Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
काले अणुपविसेज्जा १, २ [त्ता ] तत्थितरातिरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं एसित्ता आहारं आहारेज्जा ।
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३९२. अह २ सिया से परो कालेण अणुपविट्ठस्स आधाकम्मियं असणं वा ४ उवकरेज्न वा उवक्खडेज्ज वा । तं चेगतिओ तुसिणीओ उवहेज्जा, आहडमेयं ३ पच्चाइक्खिस्सामि । मातिट्ठाणं संफासे । णो एवं करेज्जा। से पुव्वामेव आलोएज्जा - आउसो ति वा भइणी ति वा णो खलु मे कप्पति आहाकम्मियं असणं वा ४ भोत्तए वा पायए वा, मा उवकरेहिं, मा उवक्खडेहिं ।
से सेवं वदंतस्स परो आहाकम्मियं असणं वा ४ उवक्खडेत्ता आहट्ट दलएज्जा । तहप्पगारं असणं वा ४ अफासुर्य लाभे संते णो पडिगाहेज्जा ।
३८२. यहाँ (जगत में) पूर्व में, पश्चिम में, दक्षिण में या उत्तर दिशा में कई सद्गृहस्थ, उनकी गृहपत्नियाँ, उनके पुत्र-पुत्री, उनकी पुत्रवधू, उनकी दास-दासी, नौकर - नौकरानियाँ होते हैं, वे बहुत श्रद्धावान् होते हैं और परस्पर मिलने पर इस प्रकार बातें करते हैं — ये पूज्य श्रमण भगवान् शीलवान, व्रतनिष्ठ, गुणवान्, संयमी, आस्रवों के निरोधक, ब्रह्मचारी एवं मैथुन कर्म से निवृत होते हैं। आधाकर्मिक अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य खाना-पीना इन्हें कल्पनीय नहीं है। अतः हमने अपने लिए जो आहार बनाया है, वह सब हम इन श्रमणों को दे देंगे, और हम अपने लिए बाद में अशनादि चतुर्विध आहार बना लेंगे।"
उनके इस प्रकार के वार्तालाप को सुनकर तथा ( दूसरों से ) जानकर साधु या साध्वी इस प्रकार के ( आधाकर्मिक आदि दोषयुक्त) अशनादि चतुर्विध आहार को अप्रासुक और अनेषणीय मानकर मिलने पर ग्रहण न करे ।
३९१. शारीरिक अस्वस्थता तथा वृद्धावस्था के कारण एक ही स्थान पर स्थिरवास करने वाले या ग्रामानुग्राम विचरण करने वाले साधु या साध्वी किसी ग्राम में यावत् राजधानी में भिक्षाचर्या के लिए जब गृहस्थों के यहाँ जाने लगें, तब यदि वे यह जान जाएं कि इस गाँव में यावत् राजधानी में किसी (अमुक) भिक्षु के पूर्व परिचित (माता-पिता आदि सम्बन्धीजन) या पश्चात् - परिचित सास-ससुर आदि - गृहस्थ, गृहस्थपत्नी, उसके पुत्र-पुत्री, पुत्रवधू, दास-दासी, नौकर-नौकरानियाँ आदि श्रद्धालुजन रहते हैं तो इस प्रकार के घरों में भिक्षाकाल से पूर्व आहार- पानी के लिए जाएआए नहीं ।
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१. यहाँ ' २' का चिह्न 'अणुपविसित्ता' का सूचक है।
२. इस वाक्य का चूर्णिमान्य पाठान्तर इस प्रकार है— अह से काले पविट्ठस्स वि उवक्खडिज्जा । अर्थात्— यदि भिक्षाकाल में प्रविष्ट होने पर भी वह भोजन तैयार करे।
३. आहडमेयं पच्चाइक्खिस्सामि के स्थान पर पाठान्तर मानकर चूर्णिकार अर्थ करते हैं- आहूतं पडियाइक्खिस्सं— अर्थात् गृहस्थ को पास में बुला कर मना कर दूँगा ।