Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : सप्तम उद्देशक : सूत्र ३६८
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वह भिक्षु या भिक्षुणी यदि - यह जाने कि अशनादि आहार अग्निकाय (आग या आँच) पर रखा हुआ है, तो ऐसे आहार को अप्रासुक तथा अनेषणीय जान कर ग्रहण न करे।
केवली भगवान् कहते हैं- यह कर्मों के उपादान का कारण है, क्योंकि असंयत गृहस्थ साधु के उद्देश्य से-अग्नि जलाकर, हवा देकर, विशेष प्रज्वलित करके या प्रज्वलित आग में से ईन्धन निकाल कर, आग पर रखे हुए बर्तन को उतार कर, आहार लाकर दे देगा, इसीलिए तीर्थंकर भगवान् ने साधु-साध्वी के लिए पहले से बताया है, यही उनकी प्रतिज्ञा है, यही हेतु है यही कारण है और यही उपदेश है कि वे सचित्त-पृथ्वी, जल, अग्नि आदि पर प्रतिष्ठित आहार को अप्रासुक और अनेषणीय मानकर प्राप्त होने पर ग्रहण न करे।
गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी को यह ज्ञात हो जाए कि साधु को देने के लिए यह अत्यन्त उष्ण आहार असंयत गृहस्थ सूप - (छाजले) से, पँखे से, ताड़पत्र, खजूर आदि के पत्ते, शाखा, शाखाखण्ड से, मोर के पंख से अथवा उससे बने हुए पंखे से, वस्त्र से, वस्त्र के पल्ले से, हाथ से या मुँह से फंक मार कर पंखे आदि से हवा करके ठंडा करके देनेवाला है। वह पहले (देखते ही) विचार करे और उक्त गृहस्थ से कहे-आयुष्मन् गृहस्थ! या आयुष्मती भगिनी! तुम इस अत्यन्त गर्म आहार को सूप, पँखे ..... हाथ-मुँह आदि से फूंक मत मारो और न ही हवा करके ठंडा करो। अगर तुम्हारी इच्छा इस आहार को देने की हो तो, ऐसे ही दे दो। इस पर भी वह गृहस्थ न माने और उस अत्युष्ण आहार को सूप, पंखे आदि से हवा देकर ठण्डा करके देने लगे तो उस आहार को अप्रासुक और अनेषणीय समझ कर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे।
गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यह जाने कि यह अशनादि चतुर्विध आहार वनस्पतिकाय (हरी सब्जी, पत्ते आदि) पर रखा हुआ है तो उस प्रकार के वनस्पतिकाय प्रतिष्ठित आहार (चतुर्विध) को अप्रासुक और अनेषणीय जानकर प्राप्त होने पर न ले।
इसी प्रकार त्रसकाय से प्रतिष्ठित आहार हो तो उसे भी अप्रासुक एवं अनेषणीय मानकर ग्रहण न करे।
विवेचन-षट्कायिक जीव-प्रतिष्ठित आहार ग्रहण न करे- इस सूत्र में पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय; यों पाँच एकेन्द्रिय जीवों और त्रसकाय (द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के) जीवों के ऊपर रखा हुआ या.उनसे संसृष्ट आहार हो तो उसे ग्रहण करने का निषेध किया गया है।
। कई बार ऐसा होता है कि आहार अचित्त और प्रासुक होता है, किन्तु उस आहार पर या आहार के बर्तन के नीचे या आहार के अन्दर कच्चा पानी, सचित्त नमक आदि, हरी वनस्पति या बीज आदि स्थित हो, अग्नि का स्पर्श हो (आग से बार-बार बर्तन को उतारा रखा जा रहा हो) या फूंक मारकर अथवा पंखे आदि से हवा की जा रही हो अथवा उस आहार में- पानी में धनेरिया, चींटी, लट, मक्खी, फुआरे आदि जीव पड़े हों, या साँप, बिच्छू, आदि आहार के बर्तन के