Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : एकादश उद्देशक : सूत्र ४११
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वाले इन दूसरे साधुओं ने नहीं।' बल्कि चाहे वह गच्छनिर्गत (जिनकल्पी) हो या गच्छान्तर्गत (स्थविरकल्पी), उसे सभी प्रकार की साधना में उद्यत साधुओं को समदृष्टि से देखना चाहिए, किन्तु उत्तरोत्तर (एक-एक अंग की) पिण्डैषणा का अभिग्रह धारण करने वाले साधु को पूर्वपूर्वतर पिण्डैषणा के अभिग्रह धारक साधु की निन्दा नहीं करनी चाहिए। ___यही मानना चाहिए कि मैं और ये दूसरे सब साधु भगवन्त यथाशक्ति पिण्डैषणादि के अभिग्रह विशेष को धारण करके यथायोग विचरण करते हैं। सब जिनाज्ञा में हैं या जिनाज्ञानुसार संयम-पालन करने हेतु उद्यत (दीक्षित) हुए हैं। जिनके लिए ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप जो भी समाधि विहित है उस समाधि के साथ संयम-पालन के लिए प्रयत्नशील वे सभी साधु जिनाज्ञा में हैं, वे जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं करते। कहा भी है -
"जो साधु एक या दो वस्त्र रखता है, तीन वस्त्र रखता है, या बहुत वस्त्र रखता है, या अचेलक रह सकता है, ये विविध साधनाओं के धनी साधक एक दूसरे की निन्दा नहीं करते, क्योंकि ये सभी साधु जिनाज्ञा में हैं।"
४११. एवं खलु तस्स भिक्खु वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं।
४११. इस प्रकार जो साधु-साध्वी (गौरव-लाघवग्रन्थि से दूर रहकर निरहंकारता एवं आत्मसमाधि के साथ आत्मा के प्रति समर्पित होकर) पिण्डैषणा-पानैषणा का विधिवत पालन करते हैं, उन्हीं में भिक्षुभाव की या ज्ञानादि आचार की समग्रता है।
॥ एकादश उद्देशक समाप्त॥
- ॥ द्वितीय श्रुतस्कन्ध का प्रथम पिंडैषणा अध्ययन सम्पूर्ण॥
१. आचारांग वृत्ति पत्रांक ३५८