Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
पाणाणि वा अभिहणेज' वा जाव ववरोवेज वा।
अह भिक्खूणं पुव्वोवदिट्ठा २४ जं तहप्पगारे उवस्सए अंतलिक्खजाते णो ठाणं वा ३ चेतेजा।
४१९. वह साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय (मकान) को जाने, जो कि एक स्तम्भ पर है, या मचान पर है, दूसरी आदि मंजिल पर है, अथवा महल के ऊपर है, अथवा प्रासाद के तल (भूमितल में या छत पर) बना हुआ है, अथवा इसी प्रकार के किसी ऊँचे स्थान पर स्थित है, तो किसी अन्यन्तगाढ (असाधारण) कारण के बिना उक्त प्रकार के उपाश्रय में स्थान-स्वाध्याय आदि कार्य न करे।
कदाचित् किसी अनिवार्य कारणवश ऐसे उपाश्रय में ठहरना पड़े, तो वहाँ प्रासुक शीतल जल से या उष्ण जल से हाथ, पैर, आँख, दाँत या मुँह एक बार या बार-बार न धोए, वहाँ मलमूत्रादि का उत्सर्ग न करे, जैसे कि उच्चार (मल), प्रस्रवण (मूत्र), मुख का मल (कफ), नाक का मैल, वमन, पित्त, मवाद, रक्त तथा शरीर के अन्य किसी भी अवयव के मल का त्याग वहाँ न करे, क्योंकि केवलज्ञानी प्रभु ने इसे कर्मों के आने का कारण बताया है।
वह (साधु) वहाँ से मलोत्सर्ग आदि करता हुआ फिसल जाए या गिर पड़े। ऊपर से फिसलने या गिरने पर. उसके हाथ, पैर, मस्तक या शरीर के किसी भी भाग में, या इन्द्रिय पर चोट लग सकती है, ऊपर से गिरने से स्थावर एवं त्रस प्राणी भी घायल हो सकते हैं, यावत् प्राणरहित हो सकते हैं।
अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थंकर आदि द्वारा पहले से ही बताई हुई यह प्रतिज्ञा है, हेतु है, कारण है और उपदेश है कि इस प्रकार के उच्च स्थान में स्थित उपाश्रय में साधु कायोत्सर्ग आदि कार्य न करे।
विवेचन उच्चस्थ उपाश्रय निषेध : चतुर्थ विवेक-इस एक ही सूत्र में एक ही खंभे, मंच आदि या अटारी के रूप में महल पर या छत पर बने हुए मकान में ठहरने का साधु के लिए निषेध किया गया है, ठहरने से होने वाली कायिक-अंगोपांगीय हानि तथा प्राणि-विराधना का भी उल्लेख किया गया है।
प्राचीनकाल में साधु प्रायः ऐसे ही मकान में ठहरते थे, जो कच्चा छोटा-सा और जीर्णशीर्ण होता था, जिसमें किसी गृहस्थ परिवार का निवास नहीं होता था। कच्चे और छोटे मकान का प्रतिलेखन-प्रमार्जन भी ठीक तरह से हो जाता था और मलमूत्रादि विसर्जन भी पंचम समिति के अनुकूल हो जाता था। ऊपर की मंजिल में, या बहुत ऊँचे मकान से मलमूत्रादि परिष्ठान की १. यहाँ 'जाव' शब्द से 'अभिहणेज वा' से लेकर 'ववरोवेज वा' तक का सारा पाठ सूत्र ३६५ के
अनुसार है। २. 'पुव्वोवदिट्ठा' के बाद '४' का अंक सूत्र ३५७ के अनुसार 'उवएसे' तक के पाठ का सूचक है।