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{ xxvi ) सामान्य अर्थ हुआ काया का त्याग परंतु इसका विशेष अर्थ है- कायिक ममत्व का त्याग करना। साधना में काया नहीं कायिक ममत्व बाधक है। देह तो नामकर्म की कृति है पर इसका नेह यह मोहनीय की प्रकृति है। नाम कर्म तो अघाति है जबकि आत्मिक गुणों का घात करने वाला तो यह मोहकर्म घातिकर्म है। शरीर की ममता छूटने पर शरीर स्वत: छूट जायेगा ।
प्रथम आवश्यक‘सामायिक' इस सामायिक की साधना का बाधक तत्त्व है - कायिक ममत्व । आत्मा तो समभाव में ही है-उसमें विषम भाव तो यह देहराग ही पैदा करता है। जीव जब साधना करता हुआ देह राग ओर झुकता है तो उसकी साधना में व्रण (घाव) पैदा होता है। उस व्रण की चिकित्सा (उपचार) करना यह 'व्रण चिकित्सा' रूप पंचम आवश्यक जिसे कायोत्सर्ग कहे या व्रण - चिकित्सा कहें एक ही बात है । कायोत्सर्ग करने का प्रयोजन तस्स उत्तरी के पाठ में बताया हुआ है - तस्स उत्तरी कारणेणं, पायाच्छितकरणेणं, विसोही करणेणं, विसल्ली करणेणं, पावाणं कम्माणं निग्धायणट्ठाए ठामि काउस्सग्गं । अर्थात् उस पापात्मा (कषायात्मा) को ऊपर उठाने के लिए, प्रायश्चित्त करने के लिए, विशुद्धि के लिए, आत्मा को शल्य रहित बनाने के लिए, पापकर्मों का निर्घात करने के लिए साधक द्वारा कायोत्सर्ग किया जाता है।
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उत्तराध्ययन सूत्र के 29वें अध्ययन की 12वीं पृच्छा के उत्तर में कायोत्सर्ग करने का फल बताया है“कायोत्सर्ग करने वाला अतीत काल व वर्तमान में हुई भूलों का प्रायश्चित्त द्वारा शुद्धिकरण कर लेता है। प्रायश्चित्त से विशुद्ध हुआ, हल्का हुआ साधक प्रशस्त ध्यान से युक्त होकर सुख पूर्वक विचरण करता है। जैसे भारवाहक सिर से वजन उतार देने पर हल्कापन (सुख) अनुभव करता है।
सबसे बड़ा भार यह शरीर का राग ही है। उत्तराध्ययन के 26वें अध्ययन में कहा भी है-काउस्सग्गं तओ कुज्जा, सव्व - दुक्ख - विमोक्खणं । किसी भी प्रवृत्ति के बाद जागरुक साधक कायोत्सर्ग करे, क्योंकि यह कायोत्सर्ग सभी दुःखों से विप्रमोक्ष कराने वाला है। साधक को तो प्रतिपल यही परिणाम रखना चाहिए न मे देहा, परीसहा। न ये देह मेरी और नही ये परीषह मेरे हैं। प्रभु द्वारा उक्त आचारांग के इस सूक्त - हम हमारे जीवन का आदर्श बनाकर अभ्यास करें। नीतिकारों ने भी कहा है-शनै: कंथा, शनै: पन्था, शनैः पर्वत लंघनम्। शनै: विद्या, शनै: वित्तं, पंचैतानि शनै: शनै: । जैसे अभ्यासी व्यक्ति शनै: शनै: कन्था (गूदड़ी/बड़ा वस्त्र) की सिलाई कर लेता है, शनै: शनै: लम्बी दूरी तय कर लेता है, शनै: शनै: बड़े-बड़े पर्वतों को लाँघ जाता है, शनै: शनै: व्यापार करता हुआ, धन जोड़ता हुआ एक दिन गरीब से अमीर हो जाता है, ऐसे अभ्यास से यह जीव श्रुत का पारगामी या आत्म विद्या का अधिकारी बन जाता है। उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन 4 में कहा है- "मुहं मुहं मोह गुणे जयन्तं" अर्थात् बार-बार मोह को जीतने का प्रयत्न करें। गुरुदेव आचार्य भगवान हस्तीमलजी म.सा. ने भी भजन की पंक्तियों में कहा है
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