Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
प्रकार के निर्ग्रन्थ श्रमण वर्ग के उद्देश्य से लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि मकान जहाँ-तहाँ बनवाए हैं। उन मकानों का निर्माण पृथ्वीकाय के महान् समारम्भ से यावत् त्रसकाय के महान् संरम्भ-समारम्भ और आरंभ से तथा नाना प्रकार के महान् पापकर्मजनक कृत्यों से हुआ है जैसे कि साधु वर्ग के लिए मकान पर छत आदि डाली गई है, उसे लीपा गया है, संस्तारक कक्ष को सम बनाया गया है, द्वार के ढक्कन लगाया गया है, इन कार्यों में शीतल सचित्त पानी पहले ही डाला गया है, (शीतनिवारणार्थ-) अग्नि भी पहले प्रज्वलित की गयी है। जो निर्ग्रन्थ श्रमण उस प्रकार के आरम्भ-निर्मित लोहकारशाला आदि मकानों में आकर रहते हैं, भेंट रूप में प्रदत्त छोटे-बड़े गृहों में ठहरते हैं, वे द्विपक्ष (द्रव्य से साधुरूप और भाव से गृहस्थरूप) कर्म का सेवन करते हैं। आयुष्मन्! (उन श्रमणों के लिए ) यह शय्या महासावधक्रिया से युक्त होती है।
४४१. इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में कतिपय गृहपति यावत् नौकरानियाँ श्रद्धालु व्यक्ति हैं । वे साधुओं के आचार-व्यवहार के विषय में सुन चुके हैं, वे साधुओं के प्रति श्रद्धा, प्रतीति और रुचि से प्रेरित भी हैं, किन्तु उन्होंने अपने निजी प्रयोजन के लिए यत्र-तत्र मकान बनवाए हैं, जैसे कि लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि। उनका निर्माण पृथ्वीकाय के यावत् त्रसकाय के महान् संरम्भ-समारम्भ एवं आरम्भ से तथा नानाप्रकार के पापकर्मजनक कृत्यों से हुआ है। जैसे कि छत डालने-लीपने, संस्तारक कक्ष सम करने तथा द्वार का ढक्कन बनाने में पहले सचित्त पानी डाला गया है, अग्नि भी प्रज्वलित की गई है। जो पूज्य निर्ग्रन्थ श्रमण उस प्रकार के (गृहस्थ द्वारा अपने लिए निर्मित) लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि वासस्थानों में आकर रहते हैं, अन्यान्य प्रशस्त उपहाररूप पदार्थों का उपयोग करते हैं वे एकपक्ष (भाव से साधुरूप) कर्म का सेवन करते हैं । हे आयुष्मन् ! (उन श्रमणों के लिए ) यह शय्या अल्पसावधक्रिया (निर्दोष) रूप होती है।
विवेचन–नौ प्रकार की शय्याएँ : कौन सी अग्राह्य कौन सी ग्राह्य?- सूत्र ४३२ से लेकर ४४१ तक नौ प्रकार की शय्याओं का प्रतिपादन करके शास्त्रकार ने प्रत्येक प्रकार की शय्या के गुण-दोषों का विवेक भी बता दिया है। बृहत्कल्पभाष्य में भी शय्याविधिद्वार में इन्हीं नौ प्रकार की शय्याओं का विस्तार से निरूपण किया है
कालातिक्कंतोवट्ठाण-अभिकंत-अणभिकंता य।
वजा य महावज्जा सावज महऽप्पकिरिया य॥ अर्थात - शय्या नौ प्रकार की होती है, जैसे कि-(१) कालातिक्रान्ता, (२) उपस्थाना, (३) अभिक्रान्ता, (४) अनभिक्रान्ता, (५) वा, (६) महावा, (७) सावद्या, (८) महासावद्या और (९) अल्पक्रिया।
भाष्यकार एवं वृत्तिकार ने वहाँ प्रत्येक का लक्षण देकर विस्तृत वर्णन दिया है जो इस प्रकार है
(१) कालातिक्रान्ता – वह शय्या है, जहाँ साधु ऋतुबद्ध (मासकल्प-शेष ) काल