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{ xxv } यह साधक की पाप भीरुता का परिचय देता है। ऐसी दुष्कृत गर्दा साधक को साधना की उच्च अर्हता प्रदान करती है। इसके लिए आंतरिक सजगता अपेक्षित है।
(6) स्वप्नात्मिक प्रतिक्रमण-रात्रि में अर्द्ध निद्रित अवस्था में आये हुए दुःस्वप्न के निवारण के लिए यह प्रतिक्रमण है। प्रायः प्रात:काल उठकर साधक 4 लोगस्स का ध्यान करता है। इससे इसकी शुद्धि हो जाती है। उत्तराध्ययन सूत्र के 29वें अध्ययन में बताया है-प्रतिक्रमण द्वारा साधक व्रत में हुए छिद्रों को ढ़क देता है। चारित्रिक निर्दोषिता को प्राप्त करता है। स छिद्र नौका डूबाने वाली होती, उस छिद्र को ढक देने पर तिराने वाली है। ऐसे ही व्रत में लगे अतिचार की उपेक्षा कभी महान् अनर्थकारी हो छिद्रेष्वना बहुली भवन्ति। उस दोष का प्रायश्चित्त करने वाला साधक सकुशल भवपार पहुँच जाता है। आवश्यक नियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने प्रतिक्रमण के आठ नाम बताये हैं
(1) प्रतिक्रमण-कृत पाप से पीछे लौट आना। (2) प्रतिचरणा-अहिंसा, सत्यादि में अच्छी तरह आचरण करना प्रतिचरणा है। (3) परिहरणा-अशुभ योग, असदाचरण का परिहार करना। (4) वारणा-विषय भोगादि का प्रभु वीर ने वारण (निषेध) किया है। (5) निवृत्ति-अशुभ भाव से निवृत्त होना।
(6) निंदा-आत्मसाक्षी से अपने पापों को धिक्कारना। अपने दोषों के प्रति धिक्कार भाव ही आत्म गुणों पर अधिकार प्रदान करता है।
(7) गर्दा-गुरुदेव आदि के पास सरलता से अपने दोषों को प्रकट करना। इससे साधक का अहंकार समाप्त होता है, लघुता आती है।
(8) शुद्धि-आत्मा पर लगे अनादि कालीन दोषों को छोड़कर आत्मा को शुद्ध बनाना।
जैसे मलीन वस्त्र के मैल निकल जाने पर उसमें कैसा हल्कापन व कैसी सुंदरता आ जाती है। धूलधूसरित भवन का कचरा निकल जाने पर उसमें कैसी स्वच्छता, रमणीकता आ जाती है, वैसे ही हमारी आत्मा का कर्म कचरा आत्मा को अलगन होने पर उसमें हमारी रमणीकता बढ़ेगी, आनन्दानुभव बढ़ेगा, अनंतजीव प्रतिक्रमण करके परम पद (सिद्धत्व) को पा चुके। हम भी प्रतिक्रमण करके परम पवित्रता को प्राप्त करें।
5. कायोत्सर्ग (व्रण चिकित्सा)-प्रतिक्रमण के पश्चात् पंचम आवश्यक है कायोत्सर्ग। काया और उत्सर्ग इन शब्दों से मिलकर बना है कायोत्सर्ग। काया का अर्थ है शरीर, और उत्सर्ग का अर्थ है त्याग।