Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : एकादश उद्देशक : सूत्र ४०७-४०८
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यावत् मीठे को मीठा बताए। रोगी को स्वास्थ्य लाभ हो, वैसा पथ्य आहार देकर उसकी सेवाशुश्रूषा करे।
__ ४०८. यदि समनोज्ञ स्थिरवासी साधु अथवा ग्रामानुग्राम विचरण करने वाले (दूसरे स्थान से आए) साधुओं को मनोज्ञ भोजन प्राप्त होने पर यों कहें कि 'जो भिक्षु रोगी है, उसके लिए यह मनोज्ञ (पथ्य) आहार ले जाओ, अगर वह रोगी भिक्षु इसे न खाए तो यह आहार वापस हमारे पास ले आना, क्योंकि हमारे यहाँ भी रोगी साधु है। इस पर आहार लेने वाला वह साधु उनसे कहे कि यदि मुझे आने में कोई विघ्न उपस्थित न हुआ तो यह आहार वापस ले आऊँगा।' (यों वचन-बद्ध साधु वह आहार रुग्ण साधु को न देकर स्वयं खा जाता है, तो वह मायास्थान का स्पर्श करता है।) उसे उन पूर्वोक्त कर्मों के आयतनों (कारणों) का सम्यक् परित्याग करके (सत्यतापूर्वक यथातथ्य व्यवहार करना चाहिए।)
विवेचन - मायारहित आहार-परिभोग का निर्देश - सू० ४०७ और ४०८ में शास्त्रकार ने आहार के उपभोग के साथ कपटाचार से सावधान रहने का निर्देश दिया है। निर्दोष भिक्षा के साथ जहाँ स्वाद-लोलुपता जुड़ जाती है, वहाँ मायाचार, दम्भ और दिखावा आदि बुराइयाँ साधुजीवन में घुस जाती हैं। रुग्ण साधु के लिए लाया हुआ पथ्य आहार उसे न देकर वाक्-छल से उसे उलटा-सीधा समझाकर स्वयं खा जाता है, वह साधु मायाचार करता है। वृत्तिकार उक्त मायाचारी साधु के मायाचार को दो भागों में विभक्त करते हैं -(१) पहले वह मन में ही कपट करने का घाट घड़ लेता है, (२) तदनन्तर ग्लान भिक्षु को वह आहार अपथ्य बताकर स्वयं खा लेता है।
सूत्र ४०८ में भी वह रुग्ण भिक्षु के साथ कपट करने के लिए उन्हीं पूर्वोक्त बातों को दोहराता है। इसमें थोड़ा-सा अन्तर यह है कि आहार लाने वाला साधु उन आहारदाता साधुओं के साथ वचनबद्ध हो जाता है कि अगर वह रुग्ण साधु इस आहार का उपभोग नहीं करेगा तो कोई अन्तराय न होने पर मैं इस आहार को वापस आपके पास ले आऊँगा। किन्तु रुग्ण साधु के पास जाकर उसे पुराने आहार की अपथ्यता के दोषों को बताकर रुग्ण को वह आहार न देकर स्वाद-लोलुपतावश स्वयं उस आहार को खा जाता है और उन साधुओं को बता देता है कि रुग्ण-सेवा-काल में ही मेरे पेट में पीड़ा उत्पन्न हो गई, इस अन्तरायवश मैं उस ग्लानार्थ दिये गए आहार को लेकर न आ सका, इस प्रकार दोहरी माया का सेवन करता है।
'इच्चेयाइं आयतणाई' - चूर्णिकार के शब्दों में व्याख्या - कदाचित् रुकावट होने के कारण वह ग्लानसाधु के लिए उस आहार-पानी को न भी ले जा सके। जैसे कि सर्य अस्त होने आया हो, रास्ते में साँड या भैंसा मारने को उद्यत हो, मतवाला हाथी हो, कोई पीड़ा हो १. आचारांग वृत्ति पत्रांक ३५५ के आधार से