Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : दशम उद्देशक : सूत्र ३९९-४०१
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असाधारण आहार प्राप्त होने पर भी आहार को लेकर गुरुजनादि के पास जाए; वहाँ जाते ही सर्वप्रथम इस प्रकार कहे - "आयुष्मन् श्रमणो! यहाँ मेरे पूर्व-परिचित (जिनसे दीक्षा अंगीकार की है) तथा पश्चात्-परिचित (जिनसे श्रुताभ्यास किया है), जैसे कि आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर (गच्छ प्रमुख) या गणावच्छेदक आदि, अगर आपकी अनुमति हो तो मैं इन्हें पर्याप्त आहार दूं।" उसके इस प्रकार कहने पर यदि गुरुजनादि कहें – 'आयुष्मन् श्रमण! तुम अपनी इच्छानुसार उन्हें यथापर्याप्त आहार दे दो।' ऐसी स्थिति में वह साधु जितना-जितना वे कहें, उतना-उतना आहार उन्हें दे दे। यदि वे कहें कि 'सारा आहार दे दो', तो सारा का सारा दे दे।
४००. यदि कोई भिक्ष भिक्षा में सरस स्वादिष्ट आहार प्राप्त करके उसे नीरस तच्छ आहार से ढक कर छिपा देता है, ताकि आचार्य, उपाध्याय, यावत् गणावच्छेदक आदि मेरे प्रिय व श्रेष्ठ इस आहार को देखकर स्वयं न ले लें.मझे इसमें से किसी को कुछ भी नहीं देना है। ऐसा करने वाला साधु मायास्थान का स्पर्श करता है। साधु को ऐसा छल-कपट नहीं करना चाहिए।
वह साधु उस आहार को लेकर आचार्य आदि के पास जाए और वहाँ जाते ही सबसे पहले झोली खोल कर पात्र को हाथ में ऊपर उठा कर 'इस पात्र में यह है, इसमें यह है', इस प्रकार एकएक पदार्थ उन्हें बता दे। कोई भी पदार्थ जरा-सा भी न छिपाए।
४०१. यदि कोई भिक्षु गृहस्थ के घर से प्राप्त भोजन को लेकर मार्ग में ही कहीं, सरस-सरस आहार को स्वयं खाकर शेष बचे तुच्छ एवं नीरस आहार को उपाश्रय में आचार्यादि के पास लाता है, तो ऐसा करने वाला साधु मायास्थान का सेवन करता है। साधु को ऐसा नहीं करना चाहिए।
विवेचन - स्वाद-लोलुपता और प्रच्छन्नता - साधु-जीवन में जरा-सी भी माया अनेक दोषों, यहाँ तक कि सत्य, अहिंसा और अस्तेय, इन तीन महाव्रतों का ध्वंस कर देती है, क्योंकि ऐसा साधक मायावश वास्तविकता को छिपाता है, इससे सत्य महाव्रत को आंच आती है, तथा मायावश महान् रत्नाधिकों को न बताकर छिप-छिप कर सरस आहार स्वयं खा जाता है, इससे अचौर्य महाव्रत भंग होता है, तथा मायावश प्रासुक, एषणीय एवं कल्पनीय का विचार न करके जैसातैसा दोषयुक्त आहार ले आता है तो अहिंसा-महाव्रत भी खण्डित हो जाता है। आहार-वितरण में पक्षपात करता है तो समता का भी नाश हो जाता है। साथ ही स्वाद-लोलपता भी बढती जाती है।
इन तीनों सूत्रों में स्वादलोलुपता और माया से बचने का स्पष्ट निर्देश किया गया है। इन तीन सूत्रों में माया-दोष के तीन कारणों की सम्भावना का चित्रण प्रस्तुत किया गया है -
(१) आहार-वितरण के समय पक्षपात करने से, (२) सरस आहार को नीरस आहार से दबा कर रखने से, (३) भिक्षा-प्राप्त सरस आहार को उपाश्रय में लाए बिना बीच में ही कहीं खा लेने से
१. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक ३५३ के आधार पर, (ख) दशवै. ५/२/३१-३२, ३४, ३५ २. तुलना कीजिए-सिया एगइओलद्धं विविहं पाणभोयणं।
भद्दगं भद्दगं भोच्चा विवण्णं विरसमाहरे॥ -दशवै.५/२/३३