Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
५२७. संयमशील साधु या साध्वी किसी पुरुष को आमंत्रित कर रहे हों और आमंत्रित करने पर भी वह न सुने तो उसे इस प्रकार सम्बोधित करे हे अमुक भाई ! आयुष्मानो ! ओ श्रावकजी ! हे उपासक! धार्मिक ! या हे धर्मप्रिय ! इस प्रकार की भूतोपघातरहित भाषा विचारपूर्वक बोले ।
आयुष्मन् ! हे निरवद्य यावत्
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५२८. साधु या साध्वी किसी महिला को बुला रहे हों, बहुत आवाज देने पर भी वह न सुने. तो उसे ऐसे नीच सम्बोधनों से सम्बोधित न करे - अरी होली (मूर्खे) ! अरी गोली ! अरी वृषली (शूद्रे) ! हे कुपक्षे ( नीन्द्यजातीये) ! अरी घटदासी ! कुत्ती! अरी चोरटी ! हे गुप्तचरी ! अरी मायाविनी (धूर्ते) ! अरी झूठी ! ऐसी ही तू है और ऐसे ही तेरे माता-पिता हैं! विचारशील साधु-साध्वी इस प्रकार की सावद्य सक्रिय यावत् जीवोपघातिनी भाषा न बोलें ।
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५२९. साधु या साध्वी किसी महिला को आमंत्रित कर रहे हों, बहुत बुलाने पर भी वह न सुने तो उसे इस प्रकार सम्बोधित करे - आयुष्मती ! बहन ( भगिनी) ! भवती (अजी, आप या मुखियाइन ), भगवति ! श्राविके ! उपासिके ! धार्मिके ! धर्मप्रिये ! इस प्रकार की निरवद्य यावत् जीवोपघात-रहित भाषा विचारपूर्वक बोले ।
विवेचन — भाषा चतुष्टय : उसके विधि-निषेध और प्रयोग पिछले आठ सूत्रों में भाषा के चार प्रकार, उनके प्ररूपक, उनका स्वरूप, उनकी उत्पत्ति, चारों में से भाषणीय भाषा - द्वय किन्तु इन दोनों के भी सावद्य, सक्रिय, कर्कश, निष्ठर, कठोर, कटु, छेदन-भेदन - परिताप - उपद्रवकारी, आस्रवजनक, जीवोपघातक होने पर प्रयोग का निषेध और इनसे विपरीत असावद्य यावत् जीवों के लिए अविघातक भाषा के प्रयोग का विधान तथा नर-नारी को सम्बोधित करने में निषिद्ध और विहित भाषा का निरूपण किया गया है। संक्षेप में शास्त्रकार ने इन ७ सूत्रों में अनाचरणीय आचरणीय भाषा का समग्र विवेक बता दिया है । १
भाषा अभाषा ? 'पुव्वं भासा अभासा'
इत्यादि पाठ की व्याख्या वृत्तिकार इस प्रकार करते भाषावर्गणा के पुद्गल (द्रव्य) वाग्योग से निकलने से पूर्व भाषा नहीं कहलाते, बल्कि अभाषा रूप ही होते हैं, वाग्योग से भाषावर्गणा के पुद्गल जब निकल रहे हों, तभी वह भाषा बनती है, और कहलाती है। किन्तु भाषणोत्तरकाल में यानी भाषा ( बोलने) का समयं व्यतीत हो जाने पर शब्दों का प्रध्वंश हो जाने से बोली गई भाषा अभाषा हो जाती है। — " भाषा- जो उत्पन्न हुई है,' • भाषाजात शब्द का ऐसा अर्थ मानने पर ही इस सूत्र की संगति बैठती है। इस सूत्र से शब्द के प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव सूचित किए गये हैं, तथा यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि जब भाषा बोली जाएगी, यानी जब भी भाषा उत्पन्न होगी, तभी वह भाषा कहलाएगी। जो भाषा अभी उत्पन्न नहीं हुई है, या उत्पन्न होकर नष्ट हो चुकी है, वह भाषा नहीं कहलाती । अतः साधक द्वारा जो बोल १. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक ३८७, ३८८ के आधार पर
(ख) तुलना के लिए देखें - दशवैकालिक अ० ७, गा० १, २, ३
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