Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र ३५१-३५२
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अग्रपिण्ड ले जाया जाता दिख रहा है, कहीं वह बाँटा जाता दिख रहा है, (कहीं) अग्रपिण्ड का सेवन किया जाता दिख रहा है, कहीं वह फेंका या डाला जाता दृष्टिगोचर हो रहा है तथा पहले, अन्य श्रमण-ब्राह्मणादि (इस अग्रपिण्ड का) भोजन कर गए हैं एवं कुछ भिक्षाचर पहले इसे लेकर चले गए हैं, अथवा पहले (हम लेंगे, इस अभिप्राय से) यहाँ दूसरे श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र, याचक आदि (अग्रपिण्ड लेने)जल्दी-जल्दी आ रहे हैं, (यह देखकर) कोई साधु यह विचार करे कि मैं भी (इन्हीं की तरह) जल्दी-जल्दी (अग्रपिण्ड लेने) पहुँचूँ, तो (ऐसा करने वाला साधु) माया-स्थान का सेवन करता है। वह ऐसा न करे।
विवेचन-माया का सेवन-इस सूत्र में साधु को माया-सेवन से दूर रहने का निर्देश किया गया है। यह भी बताया गया है कि माया-सेव का सूत्रपात कैसे और कब सम्भव है? जब साधु यह देखता है कि गृहस्थ के यहाँ से अग्रपिण्ड निकाला जा रहा है, ले जाया जा रहा है, रखा जा रहा है, बाँटा जा रहा है और इधर-उधर फेंका जा रहा है, कुछ भिक्षाचर पहले ले गये हैं और दूसरे दबादब लेने आ रहे हैं, इसलिए मैं भी जल्दी-जल्दी वहाँ पहुँचूँ, अन्यथा मैं पीछे रह जाऊँगा, दूसरे भिक्षुक सब आहार ले जाएंगे। यह उसके माया-सेवन का कारण बनता है। उतावली और हड़बड़ी में जब वह चलेगा तो जीवों की विराधना भी सम्भव है और स्वादलोलुपता की वृद्धि भी। दशवैकालिक सूत्र में चलने की विधि बताते हुए कहा है कि "भिक्षु दबादब न चले, बहुत शान्ति से, अनुद्विग्न, असंभ्रान्त, अमूच्छित (अनासक्त), अव्यग्रचित से यतनापूर्वक धीरे-धीरे भिक्षा के लिए चले।" १
__ अग्गपिंड-अग्रपिण्ड वह है, जो भोजन तैयार होने के बाद दूसरे किसी को न देकर, या न खाने देकर उसमें से थोड़ा-थोड़ा अंश देवता आदि के लिए निकाला जाता है। उसी अग्रपिण्ड की यहाँ देवादि के निमत्त से होने वाली ६ प्रक्रियाएँ बताई गयी हैं
(१) देवता के लिए अग्रपिंड का निकालना। (२) अन्यत्र खाना । (३) देवालय आदि में ले जाना। (४) उसमें से प्रसाद बाँटना। (५) उस प्रसाद को खाना। (६) देवालय से चारों दिशाओं में फैंकना। इन प्रक्रियाओं के बाद वह अग्रपिण्ड विविध भिक्षाचरों को दिया जाता है, उसमें से कुछ लोग वहीं खा लेते हैं, कुछ लोग जैसे-तैसे—झपट कर ले लेते हैं और चले जाते हैं, कुछ लोग अग्रपिण्ड लेने के लिए उतावले कदमों से आते हैं। २
१. (क) टीका पत्र ३३६ के आधार पर (ख) संपत्ते भिक्खकालम्मि, असंभंतो अमच्छिओ।
इमेण कमजोगेण, भत्तपाणं गवेसए ॥१॥ से गामे वा नगरे वा, गोयरग्गणओ मुणी। चरे मंदमणुव्विगो, अव्विक्खित्तेण चेयसा ॥२॥ पुरओ जुगमायाए, पेहमाणो महिं चरे।
वजंतो बीयहरियाई, पाणे य दगमट्टियं ॥३॥ २. टीका पत्र ३३६
-दशवै० अ०५/उ०१