Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
क्रियाओं के योग्य उपाश्रय मिलना कठिन है, क्योंकि] कई साधु विहार चर्या-परायण हैं, कई कायोत्सर्ग करने वाले हैं, कई स्वाध्यायरत हैं. कई साध (वद्ध, रोगी, अशक्त आदि के लिए) शय्या संस्तारक एवं पिण्डपात (आहार-पानी) की गवेषणा में रत रहते हैं। इस प्रकार संयम या मोक्ष का पथ स्वीकार किये हुए कितने ही सरल एवं निष्कपट साधु माया न करते हुए उपाश्रय के यथावस्थित गुण-दोष (गृहस्थों को ) बतला देते हैं।
कई गृहस्थ (इस प्रकार की छलना करते हैं), वे पहले से साधु को दान देने के लिए उपाश्रय बनवा कर रख लेते हैं, फिर छलपूर्वक कहते हैं - "यह मकान हमने चरक आदि परिव्राजकों के लिए रख छोड़ा है, या यह मकान, हमने पहले से अपने लिए बना कर रख छोड़ा है, अथवा पहले से यह मकान भाई-भतीजों को देने के लिए रखा है, दूसरों ने भी पहले इस मकान का उपयोग कर लिया है, नापसन्द होने के कारण बहुत पहले से हमने इस मकान को खाली छोड़ रखा है। पूर्णतया निर्दोष होने के कारण आप इस मकान (उपाश्रय) का उपयोग कर सकते हैं।" विचक्षण साधु इस प्रकार के छल को सम्यक्तया जानकर दोषयुक्त मालूम होने पर उस उपाश्रय में न ठहरे।
(शिष्य पूछता है-) "गृहस्थों के पूछने पर जो साधु इस प्रकार उपाश्रय के गुण-दोषों को सम्यक् प्रकार से बतला देता है, क्या वह सम्यक् कहता है।"
(शास्त्रकार उत्तर देते हैं-) 'हाँ, वह सम्यक् कथन करता है।'
विवेचन- उपाश्रय-गवेषणा में छला न जाए - इस सूत्र में सरलप्रकृति भद्र साधु । को उपाश्रय गवेषणा के सम्बन्ध में होने वाली छलना से सावधान रहने का निर्देश किया है।
वृत्तिकार ने इस सूत्र की भूमिका के रूप में साधु और गृहस्थ का संवाद योजित किया हैकदाचित ग्राम में भिक्षा के लिए या उपाश्रय के अन्वेषणार्थ किसी साधु को गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होते देख कोई श्रद्धालु भद्र गृहस्थ यह कहे कि "भगवन् ! यहाँ आहार-पानी की सुलभता है, अतः आप किसी उपाश्रय की याचना करके यहीं रहने की कृपा करें।" इसके उत्तर में साधु यह कहता है- "यहाँ प्रासुक आहार पानी मिलना तो दुर्लभ नहीं है, किन्तु जहाँ आहार पानी का उपयोग किया जाए ऐसा प्रासुक (आधाकर्म आदि दोषों से रहित) उंछ (छादन-लेपनादि उत्तरगुण-दोष रहित) तथा एषणीय (मूलोत्तर-गुण-दोष रहित) उपाश्रय मिलना दुर्लभ है।"
मूलोत्तर-गुण विशुद्ध उपाश्रय (शय्या)- वृत्तिकार ने (१) मूलगुण-विशुद्ध, (२) उत्तरगुण-विशुद्ध एवं (३) मूलोत्तरगुण-विशुद्ध यों तीनों प्रकार की वसति (उपाश्रय ) की व्याख्या इस प्रकार की है
पट्टी वंसो दो धारणाओ चत्तारि मूलवेलीओ। मूलगुणेहिं विसुद्धा एसा आहागडा वसही॥१॥