Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
४३७. इह खलु पाईणं वा, ४ संतेगइया सड्डा भवंति, तंजहा— गाहावती वा जाव कम्मकरीओ वा तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवति-जे इमे भवंति समणा भगवंतो सीलमंता जाव उवरता मेहुणाओ धम्माओ, णो खलु ऐतेसिं भयंताराणं कप्पति आधाकम्मिए उवस्सए वत्थए से जाणिमाणि अहं अप्पणो सयट्ठाए चेतियाई भवंति, तं जहा- आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा सव्वाणि ताणि समणाणं णिसिरामो, अवियाइं वयं पच्छा वऽप्पणो सयट्ठाए चेतेस्सामो, तंजहा - आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा।
___एतप्पगारं णिग्योसं सोच्चा णिसम्म जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा उवागच्छंति २ [त्ता] इतरातितरेहिं २ पाहुडेहिं २ वटुंति अयमाउसो! वजकिरिया यावि भवति।
४३८. इह खलु पाईणं वा ४४ संतेगतिया सड्डा भवंति, तेसिं च णं आयरगोयरे जाव ५ तं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण ६ जाव पगणिय ७२ समुद्दिस्स तत्थ २ अगरीहिं
१. अप्पणो सयट्ठाए की चूर्णिकृत व्याख्या- 'साहू सीलमंत त्ति काऊणं एते आहाकम्मम्मि ण वटुंति अप्पणो
सयट्टाए एतेसिं देमो अप्पणो अण्णाई करेमो।' - अर्थात् ये साधु शीलवान साधु-धर्म-मर्यादा में स्थित हैं। इसलिए ये आधाकादि दोष युक्त स्थान में नहीं रहते, अतः अपने निजी प्रयोजन के लिए मकान बनवा कर इन्हें देंगे, और अपने लिए दूसरा बनवा लेंगे। इतरातितरेहिं के बदले पाठान्तर मिलते हैं- 'इतराइतरेहिं इयरंतरेहिं, इतरातिरेहि। 'चूर्णिकार इसका भावार्थ करते हैं- 'कालातिक्कंता अणिभिक्कंता इमा वज्जा इतरा, एवं सेसा वि, इतरा इतरा अपसत्थरा इत्यर्थः। अर्थात्-कालातिक्रान्ता, अनभिक्कंता और यह वा इतरा है, इसी प्रकार शेष शय्या उत्तरोत्तर
इतना समझ लेना चाहिए। अर्थात् वे एक दूसरे से इतरा इतरा- अप्रशस्ततरा हैं। ३. पाहुडेहिं की व्याख्या चूर्णिकार के शब्दों में - पाहुडेहिं—पाहुडंति वा पहेणगं ति वा एगटुं। कस्य ?
कर्मबन्धस्य। निरतस्य पाहुडाई दुग्गतिपाहुडाइं च अप्पसत्था सेवणाए। एसा वज्जकिरिया। अर्थात् पाहुडं
और पहेणगं (वस्तु की भेंट) ये दोनों एकार्थक हैं, यानी एक ही अर्थ-प्रयोजन को सिद्ध करते हैं। किस अर्थ को? कर्मबन्ध के अर्थ को। सावध कर्म से विरत साधु के लिए (साधु के निमित्त बने हुए मकानों की भेंट) दुर्गति की भेंट है, क्योंकि इसके पीछे अप्रशस्तभावों का सेवन होता है। यह वर्ण्य
क्रिया है। ४. पाईणं वा के आगे '४' का अंक शेष तीनों दिशाओं का सूचक है। ५. यहाँ 'जाव' शब्द सू० ४३५ के अनुसार 'आयारगोयरे' से लेकर 'तं रोयमाणेहिं' तक का समग्र पाठ
समझना चाहिए। ६. समण-माहण के आगे 'जाव' शब्द सूत्र ४३५ के अनुसार 'पगणिय' तक समग्र पाठ का सूचक है। ७. पगणिय आदि के बाद '२' का अंक सर्वत्र उसी शब्द की पुनरावृत्ति का सूचक है।