Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र -
आसणाणि वा जाव गिहाणि वा उवागच्छंति इतराइतरेहिं पाहुडेहिं एगपक्खं ते कम्मं सेवंति, अयमाउसो ! अप्पसावज्जकिरिया यावि भवति ।
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४३२. पथिकशालाओं में, उद्यान में निर्मित विश्रामगृहों में, गृहस्थ के घरों में, या तापसों मठों आदि में जहाँ ( — अन्य सम्प्रदाय के) साधु बार-बार आते-जाते (ठहरते) हों, वहाँ निर्ग्रन्थ साधुओं को मासकल्प आदि नहीं करना चाहिए।
४३३. हे आयुष्मन् ! जिन पथिकशाला आदि में साधु भगवन्तों ने ऋतुबद्ध मासकल्प – (शेषकाल) या वर्षावास कल्प (चातुर्मास ) बिताया है, उन्हीं स्थानों में अगर वे बिना कारण पुन: पुन: निवास करते हैं, तो उनकी वह शय्या ( वसति - स्थान ) कालातिक्रान्त क्रिया - दोष से युक्त हो जाती है ।
४३४. हे आयुष्मन् ! जिन पथिकशालाओं आदि में, जिन साधु भगवन्तों ने ऋतुबद्ध कल्प या वर्षावासकल्प बिताया है, उससे दुगुना - दुगुना काल (मासादिकल्प का समय) अन्यंत्र बिताये बिना पुन: उन्हीं (पथिकशालाओं आदि) में आकर ठहर जाते हैं तो उनकी वह शय्या (निवास स्थान) उपस्थान-क्रिया दोष से युक्त हो जाती है।
४३५. आयुष्मन ! इस संसार में पूर्व, पश्चिम, दक्षिण अथवा उत्तर दिशा में कई श्रद्धालु ( भावुक भक्त होते हैं) जैसे कि गृहस्वामी, गृहपत्नी, उसकी पुत्र-पुत्रियाँ, पुत्रवधुएँ, धायमाताएँ, दास-दासियाँ या नौकर - नौकरानियाँ आदि; उन्होंने निर्ग्रन्थ साधुओं के आचार-व्यवहार के विषय में तो सम्यक्तया नहीं सुना है, किन्तु उन्होंने यह सुन रखा है कि साधु-महात्माओं को निवास के लिए स्थान आदि का दान देने से स्वर्गादि फल मिलता है। इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति एवं अभिरुचि रखते हुए उन गृहस्थों ने ( अपने-अपने ग्राम या नगर में ) बहुत से शाक्यादि श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथि- दरिद्रों और भिखारियों आदि के उद्देश्य से विशाल मकान बनवा दिये हैं। जैसे कि लुहार आदि की शालाएँ, देवालय की पार्श्ववर्ती धर्मशालाएँ, सभाएँ, प्रपाएँ (प्याऊ) दुकानें, मालगोदाम, यानगृह, रथादि बनाने के कारखाने, चूने के कारखाने, दर्भ, चर्म एवं वल्कल (छाल) के कारखाने, कोयले के कारखाने, काष्ठ - कर्मशाला, श्मशान भूमि में बने हुए घर, पर्वत पर बने हुए मकान, पर्वत की गुफा से निर्मित आवासगृह, शान्तिकर्मगृह, पाषाण मण्डल, (या भूमिगृह आदि) उस प्रकार के लुहारशाला से लेकर भूमिगृह आदि तक के गृहस्थ निर्मित आवासस्थानों में, (जहाँ कि शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण आदि पहले ठहरे हुए हैं, उन्हीं में, बाद में) निर्ग्रन्थ आकर ठहरते हैं, तो वह शय्या अभिक्रान्तक्रिया से युक्त हो जाती है ।
४३६. हे आयुष्मन् ! इस संसार में पूर्वादि दिशाओं में अनेक श्रद्धालु (भक्त) होते हैं, जैसे कि गृहपति यावत् उसके नौकर - नौकरानियाँ आदि । निर्ग्रन्थ साधुओं के आचार विचार से अनभिज्ञ इन लोगों ने श्रद्धा, प्रतीति और अभिरुचि से प्रेरित होकर बहुत से श्रमण, ब्राह्मण आदि के उद्देश्य से विशाल मकान बनवाए हैं, जैसे कि लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि । ऐसे