Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र -द्वितीय श्रुतस्कन्ध
भिक्षु के इस प्रकार कहने पर भी वह गृहस्थ अपने बर्तन में से उपर्युक्त फल लाकर देने लगे तो जब उसी गृहस्थ के हाथ या पात्र में वह हो तभी उस प्रकार के फल को अप्रासुक और अनेषणीय मानकर लेने से मना कर दे - प्राप्त होने पर भी न ले। इतने पर भी वह गृहस्थ हठात् – बलात् साधु के पात्र में डाल दे तो फिर न तो हाँ-हूँ कहे, न धिक्कार कहे और न ही अन्यथा (भला-बुरा) कहे, किन्तु उस आहार को लेकर एकान्त में चला जाए। वहाँ जाकर जीव-जन्तु, काई, लीलण-फूलण, गीली मिट्टी, मकड़ी के जाले आदि से रहित किसी निरवद्य उद्यान में या उपाश्रय में बैठकर उक्त फल के खाने योग्य सार भाग का उपभोग करे और फेंकने योग्य बीज, गुठलियों एवं कांटों को लेकर वह एकान्त स्थल में चला जाए, वहाँ दग्ध भूमि पर, या अस्थि राशि पर अथवा लोहादि के कूड़े पर, भूसे के ढेर पर, सूखे गोबर के ढेर पर या ऐसी ही किसी प्रासुक भूभि पर प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके उन्हें परठ (डाल) दे।
विवेचन- अग्राह्य आहार : खाने योग्य कम, फेंकने योग्य अधिक - सू. ४०२ से ४०४ में ऐसे आहार का उल्लेख किया गया है, जिसमें स्वयं पक जाने पर भी या अग्नि से शस्त्र-परिणत हो जाने पर भी खाने योग्य भाग अल्प रहता है और फेंकने योग्य भाग बहत अधिक रहता है। इसलिए ऐसा आहार प्रासुक होने पर भी अनेषणीय और अग्राह्य है। कदाचित् गृहस्थ ऐसा बहु-उज्झितधर्मी आहार देने लगे तो साधु को उसे स्पष्ट कह देना चाहिए कि ऐसा आहार लेना मेरे लिए कल्पनीय नहीं है। कदाचित् भावुकतावश हठात् कोई गृहस्थ साधु के पात्र. में वैसा आहार डाल दे तो उसे उक्त गृहस्थ को कुछ भी उपालम्भ या दोष दिये बिना चुपचाप . एकान्त में जाकर उसमें से सार भाग का उपभोग करके फेंकने योग्य भाग को अलग निकाल कर एकान्त निरवद्य जीव जीन्तु-रहित स्थान देखभाल एवं साफ करके वहाँ डाल देना चाहिए। ऐसे बहु-उज्झितधर्मी आहार में यहाँ चार प्रकार के पदार्थ बताए हैं - (१) ईख के टुकड़े
और उसके विविध अवयव, (२) मूंग, मोठ, चौले आदि की हरी फलियाँ, (३) ऐसे फल जिनमें बीज और गुठलियाँ बहुत हों - जैसे तरबूज, ककड़ी, सीताफल, पपीता, नीबू, बेल, अनार, आदि (४) ऐसे फल जिसमें कांटे अधिक हों, जैसे अनन्नास आदि।
आचारांग चूर्णिकार और वृत्तिकार ' दोनों इस सूत्र की व्याख्या साधारणत: मांस-मत्स्यपरक करते हैं।
१. मूल सूत्र में 'बहु अट्ठियं मंसं मच्छं वा बहुकंटगं' इन पदों को देख कर सहसा यह भ्रम हो जाता है
कि क्या जैन साधु, जो षट्काय के रक्षक हैं, पंचेन्द्रिय-वध से निष्पन्न तथा नरक-गमन के कारण मांस और मत्स्य का ग्रहण और सेवन कर सकते हैं? भले ही वह अग्नि में पका हुआ हो, संस्कारित हो?
चूर्णिकार ने भी इस विषय में कोई समाधान नहीं दिया, अगर प्राचीन परम्परा के अनुसार कुछ समाधान दिया भी हो तो आज वह उपलब्ध नहीं है, लेकिन वृत्तिकार इसे आपवादिक सूत्र मानकर कहते हैं - 'इस प्रकार मांस सूत्र भी समझ लेना चाहिए। मांस का ग्रहण कभी सवैद्य की प्ररेणा से, मकड़ी