Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र ३४२
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- आइण्णोमाणं संखडि अणुपविस्समाणस्स पाएण वा पाए अक्वंतपुव्वे भवति, हत्थेण वा हत्थे संचालियपुव्वे भवति, पाएण वा पाए आवडियपुव्वे भवति, सीसेण वा सीसे संघट्टियपुव्वे भवति, काएण वा काए संखोभितपुव्वे भवति, दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलुणा वा कवालेण वा अभिहतपुव्वे भवति, सीतोदएण वा ओसित्तपुव्वे भवति, रयसा वा परिघासितपुव्वे भवति, अणेसणिजे वा परिभुत्तपुव्वे भवति, अण्णेसिं वा दिजमाणे पडिगाहितपुव्वे भवति, तम्हा से संजते णियंठे तहप्पगारं आइण्णोमाणं संखडि संखडिपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए।
३४२. वह भिक्षु या भिक्षुणी यह जाने कि अमुक गाँव, नगर यावत् राजधानी में संखडि है। जिस गाँव यावत् राजधानी में संखडि अवश्य होने वाली है तो संखडि को (संयम को खण्डित करने वाली जानकर) उस गाँव यावत् राजधानी में संखडि की प्रतिज्ञा से जाने का विचार भी न करे। केवली भगवान् कहते हैं -यह अशुभ कर्मों के बन्ध का कारण है।
चरकादि भिक्षाचरों की भीड़ से भरी-आकीर्ण - और हीन - अवमा (थोड़े से लोगों के लिए जिसमें भोजन बनाया गया हो और बहुत लोग इकट्ठे हो जाएँ ऐसी) संखडि में प्रविष्ट होने से (निम्नोक्त दोषों के उत्पन्न होने की सम्भावना है-)
सर्वप्रथम पैर से पैर– टकराएँगे या हाथ से हाथ संचालित होंगे (धकियाये जायेंगे); पात्र से पात्र रगड़ खाएगा, सिर से सिर का स्पर्श होकर टकराएगा अथवा शरीर से शरीर का संघर्षण होगा. (ऐसा होने पर) डण्डे. हड़ी. मट्री. ढेला-पत्थर या खप्पर से एक दूसरे पर प्रहार होना भी संभव है। (इसके अतिरिक्त) वे परस्पर सचित्त, ठण्डा पानी भी छींट सकते हैं, सचित्त मिट्टी भी फेंक सकते हैं । वहाँ (याचकों की संख्या अत्यधिक होने के कारण) अनैषणीय आहार भी उपभोग करना पड़ सकता है तथा दूसरों को दिए जाने वाले आहार को बीच में से (झपटकर) लेना भी पड़ सकता है। इसलिए वह संयमी निर्ग्रन्थ इस प्रकार की जनाकीर्ण एवं हीन संखडि में संखडि के संकल्प से जाने का बिल्कुल विचार न करे।
विवेचन-संखडि में जाना : दोषों का घर - सूत्र ३४० से सूत्र ३४२ तक संखडि (बृहत्भोज) फिर वह चाहे विवाहादि के उपलक्ष्य में पूर्वसंखडि हो, मृतक के पीछे की जाने वाली पश्चात्संखडि हो, वह कितनी हानिकारक है, दोषवर्द्धक है, यह स्पष्ट बता दिया गया है। इन्हें देखते हुए शास्त्रकार का स्वर प्रत्येक सूत्र में मुखरित हुआ है कि संखडि में निष्पन्न सरस
'आइण्णोमाणं' के बदले 'आइण्णोऽवमाणं', 'आइण्णावमाण''आइन्नामाणं' ये पाठान्तर मिलते हैं। अर्थ एक-सा है। चूर्णिकार ने इन दोनों पदों की व्याख्या की है-आइण्णा चरगादीहि; ओमाणं= सतस्स भत्ते कते सहस्सं आगतं णाऊण माणं ओमाणं अर्थात् -चरक आदि भिक्षाचरों से आकीर्ण का नाम आकीर्णा है तथा सौ के लिए भोजन बनाया गया था, किन्तु भोजनार्थी एक हजार आ गए, जानकर जिसमें भोजन कम पड़ गया, उसे 'अवमाना' संखडि कहते हैं।