Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र ४४७-४५४ विषयक वार्तालाप करती हों, गुप्त मंत्रणा करती हों।
(८) जिसकी दीवारों पर पुरुष-स्त्रियों के, विशेषतः स्त्रियों के चित्र हों।
... मज्झमझेण गंतुं वत्थए पडिबद्धं' इस पंक्ति में 'वत्थए' के बदले 'पंथए' पाठ मानकर वृत्तिकार इसकी व्याख्या करते हैं - जिस उपाश्रय का मार्ग गृहस्थ के घर के मध्य में से होकर है, वहाँ बहुत-से अनर्थों की सम्भावना के कारण नहीं रहना चाहिए। किन्तु बृहत्कल्पसूत्र में इससे सम्बद्ध दो पाठ हैं, उनमें 'वत्थए' पद हैं । 'नो कप्पइ निग्गंथाणं पडिबद्धसेजाए वत्थए,' 'नो कप्पइ निग्गंथाणं गाहावइकुलस्समझमझेणगंतुंवत्थए।' प्रथम सूत्र में है 'जिस उपाश्रय में गृहस्थ का घर अत्यन्त निकट हो, दीवालें आदि लगी हुई हों उस उपाश्रय से रहना नहीं कल्पता', दूसरे में है --गृहस्थों के घर में से होकर जिस उपाश्रय में निर्गमन-प्रवेश किया जाता है, उसमें रहना नहीं कल्पता। बृहत्कल्पसूत्र' के अनुसार प्रस्तुत सूत्र में भी ये दोनों अर्थ प्रतिफलित होते हैं।
'इह खलु ....' पदों का सूत्र ४४४ से ४५३ तक प्रयोग किया गया है। इनका तात्पर्य वृत्तिकार ने इस प्रकार बताया है - 'यत्रप्रातिवेशिकाः' जहाँ पड़ौसी स्त्री-पुरुष ......... | आचारांगअर्थागम में इसका अर्थ किया गया -'जिस उपाश्रय - बस्ती में ..... ।' यही अर्थ उचित भी प्रतीत होता है। जहाँ उपाश्रय के निकट ये कार्य होते हों, वहाँ से साधु का जाना-आना या स्वाध्याय करना चित्त-विक्षेप या कामोत्तेजना होने से कथमपि उचित नहीं कहा जा सकता और न ही ऐसे मकानों के पड़ोस में निवास किया जा सकता है।
'णिगिणाठिता ...' इत्यादि वाक्य का भावार्थ चूर्णिकार तथा वृत्तिकार के अनुसार यों है- 'स्त्रियाँ और पुरुष नग्न खड़े रहते हैं, स्त्रियाँ नग्न ही प्रच्छन्न खड़ी रहती हैं, मैथुन-धर्म के । सम्बन्ध में अविरति गृहस्थ या साधु को कहती हैं, रहस्यमयी मैथुन सम्बन्धी या मैथुन-धर्म विषयक रात्रि-सम्भोग के विषय में परस्पर कुछ बातें करती हैं, अथवा अन्य गुप्त अकार्य सम्बद्ध रहस्य की मंत्रणा करती हैं । इस प्रकार के पड़ोस वाले उपाश्रय में कायोत्सर्ग आदि कार्य नहीं करने चाहिए।' ४
१. आचारांग मूल तथा वृत्ति पत्रांक ३७०-३७१ के आधार पर २. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक ३७१
(ख) बृहत्कल्पसूत्र मूल तथा वृत्ति १/३०, १/३२ पृष्ठ ७३७, ७३८
(ग) कप्पसुत्तं (विवेचन) मुनि कन्हैयालाल जी 'कमल' १/३२-३४ पृष्ठ १८-१९ ३. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक ३७१ (ख) अर्थागम भाग १ पृष्ठ ११२ ४. (क) आचारांग चूर्णि मूलपाठ टिप्पण पृ० १५४ - 'णिगिणा णग्गाओ ठ्ठियाओ अच्छंति, णिगिणा तो
उवलिजंति, मेहुणधम्म विन्नेवेंति - ओभासंति अविरतगं साहुं वा, रधस्सितं - मेहुणपत्तियं चेव अन्नं वा किंचि गुहं ।' (ख) आचारांग सूत्र वृत्ति पत्रांक ३७१.