Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र ४६२
१६७ (५) शयनकाल या शय्या पर उठते-बैठते श्वासोच्छ्वास, खांसी, छींक, उबासी, डकार अपानवायुनिसर्ग आदि करने से पूर्व हाथ से उस स्थान को ढक कर रखे।
वृत्तिकार कहते हैं—एक साधु को दूसरे साधु से एक हाथ दूर सोना चाहिए।
'आएसेण' आदि पदों का अर्थ—आएसेण–पाहुना, अभ्यागत अतिथि, साधु । आसाएज्जा-संघट्टा करे, स्पर्श करे या टकराए। जंभायमाणे-उबासी -जम्हाई लेते हुए, उड्डोए डकार लेते समय, वातणिसग्गे–अधोवायु छोड़ते समय, आसयं—आस्य -मुख, पोसय—अधिष्ठान—मलद्वार—गुदा। शय्या समभाव
४६२. से भिक्खू वा २ समा वेगया सेज्जा भवेजा, विसमा वेगया सेज्जा भवेजा, पवाता वेगया सेज्जा भवेजा,णिवाता वेगया सेजा भवेजा, ससरक्खा वेगया सेज्जा भवेज्जा, अप्पसरक्खा वेगया सेज्जा भवेज्जा सदंस-मसगा वेगयासेज्जा भवेज्जा, अप्पदंस-मसगा वेगदा सेजा भवेज्जा सपरिसाडा वेगया सेजा भवेजा, अपरिसाडा वेगया सेजा भवेजा,सउवसग्गा वेगया सेजा भवेज्जा,णिरुवसग्गा वेगया सेज्जा भवेजा, तहप्पगाराइंसेजाहिं संविजमाणाहिं पग्गहिततरागं ५ विहारं विहरेजा। णो किंचि वि गिलाएजा। १. इस सूत्र का भावार्थ चूर्णि में इस प्रकार है- "सेज्जासंथारग-भूमिए गिझंतीए इमे आयरियगादि
एक्कारस मुतित्तु सेसाणं जहाराइणिया गणी अण्णगणाओ आयरिओ, गणधरो अजाणं वावारवाहत, एतेसिं विसेसो कप्पे, बालादीण य ट्ठाणा तत्थेव सम-विसम-पवाय-निवायाण य तत्रेव अंतो मुझे वा।" अर्थात् शय्या संस्तारक भूमि ग्रहण करते समय, बिछाते समय, आचार्य आदि इन ११ विविष्ट साधुओं को छोड़कर शेष मुनियों के लिए यथारत्नाधिक्रम से बिछाना चाहिए।गणी- अन्यगण से आया हुआ आचार्य, गणधर- आर्यों-साधुओं का प्रवृत्तिवाहक। इनका विशेष कल्प होता है। बाल आदि साधुओं के लिए
संस्तारक स्थान वहीं सम, विषम, प्रवात, निवात स्थान के अन्दर या बीच में होना चाहिए। २. आचारांग मूल एवं वृत्ति पत्रांक ३७३
३. (क) टीका सूत्र ३७३ (ख) आचारांग चूर्णि मू० पा० टिप्पणी पृ. १६८ (ग) पाइअ-सद्द-महण्णवो ४. 'वेगदा' पाठान्तर है। ५. चूर्णिकार ने पग्गहियतरं पाठान्तर मानकर उसका भावार्थ इस प्रकार किया है-"प्रवात-णिवायमादिसु
पसत्थासु सइंगाला अप्पसस्थासु सधूमा।"- प्रवात-निर्वात आदि का प्रशस्त शय्याओं पर राग होने से अंगारदोष से युक्त तथा अप्रशस्त शय्याओं पर द्वेष या घृणा होने से वे धूमदोष से युक्त बन जाती हैं। इसके स्थान पर वृत्तिकार एवं चूर्णिकार ने "णो किंचि वलाएजा" पाठान्तर मान्य करके व्याख्या की है-"वलादिणाम मातं करेति, कहँ? विसमदंस-मसगादिसु बाहिं अच्छति,अण्णत्थ वा।"वलादि का अर्थ है-माया करता है, कैसे? विषम-दंश, मच्छर आदि होने पर वह बाहर चला जाता है। वृत्तिकार अर्थ करते हैं-"न तत्र व्यलीकादिकं कुर्यात्।"-इस विषय में मन में बुरा चिन्तन न करे।