्तराय पड़ेगा।'
. निशीथचूर्णि में भी बताया गया है—दो प्रकार के सरीसृप और तीन प्रकार के जलचर, स्थलचर, खेचर जीव अपने-अपने योग्य शरण ढूँढेंगे, जैसे जलचर जल में, स्थलचर बिल, पर्वत आदि में। साधु उन्हें अपनी भुजा, अंगुली आदि से डरा देता है जिससे वे अपना स्थान छोड़कर अन्यत्र भागते हैं, उनके चारा-दाना आदि में अन्तराय पड़ती है।
कूडागाराणि आदि पदों के अर्थ - कूडागाराणि - रहस्यमय गुप्तस्थान, अथवा पर्वत के कूट (शिखर) पर बने हुए गृह, दवियाणि-अटवी में घास के संग्रह के लिए बने हुए मकान, णूमाणि-भूमिगृह, वलयाणि-नदी आदि से वेष्टित भू भाग, गहणाणि-निर्जल प्रदेश, रन। गहणविदुग्गाणि-रन में सेना के छिपने के स्थान के कारण दुर्गम, वणविदुग्गाणिनाना जाति के वृक्षों के कारण दुर्गम स्थल, पव्वयदुग्गाणि अनेक पर्वतों के कारण दुर्गम प्रदेश, सरसरपंतियाणि-एक के बाद एक, यों अनेक सरोवरों की पंक्तियां। गुंजालियाओ-लम्बी गम्भीर टेढ़ीमेढ़ी जल की वापिकाएँ।
णिज्झाएजा—बार-बार या लगातार ताक-ताककर देखे। उत्तसेज वित्तसेज-थोड़ा त्रास दे, अनेक बार त्रास दे। २' आचार्यादि के साथ विहार में विनयविधि
५०६. से ३ भिक्खू वा २ आयरिय-उवज्झाएहिं सद्धिं गामाणुगामं दूइजमाणे णो
१. (क) आचा० टीका पत्र ३८२ (ख) निशीथचूर्णि में एक गाथा इस सम्बन्ध में मिलती है
दुविधा तिविधा य तसा भीता वाडसरणाणि कंखेजा। णोलेज्जा व तं वाणं, अन्तराए यजं चऽण्णं ॥ ४१२३ ॥
- निशीथचूर्णि उ० १२ पृ० ३४५ -त्रस दो या तीन प्रकार के होते हैं। वे भयभीत होकर वाड या शरण चाहेंगे। साधु उन्हें अन्य दिशा में प्रेरित न करे। ऐसा करके साधु चरते हुए पशु-पक्षियों के चारा-दाना खाने में अन्तराय डालता है। इसके
अतिरिक्त वे भागते हुए जो कुछ करते हैं, इसका कोई ठिकाना नहीं है। २. आचा० टीका पत्र ३८२ ३. चूर्णि में इस सूत्र का भावार्थ यों दिया है-'से भिक्खू वा २ आयरिय-उवज्झाएहिं समगं गच्छं नो हत्थादि
संघट्टेति।' अर्थात्-'साधु आचार्य-उपाध्यायों के साथ विहार करते हुए उनके हाथ आदि का स्पर्श न करे।