Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
प्रथम अध्ययन : दशम उद्देशक: सूत्र ४०६
१०५
नहीं दिया है, अनजाने में ही दिया है, किन्तु आयुष्मन् ! अब यदि आपके काम आने योग्य है तो मैं आपको स्वेच्छा से जानबूझ कर दे रहा / रही हूँ। आप अपनी इच्छानुसार इसका उपभोग करें या परस्पर बांट लें ।' घरवालों के द्वारा इस प्रकार की अनुज्ञा मिलने तथा वह वस्तु समर्पित की जाने पर साधु अपने स्थान पर आकर (अचित्त हो तो) उसे यतनापूर्वक खाए तथा पीए । यदि ( उतनी मात्रा में) स्वयं उसे खाने या पीने में असमर्थ हो तो वहाँ आस-पास जो साधर्मिक, सांभोगिक, समनोज्ञ एवं अपारिहारिक साधु रहते हों, उन्हें (वहाँ जाकर) दे देना चाहिए। यदि वहाँ आस-पास कोई साधर्मिक आदि साधु न हों तो उस पर्याप्त से अधिक आहार को जो परिष्ठापनविधि बताई है, तदनुसार एकान्त निरवद्य स्थान में जाकर परठ (डाल) दे।
-
विवेचन - एक के बदले दूसरी वस्तु मिलने पर - - इस सूत्र का आशय स्पष्ट करते हुए वृत्तिकार कहते हैं • भिक्षु अपने रुग्ण साधु के लिए गृहस्थ के यहाँ जाकर खांड या बूरे की याचना करता है, परन्तु वह गृहस्थ सफेद रंग देखकर खांड या बूरे के बदले नमक एक बर्तन में से अपने हाथ में या किसी पात्र में लेकर साधु को देने लगता है, उस समय अगर साधु को यह मालूम हो जाए कि यह नमक है तो न ले, कदाचित् भूल से वह नमक ले लिया गया है और बाद में पता लगता है कि यह तो बूरा या खांड नहीं, नमक है, तो वह पुन: दाता के पास जाकर पूछे कि आपने यह वस्तु जानकर दी है या अनजाने ? दाता कहे कि दी तो अनजाने मगर अब जानकर देता हूँ । आप इसका परिभोग करें अथवा बँटवारा कर लें। इस प्रकार कहकर और दाता खुशी से अनुज्ञा दे दे, उसे समर्पित कर दे तो स्वयं उसका यथायोग्य उपभोग करे, आवश्यकता से अधिक हो तो निकटवर्ती साधर्मिकों को ढूँढ़ कर उन्हें दे दे, यदि वे भी न मिलें तो फिर परिष्ठापनविधि के अनुसार उसे परठ दे ।
तात्पर्य यह है कि एक वस्तु की याचना करने पर गृहस्थ यदि भूल से दूसरी वस्तु दे दे और साधु उसे लेकर चला जाये, तो भी जब साधु को वास्तविकता का पता लगे तो उसकी प्रामाणिकता इसी में है कि उस वस्तु को लेकर वापिस दाता के पास जाए और स्थिति को स्पष्ट कर दे । ऐसा न करने पर गृहस्थ को उसकी प्रामाणिकता में अविश्वास हो सकता है । १
१.
२.
४०६. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं ।
४०६. यही (एषणाविधि का विवेक) उस भिक्षु या भिक्षुणी की सर्वांगीण समग्रता है । २
॥ दसमो उद्देसओ समत्तो ॥
आचारांग वृत्ति पत्रांक ३५४ के आधार पर
इसका विवेचन ३४४ के अनुसार समझें ।