Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र ३३४
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आहार देना पड़ेगा। अतः उन्हें आहार भी प्रचुर मात्रा में बनवाना पड़ेगा। ऐसा करने में षट्कायिक जीवों की विराधना सम्भव है। यदि वे अल्प मात्रा में भोजन बनवाते हैं तो जैन साधुओं को देने के बाद थोड़ा बचेगा, इससे दूसरे भिक्षाचर आहार-लाभ से वंचित हो जाएँगे, उनके अन्तराय लगेगा।
चूर्णिकार इस पद की व्याख्या इस प्रकार करते हैं कि - नित्य दूसरे भिक्षुओं को देने पर पकाया हुआ आहार अवमान-कम हो जाएगा, यदि वह स्व पर - दोनों प्रकार के भिक्षाचरों को आहार देता है तो अपने भिक्षुओं को देने में आहार कम पड़ जाएगा । इस कारण बाद में उसे अधिक आहार पकाना पड़ेगा। अधिक पकाने में षट्-कायिक जीवों का वध होगा । इसलिए जिन कुलों में नित्य स्व-पर पक्षीय भिक्षाचरों को आहार देता है देने में कम पड़ जाता है, वे नित्यावमानक कुल हैं। १
३३४. एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव्वढेहिं समिते सहिते सदा जए त्ति बेमि।
पढमो उद्देसओ समत्तो॥ ३३४. यह (पूर्व सूत्रोक्त पिण्डैषणा विवेक) उस (सुविहित) भिक्षु या भिक्षुणी के लिए (ज्ञानादि आचार की) समग्रता है, कि वह समस्त पदार्थों में संयत या पंचसमितियों से युक्त, ज्ञानादि-सहित अथवा स्वहित परायण होकर सदा प्रयत्नशील रहे। - ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - इस सूत्र में पिछले सूत्रों से विधि - निषेध द्वारा जो पिण्डैषणा-विवेक बताया है, उसके निष्कर्ष और उद्देश्य तथा अन्त में निर्देश का संकेत है।
सामग्गियं की व्याख्या वृत्तिकार ने इस प्रकार की है – 'भिक्षु द्वारा यह उद्गम-उत्पादनग्रहणैषणा, संयोजना, प्रमाण, अंगार, धूम आदि कारणों (दोषों) से सुपरिशुद्ध पिण्ड का ग्रहण ज्ञानाचार सामर्थ्य है, दर्शन-चरित्र-तपोवीर्याचार संपन्नता है। चूर्णिकार के शब्दों में इस प्रकार आहारगत दोषों का परिहार करने से पिण्डैषणा गुणों से उत्तरगुणों में समग्रता होती है। ३
विशुद्धाहारी भिक्षु का सामर्थ्य बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं – 'सव्वद्वेहिं समिए सहिए।' अर्थात् वह भिक्षु सरस-नीरस आहारगत पदार्थों में या रूप-रस-गन्ध-स्पर्शयुक्त पदार्थों में संयत अथवा पाँच समितियों से युक्त अर्थात् शुभाशुभ में राग-द्वेष से रहित तथा स्व-पर-हित से युक्त (सहित) अथवा ज्ञान-दर्शन-चारित्र से सहित होता है।
निर्देश- "इस प्रकार के सामर्थ्य से युक्त भिक्षु या भिक्षुणी इस निर्दोष भिक्षावृत्ति का परिपालन करने में सदा प्रयत्नशील रहे।"
॥प्रथम उद्देशक समाप्त ॥ १. (क) टीका पत्र ५२६
(ख) चूर्णि मू० पा० टि. पृ० १०८ २. इसके स्थान पर "एतं खलु .. सामग्गियं" पाठ मानकर चूर्णिकार व्याख्या करते हैं - एतं खलु एवं
परिहरता पिंडेसणागुणेहि उत्तरगुणसमग्गता भवति।"-यह इस प्रकार आहारगत दोषों का त्याग करने
से पिण्डैषणा के गुणों से उत्तरगुण समग्रता भिक्षु या भिक्षुणी को प्राप्त होती है। ३. (क) टीका पत्र ३२७ (ख) चू० मू० पा० टि० १०८
४. टीका पत्र ३२७