Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
स्वादिष्ट भोजन - पानी की आशा से वहाँ जाने का साधु-साध्वी कतई विचार न करे। बार-बार पुनरावृत्ति करके भी शास्त्रकार ने इस बात को जोर देकर कहा है— केवली भगवान् ने कहा है'यह दोषों का आयतन है या कर्मों के बंध का कारण है।' ऐसे बृहत् भोज में जाने से साधु की साधना की प्रतिष्ठा गिर जाती है, इसका स्पष्ट चित्र शास्त्रकार ने खोलकर रख दिया है । १
छड्डे वा वमेज्ज वा- ये दोनों क्रिया पद एकार्थक लगते हैं । किन्तु चूर्णिकार ने इन दोनों पदों का अन्तर बताया है कि कुंजल क्रिया द्वारा या रेचन क्रिया द्वारा उसे निकालेगा या वमन करेगा। बृहत् भोज में भक्तों की अधिक मनुहार और अपनी स्वाद- -लोलुपता के कारण अतिमात्रा में किये जाने वाले स्वादिष्ट भोजन के ये परिणाम हैं । २
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आयाणं या आययणं? केवली भगवान् कहते हैं— यह 'आदान' है, पाठान्तर 'आययणं' होने से 'आयतन' है - ऐसा अर्थ भी निकलता है । वृत्तिकार ने दोनों ही पदों की व्याख्या यों की है— कर्मों का आदान (उपदानकारण) है अथवा दोषों का आयतन (स्थान) | ३
संचिज्जमाणा पच्चवाया — वृत्तिकार ने इस वाक्य का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है(१) रस-लोलुपतावश वमन, विरेचन, अपाचन, भयंकर रोग आदि की सम्भावना, (२) संखडि में मद्यपान से मत्त साधु द्वारा अब्रह्मचर्य सेवन जैसे कुकृत्य की पराकाष्ठा तक पहुँचने की सम्भावना । इन दोनों भयंकर दोषों के अतिरिक्त अन्य अनेक कर्मसंचयजनक (प्रत्यपाय ) दोष या संयम में विघ्न उत्पन्न हो सकते हैं। 'संविज्जमाण' पाठान्तर होने से इसका अर्थ हो जाता है। :- 'अनुभव किये जाने वाले दोष या विघ्न होते हैं । ४ 'गामधम्म नियंतियं कट्टु " - इस पंक्ति का भावार्थ यह है कि 'पहले मैथुन - सेवन का वादा (निमन्त्रण) किसी उपाश्रय या बगीचे में करके फिर रात्रि समय में या विकाल वेला में किसी एकान्त स्थान में गुप्त रूप से मैथुन सेवन करने में प्रवृत्त होंगे।' तात्पर्य यह है कि संखडि में गृहस्थ स्त्रियों या परिव्राजिकाओं का खुला सम्पर्क उस दिन के लिए ही नहीं, सदा के लिए अनिष्ट एवं पतन का मार्ग खोल देता है। चूर्णिकार 'गामनियंतियं' पाठ मानकर अर्थ करते हैं- ग्राम के निकट किसी एकान्तस्थान में । '
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संखडिस्थल में विभिन्न लोगों का जमघट इस शास्त्रीय वर्णन से स्पष्ट प्रतीत होता है कि जहाँ ऐसे बृहत् भोज होते थे, वहाँ उन गृहस्थ के रिश्तेदार स्त्री-पुरुषों के अतिरिक्त परिव्राजक - परिव्राजिकाओं को भी ठहराया जाता था, अपने पूज्य साधुओं को भी वहाँ ठहरने का खास प्रबन्ध किया जाता था। चूर्णिकार का मत है कि परिव्राजक - कापालिक आदि तथा कापालिकों
१. आचारांग वृत्ति एवं मूलपाठ पत्र ३३० के आधार पर
२. आचारांग चूर्णि, आचा० मू० पा० टि० पृ० ११२
३. आचारांग वृत्ति पत्रांक ३३१-३३२ ५. [क] टीका पत्र ३३०
४. टीका पत्र ३३०
[ख] आचा०चू०मू०पा०टि० पृष्ठ० ११२