Book Title: Sambdohi Times Chandraprabh ka Darshan Sahitya Siddhant evam Vyavahar
Author(s): Shantipriyasagar
Publisher: Jityasha Foundation
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन को चार्ज करने वाली मासिक पत्रिका - संबोधि टाइम्स वर्ष 10 अंक 4 6-7 मई, 2013 मूल्य 40/-रू. द्विवार्षिक : 200/- आजीवन : 700/ विशेषांक : पूज्य श्री चन्द्रप्रभ के दिव्य जीवन एवं महान जीवन-दृष्टि पर । शोधपरक विनम्र प्रस्तुति । नये युग को नई देन श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन साहित्य, सिद्धान्त एवं व्यवहार मुनि शांतिप्रिय सागर in Education International For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य श्री ललितप्रभ जी की कलम से श्री चन्द्रप्रभ : सरोवरसे बने सागर • संबोधि टाइम्स का यह विशेषांक महापुरुष के विचारों पर अपना प्रभावपूर्ण चिंतन .श्री चन्द्रप्रभ के 33 साल के संत-जीवन जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय द्वारा पीएच. दिया है और अनगिनत शास्त्रों पर अपने में हज़ारों सत्संग हुए। हर साल लाखों लोगों डी. के लिए मान्य शोध-प्रबंध'श्री चन्द्रप्रभ का उद्बोधन देकर उन्हें और अधिक सरस, सुगम ने सुना । देशभर में हुई विराट प्रवचनमालाओं दर्शन : साहित्य, सिद्धांत एवं व्यवहार' का और सरल बना दिया है। ने संपूर्ण देश की आबोहवा को बदल दिया। सार-संक्षिप्त रूप है। युवा-मनीषी मुनिवर श्री .धर्म, अध्यात्म. काव्य, कविता, गीत, भजन 36 कौम के लोग सत्संगों में उमड़ते हैं। जब शांतिप्रिय सागर जी द्वारा लिखे गए इस शोध- के साथ जीवन-निर्माण, व्यक्तित्व-विकास, वे माँ पर बोलते हैं तो बड़े से बड़ा पांडाल प्रबंध का निर्देशन ज्ञान-मनस्विनी डॉ. विमला पारिवारिक प्रेम समाज-निर्माण एवं राष्ट चेतना छोटा पड़ जाता है। हजारों लोग धूप में खड़े जी भंडारी ने किया है। दोनों महानुभावों के को जाग्रत करने वाला श्री चन्द्रप्रभ का विराट होकर भी इस प्रवचन का डूब-डूबकर शोध-परक परिश्रम के लिए हार्दिक अभिनंदन। साहित्य देश के लाखों-करोडों घरों में ज्ञान के आनंद लेते हैं। हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, • श्री चन्द्रप्रभ एक ऐसे प्यारे संत का नाम है दीप जला रहा है। विविध आयामी इतना प्रचर ईसाई हर धर्म-कौम के घरों में उनके जो संत होने के साथ हर इंसान के कल्याण-मित्र लेखन हुआ है कि दस लोग एक साथ उनके प्रवचनों की वीसीडिया चलती हैं। लोग हैं। श्री कृष्ण की तरह जीवन के सारथी बनकर साहित्य पर पीएच.डी कर सकते हैं। उनकी कॉपियाँ कराकर हज़ारों की तादाद में उन्होंने व्यक्तिगत व पारिवारिक जिंदगी में प्रेम . श्री चन्द्रप्रभ के सैकड़ों प्रवचन य ट्यब एवं बाटतहा। का ऐसा रस घोला है कि लाखों जिंदगियों और इंटरनेट पर परे विश्वभर में बचाव से देखे- .श्री चन्द्रप्रभ के साहित्य की यह परिवारों में माधुर्य और सरसता उमड़ आई है। सने जाते हैं। संस्कार चैनल पर हर रोज रिलीज खासियत है कि पाठक की दृष्टि ही नहीं • श्री चन्द्रप्रभ एक ऐसे दमदार संत हैं जो हो रहे उनके दिव्य प्रवचनों ने घर-घर के दख- बदलती, अपितु दृष्टिकोण भी बदल जाता अपनी बात बिना किसी लाग-लपेट के कहते दर्द कम किये हैं। है। उनकी किताबों को पढ़ने के क्रम में हैं। वह जो महसूस करते हैं सटीक कहते हैं, . श्री चन्द्रप्रभ ध्यान साधना को गहराई से जीते किश्त-दर-किश्त यह अनुभूति होती है जैसे आनंदमय जीते हैं और सबको जीवन की सुवास हैं और उस पर परे डब कर बोलते हैं। साधना- हम और मिठास प्रदान करते हैं। शिविर में साधकों को ऐसी अलौकिकता का रोशनी ओढ़कर बाहर निकलते जा रहे हैं। • श्री चन्द्रप्रभ गहरे से गहरे विषय पर ऐसे दर्शन होता है जिससे एक साधारण आदमी को •सरोवर से सागर और तलहटी से शिखर सहज भाव से कहते चले जाते हैं जैसे कोई बड़ा भी दिव्य पुरुष के दर्शन का सौभाग्य मिलता है। तक बढ़ी श्री चन्द्रप्रभ का जीवन-यात्रा ने आदमी छोटे बच्चे को राह चलते समझाता . श्री चन्द्रप्रभ ने जब सकारात्मक सोच का अ झाता श्री जोन का अनगिनत चेतनाओं में ऊर्जा, उत्साह और चलता है। हर मोड़ के बारे में, हर दृश्य के बारे चिंतन दिया तो पूरे देश में इसकी लहर चल । - आत्म-विश्वास का संचार किया है। जीवन में पल-पल प्रेम, शांति और ज्ञान की अमृत • श्री चन्द्रप्रभ द्वारा प्ररूपित संबोधि-साधना- के चिंतन को सचिवालय से लेकर कलेक्टेट के वषा करते हुए पांच दशक की उनकी मार्ग ने इंसान को नई जीवन शैली दी और ऑफिस तक में जगह दे दी। यशस्वी साधनामय जीवन-यात्रा का हम सब अधिक होश और आनंदपूर्वक जीवन जीने का . श्री चन्द्रप्रभ ने जब पारिवारिक मूल्यों पर अभिनंदन करते हैं। मार्ग दिया। वे ध्यान की ऐसी विधियों के बोला तो उससे लाखों टूटे परिवार एक हुए, • मेरे लिए यह गौरव की बात है कि मैं श्री प्रस्तोता हैं जो आज के गतिशील जीवन को केरियर पर बोले तो करोड़ों युवाओं की भटकती चन्द्रप्रभ का भाई हूँ। मुझे उन पर गौरव है, ध्यान में रखकर बनाई गई हैं। जिंदगी को नई दिशा मिली और ध्यान-साधना उनसे प्रेम है, मैं उनके प्रति विनम्र हूँ। कहने • श्री चन्द्रप्रभ ने दुनिया के हर धर्म पर पर बोले तो अध्यात्म के दिव्य मार्ग पर अनगिनत का ह को हम दो हैं पर सच्चाई यह है कि हमारे ससम्मान और सरसता के साथ बोला है। हर आत्माएँ मुक्ति की राह पर चल पड़ी। प्राण और हमारी आत्मा एक है। 2> संबोधि टाइम्स air Education Interational में। For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबोधि टाइम्प विशेषांक : पूज्य श्री चन्द्रप्रभ के दिव्य जीवन एवं महान जीवन-दृष्टि पर शोधपरक विनम्र प्रस्तुति हृदय के उद्गार नये युग को * नई देन श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन भारतीय संस्कृति एवं दर्शनशास्त्र की अमूल्य धरोहर है। श्री चन्द्रप्रभ ने प्राचीन सांस्कृतिक एवं दार्शनिक मूल्यों को नए तथा व्यावहारिक स्वरूप में प्रस्तुत कर भारतीय दर्शन को नया आयाम दिया है। उनका दर्शन मूलत: जीवन-दृष्टि से जुड़ा दर्शन है। उन्होंने दर्शन को जीवन-सापेक्ष स्वरूप में प्रस्तुत कर उसे जनमानस के लिए उपयोगी बनाया है। श्री चन्द्रप्रभ ने संबोधि साधना का श्रेष्ठ मार्ग प्रतिपादित कर आध्यात्मिक सिद्धांतों को वैज्ञानिक एवं प्रायोगिक स्वरूप प्रदान किया है। उनके दर्शन में जीवन-निर्माण, व्यक्तित्व-विकास, केरियर, स्वास्थ्य-लाभ, पारिवारिक प्रेम, सामाजिक एकता, धार्मिक समरसता, आध्यात्मिक उन्नति, राष्ट्रीय उत्थान एवं वैश्विक समस्याओं के अत्यंत व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत किए गए हैं। ___ श्री चन्द्रप्रभ किसी धर्म, वेश, परम्परा या किसी महापुरुष का नहीं, वरन् जीवन की खुली किताब का नाम है। वे वही कहते हैं, जिसे वे जीते हैं और वे वही जीते हैं जैसा उन्हें 'जीवन' से ज़वाब मिलता है। इसलिए उनके पास वैचारिक चंचलता नहीं, हृदय की नीरवता है, किताबों का ज्ञान कम जीवन का अनुभव ज़्यादा है। मैंने देखा, श्री चन्द्रप्रभ में न तो शिष्य बनाने और बढाने की चाहत है, न विश्व में स्वयं को स्थापित करने की तमन्ना है, न किसी पंथ-मज़हब को स्थापित करने की ख़्वाहिश है, न किन्हीं मंदिरों या आश्रमों को बनाने की इच्छा है, यही नहीं वे तो मोक्ष या निर्वाण तक की भी आकांक्षा नहीं रखते हैं। वे दीपक की तरह प्रकाशित हैं, अगर कोई उनसे प्रकाशित होना चाहे। वे फूल की तरह खिले हुए हैं अगर कोई उनसे सुवास लेना चाहे और कोई जीवन का संगीत सुनना चाहे तो उनके हृदय से वीणा के सुर अहर्निश फूट रहे हैं। श्री गुरु की कृपा श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन साहित्य, सिद्धान्त एवं व्यवहार लेखक मुनि शांतिप्रिय सागर संबोधि टाइम्स »3 For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से मेरा इस जीवन में उनके साथ लगभग सात वर्षों से रहना हो रहा अपना गुरु मानते हैं। उनका कहना है,कोई नदी सागर बनना चाहे तो है। इस दौरान मुझे कभी शब्दकोश नहीं देखना पड़ा क्योंकि वे संभव नहीं है, पर वह किसी को सागर बनाने की ताक़त अपने भीतर चलते-फिरते शब्दकोश जो हैं। मेरे मन के किसी कोने में कभी ___ अवश्यमेव रखती है। सागर कौन बनेगा, इसके बारे में कुछ नहीं किसी शंका ने पाँव नहीं जमाए क्योंकि उन्होंने हर शंका को समझ में __ कहा जा सकता। ठीक वैसे ही श्री चन्द्रप्रभ ने कहने के नाम पर कुछ बदल दिया। मुझे कभी यह महसूस नहीं हुआ कि मैं छोटा वे बड़े बोला हो अथवा लिखने के नाम पर कुछ लिखा हो, मुझे ऐसा नहीं क्योंकि उन्होंने मुझे सदा शिष्य की बजाय संत की दृष्टि से देखा । मुझे लगता। फिर भी उनसे मानवीय कल्याण से जुड़े अनगिनत कार्य हुए उनके साथ कभी बंधन जैसा नहीं लगा क्योंकि वे स्वयं के साथ औरों हैं जिसका समय और हम सब साक्षी हैं। उनके वक्तव्य और किताबों की स्वतंत्रता पसंद करते हैं। मेरे भीतर में कभी उनकी निजी बातें से अब तक कई-कई टूटे घर एक हुए हैं, रिश्तों में मधुरता का रस जानने की ख्वाहिश पैदा न हुई क्योंकि उन्होंने जीवन रूपी डायरी की घुला है, बूढ़े लोग जिंदादिली महसूस करने लगे हैं, युवाओं में कुछ हर बात सामने खोलकर रख दी। मेरे भीतर कभी-भी भौतिक वस्तु कर गुजरने का ज़ज़्बा जगा है, पंथ-मज़हब की संकीर्णता ध्वस्त हुई पाने की तमन्ना न उठी क्योंकि उन्होंने अपने पास रही हर वस्तु मुझे है, यही कारण है कि उन्हें चाहने वालों में जैन, हिन्दू, मुस्लिम, संभालने के लिए दे दी। आज मैं जैसा भी सिक्का हूँ वह उन्हीं की सिक्ख, ईसाई, अमीर-गरीब, शिक्षित-अशिक्षित, बच्चे-बुजुर्ग सभी कृपा का सुफल है। भले ही श्री चन्द्रप्रभ ओसवाल कुल में जन्मे और जैन धर्म में श्री चन्द्रप्रभ को क्या उपमा दूँ, कोई उन्हें प्रवचनकार कहता है संन्यस्त हुए, पर वे यहाँ तक ठहरे नहीं वरन् चलते रहे, चलते रहे तो कोई साहित्यकार, कोई उन्हें कर्मयोगी कहता है तो कोई और इसी का परिणाम है आज वे सबके हैं, सब उनके हैं। कोई संत प्रेमयोगी, कोई धर्म-गुरु कहता है तो कोई उन्हें अध्यात्म-गुरु, कोई जाति और धर्म विशेष के बंधन से ऊपर उठकर प्राणिमात्र का और उन्हें संत कहता है तो कोई बसंत, कोई उन्हें प्रभुश्री कहता है तो कोई जीवंत धर्म का हिमायती कैसे बन सकता है इसके लिए वे हमारे सदा उन्हें गुरुदेवश्री। अब पता नहीं वे क्या हैं? मुझे इतना ज़रूर पता है कि प्रेरणा-स्तंभ बने रहेंगे। वे कुछ-न-कुछ ज़रूर हैं और सच्चाई तो यह है कि वे सब कुछ हैं। मैंने देखा, वे सब में 'प्रभु' को निहारते हैं और सबको 'प्रभु' । उन्होंने परम्परागत कुछ मान्यताओं और धारणाओं को बदला भी तो कहकर बलाते हैं। उनके पास बैठते हैं तो लगता है शांति और कुछ को जोड़ा भी। कुछ को नए अंदाज में पेश किया तो कछ को शीतलता उनसे टपक रही है। उनकी वाणी सनकर तो दिल-दिमाग नया अंदाज देने की प्रेरणा दी। इस कारण कुछ उनसे टूट गए, तो कुछ रोमांचित हो उठता है। वे जादूगर तो नहीं, पर जादूगर से कम नहीं हैं। उनसे रूठ गए, कुछ जुड़ गए तो कुछ जिगर के टुकड़े (कट्टर फ़र्क केवल इतना-सा है कि जादगर प्रभावित करता है और वे समर्थक) बन गए। कुल मिलाकर बहुत कुछ हुआ, पर वे अब भी परिवर्तित करते हैं। इसका प्रमाण मेरे जैसे अनेक साधक हैं और पहले की भाँति सहज,शांत और तृप्त हैं। चाहें तो आप भी प्रमाण बन सकते हैं। श्री चन्द्रप्रभ के प्रवचनों की वीसीडी, सूक्त वचनों के कलैण्डर आपने उनका एकाध प्रवचन तो सुना ही होगा, अथवा उनकी एवं साहित्य को माग दिनोदिन बढ़ती जा रही है। लोगों में न केवल किताबों की कछ पंक्तियाँ तो पढी ही होंगी. नहीं तो ऐसा कछ कर उन्हें सुनने और पढ़ने की ललक जगी है वरन् उन्हें घर-घर फैलाने लीजिएगा फिर आप सब समझ जाएँगे। मैंने उन्हें सना तो संत बन की चाहत भी बढ़ी है। हम भी अगर ऐसा कुछ करना चाहें तो सादर गया, समझा तो जिंदगी में साधना उतर गई और पढ़ा तो पीएच.डी निमत्रण है। कर पाया। आप पता नहीं क्या बनेंगे, पर जीवन का पल-पल लुत्फ अंत में, मैं मेरे जीवन के कुछ विशिष्ट महानुभावों के प्रति उठाना अवश्य सीख जाएँगे। उनके प्रवचन और साहित्य रसहीन अपना आभार अवश्य समर्पित करूँगा जिनमें पिताश्री पोकरदास जी ज़िंदगी को सरस बनाते हैं, भटकती जिंदगी को राह दिखाते हैं और एवं मातुश्री सुआ देवी मालू, मेरे शोध-प्रबंध की निदेशिका जीवन क्या है? मैं कौन हूँ? जैसे प्रश्नों में उलझे दिमाग की बंद आदरणीय डॉ. विमला जी भण्डारी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। डायरी को खोल देते हैं। राष्ट्र-संत महोपाध्याय श्री ललितप्रभ सागर जी महाराज सा. के प्रति श्री चन्द्रप्रभ ने अब तक जो कहा और लिखा है, जीवन का मैं सदैव नतमस्तक हूँ जिनका वरदहस्त मेरे जीवन का सबसे बड़ा शायद ही ऐसा कोई पहलू होगा जो अनछुआ रह गया हो! उन्होंने । संबल है। मैं अपने भाई श्री पवन जी, अशोक जी मालू के प्रति भी आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नरक, बंधन, मोक्ष, शास्त्र, धर्म, कर्म पर उनके विशिष्ट प्रेम का आभारी हूँ। स्व. श्री पन्नालालजी जैन, कम, जीवन पर ज़्यादा बोला और लिखा है। आपको यह जानकर आदणीय कमला जन जाजासा, श्री उम्मेदासह जो भसाला, डा. आश्चर्य होगा कि आज वे जिस स्थिति पर पहँचे हैं उसके पीछे ललिता जी मेहता, सेवामूर्ति बहिन योगिता जी, अरुण जी अरोडा, किसी व्यक्ति, किसी शास्त्र, या किसी धर्म का नहीं, अपितु स्वयं संजय जी गहलोत आदि सभी महानुभाओं की सद्भावनाओं एवं जीवन का हाथ है, जीवन में घटने वाली घटनाओं ने गुरु और शास्त्र के जीवन में घने वाली घटनाओं और शान सहयोग के लिए हृदय से आभार। का काम किया है। वे जीवन-जगत में घटने वाली हर घटना को -मुनि शांतिप्रिय सागर 4» संबोधि टाइम्स Jain Educ For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रप्रभ : झरने-सा बहता जीवन fors 1 दार्शनिकों का स्वर्णिम युग भारत का दर्शनशास्त्र अत्यन्त समृद्ध रहा है। विश्व में जितने भी दर्शन और उनकी दार्शनिक परम्पराओं का अभ्युदय हुआ, उन पर भारतीय दर्शनों का स्पष्ट तौर पर प्रभाव दिखाई देता है। सम्पूर्ण विश्व में जीवन-मूल्यों की आध्यात्मिक शिक्षा देने वाला देश भारत ही रहा है। भारत अध्यात्म का जनक है और सारा विश्व उसके लिए 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के दायरे में आता है। भारत के इस व्यापक दृष्टिकोण ने ही इसे विश्वगुरु का दर्जा दिलाया है। जहाँ भारतीय दर्शनों में भौतिक जगत से परे स्वर्ग, नरक, ईश्वर, ब्रह्म, मोक्ष, अध्यात्म जैसे बिंदुओं पर गहन-गंभीर तात्त्विक व्याख्याएँ की गईं और जीवन का अंतिम साध्य मोक्ष माना गया, वहीं पाश्चात्य दर्शनों में कला, सौन्दर्य, नीति, तर्क, राजनीति जैसे पहलुओं पर प्रकाश डाला गया। इसलिए कहा जा सकता है कि भारतीय दर्शनों का विकास अध्यात्मपरक रहा है और पाश्चात्य दर्शनों का विकास बुद्धिपरक । विज्ञान के युग ने सभी भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शनों को प्रभावित किया। जैसे-जैसे विज्ञान का प्रभाव बढ़ता गया, वैसे-वैसे मानवता का झुकाव भी विज्ञान की ओर बढ़ने लगा। वर्तमान युग विज्ञान का युग है। विश्व के हर क्षेत्र में विज्ञान ने दस्तक दी है जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति के विचार, व्यवहार एवं जीवन-मूल्यों में भारी परिवर्तन आए हैं। आज विश्व के सामने आतंक, गरीबी, नारी-शोषण, बेरोजगारी, जनसंख्या वृद्धि, शस्त्रों की होड़, नशे की बढ़ती प्रवृत्ति, गिरते हुए जीवन-मूल्य, जलवायु में बढ़ता प्रदूषण, असीम लालसाओं से उत्पन्न चिंता-तनावगत बीमारियाँ, आत्महत्याएँ, परिवारों में टकराव, टूटते संबंध, दिनोंदिन बढ़ती स्वार्थवृत्ति, मानवता का ह्रास जैसी अनगिनत समस्याएँ हैं । इन्हीं समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने के लिए नीत्से, कांट, विंग, रसेल, हाइडेगर, युंगलर, गुर्जिएफ, रस्किन, मार्क्स जैसे पाश्चात्य दार्शनिक और स्वामी विवेकानंद, महात्मा गाँधी, महर्षि अरविंद, रविन्द्र नाथ टैगोर, जे. कृष्णमूर्ति, आचार्य विनोबा भावे, सर्वपल्ली राधाकृष्णन्, ओशो, आचार्य महाप्रज्ञ एवं श्री चन्द्रप्रभ जैसे वर्तमान युग के महान भारतीय दार्शनिकों ने अपनी विशिष्ट दार्शनिक शैली से अध्यात्म को जीवन - सापेक्ष स्वरूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की है। उन्होंने अध्यात्म एवं विज्ञान का संतुलित समन्वय करके विश्व को वर्तमानकालीन व्यवस्थाओं से उत्पन्न समस्याओं का मनोवैज्ञानिक समाधान दिया है, साथ ही हमारे समक्ष उन्नत भविष्य की रूपरेखा प्रस्तुत की है। उन्होंने विश्व की हर समस्या का समाधान पाने के लिए सर्वप्रथम मनुष्य की सोच एवं चिंतन को सही दिशा प्रदान करने पर बल दिया है। For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स 5 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रप्रभ : नए युग के नए दार्शनिक जीवन जीने की कला सिखाई है। उन्होंने युवाओं को सफलता पाने भारतीय दार्शनिकों की वर्तमान परम्परा में श्री चन्द्रप्रभ एक ऐसे ऐसे आर समृद्ध बनने । और समृद्ध बनने के बेहतरीन गुर दिए हैं। वे कहते हैं, "आज के दार्शनिक हुए हैं जिन्होंने धर्म-अध्यात्म को एक नई दिशा एवं नई दृष्टि समाज में केवल अमीरों की इज़्ज़त होती है इसलिए हर व्यक्ति समृद्ध प्रदान की है। उन्होंने न केवल अध्यात्म की जीवन-सापेक्ष व्याख्या की बने । अपरिग्रह का सिद्धांत अमीरों के लिए है, गरीबों के लिए नहीं।" वरन वर्तमान की समस्याओं का सरल व प्रभावी समाधान दिया है। इस तरह उन्होंने स्वयं को परम्परागत ढर्रे से मुक्त किया है। उन्होंने ईंट. उनके द्वारा दी गई महान सोच और आत्मदृष्टि नई पीढ़ी के लिए मील चून, पत्थर सानामत मादरा का हा बनात रहन का बजाय घर-पारवार के पत्थर का काम कर रही है। एक तरह से श्री चन्द्रप्रभ का मौलिक क को मंदिर बनाने और घर से धर्म की शुरुआत करने की क्रांतिकारी चिंतन और प्रभावी जीवन-दर्शन वर्तमान की गीता बन चुका है। प्रेरणा देकर धर्म को व्यावहारिक एवं वैज्ञानिक बनाने का अनुपम कार्य श्री चन्द्रप्रभ वर्तमान युग के महान जीवन-दृष्टा संत हैं। उनका किया है। जीवन प्रेम, प्रज्ञा, सरलता और साधना से ओतप्रोत है। वे न केवल श्री चन्द्रप्रभ ने जीमणवारी के नाम पर हो रहे असीमित खर्चों का मिठास भरा जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं वरन् अपने जीवन में भी विरोधकर और गरीब भाइयों को ऊपर उठाने की प्रेरणा देकर स्वस्थ मिठास और माधुर्य घोले रखते हैं। वे आम इंसान के बहुत क़रीब हैं। समाज की संरचना करने की कोशिश की है। जहाँ उन्होंने एक ओर धर्म उनके द्वार सबके लिए खुले हुए हैं। सभी को 'प्रभु' कहकर बुलाना को मानवीय मूल्यों के साथ जोड़ा वहीं दूसरी ओर आंतरिक समृद्धि के उनकी बहुत बड़ी विशेषता है। चाहे कोई भी क्यों न हो उनसे मिलकर लिए संबोधि-साधना का सरल एवं मनोवैज्ञानिक मार्ग प्रस्तुत कर प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। उनके पास बैठकर व्यक्ति को जो मानव जाति के समग्र विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। अनुपम आनंद, ज्ञान और सुकून मिलता है वह उसे आजीवन भुला नहीं नि:संदेह विश्व में चल रही दार्शनिकों की प्रवाहमान धारा में श्री पाता है। चन्द्रप्रभ ने जो विचार-दर्शन मानव-समाज को दिया वह न केवल श्री चन्द्रप्रभ की वाणी में न केवल गज़ब का सम्मोहन है वरन् अन्य दार्शनिकों से भिन्न और नया है वरन् मौलिक भी है। उनके द्वारा उनके साहित्य में भी एक विशेष आकर्षण है। प्रायः अच्छा लेखक धरती पर की गई स्वर्ग-निर्माण की पहल आने वाली पीढ़ी के लिए अच्छा वक्ता नहीं होता और अच्छा वक्ता अच्छा लेखक नहीं होता. पर प्रकाश-शिखा का काम करेगी। श्री चन्द्रप्रभ की साधना. साहित्यमाँ सरस्वती की कृपा से वे जितना अच्छा बोलते हैं उतना ही अच्छा लखन एव मानवता स जुड़ा सवाए निरतर प्रगात का आर है। व लिखते भी हैं। श्री चन्द्रप्रभ यानी नई उम्मीद, नया उत्साह, नई ऊर्जा। __ अतुलनीय और अनुपम हैं। उन्हें समझना या उन पर लिखना संभव है, इंसान की सुस्त हो चकी चेतना को जगाने के लिए वे इंकलाब का पर उनकी सम्पूर्णता को प्रकट करना मुश्किल है। पैग़ाम हैं। उनकी पुस्तकें यानी जीवन की हर समस्या का समाधान। आनंद और आत्मविश्वास से भरा उनका साहित्य नई पीढ़ी के लिए रामबाण औषधि का काम कर रहा है। जो उनको एक बार पढ़ लेता है श्री चन्द्रप्रभ की मातृ-भूमि वह उनकी जीवन-दृष्टि का कायल हो जाता है। वे जिस भी गाँव या श्री चन्द्रप्रभ का जन्म शूरवीरों और दानवीरों की भूमि राजस्थान में शहर में जाते हैं और बोलते हैं, उन्हें सभी पंथ, परम्पराओं के लोग हुआ है। महाराणा प्रताप जैसे शूरवीर, भामाशाह और जगडूशाह जैसे सुनने के लिए हज़ारों की तादाद में उमड़ पड़ते हैं। प्रवचनों में जब वे दानवीर, समयसुंदर जैसे कवि, मीरा जैसी भक्त कवयित्री इसी भूमि अपने द्वारा बनाए गए रसभीने भजन गाते-गुनगुनाते हैं तो जनता झूमने पर जन्मे हैं । संत पीपा, संत रैदास, संत दादू, यमुनाचार्य, निम्बार्काचार्य, को विवश हो जाती है। परशुराम, संत खेताराम, संत राजाराम, संत चरणदास, ख्वाजा मुईनुद्दीन श्री चन्द्रप्रभ ने देशभर में जो मानवीय कल्याण के कार्य किए हैं हसन चिश्ती, दुलेशाह जैसे महान पुरुषों को जन्म देने का सौभाग्य और सर्वधर्म सद्भाव का माहौल खड़ा किया है वह अदभत है। वे हर राजस्थान को प्राप्त हुआ है। राजस्थान के सांस्कृतिक आँचल में सभी धर्म और हर महापुरुष पर बोलते हैं। उनका कहना है, "दीये भले ही धर्मों ने अपनी विशिष्ट संस्कृति को संजोया है। अजमेर के ख्वाजा अलग-अलग हो, पर ज्योति सबकी एक है। राम, कृष्ण, महावीर, मुईनुद्दीन चिश्ती, रामदेवरा के बाबा रामदेव पीर, उदयपुर के मोहम्मद, बुद्ध, जीसस, कबीर, नानक आदि धरती के बगीचे पर खिले केसरियानाथ, पुष्कर के ब्रह्मा मंदिर, नाकोड़ा के नाकोड़ा भैरुजी एवं हुए अलग-अलग फूल हैं जो इसकी सुंदरता को घटाते नहीं वरन कई नाथद्वारा के श्रीनाथजी में छत्तीस कौम के विश्वभर से लोग आते हैं। गुना बढ़ाते हैं।" आज श्री चन्द्रप्रभ पंथ-परम्पराओं की संकीर्ण सीमा चित्तौड़गढ़ का विजयस्तंभ, देलवाड़ा, रणकपुर और जैसलमेर के लाँघकर सबके बन चुके हैं। सचमुच इस मानवतावादी राष्ट्र-संत को मंदिरों ने राजस्थान को स्थापत्य और मूर्तिकला का विश्वकोश जैसा विश्वभर में करोड़ों पाठकों एवं श्रोताओं द्वारा प्रतिदिन पढ़ा एवं सुना जा सम्मान दिलाया है। ऐसी महान विशेषताओं से युक्त इस भूमि पर रहा है जो कि हम सबके लिए प्रेरणा-स्रोत है। महान दार्शनिक एवं चिन्तक, राष्ट्र-संत श्री चन्द्रप्रभ ने जन्म लेकर श्री चन्द्रप्रभ का विचार-दर्शन एक तरह से वर्तमान युग की गीता । अपनी ज्ञान-मनीषा से इस भूमि की गरिमा में और चार चाँद लगाए हैं। है। उनके विचार सशक्त, तर्कयुक्त, परिमार्जित एवं सकारात्मकता की जन्मस्थान,परिवार वनामकरण आभा लिए हुए हैं। उनके विचारों में कृष्ण का माधुर्य, महावीर की श्री चन्द्रप्रभ का जन्म राजस्थान प्रदेश के बीकानेर शहर में दफ्तरी साधना, बुद्ध की मध्यम दृष्टि, कबीर की क्रांति, मीरा की भक्ति और गोत्रीय श्री मिलापचंद जी दफ्तरी की धर्मपत्नी श्रीमती जेठी देवी की आइंस्टीन की वैज्ञानिक सच्चाई है। श्री चन्द्रप्रभ ने हँसी-खुशीपूर्वक कुक्षि से वैशाख शुक्ला सप्तमी, विक्रम संवत् 2021, 10 मई 1962, 6> संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only जीवन-परिचय Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ म X ७ गुरुवार को पुष्य नक्षत्र में प्रातः 6 बजे अपने ननिहाल में मातामह, महान खेलकूद में अपना ज्यादा ध्यान देने के कारण वे शिक्षा के प्रति पूर्णतया साहित्य-सेवी, इतिहासवेत्ता श्री अगरचंद जी नाहटा के यहाँ हुआ, गंभीर न हो पाये और ऐसी स्थिति बनी कि एक बार तो अनुत्तीर्ण होतेजिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन शिक्षा, साहित्य एवं ज्ञान की सेवा में होते बचे। उस समय एक ऐसी घटना घटी जिसने उन्हें जीवन में कुछ समर्पित कर दिया। उनके घर का कोना-कोना ग्रंथों से भरा रहता था कर गुजरने का जज्बा पैदा किया। स्वयं श्री चन्द्रप्रभ के शब्दों में - और देश-विदेश के मनीषी उनके यहाँ शोध-कार्य के लिए आते थे। बात तब की है, जब मैं नौवीं कक्षा की परीक्षा दे रहा था। संयोग ऐसे ज्ञान से सुवासित वातावरण में श्री चन्द्रप्रभ का जन्म होना श्री प्रभु की बात कि परीक्षा में मेरी सप्लीमेंटरी आ गई। क्लास टीचर सभी की सारस्वत कृपा का ही फल था। पुष्य नक्षत्र में जन्म होने के कारण छात्रों को उनके प्रमाण-पत्र दे रहे थे। जब मेरा नंबर आया, तो न जाने इनका नामकरण 'पुखराज' किया गया, पर घर में सभी इन्हें प्यार से क्यों उन्होंने खासतौर से मेरी मार्कसीट पर नज़र डाली। वे चौंके और 'राजू' कहकर पुकारा करते थे। इनके तीन बड़े भाई श्री प्रकाशचन्द उन्होंने एक नज़र से मझे देखा। मैं संदिग्ध हो उठा. कछ भयभीत भी। जी, श्री अशोककुमार जी एवं श्री सिद्धिराज जी हैं एवं एक छोटे भाई उन्होंने मुझे मार्कशीट न दी। यह कहते हुए मार्कशीट अपने पास रख श्री ललितकुमार जी हैं जो कि आज दीक्षित अवस्था में महोपाध्याय श्री ली कि ज़रा रुको, मुझसे मिलकर जाना। जब सभी सहपाठी अपनीललितप्रभसागर जी महाराज के नाम से सुप्रतिष्ठित हैं। श्री चन्द्रप्रभ की ___ अपनी मार्कशीट लेकर क्लास से चले गए, तो पीछे केवल हम दो ही जन्म-कुंडली इस प्रकार है - बचे, एक मैं और दूसरे टीचर। उन्होंने मुझे दो-चार पंक्तियाँ कही होंगी, लेकिन उनकी पंक्तियों ने मेरा नज़रिया बदल दिया, मेरी दिशा २ शु बदल डाली। उन्होंने कहा, "क्या तुम्हें पता है कि तुम्हारे सप्लीमेंटरी आई है? चूंकि तुम्हारा बड़ा भाई मेरा अज़ीज मित्र है इसलिए मैं तुम्हें कहना चाहता हूँ कि तुम्हारा भाई हमारे साथ इसलिए चाय-नाश्ता नहीं करता कि अगर वह अपनी मौज-मस्ती में पैसा खर्च कर देगा, तो तुम शेष चार भाइयों की स्कूल की फीस कैसे जमा करवा पाएगा? तुम्हारा जो भाई अपना मन और पेट मसोसकर भी तुम्हारी फीस जमा करवाता है, क्या तुम उसे इसके बदले में यह परिणाम देते हो?" बाल्यकाल एवं विद्यालय प्रवेश उस क्लास टीचर द्वारा कही गई ये पंक्तियाँ मेरे जीवन-परिवर्तन श्री चन्द्रप्रभ शुरू से ही मेधावी और संस्कारशील बालक थे। प्रायः की प्रथम आधारशिला बनीं। उन्होंने न केवल मुझे अपने भाई के ऋण बाल्यावस्था खेलने-कूदने और लाड़-प्यार में ही पूरी हो जाती है, पर का अहसास करवाया, अपितु शिक्षा के प्रति बहुत गंभीर बना दिया और श्री चन्द्रप्रभ के साथ ऐसा नहीं था। उन्हें प्रभु-पूजा, संतों के दर्शन, तबसे प्रथम श्रेणी से कम अंकों से उत्तीर्ण होना मेरे लिए चल्लभर पानी धार्मिक पुस्तकों का पठन, तीर्थयात्रा जैसे संस्कार विरासत से ही मिले में डूबने जैसा होता। मैं शिक्षा के प्रति सकारात्मक हुआ। माँ सरस्वती ने हुए थे। श्री चन्द्रप्रभ का बचपन अन्य बालकों की तरह नहीं था। अपने मुझे अपनी शिक्षा का पात्र बनाया। उन्होंने हायर सैकण्डरी परीक्षा नाना श्री अगरचंद नाहटा जैसे विद्वान पुरुष का वरदहस्त उन्हें सहज उत्तीर्ण कर बी.कॉम. प्रथम वर्ष का अध्ययन प्रारम्भ किया, किंतु रूप से मिला हुआ था। समय-समय पर नाहटाजी से मिलने आते भविष्य उनसे कुछ और करवाना चाहता था। विद्वानों, समाजसेवियों को देखना, उनका आपसी व्यवहार, वार्तालाप, दीक्षा-ग्रहण शास्त्रीय चर्चाओं से युक्त वातावरण उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए बीज वपन का कार्य कर रहा था। उनकी प्रतिभा धार्मिक गीतों की रचना श्री चन्द्रप्रभ के माता-पिता एवं ननिहाल पक्ष धार्मिक एवं के रूप में सामने आती रहती थी। श्री चन्द्रप्रभ बचपन से ही मेधावी ज्ञानमूलक संस्कारों से जुड़ा हुआ था। श्री चन्द्रप्रभ के माता-पिता के होने के साथ-साथ साहसी व्यक्तित्व के धनी रहे हैं। गलत का दृढ़ता से अंतर्मन में जैन धर्म के महान तीर्थ पालीताणा की 'नवाणु यात्रा' करने मुकाबला करने की आदत उनकी बचपन से रही है। यही कारण है कि का संकल्प जगा। वहाँ वे एक साध्वी के सम्पर्क में आए, जिनका नाम बचपन में एक बार वे विद्यालय से घर आने के लिए निकले तो उन्होंने था पुष्पा श्री जी महाराज। श्री चन्द्रप्रभ के माता-पिता को उनकी गुर्जरों के मौहल्ले के पास देखा कि आठ-दस लड़के उनके ही वैराग्यभरी बातों ने प्रभावित किया। उन्होंने अपने शेष जीवन को धन्य विद्यालय के एक सीधे-सरल लड़के की पिटाई कर रहे हैं। उन्होंने उन करने के लिए दीक्षा धारण करने का मानस बनाया। उनके संत बनने लड़कों को समझाने की कोशिश की और उसे छोड़ने के लिए कहा, पर की भावना से श्री चन्द्रप्रभ के छोटे भाई ललितजी भी प्रभावित हुए। जब वे उद्दण्डी लड़के न माने तो उन्होंने अपनी साइकिल दीवार के तीनों ने एक साथ दीक्षा धारण की। अपने छोटे भाई के अस्वस्थ हो सहारे छोड़ी और उन शैतान लड़कों को ठीक करने के लिए वे उन पर जाने पर श्री चन्द्रप्रभ ने उनकी सेवा-व्यवस्था सँभाली। वे अपनी टूट पड़े। दस का मुकाबला अकेले ने किया और उन दुष्ट लड़कों को साध्वी माँ श्री जितयशा जी एवं उनकी गुरुणी महान साध्वी श्री भगाकर अपने ही विद्यालय के सहपाठी को घर छोड़कर आए। विचक्षण श्री जी महाराज के कहने पर धमतरी (छत्तीसगढ़) में आयोजित तत्त्व ज्ञान शिक्षण शिविर में शरीक हुए। वे वहाँ जैनधर्म के श्री चन्द्रप्रभ का अध्ययन शुरू में घर पर ही हुआ। इन्हें सीधे तत्त्व ज्ञान एवं शिविर-निदेशक कुमारपाल भाई की त्यागमयी जीवनपाँचवीं कक्षा में प्रवेश दिलाया गया। बीकानेर के जैन स्कूल में उन्होंने शैली से प्रभावित हुए। उन्होंने अपने माता-पिता की सेवा और अध्ययन करते हुए आगे की कक्षाएँ अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की, पर। आध्यात्मिक जीवन की ओर बढ़ने का मानस बनाया। उनका साध्वी श्री संबोधि टाइम्स-7 For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचक्षण श्री जी महाराज के पास भी काफी निकटता से रहने का अवसर बना। साध्वी जी को कैंसर था, पर उसके बावजूद 'तन में व्याधि मन में समाधि' के आध्यात्मिक मंत्र को उन्होंने अपने जीवन में चरितार्थ किया। श्री चन्द्रप्रभ ने उनके पास रहकर भेद-विज्ञान के मर्म को समझा जिसे उन्होंने जीवन भर जीने की सजगता रखी। कुल मिलाकर श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म और अध्यात्म की नई उर्मि को हृदय में सैंजोते हुए दीक्षा के रूप में प्रभु के पवित्र पथ पर कदम बढ़ाने का निर्णय कर लिया। श्री चन्द्रप्रभ की दीक्षा माघ शुक्ला एकादशी, विक्रम संवत् 2036 सन् 1980 में 27 जनवरी को साढ़े सतरह वर्ष की अल्पायु में राजस्थान के बाड़मेर शहर में जैन जगत के परम प्रभावी आचार्य प्रवर श्री जिन कांतिसागर सूरिजी महाराज के कर कमलों से सम्पन्न हुई। आचार्य प्रवर ने नवदीक्षित मुनि का नाम चन्द्रप्रभ सागर घोषित किया। खुद उतार-चढ़ाव से गुजरते हुए भी अंधेरी दुनिया को शांत, शीतल रोशनी प्रदान करना चन्द्रमा का मूल गुण है। इनकी दीक्षा के चार दिन बाद ही बाड़मेर से पालीताणा के लिए विशाल पैमाने पर चतुर्विध पदयात्रा संघ निकला जो कि इनके पुण्योदय का शुभ संकेत था । गुरु चरणों में समर्पण दुनिया में सबसे बड़ा आध्यात्मिक रिश्ता गुरु-शिष्य का होता है। हमारे जीवन में गुरु अवश्य होना चाहिए। गुरु बनाना जितना सौभाग्यदायी होता है, उतना ही शिष्य बनना भी संसार में ज्ञानदाता को गुरु कहा जाता है। माता-पिता और उपकारी जन भी गुरु माने जाते हैं। महोपाध्याय ललितप्रभ सागर महाराज गुरु की व्याख्या करते हुए कहते हैं, " जो शिष्य को शिष्य नहीं रहने देता वरन् अपने समान बना देता है वही सच्चा गुरु है। गुरु गंगा, गायत्री, गाय, गीता और गोविंद से भी बढ़कर है। गुरु उस शिल्पकार की तरह है जो शिष्य रूपी अनघड़ पत्थर को पत्थर नहीं रहने देता वरन् प्रतिमा बना देता है। " श्री चन्द्रप्रभ के अनुसार, "गुरु धरती का चलता-फिरता मंदिर है। गुरु कोई व्यक्ति या वेश का नहीं, शांत सरोवर और ज्ञान सागर का नाम है जो जीवन में आता है और सोई हुई चेतना को जगा जाता है।" दीक्षा लेते ही श्री चन्द्रप्रभ धार्मिक एवं शास्त्रीय अध्ययन में संलग्न हो गए। उन्होंने लगभग एक वर्ष तक आचार्यश्री के सान्निध्य में अध्ययन एवं प्रवास किया। फिर उनका अपने पिता संत शासनप्रभावक मुनिराज श्री महिमाप्रभ सागर जी महाराज तथा अपने बंधुवर्य मुनिवर श्री ललितप्रभ सागर जी महाराज के साथ अलग विहार-क्रम चालू हो गया। उन्होंने अहमदाबाद में लगभग एक वर्ष तक अध्ययन किया एवं दिल्ली में अनेक प्रोफेसरों के मार्गदर्शन में उन्होंने सात महीनों तक अध्ययन किया. फिर वे गहन अध्ययन के लिए बनारस आ गए, जहाँ पार्श्वनाथ शोध संस्थान में उन्होंने लगातार तीन वर्ष तक संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, प्राचीन राजस्थानी, गुजराती, अंग्रेजी आदि भाषाओं के अतिरिक्त प्राचीन लिपी, भाषा विज्ञान, आगम, शास्त्र, दर्शन, इतिहास, मनोविज्ञान, काव्यशास्त्र पिटक, उपनिषद्, विधिविधान, व्याकरण शास्त्र आदि विषयों पर गहन अध्ययन के साथ } अनुसंधान भी किया। श्री चन्द्रप्रभ ने अपनी विहार यात्राओं में प्रबुद्ध मनीषियों से विद्याध्ययन एवं मार्गदर्शन का सुअवसर प्राप्त किया, जिनमें मुख्य रूप से शोध-निदेशक डॉ. सागरमल जैन, प्रो. भगवानदास जैन, डॉ. ओमप्रकाश शास्त्री, डॉ. छगनलाल शास्त्री, आचार्य विश्वनाथ द्विवेदी, श्री भँवरलाल नाहटा, प्रो. श्रीनारायण मिश्र आदि विद्वानों के नाम उल्लेखनीय हैं। " श्री चन्द्रप्रभ की भारतीय चिंतन, साहित्य एवं साधना के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। उन्होंने तर्क-वितर्क भरी दार्शनिक शैली से मुक्त होकर चिंतन को जीवन सापेक्ष स्वरूप प्रदान किया और पारलौकिक स्वर्ग-नरक की परिभाषा से बाहर निकलकर इसी जीवन को स्वर्ग बनाने एवं इसी जीवन में नरक से बचकर रहने की प्रेरणा दी। वे न केवल एक महान गुरु महाश्रमण और समाज सुधारक हैं, अपितु विलक्षण प्रतिभा तथा सृजन क्षमता से सम्पन्न महामनीषी भी हैं । उन्होंने चिंतन, दर्शन, काव्यशास्त्र आदि वाङ्गमय के समस्त महत्त्वपूर्ण अंगों पर साहित्य का निर्माण कर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है । वास्तव में न केवल जैन साहित्य में अपितु सम्पूर्ण भारतीय साहित्य के प्रमुख साहित्यकारों में श्री चन्द्रप्रभ का नाम गौरव के साथ लिया जाता है । फुल सर्कल और हिन्द पॉकेट बुक जैसे राष्ट्रीय प्रकाशकों ने देश के महान पचास साहित्यकारों में श्री चन्द्रप्रभ को बड़े सम्मान के साथ समाहित किया है। फुल सर्कल, पुस्तक महल, हिन्द पॉकेट बुक, श्री चन्द्रप्रभ के दीक्षागुरु प्रसिद्ध आचार्य श्री जिन कांतिसागर सूरि मनोज पब्लिकेशन जैसे राष्ट्रीय स्तर के प्रकाशकों ने उनका साहित्य जी म. थे जो जैन धर्म के खरतरगच्छ आम्नाय से थे । शास्त्रीय अध्ययन विपुल मात्रा में प्रकाशित किया है। देश की सभी बुकस्टालों पर उनका साहित्य आम व्यक्ति को उपलब्ध रहता है। उनके साहित्य ने लोगों में किताबें पढ़ने की रुचि जगाई। लोगों को शिव खेड़ा और प्रमोद बत्रा जैसे बड़े लेखकों के स्तर की किताबें श्री चन्द्रप्रभ के जरिये सहज सुलभ हो गई। 8 संबोधि टाइम्स अपनी नैसर्गिक प्रतिभा को प्रखर करते हुए श्री चन्द्रप्रभ ने विद्याअध्ययन में साहित्य - विशारद, साहित्य रत्न, जैन सिद्धांत प्रभाकर तक की उच्चतम परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं और जैन जगत के अद्भुत अष्टलक्षी महाकाव्य के रचयिता महोपाध्याय समयसुंदर पर महत्त्वपूर्ण शोध कार्य किया, जिस पर उन्हें हिन्दी विश्वविद्यालय, प्रयाग ने 'महोपाध्याय' की उपाधि से अलंकृत किया। उनका शोध-प्रबंध महोपाध्याय समयसुंदर व्यक्तित्व एवं कृतित्व के रूप में प्रकाशित है जो विद्वत जगत में बहुत सम्मानित हुआ है। शोध-प्रबंध की शैली सीखने के लिए शोधार्थी आज भी इसका उपयोग करते हैं। साहित्य-सृजन - जीवन-निर्माण, पारिवारिक प्रेम व्यक्तित्व विकास और जीवन की सफलता से जुड़ी श्री चन्द्रप्रभ की शताधिक पुस्तकों ने घर-घर में प्रेम और प्रज्ञा के दीप जला दिये। देश भर के संतों में भी श्री चन्द्रप्रभ का साहित्य बड़े चाव के साथ पढ़ा जाता है। संत लोग अपने प्रवचन श्री चन्द्रप्रभ की पुस्तकों के आधार पर देते हैं क्योंकि श्री चन्द्रप्रभ की किताबें और उनके विचार पूरी तरह से जीवन के व्यावहारिक पहलुओं से जुड़े होते हैं इसलिए सीधे दिल को छूते हैं और जीवन के साथ लागू होते हैं। श्री चन्द्रप्रभ का साहित्य एक तरह से एक बहुत बड़ी क्रांति है, आम समाज के लिए दीप शिखा की तरह मार्गदर्शक है, मील के पत्थर की तरह आगे से आगे रास्ता दिखाने वाला है। For Personal & Private Use Only . Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रप्रभ के साहित्य पर समीक्षा करते हुए डॉ. नागेन्द्र ने लिखा सकारात्मक पहलू का स्पर्श करते हुए धर्म, शिक्षा, नारी, अध्यात्म, है,"उनका साहित्य कोई मनोरंजन का छिछला और सस्ता साधन नहीं ध्यानयोग, व्यक्तित्व-निर्माण, परिवार, स्वास्थ्य, मानवीय एकता, प्रेम, है, वह तो जीवन के सूक्ष्म रहस्यों को उद्घाटित करने वाला स्रोत है।" विश्वशांति, राष्ट्र-निर्माण जैसे हर क्षेत्र में नई एवं मौलिक अंतर्दृष्टि उनके साहित्य से स्पष्ट प्रतीत होता है कि वे सत्यग्राही हैं। वे देश- प्रदान की है। हर विषय पर उनकी अद्भुत पकड़ है। जहाँ तक लेखनकाल-जाति-धर्म की ग्रंथियों से मुक्त हैं। चारों तरफ उनका साहित्य- शैली का प्रश्न है, गद्य हो या पद्य दोनों में वे सिद्धहस्त नजर आते हैं। प्रवाह गतिशील रहा है। उनकी प्रवचन शैली लीक से हटकर एवं उन्होंने तार्किक शैली, संवाद शैली, दृष्टान्त शैली, प्रेरक प्रसंग और दिल-दिमाग को सीधी छूने वाली है। संतों के साहित्य मुख्यतया ईश्वर व्याख्यात्मक शैली का प्रभावी उपयोग किया है। भाषा, गुण, शैली, की उपासना, मोक्ष-प्राप्ति, वैराग्य, ध्यान साधना अथवा धर्म-अध्यात्म वर्णन-कौशल, रस, अलंकार, छन्द, सुभाषित, विचार इत्यादि सभी तक ही सीमित रहते हैं, पर श्री चन्द्रप्रभ ऐसे पहले संत हैं जिन्होंने इन दृष्टियों से श्री चन्द्रप्रभ का साहित्य भारतीय साहित्य एवं दर्शन के गगन सब पर तो गहरा चिंतन दिया ही है, साथ ही भटकती युवा पीढ़ी के में चार चांद लगा रहा है। हिंदी साहित्य एवं भारत की ज्ञानमनीषा उनके लिए उन्होंने कॅरियर-निर्माण, व्यक्तित्व-निर्माण और संस्कार-निर्माण गरिमापूर्ण व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर गौरवान्वित है। पर भी अपनी महान सोच दी है। यही कारण है कि सम्पूर्ण देश में श्री उपाधियों का किया विसर्जन चन्द्रप्रभ एक ऐसे संत हैं जिनका साहित्य सबसे ज्यादा युवा पीढ़ी पसंद __भारतीय संस्कृति में उत्कृष्ट कार्य करने वालों को सम्मान' प्रदान करती है और उसे अपने जीवन के लिए किसी रोशनदान की तरह करने की गरिमामय परम्परा रही है। जिन्होंने धर्म, समाज, राष्ट्र के मानती है। इससे जुड़ी कई घटनाएँ उनके पास रहने के कारण मुझे विकास में महत्त्वपूर्ण आहुतियाँ समर्पित की, उन्हें विशेष सम्मान देकर सुनने को मिली हैं जिसमें से एक घटना है - उनके प्रति कृतज्ञता अर्पित की जाती है। उपाधि से व्यक्ति महान नहीं एक 20 साल की बालिका ने श्री चन्द्रप्रभ को पंचांग प्रणाम कर बनता, वरन् महापुरुषों को पाकर उपाधियाँ स्वयं गौरवान्वित होती हैं। कहा,"आपके मार्गदर्शन से मैं कॉलेज में प्रथम आने में सफल हुई हूँ श्री चन्द्रप्रभ अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से मानव समाज के जिसके कारण आज पूरा परिवार और समाज मुझ पर गर्व कर रहा है।" विकास में जो महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं वह अद्भुत है। उनके उन्होंने आश्चर्य से पूछा, "आप तो मुझे अपरिचित नज़र आ रही हैं, ओजस्वी व्यक्तित्व एवं कृतित्व के कारण अनेक संघों एवं संस्थाओं फिर आपको मेरा मार्गदर्शन कैसे प्राप्त हुआ?" बालिका ने रहस्य द्वारा समय-समय पर उन्हें प्रवचन-प्रभाकर, कविरत्न, व्याख्यानउद्घाटित करते हुए कहा कि कुछ महीने पहले मेरा जन्मदिन था। मेरी वाचस्पति, सिद्धांत-प्रभाकर, साहित्य-विशारद, महामहोपाध्याय, सहेली ने मुझे जन्मदिन पर आप द्वारा लिखी पुस्तक 'लक्ष्य बनाएँ, राष्ट्र-संत जैसी अनेक सम्माननीय उपाधियों से अलंकृत किया गया, पुरुषार्थ जगाएँ' उपहार में दी थी। मैंने उसको पढ़ा तो मेरा खोया पर वे सदा उपाधियों से उपरत रहे। उन्होंने पद को भी परिग्रह माना और आत्मविश्वास जागृत हो गया, साथ ही कॅरियर बनाने के कुछ सरल सन् 1988 में हम्पी की गुफा में साधना करते हुए उपलब्ध हुए आत्मटिप्स मिल गए। उन्हीं टिप्स की बदौलत मैं इस बार कॉलेज में प्रथम प्रकाश के बाद उन्होंने समस्त उपाधियों का त्याग कर दिया। वे अपने आ पाई। नाम के साथ किसी भी तरह की उपाधि का उपयोग करने के लिए मना इसी के साथ ही श्री चन्द्रप्रभ ने पंथ-परम्पराओं में पाये जाने वाले करते हैं। वे कहते हैं, "संत-पद अपने आप में सबसे बड़ा सम्मान है। आडम्बरों और भेदों पर भी कबीर की तरह निर्भीकता से चोट की है। । इससे अधिक सम्मान की मुझे जरूरत नहीं है।" उनका दृष्टिकोण है - उन्होंने अपने साहित्य और जीवन-दृष्टि को साम्प्रदायिकता से पूरी । कुदरत ने सम्मान सदा औरों को देने के लिए बनाया है, लेने के लिए तरह मुक्त रखा है। उनका साहित्य हर जाति-कौम द्वारा पढ़ा जाता है। नहीं। मान-सम्मान से खुद को मुक्त रखना निश्चय ही श्री चन्द्रप्रभ की उन्हें पढ़ने वाला व्यक्ति उन्हें महज किसी संत या धर्माचार्य के रूप में एक महान साधना है। नहीं देखता। उसे लगता है कि मानो एक मैनेजमेंट गुरु उसे जीवन जीने मंदिरों की प्राण-प्रतिष्ठा की कला सिखा रहा है। श्री चन्द्रप्रभ चिंतक एवं दार्शनिक होने के साथ-साथ महान कवि, नूतन मंदिरों में तीर्थंकर परमात्मा, गुरु, आचार्य, देवी-देवताओं गीतकार एवं कहानीकार भी हैं। उन्होंने अतीत को ध्यान में रखकर की प्रतिमा को मंत्रोच्चार एवं विधि-विधान द्वारा स्थापित करना वर्तमान को चिंतनधारा में मिलाते हुए उज्ज्वल भविष्य के आदर्श प्रतिष्ठा कहलाता है। गृहस्थों के मन में प्रभु-भक्ति के प्रति श्रद्धा पैदा करना ही इसका मुख्य लक्ष्य है। इससे धर्म की प्रभावना भी होती है। स्थापित करने में शत-प्रतिशत सफलता पाई है। श्री चन्द्रप्रभ की काव्य पुस्तिका प्रतीक्षा' का अवलोकन करते हुए महान कवयित्री महादेवी इसी उद्देश्य को लेकर श्री चन्द्रप्रभ द्वारा अनेक मंदिरों की प्रतिष्ठा वर्मा ने कहा था, "इन कविताओं ने मेरी आत्मा को छू लिया है।" श्री कार्यक्रम सम्पन्न हुए हैं। उन्होंने सन् 1989 में गुजरात के सूरत में चन्द्रप्रभ ने उड़ीसा राज्य की यात्रा के दौरान उदयगिरि-खण्डगिरि की विश्वविख्यात सहस्रफणा पार्श्वनाथ मंदिर, नागेश्वर पार्श्वनाथ मंदिर गुफाओं में साधना के लिए प्रवास किया। पूरे देश में लोकप्रिय "जहाँ और हरिपुरा दादावाड़ी की, सन् 1994 में मध्यप्रदेश के भोपाल स्थित नेमि के चरण पड़े गिरनार की धरती है, वह प्रेम मूर्ति राजुल उस पथ पर आस्टा में श्री सीमंधर स्वामी मंदिर की, राजस्थान के जोधपुर में सन् 1995 में अजीत कॉलोनी कुंथुनाथ मंदिर की, सन् 1996 में सिंहपोल चलती है" भजन की रचना भी उन्होंने वहीं की थी। जैन मंदिर की, सन् 2002 में संबोधि धाम अष्टापद मंदिर की, सन् श्री चन्द्रप्रभ की अब तक शताधिक पुस्तकें छप चुकी हैं, जिनका 2008 लालसागर जैन मंदिर की प्रतिष्ठाएँ करवाई। विस्तार से अध्ययन हम दूसरे अध्याय में करेंगे। उन्होंने जीवन के हर संबोधि टाइम्स -9 For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं की स्थापना प्रकाशन किए हैं। हालाँकि श्री चन्द्रप्रभ के साहित्य को देश के कई __भारतीय दर्शन में संस्कृति का हर दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण स्थान वरिष्ठ प्रकाशकों ने भी प्रकाशित किया है, तथापि उनका अधिकांश । आम जनमानस को हमारे सांस्कृतिक वैभव से परिचित करवाने के साहित्य इसी फाउंडेशन से प्रकाशित हुआ है। फाउंडेशन से प्रकाशित लिए श्री चन्द्रप्रभ के निर्देशन में झारखंड के सम्मेतशिखर महातीर्थ में अल्पमाला साहित्य आमजनमानस में इतना लोकप्रिय होता है कि कोई सर्वप्रथम भव्य जैन म्यूजियम की स्थापना हुई, जहाँ प्रतिवर्ष हजारों भी पुस्तक एक वर्ष पूर्ण होने से पहले ही समाप्त हो जाती है। इण्डिया श्रद्धालु पहुँचकर जैन संस्कृति से रूबरू होते हैं। जैनत्व को मानवीय टूडे प्रकाशन समूह ने तो इस फाउंडेशन को अपने मुखपृष्ठ पर जगह टूड प्रकाशन समूह न ता इस फाउड एवं आध्यात्मिक दृष्टि से जनमानस को परिचित कराना जैन म्यूजियम परिनित कराना जैन बलिया दी है और इसे देश का गरिमापूर्ण प्रकाशक स्वीकार किया है। का मुख्य उद्देश्य है। म्यूजियम के बाहर भगवान महावीर की मनोरम संबोधि साधना मार्ग और व्यक्तित्व-निर्माण से जुड़े दिव्य वचनों ध्यानस्थ प्रतिमा और भगवान पार्श्वनाथ की योगमय दिव्य प्रतिमा को आम जनमानस तक पहुँचाने के लिए संबोधि टाइम्स नामक विराजमान है। म्यूजियम में प्रवेश करते ही तीर्थंकरों एवं आदर्श पुरुषों विचारप्रधान पत्रिका का प्रकाशन भी यही फाउंडेशन करता है जिसके के प्राचीन स्वर्ण-चित्र, ताडपत्र पर लिखित शास्त्रों के नमूने, हाथीदाँत पूरे देश में तकरीबन दो लाख पाठक हैं। देशभर में लाखों लोगों के पर नक्काशी की गई जिन प्रतिमाएँ, चंदन काष्ठ पर अंकित शिल्प विचारों को प्रभावित एवं प्रेरित करने वाली इस मासिक पत्रिका में श्रेष्ठ वैभव, देश व विदेश द्वारा जैन धर्म पर जारी डाक टिकटों का अनोखा ज्ञान एवं पवित्र चिंतन को समाहित किया जाता है। जिंदगी को चार्ज संकलर्शित होता मालिनिन नावलों के टाप करने वाली इस पत्रिका के पहले पृष्ठ पर श्री चन्द्रप्रभ के प्रकाशित होने तीर्थंकरों की छवियों का अंकन, बदाम व काजू की आकृति में जिनत्व वाले प्रेरक वक्तव्य आम जिंदगी को नई दिशा देते हैं ।जैन म्यूजियम का का परिदर्शन, प्रभावी चमत्कारी यंत्र, विविध प्रकार की मालाएँ, ताम्र निर्माण भी इसी फा निर्माण भी इसी फाउंडेशन ने करवाया जो कि पूर्वी भारत में अपने आप एवं रजत पत्रों पर भगवान ऋषभ, लक्ष्मी, सरस्वती, पद्मावती आदि म अनूठा आर अद्भुत है। की उभरती छवियों से म्यूजियम में जैन संस्कृति का दिग्दर्शन छिपा प्रवचनों का राष्ट्रव्यापी प्रभाव हुआ नजर आता है। श्री चन्द्रप्रभ के न केवल साहित्य में वरन् प्रवचनों में भी जादू है, श्री चन्द्रप्रभ की प्रेरणा से म्यूजियम में जैन तीर्थंकरों एवं महापुरुषों उनका एक बार प्रवचन सुन लेने वाला व्यक्ति इस तरह सम्मोहित हो के जीवन से जुड़ी विभिन्न घटनाक्रमों को झाँकियों के माध्यम से जाता है कि जीवनभर उन्हीं को सुनना चाहता है। उनके प्रवचनों का संजीवित किया गया है। इसके अतिरिक्त म्यूजियम में श्री जितयशा व्यक्तित्व पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि व्यक्ति स्वतःही बदल जाता है। फाउंडेशन का संपूर्ण साहित्य, वीसीडी एवं विश्वभर का प्रसिद्ध सबसे खास बात यह है कि उनके प्रवचनों की शैली, शब्दचयन, साहित्य भी अध्ययन के लिए रखा गया है। इस तरह यह म्यूजियम जैन लयबद्धता, क्रमबद्धता, विषय-विवेचन इतना सरल, संजीदा और संस्कृति एवं सभ्यता को उजागर करने वाला देश का प्रमुख केन्द्र है। प्रभावशाली होता है कि बच्चे से लेकर वृद्ध व्यक्ति के मानस-पटल पर तत्पश्चात श्री चन्द्रप्रभ के मार्गदर्शन में राजस्थान प्रदेश के जोधपुर अमिट अक्षरों की तरह अंकित हो जाता है। श्री चन्द्रप्रभ जहाँ पर भी शहर में कायलाना रोड पर विख्यात साधना स्थली संबोधि धाम का प्रवचन देते हैं, उन्हें सुनने हजारों लोग उमड़ते हैं। वस्तुतः उनके निर्माण हुआ। जहाँ पहुँचने मात्र से मन को शांति मिलती है एवं प्रवचनों में ऊँची एवं ऊपरी बातें कम व्यावहारिक बातें अधिक होती अध्यात्म का प्रसाद प्राप्त होता है। संबोधि साधना मार्ग का राष्ट्रीय केन्द्र हैं। भीलवाड़ा के पूर्व कलेक्टर राजीव सिंह ठाकुर का कहना है, संबोधि धाम से प्रतिवर्ष व्यापक स्तर पर सामाजिक, मानवीय, "पूज्यश्री के प्रवचनों ने जनमानस पर जो जबरदस्त प्रभाव डाला है वह साहित्यिक आदि अनेक सेवाएँ सम्पन्न होती हैं। वहाँ अष्टापद मंदिर, अपने आप में एक ऐतिहासिक काम है।" संगम ग्रुप, भीलवाड़ा के दादावाड़ी, गुरु मंदिर, संबोधि साधना सभागार, सर्वधर्म मंदिर, साहित्य चेयरमैन रामपाल सोनी के अनुसार, “अत्यधिक व्यस्तता होने के मंदिर, स्वाध्याय मंदिर, जयश्रीदेवी मनस चिकित्सा केन्द्र, गुरु महिमा बावजूद मैंने अनेक बार आजाद चौक में पहुँचकर इन राष्ट्रीय संतों के मेडिकल रिलीफ सोसायटी निर्मित हैं एवं आवास व भोजन की सम्पूर्ण संदेशों को सुना। इनकी हर बात इतनी सीधी, सरल और सटीक होती है कि अनायास ही हृदय में उतर जाती है।" उनके प्रवचन-प्रभावकता सुविधायुक्त व्यवस्था उपलब्ध है। यहाँ प्रतिवर्ष लाखों लोग पहुँचकर जीवन जीने के नए पाठ सीखते हैं। यहाँ आयोजित संबोधि ध्यान योग से जुड़े कुछ प्रसंग इस प्रकार हैं - साधना के आवासीय शिविरों में भी पूरे देश से साधक पहुँचते हैं। कुलपति हुए आह्लादित - सन् 1985 में श्री चन्द्रप्रभ सहयोगी संतों के साथ कोलकाता में चातुर्मास कर रहे थे। उनके साहित्य सत्साहित्य प्रकाशन के क्षेत्र में अपनी अग्रणी भूमिका निभाने महोपाध्याय के शोध-प्रबंध का वायवा (साक्षात्कार) लेने हेतु हिन्दी वाली श्री जितयशा फाउंडेशन की स्थापना भी श्री चन्द्रप्रभ की प्रेरणा से विश्वविद्यालय, इलाहाबाद के कुलपति डॉ. प्रभात शास्त्री दो अन्य हुई है। यह फाउंडेशन अब तक संतश्री ललितप्रभ जी एवं संतश्री प्रोफेसरों के साथ आए थे। दोपहर में शोध-प्रबंध के बारे में परिचर्चा चन्द्रप्रभ जी की सैकड़ों पुस्तकों का प्रकाशन कर चुका है। अल्पमोली, होने वाली थी। उस दिन सुबह 9.00 से 10.30 बजे तक 'साधना के श्रेष्ठ तथा सुंदर साहित्य के प्रकाशन में यह संस्थान पूरे देश भर में प्रयोग' पर श्री चन्द्रप्रभ का दिव्य सत्संग होना था। डॉ. प्रभात शास्त्री लोकप्रिय है। श्री चन्द्रप्रभ ने गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रेरणा लेकर इस सहित सभी प्रोफेसरों ने उनके प्रवचन का श्रवण किया और अंततः फाउंडेशन का गठन किया। जीवन-विकास, संस्कार-निर्माण, शास्त्री जी ने खड़े होकर कहा, "मैं आया तो हूँ इनके शोध-प्रबंध का कॅरियर-निर्माण, स्वास्थ्य लाभ, पारिवारिक समन्वय, राष्ट्र-निर्माण के वायवा लेने के लिए, पर साधना पर दिए गए इनके सत्संग को सुनकर साथ धर्म, अध्यात्म और ध्यान योग साधना पर इस संस्थान ने बहुतेरे मैं इतना आह्लादित हो उठा हूँ कि मन ही मन इनको अपना गुरु मान 10» संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैठा हूँ। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि इनका क्या वायवा लूँ।" एवं कॅरियर-निर्माण के अंतर्गत व्यक्तित्व विकास, लाइफ मैनेजमेंट, गुरुजी ने थपथपाई पीठ - नागेश्वर तीर्थ में सन् 1982 में आत्मविश्वास, प्रतिभा और किस्मत से जुड़े विषयों को छूते हैं। ये दादावाड़ी की प्रतिष्ठा का महोत्सव था। इस दौरान जैन धर्म की महान प्रवचन युवा पीढ़ी के लिए रामबाण औषधि का काम करते हैं। उनकी साध्वी विचक्षणश्री जी महाराज की प्रथम पुण्य तिथि का कार्यक्रम था। मायूसी और निराशाएँ छुट जाती हैं। व्यक्ति अपने आपको आचार्य श्री जिन उदयसागर सूरि जी महाराज, आचार्य श्री जिन आत्मविश्वास से परिपूर्ण महसूस करता है। उन्होंने स्वास्थ्य-निर्माण कांतिसागर सूरी जी महाराज, मुनि श्री जयानंद जी, साध्वी श्री चन्द्रप्रभा के अन्तर्गत चिंता-तनाव मुक्ति, नशे से छुटकारा, घरेलु चिकित्सा, श्री जी महाराज, साध्वी मणिप्रभा श्री जी महाराज आदि सभी के मानसिक एकाग्रता, खुशहाली, योग और ध्यान पर अनेक प्रवचन दिए प्रवचन हुए। 12 बज चुके थे और कार्यक्रम समाप्ति की ओर था। तभी हैं। स्वास्थ्य से जुड़ा उनका समसामयिक विवेचन शारीरिक एवं साध्वी श्री चन्द्रप्रभा महाराज ने आचार्यजी से निवेदन किया कि मानसिक चिकित्सा का काम करता है। उनके विचारों से प्रभावित चन्द्रप्रभ जी को इस अवसर पर बोलवाया जाए। पहले तो मना किया होकर अब तक लाखों लोग दुव्यर्सनों को जीतने में सफल हए हैं और गया, पर जब दो बार आग्रह किया गया तो आचार्यजी ने श्री चन्द्रप्रभ हजारों लोग शारीरिक-मानसिक रूप से पूर्णत: स्वस्थ हुए हैं। को भी बोलने के लिए कहा। आचार्यजी का आदेश था, उन्हें बोलना श्री चन्द्रप्रभ के परिवार-निर्माण पर अति रसभीने, भावुक और पड़ा। वे लगभग 25 मिनट बोले होंगे, आचार्यजी चलते प्रवचन में खड़े मार्मिक प्रवचन होते हैं, जिससे व्यक्ति की आत्मा हिल जाती है। वे हुए और चन्द्रप्रभ की पीठ थपथपाते हुए कहा, "तुम्हारा प्रवचन पारिवारिक उत्थान के अंतर्गत बच्चों का भविष्य, रिश्तों में मिठास, सुनकर तो हम सब आत्मविभोर हो गए हैं। जरूर तुम बड़े होकर मेरा वसीयत लेखन,बुढ़ापा, मित्र, माँ की ममता, घर-परिवार आदि विषयों नाम रोशन करोगे।" श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं कि गुरु के ये वचन मेरे लिए पर मार्गदर्शन देते हैं। उनके प्रवचनों के प्रभाव से अब तक हजारों टूटे आशीर्वाद के समान हैं। उन्होंने ऐसा करके मेरा उत्साह बढ़ाया। परिवार जुड़े हैं, रिश्तों में कटुताएँ कम हुई हैं, माता-पिता बच्चों के प्रवचन-प्रभाकर की दी उपाधि - सन् 1984 की बात है। संस्कारों के प्रति जागरूक हुए हैं, वृद्ध लोगों में उत्साह का संचार हुआ बनारस में श्री चन्द्रप्रभ अध्ययन हेतु प्रवासरत थे।स्थानकवासी है, बेटे-बहू माता-पिता को भगवान मानकर सेवा करने लगे हैं। जैन परम्परा के वरिष्ठ एवं प्रभावी संत हुकुमचंद जी महाराज का श्री चन्द्रप्रभ ने अपने प्रवचनों में धर्म को नया स्वरूप दिया है। बनारस में आगमन हुआ। पार्श्वनाथ शोध संस्थान में सामूहिक प्रवचन उन्होंने धर्म को जीवन से जोड़ने की सीख दी है। वे क्रियागत धर्म की का कार्यक्रम रखा गया। श्री चन्द्रप्रभ ने लगभग पौन घंटे का प्रवचन बजाय मानवीय धर्म में अधिक आस्था रखते हैं। वे धर्म के अंतर्गत धर्म दिया। जब हुकुमचंद जी महाराज ने उनका प्रवचन सुना तो वे गद्गद का युगीन स्वरूप, नवकार-गायत्री मंत्र का रहस्य, तपस्या, प्रभुभक्ति, हो उठे। उन्होंने धर्मसभा में कहा, "मैंने प्रवचन तो कइयों के सुने, पर सर्वधर्मसद्भाव, जीने की आध्यात्मिक शैली से जुड़े विषयों पर अंतरात्मा को जो आनंद संत श्री चन्द्रप्रभ को सुनकर मिला वह कभी न मार्गदर्शन देते हैं। इन प्रवचनों के प्रभाव से व्यक्ति की धार्मिक मिला। मैंने ऐसा हृदय को छूने वाला प्रवचन पहले कभी नहीं सुना। ये संकीर्णता की दृष्टि विराट हुई है। लोग जीवनगत धर्म को जीने लगे हैं। वास्तव में समाज के सूर्य हैं। मैं इन्हें प्रवचन-प्रभाकर के गौरव से उनके प्रभाव से लाखों जैनी गायत्री मंत्र का और लाखों हिन्दू नवकार अंलकृत करता हूँ।" मंत्र का जाप करने लगे हैं जो कि अपने आप में धार्मिक एकता की श्री चन्द्रप्रभ की देश के लगभग हर बड़े शहरों के मैदानों में विशाल मिसाल है। एवं प्रभावशाली प्रवचनमालाएँ हुई हैं जिसमें चैन्नई के साहूकार पेठ, श्री चन्द्रप्रभ अपने प्रवचनों में समाज-निर्माण का भी कार्य करते कलकत्ता के कलाकार स्ट्रीट, पूना के शुक्रवार पेठ, बैंगलोर के हैं। वे सामाजिक उत्थान और सामाजिक दूरियों को कम करने का चिकपैठ, इंदौर के दशहरा मैदान, नीमच का दशहरा मैदान, मंदसौर के बेहतरीन मार्गदर्शन देते हैं। उनके प्रवचनों से सामाजिक समरसता का संजय गांधी उद्यान, जयपुर के राजमंदिर थियेटर व दशहरा मैदान, अद्भुत वातावरण बनता है। यही वे पहले जैन संत हैं जिन्होंने जोधपुर के गांधी मैदान, भीलवाड़ा के आजाद चौक, उदयपुर के टाउन भगवतगीता पर जोधपुर के गीताभवन में अठारह दिन तक लगातार हॉल मैदान, पाली के अणुव्रत नगर मैदान, चित्तौड़गढ़ के गोरा बादल प्रवचन दिए। वे जितना महावीर पर प्रेम से बोलते हैं, उतना ही राम, स्टेडियम, निम्बाहेड़ा के कृषि मण्डी मैदान, अजमेर के बर्फखाना कृष्ण, मोहम्मद, जीसस एवं नानक पर बोलते हैं। इसी का परिणाम है मैदान में हुई प्रवचनमालाएँ मुख्य हैं। कि उनके प्रवचनों में छत्तीस कौम के जैन, हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, श्री चन्द्रप्रभ जीवन, व्यक्तित्व, कॅरियर, स्वास्थ्य, धर्म. परिवार. ईसाई लोग आते हैं। समाज, राष्ट्र, विश्व, अध्यात्म से जुड़े हर विषय पर, हर पहलू पर श्री चन्द्रप्रभ राष्ट्र-भक्त हैं। वे राष्ट्र-निर्माण हेतु प्रतिबद्ध हैं। बोलते हैं और लीक से हटकर विचार रखते हैं। उनके प्रवचनों में उन्होंने भारतीय संस्कृति के नैतिक मूल्यों को आधुनिक ढंग से पूरे बीस-बीस, पच्चीस-पच्चीस हजार तक की जनसमुदाय की उपस्थिति विश्व में फैलाया है। वे राष्ट्र-निर्माण के अंतर्गत राष्ट्रीय गौरव, भारत देखी गई है। जिसमें युवावर्ग की संख्या सबसे अधिक होती है। वे की समस्याएँ एवं समाधान, नैतिक मूल्य, राजनीतिक आरक्षण, जीवन-निर्माण के अंतर्गत जीने की कला, सकारात्मक सोच, प्रभावी दुर्व्यसन, युवा वर्ग के दायित्व, विश्वशांति, अणुबम-अणुव्रत जैसे व्यवहार, मानसिक विकास, बोलने की कला जैसे विषयों पर प्रवचन विषयों पर क्रांतिकारी प्रवचन देते हैं। उनके सान्निध्य में जोधपुर के देते हैं। ये प्रवचन जीवन की डिस्चार्ज बेटरी को चार्ज करने का काम गाँधी मैदान में, भीलवाड़ा के आजाद चौक में, नीमच के दशहरा मैदान करते हैं। व्यक्ति हँसी और खुशी से सरोबार हो जाता है। वे व्यक्तित्व में विराट सर्वधर्म सम्मेलन भी सम्पन्न हुए हैं, जिसमें सभी धर्मों के संबोधि टाइम्स-11 For Personal & Private Use Only aw.jainelibrary.org Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मगरुओं ने सम्मिलित होकर अनेकता में एकता का स्वर बुलंद किया श्री चन्द्रप्रभ का प्रभावी व्यक्तित्व है। श्री चन्द्रप्रभ के जीवन-वृत्त पर दृष्टिपात करने से एक अलग तरह श्री चन्द्रप्रभ आध्यात्मिक गुरु हैं। उन्होंने संबोधि ध्यान साधना के । के व्यक्तित्व का रूप निखर कर आता है। डॉ. नागेन्द्र ने लिखा है, मार्ग को, भारतीय अध्यात्म एवं ध्यान योग साधना को देश-विदेश के "सचमुच उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व बहुआयामी है, उनका साहित्य कोने-कोने तक पहुँचाया है। वे अध्यात्म के अंतर्गत मौन, ही उनके व्यक्तित्व का दर्पण है। व्यक्ति कैसा है यह उसके कृत्यों से या आभामण्डल, वीतरागता, ध्यान-साधना, योग-रहस्य, अनुप्रेक्षा व कृतियों से उजागर होता है।" श्री चन्द्रप्रभ शिखर पुरुष हैं। उनकी विपश्यना, मृत्यु या मुक्ति, भेद-विज्ञान जैसे विषयों पर श्रेष्ठ मार्गदर्शन आध्यात्मिक साधना एवं साहित्यिक विद्वत्ता से यह बात उजागर होती देते हैं। श्री चन्द्रप्रभ के तकरीबन 1000 से अधिक प्रवचनों के अनुपम है। उनका जीवन बहुमुखी व्यक्तित्व को समेटे हुए है। उनकी कृतियाँ वीडियो सेट जारी हुए हैं। उनका 'माँ की ममता हमें पुकारें' प्रवचन भी महान हैं एवं उनका व्यक्तित्व भी। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुआ है। श्री चन्द्रप्रभ के साहित्य के अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि वे सम्पूर्ण देश में पदयात्रा एवं चातुर्मास महान जीवन द्रष्टा, मानवता के महर्षि, ज्ञान के शिखर पुरुष, विशाल भारत में पदयात्रा का बहुत बड़ा महत्त्व रहा है। जैन धर्म एवं साहित्य के सर्जक. शोध मनीषी, आगम-ज्ञाता, गीता-मर्मज्ञ, देश के परम्परा के लगभग सभी साधु-साध्वियाँ पैदल यात्रा करते हैं। गाँव- शीर्षस्थ प्रवचनकार, मनोवैज्ञानिक शैली के जनक, हर समस्या के गाँव तक धर्म की गंगा बहाते हैं । हजार परिवर्तन होने के बावजूद जैन तत्काल समाधानकर्ता, जीवंत काव्य के रचयिता, शब्दों के कमाल के धर्म में यह परम्परा अभी भी अक्षुण्ण है। श्री चन्द्रप्रभ मानवीय कल्याण जादूगर, सहज जीवन के मालिक, सौम्य व्यवहार के धनी, शिष्टता की पवित्र भावना से अब तक देश के 20 राज्यों की यात्रा करते हुए और मर्यादा की जीवंत मूर्ति, प्रेम की साक्षात प्रतिमा, परम मातृभक्त, लगभग तीस हजार किलोमीटर पैदल चल चुके हैं। उनका सान्निध्य भ्रातृत्व प्रेम की अनोखी मिसाल, पारिवारिक प्रेम एवं सामाजिक गुजरात - अहमदाबाद, भावनगर, पालीताणा, सूरत, बड़ौदा, भरूच, समरसता के अग्रदूत, राष्ट्रीय चेतना के उन्नायक, निष्काम कर्मयोग के नवसारी, महाराष्ट्र - पूना, सतारा, बोम्बे, कोल्हापुर, कर्नाटक - प्रेरक.क्रांति के पुरोधा, धर्म को युग के अनुरूप बनाने के प्रेरक, सफल बैंगलोर, हुबली, बेल्लारी, बेलगाँव, मैसूर, तमिलनाडू - चैन्नई, मनोचिकित्सक एवं आरोग्यदाता, सफलता के गुर सिखाने वाले पहले कोयम्बटूर, पांडिचेरी, कडलूर, नीलगिरि की पहाड़ियाँ, वैल्लूर, इरोड़, संत, सत्य के अनन्य प्रेमी, सर्वधर्मसद्भाव के प्रणेता, आध्यात्मिक सैलम, आंध्रप्रदेश - विशाखापट्टनम, नैल्लूर, पश्चिम बंगाल - चेतना के धनी, मौन-महाव्रती, संबोधि साधना मार्ग के प्रवर्तक, कोलकाता, वीरभूम, खड़गपूर, सेथिया, मायापुरम, बिहार - शांतिदूत, गीतकार एवं आम जनता के करीब हैं। उनके व्यक्तित्व के सम्मेतशिखर, पावापुरी, बौद्धगया, क्षत्रिय कुण्ड, वैशाली, उत्तरप्रदेश- महत्त्वपूर्ण पहलू इस प्रकार हैं। बनारस, वाराणसी, इलाहाबाद, आगरा, कानपुर, अलीगढ़, मथुरा, __ महान जीवन-द्रष्टा उत्तरांचल - ऋषिकेश, हरिद्वार, हिमालय, गंगोत्री, उत्तरकाशी, टेहरी, श्री चन्द्रप्रभ महान जीवन-द्रष्टा हैं । वे शास्त्रों से भी ज्यादा जीवन हस्तिनापुर, राजस्थान - जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, बाड़मेर, के अध्ययन को महत्त्व देते हैं। उन्होंने जीवन की बारीकियों का भीलवाड़ा, उदयपुर, कोटा, पाली, चित्तौड़गढ़, निम्बाहेड़ा, अजमेर, अध्ययन किया है जो उनके साहित्य में स्पष्ट रूप से नजर आता है। नाकोड़ा, नागौर, बिजयनगर, ब्यावर, मध्यप्रदेश - नीमच, इंदौर, उन्होंने जीवन को सबसे मूल्यवान तत्त्व बताया है। उन्होंने जीवन को रतलाम, उज्जैन, झाबुआ, जावरा, मंदसौर, आस्ट, दिल्ली, हरियाणा वीणा के तारों की तरह साधने की प्रेरणा दी है। वे अतिभोग के साथ - फरीदाबाद, गुड़गाँव, झारखंड - शिखरजी, गिरडीह आदि नगरोंमहानगरों को मिला। ये देश-प्रदेश ऐसे हैं जहाँ श्री चन्द्रप्रभ के प्रवचनों अतित्याग के भी खिलाफ हैं। उन्होंने धरती का पहला शास्त्र मनुष्य का की विशाल जनसभाएँ हुईं, इन स्थानों पर उनका ज्यादा दिनों तक जीवन, दूसरा शास्त्र जगत, तीसरा शास्त्र प्रकृति और चौथा शास्त्र धर्म अध्यात्म की पवित्र किताबों को माना है। वे कहते हैं, "सीखने, पाने रुकना हुआ। इनके अलावा भी ऐसे सैकड़ों क्षेत्र हैं जहाँ उनकी और जानने की ललक हो तो सृष्टि के हर डगर पर वेद, कुरआन, प्रवचन-सभाएँ तो नहीं हुईं, पर श्रद्धालुओं ने उनके सान्निध्य का लाभ बाइबिल के पन्ने खुले और बोलते हुए नजर आ जाएँगे।" जरूर उठाया। श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन सापेक्ष धर्म को जन्म देने के लिए जीवनश्री चन्द्रप्रभ के द्वारा अब तक किए गए चातुर्मास इस प्रकार है - सन् 1980 में पालीताणा, 1981 में अहमदाबाद, 1982 में दिल्ली, जगत के सार-असार दोनों पहलुओं को समझना आवश्यक माना है। उन्होंने अपना अनुभव बताते हुए लिखा है, "कोई अगर मुझसे पूछे कि 1983 व 1984 में वाराणसी, 1985 में कलकत्ता, 1986 व 1987 में। आपका धर्म और धर्मशास्त्र कौन-सा है, तो मेरा सीधा-सा जवाब होगा मद्रास, 1988 में पूना, 1989 में उदयपुर, 1990 में जोधपुर, 1991 में - जो धर्म मनुष्य का होता है, वही मेरा धर्म है और जिस प्रकृति ने इतने ऋषिकेश, 1992 में आगरा, 1993 में इंदौर, 1994, 1995 व 1996 में विचित्र और अद्भुत जगत की रचना की है, यह जगत और जगत पर जोधपुर, 1997 में बीकानेर, 1998 में नागौर, 1999 में जयपुर, 2000 में अजमेर, 2001 में श्री नाकोड़ा तीर्थ, 2002 में नीमच, 2003 में जयपुर, पल्लवित होने वाला जीवन ही मेरा शास्त्र है। किताबों के नाम पर मैंने ढेरों किताबें पढ़ी हैं, न केवल पढ़ी हैं, वरन् ढेरों ही मैंने कही और 2004 में भीलवाड़ा, 2005 में बाड़मेर, 2006 में जोधपुर, 2007 में लिखी हैं, पर कोई अगर कहे कि मुझे सबसे सुंदर किताब कौन-सी भीलवाड़ा, 2008 में जोधपुर, 2009 में इंदौर, 2010 में अजमेर, 2011 लगी है तो मैं कहूँगा कि इस जगत से बढ़कर कोई श्रेष्ठ किताब नहीं है में उदयपुर, 2012 में जोधपुर। 12 संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और जीवन से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है।" उन्होंने जीवन-जगत को राशिफल देखने का शौक था। अगर राशिफल अच्छा लिखा आता तो समझे बिना गीता-रामायण-महाभारत को पढ़ना परिणामदायी नहीं वह दिनभर प्रसन्न रहता और राशिफल अच्छा लिखा नहीं आता तो वह बताया है। वे राम-कृष्ण-महावीर-बुद्ध से पहले जीवन से प्रेम करने दिनभर उदास हो जाता। रोज-रोज अखबार देखने की झंझट से बचने की सिखावन देते हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन को प्रभु प्रदत्त श्रेष्ठ उपहार के लिए वह एक पंडित के पास पहुँचा और अपनी समस्या रखी। माना है। श्री चन्द्रप्रभ की महान जीवन-दृष्टि को व्यक्त करती कुछ पंडित ने उसे एक सिक्का बनवाकर दिया - जिस पर एक ओर खुशी घटनाएँ इस प्रकार हैं खुदी थी तो दूसरी ओर नाखुशी। वह सुबह उठते ही सिक्का उछालता। जीवन को कैसे जीऊँ - एक युवक ने श्री चन्द्रप्रभ के चरणों में अगर खुशी आती तो वह खुश हो जाता और नाखुशी आती तो नाखश। फूल चढ़ाते हुए कहा - गुरुजी, आज मेरा जन्मदिन है और मैं यह एक दिन वह व्यक्ति मुँह लटकाए गुरुदेव श्री चन्द्रप्रभ जी के पास बैठा जानने आया हूँ कि जीवन को कैसे जीएँ ताकि सदा खश और प्रसन्न रह था। गुरुजी ने पूछा- आप दुखी क्यों हैं? उसने कहा - आज मेरे भाग्य सकँ। श्री चन्द्रप्रभ ने यवक को आशीर्वाद देते हए कहा- पहले यह में नाखुशी लिखी हुई है। गुरुदेवश्री ने पूछा - कारण? उसने सिक्के बताओ कि अगर इन फूलों को किसी राजमहल में रख देंगे तो क्या वाली बात बताई और गुरुदेवश्री से कहा - आप सिक्के पर कुछ तंत्रहोगा? युवक ने कहा - ये फूल वहाँ खुशबू बिखेरेंगे। श्री चन्द्रप्रभ ने मंत्र कर दीजिए ताकि हमेशा खुशी ही आए। गुरुदेवश्री ने कहा- आप युवक से दोबारा पूछा - अगर इन्हें मंदिर या किसी किराणे की दुकान आज से चिंता छोड़ दीजिए। सात दिन बाद मुझसे सिक्का ले जाना, पर रख देंगे तो क्या होगा? युवक ने पुनः जबाव दिया कि ये वहाँ भी आपके चमत्कार हो जाएगा। सात दिन बाद उस व्यक्ति ने सिक्का ले महक फैलाएँगे। श्री चन्द्रप्रभ ने कहा - मेरा अंतिम सवाल है कि अगर लिया। अब तो वह व्यक्ति हर दिन खुश रहता । सप्ताह में सात दिन और इन फलों को कहीं गंदगी के ऊपर फेंक देंगे तो...? युवक ने कहा - ये महिने में तीस दिन खुश। उसने गुरुदेवश्री से पूछा - आखिर आपने यह वहाँ पर भी खशब ही बिखेरेंगे। श्री चन्द्रप्रभ ने युवक को समझाते हए चमत्कार कैसे कर दिया? अति आग्रह से पूछे जाने पर गुरुदेवश्री ने कहा - बस, आनंदपूर्ण जीवन जीने का राज इतना-सा है कि जीवन में कहा - मैंने कुछ नहीं किया, बस नाखुशी के 'ना' को घिसकर मिटा चाहे जैसी परिस्थिति आए, हम चाहे राजमहल में रहें या सड़क पर, दिया।अब चित गिरे तो भी खुशी और पुट गिरे तो भी खुशी। व्यक्ति यह फूलों की तरह हर जगह अपनी खुशबू बिखेरते रहें और हर परिस्थति सुनकर आश्चर्यचकित रह गया। गुरुदेवश्री ने कहा - जीवन को में महकते रहें। आनंदपूर्ण बनाने का राज इतना-सा है कि जो जिंदगी में से बोलने से पहले किन बातों का ध्यान रखें - एक युवक ने श्री नकारात्मकता के 'न' को हमेशा के लिए हटा देता है और हर कार्य को नकारात्म चन्द्रप्रभ से पूछा - बोलने से पहले किन बातों का ध्यान रखना चाहिए मुस्कुरात हुए करत मुस्कुराते हुए करता है वह सदा खुश रहता है। सकारात्मकता ही ताकि कभी तकरार वाली नौबत न आए। उन्होंने युवक को कुछ पंख सफलता का प्रथम मंत्र है। दिए और उसे बाहर फेंककर आने के लिए कहा। युवक फेंककर आ के लिए कहा। यवक फेंककर आ मानवता के महर्षि गया। युवक ने कहा- मेरे सवाल का जवाब? उन्होंने कहा- मैंने तो दे श्री चन्द्रप्रभ मानवतावादी संत हैं। वे मानवता से बेहद लगाव दिया। युवक ने कहा - मैं समझा नहीं। उन्होंने कहा - जाओ, जो पंख रखते हैं। उनके यहाँ अमीर-गरीब, गोरे-काले अथवा ऊँच-नीच की आपने बाहर फेंके हैं उन्हें वापस ले आओ। युवक ने वापस आकर भेदरेखा नहीं है। उनके साहित्य में सर्वत्र मानवीय दृष्टि उजागर हुई है। कहा- वे तो उड़ गए, उन्हें अब वापस समेटना मुश्किल है। उन्होंने वे न केवल मानवीय कल्याण की बात कहते हैं वरन् वे मानवीय सेवा कहा - जैसे उड़े हुए पंखों को वापस समेटना संभव नहीं है वैसे ही के अनेक प्रकल्प भी चला रहे हैं। उनकी दृष्टि में, सभी मानव महान बोलने के बाद शब्दों को वापस लेना भी संभव नहीं है। इसलिए बोलने एवं आदरणीय हैं। वे जाति और रंग की बजाय इंसानियत को मूल्य देने, से पहले मुस्कुराओ और फिर सामने वाले का अभिवादन कर मीठी, मानवता की पूजा करने का पाठ सिखाते हैं। वे अच्छा जैन, हिन्दू, उपयोगी व शिष्टतापूर्ण भाषा बोलो। मुस्लिम, सिख अथवा ईसाई बनने की बजाय अच्छा इंसान बनने की जीवन भर खुश कैसे रहें - संबोधि धाम, जोधपुर में बाहर से प्रेरणा देते हैं। वे कहते हैं, "अच्छा जैन, अच्छा हिन्दू, अच्छा यात्री-संघ आया हुआ था। खुशी-नाखुशी की चर्चा चल रही थी। एक मुसलमान अच्छा इंसान हो यह जरूरी नहीं है, पर अच्छा इंसान अपने यात्री ने श्री चन्द्रप्रभ से पूछा - हम कभी खुश रहते हैं तो कभी नाखुश। आप में अच्छा जैन भी होता है और अच्छा हिन्दू और मुसलमान भी।" क्या ऐसा कोई सरल नुस्खा है कि हम जीवन भर खुश रहें? उन्होंने कहा इस तरह उन्होंने धर्म, पंथ, परम्परा से ज्यादा मानवता को महत्त्व दिया - हाँ, अगर एक घंटे की खुशी चाहते हो तो जहाँ बैठे हो वहीं झपकी ले है। लो। एक दिन की खुशी चाहिए तो दुकान-ऑफिस से छुट्टी ले लो श्री चन्द्रप्रभ मानवीय उत्थान एवं प्राणीमात्र के कल्याण की भावना और आस-पास पिकनिक मनाने चले जाओ। एक सप्ताह की खुशी से सदा ओतप्रोत रहते हैं। उनका मानना है, "महत्त्व इसका नहीं है कि चाहते हो तो किसी हिल स्टेशन - माउण्ट आबू, मसूरी, दार्जलिंग हमारे कितने सेवक हैं, बल्कि इसका है कि हममें कितना सेवाभाव घुमने चले जाओ। एक महीने की खुशी चाहते हो तो किसी से शादी है।" श्री चन्द्रप्रभ ने सर्वधर्म सद्भाव, मानवीय एकता एवं प्राणी मात्र कर लो। साल भर की खुशी चाहते हो तो किसी करोड़पति के गोद चले की पर विशेष रूप से बल दिया है। वे सेवा धर्म को परमात्म-पूजा और जाओ, पर यदि जीवनभर की खुशी चाहते हैं तो अपने स्वभाव को मीठा प्रभ-प्रार्थना के तुल्य बताते हैं। वे कहते हैं, "मानवता की सेवा करने व मधुर बना लो वाले हाथ उतने ही धन्य होते हैं, जितने परमात्मा की प्रार्थना करने वाले नाखुशी के 'ना' को हटाएँ - एक व्यक्ति को अखबार में होंठ।" उनका मानना है, "किसी पीड़ित व्यक्ति की सेवा में लगा हुआ For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स)-1300 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाथ परमात्मा की पूजा के समान है।" उन्होंने संतों को भी समाज की स्थापना हुई है। वे कहते हैं कि इंसानों की तरह हमें घायल पशुसेवा करने की प्रेरणा दी है और समाजोत्थान की भावना रखने वाले पक्षियों के लिए जागरूक रहना चाहिए ताकि वे भी स्वस्थ हो सकें। संतों की आवश्यकता को अनिवार्य बताया है। उनका कहना है, उन्होंने पक्षी चिकित्सालय जैसे सेवा-केन्द्र खोलकर इंसानियत की "समाज को वे संत चाहिए जो समाज-सेवा और मानवीय-उत्थान को सेवा के दायरे को और बढ़ाया। अपना धर्म समझें।" उन्होंने अनेक जगह सामाजिक बैंकों की स्थापना नारी उत्थान के कार्य- नारी जाति के अभ्युत्थान के प्रति श्री की है जो गरीब एवं जरूरतमंद लोगों को बिना ब्याज के ऋण देकर उन्हें चन्द्रप्रभ जागरूक नजर आते हैं। उन्होंने नारी जाति के विकास एवं पाँवों पर खड़ा कर सामाजिक उत्थान का कार्य कर रही हैं। इससे जुड़ी कल्याण के लिए कई संगठनों का गठन किया है। उनका मानना है, विशेष घटना है - "नारी जाति को विगत 50 वर्षों में विकास के जो अवसर मिले हैं अगर ऐसे हुआ सामाजिक बैंक का निर्माण - श्री चन्द्रप्रभ का सन् वे अवसर 500 वर्ष पहले प्रदान किये जाते तो आज दुनिया का स्वरूप 2005 में चातुर्मास बाड़मेर शहर में था। वे प्रतिदिन 20-30 घरों में कुछ और होता। अब जमाना महिलाओं का है। वे पुरुषों के सामने हाथ गोचरी (आचारचर्या) हेतु जाते थे। लगभग 3000 घर वे पधारे। फैलाने की बजाय जॉब करें और आगे बढ़ें। पढ़ी-लिखी महिलाएँ दीपावली का समय था। वे आचारचर्या हेतु घरों में जा रहे थे। वे एक पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर विकसित भारत का निर्माण करें। घर में पहुँचे। श्री चन्द्रप्रभ को देखते ही घर में बैठी तीन बहिनों के आँस् महिला उत्थान के प्रति उनकी सजगता से जुड़ी एक प्रेरक घटना इस आ गए। उन्होंने कारण पूछा तो बताया कि हमारे पिताजी नहीं रहे। हम प्रकार हैपापड़शाला में काम करके अपना घर चलाती हैं, पर किसी कारणवश आज वह कॉलेज में लेक्चरार है - एक बहिन दो वर्षीय बच्चे पापड़शाला में कई दिनों से काम नहीं मिल रहा है। जहाँ दीपावली में को साथ लेकर श्री चन्द्रप्रभ के पास आई और कहने लगी- शादी के दो सबके मिठाइयाँ बन रही हैं वहीं हमें रोटी के भी लाले पड़ रहे हैं। यह महीने बाद ही पति की मृत्यु हो गई। ससुराल वालों ने मुझे मनहूश सुन उनका हृदय पिघल आया। उन्होंने अगले दिन प्रवचन में सामाजिक उत्थान पर क्रांतिकारी प्रवचन देते हुए अमीरों को 5100/- रुपये कहकर घर से निकाल दिया। पीहर वालों ने मेरी कोई सहायता न की। निकालने का आह्वान किया। देखते-ही-देखते लाखों रुपये इकट्ठे हो मैं बहुत दुःखी हूँ। कृपा कर आप मेरे एक महीने के राशन-पानी की गए। उससे एक समाज-बैंक बनाया गया, जो कमज़ोर भाई-बहिनों को व्यवस्था कर दीजिए। उन्होंने कहा- मैं तो अभी करवा दूंगा, पर बाद में ब्याजमुक्त 10,000/- रुपये का लोन देता है। उस बैंक ने अब तक फिर तुम्हें औरों के सामने हाथ फैलाना पड़ेगा। इससे तो अच्छा है आप सैकड़ों भाई-बहिनों को बिना ब्याज ऋण देकर पाँवों पर खड़ा करने कहीं काम कर लीजिए। उसने कहा - मैं तो केवल आठवीं पास हूँ, का पुण्य कमाया है। मुझे काम कौन देगा? उन्होंने कहा - अगर कोई छोटा काम करना पड़े ___इंसानियत की सेवा और जीव-जंतुओं के कल्याण के लिए श्री । तो...? वह तैयार हो गई। उन्होंने एक विद्यालय में फोन करवाकर उन्हें चन्द्रप्रभ सदा ही प्रयत्नशील रहे हैं। उनका विश्वास है, "हमें दीन चपरासी से जुड़ी नौकरी दिलवा दी। महीना पूरा होते ही बहिन ने दुःखियों की मदद के लिए सहयोग समर्पित करते रहना चाहिए। वे अपनी पहली तनख्वाह गुरुचरणों में रख दी। उन्होंने उनको एक हजार लोग धरती पर जीते-जागते भगवान होते हैं जो औरों का हित और रुपये घर खर्च हेतु व एक हजार रुपये से आगे की पढ़ाई करने की प्रेरणा कल्याण के लिए अपने स्वार्थों का त्याग कर देते हैं।" श्री चन्द्रप्रभ का दी। उस बहिन ने दसवीं का फार्म भरा। क्रमश: दसवीं, बारहवीं पास यह संदेश देशभर में लोकप्रिय है,"अपनी आमदनी का ढाई प्रतिशत - की, ग्रेजुएशन किया, बी.एड. किया। उनकी टीचर की नौकरी लग हिस्सा दीन-दुःखी, जरूरतमंद और पश-पक्षियों पर अवश्य खर्च गई। फिर उसने एम.ए. किया। आप यह जानकर ताज्जब करेंगे कि करना चाहिए। इससे हमारा शेष बचा धन निर्मल होता है और हमारी आज वही महिला एक कॉलेज में लेक्चरार के पद पर कार्यरत है। भावशुद्धि होती है। अगर हमारे पास रोटी दो और खाने वाले चार हों तब श्री चन्द्रप्रभ की प्रेरणा से अनेक शहरों में संबोधि महिला मण्डल भी हमें स्वार्थ-बुद्धि का त्याग कर दो रोटी चार लोगों में बाँटकर खानी एवं संबोधि बालिका मण्डल के नाम से संस्थाएँ गठित हुई हैं। नारी चाहिए।" श्री चन्द्रप्रभ ने 'मानव स्वयं एक मंदिर है' का संदेश देकर जाति के कल्याण के लिए ये संस्थाएँ विभिन्न योजनाएँ के साथ हर धर्म को मानवता का पाठ पढ़ाया है। पहले कीजिए मदद फिर प्रतिबद्ध हैं। भीलवाड़ा का संबोधि महिला मण्डल तो सम्पूर्ण राजस्थान कीजिए इबादत' पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ का यह संदेश धर्म-जगत् को के लिए आदर्श मण्डल के रूप में उभरकर आया है जिसने अपने नगर नई दिशा प्रदान करता है, "जहाँ केवल पत्थरों के मंदिरों पर श्रद्धा की की कई सेवापरक गतिविधियों को अपने कंधे पर उठाकर रखा है। जाती है वहाँ हमें मानवीय प्रेम का विस्तार करना चाहिए। दुनिया में नारी-जाति को आत्मनिर्भर बनाने के लिए जहाँ सिलाई प्रशिक्षण एकमात्र प्रेम की ही परिभाषा होती है जिसे गूंगे बोल सकते हैं, बहरे चलता है वहीं टिफिन सेवा सेंटर भी शहर में लोकप्रिय है। इसने सुन सकते हैं।" अस्पताल में कई वार्ड गोद लिए हैं तो शहर में कई चिकित्सा शिविरों पशु-पक्षियों की सेवा - श्री चन्द्रप्रभ ने मानवीय सेवा के लिए के आयोजन में यह मण्डल अपनी विशिष्ट सेवाएँ देता है। बाड़मेर का तो कई प्रकल्प चलाए ही हैं साथ ही उन्होंने जीव-जंतुओं और पशु संबोधि बालिका मण्डल भी बालिकाओं के कल्याण के लिए सदा पक्षियों के लिए भी अपनी ओर से सेवाएँ प्रदान की हैं। उनकी प्रेरणा से जागरूक रहता है। अन्य शहरों में जोधपुर का सबााध महिला मण्डल गौसेवा के क्षेत्र में भी कई कार्य हए हैं। उन्होंने अपने सत्संगों में प्रेरणा नारी जाति को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कई गतिविधियों को प्रदान करके गौशालाओं में लाखों रुपयों का सहयोग भिजवाया है वहीं संचालित करता रहता है। इस मण्डल ने अब तक 500 से अधिक उनकी प्रेरणा से भीलवाडा एवं नीमच में पक्षी चिकित्सालय की भी महिलाओं को विभिन्न कार्यों का प्रशिक्षण देकर पाँवों पर खडा किया है 14 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं आत्मनिर्भर बनाया है। श्री चन्द्रप्रभ के मार्गदर्शन में इंदौर (म.प्र.) में संबोधि नारी निकेतन संस्था की स्थापना हुई जो अशक्त, परित्यक्ता एवं विधवा महिलाओं के लिए आवास की व्यवस्था करने के साथ उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए कई तरह का प्रशिक्षण प्रदान करती है । श्री चन्द्रप्रभ की प्रेरणा से बाड़मेर में भी महिला सिलाई-कढ़ाई केन्द्र चल रहा है। श्री चन्द्रप्रभ के मार्गदर्शन में जोधपुर, संबोधि धाम में सन् 2006 में गुरुमहिमा मेडिकल रिलिफ सोसायटी की स्थापना की गई है। यह सोसायटी गरीब एवं जरूरतमंद भाई बहिनों को 40 प्रतिशत छूट पर बड़ी एवं लम्बी बीमारियों की दवाएँ उपलब्ध करवाती है। अब तक यह सोसायटी पिछले 5 वर्षों में लगभग एक करोड़ रुपये से ऊपर की दवाइयाँ वितरित कर चुका है। उनके मार्गदर्शन में जयश्री मनस् चिकित्सा केन्द्र सन् 2000 में संचालित किया गया जिसके अन्तर्गत मनोमस्तिष्क से जुड़ी बीमारियों की चिकित्सा इंग्लैण्ड से आयातित फूलों के अर्क से की जाती है। श्री चन्द्रप्रभ की प्रेरणा से भीलवाड़ा, जोधपुर, बीकानेर, राजसमंद, इंदौर आदि अनेक शहरों में सैकड़ों शीतल जल की प्याऊओं का निर्माण हुआ है। उन्होंने नशामुक्ति और मांसाहार के त्याग का अभियान भी भारतभर में चलाया। उनके वचनों और प्रवचनों से प्रभावित होकर अब तक हजारों लोग नशा और मांसाहार का त्याग कर चुके हैं, जिसमें सिंधी कौम एवं मुस्लिम कौम भी सम्मिलित है। इस संदर्भ में निम्न घटनाएँ उल्लेखनीय हैं विदेशी महिला ने अंडे का किया त्याग उदयपुर की घटना है। अमेरिका से पेचविशा नामक एक महिला श्री चन्द्रप्रभ से मिलने आई । चर्चा के दौरान उसने बताया कि मैंने मांसाहार का त्याग कर दिया है। श्री चन्द्रप्रभ ने उनकी प्रशंसा की। चर्चा करते हुए मालूम चला कि वे अंडों को सेवन करती हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने उन्हें समझाया, जब आप मुर्गी नहीं खाती तो उसके अंडे को भी नहीं खाना चाहिए। ऐसा कर आप पूर्ण शाकाहारी बन जाएँगे। उन्हें बात समझ में आ गई और उन्होंने अंडे न खाने का भी हमेशा के लिए संकल्प कर लिया । - दुर्व्यसन का किया त्याग एक सिंधी बहिन ने श्री चन्द्रप्रभ से कहा - आज से मैं आपकी सदा ऋणी रहूँगी। उन्होंने बहिन से पूछा - आप कौन हैं? मैं आपसे परिचित नहीं हूँ फिर यह ऋण की बात कैसे? बहन ने बताया कि आज मेरे पति ने आपका प्रवचन सुनकर घर आते ही फ्रीज में रखी बीयर की सारी बोतलों को निकाला और बाहर जाकर नाली में बहा दिया। मुझे आश्चर्य हुआ कि आज इनको ये क्या हो गया? मैंने पतिदेव से पूछा इतनी महँगी बीयरों को नाली में क्यों बहाया? उन्होंने कहा आज महाराज श्री चन्द्रप्रभ जी ने 'अपनी वसीयत कैसी लिखें' प्रवचन में कहा कि, क्या आप चाहेंगे कि आपके बच्चों को भी वसीयत में दुर्व्यसनों के संस्कार मिलें ? आपके बच्चे भी बड़े होकर इन्हीं का सेवन करें। यह सुनकर मेरी अंतआत्मा हिल गई। मुझे लगा कि अपने बच्चों को दुर्व्यसनों की नहीं, संस्कारों की वसीयत देनी चाहिए। इसीलिए आज से मैं शराब का त्याग कर रहा हूँ । बेटा महाराज बने तो भी गम नहीं - श्री चन्द्रप्रभ का सन् 2000 में चातुर्मासिक प्रवास अजमेर में था। वहाँ आयोजित प्रवचनमाला में अनेक सिंधी परिवार भी आया करते थे। एक सिंधी युवक प्रवचनों से इतना प्रभावित हुआ कि उसने शराब के दुर्व्यसन का त्याग कर दिया। वह अपना ज्यादातर समय उनकी सेवा में ही बिताया करता था। इतनी निकटता देख सिंधी भाइयों में चर्चा शुरू हो गई कि कहीं यह इनके साथ महाराज न बन जाए। सिंधी समाज के कुछ प्रमुख लोग उस युवक के घर गए। उसके माता-पिता को समझाया कि आपके बेटे का दिनभर इन महाराज के पास रहना अच्छा नहीं है। क्या भरोसा कहीं जैन बन गया तो उसके माता-पिता ने कहा हमारा बेटा दिनभर शराब पिया करता था। हम और उसकी पत्नी उसे समझाते- समझाते हार गए, पर उसकी शराब न छूटी, पर जब से इसने इन गुरुजी के प्रवचन सुनने शुरू किए हैं न जाने इसको क्या हुआ कि इसने न केवल शराब छोड़ी वरन् इसका वाणी व्यवहार भी मधुर हो गया है। हमारे बेटे में जितने भी सद्गुण आए हैं ये सब इन्हीं गुरुजी के सत्संग- सम्पर्क का चमत्कार है, अगर इनके सम्पर्क में रहते-रहते हमारा बेटा महाराज भी बन जाए तो कोई गम नहीं है। हमें खुशी है कि इसने श्रेष्ठ मार्ग पर क़दम बढ़ाया है। श्री चन्द्रप्रभ जीवन-निर्माण एवं जीवन-विकास के लिए कारागार और कच्ची बस्तियों में जाते हैं। उनके इस अभियान से सैकड़ों कैदियों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आए हैं एवं कच्ची बस्ती वालों को आगे बढ़ने का मार्ग मिला है। सचमुच में श्री चन्द्रप्रभ मानवता के महर्षि हैं। वे धर्म के उन्नायक हैं। धर्म को आश्रम, स्थानक और उपाश्रय के दायरे से बाहर निकालकर आम इंसान के साथ उसे लागू करने के पक्षधर हैं। ज्ञान के शिखर पुरुष श्री चन्द्रप्रभ ज्ञान के क्षेत्र में शिखर पुरुष हैं। उनकी बुद्धि, प्रतिभा और ज्ञान अनुपम हैं। उन्होंने न केवल अध्ययन किया वरन् चिंतनमनन-मंथन भी किया और उससे जो सार निकला वह आमजनमानस के सामने रखा। उन्होंने प्राचीन ज्ञान का केवल अनुसरण नहीं किया वरन् उसे वर्तमान संदर्भों में और जीवन के परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास किया है। उनके लिए न तो कोई सिद्धांत अगम्य है न ही कोई परम्परा । श्री चन्द्रप्रभ को समय-समय पर मिले ज्ञान अलंकार और उनके प्रवचनों में छत्तीस कौम की जनता का उमड़ना उनके ज्ञानगांभीर्य और उदार दृष्टिकोण को प्रकट करता है। श्री चन्द्रप्रभ का ज्ञानपरक साहित्य इतना सरल व जीवंत है कि लोग उसे बड़े चाव से पढ़ते हैं और एक बार पढ़ने के बाद स्वयं को रोक नहीं पाते हैं । जीवन, व्यक्तित्व, स्वास्थ्य, ध्यान, धर्म, अध्यात्म, परिवार, समाज, राष्ट्र से जुड़े विषयों पर उनके विचार पढ़कर न केवल उनके प्रति हृदय में श्रद्धा भाव प्रकट होता है वरन् जीवन में आश्चर्यकारी परिवर्तन भी घटित होने लगते हैं। उनके साहित्य की प्रभावकता से जुड़ी मुख्य घटनाए हैं - जीवन हुआ धन्य छत्तीसगढ़ से एक वृद्ध माताजी संबोधि धाम, जोधपुर आईं। उन्होंने श्री चन्द्रप्रभ को बताया, "आपकी कृपा से मैं बहुत खुश, प्रसन्न व स्वस्थ हूँ हमारे यहाँ आपका साहित्य आता है। मैंने उसे एक बार पढ़ा तो पढ़ने का शौक चढ़ गया। अब मैं प्रतिदिन 78 घंटे आपके साहित्य का स्वाध्याय करती हूँ। उससे मुझे इतनी शांति, आनंद और खुशी मिलती है कि पूछो मत। पहले मेरा समय फालतू की बातों में, बहुओं की खिच खिच में चला जाता था, जिससे मैं परेशान भी होती थी, पर आपकी कृपा ऐसी हुई कि जीवन धन्य हो गया।" डिप्रेशन हुआ दूर - सन् 2012 श्री चन्द्रप्रभ का चातुर्मास जोधपुर में था । इक्कावन दिवसीय विराट प्रवचनमाला गांधी मैदान में चल रही संबोधि टाइम्स 15 . For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी। प्रवचन के दौरान जोधपुर के संभागीय आयुक्त एन.के. जैन का द्वारा लिखे गए सम्पूर्ण साहित्य का विस्तार से विवेचन किया गया है। आना हुआ। उन्होंने मंच पर बताया कि मेरे पास श्री चन्द्रप्रभ की कुछ श्री चन्द्रप्रभ जीवन, जगत और धर्मशास्त्रों के शोधकर्ता भी रहे हैं। किताबें थीं जिन्हें मैं रोज पढ़ा करता था, जिससे मुझे आत्मिक आनंद उनका शुरुआती लेखन अनुसंधानपरक ही रहा है। उनके द्वारा और अतिरिक्त ऊर्जा मिलती थी। मेरे चाचाजी को शुगर थी, एक बार वे महोपाध्याय समयसंदर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर लिखा गया शोधबीमार पड़ गए, उनकी शुगर बहुत ज्यादा बढ़ गई। डॉक्टरों को उनका प्रबंध विद्वत् जनों में समादत हुआ है। उनके द्वारा संकलित व संपादित एक पाँव काटना पड़ा। उनके बार-बार मुझे फोन आते - मैं बहुत दुखी हिंदी व प्राकृत सूक्ति कोशों को देखने से पता चलता है वे और निराश हो गया हूँ। दिनभर घर बैठे-बैठे तंग आ गया हूँ। इस तरह अनुसंधानकर्ता के क्षेत्र में भी आगे हैं। उनके साहित्य से योगिता यादव वे डिप्रेशन में आ गए। मैंने श्री चन्द्रप्रभ की किताबें चाचाजी को भेज द्वारा संकलित किया गया पाँच हजार से अधिक सूक्त वचनों का बोधि दीं। अचानक कुछ समय बाद उनका फोन आया। वे कहने लगे- तुमने बीज' नामक कोश देखने योग्य है। आयारस्तं, समवायसत्तं, पता नहीं कैसी किताबें भेजीं, इन्हें पढ़कर मेरे जीवन में चमत्कार हो खरतरगच्छ का आदिकालीन इतिहास, जिनसूत्र, प्राकृत-हिन्दी सूक्ति गया। अब जीने का अंदाज ही कुछ और हो गया है। आयुक्त साहब ने कोश. हिन्दी सक्ति संदर्भ कोश, पारिभाषिक शब्द कोश आदि उनकी कहा - इस घटना के बाद मैं श्री चन्द्रप्रभ के साहित्य का भक्त बन शोधपरक कृतियाँ रही हैं। उन्होंने धर्म को अनुसरण की बजाय गया। अब मैं किसी भी कार्यक्रम में जाता हूँ तो अपनी ओर से रुपयों ___ अनुसंधान की चीज माना है। उन्होंने शास्त्रों पर भी शोध किया और की बजाय किताबों का सेट देता हूँ जिसे सामने वाला जिंदगी भर याद महापुरुषों के अमृत वचनों पर भी। उनकी शोधमूलक निम्न घटनाएँ रखता है। उल्लेखनीय हैंश्री चन्द्रप्रभ द्वारा लिखित 'समय के हस्ताक्षर' नामक काव्य दलाई लामा हुए प्रभावित - श्री चन्द्रप्रभ पार्श्वनाथ शोध पुस्तक राष्ट्रीय स्तर के समीक्षक एवं मूर्धन्य साहित्यकार डॉ. प्रभाकर संस्थान, वाराणसी में अध्ययनरत थे। उस दौरान तिब्बतीयन धर्मगुरु माचवे को सम्पादन हेतु भेजी गई। पुस्तक के संदर्भ में उन्होंने दलाईलामा का वाराणसी में कार्यक्रम आयोजित हुआ। श्री चन्द्रप्रभ का प्रतिक्रिया देते हुए कहा, "मैंने सोचा भी नहीं था कि यह पुस्तक इतनी भी वक्तव्य रखा गया। उन्होंने पहले तो भगवान महावीर के संदेशों से प्रभावशाली हो सकती है, वास्तव में पुस्तक पढ़कर मैं चमत्कृत हो जडी हई गाथाएँ प्राकृत में उच्चारित की फिर उन्होंने जैन और बौद्ध धर्म उठा। आज के लेखकों में काव्यपरक इतना अच्छा लेखन मुझे पहली की शोधमूलक समानता एवं तुलनात्मक समीक्षा पर अपना खास बार पढ़ने व संपादन करने को मिला।" डॉ. नागेन्द्र के अनुसार, "श्री वक्तव्य दिया। इस वक्तव्य से दलाई लामा इतने प्रभावित हुए कि चन्द्रप्रभ का साहित्य सत्य की सूक्ष्म एवं गूढ़ ग्रन्थियों को उद्घाटित उनका सारा वक्तव्य श्री चन्द्रप्रभ पर ही केन्द्रित रहा। उन्होंने अपने करने का लोकमंगलकारी स्रोत है। उनके प्रवचनों में सूक्ष्मता, विद्वता वक्तव्य में कहा कि मैं और मेरे शिष्य भी आगे से वक्तव्य की शुरुआत और रोचकता का त्रिवेणी संगम है।" श्री चन्द्रप्रभ का शास्त्रीय ज्ञान भगवान बुद्ध के पिटक की गाथाओं से करने की कोशिश करेंगे। जितना गहरा है उतना ही उनका व्यावहारिक जीवन का ज्ञान। वे तिब्बतियन रिसर्च इन्स्टीटयट के प्रोफेसर तो उनके प्रशंसक बन गए काव्यशास्त्र के भी ज्ञाता हैं। उन्हें छन्दों व अलंकारों का भी स्पष्ट ज्ञान और उनसे कई बार मिलने आते। बौद्ध भिक्षु भी उनसे चर्चा हेतु आने है। उनका संगीत ज्ञान भी अच्छा है। उन्होंने सैकड़ों भजनों व लगे। उनके प्रभावी वक्तव्य से प्रभावित होकर बनारस सम्पूर्णानंद कविताओं की रचना की है। उनके साहित्य में हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत विश्वविद्यालय में उन्हें वक्तव्य के लिए आमंत्रित किया गया। संस्कृत, प्राकृत, राजस्थानी, गुजराती शब्दों का बहुतायत मात्रा में प्रयोग यह देखकर शोध संस्थान के निदेशक डॉ. सागरमल जैन ने भी गौरव हुआ है जो उनके भाषात्मक ज्ञान की प्रखरता को अंकित करता है। इस का अनुभव किया। तरह श्री चन्द्रप्रभ ने सद्ज्ञान के विस्तार में अमूल्य योगदान दिया है। पंचांग देखना छोड़ दिया - एक सज्जन श्री चन्द्रप्रभ से विशेष विशाल साहित्य के सर्जक एवं शोधमनीषी कार्य हेतु मुहूर्त निकलवाने आए। उन्होंने पंचांग देखकर मुहूर्त बता श्री चन्द्रप्रभ ने साधना के साथ साहित्य सजन में खबरुचि दिखाई दिया। मैंने उनसे पूछा, "आप दूसरों को मुहूर्त बताते हैं, पर मैंने है। उनका साहित्य गद्य-पद्य दोनों में है। उनके साहित्य में नई दृष्टि है. आपको अपने कार्यों के लिए कभी मुहूर्त निकालते नहीं देखा, आखिर विज्ञान-अध्यात्म का समन्वय है, पुरानी बातों का परिष्कृत रूप है एवं इसका क्या कारण है?" उन्होंने कहा, "पहले मैं देखा करता था, पर वर्तमान को उन्नत बनाने की प्रेरणा है। उनका साहित्य भाषा, भाव, एक दिन बड़े भाईसाहब प्रकाश जी दफ्तरी कोलकाता जाने वाले थे। शैली, काव्य आदि सभी दृष्टिकोणों से रोचक व परिपूर्ण है। उन पर उन्होंने भाईसाहब से कहा - आज मत जाइए, क्योंकि पंचांग के सरस्वती की असीम कृपा है। उन्होंने मनोरंजन करने वाला साहित्य अनुसार आज इस दिशा में जाना वर्जित है, कुछ गलत हो सकता है। सृजन नहीं किया है वरन् साहित्य द्वारा जीवन को नई दिशा एवं दष्टि फिर भी वे चले गए और सकुशल पहुँच भी गए, वापस भी आ गए। देना उनका मुख्य उद्देश्य है। उनका साहित्य देशभर के विद्वानों एवं उन्हें लगा - पंचांग से ज्यादा प्रभावशाली प्रभु की व्यवस्थाएँ होती हैं। समाचारपत्रों द्वारा प्रशंसित हुआ है। डॉ. नागेन्द्र ने लिखा है, "श्री उस दिन के बाद उन्होंने अपने काम के लिए पंचांग देखने बंद कर चन्द्रप्रभ ने साहित्य, दर्शन एवं इतिहास से जुड़ी भूमिकाओं को जिस दिए।"वे कहते है सभी दिन प्रभु के है उसमें छंटनी क्या करना! सफलता के साथ निभाया है वह हिन्दी जगत के लिए कीर्तिमान है।" गीता के मर्मज्ञ एवं महान प्रवक्ता उनके साहित्य से विविध भाषाओं एवं विविध विषयों का ज्ञान सहज श्री चन्द्रप्रभ जैन संत होते हए भी उनकी गीता पर पकड मजबूत ही हो जाता है। शोध-प्रबंध के दूसरे एवं तीसरे अध्याय में श्री चन्द्रप्रभ है। उनके द्वारा गीता पर की गई व्याख्याएँ आश्चर्यकारी हैं। अब तक 16 » संबोधि टाइम्स Jain Education For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीता पर जो कुछ लिखा गया है उस सबमें परम्परागतता नजर आती है, हुआ आत्मविश्वास जग गया। पर श्री चन्द्रप्रभ ने जो लिखा वह परम्परा से हटकर है। वे स्वयं को देश के शीर्षस्थ प्रवचनकार गीता-प्रेमी मानते हैं। वे गीता के संदेशों को आत्मसात करने व फैलाने श्री चन्द्रप्रभ की देश के शीर्षस्थ प्रवचनकारों में गिनती होती है। की प्रेरणा देते हैं। वे कहते हैं, "गीता भारत की आत्मा है। गीता युद्ध उनकी वक्तव्य शैली लाजवाब है। वे जहाँ भी जाते हैं छत्तीस कौम की करना नहीं, अरिहंत बनाना सिखाती है। कर्तव्य-पालन का पाठ पढ़ाने जनता उन्हें सुनने के लिए लालायित हो उठती है। बच्चे से लेकर बड़ों और सोये हुए आत्मविश्वास को जगाने की प्रेरणा है गीता। गीता दुर्बल तक, अशिक्षित से लेकर उच्च शिक्षित व्यक्ति तक उनकी बातें बड़े मन की चिकित्सा करने वाला ग्रन्थ है। अगर गीता के संदेशों को भीतर काम की होती हैं। हर कोई उन्हें सरलता से समझ लेता है। इसीलिए से जोड़ लिया जाए तो ये महावीर के आगम बन जाएँगे।" उन्होंने उनके प्रवचनों एवं सत्संगों में जैन, हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि भगवान श्रीकृष्ण के बारे में लिखा है, "कृष्ण अपने आप में प्रेम के सभी धर्म-परम्पराओं के लोग हजारों की संख्या में आते हैं। उनके अवतार, शांति के देवदूत, कर्तव्य-परायणता की किताब और कर्म, वक्तव्यों में केवल पांडित्य पूर्ण बातें नहीं होतीं, वरन् विद्वता, अनुभव ज्ञान तथा भक्ति की त्रिवेणी बहाने वाले भारत के भाग्य विधाता हैं।" एवं वैज्ञानिकता का भी समावेश होता है। वे जीवन-सापेक्ष होकर उन्होंने अपने जीवन से जुड़े गीता के अनेक उपकारों व प्रभावों का भी बोलते हैं और जीवन-निर्माण की बात करते हैं। गूढ़ से गूढ़ बातों को जिक्र किया है। वे घर-घर में गीता को रखने व उसका पारायण करने सरलता व सहजता से बोलना व समझाना उनकी विशेषता है। उनकी की प्रेरणा देते हैं। वे गीता को नपुंसक हो चुकी चेतना को जगाने के प्रभावी वक्तृत्व कला और इससे जनमानस पर पड़ने वाले प्रभाव से लिए रामबाण औषधि मानते हैं। गीता के सूत्रों पर की गई व्याख्याओं से जुड़ी कई घटनाएँ इस प्रकार हैं - जुड़ा उनका ग्रंथ 'जागो मेरे पार्थ' जन-जन में बहुत चर्चित हुआ है। वैर बदला प्रेम में - जयपुर के एक ज्वैलर्स ने अपने दो लाख यह ग्रंथ उनकी सर्वधर्मसद्भावना का प्रतीक है। वे कृष्ण द्वारा तोड़ी गई माखन की मटकियों को पापों की मटकियाँ फोड़ने के रूप में रुपये न लौटाने के कारण दूसरे व्यापारी को फोन पर जान से मारने की सौभाग्यकारी मानते हैं। वे प्रतिवर्ष हजारों-हजार श्रद्धालुओं के बीच धमकी दी। व्यापारी धमकी पाकर आतंकित हुआ, पर रुपये नहीं लौटाये। ज्वैलर्स भी यह सोचकर परेशान था कि कहीं उसे मारने के धूम-धाम से जन्माष्टमी महोत्सव मनाते हैं। गीता भवन, इंदौर के मंत्री बाद अनर्थ न हो जाए। संयोग से उन्हें जैन दादाबाड़ी में श्री चन्द्रप्रभ राम विलास राठी कहते हैं, "गीता पर अब तक हमने अनेकों दफा का सत्संग मिला। उन्होंने सत्संग में प्रेरणा देते हुए कहा - जो कार्य प्रेम प्रवचन सुने लेकिन कोई जैन संत भी गीता पर इतना जबर्दस्त बोल और क्षमा से हो जाए उसके लिए तैश और तकरार का रास्ता नहीं सकते हैं यह देखकर हमारा सारा समाज गद्गद और अभिभूत है।" श्री अपनाना चाहिए। न जाने उन पर कैसा असर हुआ वे घर जाने की चन्द्रप्रभ के गीता से जुड़े निम्न घटना प्रसंग उल्लेखनीय हैं - बजाय सीधे उस व्यापारी के घर गये और अपने ग़लत व्यवहार के लिए उपराष्ट्रपति पर पड़ा ग्रंथ का प्रभाव - सन् 1996 में श्री क्षमा माँगते हुए कहा, "जब आपके पास रुपयों की सहूलियत हो तब चन्द्रप्रभ का चातुर्मास गीताभवन, जोधपुर में था। चातुर्मास के दौरान पहुँचा देना। आज के बाद मैं कभी नहीं माँगूगा।" यह व्यवहार देखकर श्री चन्द्रप्रभ के 'जागो मेरे पार्थ' ग्रंथ का लोकार्पण तत्कालीन मुख्यमंत्री व्यापारी आश्चर्य में पड़ गया। उसने कहा,"तुम्हारे स्वभाव में इस तरह श्री भैरोंसिंह शेखावत द्वारा किया गया। जब श्री शेखावत उपराष्ट्रपति का परिवर्तन कैसे आया?" जवाब मिला, "श्री चन्द्रप्रभ के सत्संग बने तब उनका फिर उनके सान्निध्य में आना हुआ। अपने अध्यक्षीय से।"व्यापारी भी पसीज़ उठा। वह तुरंत भीतर कमरे में गया और बीस भाषण में उपराष्ट्रपति ने कहा, "मैंने गीता पर कई संतों के ग्रंथ पढे, पर हज़ार रुपये थमाते हुए कहा, "अभी मेरे पास इतने ही हैं, शेष राशि मैं जब पूज्य श्री चन्द्रप्रभ जी द्वारा गीता पर लिखे 'जागो मेरे पार्थ' ग्रंथ को आपको इसी माह पहुँचा दूंगा।" पढ़ा तो पहली बार समझ में आया कि गीता का अंतर्रहस्य क्या है? यह हृदय-परिवर्तन - सन् 1996 में संबोधि-धाम, जोधपुर में एक ग्रंथ मेरे हृदय को इतना छू गया है कि मैं हर समय इसे अपने पास ही नेपाली भाई काम करता था। उस समय चारों तरफ सुनसान बस्ती थी, रखता हूँ और यथासमय इसका पठन करता हूँ जिससे मुझे एक अलग लेकिन वह बहुत बहादुर था। संबोधि-धाम में वह अकेला सो जाता ही सुकून और आनंद मिलता है। जैन परिवेश में भी गीता पर इतना था। एक बार वह बिना बताए अपने घर नेपाल चला गया। कुछ समय गहरा विश्लेषण और व्याख्या करना अपने आप में आश्चर्य है।" बाद उसका एक पत्र आया। उसमें लिखा था, "गुरुजी, मैं वहाँ गलत गीता का प्रभाव- श्री चन्द्रप्रभ अपने पिता एवं भ्राता संत के साथ कार्यों को अंजाम देने आया था, पर आपका सत्संग पाकर मेरा मन माउंट आबू की यात्रा पर जा रहे थे। किसी विरोधी तांत्रिक ने उन पर मूठ बदल गया। मैं भविष्य के लिए संकल्प लेता हूँ कि चाहे मुझे भूखा ही फेंक दी। उन्हें खून की उल्टियाँ होने लगीं। वे कमजोर होने के साथ क्यों न मरना पड़े, पर मैं कभी भी अपने जीवन में गलत कार्य नहीं भयग्रस्त भी हो गये। अब तो हवा भी चलती तो वे भयभीत हो जाते। करूँगा।" चलते-चलते वे एक स्थान पर पहुंचे। उन्हें एक घर में रुकने के लिए ठेले वाले ने दी सिलाई मशीन-सन 2006 में श्री चन्द्रप्रभ की कमरा मिला, वहाँ पुरानी किताब का एक गुटका रखा हुआ था। उन्होंने गाँधी मैदान, जोधपर में प्रवचनमाला चल रही थी। श्री चन्द्रप्रभ ने उसे देखा तो वह गीता थी, उनकी सीधी नजर उसके दूसरे अध्याय पर गरीब एवं जरूरतमंद महिलाओं को सिलाई सिखाने के लिए सिलाईपड़ी जिसमें लिखा था- हे अर्जुन, तू हृदय की तुच्छ दुर्बलता का त्याग प्रशिक्षण केन्द्र खोलने की घोषणा की। जब उन्होंने सत्संगप्रेमियों से कर, आगे बढ़, मैं तेरे साथ हूँ। उन्हें लगा - भगवान ने उनके लिए ही। सिलाई मशीनें समर्पित करने का आह्वान किया तो मैदान के बाहर यह संदेश लिखा है। उनकी मन की दुर्बलता समाप्त हो गयी और सोया सब्जी-फट का ठेला लगाने वाले एक व्यक्ति ने भी एक मशीन इस संबोधि टाइम्स > 17 For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्य हेतु भेंट की। जब उनको इस बात का पता चला तो उन्होंने उसे बुलाकर पूछा, "भैया, आप तो दिन में दो-तीन सौ रुपये कमाते हैं और मशीन देने का मतलब है कि एक महीने की कमाई समर्पित करना।" उसने कहा, "मुझे लगा कि पांडाल बँधवाकर सत्संग करवाने का सौभाग्य तो अभी मेरी किस्मत में नहीं है, पर कम-से-कम एक जरूरतमंद बहिन को सिलाई मशीन देकर उसे पाँवों पर खड़ा करने का सौभाग्य तो मैं प्राप्त कर ही सकता हूँ।" उन्होंने उस व्यक्ति की भावनाओं को प्रणाम किया और उसे अगले दिन मंच पर खड़ा करके लोगों को उससे प्रेरणा लेने की सीख दी। ऐसे दिखाई ईमानदारी जोधपुर की घटना है एक महानुभाव ने बताया कि वह गाँधी मैदान से प्रवचन सुनकर घर पहुँचा। जल्दी में उसके रुपयों का बैग टैक्सी में ही रह गया। टैक्सी ड्राइवर ने रुपयों का बैग देखा तो अपने पास रखने की बजाय मुझे घर लौटाने आया। बैग देखकर मेरी जान में जान आयी। मैंने टैक्सी ड्राइवर से पूछा, "रुपये देखकर भी आपका मन बेईमान नहीं हुआ, आखिर तुम इतने ईमानदार कैसे हो?" उसने बताया, "मुझे ईमान पर चलने की प्रेरणा श्री चन्द्रप्रभ की गाँधी मैदान में चल रही प्रवचनमाला को सुनकर मिली।" मुझे लगा, "ये रुपये रखकर मैं तो सुखी हो जाऊँगा, पर इसके मालिक का क्या होगा । भला, दूसरों को दुःखी करके मैं कैसे सुखी हो सकता हूँ।" वे टैक्सी ड्राइवर हैं - श्री नरपतसिंह जी राजपुरोहित । आखिर हुआ चमत्कार- उदयपुर की घटना है। गोर्धन विलास कॉलोनी के एक महानुभाव श्री चन्द्रप्रभ से कहने लगे - आपके टाउन हॉल मैदान में चल रहे प्रवचनों का जो चमत्कार मैंने देखा, ऐसा चमत्कार मैंने अपने जीवन में कभी नहीं देखा। मेरे दो बेटे हैं, पर उनकी पत्नियों में बिल्कुल भी आपस में नहीं बनती थी। किचन में अगर कोई एक होती तो दूसरी नहीं आती और दूसरी आ जाती तो पहली वाली बाहर निकल जाती। इतना ही नहीं, यदि किसी के कार्यक्रम में जाना होता तो दोनों कभी एक गाड़ी में बैठकर नहीं जातीं। मैं दोनों बहुओं को समझाते समझाते हार गया, पर वे वैसी की वैसी रहीं। जब से आपकी प्रवचनमाला टाउन हॉल मैदान में शुरू हुई है तब से ये दोनों प्रवचन सुनने जाने लगीं। मैंने शहरभर में आपकी तारीफ सुनी, पर मुझे नहीं लगा कि आप लोग भी इस अनबन को दूर कर पाएँगे क्योंकि आपके प्रवचन सुनते-सुनते इनको बीस दिन जो बीत चुके थे। मुझे लगा शायद भगवान भी क्यों न आए, मेरी बहुएँ वैसी की वैसी रहेंगी। - शायद परिवार सप्ताह का चौथा दिन रहा होगा। मेरी बहुएँ आपका प्रवचन सुनने के लिए मैदान जाने की तैयारी कर रही थी। यह देखकर मैं दंग रह गया कि घर के बाहर गाड़ी खड़ी थी, मेरी छोटी बहू आकर उसमें बैठ गई, वह रवाना होने ही वाली थी कि बड़ी बहू भी उसमें आकर बैठ गई। दोनों एक-दूसरे को देखकर थोड़ा मुस्कुराई । मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मैं दोनों को साथ में देखने के लिए दौड़ता हुआ आया, तब तक वे रवाना हो चुकी थीं। मैं भी प्रवचन सुनने मैदान जा पहुँचा। मुझे यह देखकर विश्वास नहीं हो रहा था कि मेरी दोनों बहुएँ पासपास बैठी हैं और आपका प्रवचन सुनने में मगन हैं। उन महानुभाव ने कहा मैं आपके इस एहसान का जिंदगी भर ऋणी रहूँगा कि आपने मेरे घर की डूबती नैया को पार लगा दिया। श्री चन्द्रप्रभ ने कहाभगवान करे, आपके घर में यह सौभाग्य सदा बना रहे । 18 संबोधि टाइम्स टूटे-रिश्ते हुए हरे-भरे - महाराष्ट्र से दो वृद्ध सज्जन श्री चन्द्रप्रभ के दर्शनार्थ संबोधि धाम, जोधपुर आए। एक सज्जन ने कहा- हम दोनों सगे भाई हैं और आपको यह सुनकर आश्चर्य होगा कि हमने पूरे पचास साल बाद एक-दूसरे का मुँह देखा है और इतने वर्षों में पहली बार एक साथ यात्रा करके सीधे आपके दर्शन करने आए हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने उनसे पूछा- ऐसा कैसे हो गया? छोटे भाई ने कहा- मेरी शादी के बाद किसी बात को लेकर हम दोनों में कहासुनी हो गई। तैश, तकरार और गुस्से में आकर बात इतनी बढ़ गई कि हमने आपस में वैर की गाँठ बाँध ली। इसके चलते एक-दूसरे से मिलना तो दूर, चेहरा न देखने की भी कसम खा ली। पिछले पचास वर्षों से हम एक-दूसरे के दुश्मन बनकर जी रहे थे। श्री चन्द्रप्रभ ने पूछा- फिर आपके बीच में वापस प्रेम कैसे उमड़ आया? उन्होंने कहा मेरे एक मित्र से उपहार में मिली आपके प्रवचन की वीसीडी सुनकर। श्री चन्द्रप्रभ ने पुनः पूछा - लेकिन यह सब हुआ कैसे? छोटे भाई ने बताया एक दिन बड़े भाई मेरे घर आए और मुझे देखते ही हाथ जोड़कर कहने लगे भैया, मुझे माफ कर देना। गुस्से में आकर मैंने बहुत बड़ी भूल कर दी। अब मैं अपने भाई को खोना नहीं चाहता। यह सुनकर मेरी आँखें भी भीग उठीं। मैं भी । उनके चरणों में गिर पड़ा। उन्होंने मुझे उठाकर गले लगाया और इस तरह हमारा वर्षों से टूटा रिश्ता फिर से हरा-भरा हो गया। बड़े भाई ने कहा - यह चमत्कार आपकी प्रवचन की वीसीडी को सुनकर ही हुआ है । - लाइफ और वाइफ सुधर गई हैदराबाद की घटना है। एक सज्जन ने फोन पर अपनी आपबीती सुनाते हुए बताया कि पत्नी के गुस्से और व्यंग्य भरे बाणों से आहत होकर मैंने जहर की गोलियां खा लीं, पर ईश्वर की कृपा से बच गया। मैं हर समय चिंता और तनाव से ग्रस्त रहता। एक दिन मैंने घर में बैठे-बैठे कई वर्ष पहले उपहार में आई श्री चन्द्रप्रभ के प्रवचन की वीसीडी चला दी। प्रवचन सुनने के बाद मुझे लगा जैसे मेरे दिमाग में कोई चमत्कार हो गया है। मैं अपने आप को पूरी तरह रिलेक्स महसूस करने लगा। फिर मैंने जोधपुर, संबोधि धाम से श्री चन्द्रप्रभ का पूरा वीसीडी साहित्य केलेण्डर सेट मँगवाया। आज मेरा पूरा परिवार सुबह शाम आपके प्रवचन सुनता है। इन प्रवचनों से मेरी लाइफ भी सुधर गई और वाइफ भी । मनोवैज्ञानिक शैली के जनक श्री चन्द्रप्रभ मनोवैज्ञानिक शैली के जनक हैं। उनका साहित्य मनोवैज्ञानिकता लिए हुए है। उनके सभी प्रवचन - मार्गदर्शन व्यक्ति के दिलोदिमाग को सीधे छूने वाले होते हैं। उन्होंने जीवन-शुद्धि का विज्ञान, मृत्यु से मुलाकात, चेतना का विज्ञान आदि पुस्तकों में मन के अनेक रहस्य प्रकट किए हैं। बातें जीवन की जीने की और बेहतर जीवन के बेहतर समाधान पुस्तकों में श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन-निर्माण से जुड़ा मनोवैज्ञानिक मार्गदर्शन दिया है। उन्होंने मन के स्वरूप पर विस्तृत व्याख्याएँ की हैं। उन्होंने बाल मनोविज्ञान पर कैसे करें व्यक्तित्व विकास' नामक पुस्तक लिखी है। उन्होंने साधना के लिए मन का अध्ययन करने को आवश्यक माना है। वे मन व चित्त को अलग-अलग मानते हैं। वे चंचल चित्त को मन व एकाग्र मन को चित्त कहते हैं। उन्होंने मन को मौन करना व उसके शोरगुल को शांत करने के प्रयत्न को ध्यान एवं योग कहा है। मन को मौन करने के लिए श्री For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रभ मन को पहचानना व उसे सम्यक् दिशा देना जरूरी बताते हैं । उन्होंने इंसान को अपनी सोच को उन्नत बनाने की प्रेरणा गीत के माध्यम से देते हुए लिखा है - हम सोचें ऐसी बातें, जिन बातों में हो दम । दुश्मन से भी हम प्यार करें, दुश्मनी हो जिससे कम ।। जिस घर में तूने जन्म लिया, वो मंदिर है तेरा । प्रभु की मूरत हैं माता-पिता, उनसे न जुदा हों हम।। दुनिया में ऐसा कौन भला, जो दूध से धुला हुआ। कमियाँ तो हर इंसान में, फिर क्यों न रखें संयम ॥ हमसे सबको सम्मान मिले, सबको ही बाँटें प्यार । बोलें तो पहले हम तौलें, मिश्री घोलें हर दम ।। श्री चन्द्रप्रभ से जुड़े कुछ मनोवैज्ञानिक घटनाप्रसंग इस प्रकार हैंसबसे मजबूत चीज क्या श्री चन्द्रप्रभ जोधपुर स्थित संबोधि धाम की पहाड़ी पर बैठे हुए थे। तभी एक युवक उनके पास आया और पूछने लगा दुनिया में सबसे मजबूत चीज क्या है? उन्होंने कहा- मैं जिस पत्थर पर बैठा हूँ वह सबसे मजबूत है। युवक ने फिर पूछा- क्या पत्थर से भी ज्यादा मजबूत कुछ है? उन्होंने कहा- हाँ, पत्थर से भी ज्यादा मजबूत है लोहा। क्योंकि लोहा पत्थर को भी तोड़ देता है। लोहे से ज्यादा कुछ भी मजबूत नहीं होता है क्या ? युवक ने पुन: जिज्ञासा रखी। उन्होंने कहा हाँ एक चीज है वह है अग्नि, जो लोहे को भी पिघला देती है। युवक ने अपना सवाल दोहराते हुए पूछा- क्या अग्नि से भी ज्यादा मजबूत कोई चीज हो सकती है? उन्होंने कहा- हाँ, पानी है क्योंकि पानी अग्नि को भी बुझा देता है। युवक ने कहा मेरा अंतिम सवाल, पानी से भी मजबूत दुनिया में क्या है? उन्होंने कहा बेटा, पानी से ही नहीं, पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा मजबूत एक ही चीज है। और वह है इंसान का संकल्प। अगर इंसान का संकल्प जग जाए तो वह पत्थर को भी तोड़ सकता है, लोहे को भी पिघला सकता है. अग्नि को भी बुझा सकता है और यहाँ तक कि पानी की धार को भी मोड़ सकता है । - लोहा मूल्यवान है या चाँदी ? एक व्यक्ति ने श्री चन्द्रप्रभ से पूछा - दुनिया में लोहा मूल्यवान है या चाँदी ? उन्होंने कहा - लोहा । वह अब तक चाँदीको मूल्यवान समझ रहा था। उसने आश्चर्य से पूछा क्यों? उन्होंने कहा - चाँदी जीवनभर चाँदी ही रहेगी, पर लोहे के साथ ऐसा नहीं है। अगर उसे पारस का स्पर्श मिल जाए तो वह सोना बन जाएगा। उन्होंने कहा- सदा याद रखो, मूल्य वस्तु का नहीं, उसमें रहने वाली संभावना का होता है। अगर व्यक्ति अपनी सुप्त संभावनाओं को जागृत कर ले तो वह मूल्यवान बन सकता है। सिक्के नहीं, सुविचार बाँटें- श्री चन्द्रप्रभ ने एक बार प्रवचन में सुविचार बाँटने की प्रेरणा दी। एक व्यक्ति ने उनसे कहा- हमने सिक्के या लड्डू बाँटने की बात तो सुनी है, पर सुविचार बाँटने की बात पहली बार सुनी। सिक्कों की प्रभावना से तो लोग प्रवचनों में आते हैं, पर सुविचार बाँटने से क्या होगा? श्री चन्द्रप्रभ ने उन्हें व उनके मित्र को अपने पास बुलाया और कहा- आप दोनों जेब से एक-एक सिक्का निकालिए और एक-दूसरे को बाँट दीजिए। अब बताओ आपके पास कितने सिक्के हुए? दोनों ने कहा- एक एक। अब आप अपना एक सुविचार उनको दीजिए व उनका एक सुविचार खुद लीजिए। अब बताओ आपके पास कितने सुविचार हुए दोनों ने कहा- दो-दो । उन्होंने कहा बस यही सार की बात है, सिक्कों का लेन-देन करोगे तो वे उतने ही रहेंगे, पर सुविचारों का लेन-देन करोगे तो वे दुगुने हो जाएँगे। हम सिक्कों की बजाय सुविचारों की प्रभावना करनी शुरू करें इससे धर्म का भी भला होगा और लोगों का भी । - लाल बत्ती जल गई है... - एक सास-बहू श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन करने आई सास ने श्री चन्द्रप्रभ से पूछा हमारे बीच कभी-कभी किसी बात को लेकर अनबन हो जाती है जिसके कारण हम दोनों का मन भारी हो जाता है। हम चाहते हैं कि फिर ऐसी कभी नौबत न आए, हमारे बीच सदा प्रेम बना रहे, इसके लिए हमें क्या करना चाहिए? श्री चन्द्रप्रभ ने दोनों से कहा - यदि आप दोनों एक-एक सूत्र को अपनाने का संकल्प कर लें तो आपकी ये अनबन सदा के लिए दूर हो सकती है। सास-बहू ने पूछा कौनसा संकल्प ? श्री चन्द्रप्रभ ने बहू से कहाएक बात सदा याद रखो, सास शक्कर की भी क्यों न हो टक्कर मारना नहीं भूलती इसलिए सास तुम्हें कुछ भी न कहे यह तो हो नहीं सकता, पर आप एक बात दिमाग में बिठा लो कि सास अथवा ससुर जब भी डॉट या कुछ कहे तो सोचना चौराहे की लालबत्ती जल गई है। भले ही हमें लालबत्ती का जलना अच्छा न लगे, पर वह हमारी सुरक्षा के लिए ही जलती है। श्री चन्द्रप्रभ ने सास से कहा याद रखो, बहू हजार काम घर के करेगी, पर एक काम अपने मन का भी करेगी इसलिए बहू जब भी कहीं जाने के लिए, कुछ करने के लिए बोले तो तुरंत हाँ कर देना, भूल चूककर मना मत करना। कुछ दिनों के बाद सास- बहू ने आकर कहा- सचमुच, काम कर गया आपका मंत्र । हर समस्या के तत्काल समाधानकर्ता श्री चन्द्रप्रभ के पास जीवन, व्यक्तित्व, कॅरियर, स्वास्थ्य, परिवार, धर्म, समाज, राष्ट्र से जुड़ी हर समस्या का समाधान है। वे हर प्रकार की समस्या के बेहतरीन एवं तत्काल समाधानदाता हैं। उनकी कृतियों में परिवार से समाज तक, धर्म से अध्यात्म तक, व्यापार से व्यक्तित्व विकास तक हर तरह की जिज्ञासाओं का रोचक समाधान हुआ है जिसे पढ़ने मात्र से जीवन में एक नई ताजगी का संचार होता है। सांसद बालकवि वैरागी कहते हैं, " श्री चन्द्रप्रभ द्वारा जीवन की समस्याओं से जुड़े हुए समाधान पढ़कर पाठक साधक हो जाता है। वह विचारक से चिंतक और चिंतक से मनीषी तक के पायदान पर चढ़ता चला जाता है। वह वह नहीं रहता जो कि वह था। वह वह हो जाता है जो कि वह होना चाहता है।" उनके समाधान मनोवैज्ञानिकता, तार्किकता एवं सरलता लिए हुए होते हैं। साथ ही उनमें क्रमबद्धता एवं रोचकता का समावेश होता है। इस कारण वे युवा पीढ़ी एवं आमजन में ज्यादा उपयोगी सिद्ध हुए हैं। बातें जीवन की जीने की बेहतर जीवन के बेहतर समाधान, , " 50 अंतर्यात्रा, ध्यान साधना और सिद्धि, चेतना का विकास आदि पुस्तकों में श्री चन्द्रप्रभ ने सैकड़ों तरह की जिज्ञासाओं एवं समस्याओं का विस्तार से समाधान दिया है। उनकी समाधान के संदर्भ में निम्न घटनाएँ हैं For Personal & Private Use Only - सबसे कठिन क्या एक युवक श्री चन्द्रप्रभ से मिलने आया। उनसे प्रभावित होकर पूछने लगा संतप्रवर, इस दुनिया में सबसे विशाल क्या है? उन्होंने कहा आकाश युवक ने अगले प्रश्न में पूछा संबोधि टाइम्स 19 www.jahembrary.org - Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ज़रा बताएँ, दुनिया में सबसे महान चीज़ क्या है? उन्होंने मुस्कुराते विकास एवं आध्यात्मिक उन्नति का महान उद्देश्य छिपा हुआ है। श्री हुए कहा - सद्गुण, जो इंसान को सबसे महान बना देते हैं। युवक ने चन्द्रप्रभ जीवन को वीणा के तारों की तरह साधने की प्रेरणा देते हैं। खुश होकर फिर नई जिज्ञासा रखी कि दुनिया में सबसे सरल काम क्या अतित्याग व अतिभोग की बजाय वे मध्यम मार्ग अपनाने का समर्थन है? उपदेश देना - उन्होंने कहा। यह सुनकर युवक को लगा बात तो करते हैं। उन्होंने 'वीणा के तार' नामक कविता के माध्यम से आम वास्तव में सही है। उसने कहा - गुरुदेव, अब मैं अंतिम जिज्ञासा का जनमानस को अंतर्दृष्टि प्रदान करते हुए लिखा है - समाधान चाहता हूँ कि जीवन में सबसे कठिन काम क्या है? उन्होंने इतने अधिक कसो मत निर्मम, वीणा के हैं कोमल तार। कुछ पल सोचा और कहा - जीवन में सबसे कठिन काम एक ही है टूट पड़ेंगे सबके सब वे, कभी न निकलेगी झंकार। जिसे कर लेने पर इंसान इंसान नहीं रहता देवदूत बन जाता है और वह इतने अधिक करो मत ढीले, रसवन्ती वीणा के तार। है अपने-आपको जानना और अपने स्वभाव को सुधारना । कोई राग नहीं बन पाए, निष्फल हो स्वर का संसार ।। यश कामना कैसे जीतें - एक समारोह में आए विशिष्ट मेहमानों की खुले दिल से प्रशंसा की जा रही थी। माला और साफा पहनकर वे इसी कविता से जुड़ा एक घटना प्रसंग इस प्रकार हैबड़े खुश हो रहे थे। कार्यक्रम के पश्चात् एक व्यक्ति ने श्री चन्द्रप्रभ से महान कवयित्री महादेवी वर्मा हईं अभिभूत - जितयशा पूछा - क्या सम्मान पाने की कामना को जीता जा सकता है? उन्होंने फाउंडेशन के सचिव प्रकाशचंद दफ्तरी इलाहबाद में देश की महान कहा - इस कामना को जीतना मुश्किल तो है, पर नामुमकिन नहीं। कवयित्री महादेवी वर्मा के पास श्री चन्द्रप्रभ का साहित्य प्रदान करने इसके लिए दो बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए। उसने पछा- गये। महादेवी वर्मा ने श्री चन्द्रप्रभ का साहित्य देख कर कहा - मेरे कौनसी? उन्होंने कहा - मंच पर खुद की तारीफ व सम्मान नहीं पास उनकी किताबें पहले से भी है और यह कहते हुए श्री चन्द्रप्रभ की करवाएँगे, कोई ऐसा कर रहा है तो उसे वैसा न करने का निवेदन करेंगे प्रतीक्षा नाम की काव्य पुस्तिका निकाली और कहने लगी- मैंने इस और सदा दूसरों को सम्मान देने की भावना रखेंगे क्योंकि सम्मान पाने ___ किताब को पूरा पढ़ा है कोई जैन संत छायावाद पर इतनी अच्छी की नहीं, देने की चीज होती है। कविताएँ लिख सकता है यह देखकर मैं प्रसन्न हूँ। यह कहते हुए नई कार्यशैली की सीख – एक बहिन श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन उन्होंने उसी किताब की एक कविता सबके सामने पढ़नी शुरू की करने आई। उसने श्री चन्द्रप्रभ से कहा - मैं बहुत दुखी हूँ। मेरे घर में जिसके बोल थे 'इतने अधिक कसो मत निर्मम वीणा के हैं कोमल मेरी देवरानी भी है और जेठानी भी, पर घर का काम सबसे ज्यादा मुझे तार... ' सबने देखा कविता सुनाते हुए महादेवी जी भाव-विह्वल हो ही करना पड़ता है। इस कारण मुझे उनसे ईर्ष्या होती है और मैं मन ही उठी थीं। मन जलती रहती हूँ। आखिर मैं ही घर में ज्यादा घिरौँ-पितूं क्यूँ? श्री श्री चन्द्रप्रभ ने सुखी जीवन के लिए भाषाशैली को श्रेष्ठ बनाने एवं चन्द्रप्रभ ने कहा - यह तो अच्छी बात है। बहिन ने कहा - आप भी क्यों माता-पिता की सेवा करने की प्रेरणा एक राजस्थानी गीत के माध्यम से मेरे साथ मजाक कर रहे हैं, यह भला कैसे अच्छी बात हो सकती है। देते हए लिखा है - श्री चन्द्रप्रभ ने कहा - मेरे इस प्रश्न का उत्तर दो कि जो चंदन ज्यादा मीठो-मीठो बोल थारो काई लागै, कांई लागेजी थारो काई लागै। घिसता है उसका क्या उपयोग होता है? बहिन ने कहा - वह तो मंदिर संसार कोई रो घर नहीं, कद निकलै प्राण खबर नहीं।। में परमात्मा के चरणों में चढ़ता है। श्री चन्द्रप्रभ ने फिर पूछा - जो चंदन चार दिना रो जीणो है संसार, थारी-मारी छोड़ करां सब प्यार। बिल्कुल भी नहीं घिसता उसका क्या होता है? बहिन ने कहा - उसे हिलमिल रैवो, हँसखिल जीवो, संसार कोई रो घर नहीं।। श्मशान में किसी अमीर का शव जलाने में काम ले लिया जाता है। श्री चन्द्रप्रभ ने कहा - इसका मतलब है आप मंदिर में चढ़ने वाले चंदन मात-पिता ने जाणो थे भगवान, उणरी सेवा है प्रभु रो सम्मान। की तरह हैं और काम नहीं करने वाले श्मशान में जलने वाले चंदन की सेवा करो, आशीष लो।। तरह । याद रखें, जो घिसता है वह परमात्मा तक पहुँचता है और जो जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ कुमार अवस्था में जब निठल्ला बैठा रहता है वह श्मशान में खाक हो जाता है। यह सुन बहिन राजकुमारी राजुल से शादी करने के लिए जाते हैं, पर जब उन्हें पता की आँखों में नई चमक आ गई । उसने कहा- आज से मुझे काम करने चलता है कि बारातियों के भोजन के लिए हजारों पशुओं को बाड़े में की सकारात्मक जीवन-दृष्टि मिल गई। रखा गया है तो वे उनके करुण-क्रंदन को सुनकर द्रवित हो जाते हैं और जीवंत काव्य के रचयिता अपने कदम गिरनार की धरती पर संन्यास लेने के लिए बढ़ा देते हैं। यह श्री चन्द्रप्रभ साहित्यकार होने के साथ सिद्धहस्त काव्यकार एवं देखकर राजकुमारी राजुल भी उनका अनुसरण करने को उद्यत हो जाती गीतकार भी हैं। उन्होंने सैकड़ों जीवंत कविताओं एवं भजनों का सृजन है। तीर्थंकर नेमिनाथ और उनकी दासी राजुल की विरह व्यथा के इस किया है। जहाँ उनकी कविताएँ छायावादी एवं रहस्यवादी संस्कारों के प्रसंग को श्री चन्द्रप्रभ ने काव्य के रूप में व्यक्त करते हुए लिखा हैसाथ दर्शन की अनुपम छटा दर्शाती हैं वहीं उनके भक्ति एवं साधना से जहाँ नेमि के चरण पड़े, गिरनार की धरती है। भरे भजन अंतर्मन को सुकून और जीवन को नई दिशा प्रदान करते हैं। वह प्रेम मूर्ति राजुल, उस पथ पर चलती है।। उनकी कविताएँ कल्पनालोक में विचरण नहीं करती हैं वरन् जीवन के राजुल की आँखों से, झर-झरता पानी। विभिन्न पहलुओं का स्पर्श करती हुई यथार्थपरक चिंतन प्रस्तुत करती अन्तस् में घाव भरे, प्रभु दरस की दीवानी। हैं। उनकी कविताओं एवं भजनों के पीछे जीवन-निर्माण, व्यक्तित्व मन-मंदिर में जिसकी, तस्वीर उभरती है।। Ja20 संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस ओर गये प्रभु तुम, वही मेरा ठिकाना है। की गहराई का सहज अनुमान लग जाता है। उन्होंने जीवन के बारे में जीवन की यात्रा का वो पथ अनजाना है। लिखा है, "जीवन किसी साँप-सीढ़ी के खेल की तरह है। कभी साँप लख चरण 'चन्द्रप्रभु' के, राजुल तब चलती है।। के जरिए हम ऊपर से नीचे लुढ़क आते हैं तो कभी सीढ़ी के जरिए नीचे श्री चन्द्रप्रभ ने तीर्थंकर आदिनाथ की भक्ति पर रचित जैन धर्म का से ऊपर पहुँच जाते हैं। एक बार नहीं, दस बार भी साँप निगल ले, तब महान स्तोत्र भक्तामर का पद्यानुवाद भी किया है। प्रभु-भक्ति में लिखे __ भी हम उस उम्मीद से पासा खेलते रहते हैं कि शायद अगली बार सीढ़ी गए बोल उनके इस प्रकार हैं चढ़ने का अवसर अवश्य मिल जाए।" संगत का महत्त्व बताते हुए वे जिसने तुम्हें निहारा जी भर, वह क्यों इधर-उधर झाँकेगा? कहते हैं, "दु:खी और बदक़िस्मत लोगों के साथ रहने की बजाय सुखी क्षीर-नीर को पीने वाला, क्षार-नीर को क्यों चाहेगा? और खुशक़िस्मत लोगों के साथ रहें, नहीं तो आपके सौभाग्य को भी और देव निरखे कितने ही, पर परितुष्ट हुआ मैं तुझसे। उनकी बदक़िस्मती का सूर्य-ग्रहण लग जाएगा।" माता-पिता को सावधान करते हुए उन्होंने कहा है, "आप अपने बच्चों को बुरी नज़र से मन-मंदिर में तुझे बसाया, हरे कौन मेरा उर मुझसे।। बचाकर रखते हैं, पर बुरी संगत से? बच्चों को बुरी संगत से बचाइए, नमन तुम्हें हैं संकट-भंजक, वसुधा-भूषण, प्रथम जिनेश्वर। नहीं तो कल आप पर उनकी बुरी नज़र हो जाएगी।" नजरों के प्रति सोख लिया तुमने भव सागर, तीन लोक के हे परमेश्वर ।। सावधान करते हुए वे लिखते हैं, "रावण के बीस आँखें थीं, पर नजर श्री चन्द्रप्रभ ने संबोधि सूत्र में आध्यात्मिक मार्गदर्शन देते हुए सिर्फ एक औरत पर थी जबकि अपने दो आँखें हैं. पर नजर हर औरत लिखा है पर है। फिर सोचो कि असली रावण कौन है?" मन मंदिर इंसान का, मरघट मन शमशान। श्री चन्द्रप्रभ ने युवा पीढ़ी में जोश और जज्बा जगाने की बेहतरीन स्वर्ग-नरक भीतर बसे, मन निर्बल, बलवान्।। कोशिश की है। उन्होंने हार-जीत के बारे में कहा है, "जिंदगी हार का जग जाना, पर रह गये, खुद से ही अनजान। नाम नहीं, जीत का नाम है। हारना गुनाह नहीं है,लेकिन हार मान बैठना मिले न बिन भीतर गए, भीतर का भगवान ।। अवश्य गुनाह है।" वे कहते हैं, "माना कि आज हमारी औकात बूंद कर्ता से ऊपर उठे, करें सभी से प्यार। जितनी होगी, पर बूंद से बूंद मिलाते रहे, तो एक दिन वही बिजली पैदा ज्योति जगाये ज्योति को, सुखी रहे संसार ।। करने वाला बाँध बन जाता है।" उन्होंने याददाश्त के संदर्भ में कहा है, बंधन तभी है जगत जब, मन में विषय की लहर हो। "याददाश्त के लिए थ्री आर का फार्मूला अपनाइए -1.रिमेम्बरिंग,2. मन निर्विषय यदि विषय से, तो मुक्ति बोले मुखर हो।। रिवाइजिंग, 3. राइटिंग। यानी याद कीजिए, दोहराइए, लिखकर उसे संसार क्या है वासना का, एक अंधा सिलसिला। और पक्का कीजिए।" निर्वाण तब, जब वासना से, मुक्ति का मारग मिला।। श्री चन्द्रप्रभ ने कार्यशैली की विवेचना करते कहा है, "बहुत श्री चन्द्रप्रभ ने मन की भटकन का सुंदर चित्र खींचा है। वे संत से काम खराब ढंग से करने की बजाय थोड़े काम अच्छे ढंग से करना बेहतर है।" उनकी दृष्टि में धनार्जन का अर्थ है, "यदि गृहस्थ की मनोदशा के बारे में कहते हैं - आपको धन कमाना है तो यह मत सोचिए कि पैसों के बिना कैसे जब संन्यास में होते हैं, लगता है शुरू करूँ? बल्कि यह सोचिए कि यदि आप शुरू ही नहीं करेंगे, गार्हस्थ्य अच्छा; जब गार्हस्थ्य में तो पैसे कहाँ से आएँगे।" श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन में प्रेम और क्षमा होते हैं, लगता है संन्यास अच्छा। को अपनाने की प्रेरणा देते हुए कहा है, "जो काम रुमाल से हो जैसे पिंजरे के पंछी को, लगता है सकता है उसके लिए रिवाल्वर मत निकालिए।" गरमी-नरमी पर आकाश अच्छा; आकाश विहारी उन्होंने लिखा है, "अगर गरमी रखोगे तो लोग ए.सी. में बैठना पंछी को, लगता है पिंजरा अच्छा।। पसंद करेंगे, पर अगर नरमी रखोगे तो लोग तुम्हारे पास बैठना श्री चन्द्रप्रभ केवल मुक्ति का संदेश ही नहीं देते वरन् मुक्ति का पसंद करेंगे।" मार्ग भी स्पष्ट करते हैं। उन्होंने इस भावना को काव्य में प्रकट करते श्री चन्द्रप्रभ ने परिवारों में प्रेम और मिठास का अमृत घोला है। हुए लिखा है - उनकी पारिवारिक रिश्तों को लेकर की गई व्याख्याएँ अद्भुत हैं। मुक्ति का पथ, धार खड्ग की, विरले ही होते गतिमान। परिवार की नई परिभाषा देते हुए उन्होंने लिखा है, "परिवार का मतलब लगातार जो चलते रहते, पाते हैं वे लक्ष्य महान ॥ है : Family और फेमिली का मतलब है : F=Father,ASAND, M = दीप जलाएँ श्रद्धा-घृत से, ज्ञान की बाती, कर्म प्रकाश। Mother, I = I, L= Love, Y= YOU अर्थात् फादर एण्ड मदर आई लव जीवन ज्योतिर्मय हो उठता, पाते मुक्ति का आकाश ॥ यू।" उन्होंने माँ को इस तरह व्याख्यायित किया है, "माँ का 'म' इस तरह श्री चन्द्रप्रभ जीवंत काव्य की रचना करने में सफल रहे हैं। महादेव, महावीर और मोहम्मद साहब की महानता लिए हुए है और माँ शब्दों के कमाल के जादूगर का'अ' आदिब्रह्मा, आदिनाथ और अल्लाह को अपने आँचल में समेटे हुए है। आप माँ की वंदना कीजिए, सृष्टि के सभी देवों की वंदना श्री चन्द्रप्रभ शब्दों के कमाल के जादूगर एवं चलते-फिरते अपने-आप हो जाएगी।" वे 1 और 1 को नए स्वरूप में परिभाषित शब्दकोश हैं। उन्होंने जीवन, जगत और अध्यात्म से जुड़े विविध । करते हुए कहते हैं, "कितना अच्छा हो कि हम दो भाइयों के बीच 1X1, पहलुओं की जो व्याख्याएँ की हैं वह अद्भुत हैं, जिससे उनके चिंतन संबोधि टाइम्स » 21 For Personal & Private Use Only vnivw.jainelibrary.org Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1+1, 1-1 करने की बजाय वैर-विरोध के सारे x + हटा दें तो यही दो भाई 11 (ग्यारह) की ताकत नजर आने लग जाएँगे।" 'घर में बड़ा कौन ?' के बारे में उनका कहना है, “घर में बड़े वे नहीं हैं जिनकी उम्र बड़ी है, घर में बड़े वे होते हैं जो वक्त पड़ने पर अपनी कुर्बानी देकर अपना बड़प्पन निभाते हैं।" बेटी और बहू की सुंदर व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा है, ‘“बेटी लक्ष्मी है और बहू गृहलक्ष्मी । लक्ष्मी चंचला है और गृहलक्ष्मी स्थायी । गृहलक्ष्मी को इतना प्यार दीजिए कि घर से गई लक्ष्मी की याद न सताए।" लायक - नालायक की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं, “बच्चों को पढ़ा-लिखाकर लायक बनाएँ, पर उस तरह का लायक न बनाएँ कि वे आपके प्रति ही नालायक साबित हो जाएँ।" " श्री चन्द्रप्रभ ने पति-पत्नी के रिश्ते के संदर्भ में 'झेलना' शब्द की विवेचना इस प्रकार की है, " अपने पति पर झल्लाइए मत। वे दूसरों से सौ-सौ लड़ाइयाँ झेल सकते हैं, पर आपकी रोज-रोज की टी-टीं बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं। पति का दिल जीतना है, तो उन्हें अपना प्यार, सम्मान और ख़ुशियाँ बाँटते रहिए।" धन और बेईमानी के संदर्भ में उन्होंने कहा है, “ अपने पति को धन कमाने की प्रेरणा दीजिए, पर बेईमान बनने की नहीं। बेईमानी करके वे आपके लिए हीरों की चूड़ियाँ तो बना देंगे, पर कहीं ऐसा न हो कि उनके हाथों में लोहे की हथकड़ियाँ आ जाएँ।" पतियों को सीख देते हुए वे कहते हैं, "पत्नी के अगर सरदर्द हो तो उसे केवल 'सर का बाम' मत दीजिए, दो पल उसके पास बैठकर उसके सिर को सहलाइए। यह सच है कि पत्नी को सदाबहार खुश रखना संसार का सबसे बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य है, पर याद रखिए पत्नी ख़ुश है तो ही आप ख़ुश हैं, नहीं तो वह आपकी ख़ुशी को ग्रहण लगा देगी।" उन्होंने लक्ष्मी का अर्थ इस प्रकार बताया है, "इंसान की एक लक्ष्मी दुकान के गुल्लक में रहती है और दूसरी लक्ष्मी घर के आँगन में। यदि घर की लक्ष्मी का सम्मान न किया तो याद रखना दुकान की लक्ष्मी से हाथ धो बैठोगे ।" श्री चन्द्रप्रभ ने खानपान-खानदान के बारे में कहा है, "आपका खानपान ही आपके खानदान की पहचान करवाता है। सदा वही खानपान कीजिए जो आपके खानदान को स्वस्थ और गरिमामय बनाए।" वे सुधार की व्याख्या इस प्रकार करते हैं, "कृपया अपना पेट सुधारिए, शरीर स्वत: सुधर जाएगा। मस्त रहिए, मन सुधर जाएगा। आधे घंटे ही सही, भजन अवश्य कीजिए, आपका भव-भव सुधर जाएगा।" उन्होंने गुटखे के बारे में लिखा है, "गुटखा खाने से पहले 'ट' हटाकर बोलिए, फिर भी जी करे, तो प्रेम से खाइए।" अंगप्रदर्शन के बारे में उनका कहना है, " अंगप्रदर्शन करना बैल को सींग मारने के लिए न्यौता देने के समान है।" उनके अनुसार एकता का अभिप्राय है, “0 की कोई कीमत नहीं होती, पर यदि उससे पहले 1 की ताकत लगा दी जाए तो हर 0 की कीमत 10 गुना बढ़ जाती है। " श्री चन्द्रप्रभ ने प्रभु और ईश्वर के बारे में लिखा है, "प्रभु को इस बात से कोई प्रयोजन नहीं है कि आप उसे किस पंथ और पथ से पाना चाहते हैं, प्रभु को सिर्फ़ इस बात से सरोकार है कि आप उसे कितना पाना चाहते हैं। ईश्वर हममें है, अगर हम भी ईश्वर में हो जाएँ तो हमारे जीवन की समस्याओं का खुद-ब-खुद अंत हो जाए ।" प्रेम की विवेचना उन्होंने इस प्रकार की है, "मनुष्य से प्रेम, प्रेम का पहला चरण है। पशु-पक्षियों से प्रेम, प्रेम का विस्तार है। पेड़-पौधे, नदीJa 22 > संबोधि टाइम्स " नाले और चाँद-सितारों से प्रेम प्रेम की पराकाष्ठा है।" उन्होंने कट्टरता शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है, "कट्टरता संसार का सबसे खतरनाक कैंसर है जो कि मानवता और भाईचारे की आत्मा को खोखला कर देता है।" वे भारत के भाग्योदय पर कहते हैं, "भारत का भाग्योदय तभी होगा जब यहाँ का हर नागरिक राष्ट्रीय भावना को प्राथमिकता देगा।" इस तरह वे हर व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व को निखारने की प्रेरणा देते हैं। उनकी हर व्याख्या में नयापन है, नया चिंतन है, नया दृष्टिकोण है जो परिवार, समाज, राष्ट्र, जीवन और व्यक्तित्वनिर्माण में बेहद उपयोगी है। सहज जीवन एवं सौम्य व्यवहार के मालिक श्री चन्द्रप्रभ सहज जीवन के मालिक हैं। सहजता का अर्थ है : हर हाल में आनंद, शांति। वे जीवन के हर पहलू में सहजता का दृष्टिकोण रखते हैं । चाहे सुनना हो या कहना, सहजता उनके लिए पहले है । T उन्होंने सहजता और निर्लिप्तता को साधना की नींव बताया है। उन्होंने संबोधि साधना के अंतर्गत पाँच चरणों का जिक्र किया है (1) सहजता (2) सचेतनता (3) सकारात्मकता (4) निर्लिप्तता और (5) प्रसन्नता । वे आध्यात्मिक शांति और मुक्ति के लिए सहजता अर्थात् हर हाल में आनंद दशा को बनाए रखने को पहला सोपान मानते हैं। उन्होंने आरोपित कृत्रिम और बनावटी जीवन से दूर रहने की सलाह दी है । 'शांति पाने का सरल रास्ता' नामक पुस्तक में उन्होंने सहजता पर विस्तार से प्रकाश डाला है। 2 - | श्री चन्द्रप्रभ सौम्य व्यवहार की साक्षात मूर्ति हैं। उनसे मिलने वाला हर कोई उनके व्यवहार से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता । वे सौम्य व्यवहार को सफलता के लिए जरूरी मानते हैं। उनका मानना है, "विनम्र व्यक्ति की तो दुश्मन भी प्रशंसा करते हैं, जबकि घमंडी व्यक्ति को दोस्त भी दुत्कारते हैं।" वे न केवल सौम्य व्यवहार के धनी हैं वरन् उनकी व्यावहारिक ज्ञान पर भी पकड़ मजबूत है। वे कहते हैं, "गुस्सा दिवाला है और क्षमा दीवाली है। गुस्सा भूकिए और क्षमा कीजिए।" श्री चन्द्रप्रभ ने हजारों किलोमीटर की पदयात्राएँ की हैं। उन्होंने जीवन जगत, प्रकृति और लाखों लोगों को काफी करीबी से देखा है। उनके साहित्य में इसकी स्पष्ट झलक है। वे जीवन-जगत को धरती की सर्वश्रेष्ठ कृति मानते हैं और इसे पढ़ना दुनिया की किसी भी महानतम पुस्तक को पढ़ने से ज्यादा बेहतर बताते हैं। वे जीवन का व्यावहारिक ज्ञान पाने के लिए हमें बार-बार प्रकृति के सान्निध्य में जाने की प्रेरणा देते हैं। वे कहते हैं, "हम फूलों को चूमकर देखें, हमारे हृदय में प्रेम का सागर लहरा उठेगा। हम प्रकृति का सौन्दर्य देखें, प्रकृति का सौन्दर्य हममें नृत्य कर उठेगा।" उन्होंने दुनिया को अनुगूँज कहा है। यहाँ फूलों के बदले फूल व काँटों के बदले काँटे आते हैं। इसके उदाहरण के रूप में श्री चन्द्रप्रभ ने कुएँ में मुँह डालकर बोलने की बात बताई है। अगर कुएँ में गधा बोलेंगे तो वापस गधा शब्द लौटकर आएगा और गणेश बोलेंगे तो गणेश वे कहते हैं, " औरों के लिए अच्छा बनना, अपने लिए और बेहतर बनने की कला है। " इसलिए उन्होंने सबके साथ अच्छा व्यवहार करने की प्रेरणा दी है ताकि वापस अच्छा व्यवहार लौटकर आ सके। उनके सौम्यता भरे व्यवहार से जुड़ी निम्न घटनाएँ प्रेरणारूप हैं For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नम्रता से जीता दिल - दीक्षा लेने के बाद श्री चन्द्रप्रभ पढ़ने हेतु बड़प्पन से जीता दिल- काफी वर्ष पुरानी बात है। श्री चन्द्रप्रभ बनारस गए। वहाँ पर उन्होंने लगातार तीन साल तक दर्शन, व्याकरण, का एक विशेष शहर से विहार होने वाला था। संयोग से उसके दो दिन संस्कृत, प्राकृत, आगम, पिटक, वेद, उपनिषद् व गीता जैसे शास्त्रों का बाद ही एक बड़े संत उस शहर में आने वाले थे। वे उनसे प्रेमभाव नहीं गहन अध्ययन किया। इस दौरान वे संस्कृत-साहित्य और दर्शन-शास्त्र का रखते थे। उन्होंने कई बार उनके विरोध में श्रावकों को पत्र भी लिखे थे, अध्ययन वाराणसी विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के अध्यक्ष प्रो. पर श्री चन्द्रप्रभ चाहते थे कि यह विद्वेष-भाव यहीं खत्म हो जाए सो नारायण मिश्र से करना चाहते थे। उन्हें पढ़वाने के लिए निमंत्रण भेजा गया। उन्होंने विहार का कार्यक्रम स्थगित कर दिया। श्री चन्द्रप्रभ ने श्रावकों उन्होंने साफ तौर पर कह दिया कि सप्ताह में तीन दिन आऊँगा, एक घंटे से को प्रेरणा दी कि संतप्रवर का स्वागत बैंडबाजे के साथ करवाया जाए। ज़्यादा नहीं पढ़ाऊँगा, किसी दिन छुट्टी कर ली तो पैसे नहीं करेंगे और जब यह खबर उनके पास पहुँची तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। इतना ही महीने के छह सौ रुपए लूँगा। इन शर्तों के साथ भी श्री चन्द्रप्रभ को पढ़ना नहीं श्री चन्द्रप्रभ दो कि.मी.चलकर उनकी अगवानी करने के लिए भी पड़ा क्योंकि 30 साल पहले बनारस में उनके जैसा कोई विद्वान प्रोफेसर था पहुँचे। उनको सामने देखकर वे अभिभूत हो उठे। जैसे ही वे उन्हें वंदन नहीं, पर मात्र एक महीने के बाद वे सप्ताह में सातों दिन आने लगे, यहाँ करने के लिए चरणों में झुके तो उनकी आँखें भर आईं। उन्होंने कहातक कि रविवार को भी छुट्टी नहीं करते, एक घंटे की बजाय दो-दो, चार- आपके बड़प्पन ने मेरा दिल जीत लिया। चार घंटे तक पढाते और महीना होने पर फीस भी नहीं मांगते,आखिर सब प्रेम के प्रबल पक्षधर कुछ ऐसा कैसे हो गया? श्री चन्द्रप्रभ जितने ज्ञान और ध्यानयोगी हैं उतने ही प्रेम मूर्ति भी। प्रोफेसर के आते ही संत होने के बावजूद श्री चन्द्रप्रभ द्वारा खड़े वे विश्व की सारी समस्याओं का समाधान प्रेम में देखते हैं। उन्होंने हाकर उनका आभवादन करना, पिछलादन पढ़ाए गए पाठा का पूरा भक्ति, श्रद्धा, प्रार्थना, पूजा को प्रेम के ही अलग-अलग रूप माने हैं। तरह याद रखना, आगे के अध्यायों का पढ़ाने के पूर्व अभ्यास कर लेना, शास्त्रों में साधना के तीन मार्ग बताए गए हैं - (1) ज्ञान (2) श्रद्धा और वाणी-व्यवहार से सदैव उन्हें प्रसन्न रखना जैसे गुणों व श्री चन्द्रप्रभ (3) आचरण । श्रद्धा को धर्म की आत्मा माना गया है। श्री चन्द्रप्रभ का की विनम्रता, अभिरुचि, लगन व समर्पण देखकर वे अभिभूत हो गए हृदय प्रेम, श्रद्धा और भक्ति की त्रिवेणी से भरा हुआ है। वे स्वयं प्रेम की और तब उन्होंने किसी गुरु की तरह नहीं, अपितु एक पिता की भाँति साक्षात प्रतिमा हैं। उनके द्वारा रचित प्रेम और भक्ति से भरे गीत गाने पढ़ाना शुरू कर दिया। योग्य हैं। उनका नेमि-राजुल गीत तो विश्व स्तर पर चर्चित हुआ है, गुरुजी की विनम्रता - सन् 2008 के अगस्त माह में श्री चन्द्रप्रभ जिसके प्रथम बोल है - की जोधपुर के गाँधी मैदान में प्रवचनमाला चल रही थी। किसी संस्था सौभाग्य कहाँ सहगमन करूँ, अनुगमन करूँ ऐसा वर दो। का वहाँ दोपहर में नाश्ते का कार्यक्रम था। लोग नाश्ता करके कचरा जो हाथ हाथ में नहीं दिया, वो हाथ शीष पर तो रख दो॥ वहीं फेंककर चले गये। उसके अगले दिन जब वे मैदान पहुँचे तो श्री चन्द्रप्रभ प्रेमरहित जीवन को अपाहिज के समान और प्रेम कचरा देखकर उसे पांडाल से बाहर फेंकने लगे। मैंने उनसे कहा युक्त जीवन को अमृत के समान मानते हैं। वे प्रेम रहित प्रार्थना को आप यह क्या कर रहे हैं, हमें कह दिया होता। उन्होंने कहा - क्यों शब्दजाल, प्रेम रहित पूजा को केवल चंदन का घिसना और प्रेम रहित कचरा उठाना कोई हल्का काम है? भगवान कृष्ण ने भी तो जूठी पत्तले समाज को उठक-बैठक भर मानते हैं। उनके द्वारा प्रेम की महिमा उठाई थीं, फिर मैं ऐसा क्यों नहीं कर सकता? उनके इन शब्दों को अनेक जगह वर्णित हुई है। उन्होंने पत्नी से जुड़ा प्रेम सामान्य कोटि सुनकर वहाँ खड़े लोगों को न केवल कचरा हटाने की प्रेरणा मिली का, माँ से जुड़ा प्रेम पवित्र कोटि का और परमात्मा से जुड़े प्रेम को प्रेम वरन् जिन्होंने कचरा फेंका था उन्हें भी अपनी गलती का अहसास की पराकाष्ठा माना है। वे कहते हैं, "प्रभु को माइक पर नहीं, मन में हुआ। पुकारिए। माइक पर उठी पुकार भीड़भाड़ के शोर में खो जाती है, पर शिष्टता और मर्यादा की जीवंत मूर्ति मन में उठी पुकार सीधे प्रभु से लौ लगाती है।" उनकी प्रेम और श्री चन्द्रप्रभ दार्शनिक, विचारक और तत्त्ववेत्ता होने के साथ अहिंसा से जुड़ी यह बात कितनी सुंदर है, "चाँटा न मारना अहिंसा हो शिष्टता और मर्यादा की जीवंत मूर्ति हैं। वे वेश बदलकर संत बनने को सकता है लेकिन स्नेह से माथा चूमना अहिंसा का विस्तार और प्रेम की आसान मानते हैं, पर स्वभाव बदलकर संत बनने को वे असली साधना प्रगाढ़ता का ही परिणाम है।" उन्होंने आध्यात्मिक विकास के दो मार्ग मानते हैं। वे उसी आचार-विचार को श्रेष्ठ मानते हैं जिसका परिणाम बताए हैं - एक ध्यान, दूसरा प्रेम। वे ध्यान को स्वयं के साथ और प्रेम सुख,शांति और समाधि के रूप में आता है एवं जो व्यक्ति को परिवार, को इस जगत के साथ जीने के लिए बताते हैं। उनके प्रेमी-हृदय को समाज और देश का कल्याण करने की प्रेरणा देता है। वे जीवन को प्रकट करने वाली एक घटना है - खली डायरी की तरह रखने के समर्थक हैं। उन्होंने लिखा है, "सोचिए प्रेम की ताकत - एक बार श्री चन्द्रप्रभ ने सहयोगी संतों के वही जिसे बोला जा सके और बोलिए वही जिस पर हस्ताक्षर किये जा साथ अपना चातुर्मास मध्यप्रदेश के एक शहर में करने की घोषणा सकें।" उनकी नजरों में, आचार-विचार और कथनी-करणी में दूरी की। वहाँ पहँचते ही उन्हें लगा कि एक अन्य सम्प्रदाय का श्रावक रखना न केवल दूसरों को वरन् खुद को खुद के द्वारा धोखा देना है। वे उनका कट्टर विरोधी बना हुआ है। वह जगह-जगह उनके विरुद्ध सबके साथ प्रेम और मर्यादा से पेश आते हैं। वे विरोधियों के दिल को टीका-टिप्पणी व उल्टी-सीधी बातें करता रहता है। उन्होंने उस भी बड़प्पन भरे व्यवहार से जीतने की कोशिश करते हैं। इस संदर्भ में शहर में चातुर्मास प्रवेश हेतु उसी व्यक्ति के घर से होते हुए श्री चन्द्रप्रभ के जीवन से जुड़ी निम्न घटना उल्लेखनीय है - For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स >230 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोभायात्रा निकालने का सुझाव दिया। संघ के वरिष्ठ श्रावकों ने उनसे कहा - यह अच्छा नहीं रहेगा, कहीं उसने कुछ गलत कह दिया, या गलत कर दिया तो रंग में भंग पड़ जाएगा। उन्होंने सबको निश्चित रहने को कहा। जैसे ही वह घर आया, शोभायात्रा रुकवाई गई और श्री चन्द्रप्रभ सहयोगी संतों के साथ उसके घर गए। विरोधी श्रावक यह देखकर हक्का-बक्का रह गया। उनकी मुस्कान और नमस्कार मुद्रा देखकर उसकी विरोधी भावनाएँ गायब हो गईं और वह भी हाथ जोड़े खड़ा हो गया। श्री चन्द्रप्रभ ने कहा- हमारे जीवन का सौभाग्य है कि इस शहर में हमें एक श्रेष्ठ और गरिमापूर्ण श्रावक के घर से प्रथम आहार लेने का अवसर मिल रहा है। यह शब्द सुनते ही वह उनके चरणों में गिर पड़ा, उसे अपनी गलती का अहसास हुआ और वह क्षमायाचना करने लगा। वही व्यक्ति उस चातुर्मास में उनका निकटवर्ती भक्त बन गया। परम मातृभक्त एवं भ्रातृत्व प्रेम की अनोखी मिसाल श्री चन्द्रप्रभ के माता-पिता की कुल पाँच संतानें हैं। जब मातापिता ने बुढ़ापे में संन्यास के मार्ग पर कदम बढ़ाने का दृढ़ निश्चय कर लिया तो पाँच संतानों में से सबसे छोटी दो संतानों में श्री चन्द्रप्रभ एवं श्री ललितप्रभ ने भी माता-पिता की सेवा के लिए संन्यास धारण कर लिया। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "हमने न तो वैराग्य की भावना से न मोक्ष पाने की तमन्ना से संन्यास लिया। हमने संन्यास माता-पिता की सेवा करने के लिए लिया है। हमारे लिए समाज बाद में है, पहले मातापिता की सेवा है।" पिता संत श्री महिमाप्रभ सागर जी महाराज का देवलोकगमन मई 2005 में हो गया। साध्वी माँ श्री जितयशा जी अभी संबोधि धाम, जोधपुर में विराजमान हैं और उनकी सेवा में दोनों भ्राता संत अहर्निश समर्पित हैं। दोनों को संन्यास लिए लगभग 35 साल हो चुके हैं और ये दोनों संत पूरे देश में भ्रातृत्व प्रेम की मिसाल बने हुए हैं। ये दोनों कलयुग के राम-लक्ष्मण हैं। ये हर समय सदा साथ रहते हैं और हर कार्य मिलजुलकर करते हैं। वे शरीर से भले ही दो हैं, पर आत्मा दोनों की एक है। , श्री चन्द्रप्रभ का मातृ-प्रेम चमत्कारिक है। जब वे माँ पर बोलते हैं तो सुनने वालों की आँखों से गंगा-जमुना बहने लगती है। उनका 'माँ की ममता हमें पुकारें प्रवचन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुआ है। वे माँ को महात्मा व परमात्मा से भी महान बताते हैं। उन्होंने संतों की साधना व योगियों के योग को भी माँ की साधना के आगे फीका बताया है। उन्होंने माँ को ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति माना है। वे कहते हैं - हर व्यक्ति सोचे, अगर माँ न होती तो....! उन्होंने माँ पर विस्तृत व्याख्याएँ लिखी हैं। माँ की सेवा करने की सीख उन्होंने इस प्रकार दी है, "जिस प्रतिमा को हमने बनाया, हम उसकी तो पूजा करते हैं, पर जिस माँ ने हमें बनाया हम उसकी पूजा क्यों नहीं करते?" संत होकर भी माँ पर इतनी गहराई से बोलना आश्चर्यकारी है। वे माँ-बाप को निभाने, उनकी सेवा करने को जीवन में संन्यास लेने से भी ज्यादा कठिन मानते हैं । उनके मातृत्व-प्रेम से जुड़ी घटनाएँ इस प्रकार हैं छाती परकाले निशान क्यों जब मैंने श्री चन्द्रप्रभ की छाती पर जले हुए के हल्के निशान देखे तो उनसे इसका कारण पूछा। उन्होंने बताया कि ये निशान नहीं माँ की ममता के अमिट चिह्न हैं। बचपन से जुड़ी हुई घटना का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा - माँ के ननिहाल में 24 संबोधि टाइम्स - किसी की बरसी का कार्यक्रम था। एक बड़ी कढ़ाई में खीर उबल रही थी। मैं पास में ही लेटा हुआ था। अचानक कढ़ाई के नीचे रखी एक भाग की ईंट खिसक गई। उबलती हुई खीर मुझ पर उछल पड़ी। जिससे शरीर के आगे वाले पूरे भाग पर फफोले हो गए। मुझे डॉक्टर के पास ले जाया गया। इलाज हुआ। डॉक्टर ने माँ से साफ-साफ कह दिया जब तक फफोले के घाव न भरें तब तक बच्चे को सीधा रखना होगा। अगर एक भी फफोला फूट गया तो उस स्थान पर जिंदगी भर के लिए निशान बन जाएगा। माँ ने अपना सुख-दुःख भूलकर मुझे लगभग डेढ़ साल तक सीधा पकड़कर रखा। फिर भी कुछ फफोले फूट गए और ये निशान उसी कारण बने हुए हैं। माँ ने इसके लिए मुझसे माँफी माँगते हुए कहा बेटा, मैंने कोशिश तो बहुत की, पर फिर भी मैं तुझे पूरा बेदाग रखने में सफल न हो सकी। उन्होंने बताया जब मैंने माँ के मुख से ये शब्द सुने तो मेरी आँखें झर-झर बहने लगीं। मैंने माँ से कहा धन्य है आपकी इस ममता को। उस दिन के बाद मुझे माँ की मूरत में ही महावीर और महादेव के दर्शन होने लगे । - माँ की भावना को माना आदेश सन् 1981 की बात है। माँ साध्वी श्री जितयशा जी महाराज के पालीताणा में वर्षीतप चल रहा था। उन्होंने श्री चन्द्रप्रभ एवं श्री ललितप्रभ को पत्र लिखा कि मेरी बार-बार इच्छा हो रही है कि मैं अपने वर्षीतप का पारणा आप दोनों पुत्र-संतों के हाथों से करूँ, पर मुझे मालूम है कि आप अभी आगरा में हैं और कोलकाता चातुर्मास करने की हाँ भर चुके हैं, अगर संभव हो तो आखातीज पर पालीताणा आ जाओ। उन्होंने पत्र पढ़ा और चिंतन किया कि अब क्या किया जाए। एक तरफ समाज में चातुर्मास खोला हुआ और दूसरी तरफ माँ की भावना । उन्होंने कोलकाता समाज को कहलवाया कि इस साल में हमारा आना संभव नहीं है। वे आगरा से 1500 किलोमीटर की दूरी तय कर प्रतिदिन पचास-पचास किलोमीटर पैदल चलकर ठेठ आखातीज के दिन 11 बजे पालीताणा पहुँचे और माताजी महाराज को अपने हाथों से पारणा करवाया। वास्तव में, उनका मातृत्व - प्रेम सबके लिए आदर्श है। पारिवारिक प्रेम एवं सामाजिक समरसता के अग्रदूत श्री चन्द्रप्रभ पारिवारिक प्रेम एवं सामाजिक समरसता के सूत्रधार हैं। उन्होंने घर-परिवार को स्वर्गनुमा बनाने की सीख दी है। घर के प्रत्येक सदस्य को उसका दायित्व बोध करवाया है एवं हर रिश्ते को मधुरतापूर्ण बनाने के सरल सूत्र दिए हैं। उनके मार्गदर्शन से प्रभावित होकर हजारों युवक-युवतियाँ माता-पिता, सास-ससुर एवं बड़ेबुजुर्गों की सेवा करने लगे हैं। सास-बहू, भाई-भाई, देवरानीजेठानियाँ हिल-मिलजुलकर रहने लगी हैं। माता-पिता बच्चों के संस्कारों के प्रति सजग हुए हैं। उनके द्वारा पारिवारिक प्रेम पर निर्मित यह भजन घर-परिवार के लिए गीता का काम करता है आओ कुछ ऐसे काम करें, जो घर को स्वर्ग बनाए । हमसे जो टूट गए रिश्ते, हम उनमें साँध लगाएँ । हम अपना फर्ज निभाएँ ।। जिस घर को हमने घर माना, उसको हम मंदिर मानें। और मात-पिता को इस मंदिर की पावन प्रतिमा जानें। जितना उन्होंने हमें निभाया, उतना उन्हें निभाएँ । । , For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहाँ सास-बहू और देवर-भाभी, प्रेम से हिल-मिल रहते। जीवन से जोड़ने की प्रेरणा दी और दुर्व्यसनों से मुक्त होने का मार्ग जहाँ संस्कारों की दौलत है, और मर्यादा को जीते। दिया। श्री चन्द्रप्रभ के अमृत प्रवचनों से, सत्संग एवं सान्निध्य से अब वहाँ 'चन्द्र' स्वयं लक्ष्मीजी आकर, अपना धाम बनाए।। तक हजारों लोगों के स्वभाव बदले हैं। हिंसक लोगों ने अहिंसा का मार्ग श्री चन्द्रप्रभ ने घर के कमरों को कब्रिस्तान न बनाने की सीख देते स्वीकार किया है। मांसाहारी शाकाहारी बने हैं। काफी तादाद में लोगों हए कहा है, "जिस घर में भाई-भाई सास-बह. देवरानी-जेठानी के ने बुरी आदतों का त्याग किया है। समाजों के बीच की दृरियाँ कम हई प्रति प्रेम और समरसता होती है वह घर मंदिर की तरह होता है. पर हैं। लोग एक-दूसरे के धर्मों के निकट आए हैं। उनकी उदार सोच के जहाँ भाई-भाई, पिता-पत्र आपस में नहीं बोलते. वह घर कब्रिस्तान चलते ही छत्तीस कौम की जनता उनके प्रवचनों में प्रेम से आती है। की तरह होता है। कब्रिस्तान की कब्रों में भी लोग रहते हैं.पर वे आपस उनके उदारवादी विचारों से प्रभावित होने के कारण ही उनकी में बोलते नहीं, अगर घर की भी यही हालत है तो कब्रों और कमरों में सत्संगकथाओं में हिन्दू लोग जैनों का पर्युषण पर्व मनाते हैं और जैनी फर्क ही कहाँ रह जाता है।" वे सुबह से लेकर रात तक की घर की लोग हिन्दुओं का जन्माष्टमी महोत्सव। यह उनके दिव्य वचनों का ही दिनचर्या बताते हुए कहते हैं, "सुबह उठने पर माता-पिता के चरण चमत्कार है कि अब तक उनकी प्रेरणा से लाखों जैनी गायत्री मंत्र सीख स्पर्श कीजिए और भाई-भाई गले मिलिए, यह ईद का त्यौहार बन चुके हैं तो लाखों हिन्दू नवकार महामंत्र को। इस तरह उनके मार्गदर्शन जाएगा। दोपहर में देवरानी-जेठानी साथ-साथ खाना खाइए, यह होली से परिवार व समाज को नई दिशा मिली है। परिवार-निर्माण एवं का पर्व बन जाएगा। रात को बडे-बजर्गों की सेवा करके सोइए. समाज-निर्माण के संदर्भ में उनकी कुछ घटनाएँ इस प्रकार हैं - आपके लिए आशीर्वादों की दीवाली हो जाएगी।" श्रवणकुमार की माँ कैसे बनें - एक बहिन ने श्री चन्द्रप्रभ से श्री चन्द्रप्रभ ने संतानों से कहा है, "जब हमने जीवन की पहली कहा - मैं श्रवणकुमार जैसी संतान की माँ बनना चाहती हूँ क्या यह साँस ली थी, तब माता-पिता हमारे क़रीब थे, जब वे जीवन की आज के युग में संभव है? उन्होंने कहा - आपकी यह इच्छा अवश्य आख़िरी साँस लें, तब हम उनके क़रीब अवश्य हों। परिवार में अगर पूरी हो सकती है, पर... । बहिन ने पूछा - पर, क्या? उन्होंने कहा - धन का बँटवारा हो तो आप जमीन-जायदाद की बजाय. माता-पिता इसके लिए आपको एक कठिन काम करना होगा। बहिन ने उनसे कहा की सेवा को अपने हिस्से में लीजिएगा। धन तो उनके आशीर्वादों से - मुझे इसके लिए एक तो क्या दस काम भी करने पड़ें तो मैं तैयार हैं। स्वत: चला आएगा।" वे बड़े-बुजुर्गों की उपयोगिता बताते हुए कहते उन्होंने कहा - तब फिर आप अपने पति को श्रवणकुमार बना दो। हैं, "बुजुर्गों के साये में रहिए। वे उस बूढ़े वृक्ष की तरह होते हैं जो फल । अगर आपका पति श्रवणकुमार बन गया तो आपको श्रवणकुमार की माँ भले ही न दे पायें, पर छाया तो अवश्य देते हैं।"भाई-भाई के रिश्ते की बनने से कोई नहीं रोक पाएगा। बहिन को समझ में आ गया कि जैसे व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा है, "वह भाई कैसा, जो भाई के काम न हम होंगे वैसी ही हमारी संतानें होंगी। आए। राम का पिता के काम आना, सीता का राम के काम आना, ऐसे मना असली रक्षा-बंधन - इंदौर की घटना है। एक व्यक्ति लक्ष्मण का भाई-भाभी के काम आना और भरत का बड़े भाई के लिए ने छह बेटों में से सबसे छोटे बेटे को घर से अलग कर दिया। उनका मिट जाना - यह है धर्म,परिवार का धर्म, गृहस्थ का धर्म।" आना-जाना बंद था। श्री चन्द्रप्रभ के प्रवचन दशहरा मैदान में चल रहे श्री चन्द्रप्रभ ने माता-पिता को बच्चों के प्रति विशेष रूप से थे। पूरा परिवार प्रवचन सुनने आता था। रक्षाबंधन-महोत्सव पर सावधान किया है। वे बच्चों को संस्कारित एवं श्रेष्ठ नागरिक बनाने का प्रवचन सुनकर छोटे भाई का मन पसीज गया। उसने अपनी भाभी को मार्गदर्शन देते हुए कहते हैं, "बच्चों पर समय का भी निवेश कीजिए। फोन किया और कहा - मेरा बार-बार मन हो रहा है कि मैं आपके हाथ आप उन्हें 20 साल तक संस्कार दीजिए, वे आपको 80 साल तक सुख से राखी बँधवाऊँ। भाभी पशोपेश में पड़ गई। वह सीधी श्री चन्द्रप्रभ के देंगे। यदि हम बच्चों के मोह में अंधे होकर धृतराष्ट्र बन बैठे, तो पास पहुँची और कहा - हमारा पूरा परिवार साथ में है, पर देवर अलग सावधान! हमें भी दुर्योधन और दुःशासन जैसी कुलघाती संतानों का रहता है, मैं चाहती हूँ कि वे भी हमारे साथ रहें, पर ससुर जी से उनकी सामना करना पड़ सकता है।" पिता-पुत्र को दायित्व-बोध देते हुए बनती नहीं है। अब मैं ससुरजी को नाराज़ कैसे करूँ। उन्होंने कहा - उन्होंने कहा है, "यदि आप एक पिता हैं तो अपनी संतान को इतना क्या ससुर जी भी प्रवचन सुनने आते हैं। 'हाँ' - बहन ने कहा। उन्होंने योग्य बनाएँ कि वह समाज की प्रथम पंक्ति में बैठने के काबिल बने कहा- आप तो उन्हें राखी के बहाने घर लेकर आ जाओ। आपके ससुर जी को मैं सम्हाल लूँगा। जब पिता ने राखी वाली बात सुनी और बेटे को और यदि आप किसी के पुत्र हैं तो इतना अच्छा जीवन जिएँ कि लोग आपके माता-पिता से पूछने लगें कि आपने कौन से पुण्य किये थे जो घर पर देखा तो उनका हृदय पिघल आया। उन्होंने बेटे से सॉरी कहा और बेटे ने भी पिता के पैरों में झुककर क्षमायाचना की, और इस तरह आपके घर ऐसी संतान हुई।" बच्चों के खानपान के प्रति जागरूकता राखी के बहाने टूटा हुआ परिवार एक हो गया। बरतने की सलाह देते हुए वे कहते हैं, "बच्चों को मिठाइयाँ, चॉकलेट, चिप्स, शीतलपेय आदि विशेष अवसरों पर दें। इनका रोज़ाना सेवन सत्संग का सीधा प्रभाव - इंदौर की घटना है। श्री चन्द्रप्रभ का करने से बच्चों की भूख मर जाएगी और दाँत भी खराब होंगे। बच्चों को सत्संग अभय प्रसाल स्टेडियम में था। वे वहाँ से कस्तूर गार्डन में फल, जूस, सलाद की ओर खींचें। उन्हें बताएँ कि फल खाने से तुम आयोजित भक्ति संध्या के लिए रवाना हो गए। वे जैसे ही चौराहे पर 'शक्तिमान' बनोगे और दूध पीने से हनुमान'।" पहुँचे कि वहाँ एक पति-पत्नी स्कूटर से नीचे उतरे और सड़क पर उनको पंचांग प्रणाम किया। बहिन की आँखों से झर-झर आँसू बह रहे श्री चन्द्रप्रभ ने समाज-निर्माण का अनुपम कार्य किया है। उन्होंने थे। उन्होंने पूछा - बहिन, क्या बात है? रो क्यों रही हो? बहिन ने कहा मानवजाति को नैतिकता के पाठ सिखाए, अहिंसा-प्रेम जैसे व्रतों को For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स-25 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ये ग़म के नहीं खुशी के आँसू हैं, क्योंकि आज मेरे पति 15 सालों में उनसे पूछा - क्या आप धर्म-आराधना, प्रभु-भक्ति करते हैं? उन्होंने पहली बार मुझे मेरे पीहर ले जा रहे हैं। इन्होंने आपका प्रवचन अभय कहा - महाराज जी, क्या बताऊँ, समय ही नहीं मिलता। सुबह 9 बजे प्रसाल स्टेडियम में 'घर को कैसे स्वर्ग बनाएँ ?' सुना तो इनकी आत्मा । दुकान जाता हूँ, वापस आते-आते रात्रि के 9 बज जाते हैं। अब आप ही हिल गई। मेरे पापाजी और इनकी किसी कारणवश बहस हो गई थी बताएँ कि धर्म-आराधना कैसे करूँ? श्री चन्द्रप्रभ ने उनसे पूछा - अगर और इन्होंने ससुराल जाना छोड़ दिया, साथ ही मुझे भी नहीं जाने का आप अपने बेटों के लिए 2-4 लाख रुपये ज़्यादा कमाकर चले जाएँगे आदेश दे दिया। मैं आपकी जीवन भर ऋणी रहूँगी कि आपने मेरे टूटे तो भी क्या वे आपके अहसानमंद रहेंगे? क्या आपके जाने के बाद घर को जोड़ दिया, उसे स्वर्ग बना दिया, सोचा आपको इसके बदले आपके नाम पर धर्म-पुण्य-दान करेंगे? बचपन में ज्ञानार्जन किया, क्या दूँ तो आँखों में अपने-आप श्रद्धा के आँसू बह निकले। ज़वानी में धनार्जन किया, पर अब यदि बुढ़ापे में पुण्यार्जन नहीं करेंगे प्रवचनों का हुआ असर - अजमेर की एक बहिन ने बताया तो फिर किस उम्र में करेंगे? यूँ ही संसार में उलझे रहेंगे तो क्या प्रभु के कि उसके पति इतने गुस्सैल थे कि उसे दिन में दस-बीस बार उनके ___ दरबार में मुंह दिखाने के क़ाबिल रहेंगे? दादाजी ने कहा - धंधा छोड़ गुस्से का सामना करना पड़ता और हर बार आँसू आने के बाद ही दिया तो समय कैसे बिताएँगे? उन्होंने कहा- आप संपन्न हैं, कुछ धन उनका गुस्सा ठण्डा पड़ पाता। इसके चलते मेरा जीवन नरक बन गया। निकालिए, छोटा-सा हॉस्पिटल बनाइए और दुःखी-रोगी मानवता की था। एक बार मेरा श्री चन्द्रप्रभ की बर्फखाना मैदान में चल रही सेवा में दिन के पाँच-छह घंटे समर्पित कीजिए। आपको खुशी की प्रवचनमाला में जाना हुआ। मुझे इतना अच्छा लगा कि मैं जैसे-तैसे अनुभूति होगी कि मैंने केवल अपने या परिवार वालों के लिए ही नहीं करके अपने पति को भी एक दिन साथ लेकर आई। प्रवचनों से वे वरन् मानवजाति के लिए भी कुछ किया। जब वे बुज़ुर्ग दादाजी वापस प्रभावित हुए और हमेशा आने लगे। प्रवचनों को सुनते-सुनते पति में रवाना होने लगे तो उनके चरणों में पंचांग प्रणाम करते हुए कहाइतना बदलाव आ गया कि यह कहते-कहते बहिन की आँखों में आँसू हत-कहत बाहन का आखा म आसू आज आपने मेरी आत्मा को हिला दिया है, मैं मद्रास पहुँचते ही आ गए। उन्होंने कहा - मैं जीवनभर आपकी आभारी रहूँगी क्योंकि मानवता की सेवा में ज़रूर कुछ-न-कुछ नेक काम करूँगा। आपने मेरे पूरे परिवार को स्वर्ग बना दिया है। ऐसा हाथ थामा कि जीवन सुधर गया - श्री चन्द्रप्रभ के एक परिवार प्रेमपूर्ण बन गया - बोम्बे की घटना है। महेन्द्र भाई को बार अंगूठे में काँच का कट लग गया, जिसके कारण अंगूठे को ऊपरएक कार्ड मिला। जिसमे लिखा था- सादर निमत्रण। पूज्य श्री चन्द्रप्रभ नीचे करने वाले लिगामेन्ट्स भी कट गए। ऑपरेशन के लिए उनका जी का दिव्य सत्संग। वे वहाँ पहुँचे तो देखा सैकड़ों लोग आए हुए हैं। जयपुर जाना हुआ।सौभाग्य से मैं भी साथ में था। ऑपरेशन में बाईपास बड़ी स्क्रीन पर श्री चन्द्रप्रभ का 'माँ की ममता हमें पुकारे' विषय पर सर्जरी करके हाथ की नाड़ी को अँगूठे में फिट किया गया। ऑपरेशन प्रवचन चल रहा है। उन्होंने आयोजनकर्ता से पूछा - दस रुपये की के बाद उनको शय्या से उठने, नीचे उतरने व पुनः बैठने के लिए सीडी दिखाने के लिए इतना बड़ा आयोजन । आयोजनकर्ता ने कहा सहयोग की अपेक्षा रहती थी। इसी दौरान एक बार उन्होंने हॉस्पिटल में मैंने व मेरे परिवारवालों ने जब से इस प्रवचन को सुना है तब से हमारा कुशल-क्षेम पूछने आए एक युवक के हाथों में अपना हाथ शय्या से घर प्रेमपूर्ण बन गया है। मैंने यह सब इसलिए किया ताकि और घरों में नीचे उतरने के लिए थमा दिया। सेवा हो गई। युवक चला गया। युवक भी प्रेमपूर्ण वातावरण बन सके। यह है प्रवचन का प्रभाव। के लिए अपने हाथ में गुरुजी का हाथ आना आनंदकारी अनुभव था। ड्राइवर का बदला हृदय- अजमेर के एक महानुभाव ने बताया उसने इस बात को अपनी माँ से कहा। माँ ने कहा- त बडा क़िस्मत कि वे अपने परिवार के साथ बिजयनगर से भीलवाड़ा जा रहे थे। गाड़ी वाला है. जो गरुने तेरा हाथ थामा। ऐसा करके उन्होंने हमारे जीवन को में मैंने श्री चन्द्रप्रभ की माँ की ममता वाले प्रवचन की सीडी लगाई। अपने हाथों में शाम कर हमारा निस्तार कर दिया। ऐसा सनकर यवक हम लगभग एक घंटा चले होंगे कि अचानक ड्राइवर ने गाड़ी रोकी और और आनन्द से भर गया। वह युवक सिगरेट पीता था। न जाने उसे क्या गाड़ी के पीछे जाकर जोर-जोर से रोने लगा। मैंने उससे पूछा - ये हुआ, वह घर से सीधा हॉस्पिटल पहुँचकर उनके पास आया और अचानक तुझे क्या हो गया? उसने कहा- प्रवचन सुनते-सुनते मेरी कहने लगा - मुझे आप आज से हमेशा के लिए सिगरेट पीने का त्याग अंतरात्मा हिल गई । मैंने अब तक अपनी माँ को दुख के अलावा कुछ करवा दीजिए। उनको भी आश्चर्य हुआ कि उन्होंने पहला ऐसा युवक नहीं दिया। मुझे अपनी करणी पर पश्चाताप हो रहा है। उस मुस्लिम देखा जो खुद चलाकर सिगरेट का त्याग करने आया हो। उन्होंने युवक ड्राइवर ने मुझसे कहा- मैं पहले अपनी माँ से मिलना चाहता हूँ। मैंने से पूछा - आखिर आपको यह प्रेरणा किसने दी? युवक ने कहा - कहा- ठीक है। बिजयनगर के पास ही एक गाँव में उसकी माँ अकेली अंतआत्मा ने। उन्होंने पूछा - मतलब? युवक ने बताया- उसने जैसे ही रहती थी। हम जैसे ही उसके गाँव पहुँचे, ड्राइवर ने माँ को प्रणाम सिगरेट हाथों में ली कि उसे माँ के शब्द प्रत्यक्ष दिखाई देने लगे। उसकी किया, रोते हुए अपने अपराधों के लिए माफी माँगी। माँ को दो हजार चेतना ने उसे झकझोरा कि जिन हाथों को गुरु ने थामा, उनका उपयोग रुपये पकड़ाए और कहा - अब चाहे जो भी हो, तुझे बिजयनगर में मेरे तू सिगरेट पीने के लिए कर रहा है तुझे धिक्कार है। बस, मैं अब ज्यादा पास ही रहना होगा। माँ से हाँ भराकर उसने कहा- मैं मालिक को गिरना नहीं चाहता हूँ। भीलवाड़ा छोड़ कर वापस आ रहा हूँ, तब तक तू सामान बाँधकर तैयार कर ले। उन महानुभाव ने बताया कि प्रवचन की वीसीडी का प्रत्यक्ष राष्ट्रीय चेतना के उन्नायक प्रभाव व चमत्कार देखकर हम गद्गद् हो उठे। श्री चन्द्रप्रभ की कृतियों से उनका राष्ट्र प्रेम भी स्पष्ट झलकता है। ऐसे हिली आत्मा - मद्रास का एक परिवार जोधपुर, संबोधि वे राष्ट्रीय चेतना के उन्नायक हैं। उन्होंने भारतीय संस्कृति का गुणगान धाम देखने आया। उसमें 77 वर्ष के एक दादाजी भी थे। श्री चन्द्रप्रभ ने किया है। वे देश की वर्तमान समस्याओं पर चिंतित भी नजर आते हैं। 26 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने राष्ट्र के सकारात्मक-नकारात्मक दोनों बिंदुओं पर विश्लेषण मिलता। वर्क को वर्शिप मानकर करने की सीख देते हए वे कहते हैं, किया है एवं नकारात्मक पहलुओं से बाहर निकलने का समाधान भी "दुनिया की कोई भी गाय दूध नहीं देती वरन् बूंद-दर-बूंद निकालना दिया है। उन्होंने शिक्षा एवं प्रौद्योगिकी को विशेष महत्त्व देने की प्रेरणा पड़ता है। वैसे ही किस्मत उन्हें ही फल देती है जो वर्क को वर्शिप दी है। वे रटाऊ शिक्षा की बजाय सृजनात्मक एवं समझाऊ शिक्षा की मानते हैं। दान की रोटी और दया का दूध पीने की बजाय पुरुषार्थ का पहल करते हैं। वे भारत में प्रतिदिन नैतिक मूल्यों के होने वाले ह्रास को पानी पीना गरिमापूर्ण है। बस निठ्ठले होकर मत बैठो, फिर चाहे कहीं देखकर चिंतित हैं। उन्होंने नैतिक मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा करने का ज्यूस की दुकान ही क्यों न खोल दो।" । सिंहनाद किया है। दिनोदिन बढ़ता भ्रष्टाचार, अपराध, मिलावट आदि श्री चन्द्रप्रभ ने सामाजिक-उत्थान के नाम पर औरों से धन माँगको रोकने के लिए उन्होंने युवा पीढ़ी एवं नैतिक लोगों को आगे आने माँगकर इकटठा करने वालों को समाज व देश का अपराधी बताया है। की प्रेरणा दी है। श्री चन्द्रप्रभ ने युवाओं को सफलता पाने के जोशीले उन्होंने अनाथ और विकलांगों की सहायता करने के साथ उनके पाठ पढ़ाए हैं। वे प्रगति में विश्वास रखते हैं और हर किसी को आगे स्वाभिमान को जगाकर पाँवों पर खड़ा करने की प्रेरणा भी दी है। बढने की प्रेरणा देते हैं। वे कहते हैं, "जो पैदा नहीं कर सकता, वह धर्मकोयगके अनरूप बनाने के प्रेरक बाँझ कहलाता है और जो कुछ काम नहीं करता, वह निकम्मा कहलाता श्री चन्द्रप्रभ धर्मगुरु हैं। उन्होंने जैन धर्म में संन्यास ले रखा है किंतु है। क्या आप अपने मुँह पर इस लेबल की कालिख पोतना चाहेंगे?" वे सभी धर्मों के प्रति प्रेम और सद्भाव रखते हैं। लगभग 32 वर्षों से वे श्री चन्द्रप्रभ ने राष्ट्र से जुड़े हर पहलू का राष्ट्र-निर्माणपरक संन्यास जीवन जी रहे हैं। वे समाज की सच्चाइयों,रूढ़िवादिताओं और साहित्य में विश्लेषण किया है। उन्होंने वर्तमान राष्ट्र से जुड़ी हर कार्यशैली से पूरी तरह परिचित हैं। उन्होंने जैन धर्म की वैज्ञानिकता समस्या का कारण, परिणाम एवं निवारण पर भी मार्गदर्शन दिया है। और मानवतावादिता का अभिनंदन किया है। वे कहते हैं, "जैन धर्म ने उन्होंने आरक्षण को देश के दुर्भाग्य का कारण बताया है। वे युवाओं को धर्म, दर्शन और सिद्धांत की दृष्टि से समग्र इंसानियत को अपने दायरे में कड़ी मेहनत द्वारा स्वर्णिम भारत का निर्माण करने की शिक्षा देते हैं। श्री लेने का प्रयास किया है। व्यवहार में अहिंसा, विचारों में अनेकांत चन्द्रप्रभ प्रतिवर्ष 15 अगस्त को हजारों लोगों के बीच स्वतंत्रता दिवस और जीवन में अपरिग्रह इस धर्म की बुनियादी प्रेरणा है, पर इस धर्म में समारोह मनाते हैं। तिरंगा फहराकर राष्ट्रगान का सस्वर सामूहिक कुछ रूढ़ मान्यताएँ इस तरह घर कर चुकी हैं, जिन्हें बदलने के लिए संगान करते हैं और 'कैसे बढ़ाएँ देश का गौरव' विषय पर दिव्य अब तक या तो सकारात्मक विचार नहीं किया गया या फिर परम्परा सत्संग-प्रवचन कर राष्ट्र के प्रति अपनी आस्था व्यक्त करते हैं ।जब भी चुस्तता के चलते उसे परिणाम तक पहुँचने नहीं दिया गया।" राष्ट्र ने भूकंप, बाढ़ और सुनामी जैसी आपदाओं को झेला तो उन्होंने श्री चन्द्रप्रभ जैन संत होने के नाते पैदल चलते हैं। वे अब तक राष्ट्रभक्ति का परिचय देते हुए न केवल लोगों को सहयोग के लिए प्रेरित किया और सहयोग भिजवाया, वरन वे स्वयं भी ऐसे सेवा कार्यों देशभर में तीस हजार किलोमीटर से अधिक पदयात्रा कर चुके हैं। उन्होंने जीवन-यात्रा पुस्तक में पदयात्रा का समर्थन करते हुए उसे के लिए कटिबद्ध रहे। विश्व-दर्शन की मानवीय तकनीक कहा है। वे पदयात्रा को उचित निष्काम कर्मयोगजिनकी साधना मानते थे, पर अब वे जैन संतों के लिए पदयात्रा के साथ वाहन यात्रा को श्री चन्द्रप्रभ साधना के साथ-साथ निष्काम कर्मयोग में विश्वास जोडे जाने के पक्षधर हैं। उन्होंने धर्म-परम्परा के संदर्भ में लकीर के रखते हैं। वे कहते है, "गीता से मैंने कर्मयोग करने की प्रेरणा पाई है। फकीर बनने को अनुचित माना है। उनकी दृष्टि में, "समाज, संस्था संत होने का अर्थ यह नहीं हुआ कि समाज की मुफ्त की रोटी खाई और संत पुराने रास्तों पर ही चलना पसंद करते हैं। पुराने रास्तों पर जाए। हमें किसी की दो रोटी तभी खानी चाहिए जब हम उससे चार चलना सरक्षित तो है, पर जब तक हम नए रास्तों का निर्माण करने का गुना वापस लौटाने का सामर्थ्य रखते हों, अन्यथा हम पर दूसरों की रोटी हौंसला बुलंद नहीं करेंगे, तो आखिर पुराने हो चुके इंजनों से हम गाड़ी का ऋण चढ़ता जाएगा।" श्री चन्द्रप्रभ पूरी तरह से सक्रिय जीवन जीते को कब तक खींचते रहेंगे। हम सब लकीर के फकीर हैं। हम केवल हैं। उनकी दृष्टि में व्यक्ति का कर्म उसकी पूजा का ही हिस्सा होना दूसरों के परिवर्तनों का अनुसरण न करते रहें वरन् खुद अपने रास्ते चाहिए। अगर कर्ता-भाव से मुक्त होकर कर्म किया जाए तो वह हर बनाएँ। जीवन में सफलता की यही आधारशिला है।" उन्होंने जैन और कर्म हमारे लिए स्वर्ग और मुक्ति की सीढ़ी बना करता है। हिन्दू संतों को ब्रह्माकुमारी एवं आर्ट ऑफ लिविंग जैसे संगठनों से श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "पहले 'क' आता है, फिर 'ख'। पहले प्रेरणा लेने की सीख दी है और मानवतावादी धर्म को पूरे विश्व में कीजिए, फिर खाइए।कर्मयोग से जीमत चुराइये।" श्री चन्द्रप्रभ मुफ्त स्थापित करने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, "केवल हिन्दू संतों की की रोटी खाना अपराध मानते हैं। वे कहते हैं, "व्यक्ति को 12 घंटे तरह भागवत्कथाएँ बाँच लेने भर से और जैन संतों की तरह उपाश्रयों अवश्य मेहनत करनी चाहिए फिर चाहे वह दिन के हों या रात के।" और स्थानकों में व्याख्यान कर लेने भर से धर्म को स्थापित नहीं किया उन्होंने भगवान की पूजा करने के साथ ऐसे कर्म करने की प्रेरणा दी है जा सकता। आज स्थिति यह बन गई है कि जैन संत दूसरों को क्या कि वे कर्म स्वयं प्रभु-पूजा बन जाए। उन्होंने भारत को स्वर्ग बनाने के जैनत्व प्रदान करेंगे, उनके लिए जैनों को भी जैन बनाए रखना लिए 'चरैवेति-चरैवेति' के सूत्र को अपनाने का उद्घोष किया है। चुनौतीपूर्ण हो गया है।" उन्होंने सबह नौ-दस बजे तक खर्राटे भरने वाले भारतीयों पर व्यंग्य यद्यपि श्री चन्द्रप्रभ पदयात्रा से होने वाले लाभों को स्वीकार करते करते हुए कहा है, "अगर भारत में विद्यालयों के खुलने का समय हैं. पर पदयात्रा में नष्ट होने वाली शक्ति, समय और ऊर्जा को बहुत सुबह-सुबह न होता तो आधा भारत दस बजे तक बिस्तरों में ही संबोधि टाइम्स-27 For Personal & Private Use Only हि Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा नुकसान मानते हैं। वे कहते हैं, " आज किसी संत को जयपुर से मद्रास की पदयात्रा करने में दो साल लग जाते हैं, जबकि यही कार्य दो घंटे में पूरी होने की सहज व्यवस्था उपलब्ध है। दो साल की पदयात्रा त्याग के लिहाज से अच्छी है, पर समय और शक्ति खर्च की दृष्टि से बहुत महँगी और बोझिल है। जीवन सीमित है। कहीं ऐसा न हो कि हम रास्ता नापने में ही जीवन की ऊर्जा खत्म कर दें। वाहन यात्रा में अहिंसा की दृष्टि से कुछ दोष भी हो, पर ऐसा कौनसा बड़ा दोष है जिसके चलते मुनिजनों के लिए इसका सर्वथा ही निषेध कर दिया गया। यदि जैन समाज के संत वाहनयात्रा स्वीकार कर लेते तो, आज जैन धर्म की व्यापकता कुछ और ही होती। वह केवल राजस्थानियों और गुजरातियों तक ही सिमटकर नहीं रह जाता वरन वह विश्व धर्म होता।" श्री चन्द्रप्रभ ने वर्तमान में पदयात्रा को वाहन यात्रा से महँगा माना है। उदाहरण के माध्यम से समझाते हुए वे कहते हैं, "जोधपुर से पाली जाने में गाड़ी से एक घंटा लगता है और साधु-साध्वियों को पदयात्रा से चार दिन । अब इस दौरान यदि श्रावकों को आहार की व्यवस्था के लिए रास्ते में रोज दो बार भी आना पड़ा, तो उनके निमित्त से कितनी गाड़ियाँ आई-गई। कितना खर्च हुआ? हमारे कारण श्रावकों को कितना समय और श्रम का भोग देना पड़ा? यह सच है कि पहले संतों का श्रावकों के साथ धन का कोई रिश्ता नहीं था, पर अब तो संतों के इशारे मात्र से लाखों-करोड़ों रुपये इकट्ठे हो जाते हैं और खर्च भी हो जाते हैं। मेरी समझ से पदयात्रा वाहन यात्रा से ज्यादा महँगी है। ज्यादा व्यवस्था की अपेक्षा रखती है।" उन्होंने हिंसा और आतंक से घिरे विश्व में अहिंसा को फैलाने की अति आवश्यकता स्वीकार की है। उनका मानना है, 'आज विश्व हिंसा और आतंक के विचित्र दौर से गुजर रहा है। ऐसे में इस अहिंसावादी धर्म का यह दायित्व बनता है कि वह पूरे विश्व में अपने प्रबुद्ध संतों को पहुँचाने का रास्ता खोले।" उन्होंने वाहन यात्रा के दायरे के रूप में व्यक्तिगत वाहन न रखने, शहर में पैदल चलने का समर्थन किया है। " जैन धर्म का मुख्य विधि-विधान है प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण आत्मशुद्धि व कषायमुक्ति का महान अनुष्ठान है, पर यह दो हजार साल पुरानी प्राकृत भाषा में किया जाता है। श्री चन्द्रप्रभ इसे आज की हिन्दी भाषा में करने के समर्थक हैं। उनका मानना है, "जैनों की सम्पूर्ण आबादी में से आज अधिकतम एक लाख लोग रोज प्रतिक्रमण करते होंगे, पर प्रतिक्रमण का अर्थ उनमें से दो प्रतिशत लोगों को मुश्किल आता होगा। प्रतिक्रमण में जब अतिचार, स्तवन, स्तुति सज्झाय बोली जाती है, तब तो कुछ रुचि भी जगती है क्योंकि वे हिन्दी में होते हैं। अन्यथा लोग श्रद्धावश बैठे रहते हैं या उबासियों खाते रहते हैं। भला, जब अतिचार व स्तवन हिन्दी में बोले जा सकते हैं, तो हिन्दी में कुछ और पाठों का समावेश क्यों नहीं किया जा सकता।" वे धर्म को रटाऊ की बजाय समझाऊ होने पर बल देते हैं। उनकी दृष्टि में, "यदि भगवान महावीर आज होते, तो वे आज की भाषा में करते क्योंकि उन्होंने 2500 साल पहले उस युग की भाषा का प्रयोग किया था। मेरी समझ से धर्म समझाऊ होना चाहिए, न कि रटाऊ । धर्म सक्रियता और सचेतनता लिये हुए होना चाहिए, न कि पाठों का रिपिटेशन" विचार रखे हैं। वे जैनों के वार्षिक पर्व संवत्सरी को एक ही दिन मनाने के समर्थक हैं। वे कहते हैं, "यदि जैनी लोग संवत्सरी को ही एक साथ मना पाने में सफल नहीं हो पाते हैं, तो ऐसे बिखरे समाज से मैं पूछूंगा कि तब फिर आप दुनिया के लिए क्या कर पाएँगे। हम लोगों को चाहिए कि हम संवत्सरी से जुड़े मतभेदों को भुलाएँ और उसे एक दिन मनाएँ संवत्सरी कई परम्पराओं में चौथ को मनाई जाती है, कई परम्पराओं में पंचमी को। सबसे विचित्र समस्या तो तब आ खड़ी होती है, जब कुछ परम्पराएँ संवत्सरी एक महीना पहले मनाती हैं और कुछ परम्पराएँ एक महीना बाद इन तिथियों के झगड़ों ने जैन धर्म का बहुत नुकसान पहुँचाया है। जैनियों के आधे पंचांग किसी पर्व को एक दिन पहले बताते हैं, तो किसी पर्व को एक दिन बाद। अब हम कोई देश से अलग तो हैं नहीं। जिस दिन जिस पर्व को पूरा देश मनाए क्यों न हम भी उसी में शामिल होकर पर्व का सामूहिक आनंद उठाएँ। अपनी डफली अलग से बजाने से क्या तुक । केवल तुम्हीं सुनोगे और दूसरे लोगों के उपहास के पात्र बनोगे ।" श्री चन्द्रप्रभ ने जैनों में पंथ-परम्पराओं के प्रति बन रही संकीर्णताओं पर भी व्यंग्य किया है। उन्होंने संतों को भी विराट मानसिकता बनाने का अनुरोध किया है। उनका कहना है, "जैन धर्म के अलग-अलग पंथों के भेद वक्त के भूचाल हैं, किन्हीं दो आचार्यों, दो गुटों के मतभेदों का परिणाम हैं। हम मतभेदों के परिणाम न बनें, हम धर्म के परिणाम हों। ये संत लोग अपने अनुयायियों को जैन कहना क्यों नहीं सिखाते? जैन से पहले श्वेताम्बर, दिगम्बर या तेरापंथी का एक्स्ट्रा लेबल क्यों लगवाना चाहते हैं।" इस संदर्भ में उनकी एक घटना हैजियो और जीने दो - एक दस साल का लड़का श्री चन्द्रप्रभ के पास आया। प्रणाम कर कहा मैं स्थानक में हो रही वेशभूषा प्रतियोगिता में जैन संत बन रहा हूँ। मुझे वहाँ पर दो लाइन का अमृतसंदेश बोलना है। आप बताने की कृपा कीजिए। उन्होंने कहा आप लोगों से कहना अगर आप मंदिरमार्गी जैन हैं तो 'धर्मलाभ', स्थानकवासी जैन हैं तो 'दया पालो' तेरापंथी जैन हैं तो 'जय भिक्खु' और अगर आप केवल जैन हैं तो ' जीयो और जीने दो।' " - इस तरह श्री चन्द्रप्रभ समय की नब्ज को देखते हुए वैचारिक एवं व्यवस्थागत परिवर्तन को अनिवार्य मानते हैं। उन्होंने पदयात्रा की जगह वाहन यात्रा की उपयोगिता सिद्ध कर हर किसी को सोचने के लिए मजबूर किया है। उन्होंने प्रतिक्रमण, संवत्सरी जैसे बिन्दुओं पर जो उदार एवं यथार्थ विचार रखे हैं वे वर्तमान समाज के लिए अत्यंत प्रेरक एवं उपयोगी है। अगर उनके सुझावों को मान लिया जाए तो धर्म की जटिलता कम हो सकती है और नई पीढ़ी के लिए धर्म के कायदेकानून और विधि-विधान सरल और व्यावहारिक हो जाएँगे। - श्री चन्द्रप्रभ धर्म के सरल एवं जीवंत स्वरूप के पक्षधर हैं । वे अर्थहीन क्रियाओं के विरोधी रहे हैं। उन्होंने परम्परागत क्रियाओं को जीवन से जोड़ने की बजाय परिणामदायी क्रियाओं को आत्मसात् करने की प्रेरणा दी है। वे ज्यादा धर्म करने में कम विश्वास रखते हैं, पर थोड़े में भी पूर्णता हो इसे आवश्यक मानते हैं। उनकी नजरों में वही धर्म उत्तम है जो स्व-पर मंगलकारी हो, जो हमें नेक और एक बनाए और जो इबादत से पहले मदद करने की प्रेरणा दे। उन्होंने मानवीय धर्म की श्री चन्द्रप्रभ ने जैनों के महान पर्व संवत्सरी पर भी क्रांतिकारी प्रेरणा देते हुए कहा है. Ja28 > संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुद जिओ सबको जीने दो, यही मंत्र अपनाना है। इसी मंत्र से विश्वशांति का, घर-घर दीप जलाना है।। मंदिर है यदि दूर तो हमसे, एक काम ऐसा कर लें। रोते हुए किसी बच्चे के जीवन में खुशियाँ भर दें। खुद भी महकें फूलों जैसे, औरों को महकाना है।। वो कैसा इंसान कि जो अपने ही खातिर जिया करे । वो ही है इंसान कि जो औरों के आँसू पिया करे। 'चन्द्र' प्रेम की राहों से, संसार को स्वर्ग बनाना है ।। श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म करने वालों के जीवन में विद्यमान कथनीकरनी के भेद पर व्यंग्य किया है। उन्होंने धर्म को बाहरी रूप-रूपायों में नहीं, भीतर की पवित्रता में माना है। उन्होंने महावीर- जैसे - बुद्ध महापुरुषों की पूजा करने की बजाय उनके जैसा बनने की सीख दी है। वे भीतरी परिवर्तनों के बिना बाहरी परिवर्तनों को गौण समझते हैं। इस तरह उन्होंने धर्म को रूढ़िवाद, परम्परावाद, पंथवाद की संकीर्णता से मुक्त किया है और उसे जीवन सापेक्ष बनाकर उसे युगानुरूप बनाया है। सफल मनोचिकित्सक एवं आरोग्यदाता श्री चन्द्रप्रभ तन, मन और जीवन की चिकित्सा करने में माहिर हैं। उनके साहित्य एवं प्रवचनों से लोगों की मानसिक दुर्बलता दूर हो जाती है। युवाओं की जिंदगी में नए उत्साह का संचार होने लगता है और वृद्धजनों का बुढ़ापा गायब हो जाता है। उन्होंने गुस्सा, चिंता, तनाव, मनो- दुर्बलता को स्वास्थ्य, शांति और सफलता का शत्रु बताया है। उन्होंने इनके कारणों व परिणामों पर भी विस्तृत चर्चाएँ की हैं। वे इन्हें जीतने को जीवन की असली साधना बताते हैं। उन्होंने इन पर विजय पाने के लिए मुस्कान, मौन व क्षमा जैसे मंत्रों को अपनाने की सलाह देने के साथ अनेक व्यावहारिक गुर भी दिए हैं। इस संदर्भ में कुछ घटनाप्रसंग इस प्रकार हैं दो घंटे का एपिसोड दस मिनिट में पूरा एक सज्जन ने श्री चन्द्रप्रभ से कहा मैं और मेरी पत्नी में आए दिन किसी-न-किसी बात को लेकर अनबन हो जाती है। कल की ही बात है। मैं ऑफिस जाने की जल्दी में था, जाते-जाते पत्नी ने दो-चार काम बता दिए। जल्दी में दिमाग से ये बातें फिसल गईं। शाम को घर वापस आया तो पत्नी चिल्लाने लगी कि मैं आपका हर काम पूरा करती हूँ और आप ठहरे भुलक्कड़, जो मेरे दो-चार काम भी नहीं करते। मैंने उससे कहा कागज पर लिखकर नहीं दे सकती थीं क्या? उसने कहा- आप फोन से नहीं पूछ सकते थे क्या? बस इस छोटी-सी बात को लेकर तकरार हो गई। अब आप ही बताएँ कि मैं क्या करूँ? श्री चन्द्रप्रभ ने कहाआप मेरी केवल एक बात गाँठ बाँध लें फिर यह नौबत नहीं आएगी। उन्होंने पूछा कौनसी बात? पूज्यश्री ने कहा अब पत्नी जब भी चिल्लाने लगे तो आप दस मिनिट के लिए गूँगे बन जाएँ। उन्होंने कहा - गूँगा बनने से तो मुसीबत और बढ़ जाएगी। पूज्यश्री ने कहा- अगर अनबन दूर करनी है तो मेरा कहना मानिए, अन्यथा जैसी आपकी मर्जी । उन्हें बात समझ में आ गई। दो दिन बाद उस सज्जन ने कहागुरुजी, आपकी बात ने तो चमत्कार कर दिया। पूज्यश्री ने पूछा - क्या हुआ? उन्होंने कहा- कल मैं फिर कोई सामान लाना भूल गया। घर पहुँचते ही पत्नी चिल्लाने लगी। मैं दस मिनिट के लिए गूँगा बन गया। पत्नी ने थोड़ी देर फाँ-फूँ किया, फिर अपने आप चुप हो गई। एक घंटे बाद उसने मुझसे सॉरी भी कहा। इस तरह दो घंटे का एपिसोड मात्र द मिनिट में पूरा हो गया। शहद जैसे बनो श्री चन्द्रप्रभ के पास एक बहिन आई। उसने कहा मेरे और मेरे पति के बीच बनती नहीं थी सो मैं एक पंडित के पास गई। मैने अपनी समस्या बताई तो उसने एक मंत्र लिखकर दिया और कहा - शहद की शीशी में इस मंत्र को डाल देना और रोज सुबह उठकर इस शीशी को देखना । मात्र 27 दिनों में तेरे व तेरे पति की अनबन सदा के लिए दूर हो जाएगी। बहिन ने गुरुजी से कहा- आज 27 नहीं, पूरे 57 दिन हो गए हैं, फिर भी स्थिति वैसी की वैसी है। अब आप ही बताइए कि मैं करूँ तो क्या करूँ? श्री चन्द्रप्रभ ने कहा यूँ टोटकों से अगर सारी बात बन जाए तो पूरी दुनिया सुधर जाए। आप तो घर जाकर एक काम कीजिए कि शहद की शीशी को देखने के बजाय, शहद को पानी में घोलकर पी लीजिए और संकल्प ले लीजिए कि जैसे शहद मिठास से भरा हुआ है वैसे ही आज से मैं भी अपने जबान से सदा मीठा बोलूँगी। अगर आपने मेरे कहे अनुसार मीठा बोलना शुरू कर दिया, तो पति तो क्या पूरा परिवार मात्र 7 दिनों आपका भक्त बन जाएगा। बहिन ने गुरुजी को धन्यवाद देते हुए कहा- आपकी बात बिल्कुल सही है। अगर मैं जबान को मीठा रखती तो ये अनबन की नौबत ही न आती। मौनपूर्वक भोजन का चमत्कार एक सज्जन ने बताया कि मेरी खाने में कमियाँ निकालने की आदत थी। जब भी मैं भोजन करने बैठता, तो मेरी पत्नी या बेटी से तकरार हो जाती। मैं कुछ कहता तो वे कह देतीं - आप किचन में मनमर्जी जैसा बनाकर खा लो या फिर नमक-मिर्ची-नींबू लाकर पटक देतीं। एक बार मुझे श्री चन्द्रप्रभ से मौनपूर्वक भोजन करने की प्रेरणा मिली। मैंने एक महीने तक मौनपूर्वक भोजन करने की प्रतिज्ञा ले ली। दो-चार दिन तो मुझे अजीब-सा लगा। मेरी थाली में जैसा भी आता मैं उसे मौनपूर्वक खा लेता। परिवार वालों को लगा - ये तो कुछ बोलते नहीं इसलिए इन्हें चखकर ही भोजन परोसना चाहिए। अब भोजन भी एकदम स्वादिष्ट बनकर आने लगा। मेरे इस छोटे से नियम ने मेरे साथ घरवालों को भी बदल दिया । - - For Personal & Private Use Only श्री चन्द्रप्रभ ने मानसिक रोगों के साथ-साथ शारीरिक रोगों की चिकित्सा के लिए भी मार्गदर्शन दिया है। वे असात्विक आहार को बीमारी की मूल वजह बताते हैं। उन्होंने शरीर को भगवान का मंदिर मानने व अतिभोग- अतित्याग की बजाय बीच का मार्ग अपनाने की प्रेरणा दी है। उन्होंने आहार में छिपे आरोग्य के रहस्य को प्रकट करते हुए स्वास्थ्य हेतु निम्न सूत्रों को जोड़ने की सलाह दी है - स्वाद की बजाय स्वास्थ्य प्रधान भोजन करें; अति तेल, घी, मिर्च-मसालेदार भोजन, दूषित, दुर्गंधित भोजन व मांसाहार से बचें हितकारी, सीमित एवं ऋतु अनुसार भोजन लें और भोजन में सभी चीजों का पर्याप्त मात्रा में सेवन करें। उन्होंने हेल्थ-सिक्रेट बताते हुए कहा है, "अन्न को करो आधा, सब्जी को करो दुगुना, पानी पियो तिगुना और हँसी को करो चौगुना ।" कैसे बनाएँ अपना कॅरियर, शानदार जीवन के दमदार नुस्खे, कैसे जिएँ क्रोध एवं चिंतामुक्त जीवन, सफल होना है तो..... शांति पाने का सरल रास्ता आदि पुस्तकों में उन्होंने शारीरिक-मानसिक संबोधि टाइम्स 29 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिकित्सा एवं मानसिक विकास के बेहतरीन गुर बताए हैं। सफलता के गुर सिखाने वाले देश के पहले संत संत लोग सामान्य तौर पर त्याग, वैराग्य की ही प्रेरणा देते हैं या भागवत कथाओं के जरिये भगवन्नाम लेने पर जोर देते हैं, पर श्री चन्द्रप्रभ भगवान का नाम लेने के साथ संसार में सुखी और सफल होने का पाठ भी पढ़ाते हैं। शायद देश में श्री चन्द्रप्रभ ही ऐसे संत होंगे जिन्होंने नई पीढ़ी को जीने की कला और सफलता के मंत्र सिखाने वाली ढेर सारी किताबें दी हैं। अपने प्रभावी विचारों और प्रवचनों से उन्होंने नई पीढ़ी में प्रगति का एक नया जूनून जगाया है। दुनिया में चाहे कोई कितना भी हताश क्यों न हो गया हो अगर श्री चन्द्रप्रभ का कोई एक उद्बोधन सुन ले तो वह एक अद्भुत उत्साह एवं ऊर्जा से भर उठेगा। उसके अंधेरे जीवन में आत्मविश्वास का प्रकाश भर उठेगा। श्री चन्द्रप्रभ जीवन में ऊँचाइयाँ पाने व सफल बनने में विश्वास रखते हैं। उन्होंने स्वयं भी भौतिक एवं आध्यात्मिक ऊँचाइयों को छुआ और लोगों को भी सफल बनने का मार्ग प्रदान किया। वे सफलता के मंत्रदृष्टय हैं। वे कहते हैं, "सफलता कोई मंज़िल नहीं, एक सफर है। मैट्रिक में मेरिट आकर कोई बैठ जाता तो वह एम. बी. ए. नहीं बन पाता, करोड़पति होकर संतोष कर लेता तो वह धीरूभाई अंबानी नहीं बन पाता और विश्व सुंदरी बनकर हाशिए पर चली जाती तो वह ऐश्वर्या की तरह महान् अभिनेत्री नहीं बन पाती।" उनका मानना है, "सफलता तो तब मिलती है जब हमारी श्वास में सफलता का सपना बस जाता है।” सफलता के संदर्भ से जुड़ी उनकी कुछ खास घटनाएँ उल्लेखनीय हैं - प्रतिभा कैसे जगाएँ एक 18 साल का युवक श्री चन्द्रप्रभ को प्रणाम कर कहने लगा - गुरुजी, मैं अपनी प्रतिभा को जगाना चाहता हूँ, मुझे इसके लिए क्या करना चाहिए? श्री चन्द्रप्रभ ने कहा प्रतिभा को - निखारना है तो पेंसिल के उदाहरण को सदा याद रखो। जैसे पेंसिल में जो कुछ भी है, वह सब उसके भीतर है, पर उसको नुकीला बनने के लिए किसी सार्पनर में जाना पड़ता है, अपनी छिलाई करवानी पड़ती है, उसके बाद कुछ लिखना होता है और गलती हो जाए तो उसे सुधारना पड़ता है ठीक वैसे ही जो छात्र किसी योग्य गुरु के हाथों में स्वयं को सौंपता है, उनके अनुशासन से गुजरता है, जीवन में नए काम करने की कोशिश करता है, कुछ गलत हो जाए तो माफी माँग वापस वैसा न करने का संकल्प ले लेता है उसके भीतर की रही हुई सुप्त प्रतिभा अवश्यमेव नुकीली एवं जाग्रत हो जाती है। पत्थर भी गोल हो गया एक छात्र श्री चन्द्रप्रभ के पास आया। वह दुखी और उसका चेहरा उदास था। श्री चन्द्रप्रभ ने उससे पूछा क्या बात है? परेशान नजर आ रहे हो? छात्र ने कहा- मैं घरवालों के ताने सुन-सुन कर परेशान हो गया हूँ, अब मैं जीना नहीं चाहता। श्री चन्द्रप्रभ ने फिर उससे पूछा क्यों, ऐसा आपसे क्या हो गया? छात्र ने कहा- मैंने गलत तो कुछ नहीं किया, पर मेरे दिमाग में कोई भी चीज चढ़ती नहीं है, इसलिए घरवाले मुझसे परेशान हैं। श्री चन्द्रप्रभ उसे कुएँ पर ले गए और पूछा कुएँ पर क्या-क्या चीजें रखी हुई हैं? उसने कहा - बाल्टी और रस्सी। श्री चन्द्रप्रभ ने फिर पूछा - कुएँ की मेड पर लगा ये पत्थर घिसा हुआ कैसे है? उसने कहा- बार-बार रस्सी के 30 संबोधि टाइम्स - आने-जाने के कारण ? श्री चन्द्रप्रभ ने कहा- जब रस्सी के बार-बार आने-जाने से कठोर पत्थर भी घिस सकता है तो सोचो हम लगातार कोशिश करके कुछ भी क्यों नहीं बन सकते। अगर आप भी मन में ठान लें और निरंतर कोशिश करना शुरू कर दें तो एक दिन अवश्य इस परेशानी पर जीत हासिल कर लेंगे। यह सुन छात्र का सोया आत्मविश्वास जग गया। उसने अपना निर्णय बदला और आगे बढ़ने की ठान ली। इसी तरह श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन प्रबंधन से जुड़े हर पहलू पर बेहतरीन गुर थमाए हैं। समय- प्रबंधन हो या दिनचर्या प्रबंधन, व्यक्तित्व विकास हो या कॅरियर निर्माण, प्रबंधन से जुड़े हर पहलू पर उनकी पकड़ मजबूत है। जीवन में जोश जगाने से जुड़ा उनका यह गीत युवाओं के लिए गीता का काम कर रहा है जीएँ, ऐसा जीएँ, जो जीवन को महकाए । पंगु भी पर्वत पर चढ़कर जीत के गीत सुनाए । जीवन में हम जोश भरें, अपने सपने पूर्ण करें। साथ मिले तो लें सबका, नहीं मिले तो गम किसका । अर्जुन में बेहद दम है, एकलव्य भी कहीं कम है। हम भी दिल में लक्ष्य बसाकर जीवन सफल बनाएँ ।। संघर्षों से डरें नहीं, बिना मौत के मरें नहीं। खुद को बूढ़ा क्यों समझें, खुद को अपाहिज क्यों समझें । जिसने भी संघर्ष किया, उसको अपना लक्ष्य मिला। 'चन्द्र' स्वयं पुरुषार्थ जगाकर, सोया भाग्य जगाएँ ।। श्री चन्द्रप्रभ का व्यक्तित्व निर्माण पर विस्तृत साहित्य प्रकाशित हुआ है। वे सफलता के लिए बेहतर सोच व बेहतर कार्यशैली अपनाने की सीख देते हैं। जीवन का नजरिया देते हुए उन्होंने कहा है, "दुनिया तो गेंद की तरह है खेलने वाला हो तो इस दुनिया को जिंदगी भर खेला जा सकता है। तुम अपनी इच्छाशक्ति का हॉर्लिक्स दुगुना करो, खेलने की ताकत खुद-ब-खुद बढ़ जाएगी।" उनके विचार नपुंसक हो चुकी चेतना को झंकृत कर देते हैं। वे कहते हैं, "हर गुरु-शिक्षक के पास हजारों शिष्य आते हैं, पर अर्जुन वही बनता है जो पूरी तन्मयता से अभ्यास करते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता है।" उन्होंने किसी भी कार्य को छोटा न मानने और प्रतिदिन कुछ नया करने की कोशिश करने की सीख दी है। वे कहते हैं, "दुनिया का कोई भी पत्थर एक ही बार में नहीं टूटता, पर दसवें वार में टूटने वाले पत्थर के लिए उन नौ वारों को अर्थहीन नहीं कहा जा सकता, जिनकी हर मार ने पत्थर को कमजोर किया था ।" वे कॅरियर अथवा सफलता को केवल आर्थिक स्तर पर नहीं तोलते वरन् सम्पूर्ण जीवन के विकास से जोड़ते हैं । सर्वधर्म सद्भाव के प्रणेता एवं सत्य के अनन्य प्रेमी श्री चन्द्रप्रभ पंथ, परम्परा अथवा धर्म से नहीं, सत्य से प्रेम रखते हैं। उन्होंने हर महापुरुष के अनुभवों को चुराया है और उनकी अच्छी बातों को अपनाकर, उन पर विस्तृत व्याख्याएँ भी की हैं। उनकी नज़रों में, "राम, कृष्ण, महावीर, जीसस, बुद्ध एक ही बगीचे में खिले हुए अलग-अलग फूल हैं जो धर्म रूपी बगीचे की सुंदरता को घटाते नहीं, बढ़ाते हैं।" वे सर्वधर्म के महान प्रवक्ता हैं। उन्होंने न केवल भारतीय वरन् पाश्चात्य धर्म साहित्य का भी गहरा अध्ययन किया है। उनकी For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, बौद्ध और हिन्दू शास्त्रों पर पकड़ विशेषत: मजबूत है। उन्होंने हर धर्म के महापुरुषों पर अपनी लेखनी चलाई है जो कि उनकी उदार दृष्टि का परिचायक है। उन्होंने शास्त्रों की वर्तमान युग के लिए अप्रासंगिक बातों को नकारा भी है। वे उन्हीं सिद्धांतों को आमजन के सामने रखते हैं जिसे अपनाने पर इंसानियत का भला हो सकता है। स्वर्ग नर्क जैसे बिंदुओं पर उनकी मनोवैज्ञानिक व्याख्याएँ पढ़ने योग्य हैं। 1 श्री चन्द्रप्रभ के सान्निध्य में अनेक सर्वधर्म सम्मेलनों का आयोजन हुआ है जिसमें सभी धर्मों के गुरुओं ने शरीक होकर धार्मिक एकता का स्वर बुलंद करने की कोशिश की है ज्योतिषाचार्य पं. प्रमोदराय आचार्य का कहना है, "पूरे देश में घूमा, अनेक समारोहों में सम्मिलित हुआ, पर सर्वधर्म सम्मेलन का जो स्वरूप यहाँ देखने को मिला वह अपने आप में अद्भुत, अनुपम और अद्वितीय है। आज मेरे घर में इनके साहित्य, सीडी और कैसेट्स ही छाये हुए हैं।" अब्दुल सलाम काजी का मानना है, "सर्वधर्म प्रेमी तथा मानवतावादी इन संतों ने सभी धर्मों का सम्मान करते हुए जीवन-विकास का अनोखा कार्य किया है। " विश्व हिन्दू परिषद् के प्रांतीय पूर्व अध्यक्ष प्रदीप साँखला ने कहा था, "हर दिल को छू लेने वाली श्री चन्द्रप्रभ की यह प्रवचनमाला बरसों तक भीलवाड़ावासियों को याद रहेगी। नगर में सर्वधर्मसमभाव का अनूठा वातावरण पहली बार बना। पूरे शहर ने पर्युषण पर्व मनाया और जन्माष्टमी भी । " श्री चन्द्रप्रभ द्वारा सभी धर्मों के समन्वय पर दिए गए प्रवचन बेहद रसभीने होते हैं और सर्वधर्म सद्भाव का माहौल तैयार करते हैं। वे न केवल सर्वधर्म सद्भाव की बात करते हैं वरन् सभी धर्मों के संतों से मिलते हैं और एकता से जुड़े विभिन्न बिन्दुओं पर चर्चा करते हैं । वे सभी धर्मों के महापुरुषों के मंदिरों में जाते हैं और उन्हें श्रद्धापूर्वक प्रणाम करते हैं। उनका कहना है, "हम भले ही राम और महावीर के मंदिर में श्रद्धापूर्वक जाएँ, पर बीच रास्ते में मस्जिद आ जाए तो वहाँ पर भी अकड़ कर चलने की बजाय झुककर चलें।" उनके सान्निध्य में निर्मित संबोधि धाम के ट्रस्ट मण्डल में सभी धर्मों के प्रतिनिधि हैं एवं वहाँ सभी महापुरुषों के मंदिर हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने भले ही जैन धर्म में संन्यास लिया हो, पर उनके विचारों में कहीं कट्टरता नजर नहीं आती। वे सभी धर्मों का सम्मान करते हैं और हर धर्म के महापुरुष से कुछ-न-कुछ सीखने का प्रयास करते हैं। उनके साहित्य में सर्वत्र सर्वधर्म सद्भाव के दर्शन होते हैं। दिगम्बर समाज के प्रवक्ता कमल सेठी कहते हैं, "ये जैन संत नहीं जन संत हैं जिन्होंने हमें जीवन और धर्म की सही समझ दी और हमारे भीतर पारिवारिक प्रेम तथा राष्ट्रीय भावना को पूरी गहराई के साथ स्थापित किया। उनके द्वारा 'ॐ' और 'राम' के बारे में की गई धार्मिक व्याख्याओं में भी यह तत्त्व उभर कर आया है। श्री चन्द्रप्रभ ने जैन, हिन्दुओं, सिखों, मुसलमानों, ईसाइयों के बीच पलने वाली दूरियों को दूर करने की कोशिश की है। इसी के चलते उनके प्रवचनों का आयोजन मुस्लिम भाइयों द्वारा भी करवाया जाता है। बोहरा मुस्लिम समाज के प्रमुख श्री बाबूभाई ने कहा था, "इंदौर में ऐसा पहली बार हुआ जब पंथ-मजहबों से परे होकर इंसानियत का सीधा पाठ पढ़ाया गया। हिंदुओं को छोड़ो हम मुसलमान तक भी गुरुजी की वाणी के कायल हो गये।" उन्होंने साम्प्रदायिकता को जीने वालों पर करारा व्यंग्य किया है। उन्होंने महापुरुषों को सम्प्रदायों, पंथों और पक्षों से मुक्त माना है। वे घर-परिवार में जीने के लिए राम व रामायण को आदर्श बनाने, जीवन की उन्नति व विकास के लिए श्रीकृष्ण से प्रेरणा लेने और आध्यात्मिक साधना के लिए बुद्ध व महावीर से सीखने की बात करते हैं। डॉ. नागेन्द्र ने उनकी साहित्य समीक्षा में लिखा है, "यदि चन्द्रप्रभ चाहते तो किसी भी एक विधा में जैन जगत से ही विषय वस्तु का चयन करके साहित्य सृजन कर सकते थे लेकिन प्रबुद्ध साहित्यकार ने ऐसा नहीं किया। मानवीय हित चिंतन ही तो साहित्य में किया जाता है। सचमुच वे मानवता के संदेशवाहक हैं।" आध्यात्मिक एवं अतीन्द्रिय शक्ति से सम्पन्न श्री चन्द्रप्रभ अतीन्द्रिय शक्ति से सम्पन्न एवं आध्यात्मिक चेतना के धनी हैं। गुरुकृपा से वे संन्यास लेने के कुछ वर्ष पश्चात् ही प्रवचन देने एवं साहित्य लिखने में सिद्धहस्त हो चुके थे। पर एक बार प्रवचन देते हुए उनके भीतर यह जिज्ञासा जगी कि मैं लोगों को आत्मा, परमात्मा, मोक्ष की बातें बताता हूँ, पर ये वास्तव में है भी या नहीं। या केवल शास्त्रों में जैसा लिखा है वैसा ही मैंने मान लिया है। तब श्री चन्द्रप्रभ ने यह संकल्प ले लिया कि मैं स्वयं सत्य की खोज करूंगा। सत्य की खोज में उन्होंने लगातार पन्द्रह साल लगाए। हिमालय की यात्रा की, पहुँचे हुए योगियों ऋषि महर्षियों से सम्पर्क किया। लगातार कुछ वर्ष मंत्र, तंत्र और ध्यान साधनाएँ की इस दौरान उन्हें अनेक खट्टे-मीठे कड़वे अनुभवों से गुजरना पड़ा। कई बार मौत साक्षात उनके पास से गुजरी। उन्होंने योगियों के साथ ब्रह्मयात्रा भी की। पिछले जन्मों से साक्षात्कार भी किया। उन्हें अनेक अनहोनी घटनाओं का पूर्वाभास भी हुआ हम्फी की गुफा में 17 फरवरी के दिन वे लगातार 16 घंटे तक समाधिस्त रहे । साधना के दौरान उनसे अनेक दिव्य आध्यात्मिक भजनों की रचना भी हुई। अध्यात्म की गहराइयों से जुड़ा 36 दोहों का संबोधि सूत्र तो मात्र कुछ मिनटों में उनके मुख से प्रस्फुटित हो गया, जिसके प्रथम बोल है - अंतस के आकाश में, चुप बैठा वह कौन । गीत शून्य के गा रहा, महागुफा में मौन || बैठा अपनी छाँह में, चितवन में मुस्कान । नूर बरसता नयन से, अनहद अमृत पान ।। श्री चन्द्रप्रभ का अध्यात्म शास्त्रों से नहीं, भीतर के अनुभव से निकलता है। उन्होंने पहले इसे जिया है फिर सबको दिया है। प्रभु से आध्यात्मिक-प्रार्थना करते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं - सबमें देखूँ श्री भगवान ।। । हम सब हैं माटी के दीये, सबमें ज्योति एक समान । सबसे प्रेम हो, सबकी सेवा, ऐसी सन्मति दो भगवान ।। आँखों में हो करुणा हरदम, होंठों पर कोमल मुस्कान। हाथों से हो श्रम और सेवा, ऐसी शक्ति दो भगवान ।। चाहे सुख-दुःख, धूप-छाँव हो, चाहे मिले मान-अपमान । व्याधि में भी रहे समाधि ऐसी मुक्ति दो भगवान ।। श्री चन्द्रप्रभ अध्यात्म को संसार का त्याग नहीं वरन् संसार को बारीकी से देखने की कला कहते हैं वे आध्यात्मिक साधना के लिए संबोधि टाइम्स 31 For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय में मीराभाव अर्थात् समर्पण का प्रकट होना अनिवार्य मानते हैं। जलाई, कुछ तंत्र बोले और चाकू लेकर श्री चन्द्रप्रभ के पास पहुँचा। उन्होंने मन की मृत्यु को मुक्ति माना है। वे संन्यास से ज्यादा अनासक्ति तांत्रिक चाकू उनके शरीर से स्पर्श करने वाला ही था कि न जाने एवं विरक्ति को महत्त्व देते हैं। उन्होंने आध्यात्मिक साधना के दो मार्ग श्री चन्द्रप्रभ को कौनसी अतीन्द्रिय प्रेरणा मिली, उन्होंने तांत्रिक को जोर बताए हैं : पहला संकल्प का, दूसरा समर्पण का। पहले में स्वयं का से धक्का दिया और ललितप्रभ जी के साथ तेजी से दौड़ते हुए स्वस्थान स्वयं पर विश्वास है तो दूसरे में स्वयं का ईश्वरीय चेतना पर विश्वास आ गए। श्री चन्द्रप्रभ ने यह घटना आश्रम के गादीपति को बताई तो है। उनकी दृष्टि में, "संकल्प जिनत्व और बुद्धत्व को पाने की उन्होंने कहा- अगर वह तांत्रिक तुम्हारे खून की एक बूंद भी निकाल आधारशिला है और समर्पण भक्त से भगवान होने का मार्ग है।" लेता तो तुम हमेशा के लिए उसके गुलाम बन जाते। आज तुम्हारी रक्षा उन्होंने अपने आध्यात्मिक अनुभवों से जुड़ी घटनाओं का जिक्र इस अतीन्द्रिय शक्ति के कारण हुई। प्रकार किया है - अतीन्द्रिय शक्ति का संकेत - श्री चन्द्रप्रभ ने अपने आदरणीय जिज्ञासा बनी अभीप्सा- कुछ वर्ष पहले जब मैं प्रवचन दिया पिता-संत गणिवर श्री महिमाप्रभ सागर जी महाराज के साथ करता तो हजारों-हजार लोग एकत्र हुआ करते थे। तब मैं बहुत उत्तरकाशी में चातुर्मास करने का निश्चय किया। काफी कोशिशों के धुआँधार बोला करता था, जिसके आगे आज कुछ नहीं बोलता। अब बाद उन्हें चातुर्मास करने हेतु बिड़ला हाउस मिला। वे वहाँ पहुँचे। तो वही उद्गार मुँह तक आता है, जिसका अनुभव भीतर तक गया हुआ चातुर्मास लगने में कुछ दिन बाकी थे। वे बिड़ला हाउस में ठहरे हुए थे, है। अगर किसी पहलू का अनुभव भीतर नहीं हुआ है तो वह कभी पर श्री चन्द्रप्रभ का वहाँ बिल्कुल भी मन नहीं लग रहा था। उन्होंने अभिव्यक्ति में नहीं आएगा। जीवन में कभी यह जिज्ञासा जगी थी कि अन्य संतों को यह बात बताई। तीन दिन तक लगातार ऐसी स्थिति बनने मैं लोगों को आत्मा के कल्याण की, परमात्मा का ध्यान करने की बात के कारण उन्हें अनहोनी होने जैसा अनुभव हुआ। अंतत: उन्होंने वह कहता हूँ, क्या आत्मा-परमात्मा है भी या नहीं? जीवन में उठने वाली स्थान छोड़ने का मानस मनाया। वे वहाँ से ऋषिकेश आ गए। एक माह यह जिज्ञासा, यह शंका अभीप्सा बन गई, साधक अन्तधिक बन बाद ही इतना भयंकर भूकंप आया कि वह बिड़ला हाउस नींव सहित गया। जब संन्यास लिया तो गृहस्थ से मुक्ति पाई और जब आत्मज्ञान मलबे में बदल गया, वहाँ रहने वालों में एक भी बच नहीं पाया। जब पाया तो रूढ़ संन्यास से भी मुक्ति मिल गई। तब गृहस्थ और संन्यास- श्री चन्द्रप्रभ को यह खबर मिली तो भविष्य के पूर्व संकेत से जुड़ी दोनों ही भावों से वीतराग होने का अवसर मिल गया। वास्तविकता उन्हें ज्ञात हो गई। दैवीय-शक्ति का चमत्कार - श्री चन्द्रप्रभ हिमालय यात्रा के इष्ट शक्ति ने दी सहायता - श्री चन्द्रप्रभ अपने पिता संत श्री दौरान उत्तर काशी की ओर जा रहे थे। अचानक मौसम बदल गया, महिमाप्रभ सागर व लघु भ्राता संत श्री ललितप्रभ सागर के साथ चारों तरफ घनघोर काले बादल आ गए, बिजलियाँ जोरों से कड़कने फिरोजाबाद की यात्रा पर थे। वे विहार करते हुए फिरोजाबाद से 14 लगीं। उनकी टकराहट से बड़े-बड़े ग्लेशियर टूटकर नीचे गिरने लगे। किलोमीटर दूरी पर एक गाँव में पहुँचे। उस दिन अयोध्या कांड होने से रास्ता पूरा बंद हो गया।चेहरे तक नज़र नहीं आ रहे थे। उनको लगा कि दंगे भड़क गए थे। वह क्षेत्र जाति-विशेष बहुल था। उनके लिए आहार आज उनका अंतिम समय निकट है। उन्होंने पिता एवं भ्राता संत को आया। श्री चन्द्रप्रभ ने कहा- मेरा यहाँ मन नहीं लग रहा है, लगता है 'उवसग्गहरं स्तोत्र' का जाप करने को कहा। केवल कुछ मिनटों में कुछ अनहोनी हो सकती है। हमारा यहाँ रुकना ठीक नहीं है। वे आगे स्तोत्र का ऐसा चमत्कार हुआ कि एक सरकारी बस उनके पास आकर बढ़ने की बजाय वापस फिरोजाबाद शहर की ओर रवाना हो गए। वे रुकी। एक व्यक्ति नीचे उतरा और उन्हें चढ़ने के लिए कहा। भगवान कुछ किलोमीटर चले होंगे कि दूर से सैकड़ों लोग हाथों में अस्त्र-शस्त्र द्वारा भेजी हुई सहायता मानकर वे बस में चढ़ गए। बस ने उन्हें अगले लेकर उनकी ओर आने लगे। उनको लगा आज प्राणान्त संकट सामने गाँव में चाय के ढाबे के पास उतारा। वहाँ पर एक व्यक्ति पास के है। वे मंत्र-जाप में लीन हो गए। लोग निकट पहुँचने वाले ही थे कि मकान की चाबी लिए खड़ा मिला। सभी उस घर में चले गए। श्री अचानक वहाँ एक सैनिकों की गाड़ी पहुँची। जल्दी से अधिकारी नीचे चन्द्रप्रभ ने रहस्योद्घाटन करते हुए कहा कि उस स्तोत्र के प्रभाव से उतरे, उनको सुरक्षा के घेरे में लिया और उन्हें सुरक्षित स्थान तक पहुँचा कोई दैवीय-शक्ति जाग्रत हुई, उसी ने बस ड्राइवर को प्रेरणा दी, बस दिया। दूसरे दिन अखबारों में पढ़ने में आया कि 14 किलोमीटर आगे में केवल चार लोग ही थे। हमारा भतीजा, जो पिछले गाँव से आहार गाँव के जिस मकान में वे ठहरे थे उसे अराजक तत्त्वों ने रात में ही लाने के लिए बस की इंतजारी कर रहा था, ड्राइवर, कंडक्टर व एक जलाकर राख कर दिया। अजनबी पुरुष। ऐसी घनघोर स्थिति में, जहाँ एक वाहन सड़क पर मौनको बनाया जीवनका महावत नहीं, उस स्थिति में भी वह बस हमारे लिए सहायता रूप में आई और श्री चन्द्रप्रभ प्रखर वक्ता ही नहीं, मौन साधक भी हैं । वे बोलने को हमें सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। बस में बैठा वह अजनबी पुरुष और चाँदी और चुप रहने को सोना बताते हैं। उन्होंने मौन साधना के प्रेरक के चाय के ढाबे पर चाबी लिए खड़ा युवक भी न जाने कुछ ही देर में कहाँ रूप में संत श्री अमिताभ को माना है। उन्होंने मौन से जुड़े अनुभवों को गायब हो गए। 'ऐसी हो जीने की शैली' नामक पुस्तक के अन्तर्गत उल्लेखित किया जिज्ञासु-वृत्ति - श्री चन्द्रप्रभ पूज्य गणिवर महिमाप्रभ सागर है। वे लगभग 20 वर्षों से लगातार सूर्यास्त से लेकर सूर्योदय तक मौनमहाराज के साथ हिमालय की यात्रा के दौरान गंगोत्री में प्रवासरत थे। वे व्रत को जी रहे हैं। उनसे प्रेरित होकर पिताजी महाराज महिमाप्रभ तांत्रिक साधना के संदर्भ में एक तांत्रिक के आश्रम में पहुँचे। तांत्रिक ने सागर महाराज ने भी पौने तीन वर्ष अखंड मौन-व्रत की साधना की थी। उन्हें तंत्र-साधना का कुछ ज्ञान दिया और एक प्रयोग करते हुए आग उनके द्वारा मौनधर्म की महिमा पर रचित गीत प्रेरणादायक है - 32 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौन है शिवपुर का सोपान। होते झगड़े शांत, बने घर सचमुच स्वर्ग समान ।। मौन धर्म है, मौन साधना, समरसता की कुंजी । मौन महाव्रत, मौन तपस्या, ध्यानयोग की पूँजी । मन का मौन सधे तो सधता, सचमुच आतम-ज्ञान ।। बारह वर्ष मौन करने से, वचन-सिद्धि हो जाती। दो घंटा नित मौन करे तो नई ताजगी आती। 'चन्द्र' प्रभु से प्रीत लगाकर, पा लें शुभ वरदान ।। श्री चन्द्रप्रभ के सान्निध्य में आयोजित संबोधि साधना शिविरों में भी मौन रखने पर विशेष रूप से प्रेरणा दी जाती है। उन्होंने मौन को साधना की नींव का मुख्य पत्थर माना है। मौन से जुड़ी उनके जीवन की निम्न घटनाएँ हैं मौन का संकल्प - श्री चन्द्रप्रभ सन् 1991 में माउण्ट आबू में प्रवासरत थे। वे शाम को छत पर टहल रहे थे। टहलते टहलते वे डूबते सूर्य पर त्राटक करने लगे। थोड़ी देर में उनकी आँखें मुँद गई। वे ध्यानमग्न हो गए। लगभग दो घंटे बाद जब उनका ध्यान पूर्ण हुआ उनके अंतर्मन में संकल्प जगा कि आज से मैं एक वर्ष के लिए प्रतिदिन सूर्यास्त से लेकर सूर्योदय तक मौन व्रत रखूंगा। तब से लेकर अब तक लगभग बीस वर्ष हो चुके हैं वे मौन व्रत को रख रहे हैं। मौन से मिली शांति - श्री चन्द्रप्रभ के मौन-व्रत का संकल्प लेने के दूसरे दिन का वाकया है। उनके पिताजी महाराज ने उन्हें किसी बिन्दु को लेकर चार-पाँच कड़वी बातें सुना दी। श्री चन्द्रप्रभ को बुरा लगा। उनके मन में क्रिया-प्रतिक्रिया चलती रही। उन्होंने सोचा सुबह जैसे ही मौन व्रत पूरा होगा, मैं एक-एक बात का जवाब दूँगा। पर जब वे सुबह उठे तो उन्होंने देखा उनके भीतर किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं हो रही थी, मन में सहज शांति थी । उसी क्षण उन्होंने दूसरा संकल्प ले लिया कि मौन के दौरान घटी घटना की मैं किसी प्रकार की क्रिया-प्रतिक्रिया नहीं करूंगा। इस संकल्प के बाद मौन ने उन्हें अंतर्मन की दिव्य शांति और आत्मिक आनंद का आलोक प्रदान किया। संबोधि साधना मार्ग का प्रवर्तन श्री चन्द्रप्रभ का व्यक्तित्व ध्यानयोगी के रूप में भी उभर कर आया है। उन्होंने ध्यान को गहराई के साथ आत्मसात किया और ध्यान से बहुत कुछ उपलब्ध किया। उनकी ध्यान योग साधना पर कई किताबें प्रकाशित हुई हैं। उन्होंने हम्पी और हिमालय की गुफाओं में साधना की और आत्म-प्रकाश की उपलब्धि के पश्चात् संबोधि साधना के मार्ग का प्रवर्तन किया। जिससे अब तक लाखों लोग लाभान्वित हो चुके हैं। वे ध्यान को साधना की आत्मा मानते हैं। वे कहते हैं, "प्रार्थना पहला चरण है और ध्यान अगला प्रार्थना में हम प्रभु से बातें करते हैं, जबकि ध्यान में प्रभु हमसे।" उनकी दृष्टि में, "प्रयासपूर्वक किया गया ध्यान एकाग्रता है, अनायास घटित होने वाली एकाग्रता ध्यान है। उन्होंने जीवन की नकारात्मकताओं से मुक्ति पाने के लिए ध्यान मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी है। उन्होंने ध्यान की अनेक वैज्ञानिक विधियाँ भी प्रतिपादित की हैं। वे तन, मन, चेतना की चिकित्सा के लिए ध्यान को राजमार्ग बताते हैं। उनकी ध्यान साधना से जुड़ी मुख्य घटनाएँ इस प्रकार हैं गहन साधक श्री चन्द्रप्रभ सहयोगी संतों केसाथ कर्नाटक के गुन्टूर में प्रवासरत थे । वे वहाँ स्थित हम्फी की गुफाओं में साधना किया करते थे। तीन माह की साधना के दौरान उन्हें एक बार दीर्घावधि की समाधि सधी । वे लगातार 16 घंटों तक समाधिस्त रहे । समाधि की पूर्णता हुई तब उन्होंने देखा उनके चारों तरफ चंदन के चूर्ण की वृष्टि हुई है। संघस्थ गुरुभक्तों ने उसे इकठ्ठा किया। आज भी वह चमत्कारी और मनोवांछित देने वाला चूर्ण संबोधि धाम में है। I योगशक्ति की भविष्यवाणी - मद्रास की बात है। पिता संत श्री महिमाप्रभ सागर, भ्राता संत श्री ललितप्रभ सागर के साथ श्री चन्द्रप्रभ कुन्नूर के पास नीलगिरि की घाटियों की ओर जा रहे थे । गुरुभक्त श्री विजय झाबक ने आग्रह किया कि वे आदि परा शक्ति की उपासिका योग माँ से जरूर मिलें श्री चन्द्रप्रभ ने भी उनसे मिलने की इच्छा जाहिर की। श्री झाबक ने कहा- वे कहीं नहीं जाती हैं, पर श्री चन्द्रप्रभ ने कहा- आप उन्हें लेने जाइए। हमारा नाम लें, वे जरूर आएँगी । । वे उन्हें लेने पहुँचे। वे कार से उत्तरे कि योग माँ ने उन्हें देखते ही कहातुम्हें संतों ने मुझे बुलाने के लिए भेजा है न। मैं तो खुद काफी वर्षों से उनका इंतजार कर रही हूँ यह सुनकर वे हतप्रभ रह गए। योग माँ उनके साथ श्री चन्द्रप्रभ के पास पहुँचीं। श्री चन्द्रप्रभ को देखते ही योग माँ ने योग विद्या से पूजा की साम्रगी और आरती प्रकट की और श्री चन्द्रप्रभ की पूजा करते हुए आरती उतारी। यह देखकर योग माँ की शिष्य - शिष्याएँ भी आश्चर्यचकित रह गई। उन्होंने योग माँ से पूछा यह आप क्या कर रही हैं? योग माँ ने कहा- ये सामान्य पुरुष नहीं वरन् असाधारण आत्मा हैं । इन्हें आज से ठीक एक वर्ष बाद योगशक्ति प्राप्त होगी। ऐसी कुछ विशिष्ट बातें योग माँ ने बातचीत के दौरान श्री चन्द्रप्रभ के भविष्य को लेकर कहीं जो आगे चलकर सच साबित हुई। ऐसी सैकड़ों दिव्य घटनाएँ मुझे सुनने और जानने को मिली हैं। निष्कर्ष - श्री चन्द्रप्रभ के समग्र जीवन पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट होता है। कि वे भारतीय संस्कृति एवं दर्शन जगत् के उज्ज्वल नक्षत्र हैं। उन्होंने एक ओर भारतीय संस्कृति के मूलभूत तत्त्वों को युगीन संदर्भों में प्रस्तुत कर विश्व का ध्यान भारत की ओर खींचा है और भटकती युवा पीढ़ी को नई दिशा दी है वहीं दूसरी ओर दर्शन की दुरूहता को दूर कर नया कीर्तिमान स्थापित किया है। उनका दर्शन, साहित्य, जीवन, विचार, व्यवहार और क्रियाकलाप सब कुछ सकारात्मकता, रचनात्मकता एवं विविधता लिए हुए हैं। इसी कारण वे वर्तमान के ऐसे संत, दार्शनिक, लेखक और व्यक्तित्व हैं जिनसे देश का हर व्यक्ति किसी-न-किसी रूप से अवश्य परिचित है। वे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी हैं। उनकी साधना, साहित्य-लेखन एवं मानवता से जुड़ी हुई सेवाएँ निरंतर प्रगति की ओर उन्नतिशील हैं। उन्हें समझना या उन पर लिखना संभव है, पर उनकी सम्पूर्णता को प्रकट करना असंभव है। For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स 33 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ २७० साहित्य समाज और समय का दर्पण है। मानव-समाज का किस युग में कैसा स्वरूप, रहन-सहन और जीवन-शैली रही, इसका ज्ञान हमें साहित्य के द्वारा ही होता है। विश्व की नब्ज हम साहित्य के द्वारा ही पहचानते हैं। विश्व का स्वरूप चाहे अच्छा हो या बुरा, साहित्य उसे न केवल शब्दबद्ध करता है, अपितु विश्व को नई दिशाएँ एवं आशाएँ भी देता है। साहित्य के अभाव में देश और विश्व का भविष्य अंधकारमय हो जाता है। मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है अंधकार है वहाँ, जहाँ आदित्य नहीं है। ___ मुर्दा है वह देश, जहाँ साहित्य नहीं है। साहित्य और जीवन-जगत का परस्पर अंतर्संबंध है। जीवनजगत की स्थितियों से साहित्य प्रभावित होता है और साहित्य से जीवन-जगत पर प्रभाव पड़ता है। श्रेष्ठ साहित्य श्रेष्ठ जीवन का निर्माण करने के लिए नींव की तरह है। साहित्यिक कला ही मनुष्य को सही अर्थों में मनुष्य का गौरव प्रदान करती है। साहित्य की कला से शून्य व्यक्ति को नीतिशतक में पशुतुल्य बताया गया है। भर्तृहरि कहते हैं, "जो मनुष्य साहित्य एवं संगीत की कला से शून्य है, वह बिना सींग-पूँछ का पशु है।" साहित्य का मुख्य ध्येय मनुष्य को मार्गदर्शन और गरिमामय जीवन देना है। जिस साहित्य में मानव मात्र के कल्याण की भावना निहित है वह उत्तम साहित्य है। साहित्य सदा सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय होता है। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन एवं साहित्य विश्व-संस्कृति में दर्शन और साहित्य महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। दर्शन और साहित्य परस्पर जुड़े हुए हैं। दर्शन में जहाँ जीवन-जगत और अध्यात्म से जुड़े तत्त्वों को जिज्ञासा भाव से देखा जाता है, चिंतन और मनन कर सत्य का निष्कर्ष निकाला जाता है, वहीं साहित्य में उन निष्कर्षों को सौन्दर्य तथा अलंकार के साथ लिपिबद्ध किया जाता है। जमनालाल जैन कहते हैं, "विचारों का प्रकाशित रूपही साहित्य है।" इस तरह दर्शन की स्थापना का आधार साहित्य है और साहित्य की नींव दर्शन है। साहित्य से दर्शन का फैलाव, संस्कार-निर्माण और सद्ज्ञान में वृद्धि होती है। श्री चन्द्रप्रभ के साहित्य में जो दर्शन प्रस्तुत हुआ है वह मानवसमाज के लिए मील के पत्थर की तरह आदर्श और मार्गदर्शक है। उनके दार्शनिक साहित्य से दर्शन जगत की गरिमा में कई गुना अभिवृद्धि हुई है। उनका दर्शन बेजोड़ और साहित्य अनुपम है। डॉ. नागेन्द्र ने लिखा है, "साहित्य जगत में श्री चन्द्रप्रभ एक ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिनका कृतित्व विश्व के लिए प्रेरणादायी एवं मार्गदर्शक बना है। श्री चन्द्रप्रभ का साहित्य: जीवनमूलक एवं व्यावहारिक 34 संबोधि टाइम्स in Education Internation For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रप्रभ वह प्रतिभा पुरुष हैं, जिन्होंने अल्पायु में ही बहुआयामी कार्य-योजना, धैर्य, मानसिक शक्ति, बौद्धिक प्रतिभा, मनोगत साहित्यिक व्यक्तित्व को स्वयं में उजागर किया है।" प्रसन्नता, क्रोध-संयम, चिंता-तनाव-मुक्ति, बोलने की कला, श्रेष्ठ श्री चन्द्रप्रभ एक प्रतिष्ठित दार्शनिक एवं साहित्यकार हैं। उनका व्यवहार जैसे पहलुओं पर मार्गदर्शन दिया है। साहित्य मधुर, भावपूर्ण और हृदय-स्पर्शी है। गहरी जीवन-दृष्टि और श्री चन्द्रप्रभ ने धार्मिक मूल्यों के अंतर्गत क्षमा, सर्वधर्म सद्भाव, मानवता की भावना उनके दर्शन एवं साहित्य में सर्वत्र समाविष्ट हुई है। अहिंसा, करुणा, प्रेम, न्याय, सत्य, त्याग, इच्छा-संयम, सत्संग, पुण्यउन्होंने साहित्य का सृजन मनोरंजन अथवा लोकरंजन के लिए नहीं, पाप, तीर्थ-यात्रा, मृत्यु-रहस्य, लेश्यामंडल, आत्मविकास-क्रम, जीवन के सत्य को उद्घाटित करने के लिए किया है। सुंदर व प्रभावी महाव्रत, वानप्रस्थ, संन्यास, विवेक, स्वर्ग-नरक, पूर्वजन्म-पुनर्जन्मसरल शब्दों में जीवन-जगत के सूक्ष्म रहस्यों को प्रस्तुत करना उनके पूर्णजन्म से जुड़े विविध बिन्दुओं पर गहनता से चर्चा की है। सामाजिक साहित्य की मुख्य विशेषता है। उनके दर्शन व साहित्य का मुख्य लक्ष्य मूल्यों के अंतर्गत उनके द्वारा समानता, मितव्ययिता, अपरिग्रह, मानव जीवन को प्रेमपूर्ण, ऊर्जावान तथा गरिमामय बनाना है। डॉ. अनेकांत, समन्वय, शिक्षा, सहयोग, सहभागिता, संगठन, वेंकट प्रकाश शर्मा कहते हैं, "श्री चन्द्रप्रभ की जीवन की गहराइयों के स्वावलंबिता, मानव-सेवा जैसे सिद्धांतों की प्ररूपणा की गई है। प्रति बेहद पकड़ है। वे एक महान जीवन-द्रष्टा हैं। जीवन के प्रति राष्ट्रीय मूल्यों के अंतर्गत उन्होंने नैतिकता, मानवीयता, राष्ट्र-प्रेम, उनका नजरिया बिल्कुल सहज और व्यावहारिक है। वे विकास में स्वस्थ-सकारात्मक राजनीति, नारी-स्वतंत्रता, सदाचार, सच्चरित्रता, विश्वास रखते हैं और रंग की बजाय जीवन जीने के ढंग को सुंदर बनाने कर्मयोग जैसे सिद्धांतों को प्रतिपादित किया है। आध्यात्मिक मूल्यों के की सीख देते हैं।" देवर्षि विजय भट्ट का मानना है, "श्री चन्द्रप्रभ अंतर्गत उन्होंने अनासक्ति, चित्त-शुद्धि, आत्मज्ञान, द्रष्टाभाव, कोऽहं, जीवन-दर्शन के महान चिंतक एवं प्रवक्ता हैं । वे हमारे देश में जीवन- मौन, अनुप्रेक्षा-विपश्यना, योग-साधना, ध्यान, कायोत्सर्ग, मृत्यु, उत्थान का नेतृत्व कर रहे हैं। उनके प्रेम एवं ज्ञान के प्रकाश से हजारों शून्य, सहजता, सचेतनता, भेद-विज्ञान, कैवल्य दशा, समाधि, जीवन प्रकाशमय हो रहे हैं। अनेक लोगों की जीवन-शैली सुधरी है ब्रह्मज्ञान, ईश्वर, मोक्ष आदि विभिन्न तत्त्वों की बेहतरीन मीमांसा और उन्हें नया जीवन जीने की प्रेरणा मिली है।" इस तरह श्री चन्द्रप्रभ प्रस्तुत की है। इस तरह श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन एवं साहित्य में विभिन्न का साहित्य व्यक्ति को नैतिक, पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय व्यावहारिक, सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक एवं मानवीय मूल्यों मर्यादाओं और मूल्यों से जोड़ने में सफल हुआ है। की जीवन-सापेक्ष विवेचना एवं स्थापना हुई है। श्री चन्द्रप्रभ के साहित्य में सूक्ष्मता, विद्वत्ता, रोचकता, नवीनता श्री चन्द्रप्रभ द्वारा महापुरुषों पर लिखा गया साहित्य सर्वधर्म और मौलिकता का अद्भुत संगम है। लोग उनके साहित्य को बड़े चाव सद्भाव का स्वरूप लिए हुए है। उनके इस साहित्य से विभिन्न धर्मों से पढ़ते हैं। पढ़कर न केवल प्रफुल्लित होते हैं वरन् जीवन जीने की की आपसी दूरियाँ कम हुई हैं और सभी महापुरुषों के प्रति विराट दृष्टि कला भी सीखते हैं। महात्मा गाँधी ने कहा है, "वही साहित्य चिरंजीवी रखने की प्रेरणा मिली है। उनके साहित्य में राम व रामायण पर, कृष्ण रहेगा, जिसे लोग सुगमता से पचा सकेंगे।" निश्चित ही श्री चन्द्रप्रभ की गीता पर, पतंजलि के योगसूत्र पर, महावीर के आगमों पर, बुद्ध के का साहित्य सुगमता लिए हुए है, इसलिए वह सदा चिरंजीवी/ पिटकों पर, अष्टावक्र गीता पर विस्तार से विवेचन हुआ है। सभी कालजयी रहेगा। विवेचन धार्मिक और साम्प्रदायिक सद्भाव स्थापित करने में सफल श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन एवं साहित्य सत्यग्राहयता लिए हए है। रहे हैं। प्रो. ए. डी. बोहरा कहते हैं, "श्री चन्द्रप्रभ आत्ममनीषी एवं उनका साहित्य समय की परिधि में बँधा हआ नहीं है। साहित्य की चिंतनशील जीवन-दृष्टा हैं। उनका दृष्टिकोण शिवम् और विचार शायद ही ऐसी कोई विधा बची होगी, जिसे वे छ न पाए हों। सभी सार्वभौम हैं। वे भगवान महावीर, गौतम बुद्ध एवं उपनिषद् आदि श्रुति विधाओं एवं सभी दिशाओं में उनका साहित्य लेखन हआ है। उनके ग्रंथों के प्रभावी सूत्रों के माध्यम से जीवन और अध्यात्म की बात साहित्य में नई दृष्टि,नया संदेश और नया आलोक विद्यमान है। उन्होंने अत्यन्त सीधे सपाट वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करते हैं। गंभीर विषयों को अपने साहित्य में अंतर्मन की संवेदनशीलता को यगीन छवि के साथ भी व्यावहारिक और मधुर बनाने में उनका कोई सानी नहीं है।" प्रस्तुत किया है। उन्होंने अतीत से प्रेरणा लेकर वर्तमान की जरूरतों भगवान श्रीराम पर व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा है, "मुझे राम और और सच्चाइयों से परिचित होकर भविष्य के लिए कछ आदर्श स्थापित महावीर में ज्यादा फर्क नजर नहीं आता। राम महावीर की भूमिका है, किए हैं। उन्होंने किसी धर्म या पंथ-विरोध की सीमाओं से जडा वहीं महावीर राम का उपसंहार। राम का 'र' जहाँ जैनों के पहले साहित्य सृजित नहीं किया है। उन्होंने मानवीय हित चिंतन के लक्ष्य को तीर्थंकर ऋषभदेव और इस्लाम के रहमोदीदार अल्लाह का सूचक है सामने रखकर समग्र इंसानियत के लिए साहित्य का सृजन किया है। वहीं राम का 'म' अंतिम तीर्थंकर महावीर और अंतिम पैगम्बर इस तरह श्री चन्द्रप्रभ मानवता के संदेशवाहक दार्शनिक हैं। मोहम्मद साहब का परिचायक है। राम का नाम लेने से समस्त तीर्थंकरों श्री चन्द्रप्रभ के साहित्य ने जीवन-निर्माण, व्यक्तित्व-विकास और पैगम्बरों की वंदना हो जाती है।" इससे स्पष्ट होता है कि वे और मानवीय मूल्यों की स्थापना में अथक सहयोग दिया है। जीवन- उदारवादा दाशानकह। मूल्यों के अंतर्गत स्वभावगत सौम्यता, बेहतर मानसिकता, वाणीगत श्री चन्द्रप्रभ अनुसंधानमूलक साहित्य में भी गहरी पकड़ रखते हैं। मधुरता, व्यवहारगत शालीनता, समय की सार्थकता, पारिवारिक उन्होंने अनुसंधानमूलक विधा से ही अपना साहित्य-लेखन प्रारंभ प्रसन्नता और जीवन-प्रबंधन जैसे बिन्दुओं पर समग्रता से विवेचन किया था। उन्होंने जैनागम आयार-सुत्तं एवं समवाय-सुत्तं पर, प्राकृत हुआ है। व्यक्तित्व विकासपरक मूल्यों के अंतर्गत उन्होंने लक्ष्य- एवं हिन्दी साहित्य की सूक्तियों पर, खरतरगच्छ के इतिहास पर और संधान, कठोर पुरुषार्थ, आत्मविश्वास, समय-प्रबन्धन, उच्च शिक्षा, महावीर-वाणी पर अनुसंधान कार्य किया है। उन्होंने राजस्थान के संबोधि टाइम्स - 35 For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान कवि एवं साहित्यकार महोपाध्याय समयसुंदर के व्यक्तित्व एवं सांस्कृतिक पुनरुत्थान और उन्नत भावदशा का लक्ष्य साधने की कृतित्व पर शोध-प्रबंध भी लिखा। शोधमूलक साहित्य के विश्लेषण कोशिश की है। से स्पष्ट होता कि उनका अध्ययन भाषागत ज्ञान-बहुज्ञता एवं इस तरह श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन एवं साहित्य अनेक विशेषताओं गंभीरता लिए हए है। उन्होंने भाषा या शब्दों का दुराग्रह रखे बगैर सर्वत्र एवं विलक्षणताओं से भरा है। उन्होंने वर्ग, पंथ, सम्प्रदायों की सीमाओं विषयानुकल भाषा का उपयोग किया है। उनकी शोधकृतियों में सर्वत्र से ऊपर उठकर सर्वकल्याणकारी साहित्य सृजित किया है। उनके स्वकीय चिंतन, स्व-अभिमत एवं निष्कर्ष प्रस्तुत हुआ है। उनकी साहित्य में आदर्श एवं यथार्थ का अदभुत समन्वय हआ है। उनके पुस्तकों में नवीनता, प्रभावकता एवं प्रामाणिकता का त्रिवेणी संगम है। साहित्य में सभी धर्मों के सिद्धांतों एवं महापुरुषों की युगानुरूप और नए इस तरह वे कुशल शोधकर्ता एवं समीक्षक रहे हैं। स्वरूप से व्याख्या हुई है। चाहे गीता हो या उपनिषद, धम्मपद हो या श्री चन्द्रप्रभ श्रेष्ठ कवि हैं। उनकी कविताओं में कबीर की गहराई जिनवाणी, श्री चन्द्रप्रभ ने इन पर जो कुछ बोला या लिखा है, वह और मीराबाई की मिठास है। प्रो. कल्याणमल लोढ़ा कहते हैं, "श्री अद्भुत है। उनकी व्याख्याओं ने इन प्राचीन ग्रन्थों को पूजागृह और चन्द्रप्रभ में काव्य प्रतिभा आरोपित न होकर एक जन्मजात संस्कार है, पुस्तकालयों से बाहर निकालकर वर्तमान पीढ़ी के लिए उपयोगी बना जिसका वे अभ्यास व अर्जन द्वारा परिष्करण, परिमार्जन और परिवर्धन दिया है। अपनी इन विलक्षणताओं के चलते श्री चन्द्रप्रभ दर्शन जगत करते हैं।" उनकी कविताएँ दार्शनिकता के साथ धार्मिकता एवं एवं साहित्य जगत में ध्रुव नक्षत्र की भाँति सदा चमकते रहेंगे। नैतिकता लिए हए हैं। उनकी कविताओं की देश के मूर्धन्य कवियों एवं श्री चन्दपभ का साहित्य विद्वानों ने काफी प्रशंसा की है। इनमें महाकवयित्री महादेवी वर्मा, वर्तमान भारतीय दर्शन एवं विश्व दर्शन में श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी, कन्हैयालाल सेठिया, डॉ. सागरमल जैन, किसी दैदीप्यमान नक्षत्र की तरह है। श्री चन्द्रप्रभ की जीवन-दृष्टि डॉ. प्रभाकर माचवे, डॉ. छगनलाल शास्त्री, डॉ. प्रभात शास्त्री, डॉ. दर्शन की सभी विधाओं में गहरी पकड़ रखती है। उन्होंने दर्शन, फूलचन्द जैन, प्रो. दलसुख भाई मालवणिया, प्रो. कल्याणमल लोढ़ा, चिंतन, अनुसंधान, काव्य आदि सभी विधाओं में साहित्य की रचना की प्रोफेसर संत श्री ब्रह्मानंद सरस्वती, कवि प्रवर उपाध्याय अमरमुनि है। वर्तमानकालीन दार्शनिकों में ऐसे बहुत कम दार्शनिक हैं, जिन्होंने आदि प्रमुख हैं। उनकी कविताओं का ऐतिहासिक, सामाजिक एवं श्री चन्द्रप्रभ की तरह सरल, जीवनोपयोगी एवं यथार्थ मूल्यों पर केन्द्रित आत्मोत्थान की दृष्टि से विशेष महत्त्व है। उन्होंने स्वकविताओं में विशाल एवं अद्भुत साहित्य-सृजन का काम किया हो। अतीत की गौरव गाथा गाई है, वर्तमान को सुखी और भविष्य को मंगलमय बनाने की प्रेरणा दी है। उनकी कवित्व शक्ति आत्मशोधन, श्री चन्द्रप्रभ के साहित्य की समीक्षा करने पर स्पष्ट होता है कि आत्मविश्वास, जीवन-निर्माण एवं राष्ट्रोत्थान के चिंतन के रूप में उनका साहित्य आध्यात्मिकता एवं व्यावहारिकता का समावेश लिए प्रकट हुई है। श्री चन्द्रप्रभ का काव्यगत एवं भाषागत सौन्दर्य छंदबद्ध हुए है। उनके साहित्य में जीवन-निर्माण, विश्व-उत्थान और एवं छंदयुक्त दोनों रूपों में प्रकट हुआ है। उनका भाषागत सौन्दर्य, आध्यात्मिक विकास से जुड़े सभी पहलू उजागर हुए हैं। प्रबन्धन-गुरु सहज प्रवाह, ऊँची सोच और उदात्त जीवन-दृष्टि उनकी कविताओं डॉ. अनिल मेहता का मानना है,"श्री चन्द्रप्रभ का साहित्य कैसे जीएँ एवं गीतों में परिलक्षित होती है। मधुर जीवन' की कला सिखाने का अनुपम मार्गदर्शन है। उनका हर संदेश आनंदमयी जीवन जीने के साथ नये उत्साह और ऊर्जा का संचार श्री चन्द्रप्रभ महान गीतकार भी हैं। उन्होंने सैकड़ों भजन, गीत, करता है।" निश्चय ही उनका साहित्य सर्वगुणसम्पन्न है। सकारात्मक स्तोत्र एवं चौपाइयों की रचना की है। उनके भजन अत्यन्त रसमय, सोच, आत्मविश्वास, केरियर निर्माण और सफलता जैसे व्यावहारिक ऊर्जाभरे एवं गहराई लिए हुए हैं। उनके भजनों में जीवन शुद्धि, मुद्दों पर जितने प्रभावशाली ढंग से श्री चन्द्रप्रभ ने युवा पीढ़ी को जागृत व्यक्तित्व-निर्माण, आत्म-साधना, प्रभुभक्ति, मानवीय कल्याण का किया है उससे देश के सभी परम्पराओं के संत और प्रबुद्धजन इन पक्ष विशेष रूप से उजागर हुआ है। उनके गीत जन-जन में लोकप्रिय विषयों पर अपनी कलम चलाने के लिए प्रेरित हुए हैं। सुविधा की हैं। 'मीठो-मीठो बोल थारो काई लागे' उनके लोकगीतों में प्रमुख है, दृष्टि से श्री चन्द्रप्रभ के साहित्य को चार भागों में विभाजित किया गया तो 'जहाँ नेमि के चरण पड़े' उनके भक्ति-गीतों में सर्वाधिक लोकप्रिय । है। 'खुद जिओ सबको जीने दो' और 'बदलें जीवन धारा' गीतों को उनके जीवन-सापेक्ष गीतों में प्रमुखता से देखा जा सकता है। इसी तरह 1.जीवनमूलक साहित्य 2.व्यावहारिक साहित्य आध्यात्मिक गीतों में 'अब कबीरा क्या सिएगा' उनके चर्चित गीतों में 3. सैद्धांतिक साहित्य एवं 4.अन्य साहित्य एक है। जीवनमूलक एवं व्यावहारिक साहित्य श्री चन्द्रप्रभ कुशल कहानीकार भी हैं। उन्होंने कहानियों से श्री चन्द्रप्रभ द्वारा जीवन-निर्माण, व्यक्तित्व-विकास, राष्ट्रसंबंधित साहित्य भी सृजित किया है। सभी कहानियाँ गतिशीलता, निर्माण एवं विश्व-उत्थान पर लिखे गए साहित्य को जीवन-सापेक्ष रसमयता और हृदय की उन्नत अवस्था लिए हुए हैं। उनका कथाशिल्प एवं व्यावहारिक साहित्य की श्रेणी में रखा गया है। श्री चन्द्रप्रभ महान गौरवपूर्ण है। उनकी कहानियों में प्राचीन भारतीय शैली को जीवन दृष्टा हैं। वे जीवन के प्रति अधिक सजग हैं। जीवन में घटित आधुनिकता के साथ प्रकट किया गया है। उनकी कहानियों के शीर्षकों होने वाली परिस्थितियों के प्रति वे सूक्ष्म ज्ञान रखते हैं। जीवन-निर्माण में आकर्षण है। सभी कहानियों में श्रृंखलाबद्धता है। कहानियों में उनके लेखन का मुख्य उद्देश्य है। जीवन को आनंदपूर्ण, उत्साहपूर्ण एव मधुरता और नैसर्गिकता है। कहानियों को वर्णनात्मक, विश्लेषणात्मक ऊर्जावान बनाकर जीने का मार्गदर्शन देने में वे सिद्धहस्त हैं। प्रसिद्ध और संवादशैली में लिखा गया है। कहानियों के जरिये श्री चन्द्रप्रभ ने साहित्यकार बालकवि वैरागी ने उनके व्यावहारिक साहित्य की 136 संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ अनुशंसा करते हुए लिखा है, "आशा और विश्वास से भरे श्री चन्द्रप्रभ उनकी व्याख्याओं में व्यंग्य के साथ अतीत की तुलना है। इतना ही के साहित्य में दर्शन और अध्यात्म के व्यावहारिक पक्ष का उदात्त नहीं, उन्होंने व्यक्ति को नए सिरे से धर्म को सीखने व समझने की विवेचन हुआ है। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम उनकी जीवन प्रेरणा दी है। दृष्टि का अपने व्यावहारिक जीवन में कितना सदुपयोग करते हैं।" श्री जीवन-शद्धिका विज्ञान चन्द्रप्रभ ने जीवन, व्यक्तित्व, स्वास्थ्य, परिवार, राष्ट्र एवं विश्व से संबंधित बिन्दुओं पर विपुल मात्रा में साहित्य लिखा है, जो कि अपने इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन-शुद्धि के तीन चरण माने हैं - 1. शरीर-शुद्धि, 2. विचार-शुद्धि, 3.भाव-शुद्धि । इन तीनों की शुद्धि आप में अनुपम और बेजोड़ है। संक्षेप में श्री चन्द्रप्रभ का जीवनमूलक व्यक्ति को किस तरह करनी चाहिए, इसका सुंदर विश्लेषण इस एवं व्यावहारिक साहित्य इस प्रकार है - पुस्तक में किया गया है। पुस्तक में जीवन-शुद्धि से जुड़ी साधकों की जीवनमूलक साहित्य अनेकानेक जिज्ञासाओं का भी श्री चन्द्रप्रभ ने सुंदर तरीके से समाधान (1) माँ (8) वाह! जिंदगी दिया है। यह पुस्तक बाहर और भीतर के बीच सेतु का काम करती है और स्वर्ग-नर्क, भोग, तप, ध्यान जैसे तत्त्वों की नई एवं सरल व्याख्या (2) जीवन यात्रा (9) कैसे जीएँ मधुर जीवन प्रस्तुत करती है। इस पुस्तक में विज्ञान, मनोविज्ञान, धर्म और अध्यात्म (3) जीवन-शुद्धि का विज्ञान (10) घर को कैसे स्वर्ग बनाएँ का बेहतरीन तरीखे से समायोजन एवं समन्वय हुआ है। यह पुस्तक (4) जीएँ तो ऐसे जीएँ (11) शानदार जीवन के दमदार जीवन-शुद्धि का विज्ञान देने में खरी उतरती है। इसमें दिए गए सूत्रों को नुस्खे व्यक्ति सरलता से जीवन में आत्मसात कर सकता है। जो लोग अपने (5) जीने के उसूल (12) बातें जीवन की, जीने की जीवन को मंदिर की तरह पावन-पवित्र बनाना चाहते हैं उनके लिए यह (6) ऐसी हो जीने की शैली (13) बेहतर जीवन के पुस्तक स्वर्णिम सौगात है। बेहतर समाधान जीएँ तो ऐसे जीएँ (7) पल-पल लीजिए (14) चार्ज करें जिंदगी। इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने व्यक्ति के मन में बार-बार आने वाले जीवन का आनंद इस प्रश्न का समाधान दिया है कि कैसे जीएँ। क्या ऐसी कोई जीने की शैली है जिसे जीकर व्यक्ति हर हाल में प्रसन्न और खुश रह सकता है उपर्युक्त साहित्य का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - और वह सफलता व मधुरता का रसास्वादन कर सकता है। यह पुस्तक जीने की बेहतरीन शैली को प्रस्तुत करती है और दुःख, संताप, श्री चन्द्रप्रभ की कृति 'माँ' साहित्य का अनमोल सितारा है। जो विफलता में उलझे इंसान को बाहर निकालती है। यह पुस्तक जीवन प्रत्येक इंसान को माँ के चरणों में व माँ की सेवा में स्वर्ग-सुख की की व्याख्या करती है, जीवन को समझने व जीवन से सीखने की प्रेरणा अनुभूति होने का पाठ सिखाता है। छोटे-छोटे दृष्टान्त, रोचक प्रेरणा- देती है और जीवन को स्वर्ग बनाने की कला सिखाती है। इसमें उन प्रसंग, देश-विदेश के मूर्धन्य लेखकों-कवियों के काव्यांश व लेखनांश सभी विषयों पर अद्भुत चर्चा की गई है जो कि आम इंसान की जिंदगी प्रस्तुत कर लेखक ने गागर जैसे छोटे शब्द माँ को सागर की तरह के लिए आवश्यक हैं। इस पुस्तक में वे बेशकीमती मंत्र हैं जो हमारी विशाल बना दिया है और माँ के प्रेम, वात्सल्य, करुणा के आगे सबको जिंदगी को चमत्कृत कर सकते हैं। नतमस्तक होने के लिए मजबूर कर दिया है। वर्तमान हालातों को देखते प्रस्तुत पुस्तक में केवल उपदेश या सैद्धांतिक व्याख्या ही नहीं की हए परिवार व समाज-निर्माण में यह कृति मील के पत्थर की तरह गई है वरन् जीवन जीने के प्रायोगिक गुर भी थमाए गए हैं। पुस्तक के साबित हो रही है। हर लेख में आनंद, उल्लास व आत्म-विश्वास जगाने के सूत्र छिपे हुए जीवन यात्रा हैं। हमारे जीवन से नकारात्मक दृष्टिकोण हटे, सोच से लेकर जीवन इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन, व्यक्तित्व, धर्म, समाज, के हर व्यवहार में समग्रता आए, सकारात्मकता आए - यही इस राजनीति, अध्यात्म से जुड़े विभिन्न विषयों पर लेखनी चलाई है। इसमें पुस्तक का सार-संदेश है। आध्यात्मिक विकास के लिए भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित जीने के उसूल गुणस्थान क्रम की सुंदर विवेचना की गई है। धर्मलाभ, चमत्कार, हर शब्द का अपना अर्थ है और अपनी व्याख्या, पर चिंतक अपनी विनय, पदयात्रा, आशावाद, अनुशासन, तप, व्यक्तित्व-विकास, चिंतन शैली से हर शब्द में नई जान फूंक देता है जो न केवल अर्थ का जिनत्व, सेवा, निष्कांक्षा, ध्यान एवं योग साधना, आत्मवाद, मोक्ष, स्पष्टीकरण करती है वरन् जीवन जीने की नई प्रेरणाएँ भी देती है। यह सुमरण जैसे अलग-अलग बिन्दुओं की श्री चन्द्रप्रभ द्वारा की गई पुस्तक उन्हीं प्रेरक वचनों का संकलन है।असे लेकर ह तक लगभग 650 व्याख्या उनके ज्ञान-ध्यान की गहराई की परिचायक है। उनके द्वारा महत्त्वपूर्ण शब्दों की विशेष व्याख्या इस पुस्तक में की गई है। पुस्तक में विवेचित की गई जीवन-यात्रा उत्साह, रोमांच एवं आनंद से भरी हुई दिए गए वचनों में उनके सम्पूर्ण वक्तव्यों का सार भरा हुआ है जो उन्नत है। उनकी हर व्याख्या अन्तरंगीय साधना से भीगी हुई है। वे सुलझे एवं विचारों को बरगद का रूप देने वाले बीजों का काम करता है। सधे हुए चिंतक नज़र आते हैं। इन अध्यायों से हमें आत्म-बोध की इस पुस्तक को पढ़ना अपनी अंगुली को किसी योग्य हाथों में बाँसुरी एवं सांस्कृतिक बोध की संस्कृति सुनाई पड़ती है। उनके पकडाना है जिसके बाद मार्ग की सभी समस्याएँ स्वत: विलीन हो प्रवचन केवल पांडित्य नहीं वरन् प्रज्ञा की प्रखरता से निखरे हुए हैं। जाती हैं। हम जब-जब भी इन स्वर्णिम वचनों का मनन करेंगे, हमें एक संबोधि टाइम्स > 37 For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नई ऊर्जा व सार्थक दिशा उपलब्ध होगी। केवल कृति को पढ़ने से ही प्रस्तुत पुस्तक से पता चलता है कि जीवन जीना वास्तव में पूर्णता नहीं आएगी वरन् जो वचन हृदय को छू जाए उसे बड़े अक्षरों में चुनौतीपूर्ण कार्य है। जो इस चुनौती का सामना करना जानता है उसके लिखकर जहाँ हमारी नज़रें ज़्यादा केन्द्रित होती हैं, वहाँ लगाने से हमारे लिए ज़िंदगी केवल ज़िंदगी नहीं रहती वरन् आनंदपूर्ण ज़िंदगी बन भीतर स्वतः ही कुछ घटित होने लग जाएगा। जीवन की सफलता के ___ जाती है और जो जीवन में मिली चुनौतियों के आगे घुटने टेक देता है लिये ये वचन हमारे लिए अमृत हैं। यद्यपि श्री चन्द्रप्रभ ने गीता पर उसकी ज़िंदगी हताश हो जाती है। ज़िदगी जीने के लिए यह पुस्तक गहरी व्याख्या लिखी है, पर उनकी गीता किसे कहा जाए तो वह है रामबाण औषधि की तरह है। 'जीने के उसल'। खुशहाल जिंदगी बनाने में इसकी अद्वितीय भूमिका कैसे जीएँ मधर जीवन है। हम इसे पवित्र शास्त्र की तरह सदा अपने पास रखें और जब भी हमें ___ इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने मनुष्य जीवन को प्रकृति की सर्वोत्तम मानसिक शक्ति देने वाले टॉनिक की ज़रूरत लगे, हम इसका कोई भी कृति मानते हुए कहा है कि इंसान के पास वह सब कुछ है जो धरती पर पन्ना तत्काल पढ़ लें, हमारे में तुरंत नई ताज़गी, विश्वास और अन्य जीवों के पास नहीं है। मनन करने के लिए मन है, निर्णय लेने के सकारात्मक चेतना का संचार होने लग जाएगा। लिए बुद्धि है, प्रेम करने के लिए दिल है,भावों की अभिव्यक्ति के लिए ऐसी हो जीने की शैली वाणी है। अगर इंसान अपनी क्षमताओं और विशेषताओं का बेहतर इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने जीने की शैली का सीधा-सरल उपयोग करना सीख जीए तो वह मधुर जीवन का मालिक बन सकता रास्ता प्रतिपादित किया है। यह जीवन को हर तरह से समृद्ध बनाने है। हम अपनी क्षमताओं का कैसे बेहतर उपयोग करें और मधुर जीवन वाली पुस्तक है। इसमें परिवार, समाज, धर्म, अध्यात्म, तप-त्याग, के मालिक कैसे बनें? इन्हीं प्रश्नों का बेहतरीन ज़वाब इस पुस्तक में संत-गृहस्थ, हिन्दुत्व की नए ढंग से वर्तमान सापेक्ष व्याख्याएँ हुई हैं। दिया गया है। यह पुस्तक इंसान को चिंतामुक्त जीवन जीने, आत्मविश्वास से भरा प्रस्तत पस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन में मधुरता को इज़ाद करने रहने, प्रतिकूलताओं में प्रतिक्रियाशील न होने, हर कृत्य को प्रभु-पूजा के लिए स्वयं को व्यवस्थित करने, स्वभाव को सुधारने, सोच को मानकर जीवन जीने के सरल गुर देती है। जीवन की हर गतिविधि, हर बेहतर बनाने और योग को आत्मसात करने से जुड़े हुए ऐसे सरल मंत्र अभिव्यक्ति को सौम्य, मधुर और भव्य बनाने में पुस्तक की महत्त्वपूर्ण दिए हैं जिससे जीवन को सम्यक दिशा प्रदान की जा सकती है। भूमिका है। व्यवहार से व्यापार तक, परिवार से समाज तक, सोच से घरको कैसे स्वर्ग बनाएँ वाणी तक, धर्म से अध्यात्म तक, जन्म से मरण तक सब कुछ सत्यम्शिवम् सुन्दरम् की तरह हो, ऐसी दृष्टि घटित करने में यह पुस्तक सूर्य श्री चन्द्रप्रभ ने इस पुस्तक में जीवन के हर हिस्से को सशक्त करने का काम करती है। के लिए बेहतर मार्गदर्शन दिया है। उनके द्वारा घर को स्वर्ग बनाने के गुर, बच्चों का उज्ज्वल भविष्य, सुखी बुढ़ापे का राज, रोग मुक्त जीवन पल-पल लीजिए जीवन का आनंद और सफलता पर दिए गए सूत्रों को आत्मसात कर हम निश्चय ही इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन को आध्यात्मिक तरीके से अपने जीवन को श्रेष्ठ बना सकते हैं। इस पुस्तक में परिवार, बच्चे, जीने की प्रेरणा दी है। व्यक्ति किस तरह पल-पल आध्यात्मिक आनंद बुढापा, रोग-मुक्ति, सफलता जैसे बिन्दुओं पर बहुत ही सुंदर तरीके से को प्राप्त कर सकता है, इसका उन्होंने सरल मार्ग सुझाया है। उन्होंने विश्लेषण हआ है। पुस्तक को पढ़ने से अलग तरह का सुकून मिलता परम्परागत शिक्षा, धर्म और व्यवस्थाओं पर प्रश्नचिह्न खड़े किए हैं। है साथ ही जीवन-निर्माण की प्रेरणा भी। पुस्तक में शब्द, भाव, वे मानवता के मंदिरों का निर्माण चाहते हैं। उन्होंने पुस्तक में जीवन का अभिव्यक्ति, अनुभव सभी का समायोजन देखने योग्य है। यह पुस्तक बोध जगाने, गाली की बजाय गीतों को गुनगुनाने, सरलता की सुवास हमारे लिए जीवन-विकास की नींव का काम करती है। रखने, वर्तमान को गौरवपूर्ण बनाने व हाथ में बुद्धत्व की विरासत रखने शानदार जीवन के दमदार नुस्खे का मार्गदर्शन दिया है। श्री चन्द्रप्रभ वैज्ञानिकता की तुला पर सभी सिद्धांतों को तोलना चाहते हैं। उनकी प्रभु-मंदिरों की बजाय मानवता इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने शानदार जीवन का मालिक बनने का के मंदिरों के निर्माण की पहल करना आदरणीय है। वे जीवन को उन्नत मार्ग थमाया है। वे जीवन द्रष्टा संत हैं एवं जीवन का कल्याण करना देखना चाहते हैं न कि परम्परागत धर्म के नाम पर जीवन को स्वाहा कर उनकी प्रथम प्रेरणा है। उन्होंने जिंदगी के महत्त्व पर प्रकाश डाला है देना। उनके द्वारा तपस्या, धर्म, मुक्ति, सरलता, जीवन पर की गई एवं जीते-जी स्वर्ग सुख को पाने के नुस्खे बताए हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने व्याख्याएँ अद्भुत व आनंदपूर्ण हैं। जीवन को आनंदपूर्ण बनाने के लिए क़िस्मत को जगाने के लिए मन की संकल्प-शक्ति को आवश्यक माना है। उनके द्वारा लाइफ मैनेजमेंट, धर्म,सफलता, इबादत से पहले मदद यह पुस्तक बेशक़ीमती हीरा है। पर की गई व्याख्याएँ अद्भुत हैं। वे जोश भी भरते हैं और होश भी। वाह ! ज़िंदगी प्रस्तुत पुस्तक में उन सभी बातों का बेहद सटीक ढंग से चित्रण इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन को जीवंत बनाने व ऊपर हुआ है जो जीवन को स्वाद से भरती है। पुस्तक का सार-मंत्र इतना है : उठाने का मार्ग प्रशस्त किया है। उन्होंने स्वयं का प्रबंधन करने, जीओ शान से, शुरुआत मुस्कान से। चारों तरफ बिखरी खुशियों को आत्मविश्वास को जगाने, प्रेम को प्रभु की इबादत बनाने, देश की बटोरने के लिए यह पुस्तक गुलाब के फूल का काम करती है। समस्याओं को मिटाने और परिवार को स्वर्ग बनाने जैसे विषयों पर बेहतरीन मार्गदर्शन दिया है व जीवन से जुडी समस्याओं का वैज्ञानिक बातें जीवन की,जीने की समाधान भी प्रदान किया है। इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने आम इंसान के जीवन में प्रतिदिन 38 संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आने वाली समस्याओं का जिज्ञासा-समाधान के रूप में वैज्ञानिक एवं उपर्युक्त साहित्य का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - व्यावहारिक मार्गदर्शन प्रदान किया है। पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ से 15 कैसे बनाएँसमय को बेहतर अलग-अलग विषयों पर पूछे गए सवालों के ज़वाबों का संकलन है। इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने समय को बेहतर बनाने के गुर दिए हर समाधान हमारे सोये हुए आत्मविश्वास को जगाकर हमें भीतर हैं। उनका मानना है, "इस धरती पर सबसे ताक़तवर कोई चीज़ है तो बाहर से मज़बूत बनाने का काम करता है। ख़ुद का प्रबंधन, शांति का वह है समय। जो इसकी कद्र नहीं करता यह उसकी कब्र खड़ी कर देता मूल्य, लक्ष्य, मज़बूत इरादे, विशाल हृदय, स्मरण शक्ति, शादी या है। जिसने समय को जाना, जीया वो समय के पार पहुँच गया। समय के कॅरियर, नारी महत्त्व, शास्त्र-सार, मनोविकार, दिनचर्या से जुड़े मित्र बनने का एक ही रास्ता है: समय के पाबंद बनो।" इस पुस्तक में विविध प्रश्नों के दिए गए उत्तर अँधेरे में खड़े इंसान को सत्यमार्ग पर समय का प्रबंधन कैसे करें,जीवन में कैसे जागे,जीवेषणाओं के चंगल लाकर स्थित करता है। इस पुस्तक के हर पन्ने में तार्किक, से कैसे बचें, इत्यादि विषयों पर श्री चन्द्रप्रभ ने बेहतरीन मार्गदर्शन दिया मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक रहस्य छिपे हुए हैं जो हर व्यक्ति के लिए मील के पत्थर की तरह मार्गदर्शन का काम करते हैं। प्रस्तुत पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने समय की चेतना से हमारी चेतना बेहतर जीवन के बेहतर समाधान को झंकृत करने का प्रयास किया है। उन्होंने अतीत और भविष्य की __ इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने जिज्ञासा को विकास की नींव माना कल्पनाओं में जीने की बजाय वर्तमान में जीने और वर्तमान को धन्य है। वे कहते हैं "जिज्ञासा : आत्मबोध का पहला कदम है। जीवन में करने का श्रेष्ठ मार्ग प्रशस्त किया है। वे कहते हैं, "हमारे हाथ में जिज्ञासा का वही मूल्य है जो किसी प्यासे के लिए पानी का होता है। केवल वर्तमान है और इसी पर उज्ज्वल भविष्य की नींव टिकी है। हम प्यास हो, तो पानी मूल्यवान हो जाता है और जिज्ञासा हो तो, समाधान बीती को बिसारें और हर पल का भरपूर उपयोग करें ताकि जीवन बेशकीमती हो जाया करता है।" इस पुस्तक के हर पृष्ठ में नवनीत अमृत बन सके।" इस तरह यह पुस्तक जागृत होकर जीने व वर्तमान छिपा हुआ है। ऐसे लगता है जैसे प्रश्न और समाधान किसी और के को शक्तिशाली बनाने के लिए दीपशिखा का काम करती है। नहीं वरन् हमारे अपने हैं। पुस्तक को पढ़ते-पढ़ते पाठक जीवन-जगत लक्ष्य बनाएँ, सफलता पाएँ का अध्येता बन जाता है और उसका मूल अस्तित्व प्रकट होने लगता है। सार में कहा जाए तो पुस्तक में जीवन जगत के सम्पूर्ण सत्यों की प्रस्तुत पुस्तक में न केवल लक्ष्य को पाने का मार्ग बताया गया है वरन् उस मार्ग में आने वाली बाधाओं का भी जिक्र किया गया है और झलक एक साथ मिल जाती है। उससे बाहर निकलने के सूत्र भी दिए गए हैं। श्री चन्द्रप्रभ व्यक्ति के चार्ज करेंजिंदगी किसी एक पहलू को ही विकसित देखना नहीं चाहते हैं, वरन् उसके श्री चन्द्रप्रभ ने इस पुस्तक में जीवन के हर पल को आनंद और समग्र व्यक्तित्व का निर्माण चाहते हैं। इस हेतु वे पहले चरण में लक्ष्य उत्सव के साथ जीने के वे अनमोल सूत्र दिए हैं जिन्हें अपनाकर इंसान संधान व पुरुषार्थ करने, दूसरे चरण में मन के बोझ उतारने, तीसरे चरण उतार-चढ़ाव और भागमभाग भरी जिंदगी को भी सार्थक आयाम दे में औरों का दिल जीतने. चौथे चरण में प्रतिक्रियाओं से परहेज रखने. सकता है। जिंदगी का शायद ही ऐसा कोई पहलू बचा होगा जिसके पाँचवें चरण में भय का भत भगाने, छठे चरण में स्वस्थ सोच के स्वामी बारे में इस पुस्तक में सार रूप में मार्गदर्शन न दिया गया हो। घर, बनने व अंतिम चरण में सकारात्मक जीवन-दृष्टि अपनाने की प्रेरणा परिवार, रिश्ते-नाते, बच्चों का भविष्य, नारी, पति-पत्नी, सफलता, देते हैं। श्री चन्द्रप्रभ का मानना है, "अगर व्यक्ति हर कार्य को प्रभु की कॅरियर, अर्थ-प्रबंधन, व्यक्तित्व विकास, पुरुषार्थ, जीवन-शक्ति, पजा मानते हए हर समय व्यस्त व हर हाल में मस्त रहना सीख जाए तो व्यापार, व्यवहार, क्रोध पर विजय, खुशियों भरा जीवन, भाषा शैली, लक्ष्य की राह आसान हो जाती है और पुरुषार्थ की शक्ति स्वतः प्रकट धर्म, प्रार्थना, प्रभु-भक्ति और आत्मविकास के हर बिन्दु पर सीधे दिल होने लगती है।" श्री चन्द्रप्रभ की यह पुस्तक न केवल शाब्दिक दृष्टि को छूने वाली और दिमाग को झकझोरने वाली बातें कही गई हैं। यह सेवरन अर्थ की दृष्टि से भी सीधे हृदय को छने वाली है, जीवन के बारे पुस्तक पढ़ने मात्र से व्यक्ति चमत्कृत हो उठता है। जब भी लगे कि में सोचने के लिए विवश करती है और जिंदगी को केवल काटने की जिंदगी की बैटरी डिस्चार्ज हो गई है आप इस पुस्तक का कोई भी एक बजाय कुछ कर गुज़रने की प्रेरणा देती है। पन्ना पढ़ डालिएगा, आप पाएँगे जैसे जिंदगी पूरी तरह से रिचार्ज हो शांति पाने का सरल रास्ता चुकी है। ___ इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने शांति, सिद्धि और मुक्ति पाने का व्यक्तित्व-निर्माणपरक साहित्य सरल मार्गदर्शन दिया है। वे स्वयं शांतिदूत हैं और उनका पहला संदेश (1) कैसे बनाएँ समय को बेहतर (6) सकारात्मक सोचिए, है : शांत बनो। उन्होंने इस पुस्तक में शांति पाने के आधारभूत तत्त्व, (2) लक्ष्य बनाएँ, सफलता पाएँ सफलता पाइए बाधक तत्त्व और उसके परिणामों पर विस्तृत व्याख्या की है। वे शांति (3) शांति पाने का सरल रास्ता (7) कैसे करें आध्यात्मिक का संदेश देने से पहले यह प्रश्न उठाते हैं कि व्यक्ति सोचे कि उसे क्या (4) क्या करें कामयाबी के लिए विकास और तनाव से बचाव चाहिए? उन्होंने शांति का महत्त्व बताते हुए मन में शांति का चैनल (5) आपकी सफलता आपके हाथ (8)कैसे करें व्यक्तित्व विकास चलाने. मस्कानप्रिय बनने, सहजता व सजगता को अपनाने, ध्यान, (9) कैसे पाएँ मन की शांति (12) कैसे जिएँ चिंता एवं योग और जीवनोपयोगी धर्म को जीवन से जोडने की प्रेरणा दी है। श्री (10) कैसे बनाएँ अपना कॅरियर तनावमुक्त जीवन चन्द्रप्रभ शांति की साधना करने के लिए हर किसी को प्रेरित करते हैं। (11) सफल होना है तो... (13) कैसे खोले किस्मत के ताले उन्होंने शांति को जीवन का मख्य ध्येय होना बताया है। मानसिक शांति संबोधि टाइम्स > 39 For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाने के लिए यह पुस्तक रामबाण औषधि की तरह है। सबका आधार सोच को बताया है। उन्होंने गाँधी के विश्व प्रसिद्ध तीन क्या करें कामयाबी के लिए बंदर - बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो के साथ चौथा बंदर 'बुरा मत सोचो' देकर विश्व को नई देन दी है। इस पुस्तक में न केवल इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने कामयाब होने के 365 सरल गुर सकारात्मक-नकारात्मक सोच के परिणाम बताए गए हैं वरन् व्यक्ति थमाए हैं। वे कहते हैं,"हर इंसान कामयाब होना चाहता है। विद्यार्थी अध्ययन में, व्यापारी व्यापार में, साधक साधना में, पर कामयाब वे ही को नकारात्मकता से मुक्त होने के लिए सरल गुर भी दिए गए हैं। इस पुस्तक में साधारण सोच से ऊपर उठाकर असाधारण सोच का मालिक हो पाते हैं जिनके भीतर कामयाब होने की भरपूर ऊर्जा, उमंग व उत्साह होता है। कामयाब होने वाले कोई नया काम नहीं करते वरन् हर काम बनाने के साथ कामयाबी, आत्मविश्वास, बेहतर स्वभाव और स्वयं को सार्थक दिशा देने के विषयों पर भी श्रेष्ठ विश्लेषण दिया गया है। को नए तरीके से करते हैं।" 'क्या करें कामयाबी के लिए' पुस्तक श्री चन्द्रप्रभ के व्यक्तित्व इस पुस्तक से सिद्ध होता है कि श्री चन्द्रप्रभ सकारात्मक सोच के निर्माण के संदेशों का सार-संकलन है जो नई पीढ़ी को कामयाबी धनी हैं। उन्होंने सोच व सफलता को अनुभवों की आँच में पकाकर दिलाने के साथ जीवन जीने की कला सिखाती है और मानवता को आम जनता को इससे रूबरू करवाया है। जिन्हें विकास के सही मार्ग आध्यात्मिक दिशा प्रदान करती है। इस पुस्तक में भारी-भरकम बातें की तलाश है उनके लिए यह पुस्तक अमृत की तरह है। धर्म, समाज, नहीं, केवल पते की चार बातें हैं, पढो, अपनाओ, जीयो और कर लो परिवार, राष्ट्र एवं विश्व की हर समस्या का समाधान सकारात्मक सोच से कैसे हो सकता है इसका इसमें प्रायोगिक विवेचन हुआ है। यह मात्र दुनिया मुट्ठी में। पुस्तक नहीं बल्कि इसका एक-एक शब्द निष्प्राण चेतना को प्राणवंत वास्तव में, यह पुस्तक 1 दिन नहीं, 365 दिन प्रेरणा का प्रकाश करने की औषधि है। जिनके भीतर आगे बढ़ने की ललक है, उनके दीप थमाती है। इसमें हर दिन के लिए नई बात लिखी गई है। जब भी लिए यह पुस्तक ख़ज़ाना है। हम जगें, पुस्तक को खोलें, पढ़ें और आत्मसात कर लें, हम पाएँगे ये वचन हताश अर्जुन में नई जान फूंकने वाले कृष्ण का काम करेंगे, तब कैसे करें आध्यात्मिक विकास और तनाव से बचाव फिर हर दिन हमारे जीवन में नई गीता जन्म लेगी, नया युद्ध होगा और इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने वर्तमान जीवन की परिस्थितियों का नई जीत होगी। यह पुस्तक अपने आप में सफलता, कॅरियर, जिक्र करते हुए तनाव के मुख्य कारणों का विशद विवेचन किया है। व्यक्तित्व-निर्माण और जीवन विकास को अपने में समेटे हुए उन्होंने तनाव-मुक्ति के ऐसे सरल-सटीक समाधान दिए हैं, जिसे हर उत्साहवर्धक संजीवनी है। हम इसे अपने पास, अपने साथ रखें जो कोई आसानी से अपना सकता है। उन्होंने तनाव मुक्ति के साथ सच्चे मित्र की तरह हमारी रक्षा करेगी। आध्यात्मिक विकास के लिए योगासन, प्राणायाम और ध्यान के आपकी सफलता आपके हाथ वैज्ञानिक प्रयोगों की भी व्याख्या की है। उन्होंने भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित लेश्या-विज्ञान का भी विश्लेषण प्रस्तुत किया है। आज इस पुस्तक में सफलता के शिखर तक पहुँचने की कला सिखाई व्यक्ति से परिवार तक, परिवार से समाज, समाज से देश और देश से गई है। इसमें श्री चन्द्रप्रभ के ऊर्जा भरे प्रवचनों का संकलन है। उन्होंने विश्व तक तनाव की बीमारी पाँव पसार चुकी है। ऐसी स्थिति में बेहतर इसमें श्रम, संघर्ष और कर्मयोग का पाठ सिखाया है। श्री चन्द्रप्रभ का जीवन भविष्य का निर्माण करने के लिए यह पुस्तक बेहद उपयोगी है। मानना है, "पहले 'क' आता है फिर 'ख' अर्थात् पहले कीजिए फिर तनाव मुक्ति के सरल प्रयोगों की प्रस्तुति इस पुस्तक की मुख्य विशेषता खाइए, कर्मयोग से जी मत चुराइए। जो कर्मयोग में सदा तत्पर रहते हैं, है। यह पुस्तक व्यक्ति को उसके जीवन की हकीकतों से मुलाकात सफलता स्वयं उनके चरण चूमती है।" श्री चन्द्रप्रभ ने सफलता के कराती है इसलिए यह पुस्तक वर्तमान इंसान के लिए अनोखा उपहार साथ-साथ संस्कारों के बीज भी जीवन में बोने की प्रेरणा दी है। निश्चय ही, यह पुस्तक न केवल सफलता की ओर बढ़ने वालों के कैसे करें व्यक्तित्व-विकास लिए प्रकाश-दीप का काम करती है वरन् जो असफल होकर हताशा व निराशा की जिंदगी जी रहे हैं उनके लिए भी यह पार लगाने वाली नाव प्रस्तुत पुस्तक रंग की बजाय ढंग और सूरत की बजाय सीरत को का काम करती है। इन अध्यायों में सफलता के लिए उत्साह, निखारने का बेहतरीन मार्गदर्शन प्रदान करती है। पुस्तक में बालआत्मविश्वास, सकारात्मक सोच व हर पल प्रसन्नता को अनिवार्य मनोविज्ञान के अनगिनत रहस्य उजागर हुए हैं। बालकों के व्यक्तित्व माना गया है। यह पुस्तक जीवन में पलने वाली हर तरह की के विकास में स्वयं उनकी एवं माता-पिता की क्या भूमिका हो सकती नकारात्मकताओं से और तनाव से उबरने का भी मार्ग देती है। है इस पर श्री चन्द्रप्रभ ने सुंदर मार्गदर्शन दिया है। प्रस्तुत पुस्तक जीवन-निर्माण, व्यक्तित्व-विकास, कॅरियर और भावनात्मकसकारात्मक सोचिए,सफलता पाइए विकास के लिए टॉर्च का काम करती है। इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने सकारात्मक सोच पर विस्तृत रूप से वास्तव में, आज का बालक आधुनिक हो गया है। 5-6 साल की प्रकाश डाला है। वे सुखी, सफल एवं मधुर जीवन का पहला मंत्र छोटी उम्र में वह टी.वी., कम्प्यूटर, इंटरनेट जैसी वैज्ञानिक टेक्नोलॉजी सकारात्मक सोच को मानते हैं। क्या है सकारात्मक सोच? कैसे बनाएँ से बहुत कुछ सीख जाता है। वह न केवल इनसे ज्ञान का विकास करता सोच को सकारात्मक, क्या हम सकारात्मक सोच के मालिक बन है वरन् अनेक अच्छे-बुरे संस्कारों को भी सीख लेता है। ऐसे में बच्चों सकते हैं? इन्हीं प्रश्नों का समाधान इस पुस्तक में निहित है। श्री के लिए किस तरह बेहतर मार्गदर्शक की भूमिका निभाई जाए, इसके चन्द्रप्रभ ने इंसान क्या बनेगा, कैसा बनेगा, कितना सफल होगा? इन। लिए यह पुस्तक सौ प्रतिशत खरी उतरती है। श्री चन्द्रप्रभ की जिंदगी 140 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Jain Education Thema Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की बारीकियों के प्रति गहरी पकड़ है। उनका नज़रिया बिल्कुल सहज सुहाना बनाने के लिए आत्मविश्वास और असाधारण सोच को व व्यावहारिक है। वे मानव-जाति के विकास में विश्वास रखते हैं । युग आत्मसात् करने की प्रेरणाएँ दी गई हैं । यह पुस्तक जीवन के हर हिस्से की नब्ज को पकडते हुए उन्होंने बाल-मनोविज्ञान पर बेहतरीन पुस्तक को सूरज की तरह रोशनी प्रदान करती है। परिवार, व्यापार, व्यवहार, लिखी है जिससे न केवल नई पीढ़ी लाभ उठा सकती है वरन् पुरानी साधना, सफलता, बचपन, बुढ़ापा, वर्तमान, भविष्य आदि सभी पीढ़ी भी बच्चों के विकास व संस्कार-निर्माण पर बेहतर मार्गदर्शन पहलुओं को सुंदर बनाने के लिए अतिसुंदर मार्गदर्शन इस पुस्तक में प्राप्त कर सकती है। पुस्तक के हर पन्ने में नई जीवन-दृष्टि है। पन्ने- संयोजित हुआ है। यह पुस्तक हर सुबह को सुनहरा बनाने में सौ दर-पन्ने से व्यक्तित्व-विकास व बाल मनोविज्ञान के रहस्य खुलते प्रतिशत समर्थ है। जाते हैं जो नई पीढी को नई ऊर्जा व सार्थक दिशा देने में मील का पत्थर कैसे जिएँक्रोध एवं चिंतामुक्त जीवन साबित होंगे। इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन में अशांति पैदा करने वाले कैसे पाएँ मन की शांति तत्त्वों से मुक्त होने और शांति युक्त जीवन जीने का बेहतरीन मार्गदर्शन पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने मन की शांति को दुनिया की सबसे बड़ी प्रस्तुत किया है। उन्होंने चिंता से मुक्त होने, क्रोध को काबू में करने, दौलत बताया है। उन्होंने इस पुस्तक में मन की शांति के दुश्मनों का जीवन में शांति को साधने, व्यवहार को बेहतर बनाने, बच्चों की बेहतर विस्तृत रूप से विश्लेषण किया है और व्यक्ति किस तरह हर हाल में परवरिश करने, परिवार को खुशहाल बनाने और आहार से आरोग्य को शांत, प्रसन्न, ख़ुश, आनंदपूर्ण रह सकता है इसका श्रेष्ठ मार्गदर्शन दिया साधने के लिए प्रभावी नुस्खे बताएँ हैं। जिन्हें अपनाकर व्यक्ति जीवन है। उन्होंने इसके साथ चिंता, क्रोध, तनाव, बुरी आदतों से बचने के को खुशियों से भरा हुआ व खूबसूरत बना सकता है। श्री चन्द्रप्रभ ने उपाय भी बताए हैं, साथ ही मन की मज़बूती के लिए सरल गुर थमाए विविध विषयों पर सरल, मनोवैज्ञानिक शैली में मार्गदर्शन देकर जीवन को आनंदपूर्ण एवं उत्सवपूर्ण बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने मन की शांति पाने के लिए जो अचूक कैसे खोलें किस्मत के ताले उपाय बताएँ हैं वे बेशकीमती हैं, उन्हें आत्मसात कर व्यक्ति जीवन में इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने किस्मत के बंद तालों को खोलने की बहुत कुछ पा सकता है। शब्दों का सौन्दर्य, अर्थ ही गहराई, भाषा की कला सिखाई है। आज हर कोई कामयाबी के शिखर को छूने में लगा सहजता, विचारों की स्पष्टता ने पुस्तक को प्रभावक एवं संप्रेषणीय है, पर शिखर को छूने का सीधा-सरल और सटीक मार्ग मिल जाए तो बना दिया है। पुस्तक में मन के हर पहलू पर दी गई बेहतरीन अंतर्दृष्टि राह बिल्कुल आसान हो जाए। यह पुस्तक उसी राह को दिखाने वाली लाज़वाब है। इस पुस्तक को पढ़कर व्यक्ति सहजतया मन की शांति टॉर्च है। यह पुस्तक उन लोगों के लिए है जो करना तो चाहते हैं, पर कर को प्राप्त कर सकता है। नहीं पाते, बनना और बढ़ना तो चाहते हैं, पर बन और बढ़ नहीं पाते। कैसे बनाएँ अपना कॅरियर पुस्तक पढ़ते ही तन-मन में एक ऐसा जूनून साकार होने लगता है कि पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने कॅरियर बनाने को बहत बडी साधना हाँ मैं अवश्य कुछ कर सकता हूँ। दुनिया में मेरा होना अकारण नहीं है। बताया है और कॅरियर में बाधक बनने वाली अनेक समस्याओं का पुस्तक इन्द्रधनुषी आभा लिए हुए हैं, इसमें उतरकर हमें ऐसा लगेगा जिक्र किया है। इन समस्याओं से बाहर निकलने के लिए उन्होंने ऊर्जा कि जैसे हम जहाँ पहुँचना चाहते हैं वहाँ का रास्ता एकदम स्पष्ट हो भरे संदेश दिए हैं। उन्होंने आरक्षण की नीति को देश का दुर्भाग्य और गया है। गरीबी को अभिशाप बताया है। वे युवाओं को सरकारी नौकरियों पर पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने किस्मत कैसे जगाएँ, जिंदगी कैसे बदलें, निर्भर रहने की बजाय स्वयं की प्रतिभा को जागृत करने का संदेश देते प्रतिभा को कैसे निखारें, कैसे बोलें, कैसे सोचें और कैसे आत्मविश्वास हैं। उन्होंने सफलता के शिखर तक पहुँचे लोगों का जिक्र करते हुए जगाएँ जैसे बिन्दुओं पर अद्भुत विवेचन किया है। वे कहते हैं, "जीत चिंता-तनाव- गुस्से से बचने और मानसिक विकास व सोच पर ध्यान के लिए एक ही बुनियादी चीज चाहिए, वह है जीत का जज्बा। देने की प्रेरणा दी है। विश्वास रखो, जो चोंच देता है वह चुग्गा भी देता है। जो पुरुषार्थ अंतिम क्षण तक भीतर में जोश व जुनून को बरकरार रखने के लिए करता है उसे परिणाम अवश्य मिलता है। हाँ, इतना जरूर है कि किसी यह पुस्तक कवच का काम करती है। पुस्तक में ऐसे जादुई भरे संदेश को सफलता पहले चरण में मिलती है तो किसी को दसवें चरण में।" उन्होंने जीवन को परिणाम तक पहुँचाने की प्रेरणा दी है। उनका कहना दिए गए हैं जो एक बार मुर्दे में जान फूंक देते हैं । साधारण व्यक्ति को है, "ईश्वर हमें हर रोज 1440 मिनट देता है। बिल क्लिंटन को भी, भी असाधारण लक्ष्य तक पहुँचाने वाली यह पुस्तक सीधे एवं स्पष्ट बिल गेट्स को भी, बॉबी को भी और मुझको व आपको भी। यह तो तरीके से कॅरियर बनाने की राह दिखाती है। पुस्तक का हर पन्ना, हर परिणाम निकालने वाले पर निर्भर करता है कि कौन आदमी उसका शब्द बेशक़ीमती है, बस पीने की जरूरत है, फिर सब कुछ पाना कैसा परिणाम निकालता है।" आसान-सा हो जाता है। श्री चन्द्रप्रभ ने प्रतिभा निखारने के लिए पैंसिल से सीखने व उसके सफल होना है तो... पंचसूत्रों को अपनाने की सीख दी है - 1. समर्पण, 2. संघर्ष, 3. इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने सफलता पाने के लिए पुरुषार्थ के तीर सहनशीलता.4.सधार एवं 5.सिद्धि। उन्होंने सोच को बडी बनाने के को सही निशाने पर लगाने के गुर बताए हैं। वे सफलता को मुश्किल लिए दिमाग को ठंडा रखने, दसरों के सदगण देखने और दिमाग में पर नाममकिन नहीं मानते हैं। इस पुस्तक में जिंदगी की यात्रा को अच्छे विचारों के बीज बोने के मंत्र दिए हैं। वाणी को प्रभावशाली संबोधि टाइम्स > 41 For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनाने के लिए श्री चन्द्रप्रभ ने जो सात बातें कही हैं वे निम्न हैं - अलग तरह का व्यक्तित्व उभरने लगता है। पुस्तक में संवेदना, 1. बोलने से पहले मुस्कुराएँ व अभिवादन करें, 2. अदब से बोलें, 3. नृशंसता, राजनीति, नारी, क्रोध, शांति, सत्य, धर्म जैसे विषयों पर आत्मविश्वास से बोलें, 4. प्रशंसा करते हुए बोलें, 5. श्रेष्ठ बुद्धि का समसामायिक एवं प्रेरणादायी विश्लेषण एवं मार्गदर्शन हुआ है। इस इस्तेमाल करते हुए बोलें, 6. गाली-गलौच न करें और 7. जो भी बोलें पुस्तक में जीवन उत्थान से लेकर नारी, समाज, धर्म, राजनीति और उस पर अटल रहें। श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन का दारोमदार आत्मविश्वास अध्यात्म के हर बिंदु को छूने की कोशिश की गई है। पुस्तक पढ़ने से को माना है और उसे जगाने के लिए सुबह फूर्ति से उठने, प्रतिदिन जीवन-जगत के अनेक रहस्यों से सहज साक्षात्कार होने लगता है। जो सुबह 20 मिनट तेजी से चलने, सीधी कमर बैठने, चेहरे पर हँसी- लोग जीवन में कुछ होना, पाना या उपलब्ध होना चाहते हैं उनके लिए खुशी रखने और वीर हनुमान को आदर्श बनाने की सिखावन दी है। यह पुस्तक श्रेष्ठ मार्गदर्शक का काम करती है। निश्चय ही, यह पुस्तक मुर्दा बन चुकी जिंदगी में प्राण फूंकने का काम निष्कर्ष करती है। नई पीढ़ी को इस पुस्तक का आचमन जरूर करना चाहिए। इस साहित्य-परिचय से निष्कर्ष निकलता है कि श्री चन्द्रप्रभ ने राष्ट्र-निर्माणपरक साहित्य जीवन-निर्माण, व्यक्तित्व-विकास एवं राष्ट्रीय उत्थान से जुड़ा (1) यह है रास्ता...इंसान के जीवंत धर्म का विशाल साहित्य लिखकर विश्व-निर्माण में अथक योगदान दिया है। उनके जीवन-निर्माणपरक साहित्य से आम व्यक्ति का जीवन स्तर (2) अब भारत को जगना होगा (3) प्याले में तूफान। उन्नत हुआ है। लोगों को उमंग, उत्साह एवं आनंदपूर्ण जीवन जीने के उपर्युक्त पुस्तकों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - नए सूत्र प्राप्त हुए हैं। उनकी वजह से पारिवारिक रिश्तों में मिठास बढ़ी यह है रास्ता इंसान के जीवंत धर्म का... है। माता-पिता बच्चों के संस्कार-निर्माण के प्रति जागरूक हुए हैं। इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म के संदर्भ में बिल्कुल भिन्न एवं नया पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के बीच तालमेल पनपा है। लोगों के नज़रिया प्रस्तुत करने की कोशिश की है। वे पिछडे हए ज़मानों के धर्म की शारीरिक एवं मानसिक स्तर में भी कई गुना सुधार हुआ है। आज विश्व बज़ाय इंसान के हाथों में जीवंत धर्म की रोशनी थमाना चाहते हैं जो कि में लाखों पाठक ऐसे हैं, जो प्रतिदिन उनके साहित्य का आचमन कर अखिल मानव जाति का अभ्युदय कर सके। उन्होंने इस पस्तक में एक घर-परिवार और जीवन में नई ताजगी, नया सुकून उपलब्ध कर रहे हैं। तरफ घर-परिवार और समाज को स्वर्गमय बनाने व इंसानियत से मोहब्बत श्री चन्द्रप्रभ का व्यक्तित्व-निर्माणपरक साहित्य विशेष रूप से करने की सिखावन दी है वहीं दूसरी तरफ ईश्वर के अनुग्रह का पात्र बनने युवा पीढ़ी के लिए किसी वरदान से कम नहीं है। इस साहित्य ने जीवन की भी प्रेरणा दी है। धर्म की वास्तविकता सीखने के लिए यह पुस्तक से हताशा दूर कर हजारों युवाओं में आत्मविश्वास की अलख जगाई बेहतरीन मार्गदर्शक का काम करती है। इसमें जीवन निर्माण से लेकर है। उनका साहित्य इतना सरल, रोचक और प्रभावक है कि पढ़ने मात्र व्यक्तित्व विकास तक व समाजोत्थान से लेकर आध्यात्मिक विकास तक से कॅरियर-निर्माण की राह आसान हो जाती है। निश्चय ही, श्री के सभी पहलुओं का समावेश किया गया है। चन्द्रप्रभ का साहित्य युवाओं के लिए कॅरियर एवं प्रबंधन गुरु का काम अब भारत को जगना होगा कर रहा है। इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने भारत और भारतीय संस्कृति को नए श्री चन्द्रप्रभ ने राष्ट्र-निर्माण पर जो साहित्य लिखा है वह राष्ट्रीय अर्थ में प्रकाशित किया है। उन्होंने व्यक्ति को नैतिक, पारिवारिक, विकास में उपयोगी सिद्ध हुआ है। राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान से सामाजिक, राष्ट्रीय मर्यादाओं और मल्यों से जोडा है। वे नैतिकता की जुड़ा उनका चितन विद्वतजनों में भी समादृत रहा है। यद्यपि वर्तमान में पनप्रतिष्ठा करने.परिवार में त्याग का महत्त्व समझाने में सिद्धहस्त हैं। प्रमोद बत्रा, शिवखेड़ा जैसे साहित्यकारों का साहित्य प्रतिष्ठित हुआ है. उन्होंने दन अध्यायों में धर्म की सही समय टीशी पति मटित पर पुस्तकों की कीमत की अधिकता के चलते आम व्यक्ति उनका का भाव रखने और मंदिर जाने की प्रेरणा भी पस्तक में दी गई है। लाभ नहीं उठा पाता है। इस संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ का साहित्य श्री उन्होंने विचार-शक्ति को प्रखर बनाने के लिए ध्यान को अपनाने के जितयशा फाउडशन द्वारा गाता प्रस, गोरखपुर से प्रारत होकर बहुत ही लिए प्रेरित-उत्साहित किया है। इस पुस्तक में उपदेश कम अनुभव कम मूल्य पर उपलब्ध करवाया जाता है, जिसकी वजह से वह हर ज़्यादा हैं। श्री चन्द्रप्रभ इन्हीं अनुभवों से सोये भारत को, हर भारतीय सामान्य से सामान्य व्यक्ति के लिए भी सहज सुलभ है। साहित्य की को जगाना चाहते हैं। उन्होंने स्वयं से लेकर परिवार तक, समाज से सरलता, सुंदरता, सरसता के साथ सस्ता होने की वजह से वह बहुत लेकर राष्ट्र तक, मन से लेकर आत्मा तक हर पहलू को छुआ है और लोकप्रिय हुआ है। इसी की राह चलते हिन्द पॉकेट बुक और पुस्तक इंसान को हर ओर से सर्वश्रेष्ठ बनाने का मार्गदर्शन दिया है। यह पुस्तक महल, दिल्ली जैसे राष्ट्रीय स्तर के प्रकाशकों ने भी श्री चन्द्रप्रभ के उस हर व्यक्ति के लिए उपयोगी है जो स्वयं को कुछ बनाना चाहता है, साहित्य को कम मूल्य में बड़े स्तर पर देशभर में उपलब्ध करवाया है। स्वयं में कुछ जगाना चाहता है अथवा धरती के सृजन में अपनी आहूति अगर श्री चन्द्रप्रभ का साहित्य इसी तरह विस्तृत फैलता चला गया तो समर्पित करना चाहता है। देश का आने वाला कल सुखी, समृद्ध और मधुर जीवन का मालिक होगा। प्याले में तूफान पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने व्यक्ति, समाज, राजनीति और धर्म की कड़वी सच्चाइयाँ उजागर की हैं। इन्हें पढ़ने से व्यक्ति के भीतर एक 42 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 श्री चन्द्रप्रभ का सैद्धांतिक एवं अन्य साहित्य श्री चन्द्रप्रभ्र एक महान दार्शनिक और महान साहित्यकार हैं । उनका साहित्य सागर की तरह विशाल है। उन्होंने साहित्य के जरिए मानव समाज में सामाजिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के बीजों को बोया है। पूरे देश में हर जाति, कौम एवं समाज में उनके विचारों की चर्चा होती है। वे धर्मानुशास्ता हैं, ध्यानयोगी व आत्मज्ञानी संत हैं। उन्होंने सर्वधर्म सद्भाव की मिसाल कायम की है। उन्होंने अपने साहित्य में धर्म, ध्यान-योग, आध्यात्मिक साधना के स्वरूप पर नई दृष्टि प्रतिपादित की है। उन्होंने सभी धर्मों पर प्रकाश डाला है और महापुरुषों में निकटता स्थापित करने की कोशिश की है। उनके सैद्धांतिक साहित्य में धर्मपरक, ध्यानयोग, अध्यात्मपरक और महापुरुषों पर लिखे गए साहित्य को सम्मिलित किया गया है। उन्होंने काव्य-कथापरक साहित्य लिखकर हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है। वे मधुर गायक और गीतकार भी रहे हैं। सैकड़ों भजन, चौपाइयाँ एवं इकतीस रचना कर उन्होंने धर्म को सरस एवं रसमय बनाने में अमूल्य योगदान दिया है। उनके द्वारा सृजित अन्य साहित्य में अनुसंधानपरक, कथाकहानीपरक एवं गीत-भजन-स्तोत्रपरक साहित्य को सम्मिलित किया गया है । उनके व्यावहारिक साहित्य की हम दूसरे अध्याय में चर्चा कर आएँ है । इस अध्याय में हम उनके धर्मपरक, ध्यानयोगमूलक, अध्यात्मपरक, महापुरुषों से सम्बद्ध, अनुसंधानमूलक एवं अन्य साहित्य की चर्चा करेंगे, जो कि इस प्रकार है - धर्मपरक साहित्य (1) क्षमा के स्वर (2) हम विषपायी हैं जनम जनम के (3) जैनत्व का प्रसार सेवा के दायरे में (4) संभावनाओं से साक्षात्कार (5) ज्योति जले बिन बाती (6) हंसा तो मोती चुगै (7) सत्यम् शिवम् सुन्दरम् (10) पंछी लौटे नीड़ में (11) चरैवेति (12) जैन पारिभाषिक शब्दकोश (13) रूपान्तरण (14) पर्युषण प्रवचन (15) धर्म में प्रवेश (16) जीवन में लीजिए (8) स्वयं से साक्षात्कार (9) उड़िए पंख पसार पाँच संकल्प उपर्युक्त साहित्य का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - क्षमा के स्वर इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने क्षमा-धर्म पर बेहतरीन प्रकाश डाला है। उन्होंने क्षमा से जुड़े हर पक्ष पर सुंदर व सरल व्याख्या की है। भाषा For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स 43 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं विचार शैली से पुस्तक समृद्ध है। पुस्तक में जैन-हिंदू एवं बौद्ध प्रधान परम्परा को श्रेष्ठ मानते हैं। उन्होंने सेवा के लिए समता, विनम्रता मतों का भी स्पष्ट जिक्र हुआ है, जिससे पुस्तक ज्ञानार्जन की दृष्टि से के गुणों को आवश्यक माना है। भी महत्त्वपूर्ण बन गई है। पुस्तक की समीक्षा करते हुए डॉ. रमाशंकर संभावनाओं से साक्षात्कार त्रिपाठी (अध्यक्ष, श्रमण विद्या संकाय एवं बौद्ध दर्शन विभाग, इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने अध्यात्म से जुड़े विविध विषयों पर वाराणसी) कहते हैं, "क्षमा के स्वर ग्रन्थ लघुकाय होते हुए भी विचार अपनी मौलिक दृष्टि प्रदान की है। सत्य, अस्तित्व, ईश्वर, मृत्यु, एवं भाषा की दृष्टि से समृद्ध है । श्री चन्द्रप्रभ ने भारतीय संस्कृति की वर्तमान, ध्यान जैसे गूढ़ रहस्यों को उन्होंने इतनी सरलता-सहजता से जैन, हिन्दू और बौद्ध तीनों धाराओं के प्रामाणिक ग्रंथों को आधार समझाया है कि हमें आश्चर्य के साथ विश्वास भी होने लगता है। सभी बनाकर क्षमा के लक्षण, भेद एवं स्वरूप का विवेचन किया है। उन्होंने अध्यायों की शैली व्याख्यात्मक है। विस्तार देने व उसकी प्रामाणिकता विषय को स्पष्ट करने के लिए अनेक दृष्टांतों का उद्धरण दिया है तथा सिद्ध करने में श्री चन्द्रप्रभ सिद्धहस्त नज़र आते हैं। इस पुस्तक में श्री उनके आधुनिक प्रश्न उपस्थित कर उनका समुचित समाधान प्रस्तुत चन्द्रप्रभ ने क्रमश: व्यक्ति को उसके सत्य से साक्षात्कार करवाया है, किया है।" पुस्तक की भाषा-शैली अत्यंत सुगम्य है। इसके स्वाध्याय उसे उसका वास्तविक बोध दिया है। उन्होंने जन्म से लेकर मृत्यु तक से हमें क्षमा पर विभिन्न धर्म-दर्शनों के मतों की भी जानकारी हो जाती और मृत्यु से भी पार पहुँचाने का राजमार्ग बताया है। जीवन में किनहै। क्षमा के माहात्म्य को जानने व क्रोध को जीतने के लिए यह पुस्तक किन मूल्यों को अपनाने की ज़रूरत है इसका भी वे बेहतर मार्गदर्शन बेहद उपयोगी है। देते हैं। उन्होंने ध्यान को सभी संभावनाओं के उजागर होने का मुख्य हम विषपायी हैं जनम-जनम के आधार सिद्ध किया है। स्वयं को जानने, स्वयं में जीने और संसार को इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन में आध्यात्मिक उत्थान के स्वर्ग बनाने की भावना रखने वालों के लिए यह पुस्तक चिराग का काम लिए सरल मार्ग प्रशस्त किया है। वे व्यक्ति को पहले उसकी करती है। वास्तविकता से परिचय करवाते हैं फिर व्यक्तित्व के अनुरूप ज्योति जले बिन बाती मार्गदर्शन देते हैं। उन्होंने इन अध्यायों में व्यक्तित्व के बहुआयामी इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यान, साधना और समाधि से जुड़ा अंगों, आत्मविकास की विविध अवस्थाओं का जिक्र किया है। इस बेहतर मार्गदर्शन प्रदान किया है। उन्होंने सूक्ष्म तत्त्वों की जितनी सरल पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित किए गए 14 व्याख्या की है वह अद्भुत है। पुस्तक में ध्यान से अंतर्यात्रा करने की गुणस्थानों के क्रम की क्रमिक व्याख्या कर व्यक्ति को आत्म-विकास बार-बार प्रेरणा दी गई है। ध्यान क्या? क्यों? कैसे? जैसे प्रश्नों का की ओर बढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया है। इन अध्यायों से मन, चित्त, अलग-अलग तरीके से बहुत ही रोचक तरीके से समाधान दिया गया ध्यान, सत्य, संशय, व्यक्तित्व जैसे बिन्दुओं का स्पष्टीकरण सहज है। साधकों, मुमुक्षुओं, जिज्ञासुओं को जीवन की नई समझ देना इस प्राप्त हो जाता है। आत्मविकास की ओर बढ़ने वाले साधकों के लिए ये पुस्तक की खासियत है। ध्यान की व्यावहारिक, सैद्धांतिक, शास्त्रीय अध्याय उपयोगी हैं। और विवेचनात्मक संपूर्ण जानकारी प्राप्त करने के लिए यह पुस्तक जैनत्व का प्रसार :सेवा के दायरे में बेहद उपयोगी है। ध्यान, समाधि, मन, चित्त, षट्चक्र जैसे गूढ़ तत्त्वों इसमें श्री चन्द्रप्रभ ने जैन धर्म के मानवतावादी सिद्धांतों का जिक्र पर जितनी सरलता से इस पुस्तक में समझाया गया है वह अन्यत्र दुर्लभ करते हए सेवा भाव को श्रेष्ठ बताया है। वे जैन सिद्धांतों को फैलाने के है। पुस्तक को पढ़ते-पढ़ते मानो साधना की भूमिका निर्मित होती चली साथ सेवा धर्म को अपनाने की प्रेरणा देते हैं। जैनत्व का प्रसार : सेवा जाती है। जीवन के आध्यात्मिक रहस्यों को समझने के लिए यह के दायरे में' की व्याख्या करते हए श्री चन्द्रप्रभ ने जैन धर्म को पुस्तक सहादर का काम करता है। मानवतावादी, राष्ट्र-उद्धारक और आत्मोत्थान से जुड़ा सिद्ध किया है। हंसा तो मोती चुगै उन्होंने भगवान महावीर के अहिंसा, करुणा, प्रेम, न्याय, सेवा और इस पस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन को नई दृष्टि से जीने की प्रेरणा विश्व-बंधुत्व जैसे सिद्धांतों को फैलाने की प्रेरणा दी है। उन्होंने धर्म दी है। वे चाहते हैं कि व्यक्ति संसार में रहे, पर हंस-दृष्टि को साथ को मंदिरों-स्थानकों-उपाश्रयों तक सीमित मानने के कारणों का जिक्र रखकर ताकि वह मन के द्वन्द्वों में उलझने से बच सके। उन्होंने हंसकिया है। जैन धर्म की अन्य धर्मों के साथ उन्होंने तुलना भी की है। वे दृष्टि का मार्ग प्रदान करने के लिए पहले जीवन-जगत-अध्यात्म से मुक्ति के पहले शांति को फैलाना ज़रूरी मानते हैं। उन्होंने जिनशासन जुड़े विविध पहलुओं को उजागर किया है फिर यह सोचने के लिए का सार बताते हुए कहा है, "जो तुम अपने लिए चाहते हो, वह औरों प्रेरित किया है कि सत्य क्या है? यह पुस्तक हंस-दृष्टि को उपलब्ध के लिए चाहो, जो स्वयं के लिए नहीं चाहते हो, वही औरों के लिए भी करने में सहयोगी है। व्यक्ति के पास आँख तो है, पर वह दृष्टि नहीं मत चाहो - यही जिनशासन है।" उन्होंने भगवान महावीर के सूत्रों के जिससे वह भीतर की दुनिया देख सके। भीतर के सत्य को समझकर ही आधार पर सेवा को तपस्या और पूजा से भी उत्तम बताया है। उन्होंने व्यक्ति समस्याओं का वास्तविक समाधान प्राप्त कर सकता है। सत्य मदर टेरेसा की सेवा भावना की अनुमोदना करते हुए हर नारी को उसे को समझने में यह पुस्तक रोशनी देने का काम करती है। आदर्श बनाने की प्रेरणा दी है। उन्होंने धर्म के प्रचार के लिए संकुचित सत्यम् शिवम् सुंदरम् विचारों की बजाय विशाल हृदय को अपनाने की बात कही है। वे चार इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने अ से ह तक विविध शब्दों की वर्णों की परम्परा को धर्म-विरोधी बताकर महावीर द्वारा प्ररूपित कर्म- व्याख्याएँ समय के आलोक में नए ढंग से की हैं जो सहज ही हमें - 44 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकर्षित करती हैं और चोट भी मारती हैं। वर्णमाला के हर अक्षर से संबंधित लगभग अस्सी शब्द संगृहीत किए गए हैं। अधूरापन की व्याख्या करते हुए श्री चन्द्रप्रभ ने लिखा है कि " अधूरा काम करने की बजाय न करना ही अच्छा है।" अस्तित्व के संदर्भ में उन्होंने लिखा है कि "मन के शांत हो पर भीतर के शून्य में जिसका अनुभव होता है, वही तुम हो। " चोर के संदर्भ में लिखा कि बड़े चोर समाज के बीच जीते हैं और छोटे चोर कारागार में" परम गुरु कौन? का जवाब देते हुए वे कहते हैं, " आत्मा का सहज स्वरूप ही व्यक्ति का परम गुरु है।" वास्तव में देखा जाए तो हर शब्द की उपयोगिता सिद्ध करने में श्री चन्द्रप्रभ सिद्धहस्त नजर आते हैं। उन्होंने शब्दों की पुरानी व्याख्याओं की बजाय नए सिरे से नई व्याख्याएँ की हैं जो व्यक्ति को सोचने के लिए मज़बूर कर देती हैं। इससे सिद्ध होता है कि श्री चन्द्रप्रभ चलता-फिरता शब्दकोश है। शब्दों की नई व्याख्या का शब्दकोश देखने-जानने के लिए यह पुस्तक नया पुस्तकालय है। स्वयं का साक्षात्कार इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म और ध्यान से जुड़े विभिन्न तत्त्वों पर बेहतरीन प्रकाश डाला है। इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ द्वारा इंदौर ध्यान साधना शिविर के दौरान दिये गए प्रवचनों का संकलन है। ये प्रवचन कम, साधकों से वार्तालाप ज़्यादा हैं। पुस्तक को पढ़कर ऐसा लगता है कि व्यक्ति भीतर का स्नान कर रहा है। उड़िए पंख पसार इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन, जगत से लेकर अध्यात्म तक के विविध बिन्दुओं को छुआ है और सरल शैली में धार्मिक और आत्मिक उत्थान हेतु मार्गदर्शन प्रदान किया है। श्री चन्द्रप्रभ ने इस पुस्तक में जीवन जगत और अध्यात्म से जुड़े लगभग सभी पहलुओं की रोचक व्याख्याएँ की हैं। पुस्तक में सभी प्रवचन क्रमबद्ध रूप से दिए गए हैं जो व्यक्ति को क्रमशः आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। कायोत्सर्ग, लेश्यामंडल, गुणस्थान, अनुप्रेक्षा, विपश्यना जैसे कठिन विषयों को हृदयग्राही भाषा में प्रस्तुति देना निश्चित रूप से मुमुक्षुओं के लिए अभिनंदनीय है । यह पुस्तक किसी बाहरी लोक के दर्शन नहीं करवाती वरन् भीतर के स्वर्ग को ईजाद करने में बेहतरीन भूमिका निभाती है । यह पुस्तक अँधेरे में खड़े इंसान को प्रकाश पथ का अनुगामी बनाने में शत-प्रतिशत खरी उतरती है । पंछी लौटे नीड़ में इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म से जुड़े हुए विविध पहलुओं की मौलिक और समय सापेक्ष व्याख्या प्रस्तुत की है जो व्यक्ति की भ्रमणशील चेतना को स्वयं में लौट आने का आह्वान करती है। पुस्तक का एक-एक सूक्त अपने आप में अनुभव की गहराई लिए हुए है। समस्या से घिरा हुआ व्यक्ति अगर इसके दो चार सूक्त पढ़े, उसे अनुभूत होगा वह समस्या से पार हो चुका है। जो सूक्त हमें सबसे प्रेरक लगे उसे ऐसी जगह टँका दें जिस ओर सहज ही नज़र पड़ जाए, वह हमारे लिए शास्त्र की तरह काम करेगा। जैन पारिभाषिक शब्दकोश 'जैन पारिभाषिक शब्दकोश' एक ऐसी कृति है जो जैन धर्म, दर्शन व संस्कृति की पारम्परिक दुरूह भाषा को सरल बनाता है। हर महापुरुष अपने हिसाब से शब्दों का उपयोग करते हुए अनुभूत सत्य को प्रतिपादित करता है । प्रस्तुत शब्दकोश उन्हीं विशिष्ट शब्दों के विभिन्न अर्थों का ज्ञान प्रदान करता है। धर्म-दर्शनों के गहन अध्येता, महान चिंतक श्री चन्द्रप्रभ द्वारा तैयार किया गया यह सुंदर शब्दकोष न केवल जैन धर्मानुयायियों के लिए उपयोगी है वरन् अन्य मतावलम्बियों के लिए भी कल्याणकारी प्रयास है। यह शब्दकोश जैन धर्म एवं ज्ञानपिपासुओं के लिए बेहद उपयोगी कृति है। इसके माध्यम से हम धर्मदर्शन की गूढ़ता को सहजता से समझ सकेंगे। जब भी कोई पारम्परिक शब्द, जो समझ से बाहर हो, तुरन्त इसका क्रमयुक्त उपयोग कर उसे समझा जा सकता है । हम इस पुस्तक को आस-पास रखें ताकि समयसमय पर हमें मार्गदर्शन मिलता रहे। निश्चय ही यह पुस्तक अर्थ - अंधकार में खड़े लोगों के लिए अर्थवान साबित करने वाली है। रूपान्तरण , इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन के आध्यात्मिक उत्थान से जुड़े हुए विविध विषयों पर अपनी मौलिक दृष्टि प्रदान की है। जीवन रूपांतरण, स्वयं की स्वयं के लिए उपयोगिता, सत्संग का महत्व, मंदिरों का औचित्य, व्रतों का महत्व, वानप्रस्थ का स्वरूप, जीवन में विवेक का महत्त्व ध्यान से चित्त वृत्तियों पर विजय एवं प्रभु भक्ति आदि विभिन्न बिंदुओं पर इस पुस्तक में बेहतरीन मार्गदर्शन दिया गया है। श्री चन्द्रप्रभ ने रूपान्तरण की शुरुआत पुरुषार्थ से कर जीवन को मंदिर और उत्सव पूर्ण बनाने की सीख दी है। वे स्वयं को ही स्वयं के उत्थान - पतन की आधारशिला मानते हैं। उन्होंने उत्थान की ओर बढ़ने के लिए मानव जाति को पुस्तक में अनेक सूत्र दिए हैं। जो व्यक्ति जीवन में सर्वांगीण विकास करना चाहता है उसके लिए यह पुस्तक औषधि का काम करती है। पर्युषण प्रवचन " इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने जैन धर्म के महान आध्यात्मिक पर्व पर्युषण पर्व एवं महान आगम शास्त्र कल्प सूत्र पर विस्तृत प्रकाश डाला है। उन्होंने पर्युषण का अर्थ पर्युषण की आवश्यकता, तीर्थंकरों का जीवन-चरित्र, प्रभावी जैन आचार्यों की परम्परा एवं साधुओं की आचार व्यवस्था की बेहद सरल तरीके से व्याख्या की है। कल्पसूत्र एवं पर्युषण पर्व के रहस्य को संक्षिप्त में समझने के लिए यह पुस्तक प्रकाश स्तंभ का काम करती है। धर्म में प्रवेश - इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने सफल और सार्थक जीवन के आध्यात्मिक नियमों का उल्लेख किया है। स्वर्ग नर्क पुनर्जन्म, पूर्वजन्म, आत्मा-परमात्मा, मुक्ति जैसे तत्त्वों की रोचक एवं क्रमबद्ध तरीके से इस पुस्तक में व्याख्या की गई है। धर्म के प्रयोग परलोक को सुधारने की बजाय वर्तमान जीवन को निर्मल, पवित्र, नैतिक और आनंदपूर्ण बनाने के लिए है। धर्म के सरल एवं आध्यात्मिक स्वरूप को समझने के लिए यह पुस्तक बेहतरीन मार्गदर्शक का काम करती है। जीवन में लीजिए पाँच संकल्प इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन के नैतिक एवं आध्यात्मिक कायाकल्प करने का मार्ग सुझाया है। उन्होंने नैतिकता, धर्म, अध्यात्म For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स 45 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का जो मार्ग बताया है उसमें वर्तमान जीवन को सार्थक दिशा देने वाले रूढ़ परम्पराओं का भी खण्डन किया है। वे व्यक्ति को संसार में रहते मंत्र हैं। जहाँ एक ओर उन्होंने धर्म की युगीन संदर्भो में प्रस्तुति दी है हुए भी समाधि का रसास्वादन करने की सीख देते हैं। उन्होंने संसार वहीं धर्म के रूढ़पंथी स्वरूप को हिलाने की कोशिश की है। और समाधि के रहस्यों को बखूबी तरीकों से उजागर करने की श्री चन्द्रप्रभ ने इस पस्तक के माध्यम से अहिंसा, सत्य, अचोर्य, कोशिश की है। निस्संदेह संसार के सत्यबोध से लेकर समाधि तक के शील और व्यसन-मुक्ति जैसे सिद्धांतों की वर्तमान विश्व को कितनी सफर को पार करने के लिए यह पुस्तक बेहतरीन मार्ग देती है। जरूरत है और इन्हें किस रूप में जीवन में आत्मसात किया जा सकता अप्प दीवो भव है, इस पर सुंदर विश्लेषण प्रस्तुत किया है। श्री चन्द्रप्रभ ने इस पुस्तक इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन-जगत को अंतर्दृष्टि से में धर्म को जो सरल, व्यावहारिक और युगानुरूप बनाने की जो देखकर कुछ अनुभव की बूंदें हमारे सामने बिखेरी हैं । अप्प दीवो भव क्रांतिकारी बातें लिखी हैं वह हर समाज के लिए चिंतनीय है। गुरुतत्त्व में श्री चन्द्रप्रभ के विचारों का संकलन है। असे ह तक क्रमशः लगभग का विवेचन, मंदिरों की आवश्यकता, प्रभु-प्रेम और ध्यान की 616 शब्दों के जीवन सापेक्ष अर्थ देकर श्री चन्द्रप्रभ ने आत्म-क्रांति उपयोगिता पर श्री चन्द्रप्रभ ने जो प्रकाश डाला है वह इंसान को करने का पुरुषार्थ किया है। श्री चन्द्रप्रभ ने इस पुस्तक में शब्दों की आंतरिक समृद्धि प्रदान करने में बेहद कारगर है। वास्तव में, यह भावपूर्ण व्याख्या करके गागर में सागर भर दिया है। व्यक्ति अपनी प्रज्ञा पुस्तक वर्तमान दुनिया को आंतरिक रूप से समृद्ध और सुखी बनाने में से शब्दों के अर्थ को कितनी ऊँचाइयाँ दे सकते हैं, यह इस पुस्तक से एवं अंधेरे में भटकते मुसाफिरों के लिए प्रकाश स्तंभ की तरह है। सिद्ध होता है। अप्प दीवो भव' पुस्तक हमारे भीतर के तमस् को ध्यान-योग एवं अध्यात्मपरक साहित्य हटाकर प्रकाश का उदय करने में दीपक का काम करती है। (1) मैं तो तेरे पास में (13) ध्यान :साधना और सिद्धि ध्यान : क्या और कैसे (2) संसार और समाधि (14) ध्यान का विज्ञान - इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने मानसिक शांति एवं अशांति के (3) अप्प दीवो भव (15) योगमय जीवन जिएँ कारणों को गिनाया है। उन्होंने मन के स्वरूप पर बहुत ही सुंदर प्रकाश (4) ध्यान : क्या और कैसे (16) न जन्म न मृत्यु डाला है। उन्होंने जीवन के समग्र विकास के लिए सरल सूत्र भी बताए (5) ध्यान की जीवंत प्रक्रिया (17) योग अपनाएँ जिंदगी बनाएँ हैं। वे ध्यान को शांति, सिद्धि एवं मुक्ति के लिए आधार रूप में प्रस्तुत करते हैं। ध्यान से जुड़ी समस्त जानकारियाँ बहुत ही सरल रूप में इस (6) चेतना का विकास (18) संबोधि साधना का रहस्य पुस्तक में व्याख्यायित हैं। वास्तव में मन एवं अंतर्मन को सरलता से (7)7 दिन में कीजिए स्वयं का(19) आध्यात्मिक विकास समझने के लिए इस पुस्तक में बेहतरीन मार्गदर्शन दिया गया है। वे कायाकल्प (20) ध्यान योग क्रमशः जीवन के विभिन्न पहलुओं का चित्र खींचते हुए हमें ध्यान की (8) बनना है तो बनो अरिहंत (21) अंतर्यात्रा ओर क़दम बढ़ाने की प्रेरणा देते हैं। ध्यान एवं ध्यान से जुड़े विभिन्न (9) साक्षी की आँख (22) अपने आप से पूछिए : तत्त्वों को समझने के लिए यह पुस्तक बहुत उपयोगी है। (10) मुक्ति का मनोविज्ञान मैं कौन हूँ ध्यान की जीवंत प्रक्रिया (11) संबोधि (23) द योग ध्यान को सीखने के लिए यह पुस्तक बेहद उपयोगी है। ध्यान से (12) प्रेम की झील में ध्यान के फूल (24) द विपश्यना। जुड़े विविध साधकों के अनुभव सुनकर ध्यान करने की सहज प्रेरणा उपर्युक्त साहित्य का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - मिल जाती है। जो लोग ध्यानाभ्यास में रुचि रखते हैं और ध्यान से जुड़े मैं तो तेरे पास में विषयों पर संक्षिप्त में मार्गदर्शन चाहते हैं उनके लिए यह पुस्तक बहुत उपयोगी है। इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने साधना से जुड़े विविध तत्त्वों पर बेहतरीन व स्वतंत्र मार्गदर्शन प्रदान किया है। उन्होंने जीवन, श्वास, चेतना का विकास संसार, मोक्ष, प्रार्थना, साधुता, साधक, ध्यान, समाधि जैसे विविध इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने परमात्मा का नाम लेने या पूजा करने विषयों पर व्याख्या करते हुए इन्हें साधनोपयोगी बनाने का मार्ग प्रशस्त की बजाय भीतर में परमात्म तत्त्व को घटित करने का मार्गदर्शन दिया किया है। इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने कठिन विषयों को सरलता से है। यह पुस्तक व्यक्ति के व्यक्तित्व को पराकाष्ठा तक पहुँचाने का समझाकर गागर में सागर भर दिया है। साधना की सहज यात्रा के लिए मार्ग और उस मार्ग में आने वाली समस्याओं का सरल समाधान प्रस्तुत यह पुस्तक बेशक़ीमती हीरा है जो दिखने में छोटा है, पर क़ीमत में करती है। जीवन को अर्थ देना और अमृततुल्य बनाना इस पुस्तक की हज़ार गुना है। मूलभूत प्रेरणा है। पुस्तक में जीवन में छिपे अमृत को उजागर करने, संसार और समाधि मनुष्य के अंतरंग से मुलाकात करने, चेतना का ऊर्ध्वारोहण करने और इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने संसार के स्वरूप की विविध प्रकार से संसार-सागर से पार पहुँचने संबंधी विषयों पर बेहतरीन मार्ग प्रशस्त विवेचना की है। बाहर के संसार से भी ज्यादा मन के भीतर बसने वाले किया गया है। संसार से मुक्त होने के लिए उन्होंने क्रमशः मार्गदर्शन दिया है। इस प्रस्तुत पुस्तक में जो मनुष्य के भीतर छिपे अनेक तत्त्वों पर जो पस्तक में उन्होंने धर्म संन्यास. ध्यान साधना के नाम पर चलने वाली व्याख्याएं की गई है वह न केवल सरल व रोचक है वरन अनभव की 46 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गहराई से निपजी बातें हैं। पुस्तक में साधना की मोटी-मोटी बातें नहीं हुई हैं वरन् उन्हें प्रेक्टिकल रूप से आत्मसात् करने के सूत्र भी दिए गए हैं। चेतना का विकास करने एवं भीतर का अमृत पाने के लिए यह पुस्तक रामबाण औषधि का काम करती है। 7 दिन में कीजिए स्वयं का कायाकल्प यह पुस्तक ध्यानप्रेमियों के लिए बेहद उपयोगी है। इसके अध्याय में संबोधि ध्यान के प्रेक्टिकल प्रयोग, साधकों की जिज्ञासाओं का समाधान एवं साधकों के अनुभवों का संकलन किया गया है। वास्तव में इसमें ध्यान विधि, ध्यान से जुड़ा मार्गदर्शन, ध्यान से जुड़ी जिज्ञासाओं के समाधानों का बेहतर तरीके से संकलन हुआ है। अगर व्यक्ति पुस्तक में दी गई विधियों से निरंतर साधना के प्रयोग करे तो भीतर के नए सत्यों व तथ्यों की उसे उपलब्धि हो सकती है। ध्यान के माध्यम से शांति, सिद्धि और मुक्ति पाने की चाहत रखने वालों के लिए यह पुस्तक प्रकाशपुंज की तरह है। बनना है तो बनो अरिहंत यह एक अत्यंत सुंदर, भावपूर्ण आध्यात्मिक पुस्तक है। श्री चन्द्रप्रभ ने इस पुस्तक में बने बनाए मार्गों का अनुसरण करने की बजाय सत्य को जानने की प्रेरणा दी है। पुस्तक में भीतर की जड़ों तक पहुँचने के लिए सुझाया गया सरल मार्ग हमारे लिए उपयोगी है। श्री चन्द्रप्रभ का दृष्टिकोण है कि केवल अरिहंत की उपासना करने मात्र से व्यक्ति अरिहंत नहीं बनता। अरिहंत बनने के लिए हमें अपने भीतर के क्रोध, अभिमान, लोभ और मोह जैसे शत्रुओं पर विजय प्राप्त करनी होती है। साक्षी की आँख श्री चन्द्रप्रभ ने इस पुस्तक में भगवान श्री महावीर के आध्यात्मिक सूत्रों पर अपनी दार्शनिक एवं व्यावहारिक शैली में व्याख्या प्रस्तुत की है। पुस्तक को आठ अध्यायों में विभाजित किया गया है। श्री चन्द्रप्रभ ने हर अध्याय में धर्म-दर्शन के विविध पहलुओं को उजागर करते हुए हमें अपने-आपसे मुलाकात करने का मार्ग प्रशस्त किया है। उन्होंने धर्म के नाम पर चलने वाली रूढ़ताओं को हटाने के लिए हर व्यक्ति से आह्वान किया है। श्री चन्द्रप्रभ धर्म-अध्यात्म को नए रूप में पेश करते हैं एवं उन्हें जीवन की निर्मलता एवं पवित्रता घटित करने वाला बताते हैं। जीवन निर्माण से लेकर आध्यात्मिक विकास तक के सफर को तय करने के लिए यह पुस्तक मील के पत्थर का काम करती है। मुक्ति का मनोविज्ञान इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ द्वारा भगवान महावीर के महासूत्रों पर दिए गए अमृत-प्रवचनों का संकलन है। श्री चन्द्रप्रभ मुक्ति के लिए होश व बोध को दो मुख्य आधार स्तंभ मानते हैं। वे कहते हैं, "जीवन इतने होश एवं बोधपूर्वक जिएँ कि मुक्ति का कमल हर क़दम पर खिले ।" इस पुस्तक में मुक्ति को पाने का, महावीर की साधना, अंतर्दृष्टि का स्वरूप, अंतरआत्मा की पीड़ा, आत्मबोध और भयप्रलोभन से जुड़ी जिज्ञासाओं का समाधान आदि विविध विषयों पर अत्यन्त गहराई से व्याख्या प्रस्तुत की गई है। वास्तव में, इतिहास में पहली बार श्री चन्द्रप्रभ ने भगवान महावीर के मुक्तिपरक सूत्रों की वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुति दी है। उन्होंने जीवन और सत्य के अनेक नए पहलुओं से हमें अवगत करवाया है। किताब का हर पत्रा आगे पढ़ने के लिए उत्सुकता पैदा करता है। उन्होंने पुस्तक में मुक्ति से जुड़े गंभीरविषयों को भी व्यावहारिक और मधुर ढंग से प्रस्तुत किया है। मुक्ति के मार्ग पर क़दम बढ़ाने वालों के लिए ही नहीं, मुक्ति के स्वाद से अनभिज्ञ लोगों के लिए भी यह पुस्तक नई दिशा व नई दृष्टि देने का काम करती है। संबोधि इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने संबोधि सूत्र पर मार्मिक एवं आध्यात्मिक प्रवचन दिए हैं, साथ ही साधकों की जिज्ञासाओं का बेहतर समाधान किया है। प्रस्तुत पुस्तक में दशहरा मैदान, नीमच में संबोधि साधना शिविर के अन्तर्गत साधकों को दिए गए प्रवचनों का एवं उनके द्वारा पूछी जिज्ञासाओं के समाधानों का संकलन है। श्री चन्द्रप्रभ ने वर्तमान धर्म, समाज, व्यक्ति का चित्रण करते हुए धर्म, ध्यान व अध्यात्म के प्रयोगों को जीवंत बनाने के कारणों का जिक्र किया है। उन्होंने आंतरिक शुद्धि को मन की शांति के लिए आवश्यक माना है। उनका मानना है, "जब तक व्यक्ति भीतर में नहीं उतरेगा तब तक धर्म-अध्यात्म परिणामदायी नहीं बन पाएँगे, केवल मानसिक संतुष्टि बन जाएँगे।" इस पुस्तक में साधना की जीवन सापेक्ष समझ दी गई है और धर्म के नाम पर चल रही रूढ़िवादिताओं को नकारा गया है। जीवन जीने की अध्यात्मपरक सरल व उत्तम शैली क्या हो सकती है इसका विश्लेषण पुस्तक में वैज्ञानिक तरीके से हुआ है। जो लोग साधना का व्यावहारिक मार्ग प्राप्त करना चाहते हैं उनके लिए यह पुस्तक मील के पत्थर की तरह है। प्रेम की झील में ध्यान के फूल इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने प्रेम के स्वरूप पर सुंदर व्याख्या प्रस्तुत की है। प्रेम को बंधन से मोक्ष में, संसार से संन्यास में बदलने के लिए उन्होंने बेहतरीन मार्गदर्शन दिया है। वे प्रेम में विश्व की हर समस्या का समाधान निहित मानते हैं। उन्होंने महावीर की अहिंसा, बुद्ध की करुणा, मीरा की भक्ति को भी प्रेम का सार बताकर प्रस्तुत किया है। श्री चन्द्रप्रभ प्रेम को विराट नज़रों से देखते हैं और घरपरिवार से प्रकृति और इंसानियत की ओर प्रेम का विस्तार करने की प्रेरणा देते हैं। उन्होंने प्रेम और ध्यान को साधना के दो मार्ग बताकर उनका अंतर्संबंध भी बताया है। प्रेम वास्तव में पवित्र एवं दिव्य मार्ग है जिसके द्वारा व्यक्ति मुक्ति एवं आनन्द को घटित कर सकता है। इस पुस्तक से प्रेम में छिपे साधना एवं वासना के स्वरूपों की स्पष्ट समझ मिलती है। प्रेम को ध्यान की आभा से युक्त बनाने, आत्मविश्वास को जगाने, साधना की दृष्टि निखारने, मौन को जीवन से जोड़ने, अनुप्रेक्षाविपश्यना को समझने और द्रष्टा भाव में स्थित होने के लिए इस पुस्तक में श्रेष्ठ मार्गदर्शन प्राप्त होता है। ध्यान साधना और सिद्धि इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने आध्यात्मिक अभ्युदय के लिए ध्यान एवं योग की अनिवार्यता पर ज़ोर दिया है। जैसे शारीरिक स्वास्थ्य के लिए सम्यक भोजन ज़रूरी है वैसे ही आत्मिक स्वास्थ्य के लिए ध्यान उन्होंने ध्यान-योग से जो उपलब्ध किया उन्हीं अनुभवकणों को इस पुस्तक में संकलित किया है। ध्यान योग एवं संबोधि साधना के रहस्य का मधुर संबोधि टाइम्स 47g For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शैली में इस पुस्तक में लेखांकन हुआ है। भौतिक सुख-सुविधाओं के साथ योगअपनाएँ, ज़िंदगी बनाएँ आंतरिक समृद्धि व शांति को उपलब्ध करके ही व्यक्ति जीवन को वरदान इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने योग को जीवन की समस्याओं के बना सकता है जिसमें ध्यान की भूमिका सर्वांगीण है। ध्यान जैसे जटिल समाधान के आधार-स्तंभ के रूप में प्रस्तुत किया है। योग क्या है? विषय को सहज-सरल शैली में व्यक्ति से रूबरू करवाने में यह पुस्तक इसकी आवश्यकता क्यों है? इसके चमत्कार कैसे होते हैं? इत्यादि अद्भुत अनमोल आईने का काम करती है। प्रश्नों का समाधान इस पुस्तक में बेहतर ढंग से हुआ है। उन्होंने योग ध्यान का विज्ञान को बोध के साथ जोड़ा है। महर्षि पतंजलि द्वारा दिए गए योग के इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यान के गूढ रहस्यों पर विस्तृत अष्टांग मार्गों की इस पुस्तक में वर्तमान संदर्भो में व्याख्या हुई है। प्रकाश डाला है। पुस्तक में ध्यान की व्यक्ति से लेकर विश्व तक की वर्तमान में सबसे कठिन समझे जाने वाले ध्यान को भी यहाँ सरल आवश्यकता व उपयोगिता का सरल शैली में विवेचन किया गया है। स्वरूप में समझाया गया है। प्रस्तुत पुस्तक में दार्शनिक गुरु चन्द्रप्रभ ने ध्यान जैसे नीरस तत्त्व को योग जीवन की अनिवार्यता है। हमें सुखी, सफल एवं मधुर जीवन सरसता के साथ प्रस्तुत किया है। ध्यान जिज्ञासुओं के लिए इससे सरस जीने के लिए योग को अवश्य आत्मसात् करना चाहिए। इस पुस्तक से और सरल पुस्तक शायद ही हो सकती है। व्यक्ति योग को सरल अर्थों में सरलता से समझ सकता है। श्री चन्द्रप्रभ योगमय जीवन जिएँ द्वारा योगसूत्रों पर की गई व्याख्याएँ अदभुत हैं जो उनकी साधना, विद्वता की गहराई को प्रकट करती हैं। अष्टांग योग से जुड़ी समस्त जानकारियाँ प्राप्त इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने योग के विविध आयामों की चर्चा की । करने के लिए यह पुस्तकसौ प्रतिशत खरी उतरती है। है। यहाँ योग का अभिप्राय खेल, योगासन या प्राणायाम से नहीं है। संबोधिसाधना का रहस्य उन्होंने योग के अंतर्गत कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग और ध्यान योग की व्याख्या की है। किस व्यक्ति को कौनसे योग से जुड़ना चाहिए, इस पुस्तक में जोधपुर में आयोजित संबोधि साधना शिविर के इसका मार्गदर्शन भी इस पुस्तक में दिया गया है। योग और जीवन, योग दौरान दिए गए प्रवचनों का संकलन है। श्री चन्द्रप्रभ ने चिंता, तनाव, और प्रार्थना, योग और वीतरागता, योग और समाधि इन सबका परस्पर अशांति से घिरी दुनिया को शांति और आनंद भरी जिंदगी देने के लिए अंतर्संबंध भी सूक्ष्म रूप से इस पुस्तक में समझाया गया है। श्री चन्द्रप्रभ वर्तमान जीवन सापेक्ष संबोधि साधना' का प्रवर्तन किया है। यह तनयोग के संदर्भ में विराट नज़रिया रखते हैं। उन्होंने योग को बहुआयामी मन-जीवन को ऊर्जा, उत्साह एवं आनंद से भरने वाली पद्धति है। श्री रूपों में प्रस्तुत कर योगदर्शन को विस्तार दिया है। शरीर तक सीमित चन्द्रप्रभ ने संबोधि साधना को स्वयं की चिकित्सा करने,मन को अपने रहने वाला योग जीवन से कैसे जड़ सकता है और जीवन में क्या अनुरूप ढालने वाली विधि बताई है। उन्होंने संबोधि साधना को बिखरी हुई शक्तियों के एकीकरण कर उसका सार्थक उपयोग करने चमत्कार घटित कर सकता है, इससे जुड़ी यह पुस्तक वर्तमान में योग का महामार्ग बताया है। इस पुस्तक में संबोधि साधना का व्यावहारिक के प्रति रुचि रखने वालों के लिए अनुपम उपहार है। एवं सैद्धांतिक मार्गदर्शन दिया गया है। इसमें संबोधि ध्यान साधना की नजन्म,नमृत्यु पाँच विधियों का भी जिक्र है। इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने अष्टावक्र गीता के सूत्रों पर व्यक्ति जीवन में बोध एवं होश को आत्मसात कर स्वयं का आध्यात्मिक एवं मार्मिक जीवन-संदेश दिए हैं। वे अष्टावक्र गीता को कायाकल्प कर सकता है। श्री चन्द्रप्रभ के द्वारा अंधकार से प्रकाश की ऋषि अष्टावक्र और राजा जनक के बीच हुए महज संवाद नहीं कहते, ओर बढ़ने का दिया गया सरल मार्ग बेहद उपयोगी है। उन्होंने संबोधि वरन् आध्यात्मिक सत्यों से जुड़ा हुआ शास्त्र कहते हैं। उन्होंने इन सूत्रों साधना का प्रवर्तन करके विश्व-सृजन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। के माध्यम से व्यक्ति को भीतर के तीर्थ की यात्रा करवाई और बंधन की जीवन को तेजोमय बनाने के लिए यह पुस्तक एवं इसमें दिए गए प्रयोग काराओं से रूबरू करवाते हुए उनसे मुक्त होने का सरल मार्ग बताया कल्याण मित्र की तरह हैं। है। वे मोक्ष का मतलब न जन्म न मृत्यु, न पुण्य न पाप, न सुख न दुःख आध्यात्मिक विकास बताते हैं। यह पुस्तक आध्यात्मिक सच्चाइयों से मुलाकात करवाने यह पुस्तक मनुष्य में विद्यमान मनोविकारों से छुटकारा दिलाकर वाली बेहतरीन कुंजी है। उसके अंतर्मन को शांति,शक्ति एवं सौंदर्य प्रदान करती है। श्री चन्द्रप्रभ व्यक्ति अभी बाहर से ही आजाद हुआ है, भीतर से आजाद होने के आत्मविकास को विश्व के सफल एवं महान व्यक्तियों की शक्ति का लिए उसे यह युद्ध और लड़ना है। यह पुस्तक उसी युद्ध की ओर संकेत स्रोत मानते हैं। पुस्तक में उन्होंने अध्यात्म के गूढ़ विषयों को बड़ी ही करती है। स्वयं से मुलाकात करवाने के लिए यह पुस्तक कटिबद्ध है। सरलता से प्रतिपादित किया है। यह पुस्तक उनके द्वारा मसूरी के भीतर से समृद्ध होने के लिए इस पुस्तक में बेहतरीन मार्ग सुझाए गए प्राकृतिक वातावरण में दिये गए प्रवचनों का अमृत संकलन है जो कि हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने इन सूत्रों पर प्रज्ञा भरी दृष्टि डालकर फिर से साधकों के लिए कुंजी की तरह है एवं हर जिज्ञासु को गहरे तक जीवनोपयोगी बना दिया है। देह से उपरत होने, संसार में समाधि के प्रभावित करती है। यह पुस्तक अध्यात्म के विभिन्न पहलुओं से जुडी फूल खिलाने, भोग में योग को जन्म देने व मन की मुक्ति के मालिक गहरी पुस्तक है, जिसे साधक व्यक्ति ही समझ सकता है। अगर व्यक्ति बनने के लिए यह पुस्तक अद्भुत, अनूठी एवं दिव्यमंत्र की तरह है। साधना करते हुए इस पुस्तक का अनुशीलन करे तो जीवन में आध्यात्मिक कायाकल्प हो सकता है। 48> संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान योग श्री चन्द्रप्रभ का मानना है कि पिछले पाँच-छह दशकों में बुद्धि एवं विज्ञान का बहुत विकास हुआ है फिर भी मनुष्य मन के अंधकार से, अज्ञान से उबर नहीं पाया है। परिणामस्वरूप बाहर से सुखी-संपन्न दिखाई देने वाला इंसान भीतर से व्यथित पीड़ित है। इसलिए वह एक ऐसे श्रेष्ठ मार्ग की तलाश में भटक रहा है जो उसे मुक्त कर सके मन की पीड़ाओं से और रसास्वादन दे सके भीतर का श्री चन्द्रप्रभ की यह पुस्तक ऐसे ही श्रेष्ठ मार्ग का मार्गदर्शन देती है। श्री चन्द्रप्रभ ने इस पुस्तक में धर्म-अध्यात्म के सिद्धांतों को विज्ञान की कसौटी पर कसकर आम जनमानस के सामने रखने में सफल हुए हैं। उनकी यह किताब बेहद लोकप्रिय हुई है। प्रस्तुत पुस्तक मनुष्य को मन के अंधकारों से मुक्त करने का वैज्ञानिक मार्गदर्शन प्रदान करती है। और उसके लिए ध्यान साधना को आधार स्तंभ मानकर प्रस्तुत करती है। प्रस्तुत पुस्तक अजमेर में संपन्न हुए संबोधि ध्यान शिविर के दौरान श्री चन्द्रप्रभ के मुख से निःसृत अमृतवाणी एवं साधकों की जिज्ञासाओं के समाधानों का संकलन है। ध्यान मार्ग द्वारा किस तरह इंसान मानसिक एवं आध्यात्मिक सत्यों से रूबरू हो सकता है, उसी मार्गदर्शन से जुड़ी पुस्तक का नाम है ध्यान योग। यह मात्र पुस्तक नहीं, सत्य को प्रकट करने वाली सहज अभिव्यक्ति है । इसमें एक विशेष तरह की गहराई है। इस पुस्तक में व ध्यान विधियों में उतरना किसी रोशनी में उतरना है जिसकी तरंगों से बाहर का नहीं, भीतर का संसार भली-भाँति पहचाना जा सकता है। अंतर्यात्रा इस पुस्तक में माउंट आबू में आयोजित हुए संबोधि साधना शिविर के दौरान श्री चन्द्रप्रभ द्वारा साधकों को दिए गए आध्यात्मिक प्रवचन व उनकी जिज्ञासाओं के समाधान का संकलन है। इसमें अध्यात्म के उस मार्ग की चर्चा है जो हमें भीतर में उतरकर आंतरिक आनंद और सुख से रूबरू करवाता है। श्री चन्द्रप्रभ ने वर्षों की साधना करके जो अनुभव किया उन्हीं रहस्यों को सीधे-सरल शब्दों में यहाँ प्रस्तुत किया गया है । यह पुस्तक हमें भीतर में उतरने की प्रेरणा देती है, उसका मार्ग दिखाती है, मार्ग में आने वाली समस्याओं का समाधान देती है और शांति, मुक्ति, आनंद से भरे पथ पर पहुँचने में श्रेष्ठ भूमिका निभाती है। अध्यात्म के रहस्यों को जानने एवं ध्यान से जुड़ी जिज्ञासाओं का समाधान पाने वालों के लिए यह पुस्तक अनमोल उपहार है। अपने आप से पूछिए मैं कौन हूँ इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने भारतीय दर्शन के इस यक्ष प्रश्न को कि 'मैं कौन हूँ' को सुलझाने की कोशिश की है। उन्होंने सत्य की प्राप्ति के लिए अनुकरण की बजाय एकांत, मौन, ध्यान एवं धैर्य की साधना को उपयोगी बताया है। उन्होंने सत्य का प्रवक्ता बनने की बजाय सत्य का ज्ञाता होना श्रेष्ठ माना है। वे कहते हैं, "प्रवक्ता जानता है और ज्ञाता जानता भी है और जीता भी है।" उन्होंने लगातार स्वयं की विपश्यना करने, सत्संग करने और स्वयं को सार्थक दिशा देते रहने की प्रेरणा दी है। निसंदेह 'मैं कौन हूँ' का बोध देने में यह पुस्तक खरी उतरी है। इसमें साधना से लेकर समाधि तक का क्रमिक मार्गदर्शन दिया गया है। जो जिज्ञासु स्वयं को जानना चाहते हैं, अंधकार से प्रकाश की ओर और प्रकाश से अमृतत्व की और यात्रा करना चाहते हैं उनके लिए यह पुस्तक वरदान स्वरूप है। द योग 03 इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने महर्षि पतंजलि द्वारा रचित योग सूत्र के मुख्य सूत्रों पर बेहतरीन व्याख्या की है। जोधपुर स्थित साधनास्थली संबोधि धाम में साधकों के समक्ष दिए गए आध्यात्मिक प्रवचनों का संकलन इस पुस्तक में हुआ है। वर्तमान में योग की उपयोगिता, योग के सरल प्रयोग, योग के चमत्कार, योग द्वारा अज्ञान से मुक्ति, मानसिक क्लेशों से मुक्ति में योग की भूमिका, योग के आठ अंगों यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का सूक्ष्म एवं सरल वर्णन, योग का सार-संदेश आदि विविध विषयों पर बेहतर तरीके से विश्लेषण इस पुस्तक में किया गया है। उन्होंने योग सूत्र के खास सूत्रों को चुनकर उनके अर्थ, रहस्य और गूढ़ताओं को सहज, सरल एवं सुबोध शैली में हमारे सामने प्रस्तुत किया है। ये प्रवचन योग के प्रवेशद्वार भी हैं और योग को आत्मसात् करने वाली कुंजी भी मानव जाति को यह ग्रंथ हर दृष्टि से रोशनी देने का काम । करेगा। उन्होंने व्यक्ति को प्रतिदिन 1 घंटा योग, प्राणायाम व ध्यान को समर्पित करने की प्रेरणा दी है। उन्होंने नए-पुराने सभी दार्शनिकों व परम्पराओं का भी उल्लेख किया है। उनके वक्तव्यों में तर्क के साथ भाव गहराई भी नज़र आती है। इस पुस्तक में वैज्ञानिक तरीके से योग की जो व्याख्याएँ हुई हैं वे व्यक्ति को योग-ध्यान की ओर बढ़ने और अमन दशा को घटित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। द विपश्यना इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने भगवान बुद्ध द्वारा प्रदत्त की गई साधना पद्धति 'विपश्यना' पर विस्तार से व्याख्या की है। जोधपुर में स्थित अंतर्राष्ट्रीय साधना स्थली संबोधि धाम के साधना सभागार में साधकों के समक्ष किए गए आध्यात्मिक संवादों का संकलन इस पुस्तक में बहुत ही आत्मीय ढंग से किया गया है। इसमें अवगाहन करते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि मानो हम उस शिविर के ही अंग हैं। एक-एक शब्द अनुभव से निःस्तृत होता हुआ हमारे भीतर उतरता है । इन संवादों को पाकर हम निश्चय ही धन्य और आनंदविभोर हो उठेंगे। प्रस्तुत पुस्तक में साधक को किन-किन बातों की सावधानी रखनी चाहिए और साधना की गहराई में कैसे उतरना चाहिए, इसका सटीक मार्गदर्शन है। पुस्तक का एक-एक शब्द अनुभव से निःसृत होता हुआ हमारे भीतर उतरता है। इन संवादों से हम स्वयं में धन्यता एवं आनंददशा का अनुभव करने लगते हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने भगवान बुद्ध के 'महासति पट्टानसुत' का सुंदर विश्लेषण कर हमारे सामने सहज-सरल रूप में प्रस्तुत किया है । 'विपश्यना ध्यान की विशिष्ट विधि है।' इसका अनुशीलन कर अनेक साधकों ने सत्य से साक्षात्कार किया है, दुःखदौर्मनस्य का नाश किया है एवं निर्वाण को उपलब्ध किया है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, विपश्यना पर की गई चर्चा से वे स्वयं भी पुलकित, आनंदित एवं सत्य के रस से अभिभूत हैं। उनके साथ व्यक्ति इसमें उतरकर धीरे-धीरे भीतर के विकारों एवं अंतर्द्वन्द्वों से ऊपर उठने लगता है । पुस्तक का प्रत्येक शब्द, विचार, विलक्षण व अद्भुत है। उनकी For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स 49 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवादयुक्त शैली छोटी-छोटी कहानियों, उदाहरणों व घटनाओं के बनने की प्रेरणा दी है और अंत में महावीर की साधना के रहस्यों को प्रयोग में संवाद मील का पत्थर व दीपशिखा का काम करते हैं। प्रकट किया है। उन्होंने भीतर में छिपे महावीरत्व को प्रकट करने का मार्ग भी सुझाया है। भगवान महावीर द्वारा की गई साधना और महापुरुषों पर साहित्य उसके द्वारा मानव जाति को दिए गए अवधानों को सरल शैली में इस शृंखला के तहत हम श्री चन्द्रप्रभ की उन पुस्तकों को समझने के लिए यह पुस्तक बेहद उपयोगी है। जो व्यक्ति परिवार, समायोजित कर रहे हैं जो उन्होंने अध्यात्म जगत के कुछ विशिष्ट समाज और राष्ट्र के विकास के साथ स्वयं का आध्यात्मिक उत्थान महापुरुषों एवं शास्त्रों पर अपनी ओर से विवेचन और प्रवचन प्रस्तुत करना चाहता है उनके लिए पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ द्वारा दी गई किए हैं। प्रेरणाएँ बेहतरीन मार्गदर्शक की भूमिका निभाती हैं। (1) आत्मा की प्यास बुझानी है तो (7) जागो मेरे पार्थ आत्मदर्शन की साधना (2) मानव हो महावीर (8) जागे सो महावीर इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने महान् अध्यात्म योगी आचार्य (3) महावीर की साधना के रहस्य (9) फिर महावीर चाहिए कुंदकुंद के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'अष्ट पाहुड' की कुछ गाथाओं पर नवीन (4) आत्मदर्शन की साधना (10) आत्मा के लिए अमृत दृष्टि प्रदान की है। उन्होंने कुंदकुंद को अध्यात्म के अनुभव-दृष्टा (5)अमृत का पथ (11) मृत्यु से मुलाकात संत-पुरुष बताते हुए उनके सूत्रों को साधनात्मक क्रांति के लिए (6) मारग साँचा मिल गया (12) महावीर : आपकी और अनमोल रत्न बताया है। उनके गहन सूत्रों को सरलता से समझने के आज की हर समस्या का समाधान। लिए श्री चन्द्रप्रभ की व्याख्याएँ बेशक़ीमती हैं। कुंदकुंद के सूत्रों में साधना का खोखलापन नहीं बल्कि अनुभव की स्पष्टता है। इन सूत्रों उपर्युक्त साहित्य का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - पर श्री चन्द्रप्रभ ने लेखनी चलाकर इन्हें और उपयोगी बना दिया है। आत्मा की प्यास बुझानी है तो... अब तक हमने चारित्र से ज्ञान और ज्ञान से दर्शन की साधना की थी, पर इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने महान योगी आनंदघन के मुख्य पदों कंदकंद ने इस विपरीत यात्रा को सुधारने की प्रेरणा दी है जो कि साधना पर विस्तार से व्याख्या की है। वे आनंदघन को बीसवीं सदी का की दृष्टि से उपयोगी है। इनका चिंतन-मनन करके व्यक्ति मक्ति के 'अमृत-पुरुष' मानते हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने उनके आध्यात्मिक पद नए द्वारों को खोलने में सफल हो सकता है। रचनाओं पर प्रकाश डालकर उन्हें आमजन के लिए उपयोगी बना दिया अमृत का पथ है। चेतना का विकास, आत्म-स्वतंत्रता, गुरु, समता, सुसंगत और समर्पण से जुड़े पदों पर इन अध्यायों में विवेचना हुई है। आनंदघन के इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ द्वारा भगवान बुद्ध के पवित्र शास्त्र पद जितने रसीले-सुरीले हैं उतनी ही उन पर की गई व्याख्याएँ भी 'धम्मपद' के प्रमुख सूत्रों पर मनोहारी व्याख्या की गई है। भगवान बुद्ध रसभीनी हैं। आनंदघन को आमभाषा में समझने व आध्यात्मिक द्वारा 2500 साल पहले मानव जाति के कल्याण हेतु दिए गए सूत्रों संदेशों पर श्री चन्द्रप्रभ द्वारा मौलिक, जीवन-सापेक्ष एवं चारदीवारी से सच्चाइयों को जानने के लिए यह पुस्तक अमूल्य रत्न की तरह है। ऊपर उठकर दिए गए प्रवचनों की श्रृंखला का नाम है 'अमृत का पथ'। मानव होमहावीर पुस्तक की शुरुआत में भगवान बुद्ध के जीवन की विशिष्ट घटनाओं पर ___ इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने धरती पर हुए महापुरुषों के जीवन का प्रकाश डाला गया है। तत्पश्चात् क्रमशः एक-एक सूत्र का उल्लेख करते हुए उनसे धर्म-प्रेरणा लेने की सलाह दी है। वे धरती पर विश्लेषण-विवेचन किया गया है। ये प्रवचन संबोधि धाम, जोधपुर में स्वर्ग की रचना के लिए जीवन को स्वर्ग बनाना ज़रूरी मानते हैं । जीवन साधकों के समक्ष दिए गए हैं। वे इन्हें समझने व आत्मसात् करने के मंदिर जैसा कैसे बने, जीवन और धर्म का अंतर्संबंध, त्रिरत्न का लिए विराट दृष्टि रखने की प्रेरणा देते हैं ताकि हम संबोधि के सागर की स्वरूप, ऊँची सोच कैसे बनाएँ, समय के रहस्य, अंधकार से प्रकाश । ओर अग्रसर हो सकें। भगवान बुद्ध के सूत्रों पर श्री चन्द्रप्रभ द्वारा की गई की यात्रा आदि विषयों पर वर्तमान सापेक्ष चिंतन दिया गया है। श्री व्याख्या अद्भुत एवं अनूठी है। बुद्ध के द्वारा दिए गए लोक चन्द्रप्रभ परम्परागत धर्मों से ऊपर हैं। उन्होंने जीवन को नए संदर्भो में कल्याणकारी सूत्रों को हम आसानी से इस पुस्तक में समझ सकते हैं। प्रस्तुत किया है। पुस्तक की भाषा सरल व दिल को छूने वाली है। इन अगर हम उदार एवं गुणानुरागी बनकर इन सूत्रों का आचमन करें तो ये अध्यायों से हम धर्म, जीवन, ज्ञान, अध्यात्म जैसे बिंदुओं को नए हमारे लिए चमत्कार घटित कर सकते हैं। स्वरूपों में समझ सकते हैं। मानव से महावीर की यात्रा करने की मारगसाँचा मिल गया भावना रखने वालों के लिए यह पुस्तक बेहद उपयोगी है। इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने गुजरात में हुए एक महान् साधक महावीर की साधना के रहस्य श्रीमद् राजचन्द्र के जीवन पर तथा उनसे जुड़ी घटनाओं पर प्रकाश इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने महावीर को पंथ-परम्पराओं, डाला है एवं उनकी साधना से उत्पन्न आत्मज्ञानपरक सूत्रों की सरल सम्प्रदायों से मुक्त करके उनके संदेशों की मूल आत्मा को प्रकट शैली में व्याख्या की है। श्रीमद राजचन्द्र ने गृहस्थ जीवन में रहते हुए किया है। इस पुस्तक में उन्होंने अंतर्मन के संसार को उद्घाटित भी साधना द्वारा भीतर की ऊँचाइयों को छआ था।संत होने के बावज़द किया है और अहिंसा को जीवन की आत्मा बताया है। उन्होंने श्रीमद् राजचन्द्र पर लिखना श्री चन्द्रप्रभ की गुणानुरागी दृष्टि का साक्षी भाव को जितेन्द्रियता का राज बताते हुए स्वयं का मालिक परिणाम है। उन्होंने पिछले छब्बीस सौ सालों में महावीर की ध्यान 50 > संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only पार Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्धति से गुजरने वाले साधक के रूप में उनकी प्रशंसा की है। मात्र है। जो साधना के नए सोपानों को उपलब्ध होना चाहता है, मुक्ति के तैतीस साल की उम्र में गुज़र जाने के बावजूद श्रीमद् राजचन्द्र ने माधुर्य का रसास्वादन करना चाहता है उनके लिए यह पुस्तक अमूल्य अध्यात्म के रहस्यों को उपलब्ध कर लिया और उन्हीं के द्वारा दिए गए निधि है, जिसके एक-एक शब्द पढ़ने मात्र से नई दिशा, नई ऊर्जा, नई मुक्ति, ध्यान, ईश्वर, गुरु, भक्ति, मैं कौन हूँ से जुड़े सूत्रों की व्याख्या आत्मानुभूति होने लगती है। इस पुस्तक में हुई है। फिर महावीर चाहिए श्रीमद् राजचन्द्र वास्तव में अध्यात्म के गहरे पिपासु व्यक्ति थे। इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने भगवान महावीर को नए संदर्भो में उन्होंने अध्यात्म को सही अर्थों में जिया और उससे जो मिला उसे प्रस्तुत करते हुए उनके सिद्धांतों की वर्तमान सापेक्ष व्याख्या की है। बाटत चले गए। अनुभवा से नि:सृत उनक वचन शास्त्रा का तरह विश्व को किस तरह स्वार्थ, हिंसा और दुराग्रहों से बचाया जा सकता आदरणीय हैं। श्री चन्द्रप्रभ की व्याख्या से उनके वचन और अधिक है, इसका मार्गदर्शन देते हुए श्री चन्द्रप्रभ ने महावीर को पुनः समझने सरल एवं जीवंत हो गए हैं। साधकों के लिए श्रीमद् राजचन्द्र के पदों की प्रेरणा दी है। इस धरती को फिर से महावीर की और महावीर के की इन व्याख्याओं से बढ़कर अच्छी पुस्तक नहीं हो सकती है। सिद्धांतों को नए अर्थों में सीखने की आवश्यकता है। अगर ऐसा होगा जागो मेरे पार्थ तो इस धरती पर फिर से प्रेम,शांति और आनंद का शंखनाद हो सकेगा। इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने महान् शास्त्र श्रीमद्भगवतगीता पर जो व्यक्ति महावीर से कुछ सीखना चाहता है, महावीर को नए रूप से जीवन सापेक्ष व वर्तमान सापेक्ष व्याख्या की है। जोधपुर में संपन्न हुई समझना चाहता है, उसके लिए यह पुस्तक दीपक का काम करती है। गीता-प्रवचनमाला का संकलन इस पुस्तक में किया गया है। गीता के आत्मा के लिए अमृत इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ द्वारा अध्यात्म क्षेत्र के तीन चनिंदा चुके हर व्यक्ति को उद्बोधन हैं जो उसके सुप्त व्यक्तित्व को जाग्रत महापुरुषों - आचार्य कुंदकुंद, योगीराज आनंदघन एवं श्रीमद् राजचन्द्र करते हैं। हर अध्याय की व्याख्या न केवल पंथनिरपेक्ष वरन् अद्भुत भी के साधना सूत्रों एवं पदों पर दिए गए प्रवचनों का संकलन किया गया है। इसमें दिए गए प्रवचन इतने रसभीने हैं कि श्री जितयशा फाउंडेशन है। पुस्तक सूत्रात्मक एवं व्याख्यात्मक शैली में लिखी गई है। अलगसक दस सस्करण प्रकाशित हा चुक हा यह पुस्तक एक अलग पदों पर की गई व्याख्याएँ पढ़ने से विशेष तरह का आध्यात्मिक तरह से गीता का पुनर्जन्म है, जिसमें चुनौतियों का सामना करने की सुकून मिलना पुस्तक की विशेषता है। तीनों महापुरुषों के विशिष्ट पदों कला सिखाई गई है। साथ ही कर्म योग, मुक्ति, अनासक्ति, मैत्री, पर की गई श्री चन्द्रप्रभ की व्याख्याएँ अद्भुत एवं आत्मज्ञान से भगवान, ओम्, योग, समर्पण, मन, निर्लिप्तता, सतोगुण, आत्मज्ञान, __ लबालब भरी हुई हैं, जो हमें सहज ही अध्यात्म के मार्ग की ओर क़दम श्रद्धा जैसे विषयों पर अद्भुत व्याख्या की गई है। बढ़ाने की अंतप्रेरणा जगाती हैं। जीवन में महाजीवन की खोज करने के पुस्तक का हर पृष्ठ जीवन-रस से पूर्ण है। यह पुस्तक अपने आप लिए यह पुस्तक सद्गुरु का दिव्य अवदान है। इसका मनन हमें मुक्त में गीता के साथ श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन भी है। उन्होंने आदर्श एवं यथार्थ चेतना का स्वामी बनने में सहयोगी की भूमिका निभाएगा। दोनों का सुंदर चित्रण किया है। इस ग्रन्थ को पढ़कर हर व्यक्ति विजय । मृत्यु से मुलाकात के विश्वास एवं पुरुषार्थ की भावना से स्वतः भर उठता है। इस पुस्तक हर इंसान जीना चाहता है, मरना कोई नहीं चाहता। यह जितना पर टिप्पणी करते हुए तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत ने कहा था कि हर समस्या की घड़ी में यह पुस्तक मेरे लिए समाधान की सच है उतना सच यह भी है कि हर किसी को जीवन में मृत्यु का सामना रामबाण औषधि का काम करती है। गीता पर मैंने ऐसी व्याख्या पहले करना ही पड़ता है, पर मृत्यु क्या है? इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने हर कभी नहीं पढ़ी। व्यक्ति को मृत्यु से साक्षात मुलाकात करवाई है। हम जीवन को किस तरह जिएँ कि मृत्यु भी जीवन की तरह महक उठे, इसी दस्तावेज का जागेसो महावीर नाम है मृत्यु से मुलाकात । ग्रंथ का हर पन्ना आध्यात्मिक सुकून देने __ इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने भगवान महावीर द्वारा अध्यात्म पर वाला है। इसे पढ़कर हम मृत्यु के बोझ से मुक्त होकर जीवंत चेतना के दिये गए संदेश सूत्रों की विवेचन शैली में व्याख्या की है। जो हमें मालिक बन जाएँगे। महावीर से सीधे रूबरू करवाती है साथ ही आध्यात्मिक ऊँचाइयों को महावीर आपकी और आजकी हर समस्या का समाधान छूने की प्रेरणा देती है। श्री चन्द्रप्रभ ने इस पुस्तक में भगवान श्री महावीर द्वारा दिए गए महावीर के सूत्र हर प्राणी के लिए, हर समाज के लिए आवश्यक दिव्य संदेशों को युगीन भाषा में प्रस्तुत किया है। आज मानव और हैं ; साथ ही राष्ट्र और विश्व में शांति, समरसता और सौहार्द को मानव-जाति को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है उनका स्थापित करने में भी ये वैज्ञानिक भूमिका निभाते हैं। महावीर के सूत्रों सीधा और सटीक उत्तर है महावीर : आपकी और आजकी हर समस्या पर श्री चन्द्रप्रभ ने अपनी लेखनी चलाकर 2600 सालों के बाद महावीर का समाधान। श्री चन्द्रप्रभ जैसे चिंतक द्वारा किसी सूत्र की गई व्याख्या को पुनर्जीवित कर दिया है। उन्होंने महावीर के धर्म में आ चुकी को पढ़ना न केवल आनंददायी होता है वरन् जीवन को भी नई दिशा रूढ़ताओं का विरोध कर अनुयायियों को जागृत करने की कोशिश की प्रदान करने वाला सिद्ध होता है। ये प्रवचन आज की मानव-जाति के है जो कि सराहनीय उपलब्धि है। जो भी व्यक्ति महावीर को नए रूपों लिए संजीवनी की तरह है। अगर हम श्री चन्द्रप्रभ की बातों को रुटिन और अर्थों में देखना चाहता है उनके लिए यह पुस्तक वरदान स्वरूप For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स-5100 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की जिंदगी का हिस्सा बनाते हैं तो हमारा घर-परिवार, समाज और कोश भी बन गया है। उन्होंने इस कोश के निर्माण में जैन आगम शास्त्रों विश्व विकास के नये आयाम छू सकता है। एवं प्राकृत साहित्य का उपयोग किया है। अनुसंधानपरक साहित्य प्राकृत भाषा की सूक्तियों के संकलन का कार्य तो अब तक हुआ है, पर सामान्य स्तर पर ही। श्री चन्द्रप्रभ ने इस पर विशेष कार्य किया है (1) आयार-सुत्तं (5) हिंदी सूक्ति-संदर्भ कोश जो उत्तम होने के साथ अभिनंदनीय भी है। प्राकृत-साहित्य सूक्तियों (2) जिनसूत्र (6) खरतरगच्छ का आदिकालीन का ख़जाना है। यह ख़जाना इस ग्रन्थ में प्रस्तुत हुआ है। इसमें प्राकृत(3) प्राकृत-सूक्ति कोश इतिहास साहित्य के प्रसिद्ध ग्रन्थों से आचार-विचार को श्रेष्ठ बनाने वाली (4) महोपाध्याय समयसुंदर :(7) अष्टावक्र गीता सूक्तियों का विषय वर्ण के क्रम से संकलन हुआ है। इस ग्रन्थ में 364 व्यक्तित्व एवं कृतित्व (8) समवाय-सुत्तं । अलग-अलग विषयों पर लगभग 1545 सूक्तियों को लिपिबद्ध किया गया है और 132 प्राकृत साहित्य ग्रंथों का आदरपूर्वक उपयोग हुआ है। उक्त साहित्य का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - जनसाधारण के लिए यह ग्रंथ ज्ञानार्जन में बहुत लाभदायक है एवं आयार-सुत्तं शोधकर्ता और लेखक भी इसके संदर्भ कोश से बहुत फायदा उठा आयार-सुत्त जैन धर्म का पहला आगम शास्त्र है। इसमें भगवान सकते हैं। महावीर की देशना का सार है। इसमें मुनियों के आचारगत सिद्धांतों एवं महोपाध्याय समयसुंदर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व नियमों की विवेचना की गई है। यह न केवल जैन परम्परा के लिए वरन् यह ग्रंथ श्री चन्द्रप्रभ द्वारा 28 वर्ष पूर्व जैन धर्मदर्शन के महान हर परम्परा के लिए प्रकाश-स्तंभ है। इसमें साधना मार्ग पर विद्वान डॉ. सागरमल जैन के निर्देशन में लिखा गया था। इसी ग्रंथ पर सर्वतोभावेन समर्पित होने वालों के लिए विशेष मार्गदर्शन है, साथ ही उन्हें हिंदी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद द्वारा महोपाध्याय की उपाधि भगवान महावीर की साधना का उल्लेख भी है। इसका रचनाकाल प्रदान की गई थी। समयसुंदर के विराट व्यक्तित्व एवं विशाल कृतियों ईसा-पूर्व छठी से तीसरी शताब्दी मध्य है। यह सूत्रात्मक शैली में है। को इस ग्रंथ के माध्यम से सरलता एवं संक्षिप्तता से समझा जा सकता इसकी भाषा अर्धमागधी है। इसमें शांत और वैराग्य रस झलकता है। है। यह ग्रंथ हर रूप से आदर्श बनकर उभरा है, इसमें गहन खोजबीन श्री चन्द्रप्रभ द्वारा इस प्रथम आगम शास्त्र का संपादन एवं अनुवाद की गई है। शोधकार्य किस प्रकार करना चाहिए यह सीखने के लिए किया गया है। यह न केवल हिंदी अनुवाद है, वरन् अनुसंधान भी है। वे भी यह ग्रंथ बेजोड है। आयार-सुत्तं को साधना मार्ग से जुड़ा मील का पत्थर कहते हैं। उन्होंने क्त-संदर्भ कोश तनाव-संताप से झुलसते विश्व को शांति की राह दिखाने में इसकी निर्विवाद उपयोगिता स्वीकार की है। इस ग्रन्थ में श्री चन्द्रप्रभ की सूक्ष्म इस ग्रन्थ में श्री चन्द्रप्रभ ने हिन्दी सूक्तियों का संकलन एवं प्रतिभा सर्वत्र नज़र आती है। अनुवाद एवं भाषा-शैली सरल व सटीक संपादन कर विशाल कोश को प्रस्तुत किया है। इसमें वे सभी तरह की है। इसके अनुशीलन से हमें सहज ही साधना का सूक्ष्म मार्ग समझ में छोटी-बड़ी सूक्तियाँ हैं जिसमें हिन्दी साहित्य की आत्मा छिपी हुई है। आ जाता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में सूक्तियों के साथ संदर्भ ग्रन्थ, पृष्ठ संख्या एवं रचयिता का भी उल्लेख किया गया है जिससे यह सूक्ति कोश के साथ संदर्भ जिन सूत्र कोश भी बन गया है। श्री चन्द्रप्रभ ने इस कोश के निर्माण में प्राचीनइस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर अर्वाचीन सभी हिंदी साहित्य का उपयोग किया है। भगवान महावीर स्वामी द्वारा आम जनमानस को दिए गए संदेशों का हिंदी साहित्य सक्तियों का सागर है, हर विषय की, हर तरह की। सार रूप में संकलन किया है। इसमें मूल प्राकृत के साथ हिन्दी अनुवाद श्री चन्द्रप्रभ ने उनका वैज्ञानिक ढंग से संपादन करके इसे प्रत्येक भी प्रस्तुत है। इसमें 27 विषयों पर 351 गाथा-सूत्र दिए गए हैं। इसकी व्यक्ति के लिए उपयोगी बना दिया है। इसमें साहित्य के प्रसिद्ध ग्रन्थों संरचना में समण-सुत्तं' को आधार बनाया गया है। समण-सुत्तं' जिन से जीवन को समृद्ध करने वाली सूक्तियों का संकलन विषय-वर्ण के धर्म का सर्वमान्य ग्रंथ है। समण-सुत्तं के स्वरूप को अधिक सरल, क्रम से हुआ है। इस ग्रन्थ में 583 अलग-अलग विषयों पर लगभग संक्षिप्त एवं सहज बोधगम्य बनाने के लिए इसकी रचना की गई है। 256 विद्वानों द्वारा रचित हिंदी ग्रन्थों के संदर्भो का उपयोग हुआ है। यह जिन सूत्र में हमारे सामाजिक, नैतिक एवं साधनात्मक जीवन का पथ ग्रंथ न केवल आम जनमानस के लिए वरन् लेखकों एवं प्रवचनकारों के प्रशस्त हुआ है। हम भगवान की वाणी का पुन:-पुन: मनन कर जीवन लिए भी बेहद उपयोगी है। ये सूक्तियाँ मित्र एवं गुरु की तरह सुखका पथ प्रकाशित करें, यही इस पुस्तक की प्रेरणा है। दुःख में साथ निभाने में सहयोगी हैं। दैनिक जीवन में इनका उपयोग प्राकृत-सूक्ति-कोश कर हम आत्म-रूपांतरण के साथ विश्व-रूपांतरण भी कर सकते हैं। इस ग्रन्थ में श्री चन्द्रप्रभ ने प्राकत सक्तियों का संकलन एवं खरतरगच्छ का आदिकालीन इतिहास संपादन कर विशाल कोश को प्रस्तुत किया है। इसमें वे सभी तरह की खरतरगच्छ जैन धर्म की प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण परम्परा है। इसने छोटी-बड़ी सूक्तियाँ हैं जिनमें भारतीय जीवन दर्शन की आत्मा छिपी जैन धर्म में प्रवेश करने वाली शिथिलता को चुनौती दी। आचार्य हुई है। इस ग्रन्थ में सूक्तियों का मूल, हिन्दी अनुवाद, संदर्भ ग्रंथ के जिनेश्वर सूरि, युगप्रधान जिनदत्त सूरि जैसे महान धर्म पुरुषों ने श्रमण साथ सूत्र संख्या भी दी गई है। जिससे यह सूक्ति कोश के साथ संदर्भ जीवन में आए दुराचारों को चीरकर प्रामाणिकता का शंखनाद किया। 52 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म को नया नेतृत्व प्रदान करने में इस गच्छ की मुख्य भूमिका काव्य-कवितापरक साहित्य श्रृंखला रही। उस भूमिका का समय-समय पर लेखा-जोखा किया गया, पर उसे ऐतिहासिक ढंग से प्रस्तुत करने में यह ग्रंथ विशिष्ट स्थान रखता (1) समय के हस्ताक्षर (5) अधर में लटका अध्यात्म (2) ज्योतिर्मुख (6) जिनशासन श्री चन्द्रप्रभ ने शोधपरक शैली एवं विशिष्ट दृष्टि से इसका (3) बिम्ब-प्रतिबिम्ब (7) षड्दर्शन-समुच्चय। संपादन कर विशेष कार्य किया है। उन्होंने 'खरतर' शब्द का अर्थ ___ (4) छायातप (8) प्रतीक्षा तीव्रता, तेजोमयता, शक्तिमयता को बढ़ाने वाला बताया है। उन्होंने उपर्युक्त साहित्य का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - खरतरगच्छ को अभ्युदय, विकास और अभिवर्द्धन की दृष्टि से समय के हस्ताक्षर आदिकाल, मध्यकाल और वर्तमानकाल इस तरह तीन भागों में इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ द्वारा रचित 77 कविताओं का संकलन विभक्त किया है। प्रस्तुत ग्रंथ इस आम्नाय के इतिहास का प्रथम भाग है किया गया है। प्रत्येक कविता दार्शनिक, धार्मिक और नैतिक पक्ष को अर्थात् इसमें आदि काल का विस्तार से विवेचन किया गया है। श्री उजागर करती है। कविता की भाषा-शैली, अभिव्यंजना शक्ति एवं चन्द्रप्रभ ने आदिकाल में ग्यारहवीं से तेरहवीं शताब्दी में हुए घटनाक्रम भावगूढ़ता अनुपम, अनुत्तर व अद्वितीय है। कविताएँ सम्प्रदाय विशेष को लिखा है। उन्होंने आदिकाल को तीन खण्डों में प्रस्तुत किया है। की सीमाओं से बँधी न होने के कारण सर्वभौम और हर व्यक्ति के लिए प्रथम खण्ड में खरतरगच्छ का सिंहावलोकन, दूसरे खण्ड में उपयोगी बन गई हैं। इन कविताओं में मानव जाति के अभ्युदय, विश्वखरतरगच्छ के आदि काल का एवं तीसरे खण्ड में खरतरगच्छ के ___ बंधुत्व एवं विश्व-शांति की उदात्त भावनाएँ प्रस्तुत हुई हैं। कविताओं आदिकालीन ऐतिहासिक पुरुषों का विवेचन है। में उनका चिंतन व अनुभव परिपक्व, परिष्कृत और प्रभावोत्पादक खरतरगच्छ के इतिहास को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करने के लिए नज़र आता है। इन कविताओं में उनकी कवि, साधक और विचारक इस ग्रंथ में उच्च-स्तरीय कार्य किया गया है। यह ग्रंथ इतिहास एवं शोध की एक साथ छवियाँ देखने को मिलती हैं। कविताओं के विश्लेषण से दृष्टि से भी उपयोगी बना है। लेखन में पूर्णरूपेण ऐतिहासिक स्पष्ट होता है कि उनका काव्यगत, भाषागत एवं भावगत सौन्दर्य में दृष्टिकोण उजागर हुआ है। ग्रंथ में श्रुतियों व किंवदन्तियों की बजाय जीवन का यथार्थ धरातल प्रकट हुआ है। श्री चन्द्रप्रभ ने कवि के रूप में ठोस प्रणामों को प्रस्तुत किया गया है। इससे यह बात भी सिद्ध होती है पुरानी रूढ़ियों को त्यागकर अंधानुसरण करने की बजाय संस्कृति के कि दसवीं शताब्दी के बाद का काल जैन परम्परा व खरतरगच्छ के अच्छे तत्त्वों को भारतीय परिवेश में ढालकर अपनी मौलिकता का लिए ज्ञान व साधना की दृष्टि से स्वर्णतुल्य रहा। यह ग्रंथ श्रुत और परिचय दिया है। संयम प्रधान धर्म को जीने की प्रेरणा देने में भी सफल हुआ है। ज्योतिर्मुख अष्टावक्र गीता इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ द्वारा विरचित 36 कविताओं का अष्टावक्र गीता महर्षि अष्टावक्र एवं जनक के बीच किया गया संकलन किया गया है। इन कविताओं में साधना पथ की गतिशीलताओं आत्म-संवाद है जो साधना का दिव्य मार्ग सबके सामने प्रकट करता का चित्रण हुआ है। इनमें जीवन की अनुभूत गहराइयों का प्रस्तुतीकरण है। इसमें 20 अध्याय एवं 308 गाथा सूत्र हैं। श्री चन्द्रप्रभ द्वारा सभी किया गया है। इसकी प्रारंभिक आठ रचनाएँ दर्शन कर आधारित हैं, सूत्रों का सरल शैली में संपादन किया गया है एवं संबोधि सूत्र' के रूप मध्य रचनाएँ जीवन-जगत से संबंधित और अंतिम रचनाएँ में अष्टावक्र गीता का नया स्वरूप प्रकट किया है। व्यावहारिक बोध से जुड़ी हुई हैं। वे सभी जीवों में एक ही ज्योति का समवाय-सुत्तं संचार देखते हैं इसलिए उन्होंने जीवन मात्र में भेद की बजाय अभेद दृष्टि रखने की प्रेरणा दी है। श्री चन्द्रप्रभ की इन कविताओं में दर्शन, समवाय-सुत्तं जैन साहित्य का प्रमुख एवं चतुर्थ अंग आगम शास्त्र जीवन, जगत एवं राष्ट्र प्रेम का समन्वय हुआ है। उनकी भाषा, भाव, है। यह आगम सूत्रों की प्रस्तावना भी है और उपसंहार भी। इसमें ऐसे शैली में अद्भुत साम्य है। वे भारत की आध्यात्मिक परम्परा को चिंतन सूत्र हैं जिनसे इतिहास की झलक मिलती है। कोश शैली के रूप में के रूप में संजोने में सफल हुए हैं। इसमें संख्यात्मक तथ्य प्रस्तुत किए गए हैं। श्री चन्द्रप्रभ द्वारा इस आगम बिम्ब-प्रतिबिम्ब शास्त्र का संपादन किया गया है। वे इसे वैज्ञानिक संभावनाओं को जन्म देने वाला समृद्ध कोश मानते हैं क्योंकि इसमें धरती, आकाश, पाताल यह एक अत्यंत सुंदर काव्यात्मक पुस्तक है। इस पुस्तक में श्री से जुड़े अनेक तथ्य प्रतिपादित हैं। उन्होंने परम्परा से ऊपर उठकर चन्द्रप्रभ द्वारा रचित की गई 74 कविताओं का संकलन किया गया है। इसकी मौलिकता को पेश किया है। वे कहते हैं, "यदि सृजनधर्मी सभी कविताएँ जीवन जगत में चल रही स्व-पर की उधेड़बुन का अनुशीलन किया जाए, तो अतीत की यह थाती वर्तमान के लिए प्रकटीकरण हैं। भावना, परिकल्पना, संभावना, आशंका, दुःशंका, विस्मयकारी रोशनी की धार साबित हो सकती है।" श्री चन्द्रप्रभ की अनुभूति, संवेदन, समरसता के साथ कविताओं में सत्य के संगान का आगमों पर पकड़ गहरी है। उनकी विद्वत्ता सर्वत्र नज़र आती है। पुरुषाथ हुआ है। अनुवाद एवं भाषा का स्तर इतना सरल है कि सहज ही बोधगम्य हो छाया तप जाता है। ग्रंथ में मूल पाठ की विशुद्धता अतिरिक्त विशेषता के रूप में इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ की करुण रस से भरी हुई सैकड़ों प्रस्तुत हुई है। कविताओं का संकलन है। इन कविताओं को पढ़कर लगता है मानो संबोधि टाइम्स »53 For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छायातप महाकवयित्री महादेवी वर्मा की 'यामा' हो। उन्होंने रहस्यमयी सिलसिला - इस पुस्तक में चार बड़ी कहानियों को श्री चन्द्रप्रभ सत्ता के प्रति रागात्मक प्रणय निवेदन, विरहजन्य दुःख, दुःख की ने व्याख्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया है। संवेदनशीलता, प्रकृति में छिपे रहस्य, भविष्य का परम रूप, बाह्य मैंने सना है - इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ के छोटे-छोटे प्रेरणादायी जगत में छिपा परम ध्येय आदि विभिन्न स्थितियों को काव्य के रूप में प्रेरक प्रसंगों का संकलन है, जो हमें सहज ही आनंदविभोर करते हुए ढालकर प्रस्तुत किया है। सन्मार्ग प्रदान करते हैं। अधर में लटका अध्यात्म ज्योति के अमृत कलश - श्री चन्द्रप्रभ ने इस पुस्तक में भगवान इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ द्वारा आत्मा और मन के बीच झूला- बुद्ध, भगवान महावीर एवं संतपुरुषों से जुड़ी घटनाओं को कहानियों झूलते हुए व्यक्ति की दशा का चित्रण कविताओं द्वारा किया गया है। वे के रूप में प्रस्तुत किया है। कहानियाँ छोटी हैं, पर अध्यात्म के मार्ग पर अध्यात्म का मतलब कहने-करने के विभाजन से मक्त दशा को मानते क़दम बढ़ाने के लिए प्रेरणा मंत्रों का काम करने में मुख्य भूमिका हैं। काव्य पुस्तक के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि श्री चन्द्रप्रभ सागर निभाती हैं। पुस्तक में कुल 32 कहानियाँ हैं। को सार में कहने में सिद्धहस्त हैं। हर कविता अपने आप में एक शास्त्र श्री चन्द्रप्रभ की श्रेष्ठ कहानियाँ - इस पुस्तक में नैतिक समाज को समेटे हुए है। ये कविताएँ न केवल अध्यात्म का श्रेष्ठ मार्ग प्रदान एवं संस्कृति के आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना करने वाली कहानियों करती हैं, वरन् जीवन जगत धर्म की वास्तविकताओं का भी बोध प्रदान का संकलन किया गया है। कहानियों के पात्रों का अंतर्द्वन्द्व आधुनिक करती हैं। मनोविज्ञान के अनुकूल है। शीर्षक सटीक है। पुस्तक में श्रृंखलाबद्ध जिनशासन घटनाओं का उल्लेख है। घटनाएँ भले ही अतीत की हैं, पर वर्तमान की इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ द्वारा जिनत्व और निजत्व के परिपूर्ण आभा से युक्त हैं। इन कहानियों में श्री चन्द्रप्रभ की भाषा-शैली की विराट वैभव पर रचित की गई कविताओं का संकलन हुआ है। इनमें प्रभावकता नज़र आती है। उन्होंने वर्णनात्मक, विश्लेषणात्मक एवं भाषा की ताजगी के साथ विश्लेषण की गहराई भी है। इस काव्यकृति संवादशैली का पूर्ण उपयोग किया है। कहानियों के अनुशीलन से स्पष्ट होता है कि श्री चन्द्रप्रभ प्रतिष्ठित कहानीकार हैं,जीवंत चित्रण करने में में ज्ञान और ध्यान का सुंदर क्रम दिया गया है। जिनशासन की कविताएँ वे दक्ष हैं। इनका आचमन कर हम जीवन व समाज में नई दिशा दे क्रमश:सम्पूर्ण जैन साधना को स्पष्ट करती हैं और मुक्ति पथ पर आगे बढ़ने का उद्घोष करती हैं। परमेष्ठी संसार चक्र, आत्मजागरण, सकेंगे। द्विविध आचार-मार्ग, पंचव्रत, दसविध धर्म, षडावश्यक कर्म, बारह अहसास - इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ की चर्चित 15 कहानियों भावना, अध्यात्म मार्ग और तत्त्व दर्शन पर श्री चन्द्रप्रभ ने कविताएँ का संकलन है। परिकल्पना, मनोवैज्ञानिकता, सामाजिक चेतना, रचित की हैं। जिसमें सम्पूर्ण जैन-दर्शन का काव्यात्मक परिदृश्य देशकालीन परिस्थितियाँ एवं व्यक्ति विशेष की विवशताओं से घिरी प्रस्तत होता है। वास्तव में दर्शन और धर्म के क्षेत्र में रचित यह काव्य- हुई इन कहानियों में श्री चन्द्रप्रभ की उस मनोदशा का चित्रण है जिसे कृति जीवन को प्रेरणा देते हुए आज के संत्रस्त युग में शांति की सघन उन्होंने जीवन जगत में अनुभव किया है। हर कहानी की अपनी छाँव उपलब्ध कराती है। विशेषता है। आधुनिक मनोविज्ञान के अनुकूल प्रतीत होने वाली इन कहानियों में विशिष्ट भाषा-शैली के अंतर्गत मधुरता, नैसर्गिकता, षड्दर्शन-समुच्चय परिस्थिति की अनुकूलता का विशेष ध्यान रखते हुए वर्णनात्मक एवं इस पुस्तक में जैन धर्म एवं भारतीय दर्शनों के महान् ज्ञाता पण्डित । विश्लेषणात्मक शैली के साथ कथोपकथन का प्रभावी आश्रय लिया आचार्य हरिभद्र सूरि द्वारा रचित षड्दर्शन-समुच्चय पर श्री चन्द्रप्रभ ने गया है, ताकि कोरे मनोरंजन की बजाय किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति पद्यबद्ध रचना लिखी है, जिसमें षड्दर्शनों का परिचय दर्शन की कुंजी होणार के रूप में प्रस्तुत किया है। यह मूल का परिचय करवाने वाली प्रतिनिधि कृति है। पुस्तक के प्रारंभ में मूल एवं हिन्दी अर्थ दिया गया है गीत-भजनपरक साहित्य तत्पश्चात् बौद्ध, न्याय, जैन, सांख्य, वैशेषिक तथा मीमांसा दर्शन पर (1) जिनेन्द्र चौबीसी (3) संबोधि साधना गीत उन्होंने कविताएँ लिखी हैं, जो गागर में सागर की तरह हैं। सम्पूर्ण (2) प्रार्थना (4) प्रार्थना के पुष्प। भारतीय दर्शनों को श्री चन्द्रप्रभ ने अपनी काव्य प्रतिभा से मात्र कुछ उपर्युक्त साहित्य का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - पंक्तियों में समेट डाला है। पुस्तक के अंत में सरलार्थ सहित जिनेन्द्र चौबीसी - इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म के पारिभाषिक शब्दकोश श्री चन्द्रप्रभ की इस कृति की मुख्य विशेषता है। आदिकर्ता 24 तीर्थंकर महापुरुषों की स्तुति की है। प्रत्येक तीर्थंकर का कथा-कहानीपरक साहित्य एक-एक स्तवन श्री चन्द्रप्रभ द्वारा रचित किया गया है। इस तरह 24 (1) सिलसिला स्तवनों का संकलन इस पुस्तक में हुआ है। प्रत्येक स्तवन में अलग(4) श्री चन्द्रप्रभ की श्रेष्ठ कहानियाँ (2) मैंने सुना है (5) अहसास अलग तरह के गुणों से तीर्थंकरों की भक्ति की गई है। आदिनाथ से लेकर महावीर स्वामी तक हुए 24 तीर्थंकरों की महिमा गाते हुए उनसे (3) ज्योति के अमृत कलश मुक्ति की प्रार्थना की गई है। यह पुस्तक भक्त को भगवान के प्रति उक्त साहित्य का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है - समर्पित होने की प्रेरणा देती है और हमारी श्रद्धा को निर्मल व पवित्र 1854-संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनाती है। प्रत्येक स्तवन की शब्द रचना जीवंत है। भाव, अलंकार, प्रभुमहावीर आपसे क्या चाहते हैं? - श्री चन्द्रप्रभ ने इस पुस्तक शैली, लय की दृष्टि से भी प्रभावी है। इसमें हिन्दी व लोकप्रचलित में भगवान महावीर स्वामी द्वारा प्रदत्त किए गए संदेशों की वर्तमान भाषा का प्रयोग किया गया है। उपयोगिता सिद्ध करते हुए खुद को अरिहंत बनाने, धरती को स्वर्ग प्रार्थना - इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ द्वारा रचित आदिनाथ से बनाने, जिओ और जीने दो को अपनाने और जागृत होकर जीने के लेकर महावीर स्वामी तक हुए 24 तीर्थंकर पुरुषों के गुणानुवाद से युक्त सरल सूत्र थमाए हैं। भजन एवं प्रार्थनाओं का संकलन है। श्री चन्द्रप्रभ प्रार्थना को हृदय और साधना के सुझाव- श्री चन्द्रप्रभ ने इस पुस्तक में संबोधि साधना परमात्मा को हृदयेश कहते हैं। उन्होंने असीम की हर संभावना को का सरल मार्गदर्शन दिया गया है। श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यान के विभिन्न हृदय से ही मुखरित होना बताया है। पुस्तक के भजन हृदय को पहलुओं पर शोध करके संबोधि साधना का मार्ग आम जनता के लिए आनन्दविभोर करते हैं और प्रार्थनाएँ जीवन को पावन कर हमें परमात्मा प्रशस्त किया है। इस पुस्तक में संबोधि साधना क्या है? इसकी क्यों में डूबने का अवसर देती हैं। भाषा, लय, शब्द की दृष्टि से हर स्तवन आवश्यकता है? यह कैसे की जाती है? इसकी सावधानियाँ व प्रार्थना परिपूर्ण है। इसमें हिंदी भाषा का प्रयोग किया गया है। परिणामों पर विस्तृत एवं वैज्ञानिक रूप से समझ प्रदान की गई है। ध्यान संबोधि साधना गीत - इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ द्वारा साधना, क्या है, ध्यान में कैसे प्रवेश करें और ध्यान से पूर्व किन आवश्यक बातों ध्यान, योग, अध्यात्म पर रचित दिव्य गीतों का संकलन है। हर गीत __ का ध्यान रखा जाए, इन प्रश्नों के समाधान का भी इसमें जिक्र किया अपने आप में अद्भुत है जो हमें सहज ही भीतर में उतरने की प्रेरणा गया है। इस पुस्तक में संबोधि ध्यान, मंत्र ध्यान, साक्षी ध्यान, चैतन्य देता है। पुस्तक में उनके द्वारा अष्टापद गीता पर हिन्दी में रचित दोहों ध्यान और मुक्ति ध्यान के नाम से पाँच ध्यान विधियों के साथ ही महर्षि का भी संकलन हआ है। उनकी गीतों से संबंधित दस से अधिक भजन पतंजलि द्वारा प्रदत्त किए गए योग सूत्रों के मुख्य सूत्रों का एवं भगवान कैसेट्स व सीडीज भी हैं। महावीर द्वारा प्रदत्त ध्यान सूत्रों का भी उल्लेख किया गया है। प्रार्थना के पुष्प - इस छोटी-सी पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ द्वारा महक उठे जीवन-बदरीवन - श्री चन्द्रप्रभ ने इस पुस्तक में रचित श्री पारस इकतीसा, गौतम स्वामी इकतीसा, पद्मावती इकतीसा __ सामाजिक विकास में मनुष्य की भूमिका विषय पर विविध रूपों से का सुंदर समावेश हुआ है। आज हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन इस पुस्तक के विवेचन किया है । उन्होंने समाज व व्यक्ति की परस्पर आवश्यकता का माध्यम से प्रभु-भक्ति का रसास्वादन कर रहे हैं। भी जिक्र किया है। वे सामाजिक विकास के लिए परस्पर प्रतिबद्धता अपनाने, शक्ति का रचनात्मक उपयोग करने, समाज से पलायन न फुटकर साहित्य करने, व्यक्तित्व का विकास करने का मार्गदर्शन देते हैं। वे कहते हैं, इस साहित्य के अतिरिक्त श्री चन्द्रप्रभ द्वारा लिखित फुटकर "एक स्पष्टभाषी होने की बजाय विवेकभाषी होना बेहतर है, साहित्य भी उपलब्ध है, जिसमें उनके द्वारा समय-समय पर दिए गए अधिकार मिलना गलत नहीं है, पर दूसरों के अधिकारों का हनन करना संदेशों का संकलन हुआ है। वे निम्न हैं - गलत है और संकोच करने की बजाय संयम बरतना अच्छा है।" (1) कैसे जीतें क्रोध को (7) दादाश्री जिन कुशल सूरि ध्यान यात्रा का सार है आत्मदर्शन - श्री चन्द्रप्रभ ने इस पुस्तक (2) शरीर-शुद्धि का विज्ञान और सप्तम शताब्दी में अध्यात्म के दो मार्ग यथा : ध्यान एवं प्रेम की विस्तृत विवेचना की (3) साधना के सुझाव (8) चलें, फिर एक बार है। उन्होंने ध्यान पर महापुरुषों की वाणी व सूत्रों को प्रकट करते हुए (4) महक उठे जीवन-बदरीवन(9) चिंतन-अनुचिंतन उनके द्वारा दी गई ध्यान विधियों का उल्लेख किया है। उन्होंने ध्यान (5) ध्यानयात्रा का सार है: (10) तीर्थ और मंदिर की भूमिका बताने व उसमें गहराई लाने के लिए जीवन के स्वरूप पर, तन-मन के संबंधों पर सहजतापूर्वक चिंतन का मार्गदर्शन दिया है। (11) अहिंसा और विश्वशांति प्रेम और शांति - इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ के जीवन अनुभवों (6) प्रेम और शांति (12) अमृत संदेश। के अमृत वचनों का संकलन है। असे लेकर ह तक क्रमश: 283 सूक्त उक्त साहित्य का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - हैं। यह पुस्तक गागर में सागर है, जो जीवन में काँटों की बजाय फूल कैसे जीतें क्रोध को - श्री चन्द्रप्रभ ने इस पुस्तक में गुस्से पर खिलाने की प्रेरणा देती है। वे कहते हैं, "वे धन्य हैं जो धनी एवं बहत ही व्यावहारिक एवं मनोवैज्ञानिक शैली में विवेचन किया है। लोकप्रिय होकर भी घमंडी नहीं हैं।" इसमें गुस्से के कारण, परिणाम, प्रभाव एवं जीतने के सूत्र बताए गए हैं। दादाश्री जिनकुशल सूरि और सप्तम शताब्दी - श्री चन्द्रप्रभ ने गुस्से को जीतने के लिए यह पुस्तक सरल मार्ग प्रदान करती है। वे इस पुस्तक में उन्होंने जैन धर्म के महान् आचार्य, प्रभावशाली दादा श्री कहते हैं, "क्रोध तभी कीजिए जब आपके पास क्रोध करने के जिनकुशल सूरि के जीवन-चरित्र पर प्रकाश डालते हुए उनके द्वारा अलावा अन्य कोई विकल्प शेष न हो।" सामाजिक उत्थान में समर्पित की गई महत्त्वपूर्ण भूमिका का वर्णन शरीर-शुद्धि का विज्ञान - श्री चन्द्रप्रभ ने इस पुस्तक में जीवन किया है। की उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए मानव को मंदिर बनने की प्रेरणा धरती को बनाएँ स्वर्ग- श्री चन्द्रप्रभ ने इस पुस्तक में धर्म के नाम दी है। उन्होंने शरीर का महत्व, शरीर विज्ञान एवं शारीरिक स्वास्थ्य के पर चल रही कट्टरताओं को अनुचित ठहराया है। उन्होंने सदाचार एवं सरल सूत्रों पर बहुत उपयोगी मार्गदर्शन दिया है। सद्विचार के साथ परस्पर और सुख के साथ जीने को सर्वश्रेष्ठ धर्म For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स-55 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज बताया है। उन्होंने धार्मिक अनुष्ठानों की वैज्ञानिक विवेचना भी की है। अहम भूमिका निभाई है। 'स्वयं भी सुख से जिओ और औरों को सुख उन्होंने अधर्म पर प्रहार करते हुए धरती पर स्वर्ग निर्माण में धर्म की से जीने दो' की कला के रूप में धर्म की अभिव्यक्ति देकर उन्होंने धर्म उपयोगिता का सुंदर वर्णन किया है। इस पुस्तक में उन्होंने धर्म, जीवन, की आत्मा को पुनर्जीवित किया है। समाज, अध्यात्म परम्पराओं से जुड़ी सैकड़ों जिज्ञासाओं का सुंदर श्री चन्द्रप्रभ द्वारा गढ आध्यात्मिक तत्त्वों की जो सरल एवं सहज समाधान प्रस्तुत किया है। शब्दों में व्याख्या हुई है वह सहज ग्राह्य है। इस तरह की विवेचना अन्यत्र चलें फिर एक बार - श्री चन्द्रप्रभ ने इस पुस्तक में समाज, मिलना कठिन है। उन्होंने अध्यात्म को गुफावास, एकांतवास, कठोर संस्कृति, शिक्षा, धर्म, अध्यात्म, मनोविज्ञान, विकार-निर्विकार, साधना अथवा संन्यास की अनिवार्यता जैसी परम्परागत धारणाओं से मुक्त आचार-विचार, मानवाधिकार, पर्यावरण, नारी, राजनीति और किया है और व्यक्ति को संसार में जीने की आध्यात्मिक कला' बताई है। लोकतंत्र से जुड़े विभिन्न बिंदुओं पर नई एवं उपयोगी विवेचन प्रस्तुत उन्होंने 'संबोधि ध्यान' मार्ग की प्रायोगिक एवं व्यावहारिक विधि देकर किया है। आध्यात्मिक साधना को और अधिक सरल बना दिया है। डॉ. दयानंद चिंतन अनुचिंतन - श्री चन्द्रप्रभ ने इस पुस्तक में अपनी भार्गव ने लिखा है, "श्री चन्द्रप्रभ को मैंने कई बार सुना है और ध्यान पर अनुभूतियों एवं उदात्त विचारों को प्रकट किया है, जो प्रत्येक व्यक्ति उनका पर्याप्त साहित्य है। ध्यान संबंधी इस आधुनिक साहित्य में वर्तमान को आंदोलित कर सुमार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। की समस्याओं के प्रसंग में ध्यान का विशेष रूप से विश्लेषण हुआ है। तीर्थ और मंदिर - श्री चन्द्रप्रभ ने इस पुस्तक में तीर्थ एवं मंदिरों उनक सबाध ध्यान स जुड़ उद्बाधन मनुष्यमात्र का कल्याण पथ पर के संदर्भ में नवीन दृष्टि प्रदान की है। उन्होंने तीर्थ को अध्यात्म का लगाने में निमित्त बनेंगे।" सम्पूर्ण विज्ञान कहा है। उन्होंने धरती पर स्थित अनेक तीर्थों की श्री चन्द्रप्रभ का ध्यान योग एवं अध्यात्मपरक साहित्य व्याख्या एवं वहाँ हुई अनुभूतियों का जिक्र किया है। उन्होंने जीवन को आध्यात्मिक शक्तियों के जागरण के साथ विश्व के उज्वल भविष्य के निर्मल और रोशन करने के लिए तीर्थों में जाने और वहाँ की निर्माण में पथ-प्रदर्शक का काम करता है। श्री चन्द्रप्रभ ने महापुरुषों आध्यात्मिक रश्मियों के सम्पर्क में जीने की प्रेरणा दी है। वे मंदिरों की पर भी विस्तृत साहित्य लिखा है। उन्होंने एक ओर राम, कृष्ण, उपयोगिता भी निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हैं। उन्होंने स्थिर एवं महावीर, बुद्ध, पतंजलि, अष्टावक्र जैसे महापुरुषों के जीवन एवं अस्थिर दोनों प्रकार के मंदिरों की व्याख्या की है। वे जीवन की नैतिक उपदेशों पर बेहतरीन साहित्य लिखा है तो दूसरी ओर परवर्ती युगों में यात्रा मंदिरों से शुरू होना मानते हैं। उन्होंने मंदिरों को पजारियों के हुए आचार्य कुंदकुंद, योगीराज आनंदधन और श्रीमद् राजचन्द्र जैसे भरोसे छोड़ने को अनुचित माना है। उन्होंने मंदिर को रोजमर्रा की साधक-पुरुषों के पदों पर भी आह्लादकारी प्रकाश डाला है। उनके जिंदगी से जोड़ने व घर को भी मंदिर सरीखा रूप देने की प्रेरणा दी है। इस साहित्य से जहाँ महापुरुषों के प्रति आम लोगों का नजरिया विराट __ अहिंसा और विश्व शांति - श्री चन्द्रप्रभ ने इस पस्तक में वर्तमान हुआ है, वहीं सर्वधर्म सद्भाव का भी अद्भुत माहौल बना है। उन्होंने में बढ़ रहे हिंसक शास्त्रों पर चिंता व्यक्त की है। वे विश्व विकास के उपनिषद्, भगवतगीता, आगम, पिटक, अष्टावक्र-गीता, योग सत्र. लिए हिंसा के शास्त्रों को बढ़ाने की बजाय अहिंसा को विस्तार देने की अष्टपाहुड़, समयसार, आनंदधन-पदावली,आत्मसिद्धिशास्त्र आदि के प्रेरणा देते हैं। उन्होंने अहिंसा पर देश-विदेश के मूर्धन्य लेखकों के मुख्य सूत्रा पर युगान सदभा म लखना चलाकर उन्हें सरल आर विचारों को प्रकट करते हुए विश्व शांति के लिए प्रत्येक व्यक्ति का जनापयागा बना दिया है। अहिंसा को स्वीकार करने की सीख दी है। उन्होंने अहिंसा को जीने के श्री चन्द्रप्रभ द्वारा लिखित अनुसंधानपरक साहित्य शोधार्थियों के गुर भी सिखाएँ हैं। लिए विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध हुआ है। उनके द्वारा तैयार किए गए अमृत संदेश - इस पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ द्वारा सन् 1990 में । प्राकृत-सूक्ति कोश और सूक्ति-संदर्भ कोश की विद्वानों ने मुक्त कंठ से जोधपुर चातुर्मास में आयोजित प्रवचनों के दौरान दिए गए संदेशों के प्रशंसा की है। उन्होंने 'जिनसूत्र' के रूप में समस्त जैनागमों की जो सार-सूत्रों का संकलन किया गया है। इन सार सूत्रों में अध्यात्म के नए कुंजी तैयार की है, वह जैन धर्मावलम्बियों के लिए वरदान स्वरूप है। रहस्य समाहित हैं। ये सूत्र मुमुक्षु आत्माओं के लिए अमृत वरदान की उनकी 'खरतरगच्छ का आदिकालीन इतिहास' नामक कृति भी तरह हैं। इतिहास पाठकों के लिए उपयोगी है। श्री चन्द्रप्रभ ने काव्य एवं निष्कर्ष भजनपरक कृत्तियाँ लिखकर हिन्दी-साहित्य को समृद्ध बनाया है। उनकी काव्य-प्रतिभा महादेवी वर्मा और सोहनलाल द्विवेदी जैसे इस अध्याय में समीक्षित साहित्य से निष्कर्ष निकलता है कि श्री राष्ट्रीय स्तर के कवियों द्वारा प्रशंसित हुई है। उनकी कविताएँ एवं भजन चन्द्रप्रभ ने भारतीय संस्कृति के प्राणतत्त्व धर्म, अध्यात्म एवं महापुरुषों माता लिाहा जिनका आचमका हदय को सकन और जीवन के सिद्धांतों से जुड़े विभिन्न महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर विस्तृत साहित्य मोन टिणा मिलती । यद साहित्य जहाँ यवा पीढ़ी के लिए पथलिखकर सांस्कृतिक गरिमा में चार चाँद लगाए हैं। पंथ, परम्परा और प्रदर्शक है वहीं आध्यात्मिक और आंतरिक चेतना के जागरण का क्रियाकांडों में सिमटे धर्म को सार्वजनिक एवं सार्वजनीन बनाकर श्री र चन्द्रप्रभ ने धर्मजगत में क्रांति की है। उनके धर्मपरक साहित्य में जिस श्री चन्द्रप्रभ के कथापरक साहित्य में प्राचीन शास्त्रीय घटना जीवन सापेक्ष एवं मानवीय कल्याण से जुड़े धर्म की अभिव्यक्ति हुई है, प्रसंगों का व्याख्यात्मक एवं विश्लेषणात्मक शैली में विवेचन हुआ है उसने आम व्यक्ति को विशेषकर युवा पीढ़ी को धर्म के निकट लाने में lain.56 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो साथ ही उन्होंने वर्तमान जीवन की स्थितियों से जुड़े घटना-प्रसंगों इस तरह कहा जा सकता है कि श्री चन्द्रप्रभ का साहित्य हर दृष्टि का भी चित्रण किया है। कहानियों में इतनी रसमयता एवं प्रभावकता है से परिपूर्णता लिए हुए है। उनकी साहित्यिक विधा से सर्वतोमुखी कि वे पुनः-पुनः पढ़ने की आतुरता पैदा करती हैं, तो दूसरी ओर जीवन प्रतिभा का सहज ज्ञान हो जाता है। उनके 1000 से अधिक साहित्यिक को आदर्श युक्त बनाने की सीख देती हैं। लेख राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में छप चुके हैं एवं सैकड़ों डॉ. वेंकट प्रकाश शर्मा का मानना है."श्री चन्द्रप्रभ की कहानियाँ पुस्तकों की समीक्षाएँ प्रकाशित हुई हैं। विद्वानों द्वारा लिखित स्वयं परिकल्पना, मनोवैज्ञानिकता, सामाजिक चेतना, देशकालीन उन्होंने सैकड़ों पुस्तकों में सम्पादक की भूमिका निभाई है एवं परिस्थितियाँ एवं व्यक्ति विशेष की सीमाबद्ध विशेषताओं से यक्त हैं। समीक्षाएँ लिखी हैं। श्री चन्द्रप्रभ के साहित्य पर राष्ट्रीय स्तर के विद्वानों उनमें अतीत, वर्तमान और भविष्य के त्रिविध सूत्रों का समन्वय है। ने सकारात्मक अभिमत रखे हैं। डॉ. मदनराज मेहता कहते हैं, "श्री समरसता और मानवीयता के धरातल से युक्त उनकी कहानियाँ सामान्य चन्द्रप्रभ अपने चारों ओर के जीवन के सरोकारों के कुशल पर्यवेक्षक तथा प्रबुद्ध पाठक वर्गों को ज्ञानवर्धक कराकर उन्हें सकारात्मक चिंतन हैं। उनकी प्रतिभा सार्वभौमिक चेतना व मानव नियति के साथ जुडकर की सूक्ष्म और गहरी जीवन-दृष्टि उपलब्ध करा सकेंगी।" कुल निखरी है। जटिल से जटिल दार्शनिक एवं बौद्धिक तत्त्व उनके मिलाकर श्री चन्द्रप्रभ का कथाशिल्प अनूठा एवं प्रभावी है। इस साहित्य में सरल एवं सुबोध प्रतीत होते हैं। सभी आलेख परम्परा से साहित्य के अतिरिक्त श्री चन्द्रप्रभ का समय-समय पर फुटकर साहित्य ओत-प्रोत होते हुए भी परिपाटी से मुक्त हैं। उनके आलेखों में सत्य के भी प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने शरीर-शुद्धि, क्रोध-मुक्ति, प्रेम लिए आग्रह और उसी के अनुषंग रूप में एक पारदर्शी शैली एवं उदार और विश्वशांति, अहिंसा, तीर्थ-महिमा, ध्यान साधना जैसे बिन्दुओं दृष्टिकोण से मन को रूपांतरित करने की अदम्य ऊर्जा है।" संस्कृत के को छुआ है। श्री चन्द्रप्रभ के दिव्य वचनों पर आधारित वार्षिक एवं प्रतिष्ठित विद्वान आचार्य विश्वनाथ द्विवेदी ने लिखा है - मासिक टेबल कलैण्डर भी बहुतायत मात्रा में उपलब्ध है, जिनमें से महोपाध्याय श्री चन्द्रप्रभ सागर जीवकः। कुछ नाम इस प्रकार हैं लब्धप्रतिष्ठो विख्यातः सञ्जाहो बहुचर्चितः॥ टेबल कलैण्डर चन्द्रप्रभेति तन्नामः, संक्षिप्तं कथ्यते जनैः। प्रतिभातस्य साकाराभवद्भाषाविधासु वै॥ 1. लक्ष्य (वार्षिक कलैण्डर) पृष्ठ 376 बहुक्षेत्रीय भाषाभिः प्राकृत-संस्कृतयोरपि। 2. कामयाबी की ओर (मासिक कलैण्डर) पृष्ठ 32 शास्त्रामप्यनेकेषां, ज्ञानं स्वधिकरोत्ययम्॥ 3. माँ ही मंदिर माँ ही तीरथ (मासिक कलैण्डर) पृष्ठ 32 हिन्दी भाषा सुसाहित्यं, समृद्धम् करोदयम्। 4. ए बी सी डीऑफ लाइफ (मासिक कलैण्डर) पृष्ठ 32 कविताभिः सुरम्याभिः गुणयुक्ताभिरेव च ॥ इस तरह श्री चन्द्रप्रभ का जीवन और साहित्य उज्ज्वलता से 5. जीवन की वर्णमाला (मासिक कलैण्डर) पृष्ठ 32 आपूरित है। वे महान दार्शनिक और चिंतक होने के साथ एक महान 6. बचपन (मासिक कलैण्डर) पृष्ठ 32 लेखक, कवि, अनुसन्धित्सु, इतिहासज्ञ, सम्पादक, कला-मर्मज्ञ, 7. शांतिपथ : महावीर का महामार्ग (मासिक कलैण्डर) पृष्ठ 32 कहानीकार एवं गीतकार भी हैं। श्री चन्द्रप्रभ में एक साथ इतने सारे आयामों का उभरना साहित्य एवं दर्शन जगत के लिए महान गौरव की 8. अमृत संदेश (मासिक कलैण्डर) पृष्ठ 32 बात है। दर्शन जगत् एवं साहित्य जगत् उनके गरिमापूर्ण व्यक्तित्व एवं 9. एक रिश्ता सात जन्म का (मासिक कलैण्डर) पृष्ठ 32 कृतित्व पर सदा गौरवान्वित होता रहेगा। 10. जिद करो दुनिया बदलो (मासिक कलैण्डर) पृष्ठ 32 11.ध्यान : अपने से अपनी मुलाकात (मासिक कलैण्डर) पृष्ठ 32 ___ इन कलैण्डरों में श्री चन्द्रप्रभ के जीवन-निर्माण, व्यक्तित्व विकास, पारिवारिक प्रेम, संस्कार निर्माण, बच्चों का नवनिर्माण, स्वास्थ्य सूत्र, ध्यान योग आदि विविध विषयों से जुड़े क्रांतिकारी वचनों का संकलन हुआ है। इसके अतिरिक्त श्री चन्द्रप्रभ के सुखी, सफल एवं मधुर जीवन जीने के मार्गदर्शन से युक्त दिव्य वचनों को घर-घर तक पहुँचाने के लिए जीवन, जगत, अध्यात्म से जुड़े हर विषय पर 1000 से अधिक वीसीडी, डीवीडी, एमपी-3 उपलब्ध हैं, जिसे देश के कोने-कोने में बड़े चाव से सुना जाता है। गीता, कठोपनिषद्, महावीर सूत्र, विपश्यना, महासत्ति पट्ठानसुत्त, उत्तराध्ययन सूत्र, योगसूत्र, ध्यानसूत्र पर हुए उनके प्रवचनों के वीसीडी सेट भी उपलब्ध हैं। For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स - 57 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति में 'दर्शन' शब्द का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 'दर्शन' शब्द की व्याख्याएँ अनेक तरीकों से हुई हैं। 'दर्शन' शब्द संस्कृत की दृश् धातु में ल्यूट् प्रत्यय लगने से निष्पन्न होता है। साहित्य के अनुसार 'दृश्यते अनेन इति दर्शनम्' अर्थात् जिसके द्वारा देखा जाए वह दर्शन है। देखना दो तरीके से होता है - (1) स्थूल आँखों से (2) सूक्ष्म आँखों से। दोनों तरह की दृष्टि अध्ययन में काम आती है। दर्शन की मूल आत्मा जिज्ञासा है। जीवन क्या है? जगत क्या है? मैं कौन हूँ? जीवन का उद्देश्य क्या है? हमें दुःखों का अनुभव क्यों होता है? मृत्युक्यों होती है? सुखी जीवन का सरल मार्ग कौनसा है? इन सभी प्रश्नों का समाधान पाने का नाम दर्शन है। आत्म-दर्शन, जीवन दर्शन, जगत् दर्शन, सम्यक् दर्शन इसी से जुड़े हुए हैं अर्थात् दर्शन शब्द का प्रयोग स्थूल और सूक्ष्म, भौतिक और आध्यात्मिक सभी अर्थों में किया जाता श्री चन्द्रप्रभ के सिद्धांत एवं विचार-दर्शन की एक अशा दर्शन और विज्ञान __ वर्तमान युग विज्ञान का चरमोत्कर्ष युग है। विज्ञान व तकनीक ने दर्शन तथा उसके सिद्धांतों को नए स्वरूप में प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित किया है। अब दर्शन और अध्यात्म की प्राचीन बातें लोगों को अरुचिकर लगने लगी हैं लेकिन जब-जब विज्ञान धर्म, दर्शन, अध्यात्म और नैतिकता से दूर हुआ, तब-तब मानवता व मानवीय मूल्यों का ह्रास हुआ। ऐसे में अनेक चिंतकों ने दर्शन व विज्ञान के बीच सामंजस्य स्थापित करने की पहल की। जिसमें रिचर्ड हावेल,डॉ. हर्बट डींगल, सर जेम्स जोन्स, सर आर्थर एडिंगटन, बट्रेन्ड रसल, आइंस्टीन, नीत्से, कांट, विंग, हाइडेगर, युगलर, गुर्जिएफ, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गाँधी, श्री अरविंद, रानाडे, जे कृष्णमूर्ति, विनोबा भावे, कृष्णचंद भट्टाचार्य, सर्वपल्ली राधाकृष्णन्, ओशो, तुलसी, महाप्रज्ञ, डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, श्री चन्द्रप्रभ आदि प्रमुख हैं। आइंस्टीन ने तो यहाँ तक स्वीकार किया कि विज्ञान यदि करुणा की बात करे, तो बड़ा सौभाग्य है। विज्ञान आध्यात्मिक बने और अध्यात्म अंधविश्वास को छोड़ विज्ञान को अपनाए। इसी का परिणाम है कि दर्शन के सूक्ष्म तत्त्वों का वैज्ञानिक अनुसंधान हो रहा है। विज्ञान की एक शाखा 'न्यूरोथियोलोजी' में आध्यात्मिकता और मस्तिष्क के जटिल संबंधों की शोध की जाती है। ध्यान और योग का प्रयोग तो व्यवसाय तक में होने लगा है। वर्तमान में बुद्धि लब्धि (IQ), संवेग लब्धि (EQ) के साथ-साथ आध्यात्मिक लब्धि (SQ) को भी महत्व दिया जा रहा है। इस आध्यात्मिक लब्धि का मूल हमारे प्राचीन संस्कृति के शास्त्रों में है। 58> संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम का मानना है कि 'अध्यात्म अंदर की खोज है तो विज्ञान बाहर की। सर्वांगीण विकास के लिए दोनों की जरूरत है।" ओशो ने नई सदी के मानव से यह अपेक्षा की है कि वह न्यूटन, एडीसन, रदरफोर्ड, आइंस्टीन आदि के विज्ञान से समृद्ध हो, तो साथ ही बुद्ध, कृष्ण, महावीर, ईसा और मोहम्मद के अध्यात्म से भी स्वामी चैतन्य कीर्ति ने तो यहाँ तक कहा कि सबसे बड़ा योग विज्ञान और अध्यात्म का योग हैं। श्री चन्द्रप्रभ का मानना है, “विज्ञान वस्तुगत सत्य से जुड़ा है। वह वस्तु और पदार्थ का ही अन्वेषण करता है इसलिए वह अधूरा है। विज्ञान पूर्णरूप तभी ले सकता है, जब वह अध्यात्म में निमज्जित हो जाए।" भारतीय दर्शन की समीक्षा 44 यद्यपि पाश्चात्य दर्शनों ने भारतीय दर्शनों को निराशावादी और परम्परावादी बताया, पर यह गलत है। संसार को दुःख युक्त बताने के पीछे उनका उद्देश्य व्यक्ति को संसार से संन्यास की ओर ले जाना अथवा ईश्वर से जोड़कर दुःख से मुक्ति दिलाना था। दूसरा : दर्शनों का मूल स्रोत भले ही एक रहा, पर वे क्रमशः आगे बढ़ते रहे और नए-नए दर्शन अस्तित्व में आते रहे जो कि परम्परागतता का नहीं, प्रगतिशीलता का परिचायक है। भारतीय दर्शन केवल सत्य से प्रेम नहीं करता वरन् सत्य-दर्शन में विश्वास रखता है। वह 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का संदेश देकर प्राणिमात्र की सेवा करने और द्वेष, ईर्ष्या, घृणा, क्रोधादि नकारात्मक विचारों से मुक्त होने की प्रेरणा देता है। मनुष्य केवल इन्द्रिय सुखों तक ही सीमित नहीं है, उसके पास बुद्धि, विवेक, विचार भी है। वह विविध दर्शन शास्त्रों से प्रेरणा लेकर जीवन जीता है। उसके आचार-विचारों की शुद्धि में 'दर्शन' अपनी विशेष भूमिका निभाता है। भारतीय दर्शनों में सभी प्राचीन - आधुनिक विचाराधाएँ आ हैं। समन्वय इसकी मुख्य विशेषता रही है। आधुनिक दार्शनिकों ने विविध दृष्टि से जीवन जगत्, अध्यात्म, धर्म, बंधन, मोक्ष, स्वर्ग-नर्क, आचार-शुद्धि पर व्याख्याएँ की हैं परिणाम स्वरूप भारतीय दर्शन समृद्ध एवं उन्नत होता गया है। विभिन्न विचारधाराओं एवं दार्शनिक परम्पराओं की इसी कड़ी में श्री चन्द्रप्रभ का सिद्धांत एवं विचार दर्शन' ने भारतीय दर्शन को समृद्ध बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जिसका विस्तार से आगे विवेचन किया जा रहा है। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में कबीर की क्रांति, बुद्ध की मध्यम दृष्टि, महावीर की साधना एवं आइंस्टीन की वैज्ञानिक सच्चाई है। उसमें वर्तमान जीवन का दिग्दर्शन है तो भविष्य को सँवारने का मार्गदर्शन भी। उन्होंने भारतीय दर्शनों में छिपे सत्य को उजागर किया है तो मूल्यहीन परम्पराओं को नकारा भी है। श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन व जगत के सूक्ष्म रहस्यों को अपनी पैनी अंतर्दृष्टि से देखा है। विज्ञान के बढ़ते प्रभाव एवं उत्पन्न हुए दुष्प्रभावों की भी स्थिति प्रत्यक्ष अनुभव की है। उन्होंने सब सत्यों को अपने अनुभव के सत्य को परखते हुए नवीन मूल्यों की स्थापना की है। श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन की समस्याओं का समय-सापेक्ष समाधान दिया है, अध्यात्म की नई व्याख्या दी है, धर्म एवं समाज में व्याप्त अंधविश्वासों एवं रूढ़िवादिताओं पर प्रहार किया है । देश में बढ़ रही अनैतिकता पर चिंता प्रकट की है। भारतीय संस्कृति पर प्रहार करने वाले तत्त्वों पर तीखी प्रतिक्रिया करते हुए समाधान के सरल उपाय बताए हैं। विश्व के सिमटते परिवेश में, पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव में जीवन को किस तरह विकास का स्वरूप देना चाहिए, घर परिवार में बढ़ रहे बिखराब को किस तरह थामना चाहिए, नारी को किन मर्यादाओं को अपनाते हुए विश्व-निर्माण में भूमिका अदा करनी चाहिए यह उनकी कृतियों में सर्वत्र प्रस्तुत हुआ है। दर्शन मुख्य रूप से दो भागों में बँटा हुआ होता है. (1) सैद्धान्तिक स्वरूप (2) व्यावहारिक स्वरूप सैद्धान्तिक स्वरूप में जहाँ तत्त्व, प्रमाण, आत्मा, जगत्, ईश्वर, स्वर्ग-नर्क, मोक्ष आदि बिन्दुओं पर विश्लेषण किया जाता है वहीं व्यावहारिक स्वरूप में नीति, धर्म, आचार, विचार, व्यवहार, व्यक्तित्व, मनोविज्ञान आदि बिन्दुओं पर व्याख्या की जाती है। भारत के प्राचीन मध्यकालीन हर दर्शन ने अपने-अपने ढंग से तत्त्वों, नीति-नियमों की व्याख्या प्रस्तुत की है। इसी कड़ी में अगर श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन का विश्लेषण किया जाए तो उनमें सैद्धान्तिक पक्ष की बजाय व्यावहारिक पक्ष ज्यादा उजागर हुआ है। उन्होंने सैद्धान्तिक पक्ष की भी व्यावहारिक ढंग से व्याख्या की है जिसके कारण उनका दर्शन नवीन होने के साथ-साथ सरल हो गया है। वे स्वर्ग नर्क, आत्मा-परमात्मा, बंधन मोक्ष, धर्म-कर्म, ध्यानअध्यात्म आदि सभी को जीवन सापेक्ष दृष्टिकोण में प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने सबसे ज्यादा जीवन तत्त्व को प्रमुखता दी है। वे कहते हैं, " जीवन से बढ़कर न कोई धर्म है न कोई शास्त्र । जीवन-जगत को पढ़ना धरती की सर्वश्रेष्ठ कृति पढ़ना है।" 7 इस तरह वे जीवन जगत को सबसे बड़ा शास्त्र कहते हैं एवं इसे पढ़ने की प्रेरणा देते हैं। श्री चन्द्रप्रभ द्वारा जीवन जगत, अध्यात्म, धर्म, ध्यान, स्वर्ग-नर्क, आत्मा, ईश्वर, व्यक्तित्व, समाज, राष्ट्र आदि अनेक पहलुओं पर की गई व्याख्याएँ एवं प्रस्तुत किए गए विचार प्रासंगिक व उपयोगी हैं। एक तरह से उनका दर्शन 'जीवन-दर्शन' है। जो जीवननिर्माण, जीवन विकास एवं जीवन मुक्ति की बात करता है। श्री चन्द्रप्रभ का जीवन-दर्शन इस प्रकार है. जीवन दर्शन - श्री चन्द्रप्रभ जीवन दृष्टा संत हैं। उन्होंने व्यक्ति को जीवन से जुड़ने और जीवन को साधने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, "हम जीवन को इस तरह जिएँ कि जीवन स्वयं प्रभु का प्रसाद और वरदान बन जाए।" उन्होंने जीवन को संसार और संन्यास से भी ज्यादा मूल्यवान बताया है। वे आसमान के स्वर्ग में कम विश्वास रखते हैं। उन्होंने जीवन को ही स्वर्ग सरीखा बनाने की नई सोच व्यक्ति को दी है। वे कहते हैं, 'हमारा प्रयास हो कि हम अपने जीवन को स्वर्ग बनाएँ और यह तभी संभव है, जब हमारा जीवन के प्रति सम्मान और अहोभाव हो।" आज हर संत अपने पंथ और धर्म को दुनिया में स्थापित करने के प्रयास में लगा हुआ है। ऐसी परिस्थिति में श्री चन्द्रप्रभ की यह महान जीवनदृष्टि हर किसी के लिए प्रेरणास्पद है कि, "जैनत्व, हिन्दुत्व, इंसानियत अथवा इस्लाम फैले या न फैले, यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं, जितना यह कि दुनिया से हिंसा मिट जाए और प्रेम, शांति और अहिंसा का विस्तार हो जाए। यदि दुनिया को जीवन के अर्थ और मूल्य उपलब्ध हो जाते हैं, तो हर व्यक्ति अपने आप में जैन और हिन्दू हो ही जाता है। अहिंसा है तो जैनत्व है। अहिंसा ही न रहेगी तो जैनत्व कहाँ से रहेगा। बगैर मर्यादा के कैसा हिन्दुत्व | बगैर शांति के कैसा इस्लाम !" वे जीवन को धर्म से भी संबोधि टाइम्स 59 . For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊपर मानते हैं और धर्म का उपयोग जीवन के लिए करने की सिखावन देते हैं। वे कहते हैं, “धर्म और सिद्धांतों का जन्म मनुष्य के लिए होता है, मनुष्य का जन्म धर्म और सिद्धांतों के लिए नहीं होता। मनुष्य के हिसाब से युग बदलते हैं और युगों के हिसाब से धर्म बदलते हैं। हर पुरानी चीज, पुराने सिद्धांत, पुरानी मान्यताएँ, पुराने रीति-रिवाज, परम्पराएँ और धर्म महान होते हैं। पर धर्म न तो पुराना महान होता है और न नया महान होता है वही धर्म महान होता है, जो मनुष्य को मनुष्य बनाये, हमारे जीवन को आनंदपूर्ण, संगीतपूर्ण और सौंदर्यमय बनाये।'' उन्होंने जीवन में प्रेमभाव की अभिवृद्धि करने का मार्गदर्शन दिया है। उन्होंने प्रेमरहित जीवन को नीरस माना है। श्री चन्द्रप्रभ जीवन की तुलना वीणा के साथ करते हुए उसे वीणा के तारों की तरह साधने की कला सिखाते हैं। वे कहते हैं, "इंसान का जीवन छहतार वाले गिटार की तरह है। जरा सोचिए कि शरीर, मन, आत्मा, घर, व्यापार और समाज में से ऐसा कौन-सा तार है, जिसे आप अब तक नजर अंदाज कर रहे थे। सारे तारों को साधिए और उनमें संतुलन बैठाइए, आप सफलता के संगीत का पूरा आनंद ले सकेंगे।" I श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन को नश्वर, दुःखपूर्ण या सुख रहित बताने की बजाय उसे संगीत पूर्ण, सौन्दर्य युक्त एवं आनंदपूर्ण माना है । वे कहते हैं, "जीवन से बढ़कर जीवन का कोई मूल्य नहीं है, जीवन के आगे तो पृथ्वी भर की संपदाएँ तुच्छ और नगण्य हैं। जीवन के सौन्दर्य को परिपूर्णता के साथ जीओ। जीवन के संगीत को सुनो। उस संगीत के आगे हर संगीत फीका है। उठालो जीवन की बाँसुरी को, साध लो अँगुलियाँ अपनी संवेदनाओं को जाग्रत करो और सार्थकता के साथ जीवन जीयो।" अब तक हमें गीता, रामायण, महाभारत पढ़ने की प्रेरणाएँ दी गईं और राम- कृष्ण - महावीर-बुद्ध से प्रेम करने की सिखावन दी गई, पर श्री चन्द्रप्रभ आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहते हैं, "हमने रामायण को पढ़ा, पर इस विराट जगत को नहीं; गीतामहाभारत को पढ़ा, पर जीवन को नहीं; महापुरुषों से प्रेम किया, पर स्वयं से नहीं; परिणाम यह आया कि रामायण को सौ दफा पढ़ने के बावजूद हम राम न हो पाए और गीता का नियमित पाठ करने के बावजूद हमारे जीवन में उसके माधुर्य का, उसके सत्य और योग का गीत फूट न पाया। जब तक हमारी नपुंसक बन चुकी चेतना में भारत' का भाव न जागे, आत्मविश्वास का सिंहत्व न भर उठे, जीवन-जगत का बोध न हो जाए तब तक महाभारत को पढ़ लेने पर से भी क्या हो जाएगा।" श्री चन्द्रप्रभ ने मनुष्य के धर्म को सच्चा धर्म और जगत पर पल्लवित होने वाले जीवन को सच्चा शास्त्र कहा है। स्व-अनुभव व्यक्त करते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "जगत से बढ़कर कोई श्रेष्ठ किताब नहीं है और जीवन से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है। मैं पाठक हूँ, अध्येता हूँ जीवन का, जगत का, मैं द्रष्टा हूँ जीवन जगत में होने वाली हर इहलीला का।" इस विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि वे जीवन के प्रति पूर्ण सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं। उनकी जीवन से जुड़ी हर व्याख्या वैज्ञानिकता लिए हुए है। वे कलात्मक जीवन का निर्माण चाहते हैं और नई दृष्टि से जीवन से जुड़े हर पहलू की व्याख्या करते हैं। श्री चन्द्रप्रभ का विचार एवं दर्शन अतीत का नया संस्करण है और उज्ज्वल भविष्य की चमक लिए हुए है। आज इंसान के लिए पहले जीवन मुख्य है फिर 60 संबोधि टाइम्स दूसरी चीजें । व्यक्ति अपने जीवन को सुखी, सफल एवं मधुर बनाना चाहता है और इसके लिए वैज्ञानिक मार्ग की अपेक्षा रखता है। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन इस अपेक्षा को पूरा करने में पूर्ण सक्षम है। उनके जीवन-दर्शन को विस्तार से समझने के लिए उसे विभिन्न बिन्दुओं से विवेचित कर प्रस्तुत किया जा रहा है, जो कि इस तरह हैजीवन और जगत श्री चन्द्रप्रभ जीवन की तरह जगत के प्रति भी सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं। वे जीवन से जितना प्रेम रखते हैं उतना ही जगत से भी। उन्होंने भारतीय संस्कृति के 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के मंत्र को आत्मसात् किया है । जगत के सकारात्मक पक्ष की विवेचना करते हुए वे कहते हैं, " अपनी शांत चित्त स्थिति में जब-जब भी बैठकर सारे जगत को निहारता हूँ तो अनायास ही जगत के प्रति अहोभाव उमड़ आता है। प्रकृति के द्वारा रचे गए पहाड़, उमड़ते-घुमड़मे बादल, चहचहाट करती चिड़ियाएँ, हवा के झोंकों से हिलती हरे-भरे वृक्षों की डालियाँ, समुद्र में उठती लहरें और मिट्टी की तहों में छिपा कुओं का मीठा पानी । कितना सुरम्य स्वरूप है यह सब ! सचमुच हँसते-खिलते चाँद-सितारों को देखकर अंतआत्मा के गीत फूट पड़ते हैं और तब-तब निरभ्र आकाश को देखकर अन्तस् का आकाश रूबरू हो जाता है।' जगत के प्रति सार और निःसार दोनों रूपों पर टिप्पणी करते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, " धरती पर ऐसा कोई पहलू नहीं है जिसका कोई सारतत्त्व न हो, ऐसा भी कोई पहलू नहीं है जिसमें निःसारता न छिपी हो।" उन्होंने सार को सार रूप जानने और असार को असार रूप जानने की प्रेरणा दी है। वे इसी समझ को सत्य और सम्यक् दृष्टि कहते हैं। उन्होंने यह जानना अर्थहीन माना है कि जगत को किसने बनाया या जगत को बनाने वाले को किसने बनाया। वे तो जीवन और जगत को जाने, सुख-दुःख से मुक्त होने और सुख प्राप्ति के सूत्रों को तलाशने प्रेरणा देते हैं। उनकी दृष्टि में, "जीवन-जगत को ध्यानपूर्वक देखने से चेतना में मनन का अंकुरण फूटता है, मनन से मार्ग खुलता है और मनुष्य में मनु साकार होता है।" किताबों और शास्त्रों तक सीमित रहने वालों को वे कहते हैं, "किताबें अंतिम सीढ़ी नहीं हैं। सृष्टि के हर डगर पर वेद, कुरआन, बाइबिल के पत्रे खुले हुए हैं, बस सीखने और जानने की ललक होनी चाहिए।" इस तरह उन्होंने पवित्र किताबों के साथ जीवन जगत और प्रकृति से भी सीखने की प्रेरणा दी है। जीवन और खुशहाली 1 श्री चन्द्रप्रभ खुशी भरे जीवन जीने के समर्थक हैं। उन्होंने खुशियों से भरा जीवन जीने का बेहतरीन मार्गदर्शन दिया है। आज इंसान के पास सब कुछ है, पर मन की शांति और भीतर की खुशी नहीं है। श्री चन्द्रप्रभ मनुष्य को प्रेरणा देते हुए कहते हैं, "जिओ शान से, शुरुआत मुस्कान से।" जिंदगी में चिंता, क्रोध, तनाव जैसी अनेक समस्याओं का सामना व्यक्ति को करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में वह नाखुश हो जाता है। श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन जीने की वह कला एवं शैली दी है जो जीवन को स्वर्गनुमा व खुशनुमा बनाता है। वे कहते हैं, "जीवन बाँस पोंगरी की तरह है जिस पर सुर साधकर किसी मुरलीधर की तरह स्वर्ग के गीत गाए जा सकते हैं। " श्री चन्द्रप्रभ ने हँसते-मुस्कुराते हुए जीने को खुशी भरे जीवन का आधार सूत्र बताया है। वे कहते हैं, "जो दिल से हँसते हैं, उन्हें दिल का For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौरा नहीं पड़ता। हँसना खुद ही एक श्रेष्ठ टॉनिक है चाहे आपको टेंशन स्वास्थ्य के लिए शरीर रूपी साधन का स्वस्थ होना जरूरी मानते हैं। रहता हो या डिप्रेशन, मिर्गी की बीमारी हो या हार्ट की, आप हँसने की उन्होंने शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य के लिए निम्न आदत डालें। आप चमत्कारिक रूप से टेंशन फ्री हो जाएँगे, हार्ट और सूत्र प्रदान किए हैं - किडनी पर भी हँसने-हँसाने के अच्छे प्रभाव पड़ेंगे।" उन्होंने 1. सूरज उगे, उससे पहले उठ जाइए और हर दिन उगते सूरज खुशहाल जीवन के लिए तीन मिनट तक मुस्कुराते हुए आती-जाती का अभिवादन कीजिए।सूर्य की ऊर्जा आपको विटामिन डी देगी। श्वासों का अनुभव करने के प्रयोग को प्रतिदिन करने की सीख दी है। 2. सुबह आँख खुलते ही एक मिनट तक प्यार से मुस्कुराइए। जीवन में मुस्कान को विस्तार देना जरूरी मानते हैं। प्राय: व्यक्ति बाहरी यह सुबह का विटामिन आपको दिनभर मुस्कान से भरे रखेगा। निमित्तों से खुश होने की चेष्टा करता है पर बाहरी निमित्त प्रकृति की 3. सुबह खाली पेट टहलने अथवा स्वास्थ्यवर्धक योगासन करने तरह परिवर्तनशील है। विपरीत निमित्त आते ही व्यक्ति अशांत हो जाता की नियमित आदत डालिए। योगासन शरीर तंत्र को मजबूत रखेगा। है। अगर व्यक्ति छोटी-छोटी बातों पर उद्वेलित होता रहेगा तो वह कभी 4. तली हुई चीजों एवं बाजारू मिठाइयों से परहेज रखिए। ये खुश ही न हो पाएगा। व्यक्ति प्रकृति की परिवर्तनशीलता को समझ कर स्वादयुक्त ज्यादा स्वास्थ्ययुक्त कम होती हैं। इससे बच सकता है। श्री चन्द्रप्रभ का मानना है, "जो हर हाल में मस्त 5. पानी ज्यादा पीजिए। पानी अशुद्ध तत्त्वों को बाहर निकाल देता और मुस्कान से भरा रहता है उसे दुनिया की कोई ताकत दुःखी नहीं है। कर सकती है। विपरीत वातावरण बन जाने पर भी हम अपनी सहजता 6. नाखूनों को काटिए। नाखून का मैल शरीर में कीटाणुओं को और मुस्कान को जीवित रखते हैं तो समझना कि हम मानसिक रूप से, पैदा करता है। आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ हैं खुशहाल हैं।" उन्होंने खुशहाल जिंदगी 7. प्रतिदिन आधा से एक-घंटा अच्छी पुस्तकों को पढ़ने की जीने के लिए हर दिन की शुरूआत एक मिनट तक तबीयत से आदत डालिए, इससे मानसिक प्रसन्नता में अभिवृद्धि होगी। मुस्कुराकर करने और स्वयं को विनोदप्रिय बनाने के मंत्र दिए हैं। ___8. नींद पूरी ली जा सके, इसके लिए देर रात तक पढ़ने, टी.वी. जीवन और स्वास्थ्य देखने अथवा जगने की आदत से छुटकारा पाइए। स्वास्थ्य शांति और समृद्धि का आधार है। स्वस्थ रहना जीवन की 9. चाहे जमीन पर बैठे या कुर्सी पर, मगर सीधी कमर बैठिए। सबसे बड़ी दौलत है। कुछ परम्पराओं ने मन की स्वस्थता पर जोर दिया इससे मेरूदण्ड स्वस्थ व सक्रिय रहता है। तो कुछ ने तन की स्वस्थता पर । विज्ञान यह सिद्ध कर चुका है कि तन 10. स्वयं को मानसिक दबाव के बोझ और तनाव के मकड़जाल और मन अलग नहीं पूरक तत्त्व हैं। जहाँ स्वस्थ तन में स्वस्थ मन का से मुक्त रखिए। निवास होता है वहीं स्वस्थ मन ही स्वस्थ तन का आधार हुआ करता 11. सदा वही खानपान कीजिए जो आपके खानदान को है। श्री चन्द्रप्रभ तन और मन दोनों की स्वस्थता को स्वीकार करते हैं। वे गारमामय बनाए। देह को नश्वर मानकर उसकी उपेक्षा करने की प्रेरणा नहीं देते वरन् उसे 12. प्रतिदिन पन्द्रह मिनिट नंगे पाँव घूमने जाइए। स्वस्थ, सक्रिय रख उसका सदुपयोग करने का मार्गदर्शन देते हैं। हायोग को काम 13. ताँबे के बर्तन में पानी भरकर रखिए और फिर उसका सेवन उन्होंने भगवान को मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरूद्वारे तक सीमित गटा तक सीमित कीजिए।इससे पेट-शुद्धि अच्छी तरह होगी। रखने वालों को नजरिया बदलने की सलाह दी है। हमने अब तक धरती 14. प्रतिदिन खुली हवा में पन्द्रह मिनट प्राणायाम कीजिए। के मंदिरों को मंदिर माना है, पर श्री चन्द्रप्रभ हमें जीवित मंदिर से प्राणायाम हमारी प्राणऊर्जा में बढ़ोतरी करेगा। मुलाकात करवाते हैं। उनकी दृष्टि में, "मनुष्य स्वयं एक जीता-जागता 15. प्रतिदिन ध्यान धरिए। ध्यान से मन एकाग्र और शांत रहता है। मंदिर है।" उन्होंने जीवन की मूल्यवत्ता समझने एवं इसके प्रति 16. रसोईघर में सफाई रखिए। स्वच्छता में ही स्वस्थता का जागरूक होने की प्रेरणा दी है। वे तन-मन की बजाय सम्पूर्ण जीवन के निवास होता है। स्वास्थ्य के समर्थक हैं। वे कहते हैं, "जीवन के सम्पूर्ण सौन्दर्य और 17. सुबह-सुबह दूध पीजिए। खाली पेट चाय मत पीजिए, माधुर्य के लिए केवल उसका रोगमुक्त होना ही पर्याप्त नहीं है. वरन क्योंकि इससे कब्जी हो जाती है। शारीरिक आरोग्य के साथ विचार और कर्म की स्वस्थता, स्वच्छता 18. घर में सामूहिकता रखिए, मिल-जुलकर काम कीजिए। और समरसता भी अनिवार्य चरण है।" इससे भाव-शुद्धि में बढ़ोतरी होगी। दुनिया में दो तरह की परम्पराएँ रही हैं - भोगवादी और तपवादी। 19.खाना खाते समय न टी.वी.देखिए और न ही अखबार पढ़िए। भोगवादी परम्परा ने शरीर को महज भोग का साधन मान लिया और 20. बाजार से जो भी चीजें लाएँ, उनकी साफ-सफाई का ध्यान तपवादी परम्परा ने शरीर को केवल तपस्या का साधन मान लिया। वेदों रखिए। ने जहाँ शरीर को धर्म का पहला साधन माना वहीं कुछ शास्त्रों में शरीर 21. प्रकृति के साथ जुड़े रहिए। प्रकृति में परमात्मा का सान्निध्य को नश्वर कहकर उपेक्षा करने की प्रेरणा दी गई। श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन निहित होता है। के मुख्यत: तीन सेतु माने हैं - शरीर, विचार और भाव । गीता ने तीनों जीवन और सफलता की शुद्धियों को राजयोग कहा है। श्री चन्द्रप्रभ तीनों की विशद्धि एवं भारतीय संस्कृति में चार पुरुषार्थ माने गए हैं - धर्म, अर्थ, काम और विपश्यना को जीवन का कायाकल्प कहते हैं। वे न तो अतियोग के मोखामोशी समर्थक हैं न अतितप के। उन्होंने शरीर को साधने की प्रेरणा दी है। वे । आर्थिक सफलता का युग है। सफलता का मूल्यांकन आर्थिक दृष्टिकोण से For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स - 610 1.प्रार Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया जाता है। आज हर व्यक्ति अपने क्षेत्र में सफल होना चाहता है। छात्र पढ़ाई में, युवक कॅरियर में, व्यापारी व्यापार में, नेता राजनीति में और गृहिणी परिवार में अब कॅरियर, कामयाबी, सफलता जैसे शब्द चरम सीमा पर हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने सफलता, कॅरियर, कामयाबी जैसे बिन्दुओं पर नए ढंग से मार्गदर्शन प्रदान किया है। वे सफलता को केवल अर्थ से नहीं जोड़ते वरन् व्यक्तित्व के साथ जोड़ते हैं। उन्होंने हर क्षेत्र में सफल होने की प्रेरणा दी है। उन्होंने सफलता और समृद्धि को पैसे तक सीमित मानने की भूल न करने की सलाह दी है। वे कहते हैं, " सफलता और समृद्धि का अर्थ पैसा ही नहीं है। जीवन के सौ क्षेत्र हैं, स्वयं को हर ओर से पूर्णता दीजिए । हमारी सफलता कहीं सीमित न हो जाए, उसका लाभ औरों तक भी पहुँचे हमें ऐसा प्रयास और पुरुषार्थ करते रहना चाहिए।" उन्होंने सफलता को जीवन और व्यक्तित्व के साथ भी जोड़ा है। वे व्यापार के साथ हर किसी को जीवन में भी सफल देखना चाहते हैं। उन्होंने कॅरियर बनाने के साथ सबके सामने विनम्रता और मिठास से पेश आने की, गैर इंसानों के काम आने की, विपरीत वातावरण में भी खुद पर संयम और धैर्य रखने की कला भी सिखाई है। इन विचारों से स्पष्ट होता है कि वे सफलता की व्याख्या में उदारवादी हैं। हर दृष्टिकोण से सफल इंसान बनना उनकी प्रेरणा मुख्य है। उन्होंने इंसान के सोये भाग्य को जगाने के लिए, नपुंसक हो चुकी चेतना में पुरुषार्थं और आत्मविश्वास के प्राण फूंकने के लिए, साधारण सोच से असाधारण सोच का मालिक बनने के लिए, जीने का अंदाज बदलने के लिए, व्यक्तित्व को निखारने के लिए, बेहतर व्यवहार का मालिक बनने के लिए, सफलता की ऊँचाइयों को छूने के लिए विस्तृत मार्गदर्शन प्रदान किया है। वे केवल सफलता के सपने देखने की प्रेरणा ही नहीं देते वरन् उसे पाने का सरल मार्ग भी बताते हैं, वे उस मार्ग में आने वाली बाधाओं से भी साक्षात्कार करवाते हैं, उन बाधाओं को पार करने की शक्ति भी प्रदान करते हैं। उन्होंने सफलता पाने के लिए निम्न विन्दुओं का मार्गदर्शन प्रदान किया है 1. लक्ष्य निर्धारण सभी भारतीय दर्शनों में दुःख मुक्ति, परम सुख प्राप्ति, मोक्ष, निर्वाण या ईश प्राप्ति आदि को जीवन के चरम लक्ष्य बताए गए हैं। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन चरम लक्ष्य अथवा मृत्यु उपरांत लक्ष्य को पाने से पहले जीवन का लक्ष्य बनाने की प्रेरणा देता है। वे सफल जीवन के लिए श्रेष्ठ लक्ष्य का होना अनिवार्य मानते हैं। वे कहते हैं,‘“लक्ष्य को आँखों में बसाकर ही अर्जुन ने कभी चिड़िया की आँख को तो कभी मछली की आँख को बेधने में सफलता पाई थी। क्षेत्र चाहे व्यवसाय का हो या साधना का, विकास का हो या विज्ञान का, दृष्टि लक्ष्य पर हो, तो लक्ष्य अवश्य सिद्ध होगा। आपके जीवन में सफलता का सूर्योदय अवश्य होगा। अखिर आप भी अपने कर्म क्षेत्र के अर्जुन हैं। जिन तत्त्वों को अपना कर अर्जुन सफल हुए या दुनिया के अन्य महानुभाव जीवन और जगत के क्षेत्र में हर ओर विजयी हुए, तो आप और हम क्यों नहीं हो सकते?" वे लक्ष्यहीन जीवन को मौत तुल्य बताते हैं। उन्होंने लक्ष्य रहित जीवन की तुलना गोलपोस्ट रहित फुटबॉल के मैदान से की है। वे लक्ष्य से पहले कार्य-योजना को स्पष्ट कर लेने की सीख देते हैं। उन्होंने खरगोश और कछुए की कहानी से लक्ष्य की तुलना करते हुए कछुए की जीत का मुख्य कारण लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्धता को बताया। उन्होंने लक्ष्य प्राप्ति के लिए अर्जुन और एकलव्य से समर्पण भाव सीखने की प्रेरणा दी है। 62 > संबोधि टाइम्स - 2. इच्छाशक्ति का जागरण किसी भी कार्य को करने के लिए इच्छाशक्ति का होना अनिवार्य है। धर्म-दर्शनों ने इच्छा को मुक्ति का बाधक बताया है। महावीर ने तो 'इच्छा निरोधः तपः' अर्थात् इच्छा निरोध को श्रेष्ठ तप कहा है। इच्छा मन की चंचलता है एवं इच्छाशक्ति मन की एकाग्रता। इच्छा कार्य सिद्धि में बाधक है और इच्छाशक्ति आवश्यक है। श्री चन्द्रप्रभ सफलता प्राप्ति के लिए इच्छाओं की बजाय इच्छाशक्ति को बढ़ाने की प्रेरणा देते हैं। उन्होंने इच्छा को कभी न भरने वाला भिक्षापात्र कहा है वे कहते हैं, "जिसके जीवन में संकल्प। शक्ति और इच्छा-शक्ति सुदृढ़ एवं प्रबल है वह व्यक्ति हर कठिनाई से लड़ सकता है।" उन्होंने लक्ष्य के निकट पहुँचने के लिए इच्छाओं को सीमित करना अनिवार्य बताया है। 3. आत्मगौरव का अनुभव श्री चन्द्रप्रभ ने सफलता प्राप्ति के लिए आत्मगौरव करने की भी प्रेरणा दी है। उन्होंने आत्मगौरव का अर्थ अहंकार नहीं, स्वयं के प्रति सद्भाव रखना बताया है। वे कहते हैं, "कभी-भी अपने आपको दीन-हीन और गरीब मत समझो। स्वयं को हमेशा करोड़पति समझो। हमारी आँखें, हृदय, गुर्दे और अन्य अंगों की कीमत बाजार में कराड़ों में है, फिर किस बात की हीनता, किस बात का डर! अपने हृदय की तुच्छ दुर्बलता को किनारे कर दो। बस अपने आप पर गौरव करो। गौरव इसलिए करो, ताकि तुम हर समय उत्साहउमंग - ऊर्जा से ओत-प्रोत रह सको ।" इस तरह उन्होंने भीतर के स्वाभिमान को जागृत करने का पाठ सिखाया है। 4. आत्मविश्वास जगाएँ जीवन अमूल्य है। इसका सदुपयोग करने की प्रेरणा महापुरुषों ने दी है। जीवन जीने के लिए तन-मन का सशक्त होना आवश्यक है। परिस्थिति वश तन अशक्त हो जाए, पर मन सदा सशक्त रहना चाहिए। मन की यह ओजस्विता ही आत्मविश्वास कहलाती है। आत्म दर्शन, आत्म-ज्ञान जैसे शब्द मूल्यवान हैं, पर वर्तमान में आत्मविश्वास को विशेष महत्व दिया जाता है। श्री चन्द्रप्रभ सफल होने के लिए आत्मविश्वास जगाने की प्रेरणा देते हैं। उन्होंने आत्मविश्वास को जीवन की सबसे बड़ी शक्ति माना है। वे कहते हैं, " आत्मविश्वास से बढ़कर व्यक्ति की कोई सम्पत्ति नहीं होती और न ही आत्मविश्वास के बढ़कर कोई मित्र होता है।" उन्होंने आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए लाल बहादर शास्त्री, अब्राहिम लिंकन, रविन्द्र जैन, मार्टिन लूथर, डॉ. रघुवंश सहाय, हेलन केलर, सूरदास, नेपोलियन, तेनजिंग, एडमंड हिलेरी, कोलम्बस, गैलिलियो, शिवाजी, जार्ज वाशिंगटन, ओनामी जैसे सफल लोगों से प्रेरणा लेने की सीख दी है जिन्होंने शारीरिक विकलांगता और छोटी उम्र के बावजूद सफलता की नई ऊँचाइयों को छुआ था श्री चन्द्रप्रभ ने शानदार जीवन के दमदार नुस्खे नामक पुस्तक में आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए निम्न सूत्र प्रदान किए हैं 1. मन में बन चुकी हीनता की ग्रंथियों को समझकर हटाएँ। 2. स्वयं के कार्य पर भरोसा रखें। 3. संकल्प - शक्ति को मजबूत बनाएँ । 4. हर क्षण उत्साह से भरे रहें । - For Personal & Private Use Only - 5. सोच हो सकारात्मक सुखी, सफल एवं मधुर जीवन के लिए सोच का सकारात्मक होना अपरिहार्य है। सकारात्मक सोच की तुलना महावीर के अनेकांत या सम्यक् ज्ञान से की जा सकती है। श्री चन्द्रप्रभ का सकारात्मक सोच पर बेहतरीन दृष्टिकोण प्राप्त होता है। श्री - Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रभ का चौथा बंदर 'बुरा मत सोचो' गांधीजी के तीन बंदरों की को प्रमुख स्थान दिया है। श्री चन्द्रप्रभ की यह प्रेरणा उपयोगी है कि तरह सर्वत्र समादृत हुआ है। वे स्वयं को सकारात्मक सोच का "हाथ में घड़ी बाँधने की सार्थकता तभी है जब व्यक्ति समय पर चलने अनुगामी मानते हैं। श्री चन्द्रप्रभ का मानना है, "सकारात्मक सोच की जागरूकता रखें।" समस्त विश्व की समस्याओं को सुलझा सकता है । मानसिक शांति और श्री चन्द्रप्रभ ने समय की महत्ता प्रतिपादित करते हए कहा है, तनाव मुक्ति के लिए सकारात्मक सोच सबसे बेहतरीन कीमिया दवा "जीवन में एक वर्ष की क्या कीमत है. यह पछिए उस विद्यार्थी से जो हैं । यह सर्वकल्याणकारी महामंत्र है। मैंने इस मंत्र का अनगिनत लोगों परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गया। एक महीने की कीमत ऐसी महिला से पर प्रयोग किया है और चमत्कारी परिणाम प्राप्त किए हैं। यह मंत्र आज पूछिए जिसके अठमासिया बच्चा पैदा हुआ। एक सप्ताह की कीमत तक निष्फल नहीं हुआ है।" उन्होंने नकारात्मक सोच का मुख्य कारण साप्ताहिक पत्रिका के सम्पादक से पूछिए जो कि सही समय पर पत्रिका जीवन में पलने वाली उदासीनता, निराशा और अकर्मण्यता को माना प्रकाशित न कर सका। एक दिन की कीमत उस मजदूर से पूछिए जिसे है। उनके द्वारा विचारों को भी सावधानीपूर्वक ग्रहण करने की दी गई दिनभर की गई मेहनत की मजदूरी न मिल पाई। एक घंटे की कीमत प्रेरणा जीवन के लिए उपयोगी है। किसी सिकंदर से पूछिए जो एक घंटे की अतिरिक्त जिंदगी के लिए श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन सकारात्मक सोच पर विशेष बल देता है। अपना साम्राज्य देने को तैयार हो गया। एक मिनट की कीमत उससे उनका साहित्य सकारात्मक दृष्टिकोण से परिपूर्ण है। वे सोच को पछिए जो वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले से एक मिनट पहले बाहर प्रभावित करने वाले तत्त्वों में शिक्षा, वातावरण और जीवन केअनुभव निकला था और एक सैकंड की कीमत उस ओलम्पिक खिलाड़ी से को मुख्य मानते हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने सकारात्मक सोच का अर्थ बताते हुए पछिए जो स्वर्ण पदक की बजाय रजत पदक ही पा सका। आप समय कहा है, "लोगों के द्वारा अनुकूल या प्रतिकूल वातावरण उपस्थित की कीमत समझिए और समय-बद्धता को जीवन में लागू कीजिए।" किये जाने पर भी स्वयं को लचीला बना देना, चित्त पर किसी बात को उनके द्वारा समय-प्रबंधन पर की गई व्याख्याएँ वर्तमान संदर्भो में बेहद हावी न होने देना और किसी तरह की उग्र प्रतिक्रिया किए बगैर अपनी उपयोगी हैं। उन्होंने समय को सृजनात्मकता, साक्षी भाव, ओर से सद्व्यवहार करना सकारात्मक सोच है।" उनके दर्शन में सोच परिवर्तनशीलता. मल्यवत्ता. आध्यात्मिकता. अप्रमत्तता आदि विभिन्न को सकारात्मक बनाने के लिए जिन सूत्रों का मार्गदर्शन दिया गया है वे बिन्दुओं के साथ विश्लेषित किया है। उनके दर्शन में समय प्रबंधन को इस प्रकार हैं - साधने के लिए जो सूत्र दिए गए हैं वे इस प्रकार हैं1. शांति को मूल्य दें। 1.कार्य को कल पर टालने से बचें। 2. औरों के प्रति सम्मान एवं सहानुभूति भरा नजरिया रखें। 2.व्यर्थ कार्यों में उलझने की बजाय सार्थक काम करें। 3. किसी की कमियों को न देखें। 3.समय को बचाने और उसके पाबंद बनने के लिए जीवन को 4. दिमाग में व्यर्थ की चिंताएँ न पालें। व्यवस्थित करें। 5. स्वभाव को खुशमिजाज बनाकर रखें। 8. बेहतर मानसिकता - भारतीय धर्म-दर्शनों में मन को ही 6. अतीत को याद कर दुःखी न होवें। मनुष्य के बंधन एवं मोक्ष का कारण माना गया है। जैसे मुक्ति के लिए 7. हर समय व्यस्त व हर हाल में मस्त रहें। मन की सात्विकता जरूरी है वैसे ही सफलता के लिए बेहतर 6. प्रतिक्रिया से दूरी - जीवन क्रिया प्रतिक्रिया का नाम है। मानसिकता का होना आवश्यक है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में सफल प्रतिक्रिया जब उग्र प्रतिक्रिया का रूप धारण कर लेती है तो जीवन कॅरियर के लिए मानसिकता को मजबूत बनाने की प्रेरणा दी गई है। श्री अस्त-व्यस्त हो जाता है। श्री चन्द्रप्रभ का विचार-दर्शन सफलता पाने ___ चन्द्रप्रभ की यह सूक्ति प्रसिद्ध है, "मन मजबूत तो किस्मत मुट्ठी में।" के लिए प्रतिक्रियाओं से बचने की सलाह देता है। श्री चन्द्रप्रभ का यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि व्यक्ति की जैसी मानसिकता होती है दृष्टिकोण है, "अगर हम चाहते हैं कि औरों के द्वारा हमारे प्रति वैसा ही उसका जीवन और व्यक्तित्व बन जाता है। महान व्यक्तित्व के सदव्यवहार हो, तो अपनी ओर से दृढ़प्रतिज्ञ बनो कि मैं अपनी ओर से निर्माण के लिए व्यक्ति की मानसिकता का महान होना अनिवार्य है। श्री किसी के प्रति दुर्व्यवहार नहीं करूँगा। जब महावीर के कानों में कीलें चन्द्रप्रभ का मानना है."मन ही इंसान का बल है और मन ही उसका ठोकी गईं तो यह और कुछ नहीं महावीर द्वारा की गई क्रिया की बलराम।इंसान का मन तनावमक्त.एकाग्र.शांतिमय और प्रज्ञामय है तो प्रतिक्रिया थी क्योंकि महावीर ने अपने पूर्वजन्म में अपने ही अंगरक्षक जीवन के विकास में मन से बडा और कोई उपयोगी तत्त्व नहीं हो के कानों में खोलता हुआ शीशा डलवा दिया था।"श्री चन्द्रप्रभ के सकता।" किस्मत और पुरुषार्थ के संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ का दृष्टिकोण विचार-दर्शन में प्रतिक्रियाओं से बचने के लिए निम्न सूत्र प्राप्त होते हैं है, "किस्मत न तो आसमान से टपकती है न ही पाताल फोड़ कर आती 1.औरों की विशेषताओं पर ध्यान दें। है, किस्मत उन्हीं लोगों का साथ देती है जो मजबूत मन के साथ 2.बिन माँगे सलाह न दें। पुरुषार्थ किया करते हैं।" श्री चन्द्रप्रभ ने मानसिकता को बेहतर बनाने 3.विपरीत परिस्थितियों में शांत-सौम्य-प्रसन्न रहें। के लिए निम्न सूत्र दिए हैं - 7.समय प्रबंधन - महावीर ने अपने शिष्य गौतम को हजारों बार 1.हर सुबह की शुरुआत मुस्कान से करें। कहा था, 'समयं गोयम मा पमायए' अर्थात् गौतम समय मात्र का भी 2. प्रत्येक कार्य खुशी एवं तन्मयता से करें। प्रमाद मत कर। जो प्रमाद में समय व्यतीत करते हैं उनकी जिंदगी व्यर्थ 3.जीवन के प्रति उत्साह रखें। हो जाती है। जीवन में पहला अनुशासन समय का पालन होना चाहिए। 4.सफलतम पुरुषों से सीखें।। श्री चन्द्रप्रभ ने जीवनदर्शन में सफलता प्राप्ति के लिए समय-प्रबंधन 5.गीता का पाठ कर आत्म-शक्ति को पैदा करें। संबोधि टाइम्स > 63 For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. तत्कालीन निर्णय की प्रतिभा व क्षमता अर्जित करें। 4.गुस्सा छोड़ें और मुस्कान बढ़ाएँ। 7.भीतर में उत्साह का संचार करते रहें। 5.गहरी नींद लें। 8.रंग की बजाय जीवन जीने के ढंग पर ध्यान दें। 6.सोच को सकारात्मक बनाएँ। 9.कठोर मेहनत - प्रमाद जीवन का प्रबलतम शत्र है। ऋग्वेद में 7. एकाग्रता बढ़ाने वाले अभ्यास करें। कहा गया है, "आलसी मनुष्य अपना पुरुषार्थ गँवा देते हैं, जिससे उन्हें जीवन औरमधरता कहीं भी सफलता नहीं मिलती, उन्हें सभी ओर से निराशा के ही दर्शन ___ हर व्यक्ति मधुर जीवन जीना चाहता है। मधुर जीवन के लिए करने पड़ते हैं। व्यक्ति को वही प्राप्त होता है जैसी वह मेहनत किया मनुस्मृति में चार आश्रमों की व्यवस्था दी गई है - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, करता है।" श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन सफलता के लिए कठोर मेहनत पर वानप्रस्थ और संन्यास । वर्तमान में आश्रम व्यवस्था के प्रति व्यक्ति का जोर देता है। वे आरक्षण नीति को अनुचित मानते हैं। उन्होंने युवाओं रुझान कम हो गया है। ऐसी परिस्थिति में मधुर जीवन के लिए अन्य को योग्यता एवं प्रतिभा को जागृत करने की प्रेरणा दी है। उनका मानना मार्ग की तलाश है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में जीवन को मधुर बनाने के है, "सबके बीच सम्मान और समृद्धि भरी जिंदगी आदमी तभी जी लिए सरल एवं नया मार्गदर्शन दिया गया है। उनका दर्शन कहता है, सकता है जब कोई व्यक्ति अपनी ओर से सफलता को पाने की पहली "जीवन में चाहे जैसी परिस्थिति आए हम हर हाल में खुश रहें। हमारे कीमत चुकाए और वह कीमत है कठोर मेहनत।" श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन का एक ही मंत्र हो- लोग रहेंगे बस्ती में हम रहेंगे मस्ती में। कठोर मेहनत के लिए चार प्रेरणा मंत्र दिए हैं - आनंद हमारी जाति बन जाए और उत्सव हमारा गोत्र।" आजकल 1.किसी भी कार्य को छोटा न समझें। व्यक्ति केवल धन, संपत्ति एवं सुविधा साधनों को ही मधुर जीवन का 2. हर कार्य को पूर्णता देकर ही विश्राम लें। मूल आधार मानता है। पर यह पूर्ण सत्य नहीं है। जहाँ एक तरफ 3. पूरे मन से हर कार्य को सम्पन्न करें। सुविधासम्पन्न दिखाई देने वाला व्यक्ति भीतर से दुःखी और अशांत है 4.कम-से-कम 12 घंटे मेहनत अवश्य करें। वहीं दूसरी तरफ अभावग्रस्त व्यक्ति सुविधा-साधनों को संगृहीत करने 10. कार्य योजना - किसी भी कार्य को पूर्णता देने के लिए के लिए बेचैन है। योजना बनाना आवश्यक है। श्री चन्द्रप्रभ का विचार दर्शन सफल श्री चन्द्रप्रभ ने सुख-दुःख का संबंध साधनों के होने न होने से नहीं जीवन जीने के लिए कार्य-योजना बनाने की प्रेरणा देता है। वे कहते हैं, ह, नोटा जोड़ा है। उनकी दृष्टि भिन्न है। वे धन या सुविधाभाव के कारण स्वयं "दुनिया में बातों के बादशाह बहुत होते हैं आचरण के आचार्य कम।। को दु:खी मानने वाले और सुविधासम्पन्न होने के कारण स्वयं को सुखी लोग केवल बातें करेंगे। आप मनोयोगपूर्वक लग जाओ, सारी सृष्टि मानने वाले को अज्ञानी कहते हैं। जीवन को वरदान बनाने के लिए आपके सहयोग के लिए तैयार रहेगी।" उनका दर्शन जीवन का मूल्य समझने और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट 11. बेहतरीन शिक्षा - व्यक्ति का पूरा जीवन कैसा होगा यह करने की प्रेरणा देता है। श्री चन्द्रप्रभ का मानना है. "द:ख का मल उसकी शिक्षा पर निर्भर करता है। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन शिक्षा को । कारण रुग्ण एवं विक्षिप्त चित्त है। स्वर्ग-नर्क कोई आसमान या पाताल सफलता की नींव मानता है। वे शिक्षा के साथ विचारों को उत्तम बनाने के नक्शे नहीं हैं, वरन् ये दोनों जीवन के ही पर्याय हैं। शांत चित्त स्वर्ग व जीवन की कला का प्रशिक्षण पाने की भी प्रेरणा देते हैं। उनका है,अशांत चित्त नरक; प्रसन्न हृदय स्वर्ग है, उदास मन नरक।हर प्राप्त में विचार-दर्शन युवापीढ़ी को शिक्षा के प्रति सजग रहने, लड़कियों को आनंदित होना स्वर्ग है, व्यर्थ की लालसाओं में उलझे रहना नरक। यह श्रेष्ठ शिक्षा दिलवाने, कॅरियर बनने के बाद शादी का निर्णय करने का व्यक्ति पर निर्भर है कि वह अपने आपको नरक की आग में झलसाए मार्गदर्शन देता है। रखना चाहता है या स्वर्ग के मधुवन में आनंदभाव से अहो नृत्य करना 12. धैर्य-किसी भी कार्य की सिद्धि पहले प्रयास में हो जाए, यह चाहता है।" श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में मधुर जीवन के लिए निम्न सूत्रों जरूरी नहीं है, इसलिए जीवन में धैर्य की आवश्यकता होती है। धैर्य को जीवन में आत्मसात करने की प्रेरणा दी गई है - आत्मविश्वास को कमजोर नहीं होने देता है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में 1.चैत्तसिक प्रसन्नता - मधर जीवन के लिए चित्त की प्रसन्नता धैर्य और आत्मविश्वास सफलता के दो संबल माने गए हैं। उन्होंने धैर्य पहली शर्त है। प्रसन्न हृदय में ही परमात्मा का वास होता है। अगर के संदर्भ में कहा है, "जीवन में बाधाओं की चाहे सड़क पार करनी हो व्यक्ति दिन की शुरुआत प्रसन्नता से. मुस्कान से करेगा तो उसका पूरा या रेल की पटरी धैर्य और साहस का दामन कभी मत छोड़िए।" दिन आनंद भाव से गुजरेगा, पर उदास मन, आलस्य भाव से दिन की 13. मानसिक विकास - इंसान की सबसे बड़ी शक्ति है शुरुआत करेगा तो पूरा दिन व्यर्थ में ही जाएगा। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन मस्तिष्क। इसका विकास करके व्यक्ति महान सफलताओं को कहता है, "अपने हर दिन की शुरुआत इतने स्वस्थ और प्रसन्न मन से उपलब्ध कर सकता है। जीवन को बनाए रखने के लिए हृदय जरूरी है कीजिए कि दिन, दिन नहीं अपितु ईश्वर की ओर से मिला हुआ वरदान और जीवन को चलाने के लिए मस्तिष्क आवश्यक है। मस्तिष्क से ही बन जाए। बहुत लोग सोते हैं तो सोये के सोये ही रह जाते हैं, हमें जीवन जीवन की सारी गतिविधियाँ संचालित होती हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने बौद्धिक मिल गया, यह क्या कम उपहार है? अच्छा होगा कि आज जो दिन विकास के निम्न सूत्र दिए हैं - मिला है, उसकी खुशी मनाई जाए।" इस तरह उन्होंने मधुर जीवन के 1.पौष्टिक भोजन लें। लिए सर्वप्रथम प्रसन्न रहने की सीख दी है। वे प्रसन्नता को सभी 2.प्रतिदिन योग एवं व्यायाम करें। समस्याओं का समाधान करने वाला मानते हैं। उनकी दृष्टि में, "अगर 3.गहरी-लम्बी श्वासोश्वास का अभ्यास करें। व्यक्ति सुबह-सुबह दो मिनट तक मुस्कुराने का प्रयोग कर ले तो 64» संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसका क्रोध अपने आप छूट जाएगा। निराशा, घुटन अपने आप चले जाएँगे,तनाव और चिंताएँ स्वत: विलीन हो जाएँगी।" 2.जीवन-शैली में निखार - व्यक्ति जैसा जीवन जीता है वैसा ही उसका व्यक्तित्व बनता है। मधुर जीवन के लिए श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन- शैली को अच्छा बनाने की सीख दी है। जीवन-शैली को व्यवस्थित करके व्यक्ति जीवन को आनंदपूर्ण बना सकता है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में सुंदर जीवन-शैली पर मार्गदर्शन के रूप में निम्न सूत्र मिलते हैं - 1.सूर्योदय से पहले उठे। 2. माँ-बाप, बड़े-बुजुर्गों को प्रणाम कर सबके प्रति आदर भाव समर्पित करें। 3.घर का वातावरण अच्छा बनाएँ। 4.हर चीज की साफ-सफाई पर ध्यान दें। 5.सबके साथ शालीनता से पेश आएँ। 6.बड़ों को देखकर उनसे आगे बढ़ने की प्रेरणा लें। 3. स्व-प्रबंधन - हर सफलता के पीछे एक प्रबंधन व्यवस्था निहित होती है। वैसे ही मधुर जीवन के लिए स्वयं का व्यवस्थित होना अति आवश्यक है। स्वयं को व्यवस्थित करने के लिए श्री चन्द्रप्रभ ने निम्न प्रेरणाएँ दी हैं 1.सामान को व्यवस्थित रखें। 2.समय के पाबंद बनें। 3.धैर्य, प्रेम और संयम से बोलें। 4. हर कार्य को प्रभु की पूजा मान कर करें। 5.प्रतिदिन पन्द्रह मिनट प्रार्थना करें। 6.किसी भी कार्य को छोटा न समझें। 4. सरल स्वभाव - हर व्यक्ति का जन्मतः एक स्वभाव होता है और उसी स्वभाव से उसका जीवन संचालित होता है। स्वभाव अर्थात् अंतर्मन का गहरा संस्कार । व्यक्ति अपने संकल्प से अपने स्वभाव को सरल बना सकता है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में सरल स्वभाव को मधुर जीवन का अनिवार्य अंग माना गया है। वे कहते हैं,"कपड़े बदलकर संत बनना आसान है, पर स्वभाव बदलकर संत बनना असली साधना है। एक अच्छा स्वभाव सौ करोड़ की सम्पदा से अधिक मूल्यवान है।" श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में स्वभाव को सौम्य एवं सरल बनाने के लिए निम्न सूत्र दिए गए हैं - 1. गुस्सा नहीं करूँगा, किसी को तभी डाँट्रॅगा जब उसकी पहले की तीन ग़लतियों को माफ कर चुका होऊँगा। 2. जैसे के साथ तैसा वाली नीति नहीं अपनाऊँगा. मैं बडप्पन रखंगा। 3. अपने आपको हर हाल में सकारात्मक रमूंगा। 4.सदा अच्छी सोहबत रमूंगा। 5.शराब व नशे से दूर रहूँगा। 5.तनाव-मुक्ति - आधुनिक जीवन शैली के कारण तनाव जीवन का हिस्सा बन चुका है। हर व्यक्ति तनावग्रस्त है। तनाव व्यक्ति को भीतर से खोखला कर देता है। यह शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक शांति का दुश्मन है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में मधुर जीवन जीने के लिए तनाव से मुक्त होने की प्रेरणा दी गई है। श्री चन्द्रप्रभ के व्यक्तित्व- निर्माणपरक साहित्य में तनाव-मक्ति पर विस्तत रूप से वैज्ञानिक- मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्राप्त होता है। वे कहते हैं, "तनाव से घिरे व्यक्ति की मन:स्थिति का नाम ही नरक है। अगर व्यक्ति यह संकल्प कर ले कि जीवन में जो कुछ होगा उसे मैं प्रकृति की व्यवस्था का हिस्सा भर मानूँगा और जीवन को सहज भाव से जीते हुए हर हाल में मस्त रहूँगा वह तनाव और अवसाद से मुक्त होने में अवश्य सफल हो जाएगा।" उनके द्वारा तनाव मुक्त जीने के लिए दिए गए व्यावहारिक उपाय आम आदमी के लिए अति उपयोगी हैं। उन्होंने तनाव मुक्ति हेतु निम्न मार्गदर्शन दिया है 1.जीवन में सदा हँसने-मुस्कुराने की आदत डालिए। 2.कुछ समय प्रेम,शांति और मिठास भरा संगीत सुनिए। 3. थोड़ा-सा पैदल चलने की आदत डालिए। 4. प्रतिदिन दस से पन्द्रह मिनट योगासन अवश्य कीजिए। 5.हमेशा अच्छी नींद लीजिए। 6.थोड़ी देर ध्यान अवश्य कीजिए। 7.निराशावादी विचारों का त्याग कर आशा और उत्साह का संचार कीजिए। 8.थोड़ा-सा मेल-मिलाप बढ़ाइए। 9.अपने हर कार्य को धैर्य और शांतिपूर्वक सम्पन्न कीजिए। 6. सकारात्मक मस्तिष्क - मस्तिष्क प्रकृति की अद्भुत रचना है। मस्तिष्क का रचनात्मक उपयोग करके व्यक्ति आगे बढ़ सकता है। जो मस्तिष्क का सही उपयोग नहीं करते, उनका मस्तिष्क धीरे-धीरे निष्क्रिय-नकारात्मक हो जाता है। हमें खाली नहीं,खुले मस्तिष्क का मालिक बनना चाहिए। खाली दिमाग को शैतान का घर कहा गया है। स्कूटर की सीट फाड़ देना, ट्यूब की हवा निकाल देना, मील के पत्थरों पर लिखे शब्दों को बदल देना जैसे काम खाली मस्तिष्क वाले करते हैं। इसलिए श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में मधुर जीवन के लिए दिमाग का सक्रिय, सचेतन और सकारात्मक उपयोग करने की प्रेरणा दी गई है। उनका दृष्टिकोण है, "दुनिया में अधिकतर वे ही लोग शैतानी करने पर उतरा करते हैं जो खाली दिमाग के होते हैं।" उन्होंने मस्तिष्क का सार्थक उपयोग करने के लिए कुछ सूत्रों को जीवन में आत्मसात् करने का मार्गदर्शन दिया है, वे हैं 1.हर समय व्यस्त रहें व हर हाल में मस्त रहें। 2. खुद को लाफिंग बुद्धा' बनाएँ। 3.जीवन के प्रति अच्छा नजरिया रखें। इस तरह दिमाग को सदा स्वस्थ, सक्रिय, सकारात्मक और आनंदमय बनाए रखना जीवन की महान सफलता है। 7.वाणी-विवेक- वाणी इंसान की बहुत बड़ी ताकत है। वाणी ही व्यक्ति को जानवरों से भिन्न करती है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं,"जीवन में से अगर वाणी को निकाल दिया जाए तो इंसान चलती-फिरती मशीन भर हो जाएगा।" संसार के व्यवहार का भी मुख्य आधार है वाणी। वाणी सज्जनों का आभूषण है तो दुर्जनों का शस्त्र। शतपथब्राह्मण में कहा गया है, 'वाची वा इद सर्व प्रभवति' अर्थात् वाणी से ही यह संसार उत्पन्न है।" वाणी से व्यक्ति मधुर जीवन भी जीता है और इसी से दुःख भी पाता है। अगर व्यक्ति केवल बोलने की कला सीख जाए ता वह जावन म सुखा, सफल एव मधुर जावन का मालिक बन सकता है। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन व्यक्ति को शरीरगत संदरता के साथ For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स-650 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणीगत सुंदरता पर ध्यान देने की प्रेरणा देता है। श्री चन्द्रप्रभ का कोटि का, माँ से जुड़ा प्रेम पवित्र कोटि का और गुरु से जुड़ा प्रेम, प्रेम दृष्टिकोण है, "केवल ऊँचे कुल में जन्म लेने से व्यक्ति ऊँचा नहीं हो का उच्च रूप है, लेकिन जब यह परमात्मा से जुड़ जाता है तो प्रेम प्रेम जाता, ऊँचाइयों को छूने के लिए बोलने की कला आनी जरूरी है।" नहीं रहता मीरा की पैरों की पाजेब बन जाता है।" उन्होंने अहिंसा को संसार एक प्रतिध्वनि है, व्यक्ति जैसा बोलता है वैसा ही वापस लौटकर धन्य करने के लिए प्रेम का पथ उसके साथ जोड़ने की सीख दी है। आता है। व्यक्ति को सदैव मधुर, मीठी और सम्मान युक्त भाषा का उनकी दृष्टि में, "चाँटा न मारना अहिंसा है, पर दो कदम आगे बढ़कर उपयोग करना चाहिए ताकि वह दूसरों से भी मिठास पा सके। श्री स्नेह से माथा चूमना अहिंसा का विस्तार व प्रेम की सिखावन है।" चन्द्रप्रभ के दर्शन ने वाणी को विवेक एवं मिठास युक्त बनाने के लिए उनके दर्शन में प्रेम का विस्तार परिवार से प्रकृति तक देखने को मिलता निम्न सूत्रों को अपनाने का मार्गदर्शन दिया गया है - है। वे ध्यान के साथ प्रेम को भी आध्यात्मिक विकास का आधार बताते 1. कटु व टोंट भरी भाषा न बोलें। 2. उपालम्भ देने व आलोचना करने से बचें। सभी बिन्दुओं के अनुशीलन से स्पष्ट होता है कि श्री चन्द्रप्रभ का 3. मधुर व मुस्कुराते हुए बोलें। दर्शन मधुर जीवन के लिए ठोस सिद्धांत एवं विचार प्रस्तुत करता है। 4.सॉरी, षै क्यू, प्लीज जैसे शब्दों का पूरी उदारता से प्रयोग करें। उनके द्वारा मधुर जीवन पर प्रकट किए गए विचार बेहतर, सरल, 5. जब भी बोलें धीमे व धीरज से बोलें। संक्षिप्त एवं भविष्य के लिए भी उपयोगी हैं। 6.संक्षिप्त वाणी ही बोलें। 7. कहे हुए शब्द और दिए हुए वचन को हर हालत में निभाएँ। जीवन और शांति 8. बेहतर व्यवहार - जीवन के मुख्य तीन आधार हैं - विचार, __ शांति कहाँ है, इसकी खोज कैसे की जाए या इसको कैसे प्राप्त वाणी और व्यवहार। तीनों परस्पर पूरक हैं। व्यवहार से व्यक्ति के किया जाए, यह भारतीय धर्म और दर्शन शास्त्रों की मूल विषय-वस्तु व्यक्तित्व की पहचान होती है। हितोपदेश में कहा गया है, "इस संसार रही है। महावीर और बुद्ध जैसे राजकुमारों ने तो शांति को पाने के लिए में स्वभावतः कोई किसी का शत्रु या प्रिय नहीं होता है। लघुता या राजमहलों, राजरानियों तक का त्याग कर दिया और जंगलों में चले प्रभुता व्यक्ति को अपने व्यवहार से ही प्राप्त होती है।" श्री चन्द्रप्रभ के । गए। मन को समझना, शांत करना बहुत बड़ी साधना है। वर्तमान की दर्शन में मधुर जीवन के लिए व्यवहार को बेहतर बनाने का मार्गदर्शन भागमभाग भरी जिंदगी से मनुष्य के हाथों से शांति छिटकती जा रही दिया गया है। उनका मानना है, "महान लोग शत्र के साथ भी महान है। अर्थ केन्द्रित जिंदगी ने मनुष्य को मशीन बना दिया है। धैर्य और व्यवहार करते हैं। जबकि हल्के लोग दोस्त के साथ भी हल्का व्यवहार सहनशीलता जैसे सद्गुण कमजोर होते जा रहे हैं। आज का इंसान किया करते हैं। जो सबके साथ सलीके से पेश आते हैं, सभी से बाहर से खूब समृद्ध हुआ है, पर भीतर में पलने वाली चिंताएँ, तनाव, सम्मानजनक भाषा का प्रयोग करते हैं, मित्रों के साथ भी सहजतापूर्ण क्रोध, इच्छाएँ उसे अशांत करती रहती हैं। ऐसे में व्यक्ति एक ऐसे सरल व्यवहार करते हैं वे सदा महान व्यक्तित्व के स्वामी होते हैं।" श्री । एवं वैज्ञानिक मार्ग की तलाश में है जो उसे शांति का सुकून प्रदान कर चन्द्रप्रभ व्यवहार को उत्तम बनाने के लिए निम्न मार्गदर्शन देते हैं - सके एवं चिंता-तनाव-इच्छाओं के मकड़जाल से बाहर निकाल सके। 1.जीवन में विनम्रता को अपनाएँ। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन शांति और सफलता पाने का दर्शन है। 2.सुबह उठकर बड़ों को प्रणाम करें। यद्यपि शांति और सफलता दो अलग-अलग पहलू हैं फिर भी उनके 3. मुस्कुराकर बोलने व मिलने की आदत डालें। दर्शन में इन दोनों के बीच में सामंजस्य स्थापित किया गया है। श्री 4.सभी के साथ सभ्यता, शिष्टता व नम्रता से पेश आएँ। चन्द्रप्रभ ने सफलता की बजाय शांति को विशेष महत्व दिया है। उनका 5.सम्मान लेने की बजाय देने की भावना रखें। मानना है, "शांति ही जीवन का सबसे बड़ा स्वर्ग है, शांति ही अपने 6. दूसरों का दिल दुखाने वाली बातें न बोलें। आप में सुख है और वास्तविकता तो यह है कि शांति को पाना ही 7.शब्दों का प्रयोग सावधानी से करें। जीवन की सबसे बड़ी सफलता है। वे स्वयं को शांतिदूत कहते हैं एवं 8.किसी का उपहास न उड़ाएँ। शांति के मार्ग पर कदम बढ़ाने की प्रेरणा देते हैं। उनका दृष्टिकोण है, 9.तर्क करें, पर तकरार नहीं। "निश्चित ही पैसा मूल्यवान है, लेकिन शांति पैसे से भी ज्यादा 9. प्रेमी-हृदय - प्रेम संसार का प्राण-तत्व है। प्रेम बिना सारी मूल्यवान ह। निश्चय हा पत्ना का कामत है, पर शाति पत्नी से भा ज्यादा धरती रिक्त है। सभी धर्मों में प्रेम को किसी न किसी रूप में अपनाने की कीमती है। संतान का मोल अनमोल होता है, लेकिन शांति का मोल बात कही गई है। जीसस ने प्रेम को धर्म का सार कहा है । कबीर का यह संतान से भी ज्यादा मूल्यवान होता है। जीवन में वह हर डगर स्वीकार्य दोहा प्रसिद्ध है - है, वह हर व्यक्ति स्वीकार्य है, वह जिसके पास बैठने से, रहने से या पोथी पढि-पढि जग मुआ, पंडित भया न कोय। जीने से हमारी शांति को कोई खतरा न होता हो।" उनके दर्शन में शांतढाई आखर प्रेम का, पढे सो पंडित होय ॥ जीवन जीने के लिए निम्न मार्गदर्शन दिया गया है - श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन भी इंसान को प्रेम के रास्ते पर कदम बढ़ाने 1.चिंतामुक्त जीवन- मानवीय स्वभाव का नकारात्मक पहलू है के लिए प्रेरणा देता है। उनके दर्शन में प्रेम और मोह का सुंदर विश्लेषण चिंता। चिंता चिता से भी भयानक है। वर्तमान में चिंता का स्तर बहुत प्रस्तुत हुआ है। वे मोह को हटाने और प्रेम को बढ़ाने की प्रेरणा देते हैं। बढ़ गया है। व्यक्ति पर बचपन से लेकर पचपन तक चिंता हावी रहने उनका दृष्टिकोण है, "प्रेम में विश्व की सारी समस्याओं का समाधान लगी है। चिंता के चलते व्यक्ति की शांति समाप्त हो गई है। चिंता से निहित है।" उनके दर्शन में कहा गया है, "पत्नी से जुड़ा प्रेम सामान्य शरीर और मस्तिष्क पर भी नकारात्मक परिणाम आने लगते हैं। चिंता 66 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से मुक्त होना व्यक्ति के लिए अति आवश्यक है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन है, "जो प्रकृति की इस व्यवस्था को समझ लेते हैं, वे मानसिक में चिंता पर विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत हुआ है। चिंता का स्वरूप, अशांति, तनाव और अवसादों से मुक्त रहकर हर हाल में मस्त रहते कारण, परिणाम, समाधान, आदि सभी पहलुओं पर प्रस्तुत किये गए हैं।" उनके दर्शन में मन की प्रसन्नता को बनाए रखने के लिए निम्न उनके विचार वर्तमानोपयोगी हैं। उन्होंने चिंता के मुख्य रूप से निम्न सूत्रों का मार्गदर्शन प्राप्त होता है - कारण बताए हैं - 1. उपेक्षा को प्रसन्नता की कसौटी समझें। 1. धन के प्रति अतिलोलुपता रखना। 2. औरों से अधिक स्वयं के दृष्टिकोण को मूल्य दें। 2.अतीत की बुरी घटनाओं का स्मरण करना। 3. व्यर्थ की प्रतिक्रियाओं से बचें। 3. कृत्रिम जीवन जीना। 4. मानसिकता को अच्छा और बेहतर बनाएँ। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में चिंता-मुक्ति के लिए निम्न सूत्र दिए गए हैं - 5. परामर्श तभी दें जब आपसे कोई परामर्श की अपेक्षा रखे। 1.सहज जीवन जीएँ। 6. न तो किसी की गलती निकालें,न किसी में गलती निकालें, 2. विपरीत परिस्थितियों को स्वयं की कसौटी मानें। 7. दखलअंदाजी से बचें। 3. प्रकृति व परमात्मा की व्यवस्थाओं में विश्वास रखें। 8. प्रशंसा व आलोचना में सहनशील बने रहें। 4. कुछ व्यवस्थाओं को समय पर छोड़ दें। 9. लोगों द्वारा की गई टिप्पणी से विचलित न होवें। 5. पुरानी घटनाओं को भूल जाएँ और गमों से समझौता करना 10. अच्छी सोच व अच्छा स्वभाव रखें। सीखें। 11. व्यर्थ के झंझटों से बचें और औरों का भला होता हो तो अवश्य 2. क्रोध-नियंत्रण - दुःख और दुर्गति का मुख्य कारण है करें। कषाय। कषाय चार हैं - क्रोध, मान, माया और लोभ। चारों ही अशांति 4.मानसिक शांति - संसार अनुगूंज का नाम है, यहाँ व्यक्ति जैसा के जनक हैं। मानवीय स्वभाव का मुख्य नकारात्मक पहलू है क्रोध। करता है उसे वैसा ही परिणाम प्राप्त होता है। अच्छे परिणाम पाने के क्रोध का परिणाम दुःखदायी है। यह जीवन के विकास को रोक देता लिए अच्छे कर्म करना आवश्यक है। अच्छे कर्म तभी होंगे जब व्यक्ति है। शांत जीवन के लिए क्रोध पर संयम आवश्यक है। श्री चन्द्रप्रभ का की सोच अच्छी होगी। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में शांत जीवन का मालिक दर्शन क्रोध-मुक्ति का बेहतरीन मार्ग प्रस्तुत करता है। श्री चन्द्रप्रभ ने बनने के लिए मन में शांति का चैनल चलाने की प्रेरणा दी गई है। स्वयं क्रोध का स्वरूप, क्रोध के परिणाम, क्रोध के कारण, क्रोध की विविध को शांत करना वास्तव में बहुत बड़ी उपलब्धि है। श्री चन्द्रप्रभ कहते स्थितियाँ, क्रोध-मुक्ति के उपाय आदि सभी पहलुओं पर मनोवैज्ञानिक हैं, "मानवता की सेवा के लिए धन का दान देना पुण्य की बात है प्रकाश डाला है। उन्होंने क्रोध के निम्न कारणों का जिक्र किया है - लेकिन मानवता को अपनी ओर से शांति प्रदान करना लाखों-लाख औरों द्वारा गलती करना, अपेक्षाओं का उपेक्षित होना और अहंकार पर रुपयों के दान से भी ज्यादा श्रेष्ठ है।" अगर व्यक्ति संकल्पबद्ध हो जाए चोट लगना। उन्होंने क्रोध के परिणामों में होश खोना, स्वास्थ्य कि मैं हर हाल में शांत रहूँगा तो दुनिया की कोई ताकत उसे अशांत नहीं बिगड़ना, संबंधों में खटास आना, आत्महत्या करना, कॅरियर चौपट कर सकती है। श्री चन्द्रप्रभ ने मन को शांत बनाने के लिए निम्न प्रेरणा होना आदि को बताया है। श्री चन्द्रप्रभ ने क्रोध से छटकारा पाने के लिए दी हैनिम्न उपायों को जीवन से जोड़ने की प्रेरणा दी है - 1.हर परिस्थिति में स्वयं की शांति को महत्व दें। 1. गलती हो जाए तो माफी माँगें और दूसरों से गलती हो जाए तो 2. ध्यान में गहरी-लम्बी साँसों के साथ स्वयं को शांतिमय बनाते माफ कर दें। जाएँ। 2. क्रोध के वातावरण वाले स्थान से हट जाएँ। __5.आंतरिक सहजता - सुख-दु:ख, लाभ-हानि, संयोग-वियोग 3. तत्काल दो गिलास ठण्डा पानी पिएँ। जीवन के अनिवार्य पहलू हैं। जो इस बात को जान लेता है वह सहजता 4. तत्काल गुस्सा करने की बजाय थोड़ी देर में करें। से जीवन जी सकता है। औरों की टिप्पणी व उपेक्षा और अपमान में 5. चौघड़िया देखकर अमृत सिद्धियोग में गुस्सा करें। अपनी सहजता-सौम्यता को बनाए रखना चुनौतिपूर्ण है। सहजता 6. मिठास भरी भाषा का उपयोग करें। जीवन में शांति एवं समाधि के द्वार खोलती है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में 7. खुद पर संयम रखें व सकारात्मक व्यवहार करें। शांति पाने के लिए सहजता को अपनाने की बात कही गई है। कबीर ने 8. प्रतिदिन 1 घंटा मौन-व्रत स्वीकार करें। कहा है - 9. क्रोध का सप्ताह में एक दिन पूर्ण उपवास करें। सहज मिले सो दूध सम मांगा, मिले सो पानी। 10. जीवन में हमेशा विनम्रता बनाए रखें। कह कबीर वह रक्त सम, जामें खींचातानी।। 11.सदाबहार प्रसन्न रहने की आदत डालें। श्री चन्द्रप्रभ का मानना है, "हम जीवन के प्रति निश्चिंतता का 3. प्रसन्न मन - जीवन उतार-चढ़ाव का नाम है। विपरीत नजरिया अपनाएँ क्योंकि प्रकृति की व्यवस्थाएँ पूर्णता लिए हुए हैं। परिस्थितियों में मन को शांत एवं प्रसन्न रखना बहुत बड़ी चुनौती है। श्री मनुष्य माँ की कोख में बाद में पैदा होता है, माँ की छाती में दूध पहले चन्द्रप्रभ के दर्शन में शांत एवं प्रसन्न जीवन जीने की बेहतरीन कला भर जाता है। वे सहज जीवन में विश्वास रखते हैं। उनके दर्शन में सर्वत्र सिखाई गई है। प्रकृति परिवर्तनशील है। व्यक्ति भी प्रकृति का हिस्सा सहज जीवन जीने का अंतर्बोध प्राप्त होता है। उनका कहना है, "जीवन है। उस पर भी प्रकृति के नियम लागू होते हैं। श्री चन्द्रप्रभ का दृष्टिकोण में सारे द्वार एक साथ बंद नहीं होते, यदि एक बंद होता है तो भी For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स,670 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वास रखें, दूसरा खुल भी जाता है। हमारा यह विश्वास और अंतर्दृष्टि आत्मीयता की भावनाएँ कम होती जा रही हैं। अगर ऐसा ही चलता रहा ही हमें अपने जीवन में सहजता और शांति का आचमन करा पाएगी।" तो आने वाले कल में स्थिति भयावह हो जाएगी। इस स्थिति को 6. प्रतिक्रिया-मुक्ति - मनोविज्ञान का एक नियम है : वाद, संभालना व सुधारना बेहद जरूरी है। इस प्रकार के पारिवारिक माहौल प्रतिवाद और संवाद। संवाद के लक्ष्य से किया गया वाद, प्रतिवाद को अच्छा बनाने के लिए श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन सरल, उत्तम एवं सार्थक होता है। क्रिया की प्रतिक्रिया सकरात्मक रूप में हो तो अच्छे वर्तमानोपयोगी है। परिवार में किस तरह रहना और जीना चाहिए, परिणाम आते हैं, पर नकारात्मक प्रतिक्रियाएँ द्वंद्व पैदा कर देती हैं। श्री प्रत्येक सदस्य के क्या कर्तव्य हैं, रिश्तों में मिठास लाना किस तरह चन्द्रप्रभ का दर्शन प्रतिक्रियाओं से मुक्त रहने की प्रेरणा देता है। संभव है, घर के वातावरण को स्वर्ग सरीखा कैसे बनाया जा सकता है, प्रतिक्रिया से बचने के लिए श्री चन्द्रप्रभ ने प्रतिक्रिया न करने का इत्यादि सभी पहलुओं पर उनका दर्शन बेहतरीन मार्गदर्शन देता है। श्री संकल्प लेने व समता-सहिष्णुता को आत्मसात् करने का मार्गदर्शन चन्द्रप्रभ के दर्शन का पारिवारिक दृष्टिकोण क्या है? इसको समझने के दिया है। वे कहते हैं, "शांति का स्वामी वही है जो निरपेक्ष रहता है हर लिए आगे विभिन्न बिन्दुओं में विवेचन किया गया है। परिस्थिति से। शांति के क्षणों में शांत हर कोई रहता है, जो अशांति के 1.खुशहाल परिवार - व्यक्ति के जीवन का मूल आधार परिवार वातावरण में भी शांत बना रहे, उसी की बलिहारी है।"श्री चन्द्रप्रभ का है। परिवार जीवन की पहली पाठशाला है। विद्यालय शिक्षा देते हैं, पर दर्शन हर हाल में शांतिपूर्ण जीवन जीने की सीख व समझ देता है। परिवार संस्कार देता है। अच्छे समाज के निर्माण के लिए परिवार का उनकी दृष्टि में,"शांति ही स्वर्ग है और अशांति ही नर्क।" वर्तमान में अहिंसक, व्यसनमुक्त और गरिमापूर्ण होना आवश्यक है। श्री चन्द्रप्रभ प्रतिदिन अशांत हो रहे मनुष्य को शांत जीवन जीने का मार्गदर्शन का दर्शन प्रेमपूर्ण परिवार के निर्माण की प्रेरणा देता है। उनका मानना मिलना अत्यावश्यक है। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन शांति पाने के लिए कुछ है, "जब सात वार मिलते हैं तो सप्ताह बनता है और सारे लोग और बिन्दुओं का भी संकेत करता है जो इस प्रकार हैं मिलजुलकर रहते हैं तो परिवार बनता है। अगर व्यक्ति सातों वारों को 1.शांति चाहिए तो शांत रहिए। स्वर्ग बनाना चाहता है, तो आठवें वार परिवार' को स्वर्ग बनाएँ।" घर 2.जो है जैसा है उसमें खुश होना सीखिए। को पहला मंदिर मानना और धर्म की शुरुआत मंदिर-मस्जिद की 3.प्रकृति की व्यवस्थाओं को स्वीकार कीजिए। बजाय घर से करना उनका दर्शन की नई देन है। उन्होंने घर-परिवार को 4.देखने व सोचने की मानसिकता में परिवर्तन लाइए। खुशहाल बनाने के लिए निम्न प्रेरणा सूत्र दिए हैं - 5.स्वयं को सकारात्मक बनाए रखिए। 1. सभी सदस्य एक सूत्र में बँधकर रहें। 6. लोग क्या कहेंगे' की चिंता छोड़ दीजिए। 2. माता-पिता के रहते बेटे अलग न हों। 7.जीवन को व्यवस्थित कीजिए। 3. पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी के अनुरूप ढले और नई पीढ़ी पुरानी सभी बिन्दुओं के अनुशीलन से स्पष्ट होता है कि श्री चन्द्रप्रभ का पीढ़ी को दर्शन शांतिमय जीवन जीने की मुख्य प्रेरणा देता है। उनके साहित्य में समझने की कोशिश करे। शांति तत्त्व पर विस्तार से विवेचन किया गया है। अशांति के द्वार पर 4. हर घर में रामायण का पाठ हो, घर के लिए रामायण को खडे व्यक्ति के लिए यह मार्गदर्शन मील के पत्थर की तरह उपयोगी है। आदर्श माना जाए। 5. एक-दूसरे को पूरा सम्मान व स्वतंत्रता दें। परिवार दर्शन 6. सुबह जल्दी उठकर सभी घर को सजाने-सँवारने में सहयोग परिवार विश्व की नींव है। जैसा परिवार वैसा समाज, जैसा समाज करें। वैसा राज्य, जैसा राज्य वैसा देश और जैसा देश वैसे विश्व का निर्माण 7. सप्ताह में एक दिन सभी सदस्य साथ बैठकर भोजन करें। होता है। विश्व को सुधारने के लिए परिवार को सुधारना आवश्यक है। 8. घर में स्वच्छता बनाए रखें। भारतीय संस्कृति में व्यक्ति को परिवार त्याग कर साधना के मार्ग पर 9. एक-दूसरे को पूरा सहयोग करें। कदम बढ़ाने की अथवा गृहस्थ जीवन को मर्यादापूर्वक जीने की प्रेरणा 10. परिवार को व्यसन-मुक्त रखें। दी गई है। हर किसी का जन्म परिवार के बीच होता है। व्यक्ति जन्म से 11. सभी अपने-अपने कर्तव्य निभाएँ। मृत्युपर्यन्त परिवार में रहता है। परिवारिक दायित्वों को निभाना व्यक्ति 2.रिश्तों में मिठास- अच्छे परिवार के निर्माण के लिए रिश्तों को का पहला कर्तव्य होता है। जीवन-निर्माण की शुरुआत परिवार से अच्छा बनाना जरूरी है। परिवार में अनेक तरह के रिश्ते होते हैं - माँहोती है। श्रेष्ठ परिवार ही श्रेष्ठ जीवन का निर्माण कर सकता है। बाप और पुत्र का रिश्ता, भाई-भाई का रिश्ता, देवर-भाभी का रिश्ता, __ वर्तमान की परिस्थितियों पर ध्यान दें तो पारिवारिक स्वरूप में सास-बहू का रिश्ता, पति-पत्नी का रिश्ता आदि। जीवन को मीठा काफी बदलाव आ चुका है। भागमभाग भरी जिंदगी एवं स्वार्थ युक्त बनाने के लिए परिवार में मिठास बढ़ानी चाहिए और परिवार में मिठास सोच के चलते पारिवारिक विघटन की स्थितियों में बाढ-सी आ गई बढ़ाने के लिए रिश्तों में मिठास बढ़ाना अनिवार्य है। श्री है। रिश्तों में मिठास की बजाय कड़वाहटें घुल गई हैं। व्यक्ति के भीतर चन्द्रप्रभ के दर्शन में परिवार के हर रिश्ते को मधुर बनाने का सुंदर पल रही स्वतंत्रता की भावना, स्वार्थ की प्रवृत्ति, संकीर्ण मानसिकता ने मार्गदर्शन दिया गया है। उनका मानना है, "लक्ष्मी का निवास बैकुण्ठ उसे पारिवारिक प्रेम से दूर कर दिया है। कर्तव्य व अधिकार की भाषाएँ में नहीं, उस घर में होता है जहाँ पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-भाई, बदलती जा रही हैं। भाई-भाई, सास-बहू, माता-पिता और पुत्र, पति- सास-बहू, देवरानी-जेठानी और देवर-भाभी के बीच प्रेम, सम्मान, पत्नी और देवराणी-जेठाणी के रिश्तों में प्रेम, सहयोग, त्याग, सहयोग और मिठास भरा व्यवहार होता है।" श्री चन्द्रप्रभ ने घर68 संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थी में जीने के लिए रामायण को आदर्श बनाकर एक-दूसरे के प्रति रहने वाले कर्तव्यों को निभाने की प्रेरणा दी है। परिवार का पहला रिश्ता है माता-पिता और संतान का रिश्ता । संतान को संस्कारशील बनाना जहाँ माता-पिता का पहला दायित्व है वहीं माता-पिता की सेवा संतान का मुख्य फर्ज है। वर्तमान स्थितियों पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है। संतानें अपना दायित्व निभाना भूल गई हैं। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन संतानों को दायित्व बोध कराने में पूर्ण सफल हुआ है। श्री चन्द्रप्रभ वैचारिक संदेशों से प्रभावित होकर परिवार में प्रेम व मिठास बढ़ा है। श्री चन्द्रप्रभ ने बेहतरीन रिश्तों का सृजन करने के लिए निम्न मार्गदर्शन दिया है = 1. परिवार अर्थात् फैमिली जिसका मतलब है एफ फादर, ए एण्ड, एम = मदर, आई आई, एल = लव, वाय = यू अर्थात् फादर एण्ड मदर आई लव यू। जिस घर में माता-पिता का सम्मान और भाईबहिनों से प्रेम होता है, उसी घर को परिवार कहते हैं। = 2. भले ही बूढ़ा पेड़ फल नहीं देता, पर छाया तो अवश्य देता है, इसलिए व्यक्ति मंदिर में जाकर देवी को चुनरी और भोग बाद में चढ़ाए, पहले माता-पिता के कपड़ों व भोजन की व्यवस्था करे । 3. जिन भगवान की मूर्तियों को हमने बनाया उनकी तो हम खूब पूजा करते हैं, पर जिस माँ-बाप ने हमें बनाया उनकी पूजा करना हम क्यों भूल जाते हैं। 4. बेटा वह नहीं होता, जिसे माँ-बाप जन्म देते हैं, जो बुढ़ापे में माँ-बाप की सेवा करे, वही असली सपूत कहलाता है। 5. अगर आप श्रवणकुमार की माँ बनना चाहती हैं तो पहले अपने पति को श्रवण कुमार बनने की प्रेरणा दीजिए। दूसरा महत्त्वपूर्ण रिश्ता है पति-पत्नी का, इस रिश्ते में आपसी संतुलन होना अनिवार्य है अन्यथा जीवन समस्या बन जाता है। तलाक लेने की स्थितियाँ दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं जो कि चिंता का विषय है। ऐसे में श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन पति-पत्नी के संबंधों को मधुर बनाने के लिए एक-दूसरे को भरपूर सम्मान देने, सहयोग करने, परस्पर विश्वास बनाए रखने व प्रेमभाव बढ़ाने के सूत्रों को अपनाने की प्रेरणा देता है। परिवार का तीसरा रिश्ता है सास-बहू का रिश्ता । यह रिश्ता परिवार के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसी रिश्ते पर परिवार की खुशहाली निर्भर है। सास बहू में सामंजस्य स्थापित करने के लिए श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन वर-वधू की बजाय सास-बहू के गुण मिलाने की प्रेरणा देता है। उनका दृष्टिकोण है, "पराए घर से बहू लाना आसान है, पर उसका दिल जीना मुश्किल है। सास बहू को इतना प्यार दे कि वह पीहर के फोन नम्बर तक भूल जाए और बहू सास का इतना सम्मान करे कि वह ससुराल गई बेटी को भूल जाए।" श्री चन्द्रप्रभ ने सास-बहू के रिश्ते प्रेमपूर्ण बनाने के लिए निम्न सूत्रों का मार्गदर्शन दिया है - 1. सास-बहू परस्पर न लड़ें। 2. सास बहू को बेटी व बहू सास को माँ समझे । 3. बहू सास के सम्मान में कभी कमी ना आने दे। 4. सास बहू को जीने की स्वतंत्रता दे। 5. सास ज्यादा दखलंदाजी न करे। 6. बहू सास के सामने न बोले । 7. बहू सास की हर बात मान ले। अन्य रिश्तों में मुख्य रूप से भाई-भाई का, देवरानी-जेठानी और देवर-भाभी के रिश्ते आते है। उनका दर्शन जीवन से जुड़े हर रिश्ते को प्रेमभरा बनाने का मार्ग सिखाता है। इन रिश्तों के संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ ने कहा है, "जिस घर में भाई भाई, देवरानी जेठानी, भाभी देवर के बीच प्रेम व समरसता होती है वह घर मंदिर की तरह होता है, पर जहाँ भाई - भाई, पिता-पुत्र, आपस में नहीं बोलते, वह घर कब्रिस्तान की तरह होता है। कब्रिस्तान के कमरों में भी लोग तो रहते हैं, पर वे आपस में बोलते नहीं, अगर घर की भी यही हालत है तो कब्रों और कमरों में फर्क ही कहाँ रह जाता है।" इस तरह उन्होंने सभी रिश्तों में मधुरता घोलने की प्रेरणा दी है। वे परिवार के निर्माण के लिए निम्न सूत्रों को आत्मसात करने की सीख देते हैं 1. सभी एक-दूसरे का सहयोग करें। 2. प्रत्येक कार्य में परस्पर सहभागी बनें। 3. हिल-मिल जुल कर रहें । 4. परस्पर पूर्ण सम्मान दें। 5. सुबह उठकर परस्पर प्रणाम करें व मुस्कुराएँ । 6. घर को सभी स्वच्छ रखें । 7. एक-दूसरे की खुशियों में शामिल होवें। 8. घर को व्यसन मुक्त रखें । 9. गलती होने पर तुरंत माफी माँग लें । 10. दिल को बड़ा रखें। 11. भाई होकर भाई के काम आएँ। 12. एक बार साथ-साथ खाना खाएँ । 13. माता-पिता की सेवा के लिए सदा तैयार रहें। इस तरह उन्होंने मनुष्य को परिवार में जीने की बेहतरीन कला सिखाई है। 3. बेहतर बच्चों का निर्माण बच्चे परिवार, समाज, देश और विश्व का भविष्य हैं। बच्चों को श्रेष्ठ बनाकर विश्व को श्रेष्ठ बनाना संभव है। प्राचीन भारत में बच्चों के निर्माण के लिए गुरुकुल व्यवस्था थी जहाँ उन्हें शिक्षा के साथ संस्कार भी दिए जाते थे। वर्तमान में गुरुकुल परम्परा का स्थान विद्यालय, महाविद्यालयों ने ले लिया है। आज शिक्षा का स्वरूप उच्चस्तरीय बन गया है, पर संस्कारों का महत्त्व घट गया है। किस तरह बच्चों को संस्कारशील, प्रतिभासम्पन्न बनाया जाए इसका सरल मार्गदर्शन श्री चन्द्रप्रभु के दर्शन में विस्तारपूर्वक प्राप्त होता है। उनके दर्शन का मानना है, "अब भगवान के मंदिरों से भी ज्यादा बच्चों का नव निर्माण करने वाले मंदिरों की जरूरत है अगर बच्चे संस्कारित नहीं हुए तो भगवान के मंदिरों में जाएगा कौन?" उनका दर्शन बच्चों को बेहतर बनाने के लिए निम्न सूत्र देता है 1. बच्चों को संस्कारों की उत्तम दौलत प्रदान करें। 2. टी.वी. पर अच्छे कार्यक्रम दिखाएँ। 3. बच्चों को समय-समय पर मार्गदर्शन देते रहें । 4. बच्चों को पाँवों पर खड़ा करें। 5. घर का माहौल अच्छा बनाएँ । 6. उन्हें छोटे-छोटे काम खुद करना सिखाएँ। 7. उन्हें खिलाकर खाने की प्रेरणा दें। 8. उन्हें ऊँची शिक्षा के साथ ऊँचे संस्कार देने वाले विद्यालयों में पढ़ाएँ । 9. उन्हें जीवन प्रबंधन के गुर सिखाएँ। For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स g ➤ 69 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. सदा उन्हें आत्मविश्वास बढ़ाने वाले वचन कहें। इस तरह बचपन निर्माण से जुड़ा हुआ यह मार्गदर्शन युगीन संदर्भों में उपयोगी सिद्ध हुआ है। 4. सार्थक बुढ़ापा जीवन के तीन पड़ाव हैं बचपन, यौवन और बुढ़ापा कोई बूढ़ा होना नहीं चाहता, पर बुढ़ापा जीवन की हकीकत है। वर्तमान में वृद्ध लोगों की स्थिति बड़ी दयनीय है। उपेक्षापूर्ण माहौल और कमजोर शारीरिक स्थिति के चलते उनका जीवन जीना कठिन हो जाता है। बुढ़ापे को स्वस्थ बनाना वृद्धजनों के लिए चुनौतिपूर्ण है। भारतीय धर्म-दर्शन में बुढ़ापे को सुख-शांतिपूर्वक जीने के लिए वानप्रस्थ एवं संन्यास के मार्ग पर कदम बढ़ाने की प्रेरणा दी गई है। श्री चन्द्रप्रभ बुढ़ापे को तन से ज्यादा मन से जुड़ा हुआ मानते हैं। मृत्यु, उदय-अस्त, संयोग-वियोग की तरह बुढ़ापा भी जीवन का एक हिस्सा है जो इस तथ्य को समझ लेता है उसके लिए बुढ़ापा समस्या नहीं, शांति और मुक्ति का आधार बन जाता है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में बुढ़ापे की अनेक तरह से व्याख्याएँ की गई हैं। वे कहते हैं, "आपने जीवन कैसा जीया, बुढ़ापा उसकी परीक्षा है, बुढ़ापा परिपक्वता की निशानी है, बुढ़ापा जीवन के उपन्यास का सार है, जिसने जीवन की धन्यता के लिए कुछ न किया, उसका बुढ़ापा सूना है । " श्री चन्द्रप्रभ ने बुढ़ापे की सार्थकता के लिए निम्न प्रेरणाएँ दी हैं1. घर में ज्यादा हस्तक्षेप न करें। T 2. अति आवश्यक हो तो ही बोलें अन्यथा मौन रहें । 3. बुढ़ापे को स्वस्थ, सक्रिय एवं सुरक्षित बनाएँ। 4. सात्विक, संतुलित और सीमित आहार लें। 5. कुछ समय प्राणायाम अवश्य करें। 6. सुबह - सुबह खाली पेट धूप का सेवन करें। 7. रात्रि में गहरी नींद लें। - 8. जो होता है उसे होने दें। 9. सदा गतिशील रहें। 10. हँसने की आदत डालें। 11. प्रभु की ओर प्रेम जोड़ें। 5. वसीयत लेखन - वसीयत लेखन आवश्यक कार्य है। बिना वसीयत के परिवारों में बँटवारे की समस्या आ जाती है। परिणामस्वरूप परिवार टूट जाते हैं और रिश्ते बिखर जाते हैं। वास्तव में माता-पिता द्वारा लिखी गई वसीयत बच्चों के लिए भविष्य निधि है। हर व्यक्ति वसीयत में संतानों को दिया जाने वाला हिस्सा लिखता है, पर श्री चन्द्रप्रभ ने नए तरीके से वसीयत लिखने की सिखावन दी है। वे वसीयत लेखन को सामान्य बात न कहकर कला मानते हैं। उन्होंने वसीयत लिखने से पूर्व जीवन को महान बनाने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, " हर व्यक्ति यह सोचे कि क्या उसने अपनी वसीयत लिखने की तैयारी कर ली है, अगर कर ली है तो उसके पास अपने बच्चों को वसीयत में देने के लिए क्या है केवल जमीन-जायदाद, धन-दौलत है या और भी कुछ है? क्या आपने जीवन में धन के अलावा भी कोई पूँजी कमाई है? क्या आपके वाणी व्यवहार, सोच-स्वभाव, त्यागआदर्श, यश- इज्जत से जुड़ी ऐसी जीवन-शैली है जिसे देखकर लोग आप पर गर्व करें।" श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन वसीयत लेखन के संदर्भ में निम्न सुझाव व मार्गदर्शन देता है 70 संबोधि टाइम्स 1. जीवन को महान बनाएँ, कहीं ऐसा न हो कि हमारे जीवन का परिणाम केवल एक मुट्ठी राख मात्र हो। हम कुछ ऐसा करके जाएँ या लिख के जाएँ कि आपका फोटू केवल घर में नहीं, औरों के दिल में लग सके। 2. व्यक्ति जिंदगी की वसीयत में संस्कारों के ऐसे वृक्ष लगाकर जाए जिससे उसकी नई पीढ़ी गर्व कर सके एवं कुल को रोशन करने वाले काम कर सके 1 3. सबसे पहले व्यक्ति वसीयत में ईश्वर, माता-पिता, गुरुशिक्षक, मकान, पति-पत्नी, नौकरों व दोस्तों के प्रति कृतज्ञता समर्पित करे । 4. मरने के बाद नेत्रदान करवाने की घोषणा करके जाए। 5. संपत्ति का आधा हिस्सा बच्चों के नाम व आधा हिस्सा खुदपत्नी के नाम करके जाए और जाने के बाद अपने हिस्से को पुन: बच्चों में बाँटने की बजाय ईश्वर व इंसानियत के नाम करके जाए ताकि हमारे साथ पुण्य की दौलत भी रह सके। 6. अंत में जीवन के अनुभव व संस्कार लिखकर जाए और बच्चों को प्रेरणा देकर जाए कि वे उनको जीने के साथ आगे भी बढ़ाएँ ताकि आगे वाली पीढ़ियाँ जीने की कला सीख सकें। परिवार - निर्माण से जुड़े हुए श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन का विश्लेषण करने से स्पष्ट होता है कि वे पारिवारिक समन्वय पर बल देते हैं। परिवार से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर इतना व्यावहारिक विश्लेषण अन्यत्र अप्राप्य है । आज विश्व प्रेम से पहले पारिवारिक प्रेम की आवश्यकता है, इसकी सीख देने और पुष्टि करने में यह दर्शन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। धर्म दर्शन भारतीय संस्कृति में चार पुरुषार्थ स्वीकार किए गए हैं- 1. धर्म 2. अर्थ 3. काम 4. मोक्ष | धर्म सभी पुरुषार्थों की नींव है। धर्म के बिना भारतीय संस्कृति निष्प्राण है। भारत में जितने भी महापुरुष हुए सबने अपने-अपने ढंग से धर्म की व्याख्या की और धर्ममय जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त किया। भारत में धर्म की अनेक परम्पराओं का अभ्युदय हुआ, जैसे सनातन धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सिख धर्म आदि। धर्म की इस विविधता के बीच बाह्य तौर पर भेद भले ही दिखाई देता हो, पर धर्म के शाश्वत मूल्य में अभेदता नजर आती है । सत्य, अहिंसा, भाईचारा और गुणानुरागिता जैसे मूल्य सभी धर्मों के द्वारा प्रेरित हैं। धर्म और दर्शन एक-दूसरे के पूरक हैं। जहाँ दर्शन हमें धर्म की अंतर्दृष्टि प्रदान करता है वहीं धर्म दर्शन का व्यावहारिक मार्ग सिखाता है। समय-समय पर दर्शन की व्याख्याएँ नए स्वरूप में प्रस्तुत हुईं। परिणामस्वरूप धर्म के स्वरूप में भी कई परिवर्तन हुए। धार्मिक क्रियाओं में आई रूढ़िवादिताओं एवं अंधविश्वासों के चलते उसे नए स्वरूप में प्रस्तुत करने की मानव में प्रेरणाएँ जगीं । धर्म का स्वरूप प्रसिद्ध वाक्य है धारयति इतिधर्मः' अर्थात् जो धारण करता है उसे धर्म कहते हैं। प्रश्न है किसे धारण किया जाए? उत्तराध्यवन आगम में कहा गया है, " अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह धर्म के ये पाँच चरण हैं, जिन्हें बुद्धिमान मनुष्य स्वीकार करके भव-सागर For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से पार लग जाता है।" श्रीमद्भागवत कहता है, "जिन कामों को करने लिखते हैं, "स्वधर्म के प्रति प्रेम, परधर्म के प्रति आदर, अधर्म के प्रति से समस्त प्राणियों का भला होता हो, वही करें।" अर्थात् उपेक्षा यही है धर्म।" महात्मा गांधी ने धर्म को व्यवहार से जोड़ते हुए सर्वकल्याणकारी कार्यों को करना धर्म कहलाता है। कहा है, "जो व्यवहार में काम न आए वह धर्म कैसे हो सकता है" प्राचीन धर्मशास्त्रों को वेद कहा जाता है। वेद की धारा उपनिषदों, स्वामी विवेकानन्द धर्म को स्वतंत्र बनाने की प्रेरणा देते हुए लिखते हैं, ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यकों, स्मृतियों, भगवद्गीता से होती हुई आगे से "किसी संगठनबद्ध धर्म में प्रवेश मत करो। धर्म केवल तुम और तुम्हारे आगे बढ़ती रही। समय-समय पर अनेक धर्म-दर्शनों का उदय हआ। भगवान के बीच की वस्तु है और किसी तीसरे व्यक्ति को उसमें हरगिज सबने मिलकर धर्म को उन्नत स्वरूप प्रदान किया। संक्षिप्त में धर्मशास्त्रों टाँग नहीं अड़ानी चाहिए।" प्रो. राधाकृष्णन की भाषा में, "धर्म एक में दी गई धर्म की व्याख्याएँ इस प्रकार हैं - ऋग्वेद की भाषा में "धर्म आंतरिक रूपान्तरण है, एक आध्यात्मिक परिवर्तन है, हमारे अपने का मार्ग मानव को सुख देता है, दुःख से मुक्त करता है।"चाणक्य नीति स्वभाव के विसंवादी स्वरों में सामंजस्य लाने की क्रिया है और उसका कहती है, "इस चराचर जगत में लक्ष्मी, यौवन और जीवन सब कुछ यह रूप इतिहास के आरंभ से ही मिलता आया है, यही उसका मूल नाशवान है, केवल धर्म ही अटल है।" योग शास्त्र में लिखा है, "दर्गति स्वरूप है।" इन सब व्याख्याओं से यह स्पष्ट होता है धर्म पंथ-परंपरा, में गिरते हुए प्राणी को धारण करने से धर्म को 'धर्म' कहा जाता है।" सम्प्रदाय, क्रियाओं से ऊपर एकता, समानता, समरसता, सर्वधर्म आगम दशवैकालिक की भाषा में,"अहिंसा, संयम और तप रूपशद्ध सद्भाव, व्यवहार शुद्धि और भीतरी रूपान्तरण में निहित है। धर्म उत्कृष्ट मंगलमय है। जिसका मन सदा धर्म में लीन रहता है, उसे वर्तमान पर गौर करें तो पता चलता है कि आज की धार्मिक स्थिति देवता भी नमस्कार करते हैं।" महाभारत में कहा गया है, "जो प्रवृत्ति बडी विकट है। यद्यपि मंदिरों की व मंदिर जाने वालों की संख्या बढ़ी अहिंसामय है वह निश्चित रूप से धर्म है।" हितोपदेश कहता है, है। दान देने वालों की संख्या में इजाफा हुआ है। मानवीय उत्थान से "समस्त प्राणियों के प्रति समता भरा व्यवहार करना ही धर्म है।" जडी गतिविधियाँ दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं। फिर भी व्यक्ति के जीवन मनुस्मृति कहती है,"धैर्य, क्षमा, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय दमन, बुद्धि, व धर्म के बीच दूरी बनी हुई है। व्यक्ति की कथनी व करणी समरूप विद्या, सत्य, अक्रोध - ये धर्म के लक्षण हैं।" महाभारत तो यहाँ तक नहीं है। दसरों के कल्याण में तत्पर इंसान माता-पिता की सेवा करना कहता है,"जो धर्म अन्य धर्म को बाधित करता है वह धर्म नहीं,कुधर्म भूल चुका है। अब धर्म त्याग की बजाय धन प्रधान हो गया है। व्यक्ति है। जो सबके साथ अविरोधी भाव बरतता है वही धर्म सत्य पराक्रम धर्म की तुलना धन से करने लगा है। परिणामतः धर्म जीवन का उत्थान वाला है।" इस तरह से धर्म की निम्न विशेषताएँ प्रकट होती हैं - करने की बजाय आडम्बर-प्रदर्शन का रूप धारण कर चुका है। अतः 1.धर्म दु:ख मुक्ति व सुख प्राप्ति का साधन है। एक तरफ जहाँ धर्म को जीवन से जोड़ने की जरूरत है वहीं दूसरी तरफ 2.धर्म के अलावा सब नाशवान है। उसे वैज्ञानिक स्वरूप देना आवश्यक है। वर्तमान में ऐसा धर्मदर्शन 3. धर्म दुर्गति में जाने से हमारी रक्षा करता है। अपेक्षित है जो जीवन और धर्म के बीच संतुलन स्थापित कर सके, 4.धर्म अहिंसा, संयम और तप रूप है। जीवन की समस्याओं का प्रायोगिक समाधान दे सके और व्यक्ति को 5.अहिंसा धर्म की आत्मा है। व्यक्ति से जोड़ सके। 6.सबके साथ समता भरा व्यवहार करना धर्म है। श्री चन्द्रप्रभ के धर्म-दर्शन का स्वरूप 7.सच्चा धर्म सभी धर्मों का सम्मान करना सिखाता है। 8.धर्म काल या अवस्था विशेष से परे है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में जीवन सापेक्ष धर्म की अभिव्यक्ति हुई है। वे 9. धर्म का संबंध क्षमा, संयम, सरलता, सत्य से है। धर्म के कठिन सिद्धांतों की चर्चा करने की बजाय जीवनोपयोगी बातों पर विश्लेषण करने पर जोर देते हैं। उनका मानना है कि "धर्म का संबंध समय की दृष्टि में : धर्म की स्थिति जीवन के साथ जोड़ा जाना चाहिए।हमारे चित्त की जो विकृत्तियाँ हैं उनको धर्म के स्वरूप में समय-समय पर परिवर्तन हुआ है। मध्यकालीन धुलाने और मिटाने के साथ जोड़ा जाना चाहिए तभी धर्म हमें आनंद देगा।" युग में पहुँचते-पहुँचते धर्म के मूल्यों में रिक्तता महसूस की गई। धर्म अर्थात् वे धर्म को क्रियाओं के घेरे से मुक्त कर आंतरिक पवित्रता व संकीर्णतावाद, पंथ-परम्परावाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद एवं रूढ़ निर्मलता से जोड़ने की प्रेरणा देना चाहते हैं। उन्होंने धर्म की उन्हीं बातों को मान्यताओं व अंधविश्वासों में उलझ गया। मानवता के कल्याण की महत्व दिया है जो आज के इंसान के लिए उपयोगी हैं। उन्होंने धर्म के क्षेत्र प्रेरणा देने वाला धर्म मानवीयता में विभेद करने वाला बन गया। दंगे- में चल रही अर्थहीन परम्पराओं का निर्भीक होकर खण्डन किया है। वे फसाद होने लगे, देश के राजनेताओं ने भी वोट-बैंक के खातिर धर्म का भय, प्रलोभन और प्रदर्शन को धर्म का शत्रु मानते हैं। उन्होंने धर्म को इन दुरुपयोग किया। परिणामस्वरूप धर्म का नैतिक स्वरूप विखंडित हो तत्त्वों से बचाने की प्रेरणा देते हुए कहा है, "धर्म को इतना भी बाह्य मत गया। तत्कालीन दार्शनिकों ने मानवमात्र को सत्य, मानवीय एकता, बनाओ कि वह केवल प्रदर्शन और प्रलोभन भर बन जाए।" उनके दर्शन में मानव-प्रेम से जुड़े हुए धर्म का मार्गदर्शन दिया। धर्म की वास्तविकता प्रकट हुई है। वे केवल हमें धर्म-अंधानुसरण करने प्रसिद्ध कहानीकार प्रेमचंद ने धर्म को एकता के स्वरूप में की बात नहीं सिखाते वरन् मानवीय गरिमा को बढ़ाने वाले रास्ते पर कदम प्रतिपादित करते हुए कहा है, "जो धर्म के मूल तत्त्व को नहीं समझता, बढ़ाने की प्रेरणा देते हैं। उन्होंने जिस धर्म का मार्ग बताया वह आज के धर्म वह वेदों और शास्त्रों का पंडित होकर भी मूर्ख है, जो दुःखियों के दुःख से नया व हटकर है। वे धर्म के नाम पर मनुष्य को संकीर्ण बनाना गलत से दुःखी नहीं होता, जो समाज में ऊँच-नीच, पवित्र-अपवित्र के भेद मानते हैं। एक तरह से उन्होंने जीवन को धर्म से उत्कृष्ट सिद्ध किया है। को बढ़ाता है, वह पंडित होकर भी मूर्ख है।" आचार्य विनाबा भावे चन्द्रप्रभ के धर्म-दर्शन को विस्तृत रूप से समझने के लिए उसका विभिन्न संबोधि टाइम्स »71 For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टिकोणों से विश्लेषण किया जा रहा है जो इस प्रकार है सिखावन दी है। उनका दृष्टिकोण है, "आज राम का नाम जपने और 1.धर्म और जीवन - "धम्मो वत्थु सहावो" वस्तु का स्वभाव ही पूजा करने की जरूरत कम है, ज्यादा जरूरत रामायण को जीवन से धर्म है। जैसे पानी का धर्म शीतलता, अग्नि का धर्म उष्णता, फूल का जोड़ने की है। जहाँ घर-परिवार की समृद्धि के लिए राम आदर्श हैं वहीं धर्म खिलना और काँटे का धर्म गड़ना है वैसे ही व्यक्ति सोचे कि उसके व्यापार की समृद्धि के लिए कृष्ण और आत्म-समृद्धि के लिए महावीर जीवन का क्या धर्म है? माला फेर लेना, मंदिर चले जाना, पूजा-पाठ स्वर्ण-स्तम्भ हैं। तीनों को जीवन से जोड़कर ही समग्र जीवन का कर लेना आदि दो-चार क्रियाएँ करने का नाम धर्म है या फिर जीवन निर्माण संभव है।" इस तरह उन्होंने तीनों महापुरुषों का समन्वय का धर्म कुछ और है। श्री चन्द्रप्रभ क्रियागत धर्म से पहले जीवन के है। श्री चन्टभ कियागत धर्म से पहले जीवन के स्थापित कर धर्म-सद्भाव की अनूठी पहल की है। कर्तव्यों-दायित्वों को निभाने की सीख देते हैं। श्री चन्द्रप्रभ का श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में विश्व-प्रेम से पहले परिवारिक-प्रेम की दृष्टिकोण है,"धर्म पहले चरण में कर्तव्य, दूसरे चरण में नैतिकता और बातें सिखाई गई हैं। उन्होंने मकानों को बड़ा बनाने के साथ दिल को तीसरे चरण में आत्मिक उन्नति है।" इससे स्पष्ट होता है वे धर्म के तीन छोटा बना लेने पर व्यंग्य किया है। वे टूट रहे परिवारों में एकता का पाठ मापदंड स्वीकार करते हैं - पहला, कर्तव्य का पालन करना; दसरा, पढ़ाते हैं। उन्होंने माँ-बाप की सेवा करने की प्रेरणा देते हुए सच्चे बेटे सत्य, प्रामाणिकता, सहयोग आदि नैतिक मूल्यों को धारण करना और की परिभाषा बताई है, वे कहते हैं, "सच्चा बेटा वह नहीं होता जिसे तीसरा, स्वयं के सद्गुणों का विकास करना। माता-पिता जन्म देते हैं वरन् माता-पिता की सेवा-सुश्रूषा सँभालने व्यक्ति धर्म के नाम पर प्रतिमा को भगवान मानकर पूजा कर लेता वाला ही सच्चा सपूत कहलाता है।"वे माँ-बाप को वृद्धाश्रम भेजने पर है, पर मंदिर के बाहर कोई भिखारी दिख जाए तो उसकी उपेक्षा कर आपत्ति उठाते हैं और माँ-बाप के जीते-जी भाइयों का अलग होना भी देता है। जीते-जी माता-पिता को सताता है और मरने के बाद उनकी अनुचित मानते हैं। उन्होंने माँ-बाप की सेवा नौकरों के भरोसे छोड़ने तस्वीर पर रोने का, धूप-दीप-फल-फूल चढ़ाने का दिखावा करता है। की बजाय स्वयं अपने हाथों से करने की प्रेरणा दी है। एक समर्थ भाई व्यक्ति पूजा-पाठ, आराधना-साधना,सत्संग-स्वाध्याय जैसे धर्म करने द्वारा अपने कमजोर भाई की तो उपेक्षा कर देना, पर अपनी पद-प्रतिष्ठा के बावजूद उसमें किसी के दो कड़वे शब्दों को सहन करने की ताकत के लिए समाज में लाखों का दान कर देने को वे धर्म नहीं, दान का नहीं है। ऐसे धर्म को जीने वाले लोगों पर श्री चन्द्रप्रभ ने टिप्पणी करते अपमान करना बताते हैं। उनकी ये टिप्पणियाँ आज के कडवे हुए कहा है, "धर्म का अनुसरण करने पर भी मन निर्मल न हआ तो वह पारिवारिक सच को उजागर करती हैं व जीवंत धर्म अपनाने की प्रेरणा धर्म किस काम का! व्यक्ति या तो धर्म बदले या जीवन जीने की देती हैं। शैली।" व्यक्ति दो-चार क्रियाओं को धर्म मानकर, उन्हें कर लेने भर श्री चन्द्रप्रभ ने इसी तरह पति-पत्नी, सास-बहू, देरानी-जेठानी को धर्म की इतिश्री समझ लेता है और स्वयं को बहत बडा धार्मिक आदि विभिन्न परिवारिक रिश्तों में प्रेम व मिठास के धर्म को अपनाने समझने लग जाता है। इस संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ प्रेरणा देते हैं कि व्यक्ति की सीख दी है। धर्म के अंतर्गत तपस्या करने की प्रेरणा धर्मशास्त्रों में स्वयं सोचे कि धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है? धर्म का सरल दी गई है, पर श्री चन्द्रप्रभ इससे पहले पारिवारिक तपस्या पर जोर देते स्वरूप प्रकट करते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "इंसान होकर इंसान के । हैं। उनका दृष्टिकोण है, "अगर हम परिजनों को सुख नहीं पहुँचा सकते काम आना और भीतर की कमजोरियों पर विजय पाना ही धर्म है।"वे तो किसी भी सदस्य को दुःख न पहुँचाएँ। अगर कभी हमसे ऐसा हो स्वयं की कमियों को देखने व सुधारने को पुण्य व दसरों की कमियों को जाए तो अगले दिन प्रायश्चित स्वरूप व्रत करें। सबको खुश रखना और देखने को पाप कहते हैं। किसी के दल को ठेस न पहुँचाना जीवन की सबसे बड़ी तपस्या है।" इस तरह श्री चन्द्रप्रभ कर्तव्य-पालन एवं जीवन-शुद्धि से जुड़े श्री चन्द्रप्रभ के पारिवारिक धर्म के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि धर्म को आत्मसात् करने के पक्षधर हैं जो व्यक्ति के जीवन में त्याग, वे कर्तव्यपालन को सबसे पहला धर्म मानते हैं। उनके द्वारा दिया गया संयम और शांति के रूप में विकसित होता हो। यह संदेश कि "धर्म की शुरुआत मंदिर-मस्ज़िद से नहीं, घर से करो" 2. धर्म और परिवार - धर्म के संदर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न आज की मुख्य आवश्यकता है। उनका मानना है, "जब तक परिवार में यह है कि धर्म का प्रारंभ कहाँ से हो? प्रायः धर्म का प्रारंभ मंदिर, धर्म को नहीं जिया जाएगा तब तक बाहरी धर्म-कर्म व्यर्थ हैं।" मस्जिद, गुरुद्वारा अथवा चर्च से माना जाता है। श्री चन्द्रप्रभ का 'व्यक्ति बाहर का धार्मिक बाद में बने, पहले घर का बने' जैसी उनकी दृष्टिकोण इससे भिन्न है। उनका मानना है, "व्यक्ति के धर्म का प्रारम्भ मूल्यवान बातें आज की स्थितियों में संस्कारी परिवारों का निर्माण करने घर-परिवार से होता है। जिन माता-पिता ने हमें जन्म दिया है, जिन के लिए रामबाण औषधि का काम करती हैं। भाई-बहिन-पत्नी के साथ हम रहते हैं, जिन बच्चों को हमने जन्म 3.धर्म और समाज - वह समाज श्रेष्ठ समाज कहलाता है जहाँ दिया है, जिन लोगों से हम सेवाएँ लेते हैं. उनके प्रति होने वाले कर्तव्यों मानवीय व सामाजिक मूल्यों को जीवन में जिया जाता है, इंसान, इंसान का निर्वाह करना ही हमारा पहला धर्म है।" श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में के काम आता है, सुख-दुःख में साथ रहता है और संगठित रहकर घर में मंदिर बनाने की बजाय घर को ही मंदिर बनाने की सीख दी गई एक-दूसरे के विकास के लिए तत्पर रहता है। भगवान महावीर ने है। वे जीवन में महात्मा व परमात्मा से पहले माता-पिता को महत्त्व देने समाज का ताथ का संज्ञा दी है। उन्होंने अहिंसा, अपरिग्रह और की प्रेरणा देते हैं। जहाँ उन्होंने एक ओर परिवार को स्वर्ग सरीखा बनाने अनेकांत जैसे सिद्धांतों को सामाजिक मूल्यों के रूप में स्वीकार किया के लिए रामायण को आदर्श मानने की सलाह दी है वहीं दसरी ओर है। वर्तमान समाज का स्वरूप पहले की बनिस्बत अब काफी जीवन-निर्माण के लिए कृष्ण व महावीर को भी आत्मसात करने की सकारात्मक हुआ है। जातिवाद, छुआछूत, अंधविश्वास, सती-प्रथा, Ja72 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलि जैसी कुरीतियाँ कम हुई हैं और लोग एक-दूसरे के सुख-दुःख में चन्द्रप्रभ का दृष्टिकोण है, "सामाजिक उत्थान के लिए शिक्षा पहला सहभागिता निभाने को आगे आने लगे हैं। भूकम्प या बाढ़ जैसी विकट मूलभूत आधार-स्तम्भ है। अब मंदिरों के साथ-साथ जीवन-निर्माण परिस्थिति का जब-जब भी सामना करना पड़ता है, तब-तब लोग करने वाले विद्यालयों का भी निर्माण किया जाए।" देश का प्रसिद्ध जाति या भाषा के भेद को भूलकर एक-दूसरे के लिए सहयोगी बन व्यापारिक समूह अंबानी बंधुओं को प्रेरणा देते हुए श्री चन्द्रप्रभ ने जाते हैं। यह सामाजिक दृष्टि से बड़ी उपलब्धि की बात है। लिखा है, "पूरे देश में पेट्रोल पम्प की तरह अगर अंबानी ग्रुप उच्चसमाज का जहाँ विकसित रूप देखने को मिलता है, वहीं कुछ स्तरीय महाविद्यालय स्थापित कर दें तो दुनिया उन्हें सदा सिर माथे पर नकारात्मक पहलू भी समाज पर हावी हुए हैं। फिजलखर्ची. बिठा कर रखेगी।" जीमणवारी और प्रदर्शन को बढ़ावा मिला है। यह सच है कि गरीबी- श्री चन्द्रप्रभ समाजोत्थान के लिए समन्वय के सूत्रों को अपनाने अमीरी की भेद-रेखाओं में कमी आई है, आम इंसान का जीवन कुछ की भी प्रेरणा देते हैं। उनका दृष्टिकोण है, "दुनिया में एकता से बढ़कर सुखी हुआ है, सुविधायुक्त हुआ है, पर जो कमियाँ आई हैं, हमें उन्हें कोई ताकत नहीं है। हम आपस में जुड़ें, आगे बढ़ें और ऐसी संस्थाएँ दूर करने के प्रति जागरूक होना होगा। श्री चन्द्रप्रभ सामाजिक मूल्यों बनाएँ जो हमें संगठित कर सके।" उन्होंने किसी धर्म-परम्परा विशेष के प्रति जागरूक हैं। संत और उसमें भी मानवतावादी विचारों के तक सीमित रहने वालों को विशाल हृदय रखने की सीख देते हुए संवाहक होने के नाते वे समाज की हर दुखती नब्ज को पहचानते हैं। मंदिर-मस्जिद, स्थानक-उपाश्रय में भेदभाव न करने और सब जगह जो लोग जनता से धन एकत्रित करते हैं फिर उसी धन से बड़े-बड़े जाने की प्रेरणा दी है। इससे स्पष्ट होता है वे पंथ परम्परा से मुक्त होकर जीमण करते हैं, संतों की भक्ति करते हैं, मिठाइयाँ और नारियल बाँटते मानवीय एकता में विश्वास रखते हैं। समाज की एकता के लिए हैं। क्या यह उचित है? इस संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ का दृष्टिकोण है,"धर्म धर्मगुरुओं का निकट आना भी बहुत जरूरी है। अगर संत एक हो जाएँ के नाम पर धन एकत्रित करके तीन-तीन मिठाइयों का अगर जीमण तो अनुयायी वर्ग का एक होना सहज-सरल है। इस संदर्भ में श्री होता है तो ऐसा करके लोगों के द्वारा धर्म के नाम पर दिए गए धन का चन्द्रप्रभ ने हकीकत उजागर करते हुए बताया है, "जब नाई नाई से, दुरुपयोग करना कहलाएगा।आज अगर किसी संत को बादाम खाना है धोबी धोबी से मिलता है, तो राम-राम करता है, फिर संत-संत से तो वे बड़े प्रेम से खाए। संत आपके घर आये, आपने उन्हें बादाम मिलने पर अकड़ा क्यूँ रहता है।" उन्होंने सभी संतों से निकट आने व खिलाई यह बात तो समझ में आई, पर दुनिया से पैसा इकट्ठा करके अमीर-गरीब सभी को समान महत्त्व देने का निवेदन किया है। . किन्हीं संतों की भक्ति करना, गुरुजनों का 'हरककोड' करना धर्म के श्री चन्द्रप्रभ का धर्म-दर्शन समाजोत्थान के लिए समानता व प्रतिकूल है। धर्म के नाम पर उतना ही लिया जाना चाहिए जिसे व्यक्ति सहभागिता की नीति को आवश्यक मानता है। जिस समाज में सभी को प्रभु का प्रासाद मान कर स्वीकार कर सके।" समाज में बढ़ रही। अवसर प्रदान किये जाते हैं एवं हर कार्य सर्वसम्मति व सर्वसहयोग से जीमणवारी पर तीखी टिप्पणी करते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "आज सम्पन्न होते हैं वह समाज तेजी से प्रगति करता है। व्यक्ति पारिवारिक स्तर की तारीख में समाज में धर्म के नाम पर धन खर्च कर केवल पर कछ भी करे.पर सामाजिक स्तर पर वही काम करे जो समाज में पहले जीमणवारी करने का धर्म होने लग गया है।" से मर्यादाएँ निश्चित की गई हैं। अगर एक अरबपति व्यक्ति सामाजिक आज हर समाज में कुछ जरूरत से ज्यादा गरीब लोग हैं तो कुछ नियमों को ताक में रखकर अपने हिसाब से काम करेगा तो समाज में कभी जरूरत से ज्यादा अमीर लोग नाम-प्रतिष्ठा के चक्कर में कोई करोड़ों समानता की भावना विकसित न हो पाएगी। उनका मानना है, "पाँचों स्वाहा कर रहा है तो गरीबों को दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं हो रही, अँगुलियों का महत्त्व तभी तक है, जब तक वे संगठित हैं। अलग होते ही ऐसी स्थिति में उस समाज का भविष्य कभी-भी उज्ज्वल नहीं हो ताकत कमजोर हो जाती है।" वे स्वावलंबी समाज-निर्माण के समर्थक सकता जहाँ अमीर-गरीब, जात-पाँत या छुआछूत की भेद-रेखाएँ हैं। वे चाहते हैं, "हम गरीब को राशन ही नहीं नौकरी भी दें। उन्हें सहयोग विद्यमान होती हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने अमीरों से आह्वान किया है कि के साथ स्वावलंबी भी बनाएँ। दान की रोटी देकर हम औरों को विकलांग "भगवान महावीर द्वारा दिया गया अपरिग्रह का सिद्धांत गरीबों के बनाने की बजाय पाँवों पर खड़ा करें। समाज के कमजोर लोगों को योग्य लिए नहीं, अमीरों के लिए है। वे परिग्रह का त्याग कर गरीब भाइयों को बनाना ईश्वर की सच्ची सेवा है।" ऊपर उठाएँ ताकि स्वस्थ समाज का निर्माण हो सके।" श्री चन्द्रप्रभ के समाज-दर्शन के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि वे अब सामाजिक संस्थाओं पर भी राजनीति का असर छाने लगा है। समाज के सकारात्मक-नकारात्मक दोनों पक्षों को गहराई से जानते हैं। आपसी चर्चा में सेवा के कार्यों पर ध्यान देने की बजाय एक-दूसरे पर उन्होंने वर्तमान समाज को ऊपर उठाने के लिए जो सीधी-सटीक बातें छींटाकशी ज्यादा की जाती है, परिणाम, न पक्ष काम कर पाता है न कहीं है वे बेहतर समाज के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं। विपक्ष। श्री चन्द्रप्रभ ने इसे अनुचित बताते हुए कहा है, "अरे भाई 4. धर्म और मानवीय मूल्य - धर्म का अभ्युदय मानवीय मूल्यों मीटिंग का मतलब है मिल-जुलकर काम करने की सहमति। अगर के विकास के लिए हुआ है। आज धर्म के नाम पर कथाएँ, भाषण, ऐसा है तो मीटिंग समाज के लिए हितकारी है, वरना मीटिंग और प्रवचन खब हो रहे हैं, पर मनुष्य के जीवन में मानवीय मूल्य सिमटते वोटिंग समाज के लिए सबसे बडे सिरदर्द हैं।" अर्थात् उन्होंने व्यक्ति जा रहे हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने धार्मिक क्रियाओं की बजाय व्यक्ति का ध्यान को सामाजिक सेवा करने से पहले सकारात्मक नजरिया अपनाने की मानवीय मल्यों की ओर खींचा है। उन्होंने सत्य. प्रेम. न्याय, करुणा. सीख दी है। समाज के विकास के लिए शिक्षा आवश्यक है। शिक्षा के भाईचारा. मैत्री. परस्पर सहयोग जैसे मल्यों को आत्मसात करने की विस्तार के कारण ही व्यक्ति ने आज नई ऊँचाइयों को छुआ है। श्री प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, "जो दूसरों के लिए 'उपयोगी' नहीं बन For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स >739 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर सकते, वे कभी 'योगी' नहीं बन सकते। स्वयं के लिए संन्यास लेने वाले महापुरुषों को भी आखिर मानवता के लिए कुछ करके ही तृप्ति और मुक्ति मिलती है।" वे धार्मिक क्रियाओं के विरोधी नहीं हैं, पर उन्होंने क्रिया के पीछे छिपे मूल उद्देश्य को समझने की प्रेरणा दी है। उनका मानना है, "लोग धर्म के नाम पर सामायिक तो करते हैं, शांति और समता नहीं रखते, सामायिक करना क्रिया है और शांतिसमता रखना धर्म है हाथ जोड़कर प्रार्थना तो खूब की जाती है, यह एक क्रिया है लेकिन प्रभु से प्रेम करना धर्म है। आप अपने सत्य और ईमान पर अडिग रहें, शील और मर्यादा पर सुदृढ़ रहें। जीवन में सरलता, मधुरता और विनम्रता का ग्लीसरीन लगाएँ, ये तत्त्व हुए धर्म, बाकी सब तो धर्म के खोल हैं।” उन्होंने मानवीय मूल्यों को आत्मसात् करने के लिए निम्न व्यावहारिक मार्ग सुझाए हैं 1. सड़क पर यदि कोई अपरिचित व्यक्ति घायल पड़ा है तो उसे अपनी मदद देकर अस्पताल पहुँचाएँ । 2. कोई पक्षी घायल या मरणासन्न है तो उसे पानी पिलाएँ । 3. यदि आप डॉक्टर हैं तो आपके यहाँ जो मरीज आते हैं उनमें से जो आपकी फीस नहीं चुका सकते उन्हें निःशुल्क दवा दें। 4. हर व्यक्ति अपनी कमाई का ढाई प्रतिशत धन दीन-दुःखी और गरीबों के लिए निकाले । इससे स्पष्ट होता है कि वे ऐसे धर्म को जीने की प्रेरणा देते हैं जो जीवंत एवं व्यावहारिक हो। यदि व्यक्ति धर्म की मूल आत्मा को जीने की कोशिश करेगा तभी धर्म स्व- पर कल्याणकारी सिद्ध हो पाएगा। " 5. धर्म और युवा वर्ग - आज यह समस्या मानी जाती है कि युवा पीढ़ी धर्म से दूर हो गई है, पर वास्तविकता कुछ और है। आज का युग धरती का स्वर्णिम युग है। आज के युवा धर्म, दान, तपस्या, तीर्थयात्रा, सत्संग करने में सबसे आगे हैं। मानवीय सेवा से जुड़ी बड़ी-बड़ी संस्थाएँ युवा चला रहे हैं। महोपाध्याय श्री ललितप्रभ सागर महाराज का कहना है, "आज की युवापीढ़ी जितनी धार्मिक है, उतनी इतिहास में पहले कभी नहीं हुई। युवाओं में दान देने की प्रवृत्ति बढ़ी है। मंदिरों, तीथों सत्संगों में युवाओं का रुझान बढ़ा है।" यह बात अवश्य सत्य है कि आज का युवा निजी जिंदगी को स्वतंत्र तरीके से जीना चाहता है। युवाओं पर व्यसन व फैशन हावी है, वह पारिवारिक कर्तव्यों के प्रति उदासीन है। श्री चन्द्रप्रभ इन परिस्थितियों से पूर्णत: वाकिफ हैं। उन्होंने युवा शक्ति में आगे बढ़ने का जोश भरा है, उन्हें उनके कर्तव्यों के प्रति जागरूक किया है और संस्कारों को आत्मसात् करने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, "युवा देश की रीढ़ है, भारत की प्रतिभाओं ने पूरे विश्व को प्रभावित किया है इसलिए युवापीढ़ी को नैतिक और संस्कारशील बनाना भी बेहद जरूरी है।" श्री चन्द्रप्रभ ने युवाओं में राष्ट्र भावना को भी पैदा करने की कोशिश की है। उनका दृष्टिकोण है, "युवाओं को चाहिए कि वे देश पर गौरव करना सीखें एवं इसके नैतिक मूल्यों को जीवित करने की कोशिश करें। युवा संगठित होकर भ्रष्टाचारियों, रिश्वतखोरों और देशद्रोहियों को देश से खदेड़ डालें।" उन्होंने देश की समस्याओं यथा आतंकवाद, भ्रष्टाचार, गंदगी, आरक्षण, जातिवाद आदि को संघर्ष कर समाप्त करने की सलाह दी है। इससे स्पष्ट होता है कि युवापीढ़ी धर्म-अध्यात्म की ओर अग्रसर है। श्री चन्द्रप्रभ ने युवापीढ़ी को जीवन के प्रति नैतिक व संस्कारित बनने के लिए जागरूक किया है। 74 संबोधि टाइम्स 6. धर्म और राजनीति भारत में राजनीति और धर्मनीति का लम्बा इतिहास रहा है। राजा लोग निर्णय लेने से पहले धर्मगुरुओं से सलाह लिया करते थे । यद्यपि राजनीति और धर्मनीति बिल्कुल भिन्न हैं फिर भी राजनीति पर अंकुश रखने के लिए धर्मनीति को अनिवार्य माना गया, पर जब से लोकतंत्र स्थापित हुआ और राजनेताओं का एकमात्र उद्देश्य कुर्सी को बचाना रह गया तब से राजनीति बड़ी छिछली हो गई। अब राजनीति में सभी मर्यादाओं का उल्लंघन होता जा रहा है। ऐसा कोई भी अनैतिक कार्य नहीं बचा जो राजनेताओं द्वारा न किया जाता हो। राजनीति सेवा की बजाय स्वार्थ से जुड़ गई है। राजनीति नीतिविहीन हो गई है और चारों ओर अनैतिकता, बेईमानी, भ्रष्टाचार, अनाचार फैल गया है। धीरे-धीरे धार्मिक संस्थाओं में भी राजनीति बढ़ती जा रही है। एक तरफ राजनीति पर धर्मनीति का अंकुश लगाने की जरूरत है तो दूसरी तरफ धर्मनीति को राजनीति से मुक्त करने की जरूरत है। इस संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ का मानना है, "बगैर धर्म के राजनीति अंधी है और बगैर राजनीति का धर्म मानवता की ज्योति।" इस तरह वे राजनीति को शुद्ध करने की और धर्म को भी राजनीति से मुक्त करने की सलाह देते हैं। - 1 7. धर्म और नारी भारतीय समाज के इतिहास में नारी की स्थिति दयनीय रही है। समय-समय पर अनेक महापुरुषों ने नारीउत्थान के कार्य किए। भगवान महावीर ने सर्वप्रथम अपने धर्म संघ में नारी को दीक्षित कर उसे सम्मानपूर्ण स्थान प्रदान किया। यद्यपि नारीजाति के बल पर धर्म-परम्परा आगे बढ़ी फिर भी धर्म-शास्त्रों में नारी की आलोचना हुई है। समय के साथ नारी उत्थान के कार्य उसे हुए, सामाजिक महत्त्व मिला। नारी जाति ने विभिन्न क्षेत्रों में ऊँचाइयों को उपलब्ध किया और आज समाज, देश और विश्व के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। श्री चन्द्रप्रभ नारी जाति के विकास के पूर्ण समर्थक हैं। उन्होंने नारी स्वतंत्रता का समर्थन किया है एवं नारी जाति के उत्थान के लिए क्रांतिकारी प्रेरणाएँ दी हैं। उन्होंने घर-परिवार के कार्यों तक सीमित रहने वाली महिलाओं को अपनी शिक्षा का रचनात्मक कार्यों में उपयोग करने की सीख दी है। वे कहते हैं, "महिलावर्ग स्वयं को घर की चारदीवारी में कैद न करे। विकसित भारत का निर्माण करने के लिए महिलाओं को पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ना चाहिए।" यह सत्य है कि पिछले पचास वर्षों में महिलाओं की सम्मानजनक प्रगति हुई है। नारी जाति ने अवसरों का पूरा उपयोग किया है। अगर इसी तरह उनको अवसर मिलते रहे तो एक दिन विश्व में पुरुषों के समानान्तर महिलाओं का अभ्युदय होगा। उन्होंने महिलाओं को पुरुषों के सामने हाथ फैलाने की बजाय खुद कमाने की सीख दी है। उनका मानना है, " अब जमाना महिलाओं का है। वे पुरुषों के सामने हाथ फैलाने की बजाय धंधा करें, आगे बढ़ें।" इससे स्पष्ट होता है कि वे नारी विकास को नए आयाम देकर उन्हें पुरुषों के समकक्ष खड़ा करना चाहते हैं। - 8. धर्म और शिक्षा आज का युग समृद्धि का युग है और समृद्धि हेतु शिक्षा अपरिहार्य है । शिक्षा का तेजी से विस्तार होता जा रहा है। शिक्षा व्यक्ति को शिक्षित बनाती है और धर्म संस्कारित वर्तमान में शिक्षा के साथ दीक्षा अर्थात् संस्कारों पर भी ध्यान देना जरूरी है अन्यथा व्यक्ति व्यापार का प्रबंधन करना तो सीख जाएगा, पर जीवन का प्रबंधन For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं कर पाएगा। जीवन प्रबंधन की कला सीखे बिना व्यक्ति समृद्ध हो त्याग अथवा उपवास से जोड़ा जाता है, पर यह इसका सामान्य अर्थ है। सकता है, पर सुखी नहीं। श्री चन्द्रप्रभ अर्थशिक्षा प्रदान करने के साथ- तपस्या के संदर्भ में महोपाध्याय ललितप्रभ सागर ने लिखा है, "तपस्या साथ धर्म-मूल्यों की शिक्षा देने के भी पक्षधर हैं। उनका मानना है, का मतलब मात्र उपवास या भोजन का त्याग नहीं है वरन् मन को "शिक्षा जब तक जीवन की दीक्षा के रूप में न ढले, तब तक वह अधूरी निर्मल रखते हुए नैतिक और पवित्र जीवन जीना तथा दुर्व्यसनों का ही है।" "जो शिक्षा और संस्कार हमें सुव्यवस्थित रहना सिखाए, वह त्याग कर वासना व रसना पर नियंत्रण करना असली तपस्या है।" इस सही शिक्षा है।" व्यक्ति पैसा अर्जित करना तो सीख गया है, पर पैसा तरह उन्होंने तपस्या में तन के साथ मन को भी साधने की प्रेरणा दी है। जीवन का हिस्सा है सम्पूर्ण जीवन नहीं, यह बात उसे सीखनी होगी। श्री चन्द्रप्रभ ने तप की व्याख्या में कहा है, "तप का अर्थ काया को हमें शिक्षा के साथ जीवन-मूल्यों की भी शिक्षा अर्जित करनी होगी। श्री कष्ट देना नहीं है, वरन् मन की वासना और कामना का निग्रह करना ही चन्द्रप्रभ कहते हैं, "समृद्धि देश, समाज और परिवार की आवश्यकता तप है।" है, पर इसके साथ-साथ संस्कार, सामाजिक मूल्य, धर्म और अध्यात्म भारत में दो तरह की संस्कृति है - एक है भोग-प्रधान संस्कृति की भी समृद्धि होनी चाहिए।" इससे स्पष्ट होता है कि श्री चन्द्रप्रभ और दूसरी है त्याग-प्रधान संस्कृति। श्री चन्द्रप्रभ अतिभोग अथवा भौतिक समृद्धि के साथ आध्यात्मिक समृद्धि पाने की भी प्रेरणा देते हैं। अतित्याग की बजाय मध्यम मार्ग के समर्थक हैं। उनका मानना है, वे इस उद्देश्य को साधने के लिए शिक्षा के साथ स्वाध्याय को अपनाना "शरीर के साथ अतिभोग नकसानदायक है और अतितप-त्याग भी आवश्यक मानते हैं। लाभदायक नहीं है।" वर्तमान में तपस्या आडम्बर युक्त हो गई और तप 9.धर्म और विज्ञान - धर्म श्रद्धा की चीज है और विज्ञान जिज्ञासा धन के लेन-देन के साथ जुड़ गया है। श्री चन्द्रप्रभ ने इसे अनुचित माना से पैदा होता है। अगर धर्म श्रद्धा के साथ जिज्ञासा युक्त न हो तो यह है। उपवास में व्यक्ति को क्या करना चाहिए इसका मार्गदर्शन देते हुए अंधविश्वास बन जाता है इसलिए धर्म भी वैज्ञानिकता लिए हुए होना श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "ध्यान रखिए, उपवास से पहले दो काम मत चाहिए। श्री चन्द्रप्रभ का दृष्टिकोण है, "बगैर वैज्ञानिकता के धर्म कीजिए : गुस्सा और निंदा, पर उपवास में दो काम अवश्य कीजिए : अंधविश्वास की तलहटी है।" आज कोई भी चीज प्रामाणिक तभी शास्त्र का पठन और आत्मस्वरूप का चिंतन।" जो लोग उपवास नहीं मानी जाती है जब उसमें वैज्ञानिकता का अंश होता है, श्री चन्द्रप्रभ द्वारा कर सकते, वे तपस्या को किस तरह आत्मसात् कर सकते हैं, इसका धर्म को वैज्ञानिक कसौटी से कसकर प्रस्तुत करने की कोशिश मानवता व्यावहारिक मार्गदर्शन देते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "भाई-भाई के लिए मंगलकारी सिद्ध हुई है। अथवा सास-बहू में आ चुकी दूरियों को कम करना, जीवन में पलने 10.धर्म और पर्यावरण - धर्म और पर्यावरण का अंतर्संबंध है। वाले दुर्गुणों और दुर्व्यसनों का त्याग करना और व्यापार में छल-प्रपंच भारतीय संस्कति द्वारा उपदिष्ट नियम-उपनियम यथा : पेडों की पूजा से परहेज रखना तपस्या के ही अलग-अलग रूप हैं। आप कुछ ऐसा करना, नदियों को पवित्र मानना, गंगा स्नान को महत्त्व देना, सूर्य को कीजिए कि आपका सारा जीवन ही तपस्या बन जाए और आपका घर अर्घ्य चढाना आदि प्रकृति प्रेम के ही उदाहरण हैं। भगवान महावीर ने भी आपका तपोवन।" इससे स्पष्ट होता है कि वे तप के संदर्भ में तो पृथ्वी, पानी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति तक में जीव तत्त्व को मध्यम-मार्ग स्वीकारते हैं और तन की बजाय मनो-शुद्धि के प्रति माना और उनके छेदन-भेदन को बहुत बड़ी हिंसा बताया। वर्तमान में ज्यादा जागरूक करते हैं। वैज्ञानिक आविष्कारों और औद्योगिक प्रगति के चलते जिस तरह 12. धर्म और संत - धर्म को जीने के दो मार्ग है - गृहस्थ जीवन पर्यावरण को क्षति पहुँची है वह चिंता का विषय है। इसी आशंका के और संत जीवन। भारतीय संस्कृति में संत-जीवन की विशेष महिमा चलते वैज्ञानिक भी पर्यावरण-रक्षा की प्रेरणा देने लगे हैं। श्री चन्द्रप्रभ है। भारत में वैभव की बजाय त्याग-प्रधान संस्कृति रही है। महावीर भी पर्यावरण प्रेमी हैं। वे पर्यावरण की रक्षा को बहुत बड़ा धर्म और और बुद्ध जैसे पुरुषों ने भी राजमहलों का त्याग कर संन्यास का जीवन उसके विनाश को बहुत बड़ा पाप मानते हैं। उनका दृष्टिकोण है, जीया था। संत जीवन केवल सिर का मुंडन या कपड़ों का बदलाव नहीं "पर्यावरण का रक्षण अहिंसा का जीवन्त आचरण है। हमारे किसी है। भगवान महावीर ने कहा है, "सिर मुंडाने से कोई श्रमण नहीं होता, क्रिया-कलाप से उसे क्षति पहुँचती है, तो वह आत्म-क्षति ही है।" ओम का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, अरण्य में रहने से कोई उन्होंने प्रेरणा देते हुए कहा है, "हम पर्यावरण के किसी भी अंग को मुनि नहीं होता और कुशचीवर धारण करने से कोई तपस्वी नहीं होता। नष्ट न करें, न किसी और से नष्ट करवाएँ और न ही नष्ट करने वाले का समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता समर्थन करें।" इससे स्पष्ट होता है कि वे पर्यावरण रक्षा के समर्थक हैं है और तप से तपस्वी होता है।" इससे स्पष्ट होता है कि भगवान एवं उन्होंने इसकी रक्षा को धर्म-रक्षा माना है। महावीर ने साधुता का अर्थ वेश से नहीं मनोदशा से जोड़ा है। श्री 11. धर्म और तपस्या - भारतीय संस्कृति ऋषि एवं कृषि-प्रधान चन्द्रप्रभ का संत जीवन के संदर्भ में दृष्टिकोण है, "जो संत क्रोध करते है। यहाँ के ऋषि-मुनियों ने त्याग और तपस्या पर अधिकाधिक बल हैं, वे ऐसा करके अपनी साधुता खण्डित करते हैं। जो संत समाज को दिया। उन्होंने स्वयं भी इसे जिया और औरों को भी इसे जीने की प्रेरणा लड़वाने और तोड़ने का काम करते हैं, वे साधुता को नष्ट और भ्रष्ट दी। तपो-साधना के बल पर ही संतों ने ऋद्धि-सिद्धि को उपलब्ध करते हैं। जो संत अपना जीवन खाने-पीने में बिता देते हैं, वे साधुता के किया। धर्म का मख्य आधार तपस्या को माना गया। खाओ.पियो और मार्ग से स्खलित हैं।" संत-समाज में आज जिस तरह से परिग्रह. मौज करो यह जीवन की विकति है और त्याग करो, तप को जियो यह देहपोषण, यश-कामना बढ़ी है उसे श्री चन्द्रप्रभ ने स्वीकार किया है। भारत की संस्कृति है। यहाँ वैभव की बजाय सदा त्याग पजा गया। इसी संत-समाज की वास्तविकता बताते हुए उन्होंने कहा है, "समाज को तप त्याग के चलते भारत विश्व का गरु बन पाया। तपस्या को भोजन के विभिन्न पंथों और सम्प्रदायों में बांटने का साठ प्रतिशत श्रेय साधुओं को संबोधि टाइम्स 75 For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है और चालीस प्रतिशत श्रावकों को भगवान द्वारा प्ररूपित श्रावक जीवन को जीने वाले न तो अब कोई श्रावक बचे और न ही शुद्ध श्रमण धर्म को पालन करने वाले कोई साधु बचे हैं।" इससे स्पष्ट होता है कि श्री चन्द्रप्रभ ने संत जीवन की महत्ता के साथ उससे जुड़ी हकीकतों को भी उजागर किया है। वे सत्य को स्वीकार करने व कहने पूर्ण निष्पक्ष हैं। । I 13. धर्म और सम्प्रदाय धर्म चेतना है और सम्प्रदाय जड़ सम्प्रदाय का जन्म धर्म को व्यवस्थित और विकास देने के लिए हुआ है । लेकिन जब-जब सम्प्रदाय की संकीर्ण दृष्टि जन्म लेती है तब-तब धर्म का मूल अस्तित्व खंडित होने लग जाता है। इसी साम्प्रदायिक संकीर्णता के चलते धर्म के नाम पर अनेक दंगे-फसाद, युद्ध तक हुए। श्री ललितप्रभ ने लिखा है, "हमने पच्चीस सौ सालों तक धर्म के नाम पर लड़-झगड़कर खोया ही खोया है अगर अब मात्र पच्चीस साल मानव जाति संगठित हो जाए तो भारत का पुनः कायाकल्प हो सकता है हमसे तो वे कबूतर अच्छे हैं जो मंदिर के शिखर पर और मस्जिद की मीनार पर बिना किसी भेदभाव के गुटर-गुँ कर लेते हैं।" श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन धर्म के प्रति विराट नजरिया रखने की प्रेरणा देता है। उन्होंने पंथ और सम्प्रदाय से बँधे इंसान को धर्म की मूल सीख देते हुए कहा है, “जब से व्यक्ति ने धर्म के नाम पर बने पंथ और सम्प्रदाय से स्वयं को बाँधना शुरू किया है तब से धर्म संकुचित होकर रह गया। दुनिया के जिन महापुरुषों ने हमें धर्म की जलती हुई मशाल थमाई थी, हमने मशाल की आग को तो बुझा दिया और खाली डंडे लेकर नारेबाजी करते रहे और अपने-अपने धर्म की डफली बजाते रहे। परिणाम बुझी हुई मशाल के डंडे लड़ने-लड़ाने के सिवा और क्या काम आएँगे" आज विश्व में जितने धर्म हैं उससे भी कई गुना अधिक सम्प्रदाय हैं। चाहे सनातन धर्म हो या बौद्ध धर्म, जैन धर्म हो या मुस्लिम धर्म, सबमें सम्प्रदायों के अनेकानेक भेद-प्रभेद हैं। लोग अपने-अपने पंथ और सम्प्रदायों में सिमट गए हैं। वे सम्प्रदायगत धर्म को ही सही मानने लगे हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने सम्प्रदायों से ऊपर उठने की प्रेरणा देते हुए कहा है, "अगर सांसारिक संबंध राग है तो सम्प्रदायों में बँधना भी राग है, यह अनुराग भला मुक्ति का आधार कैसे बन पाएगा? व्यक्ति पंथपरंपरा से नहीं, धर्म और धार्मिकता से प्रेम करे। धर्म हमें एक-दूसरे से प्यार करना सिखाता है लड़ना लड़ाना नहीं।" उन्होंने पंथ-परंपरा और सम्प्रदाय से मुक्त होकर धर्म की सार्वजनिक व्याख्या की है। इस संदर्भ में वे कहते हैं, "धर्म का मतलब हिन्दू धर्म, जैन धर्म, ईसाईइस्लाम या सिक्ख पारसी धर्म नहीं है। ये सब तो पगडंडियाँ हैं, धर्म तो निष्पक्ष है, जीवन की अनुगूँज है, आत्मशुद्धि का उपाय है - धर्म न हिंदू, बौद्ध है, धर्म न मुस्लिम, जैन । धर्म चित्त की शुद्धता, धर्म शांति सुख चैन ॥ इस विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि श्री चन्द्रप्रभ का धर्म के प्रति विराट दृष्टिकोण है। वे सम्प्रदाय विशेष तक सीमित रहने वालों को धर्म की वास्तविकता से बोध कराते हैं जहाँ वर्तमान में साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए प्रयत्न हो रहे हैं ऐसी स्थिति में उनका दृष्टिकोण इसको स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । 14. धर्म और महापुरुष धरती पर ऐसे अनेक महापुरुष हुए जिन्होंने सत्य की खोज की और उसे उपलब्ध किया। राम, कृष्ण, Jain 76 > संबोधि टाइम्स महावीर, बुद्ध, जीजस नानक, मोहम्मद, कबीर, सुकरात आदि सभी महापुरुषों ने अपने-अपने ढंग से धर्म की व्याख्या की। ये सभी महापुरुष किसी पंथ परम्परा से बँधे हुए नहीं थे। इनके उपदेश भी आमजनता के लिए थे, पर धीरे-धीरे इन्हें पंथ-परंपरा या किसी विशेष धर्म तक सीमित कर दिया गया। परिणामस्वरूप धर्म संकीर्णता के दायरे में आ गया। श्री चन्द्रप्रभ ने लोगों को इस संकीर्ण मानसिकता से मुक्ति दिलाने की कोशिश की है और हर धर्म व हर महापुरुष के निकट जाने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, " भेद दियों में होते हैं, पर ज्योति में कहीं कोई फर्क नहीं होता। जो मिट्टी के दियों पर ध्यान देते हैं वे मृण्मय हो जाते हैं, पर जो ज्योति पर ध्यान देते हैं वे ज्योतिर्मय हो जाया करते हैं जैसे उपवन में खिले अलग-अलग फूल बगीचे की शोभा बढ़ाते हैं वैसे ही महापुरुष भी धरती पर खिले हुए अलग-अलग फूल हैं, जो प्रेम, सत्य, मोहब्बत और भाईचारे की खुशबू फैला रहे हैं।" उनका मानना है कि " जब तक मानव समाज में राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, जीसस, मोहम्मद जैसे महापुरुषों के प्रति सकारात्मक दृष्टि नहीं आएगी तब तक समाज चारदीवार में ही बँधकर रह जाएगा और समग्र मानव समाज के लिए सार्थक उपयोग नहीं हो पाएगा।" श्री चन्द्रप्रभ के द्वारा राम प्रभु पर की गई व्याख्या तो सर्वत्र समदृत हुई है। वे कहते हैं, "राम को अगर आप हिन्दू धर्म तक ही सीमित कर देंगे तो वे समग्र मानवता के भगवान नहीं हो पाएँगे राम को विराटता के अर्थों में देखें तो राम का 'र' जैनों के प्रथम तीर्थंकर रिषभ का वाचक है और 'म' अंतिम तीर्थंकर महावीर का परिचायक है। अगर राम को इस्लाम के साथ जोड़ा जाए तो राम का 'र' रहमोदीदार अल्लाह का वाचक है और 'म' अंतिम पैगम्बर मोहम्मद साहब का सूचक है। समन्वय दृष्टि रखें तो राम कहने से समूचे इस्लाम की इबादत हो जाती है । बिखराब का नजरिया रखेंगे तो सभी ओर बिखराव ही बिखराव नजर आएगा।" इससे स्पष्ट होता है कि वे हर महापुरुष से प्रेम रखते हैं। और उनसे दो अच्छी बातें सीखने की प्रेरणा देते हैं। उन्होंने महापुरुषों से जुड़ी संकीर्णताओं को दूर कर एक-दूसरे के निकट आने व सबको निकट लाने की जो पहल की है वह समादरणीय है। 15. धर्म व स्वर्ग-नरक स्वर्ग-नरक भारतीय संस्कृति के चर्चित शब्द रहे हैं। धर्म-शास्त्रों की धूरी इन्हीं के आस-पास घूमती है। हर धर्म के शास्त्रों में स्वर्ग-नरक के स्वरूप की विस्तार से व्याख्याएँ मिलती हैं। व्यक्ति अच्छे कर्म करेगा तो मरने के बाद उसे स्वर्ग मिलेगा, जहाँ सुख ही सुख है और बुरे कर्म करेगा तो मरने के बाद उसे नरक मिलेगा, जहाँ दुःख के सिवाय और कुछ नहीं है, पर आज के इंसान को मरने के बाद मिलने वाले स्वर्ग का न तो लोभ है न नरक का भय, वह तो वर्तमान जीवन को सुखी बनाना चाहता है और दुःखों से बचना चाहता है। वह ऐसे मार्ग की तलाश में है जो उसके वर्तमान जीवन को स्वर्ग बनाए। श्री चन्द्रप्रभ का धर्म-दर्शन इसी जिज्ञासा का समाधान प्रस्तुत करता है। श्री चन्द्रप्रभ आसमान में बने स्वर्ग और पाताल में बने नरक में अधिक विश्वास नहीं रखते हैं। वे वर्तमान जीवन को स्वर्गमय बनाने के लिए कटिबद्ध हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म और स्वर्ग-नरक को रूढ़िवादी परिभाषाओं से मुक्त किया है। उसे वर्तमान सापेक्ष बनाने व उनकी नई व्याख्याएँ देने की पहल की है। उनका स्वर्ग-नरक वर्तमान जीवन से जुड़ा हुआ है। उनका दृष्टिकोण है, "कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम स्वर्ग और नरक के नक्शे बना रहे हैं और अपने अंतर्मन से बिल्कुल For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता है। अछूते पड़े हैं? किसी पाताल में बने हुए नरक से बचने के लिए धर्म न ध्यान दर्शन करें, वरन् अपनी अंतआत्मा में पल रहे नरक से बचने के लिए धर्म को आत्मसात् करें, अपने ही भीतर स्वर्ग को ईजाद करने के लिए धर्म का ज्ञान और ध्यान भारत की सभी धार्मिक एवं दार्शनिक परम्पराओं आचरण करें।" के अंग रहे हैं। वैदिक परम्परा और श्रमण परम्पराओं में साधना की दृष्टि से ध्यान का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । वैदिक ऋषिगण और श्रमण इससे स्पष्ट होता है कि वे स्वर्ग-नरक को आसमान-पाताल में साधक अपने आध्यात्मिक विकास के लिए ध्यान साधना की विभिन्न नहीं, जीवन में ही देखते हैं और परलोक के नरक से बचने के लिए पद्धतियों का अनुसरण किया करते थे। पतंजलि, महावीर और बुद्ध को वर्तमान जीवन में पल रहे नरक से बचने की सलाह देते हैं। वे कहते हैं, ज्ञान का जो प्रकाश उपलब्ध हुआ, वह उनकी ध्यान-साधना का ही "मनुष्य के जीवन में ही स्वर्ग है और मनुष्य के जीवन में ही नरक है। प्रेम और शांति के क्षणों में स्वर्ग है और आक्रोश और उत्तेजना के क्षण परिणाम था। उनकी साधना पद्धतियों के कुछ अवशेष आज भी हमें नरक हैं। जितनी देर हम क्रोध में जी रहे हैं, उतनी देर हम नरक की योग परम्परा के साथ-साथ जैन और बौद्ध परम्पराओं में मिलते हैं। वैसे मुँडेर पर खड़े हैं और जितनी देर हम प्रेम में जी रहे हैं उतनी देर स्वर्ग में ध्यान का मार्ग बहुत प्राचीन है। उपनिषद, पालि-त्रिपिटक और जी रहे हैं।" एक तरह से वे हमें इसी जीवन को स्वर्ग बनाने की प्रेरणा प्राकृत-आगम ध्यान के उल्लेखों से भरे पड़े हैं। महर्षि पतंजलि ने योग दे रहे हैं। सूत्र में योग के आठ अंगों की चर्चा की है - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। उन्होंने इन्हें दो भागों 16. धर्म और मुक्ति - भारतीय दर्शनों का अंतिम ध्येय मुक्ति में विभक्त किया है - बहिरंग और अंतरंग। यम से प्रत्याहार बहिरंग में है। मुक्ति पाए बिना व्यक्ति जन्म-मरण के दु:खों से छुटकारा नहीं पा सकता है। धर्म मुक्ति पाने का साधन है। मुक्ति कल्पना है या और शेष तीन अंतरंग में आते हैं। ध्यान अंतरंग साधना का दूसरा बिन्दु हकीकत? यह मरने के बाद मिलता है या जीते-जी भी उपलब्ध है। भगवान महावीर ने ध्यान को तप के बाहर भेदों में अंतरंग तप का किया जा सकता है? क्या वर्तमान में मुक्ति उपलब्ध हो सकती है? अनिवार्य चरण माना है। पातंजल योग और जिन परम्परा में ध्यान तथा इत्यादि सभी प्रश्नों को लेकर धर्मशास्त्रों में विस्तृत विवेचन है साथ समाधि के प्रसंग में दो शब्दों का प्रयोग हुआ है - निर्वितर्क और ही आपस में मतभेद भी। श्री चन्द्रप्रभ के धर्म-दर्शन में मुक्ति का निर्विचार । वर्तमान में वितर्क-विचार तो खूब चल रहे हैं परंतु मात्र तर्क जीवन सापेक्ष विवेचन मिलता है । वे कहते हैं, "वह मुक्ति, मुक्ति ही और विचार से सत्य और निष्कर्ष तक नहीं पहुँचा जा सकता, इसलिए क्या, जिसे हम शरीर को छोड़ने के बाद उपलब्ध करें।"इस तरह वे ध्यान ही एक ऐसा विकल्प है जो सत्य व निष्कर्ष तक हमें पहुँचा देह मुक्ति की बजाय जीवन मुक्ति में विश्वास रखते हैं। उन्होंने मुक्त होने के लिए स्वयं के भीतर उतरना आवश्यक माना है। उनका ध्यान की महत्ता दृष्टिकोण है, "आदमी को मुक्ति के लिए उतना ही गहरा जाना मनुष्य के सम्पूर्ण स्वास्थ्य के लिए जितनी आवश्यकता सम्यक् पड़ता है, जितनी गहरी हमारे मन में वासना, उत्तेजना और काम __ भोजन एवं औषधि की है उतनी ही ध्यान और योग की भी है। ध्यान में प्रवृत्ति है।" श्री चन्द्रप्रभ ने भीतर से मुक्त होने पर अधिक बल दिया मनुष्य के जीवन का सम्पूर्ण विज्ञान छिपा हुआ है। हमारे अतीत को है। उनका मानना है, "जब तक मूर्छा के लंगर न खुलेंगे, तब तक सँवारने, वर्तमान को बनाने और भविष्य को सुधारने के लिए ध्यान से जीवन की नौका मुक्ति की ओर नहीं बढ़ेगी।" इससे स्पष्ट होता है बढ़कर कोई साधन नहीं है। अगर हम मन के सारे समाधानों का कोई कि वे बाहर से या देह से मुक्त होने की बजाय भीतर की वृत्तियों से भी नाम और मार्ग देना चाहें तो वह है ध्यान । ध्यानशतक में भी मोक्ष के मुक्त होने पर ज्यादा जोर देते हैं। हेतु रूप तप में ध्यान को प्रधान अंग माना गया है। ऋषिभासित सूत्र में निष्कर्ष ध्यान के महत्व को उजागर करते हुए कहा गया है,"जैसे शरीर में सिर श्री चन्द्रप्रभ के धर्म-दर्शन के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि का और वृक्ष में जड़ का महत्व है, वैस ही साधु के समस्त धर्मों में ध्यान धर्म के क्षेत्र में श्री चन्द्रप्रभ सूक्ष्म पकड़ रखते हैं। उन्होंने धर्म की का महत्त्व है।" सक्षमताओं को सरलता के साथ व्याख्यायित किया है। श्री चन्द्रप्रभ संसार के सभी धर्मों का सार है ध्यान। ध्यान हर धर्म-कर्म की का धर्म-दर्शन किसी पंथ, परम्परा या शास्त्र तक सीमित नहीं है। सफलता की आत्मा भी है और आध्यात्मिक सौन्दर्य को उपलब्ध करने उन्होंने धर्म की जो परिभाषाएँ दी हैं वे परम्परागत मान्यताओं से। का आधार भी। ध्यान के बिना न तो मानसिक शांति एवं एकाग्रता को ऊपर हैं। उन्होंने धर्म को जीवन-शुद्धि, आत्मशुद्धि से जोड़ा है। पाया जा सकता है. न ही आध्यात्मिक ऊँचाइयों को। राज. पत्रिका के उनका धर्म सबधा विवचन जावन का कतव्यपरायण, नातक, सम्पादक गुलाब कोठारी श्री चन्द्रप्रभ की 'ध्यान का विज्ञान' पुस्तक व्यवस्थित और प्रगतिशील बनाता है। उन्होंने धर्म को जीवन, की भूमिका में लिखते हैं, "ध्यान के महत्व को आज पूरे विश्व ने परिवार, समाज, मानवीय मूल्य, राजनीति, नारी-शिक्षा, विज्ञान, स्वीकार किया है। अतिविकसित कहे जाने वाले देश और भोगवाद की पर्यावरण, तपस्या, युवावर्ग, सम्प्रदाय,स्वर्ग-नरक और मुक्ति आदि चरम परिणति में जीवन व्यतीत कर रहे लोगों को असीम शांति और विविध बिन्दुओं के साथ विश्लेषण किया है। उनके द्वारा की गई परम सुख ध्यान में ही प्राप्त हो रहा है।"ध्यान न केवल हमें दुःखों से व्याख्याओं में हर पहलू नई दृष्टि एवं नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। मुक्त करता है वरन् परिपूर्ण चेतना और दिव्य शक्तियों के साक्षात्कार में निष्कर्षत: उनका धर्म जीवंत, सरल और मानवीय उत्थान की आभा भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ध्यान से ही मानव में सम्पूर्णता का लिए हुए है। उदय होता है। चन्द्रप्रभ का दर्शन कहता है,"जहाँ जीवन के आंतरिक For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स)77org Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकास के लिए ध्यान जरूरी है वहीं जीवन के बाहरी विकास के लिए विज्ञान जीवन का सम्पूर्ण विकास दोनों के होने से ही हो सकता है।" वर्तमान पर गौर करें तो विज्ञान ने मनुष्य का ख़ूब विकास किया है, उसे सुख-सुविधाओं से समृद्ध किया है, इतना ही नहीं वह पहले से और अधिक बौद्धिक हुआ है, पर ध्यान साथ में न जुड़ने के कारण विज्ञान उसके लिए भारी पड़ गया है। दो महायुद्ध इसी के परिणाम थे । आत्मरक्षा के नाम पर इतने अणु-परमाणु शस्त्र बन चुके हैं कि धरती का विनाश कभी भी हो सकता है। इसलिए समय रहते व्यक्ति की मानसिकता का सुधार होना जरूरी है इसमें ध्यान शत-प्रतिशत उपयोगी है। ध्यान से मानसिक शुद्धि होगी और व्यक्ति पराशक्ति के सान्निध्य से लाभान्वित होगा । 1 ध्यान का अर्थ : मानक हिन्दी कोश के अनुसार ध्यान शब्द की उत्पत्ति 'ध्यै' धातु में 'अन' प्रत्यय लगने से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ है लगना या होना। मन का किसी विशिष्ट काम या तत्त्व की ओर लगना या होना ही ध्यान है।" ध्यान शतक में जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण ने ध्यान के संदर्भ में कहा है, "जो स्थिर अध्यवसाय है, वह ध्यान है।" यह परिभाषा चित्त की एकाग्रता को ध्यान बताती है । तत्त्वार्थ सूत्र में ध्यान को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि " अनेक अर्थों का आलम्बन देने वाली चिंता का निरोध ही ध्यान है।" इस प्रकार ध्यान चित्त की चंचलता को समाप्त करने का अभ्यास है। पतंजलि ने योगदर्शन के समाधिपाद में चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा है।" ध्यान योग का महत्त्वपूर्ण अंग है । चित्त वृत्ति का निरोध ध्यान के बिना संभव नहीं है, अतः ध्यान को साधना का अनिवार्य अंग माना गया है। बौद्ध दर्शन में ध्यान के लिए महासत्तिपट्टान सुत्त में अनुपश्यना शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका शाब्दिक अर्थ है लगातार देखना अर्थात् साढ़े तीन हाथ की काया में इस क्षण जो कुछ प्रकट हो उसे जागरूकता और बोधपूर्वक जानना, ऐसे ही आगे से आगे क्षण-प्रतिक्षण प्रकट होने वाली सच्चाइयों को जानते चले जाना अनुपश्यना कहलाती है।" ध्यान की ये परिभाषाएँ सार रूप में जहाँ ध्यान को चित्त की एकाग्रता, चित्तनिरोध अथवा चित्त के साक्षात्कार से जुड़ा प्रयोग मानती हैं वहीं श्री चन्द्रप्रभ ध्यान को मानसिक शांति, विकार मुक्ति एवं विचार शुद्धि का अभियान मानते हैं। उनकी दृष्टि में, " ध्यान मन को स्थित करने की तकनीक है।" वे कहते हैं, "ध्यान जीवन की पाशविक और उग्र वृत्तियों के दिव्य रूपांतरण के लिए श्रेष्ठ प्रयोग है।" उन्होंने ध्यान को अनेक तरह से व्याख्यायित किया है, जैसे ध्यान मूर्च्छा से जागरण की क्रांति है। ध्यान चित्त को चैतन्य बनाने की गुंजाइश है। ध्यान शरीरशुद्धि नहीं, बल्कि चित्त-शुद्धि है। ध्यान स्वयं की मौलिकता में वापसी हैं। ध्यान मन को समझने का मनोविज्ञान है। 'मैं हूँ, इस शांत शून्य बोध का नाम ध्यान है। ध्यान का अर्थ जीवन विमुख होना नहीं है, वरन यह जीवन के प्रति और अधिक सजग और आनंदित रहने की कला है। ध्यान विजय का मार्ग है, इन्द्रिय-विजय, कषाय-विजय. कर्म - विजय, आत्म-विजय का मार्ग है। ध्यान विश्राम है, अपने आप में विश्राम। ध्यान जंगल की प्रेरणा नहीं, जंगलीपन को मिटाने की प्रेरणा है। ध्यान देह में रहते हुए देहातीत होने की प्रक्रिया है। ध्यान जीवन में सोई हुई संभावनाओं को जगाने का प्रयास है। इस तरह चन्द्रप्रभ ने • संबोधि टाइम्स JainZ8&cation ध्यान की अनेक दृष्टिकोण से व्याख्या की है। निष्कर्षतः ध्यान अंतःकरण की शुद्धि व जीवन को भीतरी ऊँचाइयाँ देने का मार्ग है। व्यक्ति की सारी गतिविधियाँ मनो-मस्तिष्क से संचालित होती हैं । ध्यान इसी मनोमस्तिष्क को बेहतर बनाने की प्रक्रिया है। ध्यान योग की परम्पराएँ 4 भारतीय दर्शनों में आध्यात्मिक उत्थान के लिए ध्यान योग' को अनिवार्य मार्ग के रूप में स्वीकार किया गया है। यद्यपि ध्यान-योग के अलावा भी ज्ञानयोग, भक्तियोग, राजयोग, हठयोग, मंत्रयोग, लययोग, सांख्ययोग, कुण्डलिनीयोग, अनाहतनादयोग के मार्ग भी बताए गए हैं, जिनसे अनेक साधक-साधिकाओं ने परमात्म पद को प्राप्त किया, पर इन सब मार्गों की पूर्णता भी अंततः ध्यान योग के मार्ग पर ही जाकर होती है। प्राचीन भारतीय ऋषि-मुनि गुरुकुल व्यवस्था, राजकाज और यज्ञादि कार्यों को देखा करते थे, फिर भी वे निजी जीवन में ध्यानसाधना को महत्व देते थे। वेद, उपनिषद, आगम, पिटक आदि शास्त्रों ध्यान-योग से संबंधित सामग्री बहुतायत मात्रा में प्राप्त होती है, पर व्यवस्थित न होकर सर्वत्र बिखरी हुई है। वैदिक परम्परा में ' ध्यानयोग' पर सर्वप्रथम व्यवस्थित व्याख्या पतंजलि के योगदर्शन में प्राप्त होती है, इसी कारण वैदिक परम्परा में आज तक जितने भी महापुरुष हुए अथवा ध्यानयोग से जुड़े मत प्रतिपादित हुए उन सब पर पतंजलि योग-दर्शन का प्रभाव किसी न किसी रूप में अवश्य दृष्टिगोचर होता है। भगवान महावीर ने 12 वर्ष तक लगातार एकांत में मौन रहकर घोर ध्यान साधना की, जिसके बाद उन्हें पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हुई। इनका धर्म आगे चलकर जैन धर्म कहलाया। जैन आगम 'आचांराग' में महावीर की साधना वर्णित है। पर उनकी ध्यान पद्धति का व्यवस्थित उल्लेख एक जगह प्राप्त नहीं होता है। यह कार्य बाद में हुआ। जैन आगमों के विशाल साहित्य में बिखरी ध्यान-योग की सामग्री को जिन आचार्यों ने महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखकर व्यवस्थित किया, उनमें आचार्य पूज्यपाद कृत 'समाधि तंत्र', आचार्य हरिभद्र सूरि कृत 'योगविंशिका' और 'योग दृष्टि समुच्चय', आचार्य शुभचंद्र कृत ज्ञानार्णव, आचार्य हेमचंद्र कृत योगशास्त्र, जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण कृत 'ध्यान शतक' आदि प्रमुख हैं। बाद में आनंदघन, चिदानंद, देवचंद्र जैसे योग और तत्त्ववेत्ता भी हुए जिनसे जैन परम्परा में ध्यान योग, मंत्र साधना एवं जप योग का विकास हुआ भगवान बुद्ध ने भी ध्यान पर अत्यधिक बल दिया। बौद्ध दर्शन के 'अभिधम्म कोष' और 'विशुद्धिमग्ग' में वर्णित साधना मार्ग आज 'विपश्यना' ध्यान-पद्धति के रूप में चल रहा है। ध्यान-योग से जुड़ी वर्तमान धाराओं पर दृष्टिपात करें जो आज देश व विश्वभर में चल रही हैं वे निम्न हैं- पूर्ण योग, सहज मार्ग, निर्विचार ध्यान, सक्रिय ध्यान, राजयोग, भावातीत ध्यान, पश्य ध्यान, प्रेक्षाध्यान, आर्ट ऑफ लिविंग, पतंजलि योग, समीक्षण ध्यान, संबोधि ध्यान आदि। महर्षि अरविंद 'पूर्ण योग' के संस्थापक हैं। श्री अरविंद ने हृदय पर ध्यान करने की प्रेरणा दी है। श्री रामचन्द्र महाराज ने 'सहज मार्ग' का प्रवर्तन किया जिसमें गुरु ऊर्जा आज्ञान हो प्रमुखता दी जाती है। जे. कृष्णमूर्ति ने 'निर्विचार ध्यान' मार्ग का प्रवर्तन किया। सक्रिय ध्यान की पद्धति का प्रतिपादन आचार्य रजनीश (ओशो) ने किया। उन्होंने 'ध्यान विज्ञान' पुस्तक में ध्यान की 115 विधियाँ प्रदान की हैं जिसमें For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक्रिय ध्यान मुख्य है। दादा लेखराज ने प्रजापति ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय "श्री चन्द्रप्रभ के साहित्य में वर्तमान की समस्याओं के प्रसंग में ध्यान विश्वविद्यालय संस्था की स्थापना की, जिसका मुख्य उद्देश्य एक समाधान के रूप में स्थापित हुआ है।" वर्षों की ध्यान साधना व 'राजयोग' की शिक्षा देना है। वे आज्ञाचक्र पर अर्थात् ललाट के मध्य जीवन-जगत के रहस्यों को समझने के लिए श्री चन्द्रप्रभ ने जिस ध्यान केन्द्रबिन्दु पर ध्यान करने की प्रेरणा देते हैं। महर्षि महेश योगी ने मार्ग का प्रवर्तन किया वह संबोधि ध्यान साधना मार्ग' के नाम से जाना भावातीत ध्यान पद्धति का प्रवर्तन किया, जिसमें मंत्रध्यान की विशेष जाता है। विधि द्वारा विचारों और भावों से पार पहुँचने की कोशिश की जाती है। 'संबोधि' की साधना भारत व अन्य देशों से हज़ारों वर्षों से होती विपश्यना ध्यान पद्धति को भारत में लाने का श्रेय बर्मा से भारत आए चली आई है। श्री चन्द्रप्रभ ने 'संबोधि ध्यान' के नाम से साधना का सत्यनारायण गोयनका को है। आज जो स्वरूप स्थापित किया है, वह ध्यान-योग के विभिन्न पहलुओं जैन आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रेक्षाध्यान पद्धति का आविष्कार किया को जीवन से जीकर और अनुभवों की कसौटी पर कसकर ही प्रस्तुत जिसमें श्वास प्रेक्षा व शरीर के चैतन्य केन्द्रों की प्रेक्षा मुख्यतया करवाई किया है। यह पद्धति अत्यन्त संतुलित एवं व्यवस्थित है। शरीर, मन जाती है। श्री श्री रविशंकर आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक हैं, जिसमें और आत्मा के संतुलन,शांति और शुद्धि के लिए संबोधि साधना स्वयं ध्यानयोग के प्रयोग पतंजलि योग व षट्चक्र साधना पर आधारित हैं। ही एक संपूर्ण योग है। यह विशुद्ध रूप से जीवन की आंतरिक बाबा रामदेव ने पतंजलि योग को स्वास्थ्य के साथ जोड़ा। इसमें चिकित्सा है। इसका जाति, धर्म, परम्परा से कोई सरोकार नहीं है। आसन-प्राणायाम की प्रधानता है। जैन आचार्य नानालाल ने 'समीक्षण संबोधि साधना का मार्ग व्यक्ति के बाहरी परिचय और रूप-रूपायों को ध्यान विधि' प्रतिपादित की जो मुख्यतया विपश्यना से प्रभावित है। श्री मूल्य नहीं देता। यह सीधे व्यक्ति को अंतरमन से जोड़ता है और उसे चन्द्रप्रभ ने 'संबोधि ध्यान साधना' मार्ग का प्रवर्तन किया, जिसमें मंत्र दिव्य परिणाम प्राप्त कराता है। साधना, पंचकोष, षट्चक्र, ब्रह्मांडीय ऊर्जा एवं साक्षी ध्यान साधना के संबोधि-ध्यान की एक क्रमिक साधना है, जिसके तहत मुख्य रूप प्रयोग मुख्यतया करवाए जाते हैं जिनका विस्तार से विश्लेषण आगे से पाँच प्रयोग हैं। पहली विधि हमें ध्यान में प्रवेश दिलाती है, जिससे किया जाएगा। हम मन की स्थिति को समझते हैं और मन की शांति को साधने की प्राचीन व वर्तमान से जुड़ी ध्यान परम्पराओं के विश्लेषण से स्पष्ट दिशा प्राप्त करते हैं। दूसरी विधि मंत्र-साधना से जुड़ी है, जो हमें स्थूल होता है कि प्राचीन युग की बजाय वर्तमान युग में ध्यान-योग के प्रति से सूक्ष्म की ओर ले जाती है। तीसरी विधि तन-मन के गुणधर्मों, आकर्षण बढ़ा है। प्राचीन युग में जो ध्यान-योग गुफाओं, जंगलों व संवेदनाओं और संस्कारों का साक्षी बनाते हुए हमें उसके प्रभावों से तपस्वियों तक सीमित था आज वही आम इंसान तक पहुँच गया है। कमलवत् ऊपर उठाती है। चौथी विधि शरीर में निहित विशिष्ट चेतना इसका श्रेय वर्तमान के ध्यान-योग के गुरुओं और शिक्षकों को जाता है। केन्द्रों को सक्रिय करते हुए हमारे लिए अतिरिक्त ऊर्जा के भंडार जिन्होंने वर्तमान युग के अनुरूप एवं आम आदमी के लिए उपयोगी खोलती है और अंतिम पाँचवीं विधि हमें अपनी चेतना के साथ ध्यान-योग की नई-नई पद्धतियों एवं प्रयोगों को आविष्कृत किया। इन एकलय करते हुए ब्रह्मांड में व्याप्त पराचेतना से एकाकार कराती है। प्रयोगों ने व्यक्ति को न केवल शारीरिक-मानसिक रोगों से मुक्ति श्री चन्द्रप्रभ के अनुसार, “निज चेतना में परमात्म-चेतना का अनुभव दिलाई है वरन् उसकी अन्तर्निहित शक्तियों के जागरण में भी महत्त्वपूर्ण और जीते-जी मुक्ति का रसास्वाद संबोधि साधना का पहला और भूमिका निभाई है। भारत के अनेक ध्यान गुरुओं ने विदेशों में भी इस आखिरी लक्ष्य है।" मार्ग को फैलाने में सफलता प्राप्त की है। परिणामस्वरूप पाश्चात्य संबोधि-साधना का स्वरूप संस्कृति के लोग भी धीरे-धीरे पूर्व की संस्कृति का अनुसरण कर रहे हैं। अगर ध्यान-योग के मार्ग को वैज्ञानिक ढंग से इसी तरह फैलाया 'संबोधि' साधना से जुड़ा हुआ शब्द है। संबोधि शब्द की व्याख्या गया तो वह दिन दूर नहीं जब सभी मानसिक एवं आन्तरिक समस्याओं करने से पता चलता है कि इसमें दो शब्द हैं : सम्+बोधि । सम् का अर्थ के समाधान के लिए ध्यान मुख्य आधार के रूप में उभरेगा। इक्कीसवीं है सम्यक् अथवा सम्पूर्ण। बोधि में मूल शब्द है - बोध। मानक सदी ध्यान सदी बन जाएगी और भारत 'विश्व-गुरु' की प्राचीन उक्ति शब्दकोश के अनुसार बोध शब्द 'बुध' धातु में धञ्' प्रत्यय लगने से को पुन: धारण करने में सफल हो जाएगा। बना है जिसका अर्थ है ज्ञान । अर्थात् सम्यक् ज्ञान अथवा सम्पूर्ण ज्ञान को संबोधि कहा जाता है। बौद्धों में पूर्णज्ञान' को संबोधि कहा गया है। श्री चन्द्रप्रभ की ध्यान-दर्शन में भूमिका गौतम बुद्ध, जैनों में जिनदेव और ज्ञानी पुरुष के लिए संबुद्ध शब्द का आधुनिक जीवन की जटिलताओं के चलते ध्यान एक सशक्त प्रयोग होता रहा है। महावीर व बुद्ध ने भी अनेक जगह बोधि व संबोधि साधना के रूप में उभरा है जो न सिर्फ व्यक्ति को उसकी पारिवारिक, शब्द का उपयोग किया है। श्री चन्द्रप्रभ के अनुसार, "बोधपूर्वक सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं का सामना करने की शक्ति देता है, जीवन जीना ही संबोधि है। सम्यक् बोध संबोधि का सहज प्राथमिक बल्कि उसे सार्वभौम अस्तित्व से जोड़कर आत्मविकास में भी सहयोग अर्थ है और सम्पूर्ण बोधि संबोधि का अंतिम अर्थ है अर्थात् संबोधि करता है। भारत में समय-समय पर अनेक ध्यान-मार्ग प्रकाश में आए सम्यक् बोध से सम्पूर्ण बोध तक की यात्रा है।" जैन दर्शन के त्रिरत्नों व आ रहे हैं। प्राचीन मार्गों पर आधारित होते हए भी इनमें नयापन है,ये में जो सम्यक् ज्ञान है उसी का संक्षिप्त एवं सरल शब्द है - संबोधि। श्री वर्तमान की उपयोगिता पर आधारित हैं और व्यक्ति को पूर्णता देने के चन्दप्रभ के अनुसार, "जब यही संबोधि ध्यान से गुजरते हुए अपनी लिए प्रयत्नशील हैं। इसी कड़ी में श्री चन्द्रप्रभ का ध्यान-दर्शन आज के पराकाष्ठा तक पहुँचती है तो 'बोधिसत्त्व' कहलाती है।" श्री चन्द्रप्रभ लिए बेहद उपयोगी सिद्ध हुआ है। डॉ. दयानंद भार्गव का कहना है, के दर्शन में 'संबोधि' को 'अंतर्दृष्टि' नाम भी दिया गया है। अर्थात् संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only 200rg Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर्दृष्टि और अंतर्बोध के साथ जीवन जीने की कोशिश करना । भगवान बुद्ध ने 'संबोधि' को ज्ञान की पराकाष्ठा के रूप में लिया है और भगवान महावीर ने बोधि को दुर्लभ कहा है वहीं पतंजलि ने बोध को समाधि का परिणाम माना है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि संबोधि शब्द सरल अर्थों में 'समझ' और विशेष अर्थों में 'तत्त्वबोध' व 'आत्मबोध' का परिचायक है । संबोधि साधना की उपयोगिता संबोधि का संबंध बोध से जुड़ा हुआ है। जीवन के हर क्रियाकलाप को, संवेदन और व्यवहार को बोधपूर्वक संपादित करने का नाम ही संबोधि साधना है। साधना के दृष्टिकोण से देखें तो साधना का प्रारम्भ बोध से होता है। बिना बोध के साधक तो क्या, आम आदमी के लिए भी जीवन जीना मुश्किल है संबोधि साधना मनुष्य को होश एवं बोधपूर्वक जीवन जीने की कला प्रदान करती है। श्री चन्द्रप्रभ होश एवं बोध को संबोधि साधना की नींव मानते हैं। होश एवं बोध की व्याख्या करते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "ध्यानपूर्वक जीवन जीना होश है और ज्ञानपूर्वक जीवन जीना बोध है।" बुद्ध और बोध एकदूसरे के पर्याय हैं। बुद्ध यानी जगा हुआ और बोध यानी जागरण। व्यक्ति संबुद्ध बने - यही संबोधि साधना का मुख्य उद्देश्य है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने में संबोधि साधना के प्रयोग बेहद उपयोगी सिद्ध हो रहे हैं। संबोधि साधना में आरोपित संयम जीवन जीने की बजाय बोधपूर्वक संयम जीवन जीने की प्रेरणा दी जाती है। श्री चन्द्रप्रभ स्वयं बोध में विश्वास रखते हैं। उनकी दृष्टि में, "ओड़ा गया संयम सहजता को असहज बना देता है।" संबोधि-साधना से आरोपित या शाब्दिक मुक्ति के नहीं, सहज मुक्ति के द्वार खुलते हैं । यह अनासक्ति से आत्म-प्रकाश को उपलब्ध करने का क्रमिक मार्ग है। संबोधि साधना का दर्शन कहता है : बोध से अनासक्ति का फूल खिलता है, अनासक्ति से आत्मभाव प्रगाढ़ होता है । आत्मभाव से साधना में त्वरा आती है और यही त्वरा हमें संबोधि की सुवास, परमात्मा का प्रकाश देती है। संस्कारों को गहराई से समझने के लिए बोध आवश्यक है। व्यक्ति किसी भी पंथ, धर्म, जाति का अनुयायी हो, पर वास्तव में वह अपने संस्कारों का अनुयायी होता है। श्री चन्द्रप्रभ इस संदर्भ में कहते हैं, ‘“व्यक्ति के लिए किसी भी धर्म का अनुयायी होना आसान है, पर जीवन का बोध प्राप्त करना कठिन है।" बोध ज्ञान प्राप्त करने से नहीं, स्वयं के अज्ञान को पहचानने से होता है। वर्तमान मनुष्य की स्थिति का चित्रण श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में इस तरह हुआ है, " आज व्यक्ति ज्ञानी तो बना हुआ है, लेकिन उसमें बोध की दशा नहीं है, ज्ञान के नाम पर वह किताबों का पंडित भर बन गया है। " संबोधि-साधना में बोध को साधने के लिए सजगता व जागरूकता पर बहुत अधिक बल दिया गया है। व्यक्ति क्या करता है यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, वरन करते समय उसके भीतर कितनी सजगता है, इसे संबोधि में मुख्य स्थान दिया गया है। श्री चन्द्रप्रभ ने बोध और निर्जरा (कर्मबंधन से मुक्ति) का अंतर्संबंध उजागर करते हुए कहा है, "व्यक्ति यदि अपने चित्त में उठने वाली हर तरंग के प्रति सजग और बोधपूर्ण हो जाए तो उसके क्रोध और कषाय, काम और विकार का आस्रव अर्थात् उदय व आगमन तो होगा, लेकिन बोध की दशा में रहने पर उदीयमान आस्रव निर्जरा के कार्य को प्राप्त कर लेगा ।" श्री 80 > संबोधि टाइम्स Jam Education International चन्द्रप्रभ ने बोध को क्रोध मुक्ति में भी सहायक माना है। क्रोध आज की आम बीमारी है, जिसके घातक परिणाम आते हैं। अगर व्यक्ति बोध दशा को बढ़ाए तो वह इससे बच सकता है। श्री चन्द्रप्रभ के अनुसार, "क्रोध को हम रोक नहीं सकते, अगर हम क्रोध भी होश व बोधपूर्वक करें तो क्रोध के कारण जो अन्य उद्वेग उठते हैं, वे व्यक्त नहीं होंगे, जिससे क्रोध अपने आप शिथिल हो जाएगा।" इस संदर्भ में 'संबोधि साधना का रहस्य' नामक पुस्तक में उदाहरण भी दिया गया है। जैसेघर में पति-पत्नी अथवा कोई भी झगड़ रहे हों, ऊँची आवाज़ में बोल रहे हों, तभी अचानक घंटी बज जाए. कोई आ जाए तो आधे मिनट में ही उनकी चित्त दशा बदल जाती है। अर्थात व्यक्ति की मनोधारा बदल सकती है, अगर वह जागरूक रहना सीख जाए। जहाँ अब तक व्यक्ति को शास्त्रों को पढ़ने की प्रेरणा दी गई वहीं संबोधि साधना ख़ुद को पढ़ने, स्वयं की अन्तर्दशा को गहराई से देखने की कला सिखाती है। श्री चन्द्रप्रभ जीवन-जगत को सबसे बड़ा शास्त्र मानते हैं। उनका दर्शन है, " शेक्सपियर के नाटक, टैगोर की गीतांजलि, महात्मा गांधी या टॉलस्टाय की आत्मकथा पढ़ने से बेहतर है कि हम अपने-आपको पढ़ें जो जीवन परिवर्तन के लिए प्रभावकारी सिद्ध होगी।" श्री चन्द्रप्रभ शास्त्र ज्ञान और संन्यास से भी ज़्यादा बोध को महत्व देते हैं। वे कहते हैं, “कोई कितनी भी ध्यान की बैठक लगा ले, , चाहे संन्यास भी ले ले, लेकिन जब तक भीतर का बोध उजागर न हो तब तक शास्त्रों का ज्ञान दिमाग़ की खुजली घर व संन्यास का वेश इज्जत और मान-मर्यादा देने का आधार मात्र होगा।" इस तरह संबोधि साधना केवल आँख बंद कर बैठने का नाम नहीं है वरन् बोधपूर्वक जीवन जीने की कला है। बोध दशा को गहरा करने के लिए अतीत में कभी महावीर ने अनुपश्यना और बुद्ध ने विपश्यना का मार्ग दिया था वैसे ही संबोधि साधना में 'साक्षी ध्यान' पर ज़ोर दिया गया है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "उठते-बैठते, आती-जाती श्वास पर सचेतनता साधें । काया में कोई गुणधर्म उठ रहा है तो उस पर ध्यान दें कि अभी काया में यहाँ दर्द अथवा अमुख संवेदन उठ रहा है। जो भी हो, उसके प्रति बोध रखें। इस बोध, सजगता से हम खाते-पीते, उठते-बैठते चौबीस घंटे ध्यान को जी सकते हैं। " श्री चन्द्रप्रभ ने होशपूर्वक चलने, होशपूर्वक खाने, संबोधि साधना में मल-मूत्र का विसर्जन करने, कचरा- कूड़ा फेंकने, होशपूर्वक बोलने, होशपूर्वक वस्तुएँ उठाने व रखने की प्रेरणा दी है। यहाँ तक कि जूते भी ध्यान एवं बोधपूर्वक खोलने की सीख दी गई है। इससे सिद्ध होता है कि संबोधि साधना ध्यान के साथ जीवन की हर गतिविधि को ध्यानपूर्वक करने की प्रेरणा देती है जो कि व्यावहारिक जीवन के विकास के लिए बेहद उपयोगी है। डॉ. दयानंद भार्गव कहते हैं, "सच्ची साधना वही है जो हमारे दैनंदिनी जीवन को नैतिक और स्वच्छ बनाए।" संबोधि-साधना इस मायने में सही प्रक्रिया सिद्ध होती है। संबोधि - ध्यान की प्रयोगात्मक विधियाँ ध्यान चित्त की एकाग्रता है। संबोधि ध्यान के सारे प्रयोग चित्त की एकाग्रता साधने के साथ चित्त-शुद्धि एवं चित्त- मुक्ति से जुड़े हुए हैं। जैसे सूरज की रोशनी को आइने में लेकर कहीं प्रक्षेपित किया जाए तो आग पैदा हो जाती है, वैसे ही एकाग्र चित्त को भीतर में कहीं केन्द्रित किया जाए तो उस स्थान पर चमत्कारी अनुभव होने लगते हैं । संबोधि For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ध्यान चित्त को एकाग्र कर तन-मन-चेतना में चमत्कारी परिवर्तन करने का उपक्रम है। श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यान योग की प्राचीन व आधुनिक अनेकानेक विधियों को जाना और समझा है। स्वयं भी उनसे गुजरे हैं । उन्होंने अपने अनुभव 'संबोधि' पुस्तक में लिखे हैं। वे कहते हैं, “विधियों में जो फर्क है वह केवल प्राथमिक चरणों में है। ध्यान की गहराइयों में सभी फर्क मिट जाते हैं।" श्री चन्द्रप्रभ ने साधकों को ध्यान का अभ्यास हो जाने पर ध्यान की विधियों और क्रियाओं से मुक्त होने की सलाह दी है। यद्यपि श्री चन्द्रप्रभ ने संबोधि ध्यान के अंतर्गत अनेक ध्यान विधियों का सृजन किया है, जिनका आज लाखों लोग दैनिक जीवन में उपयोग कर रहे हैं, पर श्री चन्द्रप्रभ यह भी स्वीकार करते हैं, " ध्यान करने-कराने की चीज नहीं होती है. ध्यान तो स्वतः होता है और जिस दिन 'करने' से मुक्ति मिल जाएगी और 'होने' में प्रवेश हो जाएगा तभी साधना की सिद्धि हो जाएगी। तब आदमी का जीना, उठना-बैठना, सोना-जागना सब कुछ सुंदर हो जाएगा।" 44 " I संबोधि ध्यान किसी विधि का नाम नहीं, वरन् बोधपूर्वक ध्यान में उतरने का नाम ही संबोधि ध्यान है। आगे हम देखेंगे कि संबोधि ध्यान के अंतर्गत कई नए-नए प्रयोग हुए हैं और कई-कई विधियों को महत्त्व मिला है। वर्तमान में जहाँ ध्यान परम्पराओं द्वारा विधियों के प्रति आग्रह- दुराग्रह रखा जाता है वहाँ श्री चन्द्रप्रभ की यह दृष्टि बेहद उपयोगी है, "मेरा न तो किसी विधि के प्रति आग्रह है न ही किसी पंथ और न ही किसी ग्रंथ के प्रति दुनिया में अच्छे लोगों की अच्छे मार्गों की कमी नहीं है, जो भी हमें जीवन के लिए सार्थक लगे उसे बिना किसी आग्रह दुराग्रह के स्वीकार कर लेना चाहिए। अच्छी बात तो दुश्मन की भी क्यों न हो, ग्रहण करने योग्य होती है।" ध्यान से पूर्व व्यक्ति को किन बातों का ध्यान रखना चाहिए यह महत्त्वपूर्ण बात है। जैसे नींव मजबूत हो तो मकान सुरक्षित रहता है वैसे ही संबोधि ध्यान साधना से पूर्व श्री चन्द्रप्रभ ने 'सफल होना हो तो ' एवं 'साधना के सुझाव' नामक पुस्तकों में निम्न बातों का ध्यान रखने की प्रेरणा दी है 1. संबोधि साधना ध्यान योग की व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि है। अपने प्रत्येक कार्य को, यहाँ तक कि अपनी श्वास को भी होश और बोधपूर्वक संपादित करना संबोधि साधना की मूल दृष्टि है। 2. संबोधि साधना के प्रभावी परिणामों को पाने के लिए संबोधि ध्यान की नियमित बैठक अनिवार्य है। समय, स्थान और प्रयोग नियत व नियमित हाँ तो और श्रेष्ठ है। 3. संबोधि ध्यान साधना के पूर्व योगासन व प्राणायाम करना सहज लाभप्रद है। इससे सम्पूर्ण शरीर और नाड़ी तंत्र जाग्रत और स्फूर्त होता है। ये हमारे चित्त को और अधिक सुखद बनाने में सहयोगी बनते हैं । 4. ध्यान में पूर्व या उत्तर दिशा का चयन करना उपयोगी है, हाथों को गोद में या ज्ञान मुद्रा में रखें, सहज सीधी कमर बैठें, लेकिन अकड़कर नहीं। 5. शांत, स्वच्छ और एकांत स्थान में ध्यान करें। ध्यान के लिए सूर्योदय, सूर्यास्त का समय सर्वश्रेष्ठ है। महिलाएँ दोपहर में भी ध्यान कर सकती हैं। 6. शुरुआत में ध्यान की बीस से तीस मिनट की बैठक हो। अति तनाव या अति थकान में ध्यान की बजाय कायोत्सर्ग (रिलेक्सेशन) करना श्रेष्ठ है। 7. शांत गति की गहरी लंबी श्वासों के साथ ध्यान में प्रवेश करें। 8. ताजा, हल्का और पोषक भोजन साधना व स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोगी रहता है। 9. सहजता, सकारात्मकता, सजगता व निर्लिप्तता साधना के मूल मंत्र हैं । 10. हर ध्यान - विधि को सवा माह तक लगातार करें। हर छह माह में सात दिन का शांत - एकांतवास अवश्य करें। संबोधि साधना मार्ग में जिन ध्यान विधियों के प्रयोग करवाए जाते हैं उनमें मंत्र ध्यान, साक्षी ध्यान, चैतन्य ध्यान, मुक्ति ध्यान और संबोधि ध्यान मुख्य हैं। मंत्र ध्यान विधि का मार्गदर्शन 'स्वयं से साक्षाकार' नामक पुस्तक में साक्षी ध्यान विधि 'ऐसे जिएँ' पुस्तक में चैतन्य ध्यान विधि' संबोधि साधना का रहस्य' पुस्तक में मुक्ति ध्यान विधि 'साधना के सुझाव' पुस्तक में से दी गई है। 7 2 मंत्र- ध्यान विधि के पाँच चरण हैं। पहले चरण में सात बार ओम् का उद्घोष व सात बार अनुगूँज करते हैं। दूसरे चरण में ओम् का ह जाप होता है। तीसरे चरण में ओम व श्वास की अंतर्यात्रा, चौथे चरण में तेज श्वासों के साथ ओम का अंतर-मंथन व अंतिम चरण ज्योति-दर्शन में ललाट के तिलक प्रदेश पर ओम् का स्वरूप स्थापित करते हुए उसके ध्यान में निमग्न होना होता है। : : साक्षी ध्यान विधि के चार चरण हैं। पहला चरण श्वास दर्शन एका बोध है। जिसमें क्रमश: 50-50 दीर्घ श्वास, मंद श्वास व सहज श्वास का अनुभव करना होता है। दूसरा चरण 'देह दर्शन संवेदना बोध' है। इसमें कंठ से पाँवों की ओर फिर पाँवों से मस्तिष्क की ओर हर अंग में होने वाली संवेदनाओं पर एकाग्र होते हैं। तीसरा चरण 'चित्त दर्शन : संस्कार बोध' है। इसमें चित्त की स्थिति का निरीक्षण होता है। अंतिम चरण 'शून्य दर्शन : आत्म-बोध' है। इसमें देहभाव-मनोभाव से ऊपर उठकर स्वभाव में स्थित होना होता है । : चैतन्य ध्यान विधि के भी चार चरण हैं। पहला है उदघोष अर्थात् ओम का नौ बार उच्चारण। दूसरा चरण है : मंत्र-साधना अर्थात् गहरी श्वासों के ‘ओम् नमः' मंत्र का 108 बार स्मरण । तीसरा चरण है शक्ति जागरण अर्थात् रीढ़ के ऊपरी छोर से निचले छोर तक साँस अर्थात् ऊर्जा के सूक्ष्म प्रवाह का अनुभव करना और क्रमशः मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञाचक्र और सहस्रार प्रदेश पर पाँच-पाँच मिनट एकाग्र होना चौथा चरण है: सहज विश्राम अर्थात् समाधिस्थ दशा में डूबे रहना और अंत में तीन बार ओम् का उद्घोष कर प्रार्थना या भजन गुनगुनाना व बैठक पूरी करना। मुक्ति ध्यान विधि के पाँच चरण हैं। पहला है: एकाग्र योग अर्थात् श्वास के प्रति साक्षी भाव दूसरा चरण है शांति योग अर्थात् वृत्तियोंविचारों के प्रति साक्षी भाव के साथ चित्त शांत... विचार शांत का आत्म सुझाव तीसरा चरण है आत्मयोग अर्थात् हृदय में एकाग्र होना चौथा चरण है: बोधि योग अर्थात् हृदय से ऊर्ध्व मस्तिष्क में एकाग्रता व अंतिम चरण है: परमात्म- योग अर्थात् ब्रह्माण्ड की परा - सत्ता में विलीन हो जाना। संबोधि ध्यान विधि के पाँच चरण हैं। पहला है : एकाग्र योग अर्थात् 21 बार ओम् का उद्घोष । दूसरा चरण है: ओंकार का जाप अर्थात् आती हुई श्वास के साथ' ओम्' और जाती हुई श्वास के साथ 'नमः' का 108 बार जाप करना व तत्पश्चात् लयबद्ध तेज गति की संबोधि टाइम्स 81 . For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वासों के साथ ओम् का अंतरमथन करना। तीसरा चरण है: स्वास्थ्य शांतिपूर्वक जीवनयापन करना। हमारी यह अज्ञानता है कि हम केवल योग अर्थात् नाभि पर 10 मिनट ध्यान करना। चौथा चरण है : धन-संपत्ति और सुविधा साधनों को ही सुख का मूल आधार समझते आनंदयोग अर्थात् हृदय में 10 मिनट एकाग्र होना। पाँचवा चरण है: हैं, पर वास्तव में ऐसा नहीं है। सम्पन्न व्यक्ति भी चिंतित, तनावग्रस्त ज्ञान योग अर्थात् दोनों भौहों के मध्य ललाट प्रदेश की ओर 10 मिनट और रुग्णचित्त हो जाता है। जिसके पास जितनी अधिक सम्पन्नता है ध्यान धरना व अंत में तीन बार ओम् का उद्घोष करते हुए साधना पूर्ण उसके पास समस्याएँ भी उतनी ही अधिक हैं। करना। श्री चन्द्रप्रभ 'ऐसे जिएँ' पुस्तक में सुख का रहस्य बताते हैं, श्री चन्द्रप्रभ ने तन-मन में शांति भाव एवं आनंददशा की "सुखी वह नहीं है जिसके पास मोटर-बंगला है, वरन् वह है जो चैन अभिवृद्धि करने के लिए 'शांति पाने का सरल रास्ता' पुस्तक में संक्षिप्त की नींद सोता है और स्वस्थ मानसिकता का मालिक है।" व्यक्ति का विधि भी प्रदान की है। कई बार ध्यान के दौरान मानसिक चंचलता, जीवन दु:खी इसलिए है, क्योंकि उसका चित्त रुग्ण एवं विक्षिप्त है। विचार, वृत्तियाँ,संकल्प-विकल्प और निंद्रा-तंद्रा ज्यादा हावी हो जाते जहाँ शांत चित्त और प्रसन्न हृदय जीवन को स्वर्गमय बनाते हैं, वहीं हैं। इस स्थिति पर नियंत्रण पाने के लिए श्री चन्द्रप्रभ ने ओम् के साथ अशांत चित्त और उदास मन जीवन में नरक निर्मित कर देते हैं। लगभग 10-20 गहरी साँस, फिर सहज श्वास की प्रक्रिया दोहराने की प्रेरणा आज नब्बे प्रतिशत लोग किसी न किसी तरह के दुःख, तनाव और रोग दी है। से घिरे हैं। उसका कारण बाहरी परिस्थिति कम, भीतरी मन:स्थिति श्री चन्द्रप्रभ द्वारा प्रदत्त संबोधि-साधना मार्ग के विश्लेषण से ज़्यादा है। इसलिए हमें बाहर से भीतर मुड़ना होगा तभी पूर्ण समाधान स्पष्ट होता है कि ये ध्यान-विधियाँ वर्तमान मानव-मन के अनुरूप हैं हमारे हाथ लग पाएगा। और उसकी हर आवश्यकता को पूरा करती हैं। आज का इंसान श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन है, "जीवन के वास्तविक रूपान्तरण के मानसिक शांति पाने के साथ बौद्धिक शक्तियों का जागरण भी करना लिए हमें स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ना होगा तभी हम जीवन की संपूर्ण चाहता है। जहाँ साक्षी ध्यान व मुक्ति ध्यान के प्रयोग व्यक्ति को चिकित्सा कर पाएँगे और सदाबहार सुख-शांति और मुक्ति लाभ के मानसिक शांति व आनन्द प्रदान करते हैं, वहीं मंत्र ध्यान व चैतन्य ध्यान स्वामी बन पाएँगे।" यद्यपि ध्यानयोग का मूल ध्येय अस्तित्व-बोध के प्रयोग व्यक्ति की सुप्त शक्तियों के जागरण में सहयोगी बनते हैं। ये और आध्यात्मिक विकास है, पर आम आदमी को इससे कुछ लेनाध्यान-विधियाँ न केवल भीतर की अच्छी-बुरी वृत्तियों से मुलाकात देना नहीं है। वह तो सुखी और निरोगी जीवन जीना चाहता है। आज करवाती हैं, वरन् बुरी वृत्तियों को पहचानकर उनका अच्छी वृत्तियों में मनोविज्ञान व चिकित्सा विज्ञान ने स्वीकार किया है कि कोई भी रोग रूपांतरित करने का मार्ग भी देती हैं। डॉ. दयानंद भार्गव ने कहा है, शारीरिक नहीं होता। हर रोग की शुरुआत मन से होती है और मन के "ध्यान की सफलता की दो कसौटियाँ हैं : पहली, हमारे राग-द्वेष क्षीण स्तर पर उसका समाधान न हो तो वह शारीरिक अंगों के, इन्द्रियों के हुए या नहीं? दूसरी, अपने कर्तव्यों के प्रति दायित्व-बोध बढ़ा है माध्यम से प्रकट होता है। इसलिए मनोग्रंथियाँ ही मनुष्य का रोग हैं। अथवा नहीं। इन कसौटियों पर खरा उतरने पर ही ध्यान समाज-शुद्धि रोग की तह में संवेगात्मक चित्त-वृत्तियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। का बहुत बड़ा साधन बन सकता है।" नि:संदेह संबोधि-साधना का संबोधि ध्यान-योग इन संवेगात्मक चित्त वृत्तियों के संयम का उपाय दिव्य मार्ग दोनों कसौटियों पर खरा उतरता है इसलिए इसका आचमन है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "ध्यान से व्यक्ति अपने शुद्ध स्वरूप और कर बेहतर विश्व का निर्माण किया जा सकता है। संबोधि साधना मार्ग उसे विकृत करने वाली चित्त वृत्तियों को जानने और धीरे-धीरे उनसे का व्यावहारिक मार्गदर्शन प्रतिवर्ष जोधपुर के कायलाना रोड स्थित मुक्त होने लगता है। इस तरह चित्त शुद्धि से रोग मुक्ति स्वत: फलित हो प्रसिद्ध साधना स्थली संबोधि-धाम में आयोजित होने वाले ध्यान-योग जाती है।" शिविरों में दिया जाता है, जिससे अब तक लाखों लोग अपने जीवन का वर्तमान युग की यह सबसे बड़ी खोज़ है कि हम अपनी कायाकल्प कर चुके हैं। मानसिकता को बदल सकते हैं। भीतर के तनाव, विकार और कषायों संबोधि-ध्यान और जीवन-निर्माण को काट कर उच्च मानसिक क्षमता, प्रज्ञा और चैतन्य की शक्ति को जागृत कर सकते हैं। श्री चन्द्रप्रभ का इस संदर्भ में कहना है, "इसके जीवन मूल्यवान है। यह अनंत संभावनाओं और सम्पदाओं का लिए व्यक्ति को अपने स्वयं के साथ कुछ निर्मल प्रयोग करने होंगे, उसे कोष है। जीवन-मूल्य के सामने किसी अन्य पदार्थ को नहीं रखा जा अपने भीतर वहाँ तक जाना होगा, जहाँ तनाव-विकार-अज्ञान और सकता। जीवन के संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन कहता है, "जीवन है कषाय की जड़ें पाँव फैलाए बैठी हैं। संबोधि ध्यान के प्रयोगों से वहाँ तो तुच्छ से तुच्छ वस्तु भी मूल्यवान है। जीवन नहीं तो मूल्यवान वस्तु तक पहुँचना संभव है। मनुष्य की मानसिक शांति, बौद्धिक भी अर्थहीन है, एक अकेले जीवन के समक्ष पृथ्वी भर की समस्त ऊर्जास्वितता और आध्यात्मिक स्वास्थ्य लाभ के लिए संबोधि ध्यान सम्पदाएँ तुच्छ और नगण्य हैं। न जन्म का मूल्य है, न मृत्यु का । जीवन एक बेहतरीन प्रयोग पद्धति है। तनाव-मुक्ति और जीवन-शुद्धि के की उदात्तता और महानता ही जन्म और मृत्यु को मूल्यवान बनाती है। लिए संबोधि ध्यान एक पूर्ण विज्ञान है।" श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यान-योग यदि व्यक्ति जीवन की हर गतिविधि और अभिव्यक्ति को मधुरता से पुस्तक में संबोधि ध्यान के अंतर्गत तनाव-मुक्ति व जीवन-शुद्धि के परिपूरित कर ले तो वह धरती पर ही स्वर्ग के गीत गुनगुना सकता है।" लिए दस मिनट का छोटा प्रयोग दिया है, जिसका प्रयोग कर हम नई जीवन सरल है, पर स्वयं व्यक्ति ने ही उसे जटिल बना दिया है। ताज़गी व आनंद की अनुभूति कर सकते हैं। वे कहते हैं, "व्यक्ति दस भागमभाग भरी जिंदगी ने व्यक्ति को अशांति और तनाव के दोराहे पर मिनट के लिए श्वास लेते समय यह बोध बनाए कि मैं अपने तन-मन लाकर खड़ा कर दिया है। हर व्यक्ति का एक ही लक्ष्य है : सुख को शांतिमय बना रहा हूँ। श्वास छोड़ते समय यह मानसिकता रखे कि 182 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं मुस्कुरा रहा हूँ। वर्तमान के हर क्षण का आनंद ले रहा हूँ....। हर क्षण विचार-विकल्पों की प्रेक्षा-अनुप्रेक्षा करे। तीसरे चरण में नाभि व नाभि को आनंदमय बना रहा हूँ .......। इस प्रयोग से हम थोड़ी देर में ही के नीचे पाँवों के अंगूठे तक प्रत्येक अंग पर ध्यान केन्द्रित करे, चौथे तनाव रहित प्रसन्न चित्त और शांति युक्त स्वभाव का अनुभव कर चरण में चेतना का ठेठ मस्तिष्क तक ऊर्ध्वारोहण करे। ध्यान की यह लेंगे।" प्रक्रिया हमारे तन-मन की सुप्त शक्तियों को सक्रिय करेगी।" ध्यान वास्तव में जीवन को ऊर्जावान, उत्साहयुक्त एवं आनंदपूर्ण जीवन विकास के लिए जहाँ एक ओर शारीरिक-मानसिक बनाने की कला है। ध्यान किसी स्वर्ग को पाने या नरक से बचने के ग्रंथियों से, आलस्य और प्रमाद से, अशांति और तनाव से छुटकारा लिए नहीं है, यह तो जीवन में पलने वाले नरक से बचने और स्वयं को पाना ज़रूरी है वहीं भीतर की मौलिक क्षमताओं को उजागर करना भी स्वर्ग बनाने के लिए है। यह सत्य है कि ध्यान निवृत्ति का मार्ग है, पर आवश्यक है। इसके लिए भी संबोधि ध्यान के प्रयोग उपयोगी सिद्ध इसके प्रयोगों से तन-मन निष्क्रिय होने की बजाय और अधिक सक्रिय हुए हैं। वह स्मरण शक्ति, ग्रहण शक्ति और विवेचन शक्ति भी देता है। व सशक्त होते हैं। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "जो ध्यान हमें जीवन से श्री चन्द्रप्रभ का मानना है, "जो नियमित रूप से आधा घंटा ध्यान का विमुख करे वह लोक-कल्याणकारी ध्यान नहीं हो सकता। ध्यान तो प्रयोग करता है वह दिनभर प्रसन्न और सौम्य रहता है, उसके जीवन में जीवन को आनंद व उल्लास से जीने की अन्तर्दृष्टि देता है इसलिए स्वत: ही धार्मिकता का उदय हो जाता है।" उन्होंने यह भी कहा है, ध्यान जीवन-निर्माण करने वाला सरल विज्ञान है।"प्रायः लोग ध्यान "जिनकी स्मरण शक्ति कमज़ोर है, बुद्धि मंद है, पढ़ने या काम करने को जटिल मानते हैं, पर ऐसा नहीं है। ध्यान यानी कुछ करना नहीं है, में मन नहीं लगता, वे ध्यान में मन लगाएँ, जीवन में स्वत: त्वरा और वरन् भीतर जो उमड़-घुमड़ चल रही है उसे शांतिपूर्वक देखना- प्रखरता आएगी।" ध्यान के भीतर भाग्य को बदलने की ताकत है या समझना है और स्वयं को उससे अलग करना है। बेहतर जीवन के नहीं? प्रश्न का समाधान ध्यान का विज्ञान' नामक पुस्तक में देते हुए बेहतर समाधान' पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ का यह ध्यान-दर्शन प्रतिपादित श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "ध्यान में भाग्य को भी पलटने की ताकत है, हुआ है, "ध्यान मनुष्य के अतीत को सँवारने का, वर्तमान को बनाने ध्यान से वास्तुदोष का निवारण होता है। ध्यान करने वाला व्यक्ति का और भविष्य को सुधारने का धरातल है। ध्यान का अर्थ है लगना। अपनी कार्यक्षमता और उत्पादन क्षमता को स्वत: ही बढ़ा हुआ महसूस अपने आप में लगना । अपनी शांति में विश्राम करना, यही ध्यान है। हम करता है। लोग ध्यान नहीं करते इसलिए वे आलसी और प्रमादी बने रह जीवन को जीवन के भाव से जीएँ, आनंदभाव से जीएँ, बस यही ध्यान जाते हैं।" जीवन की परा-शक्तियों का विकास भी ध्यान से संभव है। मनुष्य जीवन विकास के लिए कर्मयोग अपरिहार्य है। भगवान श्रीकृष्ण के शरीर में पाँच प्रकार के कोष अर्थात् चैतन्य केन्द्र हैं : अन्नमय कोष, ने भी गीता में निष्काम कर्मयोग की प्रेरणा दी है। सामान्य तौर पर ध्यान प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष और आनंदमय कोष। व्यक्ति को गुफावास की ओर ले जाता है, किन्तु श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यान अन्नमय कोष का स्थान नाभि है। योगासन से अन्नमय कोष स्वस्थ को जीवन और समाज से जोड़ा है। वे ध्यान को कर्मयोग से जोड़ते हैं। रहता है। हृदय से लेकर नासिका तक प्राणमय कोष होता है। प्राणायाम ध्यान की पहली प्रेरणा है हर कार्य को तन्मयतापूर्वक करें, ध्यानपूर्वक करने से यह कोष स्वस्थ और सचेतन होता है। शेष तीन कोष - भौंहों करें। जितनी आवश्यकता चेतना के ध्यान की है उतनी ही हर कार्य को के मध्य मनोमय कोष, ललाट के मध्य विज्ञानमय कोष और ऊर्ध्व ध्यानपूर्वक करने की है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "मैं अपने हर कार्य को, मस्तिष्क अर्थात् शिखा प्रदेश की ओर आनंदमय कोष है, जो कि ध्यान हर गतिविधि को ध्यानपूर्वक करता हूँ। मेरा यह करना कर्मयोग है और से अधिक स्वस्थ सक्रिय और सशक्त होते हैं। श्री चन्द्रप्रभ ध्यान और ध्यानपूर्वक करना साधना है।" व्यापार और समाज भी जीवन के पंचकोषों की स्वस्थता के संदर्भ में मार्गदर्शन देते हुए कहते हैं,"हम अनिवार्य पहलू हैं। जीवन को इनसे अलग समझना असंगत है। ध्यान जब भी ध्यान धरें तो पहले पाँच मिनट नाभि प्रदेश पर ध्यान केन्द्रित मनोयोगपूर्वक व्यापार करने व समाज में जीने की कला सिखाता है। श्री करें, नाभि पर ध्यान धरने से सम्पूर्ण शरीर में उसकी ऊर्जा का विस्तार चन्द्रप्रभ के ध्यान-दर्शन की सिखावन है,"ध्यान को जीने का मतलब होता है। दूसरा हृदय के मध्य क्षेत्र में, तीसरा दोनों भौंहों के मध्य एक यह नहीं है कि हम समाज में नहीं जाएँगे, सामाजिक गतिविधियों में इंच भीतर, चौथा ललाट के एक इंच भीतर और अंत में पाँच मिनट भाग नहीं लेंगे अथवा व्यवसाय या उत्पादन नहीं करेंगे। ध्यान तो ऊर्ध्व मस्तिष्क में ध्यान केन्द्रित करें। केवल पच्चीस मिनट का यह इसलिए है कि हम उत्पादन भी ध्यानपूर्वक करेंगे। ध्यानपूर्वक उत्पादन प्रयोग जहाँ तन को स्वस्थ और ऊर्जावान करेगा वहीं अंतर्मन को शांत, करने से हिंसा भी कम होगी और व्यक्ति उन लोगों के जीवन-मूल्यों शक्तिशाली और आनंदपूर्ण बनाएगा।" का भी ध्यान रखेगा जो उसकी उत्पादकता का उपयोग करेंगे।" श्री चन्द्रप्रभ ध्यान का विज्ञान' पुस्तक में मन की शांति के लिए जीवन विकास के लिए मानसिक एकाग्रता का विकास करना हृदय पर ध्यान को स्थिर करने, प्रेम और करुणा से जीवन के सरोवर को ज़रूरी है। जहाँ मन का बिखराव जीवन के विकास में बाधा है वहीं मन लबालब करने के लिए समग्र अस्तित्व के साथ एकाकार होने और का समीकरण जीवन के विकास का आधार है। मनुष्य का सामान्य मन चिर आनंद के लिए स्वयं के सच्चे स्वरूप में अंतरलीन होने की प्रेरणा तो क्रियाशील रहता ही है, किंतु असाधारण मन का स्वामी हुए बगैर देते हैं। जीवन विकास के लिए जहाँ हमें एक ओर ध्यान के प्रयोगों को मनुष्य असाधारण पुरुष नहीं हो सकता। इस हेतु को साधने में ध्यान जोड़ने की ज़रूरत है वहीं दूसरी ओर मन-वचन-काया की शुद्धि भी उपयोगी है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "जीवन की सक्रियता बढ़ाने के आवश्यक है। मन, वाणी और शरीर जीवन के अभिन्न अंग हैं। इन्हें लिए व्यक्ति संबोधि ध्यान के अंतर्गत पहले दस मिनट मनोदृष्टि को संस्कारित कर जीवन को विकास के नए आयाम दिए जा सकते हैं। नासिका पर केन्द्रित करे अर्थात् ध्यान का ध्रुवीकरण, फिर श्वासों की, जीवन-शुद्धि और ध्यान की पूर्व भूमिका के रूप में श्री चन्द्रप्रभ ने संबोधि टाइम्स > 83 For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘रूपान्तरण' पुस्तक में ध्यान के प्रयोगों के साथ जीवन में अपनाए जाने वाले नियमों व मन-वचन-कायागत दोषों की शुद्धि के कारकों का विस्तृत विश्लेषण किया है। श्री चन्द्रप्रभ ने औरों को पीड़ा पहुँचाना, मारपीट करना, व्यभिचार करना, किसी की चीज़ चुराना, अपवित्र रहना, व्यर्थ चेष्टाएँ करना शरीरगत दोषों के अंतर्गत रखे हैं। इन दोषों से बचने के लिए गुरुजन, ज्ञानीजन, माता-पिता और औरों की सेवा करना, सात्विक भोजन लेना, योगासन-प्राणायाम करना और परमार्थ भाव से जीवन जीने की प्रेरणाएँ दी हैं। उन्होंने झूठ बोलना, किसी की निंदा करना, चुगली करना, कड़वा बोलना, गाली-गलौच करना, हेकड़ी हाँकना, व्यर्थ बातें करने को वाणीगत दोष स्वीकार किए हैं और इनसे बचने के लिए उद्वेग रहित और हितकारी व प्रिय सत्य बोलने की प्रेरणा दी है। उन्होंने भेदभाव करना, निर्दयता के भाव रखना, चिंता व तनाव में जीना दूषित और अपवित्र बातें सोचना, मन के प्रवाह में बहना आदि मनोगत दोष माने हैं। इन दोषों से बचने के लिए श्री चन्द्रप्रभ ने सहजता से जीने, सदाबहार प्रसन्न व शांत रहने, सोच को सत्य - शिव व सौन्दर्यमय बनाने, कल्याणकारी विचारों व भावों को विकसित करने की प्रेरणा दी है। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन बताता है, “शारीरिक, वैचारिक और मानसिक पवित्रता के साथ ध्यान-योग को जीना आत्मिक पवित्रता, मानसिक शांति व क्षुद्रवृत्तियों के दुष्चक्र से मुक्ति पाने के लिए आधार सूत्र हैं।" कभी अतीत में महावीर और बुद्ध ने जहाँ जीवन-शुद्धि के लिए पंचव्रत और पंचशील को अपनाने की बात कही थी वहीं पतंजलि ने यम-नियम को जीवन में आत्मसात् करने की प्रेरणा दी थी। श्री चन्द्रप्रभ का दृष्टिकोण है, "अगर ध्यान को जीवन में आत्मसात करना है तो व्यक्ति शांत और निरपेक्ष जीवन का स्वामी बने।" जीवन - विकास व ध्यान सिद्धि के लिए चित्त का शांत होना और चेतना से जागृत होना जरूरी है। श्री चन्द्रप्रभ जीवन में मैत्री व करुणा भाव को विकसित करने के लिए 'ध्यान साधना और सिद्धि' पुस्तक में एक प्रयोग करने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं, " प्रात: और संध्या काल में ध्यान करने से पूर्व अपने जीवन में किए गए समस्त पापों के लिए अपनी अंतर्भ्रात्मा से क्षमा माँगें, हृदय से उन्हें बाहर उलीचकर निर्धार हो जाएँ और समस्त प्राणीमात्र के प्रति करुणा और मैत्री भाव का विकास होता हुआ देखें ।" श्री चन्द्रप्रभ के ध्यान और जीवन-निर्माण दर्शन के विश्लेषण से यह ज्ञात होता है कि उनका ध्यान दर्शन जीवन सापेक्ष है। उन्होंने जीवन के समग्र विकास के लिए ध्यान को आवश्यक माना है। अगर व्यक्ति कर्मयोग के साथ ध्यान योग को अपनाए तो वह जीवन के हर पल को आनंद और उत्साहपूर्ण बना सकता है। श्री चन्द्रप्रभ का ध्यान दर्शन आम इंसान को ध्यान के करीब लाने में सफल हुआ है। उन्होंने ध्यान की दुरूहता समाप्त कर उसे जो जीवन के लिए उपयोगी व सरल बनाया है उसके लिए अध्यात्म उनका ऋणी रहेगा। संबोधि - ध्यान और प्रेम ध्यान और प्रेम एक-दूसरे के पूरक हैं। ध्यान प्रेम का आध्यात्मिक रूप है तो प्रेम ध्यान का व्यावहारिक रूप है। ध्यान प्रेम को आध्यात्मिकता प्रदान करता है और प्रेम ध्यान को व्यावहारिकता देता है। श्री चन्द्रप्रभ ध्यान के साथ प्रेम के भी पक्षधर हैं। उन्होंने ध्यान के 84 > संबोधि टाइम्स साथ प्रेम मार्ग की महत्ता प्रतिपादित की है। उनका प्रेम ध्यान की आभा लिए हुए है । वे कल्याण के दो मार्ग बताते हैं : पहला है प्रेम और दूसरा है ध्यान ध्यान और प्रेम के संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन है, "प्रेम धर्म का सार है और ध्यान अध्यात्म का । ध्यान अपने लिए है और प्रेम औरों के लिए। जिस प्रेम का उदय ध्यान के धरातल से हुआ, उसका कोई मुकाबला नहीं। वह निर्मल प्रेम है, पवित्र प्रेम है, विराट प्रेम है।" प्रेम को विराटता प्रदान करने के लिए उन्होंने ध्यान की पूर्णता के समय अपने हाथों को ऊपर उठाकर समूचे विश्व के प्रति मंगल मैत्री लाने, सारे संसार के दुःखों को अपने हृदय में लेने व हृदय की सारी मंगलकामनाएँ, सारी करुणा और प्रेम इस संसार में बिखेरने की प्रेरणा दी है। उनका मानना है, "इससे बड़ा करिश्मा होगा। हृदय में आते ही वे दुःख सुख में बदल जाएँगे और सुख के रूप में हमारे हृदय से लौटेंगे। संसार के प्रति हमारी ओर से यह महान करुणा होगी, महान मंगलदायी ध्यान होगा।" स्वार्थ और विकार शुद्ध प्रेम के बाधक तत्त्व हैं। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन कहता है, "प्रेम अगर विकृत हो जाए तो वह व्यक्ति के लिए वासना बन जाता है और वही प्रेम संस्कारित हो जाए तो भक्ति और श्रद्धा बन जाता है।" ध्यान का मूल मंत्र है- काम को एकाग्रता से पूरा करना और भक्ति का मूल मंत्र है- काम को तन्मयता से पूरा करना । ध्यान और भक्ति के अंतसंबंध को उजागर करते हुए श्री चन्द्रप्रभ ने लिखा है, "ध्यान से जहाँ भक्ति का जन्म होता है, वहीं भक्ति से ध्यान की सिद्धि होती है। भक्ति हृदय की भावना है, जबकि ध्यान भावना का गहराई से स्पर्श है।" आम तौर पर महावीर और मीरा के मार्ग को अलग-अलग माना जाता है। महावीर ध्यानमार्गी हैं तो मीरा प्रेममार्गी । महावीर ने ध्यान से स्वयं को उपलब्ध किया और मीरा ने प्रेम से प्रभु को पाया, पर श्री चन्द्रप्रभ दोनों मार्गों के प्रति समन्वयात्मक दृष्टिकोण रखते हैं। वे दोनों को परस्पर सहयोगी प्रतिपादित करते हुए कहते हैं, "ध्यान हम इसलिए करें ताकि हम यह पहचान सकें कि हमारे अंतरमन की कैसी दशा है, भीतर कैसी अराजकता है, चित्त में पर्त-दर-पर्त किस तरह का नरक जमा है । चित्त की पहचान के लिए ध्यान है। जब तक हम भीतर की अराजकता को नहीं पहचानेंगे, तब तक अपने पापों को परमात्मा के चरणों में समर्पित कैसे कर सकेंगे? ध्यान स्वयं से प्रेम है और भक्ति परमात्मा से प्रेम । जो स्वयं से प्रेम न कर पाया वह परमात्मा से कैसे प्रेम कर पाएगा? ध्यान हमें भीतर से अलग करता है और भक्ति हमें हृदय में लीन करती है। इसलिए दोनों मिलकर ही प्रियतम का परम पद का प्रकाश उपलब्ध करवाते हैं।' " इससे स्पष्ट होता है कि चन्द्रप्रभ का दर्शन ध्यान और प्रेम का समन्वय करता है। वे प्रेम की झील में ध्यान के फूल खिलाते हैं। उनकी दृष्टि में, "प्रेम के साथ ध्यान और ध्यान के साथ प्रेम से बढ़कर कोई मार्ग नहीं है, स्वर्ग का सेतु नहीं है, मुक्ति की मंज़िल का प्रस्थान बिन्दु यहीं से प्रारंभ होता है।" संबोधि - ध्यान और धर्म धर्म का स्वरूप अत्यन्त विराट है। धर्म कोई पंथ या सम्प्रदाय नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला है । जीवन को अधिक नैतिक और मानवीय मूल्यों के साथ कैसे जिया जाए? धर्म इस संदर्भ में हमारा मार्गदर्शन करता है। ध्यान धर्म का प्रायोगिक रूप है। ध्यानरहित धर्म For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवल क्रियाकांड बन जाता है, पर धर्म के साथ यदि ध्यान जुड़ जाए तो वह धर्म का आध्यात्मिक स्वरूप बन जाता है। श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यान पर इतना ज़ोर दिया है कि उनकी दृष्टि में धर्म महज उपदेश न रहकर जीवन का आध्यात्मिक प्रयोग और पथ बन गया है। वे धर्म का सम्बन्ध चित्त-शुद्धि से लगाते हैं। उनका दर्शन कहता है, "विकार - विजय ही धर्म है और स्वयं का स्वभाव-परिवर्तन ही धर्म की दीक्षा है।" आज व्यक्ति के सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि वह अपने स्वभाव को कैसे बदले ? भीतर के काम-क्रोध, वैर विरोध, द्वेष दौर्मनस्य से कैसे मुक्त हो? व्रत नियम, पूजा-पाठ धार्मिक उन्नति में सहयोगी हैं, पर भीतर में उतरे बिना अंतर-शुद्धि संभव नहीं है। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन इस संदर्भ में कहता है, "व्यक्ति अगर ध्यान की शरण में आ जाए तो वह शांत मन, निर्मल चित्त, सुकोमल हृदय और प्रखर बुद्धि का संवाहक बन सकता है।" ध्यान का उद्देश्य है व्यक्ति को होश एवं बोधपूर्वक जीवन जीने की कला प्रदान करना और धर्म का उद्देश्य है : व्यक्ति को अहिंसा-सत्यमय नैतिक जीवन जीने का रास्ता प्रदान करना। जो ध्यानपूर्वक जीवन की हर गतिविधि सम्पादित करेगा वही धार्मिक मूल्यों का सही तरीके से पालन कर पाएगा। प्रवचन सार कहता है, "जीव मरे अथवा जिए, प्रमादी को हिंसा निश्चित है किंतु जो समितिवाला (सावधानीपूर्वक जीने वाला) है उसे प्राणी की हिंसा होने मात्र से कर्मबंध नहीं है।" इससे स्पष्ट होता है कि अहिंसा आदि धर्मों का संबंध जीव को मारने या न मारने से कम प्रमाद- अप्रमाद से ज़्यादा है। ध्यान का आधार है : अप्रमाद । ध्यानी व्यक्ति अप्रमाद में, जागरूकता में जीता है इसलिए ध्यानी स्वयमेव धार्मिक हो होता है। जब तक व्यक्ति ध्यान को जानेगा नहीं, समझेगा नहीं, तब तक वह धर्म की मूल आत्मा को जी नहीं पाएगा। धर्म जीवन की आभा तभी बन पाएगा जब उसके साथ ध्यान की आभा जुड़ी हुई रहेगी। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन कहता है, "जब तक मनुष्य ने ध्यान को जाना और जीया नहीं, तब तक उसके जीवन में अहिंसा, सत्य और अचौर्य पैदा नहीं होंगे।" आज इंसान ने क्रियाकांडमूलक धर्म अपना लिया है। धर्म-कर्म सब ऊपर-ऊपर चलते हैं। व्यक्ति की चेतन में कहीं कोई रूपान्तरण नहीं हो पाता । व्यक्ति धर्म को जिए, पर उसके साथ ध्यान को भी जोडे। श्री चन्द्रप्रभ धर्मक्रिया के साथ ध्यान क्रिया को अपनाने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं, “सामायिक करना सौभाग्य की बात है, पर सामायिक के बाद व्यक्ति पन्द्रह मिनट ही सही स्वयं में उतरे, व्यक्ति प्रेम से मंदिर जाए, मगर कुछ देर ही सही, उस परम तत्त्व ध्यान अवश्य करे तभी उसका मंदिर जाना सार्थक होगा। महावीर या बुद्ध का भक्त होना यह किताबों का अनुसरण हुआ, पर ध्यान मार्ग पर चलकर स्वयं महावीर-बुद्ध हो जाना जीवन में धर्म का सर्वोदय हुआ। " श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म के प्रदर्शन और राजनीतिकरण को अनुचित ठहराया है। उन्होंने तप और व्रत को कायक्लेश तक सीमित कर देने की बजाय उसे मनोशुद्धि के साथ जोड़ने की प्रेरणा दी है। उनकी दृष्टि है, "राग, द्वेष, मोह विकार के काँटे तो मन में हैं अंतस् अगर बदल जाए तो आचरण अपने आप बदल जाएगा और इस अंतस् परिवर्तन के लिए ध्यान का मार्ग अपेक्षित है। चाहे विपश्यना हो या सक्रिय ध्यान, चाहे संबोधि ध्यान हो या प्रेक्षाध्यान, अब धर्म की नई शुरुआत हो।" ध्यान और धर्म से जुड़े श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन का विश्लेषण करने से स्पष्ट होता है कि वे ध्यान की आभा लिये हुए धर्म को अपनाने के पक्षधर हैं। उनके ध्यान दर्शन में धर्म का विराट एवं आध्यात्मिक स्वरूप प्रतिपादित हुआ है। व्यक्ति अगर क्रियाकांडमूलक धर्म अपनाने की बजाय प्रायोगिक धर्म अपनाए तो श्री चन्द्रप्रभ की दृष्टि में जीवन का कायाकल्प हो सकता है। श्री चन्द्रप्रभ का ध्यान दर्शन धर्म को पंथ-परम्पराओं से मुक्त करता है जो सामाजिक एकता की दृष्टि से उपादेय है। उन्होंने धार्मिक अनुसरण की बजाय वैज्ञानिक अनुसंधान की तरह आगे बढ़ने की प्रेरणा देकर मनुष्यता के विकास का मार्ग सुझाया है। भौतिकता की ओर बढ़ रही दुनिया को भीतरी रूपांतरण की ओर सावचेत कर श्री चन्द्रप्रभ ने जो बेहतर वर्तमान की नींव रखी है उसके लिए आने वाला कल उनका ऋणी रहेगा। संबोधि ध्यान और मंत्र-विज्ञान - मंत्र-विज्ञान में प्रवेश से पूर्व शब्द-विज्ञान पर एक दृष्टि डालते हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि सृष्टि के जन्म के समय पहले विद्युत पैदा हुई जबकि भारतीय मनीषी कहते हैं कि सबसे पहले ध्वनि निर्मित हुई, पर दोनों ही एकमत से स्वीकारते हैं कि विद्युत और ध्वनि दोनों ही ऊर्जा के रूप हैं। श्री चन्द्रप्रभ 'स्वयं से साक्षात्कार' पुस्तक में स्वदृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं, "न तो सबसे पहले ध्वनि पैदा हुई और न पहले विद्युत पैदा हुई, सबसे पहले घर्षण हुआ। जब दो पत्थर आपस में टकराते हैं तो ध्वनि भी पैदा होती है और बिजली भी । घर्षण से मात्र ध्वनि ही नहीं, विद्युत भी पैदा होती है। " श्री चन्द्रप्रभ ने हिमालय यात्रा के दौरान वहाँ रहने वाले संतों की जीवनशैली को जाना, उनसे तत्त्व- चर्चाएँ भी कीं। 'स्वयं से साक्षात्कार' पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने इस संदर्भ में लिखा है कि "हिमालय में रहने वाले संत बाबा ध्वनि-विज्ञान से परिचित हैं। वे वहाँ भयंकर बफीलीं सदी में भी नग्न रह लेते हैं। वे ध्वनि से उच्चताप पैदा करने की प्रक्रिया जानते हैं। जब श्वासोच्छ्वास के साथ ध्वनि का गहनतम मंथन होता है तो सर्दी में भी शरीर से पसीना आ जाता है। " यह ध्वनि या शब्द- विशेष ही पारम्परिक भाषा में मंत्र कहा जाता है। भारतीय शास्त्रों में विशेषकर वेदों में मंत्र-विज्ञान विस्तृत रूप से वर्णित है। मंत्र शब्द का अर्थ है : जो हमारे मन का त्राण करे, उसका उद्धार करे, उसे मंत्र कहते हैं। मंत्र चैतन्य स्वरूप होते हैं। मंत्रयोग पूर्णतया वैज्ञानिक और तर्क पर आधारित है। यह ध्वनि-विज्ञान से संबंधित है। प्रत्येक अक्षर एक ध्वनि उत्पन्न करता है, जो कम्पन अथवा स्पन्दन का ही रूप है। इन अक्षरों को मिलाकर ही मंत्रों का निर्माण होता है। इसे मनीषियों ने शब्द ब्रह्म कहा है। यह चैतन्यमय स्पन्दन अथवा कंपन ही इस स्थूल सृष्टि का निर्माता है। इसीलिए मंत्रों को मंत्र - शास्त्रों में सृष्टि का मूल तथा चैतन्यमय परमपिता परमात्मा का वाचक माना जाता है। मंत्रों की साधना अगर विधिपूर्वक की जाए तो उनसे चमत्कारी परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। हर धर्म-परम्परा में मंत्रों के महत्व को स्वीकार किया गया है। जैन धर्म में नवकार महामंत्र, हिन्दू धर्म में गायत्री मंत्र, बौद्ध धर्म में बुद्ध शरणं गच्छामि, मुस्लिम धर्म में अल्लाह हो अकबर, सिख धर्म में एक ओंकार सत् नाम का मुख्य स्थान है। पतंजलि ने योगसूत्र में 'तस्य वाचकः प्रणवः' कहकर प्रणव अर्थात् ओम् को ईश्वर का वाचक बताया है। शास्त्रों में ओम् को सृष्टि का जनक, प्रथम स्वर व सभी मंत्रों का सृजनकर्ता माना गया है। श्री चन्द्रप्रभ ने ओम् को अखण्ड माना है, संबोधि टाइम्स 85 For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर भी भाषाशास्त्र की दृष्टि से ओम् की व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा है, "ओम् अ, ऊ, म् से मिलकर बना है। जो क्रमशः अनंतता, ऊर्जा और महानता का परिचायक है, इसमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश समाए हुए हैं। ओम् का 'अ' जहाँ जैनों के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का, मुसलमानों के अल्लाह का सूचक है; वहीं ओम् का 'म' अंतिम तीर्थंकर महावीर और अंतिम पैगम्बर मोहम्मद साहब का द्योतक है; एक ओम् का जप करने से सभी तीर्थंकरों, अवतारों और पैगम्बरों की वंदना एक साथ हो जाती है।" श्री चन्द्रप्रभ की ओम से जुड़ी यह विराट दृष्टि सभी धर्मों की विभेदता को दूर करती है। ध्यान-साधना में भी मंत्रों का विशेष महत्व है। सभी ध्यान - परम्पराओं में मंत्रों की साधना को स्वीकार किया गया है। वर्तमान में ध्यान की भूमिका के रूप में ओम्, सोऽहम्, कोऽम्, अर्हम् जैसे कई मंत्रों का उपयोग करवाया जाता है। संबोधि साधना मार्ग में मंत्र-साधना को विशेष महत्व दिया गया है। एक ध्यान विधि तो पूरी तरह मंत्र से जुड़ी हुई है जिसमें 'ओम्' का श्वास निःश्वास के साथ विशेष विधि से जाप व ध्यान करवाया जाता है। मंत्र ध्यान में कुछ बातों का विशेष रूप से ध्यान देना आवश्यक है। इस संदर्भ में चन्द्रप्रभ का दृष्टिकोण है, " मंत्र - साधना में शरीर शुद्धि, मुख-शुद्धि, उच्चारण-शुद्धि, स्थानशुद्धि और हृदय-शुद्धि ये पंच शुद्धियाँ अनिवार्य हैं। शरीर शुद्धि के लिए स्नान करें, मुख-शुद्धि के लिए दुर्व्यसनों का त्याग करे, ज्ञानी गुरु से उच्चारण शुद्ध करें, स्वच्छ और शांत स्थान में बैठें, आसन पर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुँह करके बैठें, शुद्ध हृदय और पवित्र भावना के साथ मंत्र का जाप करें। " 2 संबोधि-साधना के अंतर्गत मंत्र- ध्यान के संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, " ओम् ध्यान की मौलिक ध्वनि है, ओम् का ध्यान हम चार चरणों में पूरा कर सकते हैं। पहला चरण पाठ दूसरा चरण जाप, तीसरा चरण अजपा और चौथा चरण अनाहद है। उन्होंने मंत्र- ध्यान के निम्न परिणामों का उल्लेख मुख्य रूप से किया है अनिष्ट निवारण, सद्गुणों का विकास, समृद्धि की प्राप्ति, दैवीय कृपा, शत्रु-रक्षा, पारिवारिक सुख, ग्रह-शांति, सद्गति और ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति ।" संबोधि मंत्र साधना से जुड़ी विधि की सरल व्याख्या 'आध्यात्मिक विकास' तथा 'मनुष्य का कायाकल्प' पुस्तकों में की गयी है। निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि आम व्यक्ति के लिए मंत्रसाधना सरल एवं उपयोगी है। मन्त्र के माध्यम से मन जल्दी एकाग्र हो जाता है। संबोधि-साधना में निर्दिष्ट ओंकार मंत्र साधना एक विशेष विधि युक्त प्रयोग है जो शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य प्राप्ति के साथ आध्यात्मिक शक्तियों के जागरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मंत्र साधना के परिणामों को पाने के लिए पंच-शुद्धि का ध्यान रखना हर व्यक्ति के लिए आवश्यक है। संबोधि - ध्यान और चित्त शुद्धि कुछ दार्शनिक मन और चित्त को एक मानते हैं। महावीर ने मन व चित्त को अलग-अलग माना है। सांख्य दर्शन में 25 तत्त्वों को जगत का आधार माना गया है। जिसमें मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय माना गया है। गीता में चित्त और मन को सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत रखा गया है। चित्त की तीन अवस्थाएँ हैं स्वप्न, सुषुप्ति और तूर्यावस्था ध्यान का उद्देश्य तूर्यावस्था अर्थात् समाधि को उपलब्ध करना है। पतंजलि ने चित्त : 86 संबोधि टाइम्स वृत्तियों के निरोध को योग कहा है। अगर मन व चित्त की तुलना मनोविज्ञान के चेतन मन, अवचेतन मन और अचेतन मन से की जाए तो दोनों को सरलता से समझा जा सकता है। मनोविज्ञान की दृष्टि में अचेतन मन हमेशा सोया रहता है, कभी-कभी प्रकट होता है। अवचेतन मन निमित्त मिलते ही प्रकट हो जाता है और चेतन मन विचार - विकल्प के रूप में हमेशा अनुभव में आता है। इस तरह चित्त को अचेतन मन के अंतर्गत रखा जा सकता है। श्री चन्द्रप्रभ चित्त व मन की व्याख्या करते हुए कहते हैं, "चित्त व्यक्ति का सोया हुआ मन है और मन व्यक्ति का जागा हुआ चित्त है। चित्त का संबंध अतीत के साथ होता है और मन का संबंध भविष्य के साथ । " प्रायः हमारा मन अतीत व भविष्य के ध्यान अथवा अंतर्द्वन्द्व में उलझा रहता है। भगवान महावीर ने इस स्थिति को आर्त ध्यान की संज्ञा देकर इसे अशुभ ध्यान कहा है। इस अशुभ ध्यान की वजह से मानसिक शांति, एकाग्रता और आनंददशा खंडित हो जाती है। ऐसी स्थिति में चित्त की शुद्धि करना अनिवार्य है जो कि ध्यान के प्रयोगों से संभव है। इस हेतु हमें ध्यान में चित्त शुद्धि के लक्ष्य को प्रमुखता देनी होगी। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन है, "यदि हम केवल ध्यान के प्रति ही सजग रहे, चित्त-शुद्धि के प्रति सजग न हुए तो हमारा व्यवहार कभी शुद्ध-सौम्य नहीं हो पाएगा।" इस तरह अशुद्ध चित्त से हुई ध्यान की सिद्धि स्व-पर दोनों के लिए अहितकारी होती है। दुर्वाषा ऋषि और रावण इसके प्रसिद्ध उदाहरण हैं। संबोधि- साधना मार्ग में जहाँ चित्त शुद्धि को अनिवार्य माना गया है, वहीं विचार वृत्तियों का दमन न करने की प्रेरणा दी गई है। श्री चन्द्रप्रभ का दृष्टिकोण है, "शरीर अथवा मन की किसी भी वृत्ति को दबाना या दमन करना अहितकर है। हमें क्रिया-प्रतिक्रिया को रोकने की बजाय साक्षी भाव से द्रष्टा बनकर उन्हें देखना चाहिए। द्रष्टा ज्ञाता होते ही व्यक्ति क्रिया-प्रतिक्रिया से मुक्त होने लगता है।" संबोधि मार्ग में द्रष्टा भाव को ध्यान की आत्मा माना गया है। द्रष्टा भाव को विकसित करने के लिए श्री चन्द्रप्रभ ने संबोधि साधना के अंतर्गत साक्षी ध्यान करने की प्रेरणा दी है। 'ऐसे जिएँ' पुस्तक में इसका विश्लेषण करते हुए कहा गया है, "साक्षी ध्यान जहाँ हमें शरीर की संवेदनाओं, उसके गुणधर्मों, चित्त की वृत्ति-संस्कारों से शनै: शनै: उपरत करता चला जाता है, वहीं शरीर में समाहित सूक्ष्म-विशिष्ट शक्ति का जागरण और ऊर्ध्वारोहण करता है, व्यक्ति के आंतरिक विशिष्ट केन्द्रों को सक्रिय करता है जो हमारे तन, मन और बुद्धि को हमारे अनुकूल, स्वस्थ और स्वस्तिकर बनाते हैं।" श्री चन्द्रप्रभ ने भगवान बुद्ध द्वारा वर्णित मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा भावनाओं को भी जीवन से जोड़ने की सीख दी है। उन्होंने चित्त शुद्धि के व्यावहारिक उपायों में सर्वप्रथम चित्त अशुद्ध करने वाले कारकों से बचने की सलाह दी है, जिसमें काम व कामनाओं को बढ़ाने वाले टी. वी., फिल्म, पत्र-पत्रिकाएँ और विज्ञापनों के दृश्य मुख्य हैं। इसके साथ श्री चन्द्रप्रभ ने चित्त-शुद्धि हेतु निम्न प्रेरणा सूत्र प्रदान किए हैं 1. वासना के परिणामों पर चिंतन करें। 2. प्राणायाम युक्त ध्यान के प्रयोग करें। 3. स्वपति-स्वपत्नी संतोष व्रत जैसे नैतिक मूल्यों को महत्त्व दें। 4. सात्विक आहार लें। For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. अच्छी पुस्तकें पढ़ें। 6. स्वयं को सदा व्यस्त रखें व हर समय प्रसन्न रहें । 7. अतीत अथवा भविष्य में खोए रहने की बजाय वर्तमान में जीएँ । 8. विषय वासनाओं से युक्त चिंतन से बचें। 9. इच्छा पूर्ति की बजाय आवश्यकता पूर्ति में विश्वास रखें। 10. सबके प्रति मांगल्य-भाव लाएँ । इस प्रकार कहा जा सकता है कि सुखी जीवन के लिए चित्त शुद्धि होना ज़रूरी है चित्त में वृत्तियों व संस्कारों का प्रगाढ़ घनत्व होता है। जिसे एकदम काटा नहीं जा सकता, फिर भी ध्यानयोग के मार्ग के साथ श्री चन्द्रप्रभ द्वारा प्रदत्त छोटे-छोटे सूत्रों को अपनाकर चित्त-शुद्धि के करीब पहुँचा जा सकता है जो कि योग का मुख्य उद्देश्य है। चित्त शुद्धि ध्यान की प्रथम आवश्यकता और महत्त्वपूर्ण परिणति है। संबोधि- ध्यान और हृदय-विज्ञान श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में अंतर- हृदय को संसार के पवित्रतम तीर्थं की उपमा दी गई है। प्रायः व्यक्ति मन एवं बुद्धि में जीता है। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन है, "मन में जीना तनाव को जन्म देना है और बुद्धि में जीना पांडित्य में वृद्धि करना है, पर जीवन को उत्सवपूर्ण एवं आनंदपूर्ण बनाने के लिए हमें हृदय से जीना होगा।" श्री चन्द्रप्रभ की दृष्टि में मौलिक व्यक्तित्व का स्वामी बनने के लिए हमें हृदय-विज्ञान को समझना आवश्यक है। उन्होंने व्यक्तित्व को महज चिंतक बनाने की बजाय हृदयवान बनाने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, " व्यक्ति के लिए मनीषी व चिंतक होना पहला चरण है, हृदयवान होना दूसरा और आत्मवान होना तीसरा चरण है। जीवन को गहराइयों तक जाकर जीना है तो हृदय विज्ञान को आत्मसात् करके ही व्यक्ति सही अर्थों में मौलिक व्यक्तित्व का स्वामी बन सकता है।" मनोविज्ञान पश्चिमी चिंतन की देन है। वर्तमान में मनोविज्ञान का विस्तार भी तेजी से हो रहा है । आज व्यक्ति मनोविज्ञान को जानने के लिए उत्सुक भी है। वर्तमान पर गौर करें तो मन से जुड़े तनाव मनुष्य के लिए बहुत बड़ी समस्या बन गये हैं। मनो-मस्तिष्क से जुड़े रोगों में निरंतर वृद्धि हो रही है। इससे जुड़ी दवाइयाँ भी व्यक्ति को स्वस्थ करने की बजाय मूर्च्छा देती हैं। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में मन की समस्याओं के समाधान हेतु हृदय से जुड़ने की सलाह दी गई है। इस संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, ' " मन के रोगों का समाधान मन में नहीं हृदय में है। हृदय स्वास्थ्य का, चेतना और प्राणों का केन्द्र है। मन का रोगी हृदय में उतरे, मन का हृदय में स्थित होना ही मन की सम्यक् चिकित्सा है।" चिंता, तनाव, मानसिक एकाग्रता में कमी, अनिंद्रा, सिरदर्द आदि रोग मन-बुद्धि में ज्यादा जीने के परिणाम हैं। श्री चन्द्रप्रभ मानते हैं, "मनुष्य का तनाव यदि हृदय में आ जाए तो वह शांत हो सकता है, स्वयं को तनावमुक्त और प्रसन्नचित्त अनुभव कर सकता है।" अनिद्रा के रोग से मुक्ति पाने के लिए श्री चन्द्रप्रभ ने हृदय पर ध्यान धरते हुए सोने की सलाह दी है। महावीर, बुद्ध, याज्ञवल्क्य, अरविंद, रमण आदि महापुरुषों ने भी अंतर हृदय में परमज्योति का साक्षात्कार होना माना है। जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र के रूप में मोक्ष मार्ग प्रतिपादित हुआ है जिसमें सम्यक् दर्शन को नींव कहा गया है। इसका संबंध सत्य के प्रति श्रद्धाभाव से है। यह श्रद्धा भी हृदय की ही निष्पत्ति है इसलिए श्री चन्द्रप्रभ सम्यक दर्शन का अर्थ 'हृदय की आँख से देखना बताते हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने ' ध्यान योग' पुस्तक में स्व-अनुभव बताते हुए माना है कि मेरे भीतर अनासक्ति 'सबका त्याग' करने के भाव की बजाय 'सबको अपनाने' के भाव से साकार हुई है। उन्होंने 'अंतर्यात्रा' पुस्तक में लिखा है, "पहले मैं बुद्धि, शास्त्र और तर्क से जीता था, पर प्रभु कृपा से मेरा 'बुद्धिभाव' टूट गया। अब मेरे पास हृदय ही प्रधान है, मैं हृदय से जीता हूँ और हृदय में ही प्रेम, करुणा, होश, बोध, अपरिसीम आनंद और परम शांति देखता हूँ ।" श्री चन्द्रप्रभ ने हृदयवान व्यक्ति के लक्षण बताते हुए कहा है, "उसे सृष्टि के कण-कण में परमात्म तत्त्व की अनुभूति मनुष्यों साथ पेड़-पौधों, फूल-पत्तों में ही नहीं झरनों में भी प्रभु की मूरत दिखाई देती है।" श्री चन्द्रप्रभ ने 'इंसानियत' का अर्थ भी हृदयपूर्वक जीवन जीना बताया है। श्री चन्द्रप्रभ ने हृदय को नाभि व मस्तिष्क का सेतु कहा है। उसे 'जीवन का मध्य केन्द्र, जीवन की धुरी, आनन्द केन्द्र' आदि नामों से अभिहित किया है। वे कहते हैं, "हृदय वह तत्त्व है जो पुरुष हो या स्त्री, पशु हो या पुण्य हर तत्त्व में स्थित आत्माअस्तित्व के बोध तक हमें ले जाता है।" श्री चन्द्रप्रभ फेफड़ों और धड़कन को शारीरिक अंग- उपांग मानते हैं, हृदय नहीं उनकी दृष्टि में, "हृदय सूक्ष्म शरीर की अन्तर स्थिति का नाम है।" वे कहते हैं, 'मनुष्य मस्तिष्क से जीता है, लेकिन जीवन हृदय से मिलता है अर्थात् हृदय न दाएँ है न बाएँ है, दोनों बाजुओं के मध्य का पूरा प्रदेश ही हृदय है। हृदय वास्तव में हमारा प्राण क्षेत्र है, आत्म-क्षेत्र है। जैसे ही इस क्षेत्र पर ध्यान की गहराई बनेगी, हमें हमारे वास्तविक स्वरूप की साक्षात् अनुभूति हो जाएगी।” : श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में हृदय-विज्ञान के बारे में 'ध्यान का विज्ञान', ' ध्यान योग', 'ध्यान साधना और सिद्धि', 'अंतर्यात्रा' आदि पुस्तकों में विस्तार से चर्चा हुई है। उन्होंने हृदयवान बनकर जीवन जीने हेतु मुख्य रूप से अपने प्रेम का प्राणीमात्र के लिए विस्तार करने, करुणावान बनने और सदा आनंदित रहने के प्रेरणा सूत्र प्रदान किए हैं। संबोधि साधना मार्ग में हृदय पर ध्यान धरने को विशेष महत्व दिया गया है। उसकी सारी ध्यान विधियाँ किसी-न-किसी रूप में हृदय से अवश्य जुड़ी हुई हैं। संबोधि साधना में बोधि और अंतर्दृष्टि के द्वार खोलने के लिए मनोविकारों और मनोकषायों से मुक्त होने के लिए हृदय पर ध्यान धरने की प्रेरणा दी गई है। इस संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, " ध्यान का सार इतना सा है कि मन से मुक्त होकर हृदय में उतरो और भीतर के आकाश में आत्मलीन रहो, इसी में शांति, सिद्धि और मुक्ति के नित नए द्वार खुलते जाएँगे।" श्री चन्द्रप्रभ ने 'ध्यान : साधना और सिद्धि' नामक पुस्तक में हृदय पर ध्यान धरने की सरल विधि का भी विस्तार से उल्लेख किया है। इस विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि हृदय आध्यात्मिक विकास का मुख्य आधार है। जीवन के समस्त दिव्य सद्गुण हृदय में ही निहित होते हैं, जिनका जागरण हृदय पर ध्यान धरने व हृदयपूर्वक जीवन जीने से सहज होता है। जिस तरह से आज मनुष्य मन के प्रवाह में बहता जा रहा है और तनाव, अवसाद, अनिद्रा, विस्मृति जैसी नित नई समस्याओं में उलझता जा रहा है ऐसे में हृदय-विज्ञान महत्त्वपूर्ण समाधान बन सकता है। श्री चन्द्रप्रभ द्वारा प्रस्तुत 'हृदय-विज्ञान' वर्तमान मानव के लिए बेहद उपयोगी है और अनेक तरह की शारीरिक, मानसिक और संबोधि टाइम्स 87g For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैश्विक समस्याओं से मुक्ति दिलाने में पूर्णतः सक्षम है। संबोधि ध्यान और शक्ति रूपांतरण संबोधि ध्यान का मूल उद्देश्य है मनुष्य को पूरा मनुष्य बनाना। यह तभी संभव है जब व्यक्ति को स्वयं के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो और वह उस स्वरूप को विघटित करने के लिए प्रयत्नशील हो । संबोधि ध्यान इसमें सहयोगी की भूमिका निभाता है। इससे पूर्व यह समझना आवश्यक है कि जीवन और जगत का वास्तविक स्वरूप क्या है ? वैज्ञानिक मानते हैं कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ऊर्जामय है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, " ऊर्जा के सघन हो जाने का नाम ही जीवन है और जीवन की ऊर्जा का विस्तृत होना ही जगत है। फर्क सिर्फ ऊर्जा के विस्तार और संकुचन का है।" व्यक्ति संबोधि ध्यान के प्रयोगों के द्वारा स्वनिहित ऊर्जा को जागृत एवं रूपान्तरित करके अपनी चेतना का विस्तार कर सकता है और जीवन में दिव्यताओं को उपलब्ध हो सकता है। श्री चन्द्रप्रभ का दृष्टिकोण है, "हमारे भीतर जितनी शक्ति एवं ऊर्जा है, उसमें दस प्रतिशत भी अभी सक्रिय नहीं है। ध्यान का उपयोग यही है कि व्यक्ति की निष्क्रिय चेतना सक्रिय हो जाए।" शरीर विज्ञान के अनुसार मस्तिष्क में दस अरब स्नायु तंतु हैं जिसमें नौ अरब तो सुषुप्त रहते हैं। विज्ञान के पास उन्हें जागृत करने का कोई विशेष उपाय नहीं है। यह उपाय योग-विज्ञान के पास है। उन्हें ध्यान व साधना के द्वारा जागृत किया जा सकता है। श्री चन्द्रप्रभ के अनुसार, जीवन की मूल ऊर्जा व शक्ति नाभि व मस्तिष्क के आस-पास छिपी है। जीवन का निर्माण नाभि से व जीवन का संचालन मस्तिष्क से होता है। जहाँ शरीर का निर्माण नाभि के पास रहने वाली ऊर्जा से होता है, वहीं परमात्मा से साक्षात्कार मस्तिष्क के आस-पास रहने वाली ऊर्जा से होता है। मनुष्य वस्तुतः एक शुद्ध ऊर्जा, शुद्ध शक्ति है। इस ऊर्जा ऊर्ध्वारोहण भी होता है और अधोरोहण भी। श्री चन्द्रप्रभ ने ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण करने की प्रेरणा देते हुए कहा है, "यदि हमारी ऊर्जा ऊपर की ओर न चढ़ पाई तो अनिवार्यत: वह नीचे की ओर गिरेगी। यदि हमारी ऊर्जा ऊपर की तरफ चढ़ जाए तो वहीं प्रज्ञा की ऊर्जा बन जाती है और अगर नाभि की तरफ गिर जाए तो काम और क्रोध की ऊर्जा बन जाती है। अतः हमारी ऊर्जा विध्वंस का रूप धारण करे, वह खर्च हो, बूँद-बूँद रिसकर बेकार हो, उससे पहले हम उसका अमृतपान कर लें।" उन्होंने जीवनी-शक्ति का गुणात्मक व रचनात्मक बने रहना अनिवार्य माना है। गुणात्मकता और रचनात्मकता के लक्ष्य के अभाव में शक्ति मानवता के लिए हानिकारक बन जाती है। उनका मानना है, "मन की शक्ति, तन की शक्ति, वचन और धन की शक्ति, समाज और समूह की शक्ति जब तक गुणात्मक और रचनात्मक बनी रहे, तभी तक वह संसार के लिए हितकर है। यदि वह आपाधापी, गलाघोंट संघर्ष, निंदा और विध्वंस से जुड़ जाए, तो जो शक्ति प्रकृति से मनुष्य को वरदान स्वरूप प्राप्त हुई है, वह मानवता के लिए ही अभिशाप बन जाती है । " I संबोधि ध्यान जीवनी ऊर्जा को सम्यक् दिशा देने का आधार स्तंभ है संबोधि ध्यान शक्ति का ऊर्ध्वारोहण कर तन-मन को रूपांतरित करता है। श्री चन्द्रप्रभ 'रूपान्तरण' को जीवन की वास्तविक दीक्षा मानते हैं। वे कहते हैं, " ध्यान आधार है, रूपांतरण का ध्यान आयाम है, शक्ति के सृजन का ।" ध्यान धरने की प्रेरणा देते हुए उन्होंने कहा है, संबोधि टाइम्स "हम अंतर्मन में उठती बैठती ऊर्जा तरंग का ध्यान धरें। निमित्तों के उपस्थित हो जाने पर चित्त में उठने वाले संवेग उद्वेग पर ध्यान धरें, इससे चित्त की उलटवाँसियाँ मौन हो जाएँगी।" उन्होंने शक्ति रूपांतरण और ऊर्जा के ऊर्ध्वारोहण के लिए निम्न सूत्र दिए हैं1. ध्यान द्वारा भीतर उतरें । 2. भीतर की उच्छृंखलताओं को पहचानें । 3. उच्छृंखलताओं को अपने से अलग देखें। 4. स्वयं को रूपांतरित करने का आत्मविश्वास जगाएँ । 5. भीतर के कषायों को शांत करें। 1 6. मौलिक शांति को बढ़ाकर आत्मनिजता को उपलब्ध करें । इस विवेचन से स्पष्ट होता है कि मनुष्य शक्ति और ऊर्जा का पिंड है उस शक्ति और ऊर्जा को सम्यक दिशा देना अति आवश्यक है। सम्यक् दिशा देकर ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण किया जा सकता है। जहाँ ऊर्जा का अधोरोहण पतन का कारण है वहीं ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण श्री जीवन निर्माण एवं संसार सृजन के लिए उपयोगी है। चन्द्रप्रभ ने ऊर्जा के ऊर्ध्वारोहण का सरल एवं वैज्ञानिक मार्ग देकर मानवता पर उपकार किया है। उन्होंने शक्ति के रूपांतरण के लिए न केवल संबोधि ध्यान की उपयोगिता का विवेचन किया है वरन् ध्यान का प्रायोगिक मार्ग भी बताया है। संबोधि ध्यान और विश्व का भविष्य विश्व निरंतर प्रगतिशील है। व्यक्ति पहले से अधिक अर्थ एवं सुविधासम्पन्न हुआ है। वैज्ञानिक आविष्कारों के चलते दुनिया सिमट - सी गई है। जहाँ एक तरफ विश्व की भौगोलिक दूरियाँ कम होती जा रही हैं वहीं दूसरी तरफ व्यक्ति व्यक्ति के बीच आपसी दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं। पहले की बनिस्बत अब लोगों के दिल छोटे हो गए हैं। महोपाध्याय ललितप्रभसागर महाराज कहते हैं, "पहले लोगों के पास मकान छोटे होते थे, पर दिल बड़े, इसलिए चार-चार भाई भी साथ रह लेते थे और आज व्यक्ति ने मकान तो बड़ा बना लिया, पर दिल छोटा कर लिया। परिणाम, अब दो भाई भी साथ रह नहीं पा रहे हैं।" इस तरह आज देश और विश्व कल्याण के बारे में सोचने वाला मनुष्य केवल पति, पत्नी और पुत्रों के हित तक सीमित हो गया है। श्री चन्द्रप्रभ इस संदर्भ में कहते हैं, “पुराने जमाने में अकेले माता-पिता अपनी दस-दस संतानों का पालन-पोषण कर लेते थे, पर वर्तमान में अकेले माता-पिता का पालन-पोषण संतान के लिए भारी हो गया है। भाईभाई आपस में लड़ और बँट रहे हैं, घर-घर में महाभारत मचा हुआ है।" वर्तमान युग का दूसरा सत्य यह है कि भौतिक विकास एवं सुविधाओं के बेहिसाब विस्तार के चलते व्यक्ति की इच्छाएँ असीमित होती जा रही हैं। आज का व्यक्ति किसी भी क़ीमत पर मन की हर इच्छा पूरी करना चाहता है परिणाम, वह उचित-अनुचित का विवेक भूलता जा रहा है, जिसकी वजह से उसकी मानसिक शांति प्रभावित हो रही है। दया, करुणा, मैत्री, प्रसन्नता, परकल्याण जैसी पवित्र भावनाओं का ह्रास हुआ है। वह शारीरिक और मानसिक परेशानियों से ज़्यादा घिर चुका है। इसका समाधान तभी होगा जब व्यक्ति असंयम की बजाय संयमित जीवन को महत्व देगा। इस संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ दृष्टिकोण है, "आज मन मनुष्य का मालिक बना हुआ है, मन का For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवरच वश चले तो वह सारी दुनिया को अधीन कर ले। अगर हर आदमी पीढ़ी की सुरक्षा ख़तरे में रहेगी। हम अपनी अंतर्दृष्टि को अंतर्राष्ट्रीय अपने मन की पूरी करना चाहे तो एक दुनिया नहीं, अरबों दुनिया की धरातल से जोड़ें तभी हम स्वयं के स्तर को ऊँचा उठाने में सफल हो ज़रूरत पड़ेगी। जो कि संभव नहीं है इसलिए व्यक्ति ज्ञान व ध्यान से पाएँगे।" श्री चन्द्रप्रभ ध्यानयोग के मार्ग को सम्पूर्ण विश्व की मन को सही दिशा प्रदान करे।" आवश्यकता बताते हैं। वे कहते हैं, "सम्पूर्ण स्वस्थ विश्व का आनंद वर्तमान युग का तीसरा सत्य यह है कि चारों तरफ भौतिकता के पाने के लिए हर व्यक्ति ध्यानयोग-प्राणायाम को जीवन का अनिवार्य अंधे प्रवाह के चलते सारा वातावरण दूषित हो गया है, औद्योगिक चरण बनाए।" ध्यान का संबंध संपूर्ण जीवन से है। ध्यान तन-मनप्रगति के नाम पर धरती की सात्विकता समाप्त होती जा रही है, चेतना तीनों को स्वस्थ और संतुलित बनाता है। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन परिणाम, हर कोई दूसरों को मिटाने पर तुला हुआ है। मन पर स्वार्थ, है,"ध्यान सारो धरती के लिए है । बगैर ध्यान के न आनंद हैं, न चेतना हिंसा, आतंक, व्यभिचार और स्वच्छंदता जैसे दुर्गुण हावी हो गए हैं। का विकास है, न मन की कोई एकाग्रता है। ध्यान धरती का धर्म है। श्री चन्द्रप्रभ का मानना है, "मन मनुष्य का प्रेरक है। मन विकत हो तो अब तक धरती पर जितने भी अमृत पुरुष हुए उन सबकी आत्मा ध्यान हमारे कार्यकलाप सम्यक् नहीं हो सकते। इसलिए एक तरफ ध्यान के रही।" द्वारा मन को पहचानना अनिवार्य है वहीं दूसरी तरफ मन को सही श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यान की उपयोगिता को हर पहलू से सिद्ध किया वातावरण एवं सम्यक् मार्ग देकर परिवर्तित करना ज़रूरी है तभी यह है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "ध्यान शरीर में अवस्थित दूषित ऊर्जा का मन हमारे लिए वरदान बन पाएगा।" विरेचन कर स्वास्थ्य देता है, ध्यान व्यक्ति के अंतर्मन और अंतआत्मा वर्तमान यग का चौथा सत्य यह है कि जिस विज्ञान ने धरती को को पवित्र करता है, ध्यान के भीतर भाग्य को पलटने की भी ताकत है. विकास की नई संभावनाएँ दी, सुख-सुविधाओं से समद्ध किया, ध्यान से वास्तु-दोष का भी निवारण होता है। ध्यान मानसिक शांति देने व्यक्ति को बौद्धिक दष्टि प्रदान की. पर उसी विज्ञान ने मानसिक के साथ बौद्धिक प्रतिभा और मेधा को भी उजागर करेगा. ध्यान से रूपांतरण पर ध्यान न देने की वजह से अब व्यक्ति-व्यक्ति, समाज- व्यक्ति की कार्यक्षमता व उत्पादन क्षमता भी बढ़ती है। जो मात्र आधा समाज, देश-देश के बीच आगे बढ़ने की होड़ मची हुई है, जिसके घंटा ध्यान कर लेता है, वह दिनभर प्रसन्न और सौम्य रहता है।" श्री चलते विश्व में अनगिनत अस्त्रों-शस्त्रों का निर्माण हो चुका है। धरती चन्द्रप्रभ ने ध्यान को मानसिक शांति की प्राप्ति में भी उपयोगी बताया पर इतने अणु-परमाणु बम बन गए हैं कि संपूर्ण धरती को कई बार नष्ट है। प्राय: आम आदमी आत्म-साक्षात्कार से पहले मानसिक शांति किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में व्यवस्थाओं का राजनीतिकरण होने पाना चाहता है। श्री चन्द्रप्रभ ने 'अंतर्यात्रा' पुस्तक में अशांति के चार से बचाने व विश्व चेतना को रचनात्मक, सकारात्मक और सृजनात्मक कारण मुख्य रूप से गिनाए हैं, "औरों पर शासन करने की भावना, बनाने की आवश्यकता है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "अगर मनुष्य ने मन कायिक सुख व औरों को दिखाने की भावना को ज़्यादा महत्त्व देना, का समाधान न निकाला तो दनिया में आज ऐसे संहारक अस्त्र-शस्त्र आंतरिक संवेग और आसक्ति।" श्री चन्द्रप्रभ ने शांति पाने के लिए ईजाद हो चके हैं कि वे दनिया को एक बार नहीं सौ-सौ बार नष्ट करने ध्यान के प्रयोग करने के साथ स्वभाव को सरल बनाने, वाणी को मधर की क्षमता रखते हैं। मनुष्य धरती के लिए वरदान साबित हो इसके लिए बनाने, विपरीत बात पर प्रतिक्रिया न करने और हर हाल में मस्त रहने हमें मन से ऊपर उठना होगा और बुद्धि, विवेक, बोध और ज्ञानपूर्वक के सूत्र दिए हैं। जीवन जीना होगा।" श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यान को मानसिक और भावनात्मक विकास में भी श्री चन्द्रप्रभ ने व्यक्ति को साधारण मन और साधारण विचारों से सहयोगी माना है। वैज्ञानिक युग के चलते व्यक्ति की बौद्धिक चेतना ऊपर उठने की प्रेरणा दी है और उच्च मानसिक क्षमताओं को जागत और इन्द्रिय-चेतना का खूब विकास हुआ है, पर श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, करने के लिए विज्ञान, कला, सुख-साधनों के साथ जीवन में "मानसिक और भावनात्मक चेतना का शुद्ध विकास ध्यान से ही हो ध्यानयोग को अपनाने का आह्वान किया है। वर्तमान स्थिति के परिप्रेक्ष्य सकता है। जहाँ मानसिक चेतना के विकास से व्यक्ति महान विचारों में श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "आज पुरे पृथ्वी-ग्रह का संचालन अंतरिक्ष का धनी बनेगा वहीं भावनात्मक चेतना के विकास से व्यक्ति हृदयवान स्थित उपग्रहों से होने लग गया है। आमने-सामने की लडाइयाँ सीधे होकर जीवन जिएगा।"शरीर-विज्ञान के अनुसार मस्तिष्क के दो भाग प्रक्षेपास्त्रों से जुड़ गई हैं। विज्ञान का बेहिसाब विस्तार हो गया है। हैं- 1. दायाँ भाग, 2. बायाँ भाग। दायाँ भाग जहाँ धर्म, अध्यात्म, इसलिए अब केवल साधारण शक्ति से काम नहीं चलेगा। मनुष्य को नैतिकता से जुड़ा होता है वहीं बायाँ भाग गणित, दर्शन, तर्कशास्त्र से। अपनी उच्च शक्तियों की ओर बढ़ना होगा। साधारण मन से असाधारण । किसी का दायाँ भाग ज़्यादा सक्रिय होता है तो किसी का बायाँ भाग, पर अतिमनस तत्त्व की ओर जाना होगा। हमें अपनी उच्च चेतना को समग्र उच्च व्यक्तित्व का मालिक बनने के लिए मस्तिष्क के दोनों भागों का अस्तित्व से जोड़ना होगा तभी हम विश्वव्यापी समाधान प्राप्त कर सक्रिय होना ज़रूरी है। ध्यान इस कार्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता सकेंगे।" है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "ध्यान के द्वारा हम मस्तिष्क के दोनों भागों श्री चन्द्रप्रभ शरीर में निहित अद्भुत शक्तियों एवं क्षमताओं के को सक्रिय कर सकते हैं।" जागरण के लिए जीवन के साथ नए प्रयोग करने पर बल देते हैं। वे श्री चन्द्रप्रभ ध्यान को लक्ष्य-प्राप्ति में भी सहयोगी मानते हैं। विज्ञान से भी ऊपर के क्षितिज तलाशने की प्रेरणा देते हैं। उनकी दृष्टि व्यक्ति चाहे किसी भी क्षेत्र से जुड़ा हुआ हो, पर उसका एक ही लक्ष्य है में, "जब तक हमारा चिंतन परिवार के साथ सम्पूर्ण जगत की भलाई - सुख, शांति और आनंद। भारतीय मनीषा में एक शब्द मिलता है - पर केन्द्रित नहीं होगा, हम समग्र ब्रह्माण्ड से नहीं जुड़ेंगे, तब तक भावी सच्चिदानंद, जो कि जीवन-लक्ष्य से जुड़ा हुआ है। सत् अर्थात् For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स > 89 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व, चित् अर्थात् चेतना और आनंद अर्थात् क्लेश और तनावमुक्त धर्म की आड़ में पंथ-परम्परा के नाम पर, मंदिर-मस्जिद के नाम पर दशा।" श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "जीवन के इस वास्तविक लक्ष्य को आग्रहों और दुराग्रहों में उलझ गया है। परिणामस्वरूप धर्म मानवता को प्राप्त करने में ध्यान की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। चैतन्य ध्यान और जोडने की बजाय आपस में तोड़ रहा है। इस स्थिति से निजात पाने के संबोधि ध्यान जैसी प्रक्रियाओं से सुषुप्त अंतस्-चेतना और आनंद- उन्होंने ध्यान-दर्शन में कहा है, "ध्यान से वह प्रज्ञा और समझ दशा जागृत होती है।" विकसित होती है, जिससे कदाग्रह की कारा टूटती है, व्यक्ति को सार श्री चन्द्रप्रभ ध्यान को प्रेम और आत्मीयता, प्रतिभा और के ग्रहण व असार के विरेचन की जीवन दृष्टि प्राप्त होती है।" सृजनात्मकता, शांति और मुक्ति जैसे सद्गुणों का जनक मानते हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यान को हिंसा, आतंक, चोरी, भ्रष्टाचार जैसी वर्तमान में प्रेम का स्वरूप छिछला हो गया है। वह स्वार्थ व देहासक्ति समस्याओं से मुक्ति दिलाने में भी उपयोगी माना है। वर्तमान में से जुड़ गया है। परिणाम रिश्तों में मधुरता कम, कड़वाहटें ज़्यादा घुल कारागारों में भी अपराधियों को ध्यान का प्रशिक्षण दिलवाया जा रहा है, गई हैं। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का भारतीय आदर्श धूमिल हो गया है। जिससे उनकी मानसिकता में अद्भुत बदलाव आए हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "ध्यान से जन्मा प्रेम अपने परिपूर्ण अर्थों में प्रेम भी इंदौर और जोधपुर में कैदियों को ध्यान के गुर सिखाकर उनका होता है। उसके प्रेम में करुणा होगी, आत्मा की सुवास होगी, अंतरमन मानसिक परिवर्तन किया है। उन्होंने हिंसा, आतंक जैसी समस्याओं के की मिठास होगी। प्रेम जितना ध्यानस्थ हो और ध्यान जितना प्रेमपूर्ण हो पीछे 'बेहतर जीवन के बेहतर समाधान' पुस्तक में आनुवंशिकता, जीवन में उतनी ही परिपूर्णता और सरसता आती है।" गलत वातावरण, आर्थिक शोषण और जन्म-जन्मांतर से दमित वृत्तियों श्री चन्द्रप्रभ ध्यान को धन विरोधी नहीं मानते हैं। उनकी दष्टि में को मुख्य कारण माना है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "मानसिक दमन व धन जीवन की आवश्यकता है। वे कहते हैं, "केवल ध्यान से ही काम आत्मदमन के कारण ही इतना आतंकवाद और उग्रवाद फैला हुआ है। नहीं चलेगा।शांति और समृद्धि के लिए ध्यान भी चाहिए और धन भी। अगर व्यक्ति अपने मानसिक जगत के प्रति निर्मल और औरों के प्रति धन व्यावहारिक सुख देता है तो ध्यान आत्मिक सुख। व्यावहारिक मानवीय दृष्टि अपना ले तो वह सहजतया जीवन से आतंक, क्रोध, सुख परिस्थितिवश छिन भी सकते हैं, पर जो भीतर से समृद्ध हो चुका कषाय और विकार को निर्मूल कर सकता है।" श्री चन्द्रप्रभ ने इसके है वह सदाबहार आनंद से भरा रहेगा।" श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यान से फैक्ट्री साथ सबको प्रतिदिन ध्यान करने, श्रेष्ठ साहित्य का विस्तार करने और का घाटा दूर होना, दुकान अच्छी चलना या देवी-देवताओं का प्रकट सरकार से वर्तमान आतंकवाद को मिटाने के लिए राजनीतिक समाधान होना जैसी बातों को अंधविश्वास कहा है। उनका दृष्टिकोण है, ढूँढ़ने की प्रेरणा दी है। इस प्रकार श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यान की सभी "ध्यान से तो. चित्त शांत होगा, बुद्धि लक्ष्योन्मुख होगी और जीवन में दृष्टिकोणों से व्याख्या कर उसकी सर्वांगीण उपयोगिता एवं दिव्यता आएगी। जिससे परिवार-व्यापार-समाज में स्वतः ही लाभ हो आवश्यकता प्रतिपादित की है। उन्होंने ध्यान के अलावा भक्ति और जाएगा।" ज्ञान जैसे मार्गों को भी स्वीकार किया है, पर ध्यान को सबकी आत्मा श्री चन्द्रप्रभ ध्यान को समाजोत्थान का भी आधार मानते हैं। ध्यान माना है। व्यक्ति को समाज से तोड़ता नहीं है वरन् समाज-विकास में सहयोगी यद्यपि वर्तमान में विभिन्न धर्मों, प्रशिक्षकों द्वारा ध्यान-योग की बनने की प्रेरणा देता है। ध्यान से करुणा, सरलता, मैत्री, प्रमोद जैसे विभिन्न विधियाँ जारी हुई हैं, पर उनमें केवल ऊपरी भेद है, मूल में सद्गुण विकसित होते हैं जो व्यक्ति को समाज कल्याण करने के लिए सभी का लक्ष्य एक है। इस संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "मैंने उत्सुक करते हैं। इस संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ का कहना है, "बुद्ध और ध्यान-योग की अनेक विधियाँ जानी, समझी व आजमाई हैं। विधियों महावीर वर्षों जंगल में रहे, लेकिन जैसे ही ध्यान को उपलब्ध हए में फ़र्क है, पर वह केवल प्राथमिक चरणों में है। लेकिन ध्यान विधियों वापस समाज में आ गए और जीवनभर समाज-कल्याण में जुटे रहे।" से पार है। जब तक करना है तब तक विधि है। करना' जब होने' में उन्होंने सामूहिक ध्यान को भी अधिक उपयोगी माना है। समूह में किये तब्दील हो जाता है, ध्यान सही अर्थों में तभी ध्यान' बनता है।" गये ध्यान में भी एक तरह की सामाजिकता छिपी रहती है। इसलिए निष्कर्ष ध्यान समाज-सापेक्ष भी है। इस तरह कहा जा सकता है कि ध्यान व्यक्ति से लेकर सम्पूर्ण ध्यान धर्म को भी जीवंतता प्रदान करता है। ध्यान और बोध रहित विश्व तक उपयोगी है। ध्यान के प्रति आम व्यक्ति का बढ़ रहा रुझान धर्म केवल क्रियाकांड भर रह जाता है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "धर्म के धमक ध्यान की उपयोगिता सिद्ध करता है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "आज नाम पर उपवास तो हो जाएँगे, पर वे उपवास हमारे क्रोध का शमन नहीं मनुष्य जितना अशांत, उद्विग्न और तनावग्रस्त है, अगर उसने ध्यान को कर पाएँगे, शास्त्रों का स्वाध्याय तो हो जाएगा, पर उससे हमारे अज्ञान जीवन का सहचर न बनाया तो इक्कीसवीं सदी मानव जाति के विनाश का कोहरा नहीं हटेगा, धर्म के नाम पर विनय-व्यवहार तो बहुत हो का इतिहास होगी। अतः ज़रूरी है कि व्यक्ति प्रतिदिन ध्यान करे, जाएगा, पर अहंकार झुक नहीं पाएगा। ध्यान विनय को पैदा करने, ज्ञान । __ अंतर्मन की शुद्धि करे और स्वयं को पवित्र रखते हुए अंतप्रसन्नता को पाने या भूखे मरने के लिए नहीं,अहंकार को झुकाने और अज्ञान को झुकान आर अज्ञान का और चित्तसमता बरकरार रखे।" ध्यान व्यक्ति को तृप्त करता है, पहचानने के लिए है, तभी तो व्यक्ति की आंतरिक शुद्धि हो पाएगी।" स्वास्थ्य, शांति और उत्साह देता है जो कि हर व्यक्ति की महत्त्वपूर्ण श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यान को आग्रह-दुराग्रह की मानसिकता से मुक्त आवश्यकता है। श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यानमार्ग को और अधिक विस्तार देने होने में भी उपयोगी माना है। वर्तमान की धार्मिक स्थिति को उजागर । की आवश्यकता जताई है और इस हेतु हर व्यक्ति दस लोगों को ध्यान करते हुए वे कहते हैं, "आज धर्म तो कही पीछे छूट गया है, पर व्यक्ति मार्ग के प्रति प्रेरित करने का संकल्प ले और ध्यान का मनोवैज्ञानिक 90» संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य लोगों तक पहुँचाने की प्रेरणा दी है ताकि इक्कीसवीं सदी ध्यान के सान्निध्य से स्वस्थ विश्व का आनंद प्राप्त कर सके। आत्म-दर्शन भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान रही है। यहाँ के ऋषि-मुनियों और दार्शनिकों ने न केवल अध्यात्म की सूक्ष्मताओं को जाना, वरन् उसका विशद् निरूपण भी किया। अध्यात्म शब्द अधि+आत्म शब्दों से मिलकर बना है। अधि अर्थात् निकटता, समीपता और आत्म अर्थात् आत्मा, चेतना अथवा स्वयं । इस तरह आत्मा या स्वयं के समीप रहने का नाम अध्यात्म है। अध्यात्म का संबंध आत्मा के साथ परमात्मा, ब्रह्म से भी माना गया है। मानक हिंदी कोश के अनुसार, "आत्मा तथा परमात्मा के गुणों और उनके पारस्परिक संबंधों के विषय में किया जाने वाला दार्शनिक चिंतन निरूपण या विवेचन अध्यात्म कहलाता है।" " भारतीय धर्म-दर्शनों में आत्मा, ईश्वर, ब्रह्म संबंधी प्रत्ययों पर विस्तृत विश्लेषण मिलता है। एक तरह से ये उनके केन्द्रबिन्दु रहे हैं। जैन दर्शन में आत्मा के तीन प्रकार हैं बहिरात्मा, अंतरात्मा व परमात्मा और परमात्मा के दो प्रकार - अर्हत् व सिद्ध के रूप में बताए गए हैं। भगवान महावीर ने जिन सूत्र में कहा है, "मन-वचन-काया से बहिरात्मा को छोड़कर, अंतरात्मा में आरोहण कर परमात्मा का ध्यान करें ।" इस सूत्र के माध्यम से महावीर ने एक तरह से अध्यात्म को परिभाषित किया है। यजुर्वेद के अनुसार, "जिसकी शांत छाया में रहना ही अमरत्व प्राप्त करना है और उससे दूर रहना ही मृत्यु प्राप्त करना है, उस अनिर्वचनीय परम आत्म तत्त्व (चैतन्य तत्त्व) की हम उपासना करें। " वृहदारण्यक उपनिषद् के अनुसार, "आत्मा का ही दर्शन करना चाहिए, आत्मा के संबंध में ही सुनना चाहिए, मनन-चिंतन करना चाहिए और आत्मा का ही निदिध्यासन-ध्यान करना चाहिए। एकमात्र आत्मा को सम्यक् जानने से सब कुछ जान लिया जाता है।" शास्त्रों में आत्मा को सब तत्त्वों से श्रेष्ठ माना गया है। महाभारत के भीष्मपर्व में कहा गया है, " शरीर से इन्द्रियाँ श्रेष्ठ हैं । इन्द्रियों से मन और मन से बुद्धि श्रेष्ठ है और जो बुद्धि से भी श्रेष्ठ है, वह आत्मा है। "गीता के अनुसार, "आत्मा तमोगुण से रजोगुण और रजोगुण से सतोगुण की ओर बढ़ती हुई अंत में गुणातीत अवस्था को प्राप्त हो जाती है।" इस तरह सभी भारतीय दर्शनों की धुरी आत्मा है और दार्शनिकआध्यात्मिक चिंतन की आधारशिला भी आत्मा ही है। अध्यात्म व विज्ञान आज का युग भौतिक विज्ञान का युग है। आम व्यक्ति अध्यात्म को नहीं समझता, पर इतिहास बताता है कि जब-जब व्यक्ति अध्यात्म, दर्शन और नैतिकता से दूर हुआ तब-तब मानवता का ह्रास हुआ। महान् वैज्ञानिक आइन्स्टीन भी अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में अध्यात्म की उपयोगिता को स्वीकार कर चुके हैं। अब अध्यात्म भी वैज्ञानिक अनुसंधानों का प्रमुख विषय बन रहा है। बुद्धि लब्धि (IQ) और संवेग लब्धि (EQ) के साथ इस सदी में आध्यात्मिक लब्धि (SQ) को भी विशेष महत्व दिया जा रहा है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम मानते हैं कि अध्यात्म अंदर की खोज़ है और विज्ञान अंदर नहीं जा सकता, पर विज्ञान बाहर की खोज है। सर्वांगीण विकास के लिए दोनों की ज़रूरत है। ओशो का कहना है, "नई सदी के मानव से यह अपेक्षा है कि वह न्यूटन, एडीसन, रदरफोर्ड, आइन्स्टीन आदि विज्ञान से समृद्ध हो, तो साथ ही बुद्ध, कृष्ण, ईसा और मोहम्मद के अध्यात्म से भी।'' श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन यात्रा पुस्तक में अध्यात्म और विज्ञान का संबंध उजागर करते हुए कहा है, " अध्यात्म आत्मा का विज्ञान है और विज्ञान प्रकृति का विज्ञान है। विज्ञान चलता है अणु से लेकर खगोल- भूगोल आदि के प्रयोगों पर और अध्यात्म चलता है अंतरंग की गहराइयों पर चेतना की शक्तियों पर बाहर को समझने के लिए विज्ञान सहयोगी है तो भीतर को समझने के लिए अध्यात्म सहयोगी है इसलिए दोनों पूरकता लिए हुए हैं।" इस तरह वर्तमान दार्शनिकों एवं वैज्ञानिकों ने एक मत से सृष्टि के संतुलित विकास में विज्ञान व अध्यात्म दोनों की परस्पर भूमिका एवं उपयोगिता को स्वीकार किया है। श्री चन्द्रप्रभ का आत्म-दर्शन श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में आध्यात्मिकता का वैज्ञानिक, जीवनसापेक्ष एवं विस्तृत विश्लेषण हुआ है। श्री चन्द्रप्रभ विश्व के प्रत्येक सफल और महान् व्यक्तियों की श्रेष्ठता के पीछे आध्यात्मिक शक्ति, आध्यात्मिक शांति और आध्यात्मिक सौन्दर्य को मुख्य कारण मानते हैं। उनकी दृष्टि में, " अध्यात्म कोई ऐसा शब्द नहीं, जिसका संबंध किसी अलौकिक असाधारण व्यक्ति के साथ हो। अध्यात्म तो सीधे अर्थ में अपने में अंतर्निहित मानवीय और चैतन्य शक्ति के साथ एकाकार होना है। " श्री चन्द्रप्रभ अध्यात्म को आत्मसात् करने के लिए किसी जंगल, गुफा अथवा निर्जन स्थानों में जाना अनिवार्य नहीं मानते हैं। वे कहते हैं, " अध्यात्म को आत्मसात् करने के लिए हमें किसी गुफा में जाने की ज़रूरत नहीं है केवल स्वयं को शांतिमय और | आनंदमय मनाने की मानसिकता तैयार करने की आवश्यकता है । " - श्री चन्द्रप्रभ के अध्यात्म में 'आत्मा' प्रत्यय मुख्य तत्त्व है। श्री चन्द्रप्रभ के आत्म दर्शन ने जीवन का मूल आधार' आत्मा' को माना है। श्री चन्द्रप्रभ आत्मा को स्वयं की स्वीकृति बताते हैं । वे कहते हैं, "जीवन अपना अस्तित्व आत्मा से ही पाता है। जैसे बिना मुर्गी के अण्डा नहीं होता, बिना माँ के बच्चा नहीं होता वैसे ही बिना आत्मा के जीवन नहीं होता। " श्री चन्द्रप्रभ ने शरीर व आत्मा में भेद किया है। उनका दृष्टिकोण है, " आत्मा वह तत्त्व है, जिसके चलते हम जीवित रहते हैं और जिसके निकल जाने पर हमारे परिजन हमें श्मशान छोड़ आते हैं।" वे आत्मा को शब्दों से परे, अंधकार व प्रकाश से मुक्त मानते हैं। उनका दृष्टिकोण है, " अनुभव दशा में जिस शून्य को, जिस ऊर्जा को जाना जाता है, आत्मा उसे दिया एक संबोधन, एक संज्ञा है ।" वे आत्म-दर्शन का अर्थ स्वयं को देखना बताते हैं। आत्म-स्वरूप की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं, "आत्मा अर्थात् हम स्वयं, आत्मा यानी अनंत जीवन का द्वार। आत्मा यानी जीवन का आधार । आत्मा यानी वह विराट् जिसे शरीर ने आच्छादित कर डाला आत्मा यानी चैतन्य | जड़ता के पार चैतन्य । चैतन्य के स्वामी होकर भी हम जड़ बने बैठे हैं। जड़ता ने आत्मा के आनंद को अज्ञात और अज्ञेय बना रखा है। हमसे हटकर आत्मा नहीं है, हमारा अस्तित्व नहीं है। आत्मा तो वह सत्य है, जो साक्षात् है प्राणी मात्र का त्रैकालिक सत्य है।" आत्मा के स्वरूप पर चर्चा करने पर यह जिज्ञासा सहज पैदा होती है कि इसका निर्माण किसने किया? यह अनिर्मित है अथवा निर्मित ? इस जिज्ञासा का , संबोधि टाइम्स 91 For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधान देते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "इसका समाधान हमारे भीतर के लिए स्वयं को ही शोध करनी पड़ती है। आत्मज्ञान स्वयं की ही में है। जब व्यक्ति आत्मा को उपलब्ध हो जाएगा, तब यह प्रश्न स्वयं परिणति है, वह किसी और का अनुदान नहीं हो सकता।"व्यक्ति स्वयं ही तिरोहित हो जाएगा अर्थात् व्यक्ति की परितृप्ति ही इस प्रश्न का को पढ़े, स्वयं को जाने । जीवन-जगत को पढ़ना किसी भी पुस्तक को ज़वाब है।" श्री चन्द्रप्रभ का मानना है कि ऐसे प्रश्नों का ज़वाब शब्दों पढ़ने से अधिक बेहतर है। भगवान महावीर ने कहा था, "जो एक को में नहीं, अनुभूतियों में है। जब हम 'ध्यान' द्वारा भीतर उतरेंगे तब ही जान लेता है सबको जान लेता है।" गीता के पन्द्रहवें अध्याय में हमें इसका सही जवाब मिल पाएगा। भगवान श्रीकृष्ण ने हृदय में स्थित आत्मा को तत्त्व से जानने की बात आत्म तत्त्व की सिद्धि कही है। आत्मा संबंधी सिद्धांत को सभी दार्शनिकों ने किसी-न-किसी रूप स्वयं को जानने के लिए 'कोऽहं' शब्द अति महत्त्वपूर्ण है। में स्वीकार किया है। मुख्य रूप से आत्मा को एकात्मवाद, 'कोऽहं' अर्थात् मैं कौन हूँ। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन है, "मैं कौन हूँ, अनेकात्मवाद, ईश्वरीय अंश और स्वतंत्र तत्त्व के रूप में स्वीकार किया कहाँ से आया हूँ, जीवन का स्रोत क्या है? अंतर्मन में ऐसे प्रश्नों का गया है। श्री चन्द्रप्रभ ने आत्मा को अनेक व स्वतंत्र अस्तित्त्व के रूप में उठना ही जीवन में अध्यात्म की शुरुआत है।" आचारांग सूत्र जिसमें स्वीकार किया है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "मैं आत्मवादी हूँ, मुझे अपने महावीर की साधना का उल्लेख है, उसकी शुरुआत भी मैं कौन हूँ, आप पर विश्वास है। मैं किसी का अंश नहीं हैं, ईश्वर का भी नहीं। कहाँ से आया हूँ, कहाँ जाऊँगा जैसे प्रश्नों से, स्वयं के प्रति जिज्ञासा से हुई है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "महावीर ने अपने आप से प्रश्न किये, मैं आत्मा पूर्ण है, अंश अपूर्ण है।" उन्होंने 'जीवन यात्रा' नामक पुस्तक में आत्मा की अनेकात्मकता का एवं स्वतंत्रता का समर्थन कर अन्य रूपों कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरे जीवन का मूल स्रोत क्या है तथा जीवन का तर्कयुक्त खण्डन किया है।" श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में आत्म तत्त्व और जगत का वास्तविक सत्य व स्वरूप क्या है? महावीर ने इन प्रश्नों की सिद्धि हेतु अनेक प्रमाण उपस्थित किए गए हैं। 'जीवन यात्रा' को अपने अंतर-भाव में उतरने दिया, गहराई तक। इतनी गहराई तक पुस्तक में इस संदर्भ में विस्तृत विश्लेषण किया गया है। श्री चन्द्रप्रभ कि प्रश्न मिट गए, केवल आत्मबोध रह गया।" श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "आत्मा अमूर्त है, इसीलिए नित्य है, आत्मा सविशेष है, आध्यात्मिक क्रांति के लिए आत्म-जिज्ञासा को पहली शर्त मानते हैं। दर्शन को नैतिकता के शिखर पर प्रतिष्ठित मानना आवश्यक है। 'कोऽहं' और कुछ नहीं स्वयं की स्वयं से जिज्ञासा है, मुमुक्षा का नैतिकता शुभ-अशुभ का विवेक है और वह विवेक सचेतन में ही जागरण है, अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य का अवलोकन है, संभव है, आत्मा के बिना पुनर्जन्मादि क्रियाएँ संभव नहीं हैं, आत्मा ही अंतर्यात्रा की शुरुआत है। श्री चन्द्रप्रभ ने 'कोऽहं को जीवन के चरम है जो इन्द्रियों के साधन से ज्ञान प्राप्त करती है, पाँचों इन्द्रियों के विषय सत्यों की खोज़ का पहला मंत्र माना है। का समन्वित रूप में ज्ञान प्राप्त करने वाली शक्ति आत्मा है। जैसे फूल स्वयं के साथ घटे'कोऽहं' के अनुभव की व्याख्या करते हुए श्री में सुगंध, तिलों में तेल, काष्ठ में आग, दूध में घी व गन्ने में गुड़ है वैसे चन्द्रप्रभ बताते हैं, "मैंने भी कई उपाधियाँ हासिल की,प्रवचन भी खूब ही शरीर में छिपे आत्मा के अस्तित्व को विवेक से जाना जा सकता दिए, पर जब यह प्रश्न उठा कि क्या यह सब सच है, क्या है आत्मा है।" वैज्ञानिकों ने भी आत्मा को जानने, पकड़ने का प्रयास किया, पर और कैसी है आत्मा, कहीं मैं स्वयं को व औरों को दिग्भ्रमित तो नहीं वे अभी तक इसमें पूर्ण सफल नहीं हो पाए हैं, वे उस शक्ति को अवश्य कर रहा हूँ या जैसा औरों ने कहा है, वैसा ही मैं भी तो नहीं कह रहा हूँ, स्वीकार करते हैं जिसके अभाव में मनुष्य जीवित नहीं रह पाता है। इन्हीं प्रश्नों के चलते किताबी व वाणीगत सत्य अंतर्मार्ग की ओर मुड़ श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में आत्मा की विशेषताओं का भी विस्तार से र गया, ध्यानयोग से अध्यात्म की कई गहराइयाँ स्पष्ट हुईं।" श्री चन्द्रप्रभ जिक्र हुआ है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "आत्मा चैतन्य रूप, सगुण धारा यह स्वीकार करते हैं कि जब तक हम अपने आपको न जान पाए, तब की प्रतिनिधि, चिरस्थायी, स्वतंत्र, ज्ञायक, आनंदस्वरूप, अमर, अशुद्ध तक दूसरों के कल्याण की बातें करना कथाकार व प्रवचनकार का रूप में कर्ता व भोक्ता, शुद्ध रूप में अकर्ता-अभोक्ता, बंधन व मुक्ति दायित्व निभाना भर है। श्री चन्द्रप्रभ 'मैं कौन हूँ' के प्रश्न को जीवन और जगत की भौतिकता और आध्यात्मिकता की बुनियाद मानते हैं। युक्त है।" इस विश्लेषण से स्पष्ट होता है भारतीय धर्म-दर्शनों में 'आत्मा' का विविध रूपों में विश्लेषण हुआ है। दर्शन की सारी उन्होंने इस प्रश्न को गहराईपूर्वक जानने व जीने की प्रेरणा दी है। वे इस प्रणालियाँ, जीवन की सारी अपेक्षाएँ आत्म-सापेक्ष हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने प्रश्न के साथ सावधान करते हुए कहते हैं, "ध्यान में बैठते ही स्वयं से आत्मा को जीवन के साथ जोड़कर उसे बेहतर व सरल ढंग से समझाया पूछा -- मैं कौन हूँ? और भीतर से आवाज़ आयी कि मैं आत्मा हूँ, है। विज्ञान व अध्यात्म की धाराओं का समन्वय भी भविष्य के लिए परमात्मा हूँ, मैं ईश्वर अंश हूँ या मैं कुछ भी नहीं हूँ। ये सारे उत्तर सुने सुनाए, रटे-रटाये हैं। व्यक्ति पहले आरोपित उत्तरों से स्वयं को मुक्त अच्छा संकेत है। अब हम श्री चन्द्रप्रभ द्वारा आत्मा की अन्य तत्त्वों के साथ की गई व्याख्या को समझने की कोशिश करते हैं। करे, अंतर्मन को खाली करे ताकि वह भीतर के निर्विकल्प वातावरण से मौलिक सत्य को उपलब्ध कर सके।" आत्म-दर्शनवकोऽहं श्री चन्द्रप्रभ ने अपने आप से पूछिए : मैं कौन हूँ' नामक पुस्तक अध्यात्म की शुरुआत आत्मा से होती है और आत्मबोध के लिए में भगवान महावीर को कोऽहं प्रश्न के रूप में मिले 'सोऽहं के उत्तर स्वयं में उतरना ज़रूरी है। स्वयं में उतरे बिना रूपांतरण संभव नहीं है। की विस्तारपूर्वक व्याख्या को है। श्री चन्द्रप्रभ ने पुनः-पुनः 'कोऽहं' जीवन में साधनामूलक परिवर्तन विद्यालयी पुस्तकों को रटने या शास्त्रों की जिज्ञासा को मंत्र रूप में आत्मस्मृति के साथ जोड़े रखने की प्रेरणा को पढ़ने मात्र से नहीं हो सकता है। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन है, "शास्त्रों दी है। उन्होंने 'कोऽहं' को अहंकार नहीं, अस्तित्व का बोध कहा है। का ज्ञान हमें कुछ संकेत दे सकता है, पर स्वयं के अस्तित्व की पहचान पतंजलि ने योग सूत्र में शोकरहित और प्रकाशमय प्रवृत्तियों में मन को 1892 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोड़े रखने की प्रेरणा दी है। ये प्रवृत्तियाँ मन को स्थिर व निर्मल करने संसार को बंधनरूप और त्याज्य बताया है, पर श्री चन्द्रप्रभ संसार को में सहयोगी बनती हैं। श्री चन्द्रप्रभ 'मैं कौन हूँ' नामक जिज्ञासा को बंधन का कारण नहीं मानते हैं। बंधन के कारण का विवेचन करते हुए प्रकाशमय प्रवृत्ति की प्राथमिक पहल बताते हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने 'जागो वे कहते हैं, "संसार कभी बंधनकारी नहीं होता। मन की माया का मेरे पार्थ', 'अपने आप से पूछिए : मैं कौन हूँ','महाजीवन की खोज', संसार ही बंधन है और मन की माया से मुक्त हो जाना ही जीवन में मोक्ष 'आध्यात्मिक विकास' नामक पुस्तकों को इस आत्म-जिज्ञासा का का महोत्सव है।" इस तरह उन्होंने मन में पलने वाली मूर्छा और विस्तृत विवेचन किया है। उन्होंने इस जिज्ञासा का समाधान पाने की आसक्ति को ही भव-बंधन का आधार माना है। पूर्व भूमिका के रूप में निम्न सूत्र प्रदान किए हैं - श्री चन्द्रप्रभ ने गृहस्थ अथवा संन्यास जीवन का मूल्यांकन भी 1.स्वयं पर आस्था रखें। आसक्ति-अनासक्ति के आधार पर किया है। उन्होंने संन्यास जीवन 2.अंत:करण की शुद्धि करें। अंगीकार करने से पहले आसक्तियों से उपरत होने की सीख दी है 3.जीवन-जगत को पढ़ें। इसलिए वे व्यक्ति को पहले गृहस्थ-संत बनने की प्रेरणा देते हैं। 4.शास्त्रों का पठन के साथ मनन करें। उनकी दृष्टि में, "पुत्र-पुत्री, पत्नी-धन की ऐषणा का त्याग करना 5. प्रज्ञावान बनें। अथवा नाम, रूप, रूपाय बदल लेना आसान है, परंतु लौकेषणा का 6.'मैं कौन हूँ' मंत्र का सतत जप करें। त्याग करना, आसक्तियों को तोड़ना कठिन है।" इस तरह उन्होंने इस प्रकार स्पष्ट होता है कि अध्यात्म की शुरुआत 'मैं कौन हूँ' की अनासक्त चेतना के निर्माण की मुख्य पहल की है। श्री चन्द्रप्रभ ने जिज्ञासा से होती है। महावीर, बुद्ध जैसे महापुरुषों ने भी सतत इसका आसक्ति-अनासक्ति के परिणामों का भी विवेचन किया है। पति के चिन्तन-मनन किया और वे आध्यात्मिक बोध को उपलब्ध हए। श्री बीमार हो जाने पर पत्नी का दुःखी होना, गलती होने पर पिता द्वारा बेटे चन्द्रप्रभ हर साधक के लिए 'मैं कौन हूँ' को मुख्य साधना-मंत्र मानते को चाँटा मारना, जन्मने पर खुश और मरने पर पीड़ित होना, इन सबके हैं। अध्यात्म के रहस्यों को उपलब्ध करने के लिए श्री चन्द्रप्रभ ने 'मैं पीछे उन्होंने मुख्य कारण आसक्ति को माना है। उदाहरण के माध्यम से कौन हूँ' की सतत स्मृति को सहयोगी माना है। आसक्ति को व्याख्यायित करते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "पड़ोस में किसी की मृत्यु हो जाए तो व्यक्ति नाश्ता करके शवयात्रा में जाने की आत्मा, बंधन और उससे मुक्ति । सोचता है और घर में किसी की मृत्यु हो जाए तो नाश्ता नहीं सुहाता, संसार में प्रत्येक जीव बंधनों से आबद्ध है। बंधन ही दुःख का मूल अंतर में पीड़ा होती है। मृत्यु तो दोनों जगह समान है, पर पड़ौसी के कारण है। कार्य कारण सिद्धांत के अनुसार हर कार्य का कोई-न-कोई साथ रागात्मक संबंध जुड़े हुए नहीं हैं इसलिए मृत्यु दुःख नहीं देती, पर कारण अवश्य होता है वैसे ही बंधनों का भी कोई-न-कोई आधार परिवार में अनरक्ति होने के कारण किसी की भी मत्य हमारे शोक का अवश्य है। सभी धर्म-दर्शनों में बंधनों के अलग-अलग कारण बताए। कारण बन जाती है।" गए हैं। सांख्य दर्शन में अविवेक को बंधन का कारण माना गया है तो श्री चन्द्रप्रभ आसक्त व्यक्ति की मनोदशा का चित्रण करते हुए योग दर्शन में अविद्या को। न्याय-वैशेषिक और वेदान्त में अज्ञान को कहते हैं, "व्यक्ति सोचता है कि मैं इस माया-संसार का और अधिक बंधन का आधार स्वीकार किया गया है तो बौद्ध दर्शन में तृष्णा और जैन रस और अधिक स्वाद लूँ, एक और फैक्ट्री लगाऊँ, और ज़्यादा धन दर्शन में मिथ्यात्व तथा राग-द्वेष को बंधन का कारण माना गया है। श्री कमाऊँ, और अधिक सुंदर पत्नी की तलाश करूँ, इस तरह वह जहाँ है चन्द्रप्रभ बंधनों से छुटकारा पाने के लिए बंधनों का बोध होना उसे तृप्ति नहीं मिलती। वह कुछ और पाना चाहता है, कहीं और होना अपरिहार्य बताते हैं। वे कहते हैं,"मनुष्य तब तक दुःखी रहेगा, जब चाहता है इसी का नाम आसक्ति है।"आसक्त व्यक्ति अगर प्रभु की तक बंधन उसे घेरे रहेंगे और बंधनों से वह तब तक घिरा रहेगा, जब आराधना भी करता है तो उसमें भी राग मूलक प्रार्थनाएँ ही प्रकट करता तक वह ख़ुद उन बंधनों से बाहर निकलने की मानसिकता नहीं है। इस संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "व्यक्ति प्रभु-आराधना में बनाएगा। बंधन को बंधन रूप में जान लेना ही बंधनों से मुक्ति का वैराग्य और वीतरागता की प्रार्थना करता है लेकिन उसका व्यावहारिक प्रथम सूत्र है।" जीवन राग के अनुबंधों से ही घिरा हुआ है। परमात्मा के मंदिर में जाकर श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में 'मूर्छा' को बंधन का मुख्य कारण कहा भी लोगों के द्वारा राग से जुड़ी प्रार्थना ही होती है, परिणामस्वरूप मंदिर गया है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "मूच्छी मे होना हा बधन है।" उन्होंने जाना भी बाजार में घूमने जैसा हो जाता है। ईश्वर से दिव्य प्रेम और ज्ञान अनैतिक कार्यों के पीछे भी मूर्छा की स्थिति को उत्तरदायी माना है। की रश्मि चाहने वाला तो कोई-कोई ही होता है।" श्री चन्द्रप्रभ ने उनका मानना है कि मूर्छा के कारण ही मनुष्य सैकड़ों पाप करता है, अनासक्त व्यक्ति की स्थिति का विवेचन करते हुए लिखा है, "वह घर मूर्छा के कारण ही वह स्वार्थ से घिरा रहता है। मूर्छा के कारण ही में रहते हुए भी निर्लिप्त जीवन जीता है, कर्त्तव्यों का पालन करते हुए व्यक्ति सारे छल-प्रपंच, मिलावट, रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार इत्यादि हर कर्त्तव्य-कर्त्ताभाव से मुक्त रहता है। वह अंतर्द्वन्द्व से बचा रहता है। करता है। मूर्छा को आसक्ति भी कहा जाता है। श्री चन्द्रप्रभ ने द्वन्द्व से उपजे तनाव, अस्वास्थ्य, बीमारी, रक्तचाप उस पर हावी नहीं आसक्ति को संसार का कारण व मुक्ति में बाधक माना है। वे कहते हैं, होते।वह मन में शांति व निरपेक्षता का अनुभव करता है।" "आसक्ति संसार का पथ है और अनासक्ति निर्वाण का। जहाँ श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में आसक्तियों के अनेक रूपों का उल्लेख आसक्ति मूर्छा और मृत्यु की ओर ले जाती है वहीं अनासक्ति आत्म- प्राप्त होता है। आसक्तियों के विभेदों के संदर्भ में उनका कहना है, तामा जागरूकता और मुक्ति की ओर बढ़ाती है।"इस तरह आसक्ति में ही “आसक्तियों के सौ रूप हैं । जहाँ भी जुड़े, जो भी चीज़ मन पर हावी आसक्तियों के सौ रूप हैं।ज संसार और अनासक्ति में ही निर्वाण छिपा हुआ है। प्रायः धर्मशास्त्रों ने तालियेपनलिन तटन जगी जिसका वियोग होने संबोधि टाइम्स > 93 For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर मन की शांति-विश्रांति खंडित हुई वह चीज़ आसक्ति के अंतर्गत विस्मरण करें। आती है।" इस तरह व्यक्ति के अन्तर्मन में शरीर, विचार, वस्तुओं, 15. एकत्व बोध को गहरा करें। भोग-परिभोग, संबंधों एवं ममत्व भाव आदि की अनेक आसक्तियाँ इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने बंधन के साथ मुक्ति-बोध का सरल मार्ग पलती रहती हैं। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में बंधनों से मुक्त होने के लिए प्रस्तुत किया है। इस विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि मुक्ति पाने के लिए आसक्ति से अनासक्ति की ओर बढ़ने व अनासक्ति को साधने की मुक्ति से पहले बंधनों की समझ अनिवार्य है। श्री चन्द्रप्रभ ने बंधनों के मुख्य रूप से प्रेरणा दी गई है। श्री चन्द्रप्रभ ने आसक्ति विजय के लिए मूल में मूर्छा-आसक्ति को रखा है साथ ही उससे उपरत होने के उपाय निम्न सूत्र प्रदान किए हैं - भी बताए हैं। उन्होंने संसार को बंधन मानने की धारणा का खंडन कर 1. भोजन की आसक्ति से उपरत होने के लिए भोजन के परिणाम नया मार्ग प्रशस्त किया है। उन्होंने संन्यास से पूर्व गृहस्थ संत बनने की अर्थात् मल-मूत्र पर ध्यान दें। प्रेरणा देकर व्यक्ति को मुक्ति की नई भूमिका तैयार करने की कला 2. कपड़ों की आसक्ति से उपरत होने के लिए एक ही रंग के सिखाई है। उनका आसक्ति-अनासक्ति से जुड़ा विवेचन साधकों के कपड़ों का उपयोग करें व नया कपड़ा खरीदने से पहले पुराने कपड़े का लिए उपयोगी है। एक तरह से श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन भारतीय धर्मदान कर दें। दर्शनों के मूल लक्ष्य को साधने में महत्त्वपूर्ण कडी बनकर उभरने में 3.घर की छतों पर कचरा, कूड़ा-करकट न रखें। सफल हुआ है। 4.किसी भी भवन या भूखंड के प्रति अनुरक्ति न बनाएँ। आत्म-दर्शन व आत्म-विकास की भूमिकाएँ 5. ईंट, चूना, पत्थर से निर्मित जड़ मकान में चेतना का आसक्त होना मिथ्यात्म है। इसलिए हम मकान को मकान मानें उसके साथ संसार के सभी महापुरुषों एवं धर्म-दर्शनों का संदेश है कि हर ममत्त्व भाव न जोड़ें। व्यक्ति परमात्म-चेतना को उपलब्ध हो, पर इस हेतु अंतर्दृष्टि का 6. रात में खाने से बचें एवं दिन में पाँच बार से ज़्यादा मुँह जठान सम्यक् होना आवश्यक है। भगवान बुद्ध ने आष्टांगिक आर्य मार्ग में करें। 'सम्यक् दृष्टि' को पहला मार्ग कहा है। जैन दर्शन में 'सम्यक दर्शन' 7. मौनपूर्वक भोजन करें, भोजन से जुड़ी किसी भी तरह की को मोक्षमार्ग का मूल कहा गया है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं,"अंतर्दृष्टि प्रतिक्रिया न करें, भूख से दो कौर कम खाएँ। सम्यक् है तो व्यक्ति गृहस्थ में रहकर भी परमात्म-तत्त्वों को साध ___8. पच्चीस पौशाक से ज़्यादा कपड़ों का संग्रह न करें। सकता है, अन्यथा संन्यास भी संसार का कारण बन सकता है।" 9. सहज-नैसर्गिक जीवन जिएँ, सौन्दर्य प्रसाधन, भड़कीले वस्त्र इसलिए साधना के मार्ग पर व्यक्ति का स्वयं के प्रति सजग होना ज़रूरी है। साधना के मार्ग में आत्म-विकास की अनेक श्रेणियों का विवेचन एवं साज-सज्जा के उपयोग से बचें। ___इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने आसक्ति से उपरत होने के लिए सरल एवं हुआ है। जैन दर्शन में इसे 'गुणस्थान' भी कहा जाता है। भगवान व्यावहारिक उपायों का मार्गदर्शन दिया है। साथ ही उन्होंने बंधनों से महावीर ने चौदह गुणस्थान माने हैं। जो निम्न हैं - मिथ्यात्व, सासादन, मुक्त होने के लिए एवं मुक्ति तत्त्व को साधने के लिए निम्न बिन्दुओं । मिश्र, अविरत सम्यवृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म साम्पराय, उपशांत मोह, क्षीणमोह, को जीवन से जोड़ने की प्रेरणा दी है - सयोगी केवली जिन व अयोगी केवली जिन। 1.ध्यान योग का मार्ग अपनाएँ। 2.वैर और उपेक्षा की बजाय क्षमा व प्रेम को बढ़ाएँ। श्री चन्द्रप्रभ ने गुणस्थान को आत्म-विकास की भूमिकाएँ कहा है। आत्मा की तीन स्थितियाँ हैं - बहिरात्मा, अंतरात्मा व परमात्मा। श्री 3.स्वयं को सदा प्रसन्न रखें। चन्द्रप्रभ ने पहले दो गुणस्थानों को बहिरात्मा, अंतिम दो गुण स्थानों को 4.मन की बजाय बुद्धि के अनुसार काम करें। 5.दिन में दो घंटे मौन रखने को जीवन का अंग बनाएँ। परमात्मा व शेष गुणस्थानों को अंतरात्मा के अंतर्गत माना है। बहिरात्मा की पहली भूमिका है : मिथ्यात्व यह जीव की निम्नतम एवं 6.सजगता व निर्लिप्तता से हर कार्य संपादित करें। तमोगुण प्रधान अवस्था है। श्री चन्द्रप्रभ ने जीव के बंधन का मुख्य 7. हर व्यक्ति, हर परिस्थिति के प्रति समदर्शी रहने की कोशिश कारण मिथ्यात्व को माना है। उनके अनुसार मिथ्यात्व यानी मूर्छा करें। अर्थात् जीव की असत्य अवस्था जैसा है। उसे वैसा न देखना मिथ्यात्व 8. हस्तक्षेप से मुक्त रहें, तटस्थ बनें। है। सच को सच न मानना और झूठ को झूठ न मानना मिथ्यात्व है 9.क्रिया से अक्रिया की ओर गति करें। अर्थात् सत्य के प्रति असत्य-बुद्धि और असत्य के प्रति सत्य-बुद्धि इस 10. मन के आकर्षण-विकर्षण से स्वयं को मुक्त करें। विपरीत बुद्धि का नाम मिथ्यात्व है। पतंजलि के अनुसार, अनित्य में 11. बाहरी वस्तुओं को स्वीकार करने के साथ त्याग करने के भाव नित्य अपवित्र में पवित्र दख में सख और अनाम में आत्मा की से भी स्वयं को उपरत करें। धारणा ही अविद्या है। इस प्रकार मिथ्यात्व को अन्य धर्म-दर्शनों में 12. सबके साथ रहें, पर चित्त से प्रतिक्रिया शून्य होकर साक्षी अविवेक. अज्ञान, तष्णा. अविद्या. राग-द्वेष और माया कहकर चेतना में स्थित रहें। विवेचित किया गया है। श्री चन्द्रप्रभ ने एकांगी ज्ञान, भ्रम, संशय, 13.अतीत-भविष्य की बजाय वर्तमान को मुक्ति-मोक्ष का पर्याय रूढिज्ञान को भी मिथ्यात्व के अंग माने हैं। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में बनाएँ। मिथ्यात्वी जीव की निम्न मान्यताओं का उल्लेख हुआ है14. किताबी ज्ञान, मत-मतान्तर, भ्रम-संशय और आग्रह का 1. मिथ्यात्वी को धर्म अरुचिकर लगता है जैसे ज्वरग्रस्त व्यक्ति Ja94संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को मिठाई। मानी है, वे कहते हैं, "अप्रमाद यानी आत्म-जागरण। हर क्रिया2. वह शरीर व आत्मा को अभिन्न मानता है। गतिविधि के प्रति भीतर में जागृति । अंतरात्मा की इसी स्थिति से मुक्ति 3. येन-केन-प्रकारेण वह खाओ, पीओ, मौज़ उड़ाओ का जीवन की असली शुरुआत होती है।" भगवान बुद्ध ने भी अप्रमाद को अमृत जीता है। का पथ बताया है। 4. उसे केवल अपना स्वार्थ दिखता है। __अंतरात्मा की छठी स्थिति है : अपूर्वकरण। श्री चन्द्रप्रभ के इस प्रकार मिथ्यात्वी जीव देह-प्रधान जीवन जीता है। बहिरात्मा अनुसार, "चेतना की वह स्थिति जो कि पहले कभी न आ पाई, उसे की दूसरी भूमिका है : सासादन। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "सासादन की अपूर्वकरण कहते हैं, इस स्थिति में व्यक्ति को आत्मा, परमात्मा, अवस्था में सत्य और असत्य का विवेक तो रहता है, पर असत्य नहीं समाधि जैसे तत्त्वों का प्रत्यक्ष अनुभव होता है।" अंतरात्मा की सातवीं छूटता।" जैसे व्यक्ति ने जान लिया क्रोध करना बुरा है, काम-वासना स्थिति अनिवृत्तिकरण को श्री चन्द्रप्रभ ने समदर्शिता कहा है और जीवन का एक रोग है, दुर्व्यसन त्याज्य है फिर भी वह उनको छोड़ नहीं आठवीं स्थिति सूक्ष्म साम्पराय को सूक्ष्म कषाय युक्त अवस्था माना है। पाता। दुर्योधन ने महाभारत में कहा था, "मैं धर्म को जानता हूँ, पर नवी अवस्था है : उपशांत कषाय अर्थात् दमित सूक्ष्म वृत्तियों का उदय उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती। मैं अधर्म को भी जानता हूँ, पर मुझसे वह होना। श्री चन्द्रप्रभ ने इस अवस्था में सावधान रहने व वृत्तियों का दमन छोड़ा नहीं जाता।" ऐसी ढुलमुल अवस्था ही सासादन है। आत्म- न करने की प्रेरणा दी है। दसवीं स्थिति में कषायों का क्षय हो जाता है। विकास हेतु बहिरात्मपन का त्याग करना ज़रूरी है। श्री चन्द्रप्रभ श्री चन्द्रप्रभ ने इसे ध्यान की उच्चतम अवस्था माना है। अंतिम दो मिथ्यात्व से मुक्त होने को आत्म-विकास का पहला आयाम मानते हैं। सयोगी केवली जिन और अयोगी केवली जिन परमात्मा की दो अंतरात्मा की पहली स्थिति है : मिश्र। इसमें व्यक्ति सत्य- स्थितियाँ हैं। श्री चन्द्रप्रभ के अनुसार, सयोगी केवली जिन जीवनअसत्य, सही-ग़लत, धर्म-अधर्म, त्याग-भोग दोनों को सही मानकर मुक्ति की और अयोगी केवली जिन देह-मुक्ति की अवस्था है। जीवन से जोड़े रखता है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "मिश्र स्थिति का श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में आत्म-विकास की भूमिकाओं का व्यक्ति धर्म करता है, पर निजी जिंदगी में ऐशो-आराम को नहीं विश्लेषण कर स्वयं का मूल्यांकन करने की प्रेरणा दी गई है। वे कहते छोड़ता। मंदिर तो जाता है, पर दुकान पर मिलावट कर लेता है। दान हैं, "व्यक्ति कुछ समय अपनी आत्म-अवस्था का चिंतन-मनन करे देता है, पर ग़लत तरीके से धन संग्रह करने का त्याग नहीं करता, कि मुझे अपने आत्मविकास और आत्मकल्याण के लिए क्या करना अर्थात् व्यक्ति धर्म-कर्म के साथ नैतिक नियमों का पालन नहीं करता है? मेरे जीवन में वह अपूर्व अवसर कब आएगा जब मैं बाहर और है।" उनके अनुसार वर्तमान में मिश्र प्रकृति के लोग ज़्यादा हो गए हैं। भीतर दोनों ओर से निर्मल हो पाऊँगा। अगर व्यक्ति आत्म-जागृति के अंतरात्मा की दूसरी स्थिति है : अविरत सम्यक्दृष्टि। इस अवस्था में साथ आगे बढ़ेगा तो स्वस्ति-मुक्ति स्वत: घटित होगी।" इस विवेचन व्यक्ति सत्य को सत्य के रूप में स्वीकार करता है, पर असत्य से विरत से स्पष्ट है कि आत्म-विकास की भूमिकाओं से व्यक्ति स्वयं की नहीं हो पाता। श्री चन्द्रप्रभ ने सम्यक् दर्शन को साधना का प्रस्थान-बिंदु आत्म-स्थिति का सरलता से मूल्यांकन कर सकता है। वर्तमान इंसान व मुक्ति का आधार माना है। वे कहते हैं, "सम्यक्त्व का अर्थ है - जो कि मिथ्यात्व और मिश्र जैसी स्थितियों में उलझा हुआ है उसे आगे सम्यक बोधि जिसे पाने के बाद व्यक्ति को हंस-दृष्टि उपलब्ध हो बढाने में यह विवेचन उपयोगी है। श्री चन्द्रप्रभ ने गुणस्थान अनुक्रम जाती है। वह जड़-चेतन, पुण्य-पाप, संवर-आश्रव और मुक्ति-बंधन का बोधगम्य विश्लेषण कर आत्म-विकास के मार्ग में महत्त्वपूर्ण में अंतर करने में समर्थ हो जाता है।" श्री चन्द्रप्रभ ने सम्यक् दृष्टि भूमिका निभाई है। व्यक्ति के आठ गुण बताए हैं - संदेहरहितता, संसार से तृप्ति, घृणा न आत्म-दर्शन वचित्तवृत्तियाँ करना, दोषों को न छिपाना, विवेक युक्त जीवन, आत्मस्थिरता, सबसे प्रेम और प्रभावी जीवन । उन्होंने मुक्ति का मनोविज्ञान' नामक पुस्तक चित्त की वृत्तियों पर विजय प्राप्त करना आध्यात्मिक जीवन का में इन गुणों का विस्तार से विवेचन किया है। इस प्रकार यह स्थिति प्रथम उद्देश्य है। वर्तमान में शारीरिक स्वास्थ्य पर ही बल दिया जा रहा साधना-मार्ग के लिए महत्त्वपूर्ण है। है, पर जीवन-शुद्धि के लिए शरीर के साथ चित्त की स्वस्थता भी अंतरात्मा की तीसरी स्थिति है: देश विरत । देश अर्थात् आंशिक __ अनिवार्य है। श्री चन्द्रप्रभ ने चित्त-शुद्धि पर सर्वाधिक ज़ोर दिया है। और विरत अर्थात् अनासक्ति या त्याग। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "व्यक्ति उन्होंने संसार के दो रूपों का विवेचन किया है - चित्त का संसार और इस स्थिति में पहुँचकर संयमित हो जाता है और संग्रह का, पहनने का, चित्त के बाहर का दृश्य संसार। उन्होंने चित्त के संसार को बाहर के खाने का, बोलने का और भोग-उपभोग का नियम ले लेता है।" संसार से अधिक सूक्ष्म एवं विस्तृत बताया है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, भगवान महावीर ने इस स्थिति तक पहुँचे व्यक्ति को परिभाषित भाषा में "अंतर्मन के घेरे में क्या नहीं है? पत्नी और बच्चों का राग है, भाई'श्रावक' कहा है जिसके लिए अहिंसा आदि पाँच अणुव्रत और दान व बाहन बहिन-परिवार का अनुराग है, मेरे-तेरे का संत्रास है, सुख-भोग की पूजा धारण करना अनिवार्य बताया है। अंतरात्मा की चौथी स्थिति है : आसक्ति है, व्यक्ति और मत-मतांध का आग्रह है। मन के इस संसार प्रमत्त विरत अर्थात् जो त्यागी तो है, पर प्रमाद से मुक्त नहीं हो पाया है। का समझकर एव इसस मुक्त होकर हा व्याक्त वास्तावक आनद का पा इस स्थिति के संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ का कहना है : बाहर से त्याग हो सकता है।" इस प्रकार स्वास्थ्य, शांति एवं मुक्ति हेतु चित्त का गया संत बन गए पर भीतर में नाम पट अर्थ आदि की मर्जी जारी अन्तर्बोध आवश्यक है। श्री चन्द्रप्रभ की दृष्टि में, "चित्त को पहचानना है। अंतरात्मा की पाँचवीं स्थिति है : अप्रमत्त विरत अर्थात प्रमाद रहित मुक्ति की और उठा पहला सार्थक क़दम है।" उनके अनुसार, "चित्त स्थिति। श्री चन्द्रप्रभ ने साधना की वास्तविक शरुआत इस स्थिति से हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। यह मस्तिष्क का एक हिस्सा है. संबोधि टाइम्स-95 For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क की ऊर्जा है । चित्त मस्तिष्क में और मस्तिष्क काया में रहता है। इस तरह चित्त काया का हिस्सा है और चेतना हमारी काया को ऊर्जा देती है। अतः चित्त, चेतना, काया परस्पर सहयोगी तत्त्व हैं। " व्यक्ति की जैसी चित्तवृत्तियाँ होती हैं वैसे ही उसके विचार व वैसा ही उसका आभामंडल होता है। वृत्ति चाहे अच्छी हो या बुरी, दोनों का जन्मस्थान एक ही होता है, इसलिए व्यक्ति चाहे तो चित्त वृत्तियों को रूपांतरित कर सकता है। श्री चन्द्रप्रभ का दृष्टिकोण हैं, "अंतर्मन के जिस धरातल से क्रोध पनपता है वहीं से प्रेम का भी उदय होता है। जहाँ से हिंसा आती है वहीं से करुणा भी बहती है। अगर क्रोध सुधर जाए तो प्रेम का अमृत रसधार बन जाता है। हिंसा जब अपना रास्ता बदल लेती है, तो वही करुणा बनकर दुनिया का कल्याण करने लगती है। वृत्तियों का यह रूपांतरण जीवन-विष का अमृत में रूपांतरण है।" इस तरह अच्छी चित्तवृत्ति जहाँ मुक्ति का कारण बनती है दूषित चित्तवृत्ति बंधन का निमित्त बन जाती है। श्री चन्द्रप्रभ ने प्रवृत्ति-शुद्धि से पूर्व वृत्ति-शुद्धि पर जोर दिया है। उन्होंने 'आध्यात्मिक विकास' पुस्तक में वृत्ति प्रवृत्ति का विस्तृत विश्लेषण किया है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "मैं निर्वृत्ति में विश्वास रखता हूँ, निर्प्रवृत्ति में नहीं । प्रवृत्ति घातक नहीं होती । प्रवृत्ति कृत्य है । प्रवृत्ति बुरी होते हुए भी वृत्ति अच्छी हो सकती है और प्रवृत्ति अच्छी होते हुए भी वृत्ति बुरी हो सकती है इसलिए प्रवृत्ति की बुराई को हटाने से पहले वृत्ति में रहने वाली बुराई को दूर करें।" गीता भी कर्म की बजाय कर्मफल का त्याग करने की प्रेरणा देती है। योग दर्शन भी चित्तवृत्तियों के निरोध की बात कहता है। प्रश्न चाहे रोग का हो या भोग का अथवा योग का श्री चन्द्रप्रभ ने सबके पीछे आधारभूत कारण वृत्तिसंस्कारों से भरे मन व चित्त को माना है। वे कहते हैं, "मन के धर्मों पर विजय प्राप्त कर लेना ही योग है, मन के धर्मों के आगे परास्त होना ही भोग है। वहीं देह और मन के धर्मों का पुनः पुनः पोषण करते रहना, उनकी दासता स्वीकार कर लेना ही रोग है।" श्री चन्द्रप्रभ ने विपर्यय, विकल्प, स्वप्न, मूर्च्छा, स्मृति को अशुभ वृत्तियों के अंतर्गत रखा है। और वृत्तिबोध हेतु प्रत्यक्ष-अनुमान प्रमाण एवं सद्गुरु के वचनों को सहयोगी माना गया है। श्री चन्द्रप्रभ ध्यान-साधना में तीर्थ, भगवान या देवी-देवता की मूर्ति के दर्शन होने को अक्लिष्ट विकल्प वृत्ति के अंतर्गत रखते हुए गुरु, ग्रंथ और मूर्ति से भी पार पहुँचने की प्रेरणा देते हैं। वे त्याग करने और संन्यास लेने से भी अधिक वृत्तियों की निरर्थकता का बोध करने पर ज़ोर देते हैं। वे कहते हैं, "वृत्तियों से मुक्त होने के लिए वनवास आवश्यक नहीं है, वृत्तियों की निरर्थकता का बोध उपादेय है। व्यक्ति श्रमण बनने से पहले सच्चा श्रावक बने, अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि संन्यास लेने के बाद भी वह संसार के सपने देखता रहे।" "त्याग" के संदर्भ में उनका दृष्टिकोण है, "त्याग प्रवृत्ति है, उपभोग भी प्रवृत्ति है, किंतु उसकी पकड़ वृत्ति है इसलिए त्याग अच्छा है, किंतु त्याग की स्मृति को सँजोना त्याग की अच्छाई से सौ गुना बुरा है।" उनके मत में स्त्री को पतन का कारण मानना अन्यायपूर्ण है। उनकी दृष्टि में, "मन में पलने वाली कुंठित, दमित वृत्तियाँ और विकार ही व्यक्ति के पतन के मुख्य कारण हैं । " श्री चन्द्रप्रभ ने 'उड़िये पंख पसार' नामक पुस्तक में चित्तवृत्तियों के अंतर्गत भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित षट्लेश्या व हठयोग में • संबोधि टाइम्स __96 संबधि टाइ वर्णित षट्चक्र के सिद्धांतों का एक-दूसरे के पूरक के रूप में विस्तृत विवेचन किया है। उन्होंने चित्त की कषाययुक्त वृत्ति को लेश्या कहा है। जो शुभ-अशुभ दोनों होती हैं, पर विवेकबोध द्वारा अशुभ लेश्या को शुभ लेश्या में रूपांतरित किया जा सकता है। श्री चन्द्रप्रभ ने समाधि आत्मज्ञान, आत्मबोध, आत्मसर्वज्ञता, निर्मल विचार, पवित्र आभामण्डल, लेश्या शुद्धि, सुखी पारिवारिक संबंध, अंतर्द्वन्द्व से मुक्ति एवं मानवीय मूल्यों के संवर्द्धन हेतु चित्तशुद्धि की अनिवार्यता पर बल दिया गया है। वे आध्यात्मिक और व्यावहारिक दोनों दृष्टि से चित्त शुद्धि को उपयोगी मानते हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने चित्त-शुद्धि एवं चित्त से मुक्ति हेतु निम्न प्रेरणाएँ दी हैं1. समझ व बोध को गहरा करें। - 2. अभ्यास एवं वैराग्य को बढ़ाएँ। 3. अनित्य को अनित्य व नित्य को नित्य रूप जानें। 4. सजगता, सहजता व निर्लिसता को अपनाएँ। 5. ध्यान में उठने वाले विचार विकल्पों को जागरूकतापूर्वक देखें। 6. स्वप्न - दशा के प्रति सजग रहें । 7. यम-नियम-संयम को आचरण से जोड़ें। 8. सबके प्रति उदार दृष्टि लाएँ। 9. शरीर व उसके गुणधर्म, चित्त व चित्त के गुणधर्मों की निरंतर विपश्यना करें। 10. 'जियो और जीने दो' का मंत्र अपनाएँ। 11. परार्थ व परमार्थ मुखी जीवन जीएँ । 12. साक्षी - ध्यान का अभ्यास करें। 13. सुबह-शाम किताब के खाली पन्नों का स्वाध्याय करें। 14. संकल्प शक्ति को मजबूत कर मन को सही दिशा में नियोजित करें। इस विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि चित्त-शुद्धि जीवन-शुद्धि का अपरिहार्य चरण है। श्री चन्द्रप्रभ मानते हैं, "मन की वृत्तियों पर विजय पाना कठिन है, पर असंभव नहीं। मन के गुलाम होकर जीने की बजाय मन की वृत्तियों पर अंकुश रखना अधिक श्रेष्ठ है । " चित्त-शुद्धि से जीवन को आध्यात्मिक विकास के नए आयाम दिए जा सकते हैं । संन्यास और त्याग से भी पूर्व चित्त शुद्धि का समर्थन करके श्री चन्द्रप्रभ ने धार्मिक-आध्यात्मिक जगत को नई दिशा दी है। एक तरह से श्री चन्द्रप्रभ का संपूर्ण आत्म-दर्शन मनोशुद्धि, चित्तशुद्धि व इससे भी अंतत: ऊपर उठने की प्रेरणा पर केन्द्रित है । आत्म-दर्शन व द्रष्टा भाव जीवन और जगत में प्रतिदिन अनेक अच्छी-बुरी घटनाएँ घटित होती रहती हैं। ज्यों-ज्यों व्यक्ति इन घटनाओं को गहराई से देखता है और मनन करता है, उसकी अंतर्दृष्टि उतनी ही आध्यात्मिक होती चली जाती है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "पहले मैं बहुत किताबें पढ़ता था, पर वे सब किताबें हमारे द्वारा लिखी गई हैं। यद्यपि मैंने दुनिया की महानतम किताबों से बहुत कुछ पाया है, पर जितना जगत को पढ़कर पाया उतना अन्य किसी किताब से नहीं।" अर्थात् जीवन और जगत अपने आप में शास्त्र का काम करते हैं। महावीर और बुद्ध जैसे महापुरुष भी जगत की घटनाओं को देखकर वैराग्य वासित हुए थे। महावीर और बुद्ध दोनों ने दर्शन पर ज़ोर दिया है। दर्शन का अर्थ है For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखना और द्रष्टा भाव का अर्थ है अंतर्दृष्टिपूर्वक देखना, तटस्थ भाव से आचार्य कुंदकुंद ने 'समयसार' में कर्ता मुक्त आत्मा को ज्ञानी देखना। द्रष्टाभाव से देखने पर वस्तुओं के अनेक रहस्य उद्घाटित होते कहा है। श्री चन्द्रप्रभ का मानना है, "जब व्यक्ति करने वाला 'मैं हूँ' हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने साधना के तीन चरण माने हैं - समर्पण, चेतना में की बजाय 'मेरे द्वारा हो रहा है' का भाव लाता है तो कर्ताभाव स्वतः स्फुलिंगों का प्रकटीकरण और साक्षीत्व का बोध । श्री चन्द्रप्रभ की दृष्टि शिथिल हो जाता है।" इस तरह कर्ताभाव मुक्ति पाने में महत्त्वपूर्ण में,"भीतर की आँखों से सजगतापूर्वक, ध्यानपूर्वक देखना ही साक्षीत्व भूमिका निभाता है। श्री चन्द्रप्रभ ने साक्षीत्व की साधना व द्रष्टाभाव का है। जब साक्षित्व घटित होता है, तब व्यक्ति को शरीर से, मन से, विकास करने के लिए निम्न सूत्रों को आत्मसात करने की प्रेरणा दी है - विचारों से अलग होकर हर चीज़ को सिर्फ देखना होता है।" उन्होंने 1.संबोधि ध्यान के प्रयोग करें। द्रष्टाभाव को अध्यात्म की बुनियाद, आत्म-भावना का जनक और 2. आकाश को देखें। भेद-विज्ञान का सूत्रधार माना है। मन का काम है संकल्प-विकल्प 3. बाहरी घटनाओं का सूक्ष्मता से विश्लेषण करें। करना और अध्यात्म का उद्देश्य है संकल्प-विकल्पों से ऊपर उठना। 4. हृदयवान होकर जीवन जीएँ। इस उद्देश्य हेतु द्रष्टाभाव सहयोगी है। भाषा-विज्ञान में भाषा के चार इस विवेचन से स्पष्ट है कि द्रष्टाभाव अध्यात्म की साधना है। चरण स्वीकार किए गए हैं - बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा। द्रष्टाभाव से व्यक्ति भीतरी व बाहरी सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव करता है। द्रष्टाभाव का संबंध पश्यन्ति से है। जो हमें परा' अर्थात् महाशून्य की, द्रष्टाभाव से शारीरिक-मानसिक-भावनात्मक आघातों से उपरत होना परम चैतन्य की स्थिति से साक्षात्कार करवाता है। संभव है। द्रष्टाभाव की साधना से व्यक्ति सहज ही निर्ग्रन्थता, समता, अष्टावक्र गीता में अष्टावक ने जनक को पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु । कर्ताभाव-मुक्ति, वीतरागता जैसी स्थितियों की अनुभूति करने लगता और आकाश से स्वयं को भिन्न अर्थात् साक्षी रूप जानने की और दर्शक है। की बजाय द्रष्टा बनने की प्रेरणा दी है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "दर्शक आत्म-दर्शन व भेद-विज्ञान वह है जो स्वयं को देखता है। देखने वाले को देखना ही ध्यान है, उसे उपलब्ध होना ही मुक्ति है।" व्यक्ति भौतिक जगत में उलझा है, जीवन शरीर और आत्मा दोनों का मिलाप है। यों तो दोनों एकसांसारिक-पारिवारिक संबंधों को अपना मान बैठा है। व्यक्ति को दूसरे के आश्रित हैं । आश्रित इस रूप में कि आत्म-चेतना के कारण ही साक्षी भाव की गहराई में यह अनुभूति होने लगती है कि मैं देह से भिन्न शरीर मूर्त रूप लेता है और शरीर के माध्यम से ही आत्मा साकार होती हूँ, पंचभूतों से रहित हूँ फिर कैसे संबंध व किसके संबंध ! मैं तो मात्र है।शरीर जड़तत्त्व है और आत्मा चेतन-तत्त्व। जड़ और चेतन दोनों को संयोग भर हूँ। श्री चन्द्रप्रभ ने शरीर, विचार, विकार, वृत्ति, भाव और एक दूसरे से भिन्न देखना, भिन्न जानना ही भेद-विज्ञान है। सांख्य दर्शन अनुभवों का द्रष्टा बनने की प्रेरणा दी है। उन्होंने मुक्ति हेतु त्याग रूप में जीवन का आधार प्रकृति व पुरुष दो तत्त्वों को माना गया है। आत्मा बाह्य क्रियाकांडों में उलझने की बजाय द्रष्टा-भाव को अर्थात् 'मैं पुरुष है और शरीर प्रकृति। श्री चन्द्रप्रभ के अनुसार, "आत्मा और सबसे भिन्न हूँ' को गहरा करने की सीख दी है। द्रष्टा-भाव वीतरागता शरीर, पुरुष और प्रकृति - दोनों में अंतर समझ लेना ही भेद-विज्ञान की साधना में भी सहयोगी है। राग संसार है और विराग संन्यास। है।" जैसे सूर्य-किरण के झलके को जलस्रोत मान लेना और पेड़ की वीतराग राग-विराग दोनों से ही पार है। श्री चन्द्रप्रभ ने द्रष्टा-भाव को छाया को तलैया समझ लेना अज्ञान है, वैसे ही शरीर को आत्मा अथवा वीतराग होने का पहला चरण माना है। द्रष्टाभाव से तटस्थता व समता प्रकृति को पुरुष मान बैठना तृष्णा और मूर्छा है। श्री चन्द्रप्रभ की दृष्टि में अभिवृद्धि होने लगती है। गीता में समत्व को योग कहा है। श्री में,"भेद विज्ञान तृष्णा और मूर्छा का बोध है।" योग दर्शन ने प्रकृति चन्द्रप्रभ ने साधना का मूलभाव समता बताया है। वे कहते हैं, के गुणों में तृष्णा के सर्वथा समाप्त हो जाने को 'पर वैराग्य' कहा है। "आंतरिक विक्षेप, उत्तेजना व संवेदनाओं को शांत करने में भी इसी पर वैराग्य में स्व और पर की, जड़ और चेतना की, प्रकृति और समभाव उपयोगी है। समभाव के लिए जहाँ तटस्थता आवश्यक है पुरुष के भेद-विज्ञान की अनुभूति होती है। वहीं तटस्थता के लिए द्रष्टाभाव।" व्यक्ति के दुःख का मुख्य कारण सांसारिक संबंधों, पदार्थों एवं पतंजलि ने कहा है, "द्रष्टा स्व-स्वरूप में स्थित हो जाता है।" मानसिक संस्कारों को अपना मान बैठना है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, अर्थात् द्रष्टाभाव की साधना व्यक्ति को चित्त वृत्तियों से उपरत करवाती "आत्मा के अतिरिक्त जितने भी संबंध और संपर्क-सूत्र हैं वे सब-केहै और स्व-स्वरूप का बोध देती है। यहीं से आत्मबोध के अनुभव की सब विजातीय हैं। जिसे तुम अपना समझते हो, वे तो मात्र एक अमानत हैं। अपूर्व घटना प्रत्यक्ष होती है। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन है, "द्रष्टाभाव ही बेटा बहू की अमानत है, बेटी दामाद की अमानत है, शरीर श्मशान की आधार है ध्यान का। जो होना है, वह हो, हम मात्र द्रष्टा रहें - हर अमानत है और जिंदगी मृत्यु की अमानत है। अमानत को अमानत समझें स्थिति-परिस्थिति और कर्म के प्रति द्रष्टा-भाव की स्थिति निर्मित हो और मुक्त हो जाएँ।" उन्होंने आत्मा के अलावा 'मेरा और कोई नहीं, यह सके।" श्री चन्द्रप्रभ ने 'आध्यात्मिक विकास' पुस्तक में द्रष्टाभाव को शरीर भी नहीं', इस सूत्र को चैतन्य-बोध और भेद-विज्ञान का आधार कहा साधने के लिए साधना विधि का भी उल्लेख किया है। श्री चन्द्रप्रभ ने है। भेद-विज्ञान के बोध से व्यक्ति आसक्तियों में नहीं उलझता। उसे द्रष्टाभाव को कर्त्ताभाव से मुक्ति दिलाने में सहयोगी माना है। उनका आवश्यकता व आसक्ति का अंतर समझ में आ जाता है। श्री चन्द्रप्रभ दृष्टिकोण है, "जब तक द्रष्टाभाव नहीं आता हम लोग विचारों के कहते हैं, "रहने के लिए मकान बनाना आवश्यक है, पर मकान के प्रति धरातल पर चलते रहते हैं। द्रष्टाभाव के आते ही 'मैं' और 'मेरे' की आसक्ति अनुचित है। शरीर को चलाने के लिए भोजन आवश्यक है, पर आसक्ति बिखर जाती है और अनासक्ति के धरातल से कैवल्य का, भोजन के प्रति आसक्ति अनिवार्य नहीं है। पहनने के लिए कपड़े बुद्धत्व के कमल का बीज अंकुरित होने लगता है।" आवश्यक हैं, पर कपड़ों के प्रति राग करना आवश्यक नहीं है।" स्त्रीFor Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स »97 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुष का देह-आकर्षण व्यक्ति के भीतर कामेच्छा को जन्म देता है। यह लेना आत्मज्ञान कहलाता है। अध्यात्म की शुरुआत इसी आत्मज्ञान से कामेच्छा का अन्तर्द्वन्द्व व्यक्ति के मानसिक तनाव का कारण है। शरीर और होती है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "अध्यात्म की शुरुआत किताबों से आत्मा का भेद-विज्ञान व्यक्ति को इस अन्तर्द्वन्द्व से मुक्त करता है। श्री नहीं, व्यक्ति के अपने ही जीवन से, अपनी ही आत्मा से होती है।" चन्द्रप्रभ का मानना है, "स्त्री और पुरुष के शरीर में जो भेद देखता है उसकी उन्होंने शास्त्र पढ़ने से पहले स्वयं को पढ़ने की प्रेरणा दी है। उनकी वासनाएँ समाप्त नहीं होती। भेद मात्र आकार-प्रकार का है, शेष सब समान दृष्टि में, "अगर सारे शास्त्रों को पढ़ा, पर स्वयं के पठन से वंचित रह हैं।व्यक्ति जड़ से नहीं, चैतन्य से जुड़े, देह में आत्मवान होकर जिए।" गए, तो निर्ग्रन्थ नहीं हो पाएँगे।" वे आत्मा का अर्थ जीवन से जोड़ते श्री चन्द्रप्रभ के अनुसार भेद-विज्ञान की दृष्टि से देह में आत्मा हैं। उनके अनुसार, "आत्मा अर्थात् हम स्वयं, आत्मा अर्थात् मैं,आत्मा और भौतिकता में भगवान् को पहचानना संभव है। उन्होंने पंचभूतों में अर्थात् जीवन।" इस तरह आत्मज्ञान स्वयं का ज्ञान है, जीवन का निहित भगवान की व्याख्या करते हुए कहा है, "भगवान् का भ' भूमि अतबोध है । आत्मज्ञान की उपयोगिता के संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ ने कहा का वाचक है जो पंचभूतों का पहला रूप है, 'ग' अक्षर गगन का सूचक है, "आत्मज्ञान जीवन का सबसे बड़ा पुण्य है और आत्मअज्ञान ही है. 'वा' अक्षर से वाय का बोध होता है. 'न' अक्षर नीर से जड़ा है और सबसे बड़ा पाप है।" आत्मज्ञान व्यक्ति को अच्छे रास्ते पर चलने की न के नीचे हनन्त का चिहन अग्नि तत्त्व का बोधक है। पंचभूत स्थूल है प्रेरणा देता है वहीं आत्मअज्ञान के चलते व्यक्ति ग़लत रास्ते पर चला और 'भगवान्' स्थूल में निहित सूक्ष्म शक्ति है।" श्री चन्द्रप्रभ की यह जाता है इसीलिए भगवान महावीर ने आत्मा को ही मित्र और शत्रु मानते अंतर्दृष्टि अध्यात्म को नई देन है। श्री चन्द्रप्रभ ने भेद-विज्ञान हेतु हुए कहा था- अच्छे रास्तों पर ले जाने वाली आत्मा हमारा मित्र है और आध्यात्मिक विकास एवं न जन्म न मृत्यु नामक पुस्तकों में अलगाव ग़लत रास्तों पर ले जाने वाली आत्मा हमारी शत्र है।" बोध' की प्रक्रिया का विवेचन किया है। इस प्रक्रिया से शरीर से भिन्न दुनिया के अनेक धर्मों में अनेक देवताओं की पूजा की परम्परा है। आत्मा का बोध संभव है और जिसके द्वारा व्यक्ति शरीर को महसूस पर श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में आत्मा को सबसे बड़ा देव माना गया है। श्री होने वाले सुख-दुःख से मुक्त हो सकता है। चन्द्रप्रभ कहते हैं, "लोग ब्रह्मा की पूजा करते हैं, महावीर की पूजा अलगाव-बोध की प्रक्रिया के अंतर्गत श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं. करते हैं, बुद्ध-कृष्ण को पूजते हैं, जबकि आत्मा में सारे देव समाहित "क्रोध आए तो क्रोध को देखें और अनुभव करें कि क्रोध करने वाला हैं। मनुष्य की आत्मा ही सबका ब्रह्मा है। जो उसे जन्म देती है, वह मैं नहीं हैं। क्रोध क्षणिक है और मैं क्रोधी नहीं हैं। चोट लगने पर विष्णु भी है क्योंकि उसका पालन करती है और आत्मा ही उसका शिव अहसास करें चोट शरीर को लगी है और मैं शरीर से भिन्न हैं। भख है जो उसका उद्धार करती है इसीलिए हमारा आत्मदेव ही हमारा लगने पर भोजन करें और यह सोचें कि.मैं नहीं कर रहा हूँ, शरीर को महादेव है।" इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने आत्मा को जानने, जीतने और करा रहा हैं। वासना उठे तो जानें वासना शरीर की उपज है. मैं आराधना करने की प्रेरणा दी है। उनका मानना है, "जो अपने आपको वासनाग्रस्त नहीं हैं। हर कार्य इस स्मति के साथ करें कि यह सब मैं जान लेता है, वह सबको जान लिया करता है और जो अपने आप पर नहीं हैं। चलते समय बोलते समय भी स्वयं को साक्षीभर समझें। स्वप्न विजय प्राप्त कर लेता है, वह दूसरों पर भी विजय पाने का अधिकारी के प्रति भी जागरूक रहें। स्वप्न टूटने पर उसका सम्यक निरीक्षण करें हो जाता है।" व स्वयं को उससे भिन्न देखें। उन्होंने इस बोध को आत्मज्ञान, समाधि श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में परमात्मा पर विश्वास करने से पहले व तुर्यावस्था घटित करने में सहयोगी माना है।" स्वयं अष्टावक्र गीता आत्मा पर विश्वास करने की बात कही गई है और आस्तिकतामें भी आत्मबोध के लिए स्वयं को देह से पृथक् जान कर चैतन्य में नास्तिकता को भी आत्मश्रद्धा से जोड़ कर देखा गया है। श्री चन्द्रप्रभ विश्राम करने की प्रेरणा दी गई है। भगवान महावीर ने इसे कायोत्सर्ग कहते हैं, "मैं आपको अपने-आप पर विश्वास दिलाना चाहता हूँ। ध्यान कहा है। इस प्रकार व्यक्ति भेद-विज्ञान के बोध को सहजतया व्यक्ति का अपने पर विश्वास उठ गया है। परमात्मा का क्रम तो दूसरा साध सकता है। है, पहला विश्वास तो अपने-आप पर ही चाहिए। वस्तुत: आस्तिक श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में वैराग्य, वीतराग दशा. मोक्ष, निर्वाण.योग वही है जिसका खुद पर विश्वास है और जिसका अपने पर से ही में वर्णित चित्त की चौथी तर्या अवस्था, ध्यान-साधना. देहासक्ति से विश्वास उठ गया है वह नास्तिक है।"इस तरह उन्होंने आस्तिकता की मक्ति व देहाभिमान के त्याग हेत भेद-विज्ञान के बोध को आवश्यक नई व्याख्या कर व्यक्ति को स्वयं के निकट लाने की कोशिश की है। माना गया है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भेद-विज्ञान अध्यात्म श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में आत्म-ज्ञान के संदर्भ में पूर्वजन्म, पुनर्जन्म का आधार है। भेद-विज्ञान के बोध के बिना आसक्तियों से छुटकारा और पूर्णजन्म का भी विस्तार से विवेचन प्राप्त होता है। श्री चन्द्रप्रभ संभव नहीं है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "स्वयं को स्वीकार करना, स्वयं पूर्वजन्म और पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं। उन्होंने इसका मूल कारण में स्थित होना, स्वयं में विहार करना ही भेद-विज्ञान को जीने का मार्ग कर्मबंधन को माना है। वे आत्म-शुद्धि और आत्म-मुक्ति के लिए हर है।" उनके द्वारा भेद-विज्ञान को आत्मसात् करने के लिए दी गई तरह के कर्म-बंधन से छुटकारा आवश्यक मानते हैं। उनकी दृष्टि में, अलगाव-बोध की प्रक्रिया भी अध्यात्म जगत में उपयोगी है। "व्यक्ति द्वारा इस जन्म में लिए गए संकल्प, किये गए विकल्प, आत्म-दर्शन व आत्मज्ञान इच्छाएँ, बाँधे गए संस्कारों से नए कर्म बँधते हैं, जो पुनर्जन्म की पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। इस तरह पूर्वजन्म के कर्म जीव के पुनर्जन्म जीवन शरीर और आत्मा दोनों के संयोग का नाम है। शरीर भौतिक का कारण बनते हैं। उन्होंने पूवर्जन्म की स्मृति अवचेतन अथवा गूढमन तत्त्वों की संरचना है और आत्मा चैतन्य-ऊर्जा है। दोनों का परस्पर की परतों के उधड़ने से होना माना है। वे पूर्णजन्म का अभिप्राय एकत्व भी है और भिन्नत्व भी। शरीर से आत्मा की भिन्नता को जान कर्मबंधन से,जन्म-मृत्यु से मुक्ति बताते हैं।" इस प्रकार श्री चन्द्रप्रभ 1-98 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने कर्मबंधन और कर्म मुक्ति में पूर्वजन्म, पुनर्जन्म और पूर्णजन्म का रहस्य निहित माना है । श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में आत्मज्ञान की प्राप्ति के उपायों का विस्तार से विवेचन किया गया है, जिसमें से श्री चन्द्रप्रभ ने मुख्य रूप से हृदयवान होकर जीवन जीने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, "हृदयवान लोग ही आत्मा तक पहुँचते हैं, बुद्धिमान लोग उलझे हुए रह जाते हैं। हृदय एकमात्र मार्ग है आत्मा तक पहुँचने का, क्योंकि आत्मा हृदय है, भक्ति प्रेम और श्रद्धा का निवास मनुष्य के हृदय में ही होता है। हृदय मनुष्य का केन्द्र है, जीवन की धुरी है। हृदयवान होना आत्मवान होने की अनिवार्य शर्त है। बग़ैर हार्दिकता के मनुष्य, मनुष्य नहीं, वरन् मशीन है, मृत है। व्यक्ति हृदय में उतरे क्योंकि हृदय में ही अन्तर्यामी का वास है । " श्री चन्द्रप्रभ ने हृदयवान बनने के लिए अंत:करण की शुद्धि को आवश्यक माना है। उन्होंने अंत:करण की शुद्धि हेतु 'जागो मेरे पार्थ' पुस्तक में निम्न सूत्र प्रदान किए हैं 1. ध्यान-योग को अपनाएँ । 2. जीवन की हर गतिविधि संयमित हो । 3. प्रतिक्रिया व प्रतिशोध से बचें। 4. क्रोध, अहंकार, विकार की अभिव्यक्ति में विवेक-बोध बनाए रखें। 5. दुर्गुणों पर ध्यान देने की बजाय सद्गुणों को बढ़ाएँ । श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में इनके अतिरिक्त मृत्यु से मुलाकात और धर्म में प्रवेश नामक पुस्तकों में निम्न सूत्र जीवन से जोड़ने का मार्गदर्शन दिया गया है - 1. संन्यास या मुनित्व का आग्रह करने की बजाय आध्यात्मिक जिज्ञासा-भाव में अभिवृद्धि करें । 2. आत्म-तत्त्व को प्रधानता दें। 3. स्वयं को पढ़ें, मूल्यांकन करें व अन्तनिर्हित अवगुणों को पहचानें । 4. आत्मज्ञान की प्राप्ति के पाँच चरण अपनाएँ आत्म-तत्त्व के बारे में सत्संग सुनें, ग्रहण करें, विवेकपूर्वक चिंतन-मनन करें, उपलब्ध करें, प्रमुदित होवें । 5. जीवित और मृत दोनों को देखकर उनमें रहने वाली भिन्नता पर मनन करें। 6. जन्म, रोग, बुढ़ापा व मृत्यु के मर्म को समझें । 7. मैं कौन हैं, वर्तमान में मेरी चेतना कहाँ है? मैं मोह-मूच्छ के किस तिलिस्म में उलझा हैं जैसे प्रश्नों पर पुनः पुनः विचार करें। इस प्रकार श्री चन्द्रप्रभ ने आत्मज्ञान हेतु जीवनोपयोगी मार्गदर्शन प्रदान किया है। आत्मज्ञान प्राप्ति से क्या होगा? इसका समाधान देने के लिए श्री चन्द्रप्रभ ने आत्मज्ञान के परिणामों पर भी विस्तृत प्रकाश डाला है । वे इस प्रकार हैं 1. आत्म-ज्ञान की प्राप्ति होने पर सदा आनंद-दशा रहती है। 2. भीतर में पूर्ण शांति, पवित्रता एवं शुद्धता का अहसास होता है। 3. दोष-मुक्त दशा की अनुभूति होती है। 4. जीवन में फिर कोई पाप न होता है। 5. अनासक्ति का उदय हो जाता है। 6. व्यक्ति तन- मन- विचारों की प्रकृति से स्वयं को भिन्न देखता है। 7. सबके प्रति समदर्शिता आ जाती है । 8. स्व-स्वरूप पर आश्चर्य जैसा होता है। 9. व्यक्ति स्वर्ग-नरक, भय, बंध, मोक्ष से मुक्त हो जाता है। 10. वह प्राणीमात्र से निःस्वार्थ प्रेम करने लगता है। 11. पीड़ा में भी समतामयी दशा रहती है। 12. कर्त्ता - भाव से छुटकारा मिल जाता है। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि यद्यपि आत्मज्ञान की प्राप्ति कठिन है फिर भी इसे उपलब्ध किया जा सकता है। अगर आत्मज्ञानी पुरुष मिल जाए या भीतर से इसे पाने की प्यास जग जाए तो यह संभव हो सकता है। इस साध्य को साधने में श्री चन्द्रप्रभ का मार्गदर्शन वर्तमानोपयोगी है क्योंकि श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में 'आत्मज्ञान' का जीवन सापेक्ष विवेचन हुआ है। श्री चन्द्रप्रभ ने आत्मा का अर्थ, आत्मा का स्थान, आत्मज्ञान का महत्त्व, आत्मज्ञान की प्राप्ति के सूत्र, आत्मज्ञान की उपयोगिता आदि हर बिन्दु को छुआ है और उसे सरल भाषा में समझाने की कोशिश की है। उन्होंने आस्तिकता नास्तिकता की नई परिभाषाएँ देकर तत्त्व - दर्शन को समृद्ध किया है। वे आत्मज्ञान हेतु संन्यास की बजाय प्रगाढ़ आंतरिक जिज्ञासा भाव को महत्त्व देते हैं जो आम व्यक्ति के लिए ग्रहणीय है। इस प्रकार 'आत्मज्ञान' संबंधी यह विवेचन आत्मार्थियों के लिए दीप शिखा का काम करता है। आत्म-दर्शन व वीतरागता - हर प्राणी बंधनग्रस्त है। बंधन का कारण है : राग अनुराग राग को दूसरे शब्दों में आसक्ति कहा जाता है। आसक्ति के कारण ही जीव आत्मबोध के प्रकाश की ओर नहीं बढ़ पाता । शरीर, संबंध, इन्द्रियविषय, धन- जमीन आदि राग के प्रधान कारण हैं। राग कर्मबंधन का हेतु है और कर्म - बंधन जन्म-मरण का कारण। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में बंधनों से मुक्त होने के लिए वीतराग भाव दशा को जीने की प्रेरणा दी गई है। पतंजलि ने भी कहा है. "वीतराग को विषय बनाने से चित्त स्थिर हो जाता है।" श्री चन्द्रप्रभ के आत्म-दर्शन में चार शब्दों का मुख्यतया उल्लेख हुआ है राग, विराग, वीतराग और वीतद्वेष श्री चन्द्रप्रभ ने दूसरों से जुड़े रहने को राग कहा है। दूसरे शब्दों में; सुख प्राप्त करने की इच्छा अर्थात् व्यक्ति से, वस्तु से, निमित्त से, परिस्थिति से, जिससे भी सुख मिलता है, उसकी कामना का नाम राग है। श्री चन्द्रप्रभ के अनुसार, “दूसरों से संबंध तोड़ना विराग है। विराग राग से मुक्ति नहीं, बल्कि यह राग के विपरीत है।" उन्होंने वीतराग का अर्थ राग से ऊपर उठना अर्थात् राम मुक्ति माना है और वीतद्वेष का अर्थ द्वेष-रहित हो जाना बताया है। | सामान्य तौर पर राग और प्रेम को एक ही माना जाता है, पर श्री चन्द्रप्रभ ने राग और प्रेम को भिन्न माना है। उनके अनुसार, "एक से प्रेम करना राग है और सबके प्रति, सारी धरती के प्रति भाईचारे का भाव रखना प्रेम है।" राग के विपरीत शब्द है द्वेष श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं. "दुःख का अनुभव होने पर दूसरे के प्रति पैदा होने वाली घृणा, नफरत, आक्रोश ही द्वेष है।" राग और द्वेष दोनों ही जीवन के प्रबल शत्रु हैं इनके कारण ही व्यक्ति दुःखी होता है और संसार में परिभ्रमण करता है। राग-द्वेष दोनों परस्पर पूरक हैं। राग ही कभी द्वेष में और द्वेष ही कभी राग में बदलता है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में राग की अभिवृद्धि का कारण मूर्च्छा और लोभ को व द्वेष की अभिवृद्धि का कारण क्रोध और घमंड को माना गया संबोधि टाइम्स 9garg For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। श्री चन्द्रप्रभ ने राग से वीतराग और द्वेष से वीतद्वेष की ओर बढ़ने होती है। जन्म और मृत्यु की परिभाषा देते हुए कहते हैं, "जीवन की की प्रेरणा दी है। यद्यपि उन्होंने राग की बजाय द्वेष से मुक्त होना सरल जड़ है आत्मा। आत्मा का बुद्धि, इन्द्रिय, देह के साथ संगठन ही जन्म है माना है। वे विरागी बनकर संन्यास लेने की बजाय रागमुक्त होकर और इनका विघटन होना ही मृत्यु है।"यद्यपि व्यक्ति को मृत्यु से बड़ा संन्यास लेने के पक्षकर हैं। वे कहते हैं, "जो व्यक्ति राग को तोड़कर भय लगता है, पर मृत्यु जीवन का यथार्थ है, दुनिया में सब कुछ असली वैराग्य नहीं पाता और संन्यास ले लेता है, वह जिंदगी भर राग अनिश्चित है, पर मृत्यु निश्चित है। श्री चन्द्रप्रभ का मानना है कि को तोड़ने की चेष्टा ही करता है। वह राग को तोड़ता नहीं है, अपितु द्वेष मृत्यु-भय से मुक्त होने के लिए मृत्यु-बोध आवश्यक है। मृत्यु को की ग्रंथियों को और अधिक मज़बूत कर लेता है।" श्री चन्द्रप्रभ का समझना जीवन को सार्थक करने की मानसिक तैयारी है। उनकी दृष्टि मानना है कि वीतरागता की साधना हेतु संन्यास आश्रम अनिवार्य नहीं में, "मृत्यु और कुछ नहीं, जीवन का एक चरण है, जीवन रूपी है अपितु गृहस्थ आश्रम में भी इसकी साधना की जा सकती है। श्री उपन्यास का उपसंहार है, यह जीवन की परीक्षा है। अगर धरती पर चन्द्रप्रभ के दर्शन में वीतराग और वीतद्वेष बनने हेतु निम्न प्रेरणा सूत्र किसी भी प्राणी की मृत्यु न होती तो धरती का रूप कितना भयानक हो प्रदान किए गए हैं - जाता।"इसलिए श्री चन्द्रप्रभ ने व्यक्ति को हँसते हुए जीने, हँसते हुए 1.इन्द्रिय विषयों का सजगतापूर्वक सेवन करें। मरने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, "ययाति मत बनो, महावीर और 2.शब्द-रूप-रस-गंध-स्पर्श से जुड़े सुख के निमित्तों में राग-द्वेष बुद्ध बनो। हँसते-हँसते जीयो और हँसते-हँसते मरो। गाँधी की तरह न करें। जीये तो भी धन्य है और मरे तो भी धन्य है। अमरता के राज इस तरह 3.जीवन के द्वार पर मृत्यु को पल-प्रतिपल उतरते हुए देखें। की मृत्यु में ही छिपे हैं।" इस प्रकार श्री चन्द्रप्रभ ने मृत्यु का जीवन 4.वीतरागता का ध्यान करें, उसी का अनुचिंतन करें और किसी से सापेक्ष बोध दिया है। भी द्वेष न करने का संकल्प लें। श्री चन्द्रप्रभ ने मृत्यु से भयभीत होने की बजाय मृत्यु की ____5. सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, सोना-माटी में स्वयं को सहज- वास्तविकता को समझने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, "जो व्यक्ति संतुलित रखें। मृत्यु से डरकर भागता है वह वास्तव में जीने की कला से अनभिज्ञ 6. वासना को विचारों में मूल्य न दें। है।"उन्होंने मृत्यु-बोध के साथ जीवन-बोध को भी महत्व दिया है। वे इस विवेचन से स्पष्ट है कि मुक्ति और निर्वाण को साधने के लिए कहते हैं, "मृत्यु-बोध से भी बढ़कर है जीवन-बोध। मृत्यु-बोध वीतरागता और वीतद्वेषता अमृत मार्ग है। श्री चन्द्रप्रभ ने वीतरागता को असार को समझने के लिए है और जीवन का बोध सार को उपलब्ध साधने हेतु समता को पहला सोपान माना है। उन्होंने वीतरागता को करने के लिए।"श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन को ईश्वर का पुरस्कार माना है मूल्य देने की अनिवार्यता प्रतिपादित की है। राग और प्रेम में विभेद कर और इसे श्रेष्ठ सिद्ध करने की प्रेरणा दी है। उनका कहना है, "ईश्वर ने श्री चन्द्रप्रभ ने अध्यात्म-जगत को नई दृष्टि प्रदान की है। उनकी हमें जीवन पुरस्कार के रूप में दिया है। जैसा श्रेष्ठ जीवन हम जीएँगे, संन्यास से पूर्व विराग की बजाय राग मुक्ति की प्रेरणा ममक्षओं के लिए हमारी मृत्यु उतनी ही श्रेष्ठ होगी। मरना भी एक कला है परंतु मरना उपयोगी है। वीतराग से पहले वीतद्वेष बनने की प्रेरणा उनके जीवन- तभी आएगा, जब हमें जीना आ जाएगा। मैं मरना सिखाता हूँ, पर यह सापेक्ष नज़रिये को व्यक्त करती है। इस तरह श्री चन्द्रप्रभ के आत्म- भी तभी संभव है जब आप पहले जीना सीख जाएँ।" दर्शन में वीतरागता व वीतद्वेषता के सिद्धान्त को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में मृत्यु भय का मूल कारण जीवैषणा को हुआ है। माना गया है। श्री चन्द्रप्रभ का मानना है, "हमारी जीवैषणा अनन्त है। आत्मदर्शनवमृत्यु-बोध हमारे भीतर जब तक जीवैषणा रहेगी तब तक हमारी मृत्यु कभी भी महोत्सव नहीं हो पाएगी।"व्यक्ति ने जीवन के नाम पर देह को ही सब ___जीवन के दो महत्त्वपूर्ण पहलू हैं : जन्म और मृत्यु । जन्म जीवन कुछ मान लिया है। उसकी सारी प्रवृत्तियाँ देह-पोषण से जुड़ गई हैं। की शुरुआत है तो मृत्यु जीवन का समापन। जैसे सूर्योदय होते ही परिणामस्वरूप इन्द्रिय-विषयों को भोगने में ही उसका जीवन पूर्ण हो सूर्यास्त की यात्रा शुरू हो जाती है वैसे ही जन्म लेने के साथ ही मृत्यु की रहा है। इस संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "खा-खाकर हमने कितनी ओर क़दम बढ़ जाते हैं। जन्म जीवन का पहला सत्य है और मृत्यु विष्टा कर दी, पी-पीकर हमने कितने कुएँ खाली कर दिए, भोगजीवन का अंतिम। इसलिए जीवन में जन्म के बोध के साथ-साथ भोगकर हमने स्वयं के शरीर को कृशकाय कर दिया, पर क्या कोई इन मृत्यु-बोध होना भी आवश्यक है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "जीने की सबसे तृप्त हो पाया?" इसलिए जब तक व्यक्ति के भीतर पलने वाली कला के साथ मरना भी एक कला है, जिसे विरले लोग ही जानते हैं।" देह-मूर्छा नहीं टूटेगी तब तक वह मृत्यु-भय से उपरत होने में सफल उनकी दृष्टि में, "मृत्यु जीवन को समाप्त नहीं करती, अपितु जीवन नहीं हो पाएगा। श्री चन्द्रप्रभ ने देहभाव से उपरत होने के लिए शरीर व की धाराओं को नए-नए आयाम देती है। जैसे कोई इंसान सीढ़ी से आत्मा की भिन्नता को समझने की भी प्रेरणा दी है। श्री चन्द्रप्रभ ने देहऊपर चढ़ता है, तो सीढ़ी उसे ऊँचाइयों पर ले जाती है, लेकिन नीचे मूर्छा से उपरत होने के लिए निम्न सूत्रों को जीवन से जोड़ने की प्रेरणा उतरने वाले को वह नीचे भी ले आती है। वैसे ही मृत्यु भी एक सीढ़ी है दी है - जो मानव-जीवन को नए आयाम देती है।" 1. जीवन के हर निमित्त को सहजता, सरलता और समरसता से जीवन वस्तुतः प्रकृति और पुरुष, जड़ और चेतन, शरीर और स्वीकार करें। आत्मा के संयोग का नाम है। इनका संयोग जन्म है और वियोग मृत्यु। 2.साक्षी भाव को गहरा करें। श्री चन्द्रप्रभ ने आत्मा को अव्यक्त कहा है जो जीवन के रूप में व्यक्त 3.स्वयं को शरीर,शरीर-भाव और चित्त की तरंगों से अलग देखें। 1.100 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. दस दिन तक दस-दस मिनट आती-जाती श्वास-धारा को है-सयोगी केवली और अयोगी केवली।सयोगी केवली अर्थात् मनशांतभाव से देखें फिर बीस दिन तक शरीर की संवेदनाओं और संवेगों वचन-काया के योग सहित कैवल्य अवस्था और अयोगी केवली के साक्षी बनें। फिर चालीस दिन तक मन में उठने वाले विकारों व अर्थात् मन-वचन-काया के योग से मुक्त कैवल्य अवस्था। श्री विचारधाराओं को पढ़ने की कोशिश करें।। ' चन्द्रप्रभ ने इन दोनों के संदर्भ में कैवल्य दशा' का उल्लेख करते हुए श्री चन्द्रप्रभ ने मृत्यु से मुक्ति की ओर यात्रा करने के लिए एक 'अयोगी केवली' अवस्था को जिनत्व की, निर्वाण की सर्वोच्च स्थिति तरफ जहाँ देह से उपरत होकर जीने की प्रेरणा दी है वहीं दूसरी तरफ कहा है। श्री चन्द्रप्रभ ने 'आध्यात्मिक विकास' नामक पुस्तक में मरने की कला भी सिखाई है। श्री चन्द्रप्रभ ने दो तरह की मृत्यु का 'कैवल्य दशा' के परिणामों का उल्लेख करते हुए कहा है, "अभी तो विवेचन किया है - पहली अनिच्छापर्वक मत्य. दसरी स्वेच्छापर्वक हम वेद, गीता और बाइबिल के बारे में कहते हैं, फिर वे हमारे बारे में मृत्यु। मृत्यु के भय से ग्रसित होकर मरना अनिच्छापूर्वक होने वाली कहेंगे। अभी हम अवतार, पैगम्बर और मसीहा के बारे में कहते-पढ़ते मृत्यु है। इसमें व्यक्ति मरना नहीं चाहता, फिर भी मरना पड़ता है। हैं, पर कैवल्य के द्वार पर पहुँचने पर पीर-पैगम्बर, अवतार-तीर्थंकर, भयमक्त होकर स्वेच्छा से मत्य की ओर बढना या शरीर को त्याग देना बुद्ध-मसीहा हमारे बारे में कहेंगे। अभी तो हम किसी की मर्ति के स्वेच्छापूर्वक धारण की जाने वाली मृत्यु है। भगवान महावीर ने सामने मस्तक झुकाते हैं, फिर दुनिया हमारे आगे नतमस्तक होगी।" अनिच्छापूर्वक मृत्यु को अकाम मरण और स्वेच्छापूर्वक मृत्यु को श्री चन्द्रप्रभ ने कैवल्य-दशा' की उपलब्धि में मुख्य रूप से 'मैं' सकाम मरण कहा है। श्री चन्द्रप्रभ ने स्वेच्छापूर्वक मृत्यु और अर्थात् अहंकार और मेरे अर्थात् ममत्व के भाव को बाधक तत्त्व माना आत्महत्या को अलग-अलग माना है। उन्होंने आत्म-हत्या को भीतर है। वे कहते हैं, "जब व्यक्ति का दुनिया के साथ बना 'मेरे' का पैदा हुए आवेश का दुष्परिणाम कहा है। वे सकाम मरण हेतु निम्न तादात्म्य टूटता है और 'मैं' का भाव छूटता है वहीं परमात्मा प्रकट होता चरणों को साधने की प्रेरणा देते हैं - देह-अनासक्ति, मानसिक है। जब तक दोनों के बीच तादात्म्य रहेगा, तब तक कैवल्य-दशा तक एकाग्रता, मनोशुद्धि, इच्छा मुक्ति और पूर्वाभ्यास। उन्होंने सकाम मरण पहँच नहीं पाएँगे।" आचार्य कुंदकुंद ने इस संदर्भ में कहा है, "आत्मा को आत्मशुद्धि एवं मुक्ति-प्राप्ति में सहायक माना है। श्री चन्द्रप्रभ ने के शद्ध स्वरूप को जानने वाला और परकीय भावों को जानने वाला 'जीवन यात्रा' और 'मृत्यु से मुलाकात' नामक पुस्तकों में इच्छापूर्वक ऐसा कौन ज्ञानी होगा. जो यह कहेगा कि यह मेरा है।"अष्टावक्र गीता ग्रहण की जाने वाली मृत्यु का विस्तार से विवेचन किया है। में भी इसी तरह की प्रेरणा मिलती है, "मैं चैतन्यमात्र हूँ, संसार इस तरह कहा जा सकता है कि श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन-सापेक्ष इन्द्रजाल की भाँति है। तब मेरी हेय और उपादेय की कल्पना किसमें नज़रिये से मृत्यु तत्त्व की व्याख्या करते हुए मृत्यु-बोध' व 'मरने की । हो?"महोपाध्याय ललितप्रभसागर ने भी इस सिद्धांत का समर्थन करते कला' का आध्यात्मिक मार्गदर्शन दिया है। उनका देह से देहातीत होने हुए माना है कि जब व्यक्ति 'मेरे' का आग्रह समाप्त कर लेता है तो का मार्गदर्शन बेहद उपयोगी है। अंतरात्मा की स्थिति में प्रवेश कर लेता है और जिस दिन उसका 'मैं' आत्मदर्शनवकैवल्य-दशा छूट जाता है, वह परमात्मा की स्थिति में पहुँच जाता है। इस प्रकार जीवन शरीर व आत्मा के संयोग का नाम है। जीवन की तीन विविध धर्मग्रंथों एवं ज्ञानी-पुरुषों ने भी 'मैं' और 'मेरेपन' को मुक्ति में स्थितियाँ हैं : बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा। शरीर को सब कुछ बाधक माना है। मान लेना बहिरात्म-दशा है। शरीर से आत्मा की ओर बढ़ना अंतरात्म श्री चन्द्रप्रभ ने दु:ख का मूल कारण शरीर, मकान, दुकान, धन, दशा है और आत्मा की शद्ध दशा को उपलब्ध करना परमात्म-दशा है। वस्त्र, पत्नी, पुत्र, वस्तु के साथ मेरेपन के भाव को जोड़ना बताया है। वे श्री चन्द्रप्रभ के अनुसार, "बहिरात्मा बाह्य जगत का योग है, अंतरात्मा मंदिर, मस्जिद, मठ, धर्मस्थान यहाँ तक कि गुरु और ईश्वर को भी अंतर्जगत् का योग है और परमात्मा योग-मुक्ति है।" मन-वचन- 'मेरे' के साथ न जोड़ने की प्रेरणा देते हैं। वे कहते हैं, 'मेरा' अज्ञान का काया बहिर्जगत के योग का आधार है। इन तीनों को सम्यक दिशा देना परिणाम है। मेरा मकान, मेरी दुकान, मेरा गुरु, मेरा धर्म, मेरा मंदिर, अथवा इनसे उपरत होना अंतर्योग है। वे कहते हैं, "अध्यात्म की भाषा मेरा भगवान - जहाँ भी मेरा जुड़ेगा, वहीं मूढ़ता उभरेगी। उनकी दृष्टि में अंतर्योग के लिए देहातीत शब्द का उल्लेख किया जाता है। यह में, "स्वयं के अलावा दुनिया की चाहे जो सत्ता हो, सम्पदा हो, वस्तु देहातीत अवस्था ही कैवल्य-दशा है। वही व्यक्ति देहातीत है जो हो, विचार हो, शब्द हो सबके प्रति अनासक्त रहना ही अध्यात्म को मनातीत, वचनातीत और कायातीत है।"उनके दर्शन में कैवल्य' का जीना है। आत्मभाव में स्थिति और परभाव से मुक्ति ममत्व-मूर्छा से अर्थ 'केवलता' बताया गया है। इसे अस्तित्व की विशुद्धता से जोड़ा मुक्ति का पहला व अंतिम सूत्र है।" उन्होंने कैवल्य-दशा को पाने के गया है। कैवल्य-दशा को 'सर्वज्ञता' से भी उल्लेखित किया जाता है, लिए निम्न सूत्रों को अपनाने की प्रेरणा दी है - पर उन्होंने कैवल्य को सर्वज्ञता से भी ऊँचा माना है। वे कहते हैं, 1. शरीर को शरीर जितना व आत्मा को आत्मा जितना मूल्य दें, "समाधि तो सर्वज्ञता भी है और कैवल्य भी, पर सर्वज्ञता की स्थिति इच्छाओं का निरोध करें,तन-मन की सात्विकता हेतु उपवास करें। सबीज समाधि है और कैवल्य निर्बीज समाधि है। जहाँ सबका निरोध 2. भीतर की आसक्तियों को पहचानें व उनके परिणामों पर चिंतन हो जाता है, केवल स्वयं की मौलिकता शेष रहती है।" कृष्ण ने इसे करें। 'ईश्वर-प्राप्ति', महावीर ने 'मोक्ष', बुद्ध ने 'निर्वाण' और पतंजलि ने 3.जीवन-जगत में घटित होने वाली घटनाओं के प्रति जागरूक बनें। इसे 'निर्बीज समाधि' कहा है। 4.भोग और त्याग, दोनों से उपरत होकर आत्म-भाव में स्थित रहें। जैन दर्शन में मुक्त अवस्था के संदर्भ में दो शब्दों का उल्लेख हुआ 5.प्रभु के प्रति समर्पण या आत्म-जागरण के मार्ग पर चलें। समर्पण संबोधि टाइम्स > 101 For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। का मार्ग भक्ति से जुड़ा है और जागरण का मार्ग ध्यानयोग से संबंधित हर प्राणी में महाप्राण का, तत्त्व समाया है अनजान। पहचानें उस परम तत्त्व को, ऐसी दृष्टि दो भगवान।। इससे स्पष्ट है कि कैवल्य-दशा साधना की उच्च परिणति है, हम सब हैं माटी के दीये, सब में ज्योति एक समान। अध्यात्म जगत् का परम साध्य है। इसे प्राप्त करने पर आत्मा परमात्म सबसे प्रेम हो, सबकी सेवा, ऐसी सन्मति दो भगवान ।। स्वरूप को उपलब्ध हो जाती है। श्री चन्द्रप्रभ ने कैवल्य-दशा का इस प्रकार श्री चन्द्रप्रभ की दृष्टि प्राणीमात्र में प्रभु को देखने से विशद् विवेचन किया है। उनके द्वारा कैवल्य दशा हेतु भौतिक जगत के __ जुड़ी हुई है। उन्होंने परमात्मा की जिन विशेषताओं का उल्लेख किया संबंधों के साथ धार्मिक जगत के संबंधों से भी उपरत होने की दी प्रेरणा है वे इस प्रकार हैंग्रहणीय है। उन्होंने भक्ति और ध्यान दोनों मार्गों का समर्थन कर उदार 1.परमात्मा सर्वत्र व्यापक है। दृष्टि का परिचय दिया है। इस तरह यह कहना युक्ति-संगत होगा कि 2. परमात्मा हम सबके साथ है, हमारे पास है। वह हर नाम, भेद, श्री चन्द्रप्रभ के आत्म-दर्शन में विवेचित 'कैवल्य दशा' अध्यात्म जगत ढंग और आकार से ऊपर है। के लिए महत्त्वपूर्ण है। 3. परमात्मा देहातीत और इन्द्रियातीत स्थिति है। आत्मदर्शन व ईश्वर-प्राप्ति 7. परमात्मा 'मैं'व'तू' के पार है। सभी भारतीय धर्म-दर्शन परमात्म-तत्त्व की प्राप्ति के लिए किसी ने परमात्मा की अनुभूति 'अहं ब्रह्मास्मि - मैं ब्रह्म हूँ' के प्रयत्नशील हैं। इस हेतु सभी धर्म-दर्शनों में ईश्वरीय तत्त्व का विस्तृत रूप में तो किसी ने 'तत्त्वमसि - तू ही है' के रूप में की है। श्री चन्द्रप्रभ विवेचन प्राप्त होता है। किसी ने आत्मा को ही परमात्मा माना है तो र ने 'तू-मैं' के भाव से ऊपर उठने की प्रेरणा देते हुए कहा है, "जहाँ तू न तू-म के भान किसी ने प्रकृति के, सृष्टि के कण-कण में परमात्मा को निहित बताया भी गिर जाए, मैं भी गिर जाए, उसका अहसास वहीं है।" है। तो कोई परमात्मा को आसमान में स्थित बताते हैं। श्री चन्द्रप्रभ के श्री चन्द्रप्रभ ने परमात्मा के नाम, रूप, आकार की भिन्नता को दर्शन में प्रकति के कण-कण में व हर आत्मा में परमात्मा की सत्ता लेकर पैदा हुई धार्मिक संकीर्णता का सख्त विरोध किया है। उन्होंने स्वीकार की गई है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "भगवान का नर और प्रकृति परमात्मा के नाम पर साम्प्रदायिक राजनीति करना अनुचित माना है। का प्राण धरती के हर ठौर, हर डगर, हर नगर में है। जहाँ-जहाँ जीवन उन्होंने सबको संकीर्णता त्यागकर सर्वधर्म-सद्भाव अपनाने की सीख है, वहाँ-वहाँ चेतना है और जहाँ-जहाँ चेतना है, वहाँ-वहाँ परमात्मा दी है। वे कहते हैं, "परमात्मा तो नाम-रहित, नाम मुक्त है। सारे नाम का वास है। जीवन का आधार प्रकृति है, तो जीवन का विकास आरोपित हैं, स्थापित हैं। नाम से अगर परमात्मा को मुक्त कर दिया परमात्मा है।" जाए, तो दुनिया भर में भगवानों के नाम पर जो वाद-विवाद-लड़ाइयाँ श्री चन्द्रप्रभ ने परमात्मा को अस्तित्व की सर्वोपरि सत्ता माना है। होती हैं वे सब समाप्त हो जाएँगी। लोग जितने भगवान के नाम पर उनकी दृष्टि में, “अस्तित्व और परमात्मा के बीच एक पुलक भरा लड़ते हैं, उतना किसी और नामों पर नहीं। 'इस्लाम ख़तरे में या संबंध है। परमात्मा किसी दर्शनशास्त्र की अवधारणा नहीं, वरन् उसकी हिन्दुत्व ख़तरे में' जैसे मुद्दे उठते ही चारों तरफ हिंसक माहौल बन जाते आभा चारों ओर है, सर्वत्र है।" प्रायः व्यक्ति परमात्मा को मंदिरों में, हैं। हम परमात्मा के नामों में उलझने की बजाय भीतर में व्याप्त तीर्थों में, पहाड़ों में, जंगलों अथवा अन्य बाहरी स्थानों में खोजता है, परमात्म-चेतना में उतरने की कोशिश करें।" ढूँढता है, पर श्री चन्द्रप्रभ परमात्मा को अंतर्घट में देखने की प्रेरणा देते परमात्मा को निराकार बताते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "हिन्दुओं हैं। वे कहते हैं, "ढूँढना परमात्मा को नहीं है, ढूँढना तो उन आँखों को का भगवान, मुसलमानों के अल्लाह से अलग नहीं है। जैन और बौद्धों है,जो उस परमात्मा को पहचान सकें।" श्री चन्द्रप्रभ ने जगत में,मनुष्य के भगवान भी अलग नहीं हैं। हम अलग-अलग हो सकते हैं, पर में, फूल-पेड़-पौधे सभी में परमात्मा की सत्ता स्वीकार की है, पर वे भगवान नहीं। हम ही लोग फ़र्क और फिरके खड़े करते हैं। फ़र्क दीयों सबसे पहले अन्तर्हृदय में परमात्मा को देखने की बात कहते हैं। उनका में हो सकता है, पर ज्योति सबकी एक है। मूल्य दीये का नहीं, ज्योति मानना है कि परमात्मा को खोजने की नहीं, जीने की, पाने की नहीं, का है। किसी के लिए राम-रहीम, कृष्ण-करीम, महावीर-मोहम्मद में पीने की आवश्यकता है। व्यक्ति पहले शांत-चित्त होकर अपने मौन फ़र्क हो सकता है, पर जब वे स्वयं ही निराकार हो चुके हैं तो उनके हृदय में परमात्मा को देखें। अगर भीतर में परमात्मा के दर्शन हो गए तो आकारों को लेकर झगड़े क्यों?" परमात्मा की मूर्तियों के भेद से ऊपर उसके लिए सर्वत्र परमात्मा है। तब ऊँच-नीच, वर्ण-सुवर्ण व जाति- उठने की प्रेरणा देते हुए वे कहते हैं, "चाहे महावीर की मूर्ति हो या राम पाँति का भेद न होगा और जीव में परमात्मा की आभा सहज रूप से की प्रतिमा, इनमें दिखाई देने वाला अंतर मूर्तिकारों द्वारा पत्थरों को दिखाई देगी। श्री चन्द्रप्रभ ने काव्यात्मक ढंग से परमात्मा की सर्वत्रता दिया गया अलग-अलग रूप है। मूल रूप में सभी मूर्तियाँ पत्थर से ही का विवेचन करते हुए 'संबोधि-साधना गीत' पुस्तक के अंतर्गत गीत निर्मित हैं लेकिन हम कुछ चिह्नों अथवा प्रतीकों से उन प्रतिमाओं में में लिखा है - भेद कर लेते हैं। सच्चा मंदिर तो तभी निर्मित होगा जब हम ये सारे मानव स्वयं एक मंदिर है, तीर्थ रूप है धरती सारी। बाहरी भेद गिरा देंगे।" मूरत प्रभु की सभी ठौर है, अंतरदृष्टि खुले हमारी॥ श्री चन्द्रप्रभ ने महापुरुषों और उनके संदेशों को पंथ-परम्परा तक श्री चन्द्रप्रभ ने सबमें परमात्म-तत्त्व को देखने की प्रार्थना करते सीमित न मानने की सीख दी है। महापुरुषों की प्रेरणाओं को हुए समदर्शी-गीत में लिखा है - सार्वजनिक बताते हुए वे कहते हैं, "वीतराग, वीतद्वेष, वीतमोह होना सब में देखू श्री भगवान। जैनों का ही नहीं, सबका दायित्व है, शील समाधि और प्रज्ञा का 102 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचरण करना बौद्धों का ही नहीं, हम सबका कर्तव्य है; स्थितप्रज्ञ, जग जाए, लौ लग जाए तो वह तुझमें है, मुझमें है, सारे जहाँ में है, अनासक्त और जीवन-मुक्त होना हिंदुओं का ही नहीं, हर एक का अन्यथा वह कहीं नहीं है। जैसे पानी का मूल्य प्यास में है वैसे ही हमारी अधिकार है; छुआछूत को दूर करके जीने का दायित्व मुसलमानों का प्यास, हमारी दृष्टि, हमारी भाव-दशा ही हमें उस तक ले जाएगी, ही नहीं, हम सबका है; प्रेम और सेवा के वशीभूत होकर सारी मानवता परमात्मा से साक्षात्कार करवाएगी।" श्री चन्द्रप्रभ ने जागो मेरे पार्थ, में परमात्मा को देखना ईसाइयों का ही नहीं, हम सबका धर्म है। मूल चेतना का विकास, धर्म में प्रवेश, योगमय जीवन जिएँ, रूपांतरण, दृष्टि में, मूल सिद्धांत में कहीं कोई भेद नहीं है इसलिए व्यक्ति जीवन बेहतर जीवन के बेहतर समाधान, चार्ज़ करें ज़िंदगी आदि पुस्तकों में से जुड़े हुए हर महापुरुष से प्रेरणा ग्रहण करे।" परमात्मा-प्राप्ति के मार्ग का विस्तार से विवेचन किया गया है। श्री चन्द्रप्रभ ने परमात्मा के मंदिर को व्यक्ति, समाज या परम्परा निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में विशेष से जोड़ने को अनुचित कहा है। वे कहते हैं, "भगवान विष्णु का परमात्म-तत्त्व की विवेचना विराट नज़रिये से हुई है। सृष्टि के कणमंदिर बनाते हो और नाम देते हो बिड़ला मंदिर। महावीर का मंदिर कण में व प्राणीमात्र में परमात्मा को निहित मानकर श्री चन्द्रप्रभ ने बनाते हो और उसे कहते हो जैन मंदिर। क्या राम के मंदिर में जैनों को सम्पूर्ण जगत को परमात्ममय सिद्ध किया है जो व्यक्ति को 'सबसे प्रेम जाने की मनाही है? महावीर के मंदिर में क्या हिंदू को जाने का निषेध व सबकी सेवा' करने के सिद्धांत को अपनाने की प्रेरणा देता है। उन्होंने है? हम मंदिरों की व्यवस्थाएँ सँभालें, पर उसके मालिक न बनें। हर परमात्मा को नाम, रूप आकार से मुक्त देखने की प्रेरणा देकर धार्मिक मंदिर का मालिक अंतत: वही होता है जो सबका मालिक है। भगवान सद्भाव व सर्वधर्म-समन्वय की दृष्टि उजागर की है। उनके द्वारा प्रभुके मंदिर का द्वार तो सबके लिए खुला रहना चाहिए।" श्री चन्द्रप्रभ ने प्रार्थना व प्रभु-प्राप्ति के संदर्भ में दिया गया मार्गदर्शन भी हर व्यक्ति के जहाँ व्यक्ति को मंदिर जाने की प्रेरणा दी है, वहीं उसे सावधान करते लिए उपयोगी है। इस तरह श्री चन्द्रप्रभ का परमात्म-तत्त्व संबंधी हुए कहा है, "लोग मंदिर जाते हैं क्योंकि आज व्रत या उपवास है दृष्टिकोण मानवमात्र को नई सोच और सार्थक दिशा देने में सफल हुआ अथवा वहाँ सुंदर झाँकी लगी है, छप्पन भोग हो रहे हैं या अंगरचना है। बहुत अच्छी हुई है। व्यक्ति के लिए भगवान गौण, छप्पन भोग का आत्मदर्शन व मोक्ष लड्डू मूल्यवान बन गया है। व्यक्ति भगवान के लिए, उसे पाने के लिए मंदिर जाए, तभी उसका जाना सार्थक हो पाएगा।" इस तरह श्री सभी भारतीय धर्म दर्शनों का एक ही लक्ष्य है : मोक्ष की प्राप्ति। चन्द्रप्रभ ने व्यक्ति को सर्वधर्म-सद्भाव के साथ परमात्मा के प्रति स्वर्ग-नरक का विवेचन तो विश्व के अनेक धर्म-दर्शनों में प्राप्त होता विराट नज़रिया अपनाने की प्रेरणा दी है। उनके दर्शन में प्रभु-प्रार्थना के है, पर मोक्ष विशुद्ध रूप से भारतीय मनीषियों की खोज है। संदर्भ में निम्न बातों का मार्ग-दर्शन दिया गया है - आध्यात्मिक साधना का परिणाम है मोक्ष । मोक्ष अर्थात् मुक्ति, निर्वाण, 1. प्रभु से प्रार्थना हेतु किसी औपचारिकता की ज़रूरत नहीं है, जब परमधाम की प्राप्ति, जन्म-मरण के बंधनों से छुटकारा। भगवान चाहें, जहाँ चाहें, प्रभु-प्रार्थना की जा सकती है। महावीर ने कहा है, "जहाँ से सारे स्वर लौट आते हैं, जहाँ तर्क का 2. प्रभु से ज़्यादा शिकायतें या मिन्नतें न करें । दिल से प्रार्थना करें व प्रवेश नहीं है, जिसे बुद्धि ग्रहण नहीं कर सकती, जो ओज-प्रतिष्ठानउसे पूरा करने का दायित्व प्रभु पर छोड़ दें। खेद रहित है, वही मोक्ष है।" इस तरह उन्होंने मोक्ष को व्याख्यातीत 3.प्रभु-भक्ति का अर्थ है कि हम हर रोज़ प्रभु को याद करें,साथ ही बताया है। भगवद्गीता में मोक्ष के संदर्भ में कहा गया है, "वहाँ न सूर्य का प्रकाश है, न चन्द्रमा का और न अग्नि का, जहाँ जाने के बाद फिर व्यावहारिक जीवन में प्रभु की आज्ञाओं का पालन करें। लौटना नहीं पड़ता है, वही परम धाम मोक्ष है।" न्याय दर्शन कहता है, 4.प्रभु को माइक पर नहीं,मन में पुकारें। "दु:ख से सदा के लिए छुटकारा पाए जाने को अपवर्ग 'मोक्ष' कहते 5. प्रार्थना करते समय अज्ञान, उत्तेजना और मूर्छा में हुए पापों के लिए प्रायश्चित्त के आँसू समर्पित करें। हैं।" इस प्रकार मोक्ष को पूर्णत: दुःख-मुक्ति माना गया है। 6. प्रभु से अच्छा स्वभाव, मेहनत की कमाई, परोपकार, भाई-भाई श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में 'मोक्ष' की समय-सापेक्ष एवं जीवनमें प्रेम और कष्टों को झेलने की ताक़त माँगें। सापेक्ष व्याख्या हुई है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "मोक्ष स्वर्ग-नरक, सुख-दुःख दोनों के पार है। मोक्ष चैतन्य की विशुद्ध दशा का नाम है। श्री चन्द्रप्रभ ने प्रभु-प्रार्थना के साथ परमात्म-प्राप्ति हेतु निम्न बातों जहाँ न जन्म है न मृत्यु, यह शाश्वत शांति एवं चिरसौख्य का आस्वादन को जीवन के साथ जोड़ने की प्रेरणा दी है - है। वस्तुतः आत्म-पूर्णता ही मोक्ष है।"'आयारसुत्तं' के अंतर्गत श्री 1.मैं अर्थात् कर्ता-भाव को परमात्मा के चरणों में समर्पित कर दें। चन्द्रप्रभ ने 'मोक्ष' की व्याख्या करते हुए कहा है, "मोक्ष चेतना की 2.मन को शांत कर उसे भक्ति से शृंगारित करें। आखिरी ऊँचाई है। उसके बारे में किया जाने वाला कथन प्राथमिक 3. भगवत्-प्राप्ति का आत्म-संकल्प मज़बूत करें। सूचना है। मोक्ष तो सबके पार है। भाषा, तर्क, कल्पना और बुद्धि के 4.अंतरहृदय में अभीप्सा जगाएँ। चरण वहाँ तक जा नहीं सकते। वहाँ तो है सनातन मौन, निर्वाण की 5. परमात्मा को सबमें,सब जगह देखने की कोशिश करें। निर्धूम ज्योति।" 6. अन्तरात्मा की आवाज़ को सुनें व उसे जिएँ। इस तरह उन्होंने एक तरफ मोक्ष को जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख, इस प्रकार श्री चन्द्रप्रभ भगवत्-प्राप्ति हेतु अंतरहृदय की प्यास को शब्द-बुद्धि से परे बताया है वहीं दूसरी तरफ उसे स्वयं को दी जाने सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उनकी दृष्टि में, "प्रभु शोर में नहीं, वाली पूर्णता कहा है। निर्वाण, मुक्ति, मोक्ष पर्यायवाची शब्द हैं। शांति में है; किताबों में नहीं, आत्मा के अहसासों में है। प्रभु का भाव सामान्यतया मोक्ष को मरणोत्तर अवस्था अथवा स्वर्ग से भी ऊपर स्थान For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स-1039 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष की प्राप्ति माना जाता है। लेकिन वस्तुत: वह परिणाम मात्र है। भी अवश्य होना चाहिए।" भाव-मोक्ष के रूप में वह इसी जीवन में प्राप्त हो जाता है। इस तरह चौथा तर्क देते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "अगर अतीत अच्छा मोक्ष की दो तरह से विवेचना की गई है - जैन दर्शन में द्रव्य मोक्ष एवं था तब तो सभी मोक्ष प्राप्त कर चुके होते, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। वैसे भाव मोक्ष के रूप में, बौद्ध दर्शन में सोपादि विशेष-निर्वाण एवं ही वर्तमान खराब है और कोई भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता, ऐसा भी अनुपादिशेष निर्वाण के रूप में और गीता में जीवन-मुक्ति व विदेह- होगा नहीं। मोक्ष समय का नहीं, हमारे प्रयास व पुरुषार्थ का परिणाम मुक्ति के रूप में। जैन-दर्शन के अनुसार मोक्ष का अर्थ है - राग-द्वेष से है।" मोक्ष से संबंधित दूसरी मान्यता यह है कि अनेक शास्त्रों में इस मुक्ति। बौद्ध-दर्शन के अनुसार - निर्वाण तृष्णा का क्षय होना है और काल में मोक्ष होना निषिद्ध माना है। इसलिए शास्त्रीय सिद्धांत में संदेह वैदिक-दर्शन के अनुसार - आसक्ति का पूर्णरूपेण समाप्त हो जाना ही करना धर्म के विरुद्ध है। श्री चन्द्रप्रभ ने इस मान्यता का भी खण्डन मक्ति है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में जीते-जी होने वाली मुक्ति, निर्वाण किया है। वे शास्त्रों को पढ़ने की प्रेरणा देते हैं. पर शास्त्र में लिखी हर अथवा मोक्ष पर विशेष परिचर्चा हुई है। बात को आँख मूंदकर मान लेना उनकी दृष्टि में ग़लत है। वे कहते हैं, भारतीय धर्म-शास्त्रों में जहाँ संसार को दुःखरूप, बंधनरूप और "शास्त्रों को पढ़ो, उनसे सत्य मार्ग सीखो, पर मात्र किताबी होकर मत जन्म-मरण का आधार बताया गया है, वहीं मोक्ष को सच्चिदानंद रूप कहा रह जाओ। किसी के कहने या लिखने मात्र से किसी बात पर विश्वास गया है। मोक्ष पाए बिना दुःखों से पूर्णत: छुटकारा संभव नहीं है। इसलिए मत करो। शांत मन से सोचो, समझो, जानो, देखो तब वह बात अगर भारतीय ऋषि-मुनियों ने 'मोक्ष' की प्रेरणा दी है। श्री चन्द्रप्रभ ने मोक्ष को अपनाने जैसी लगे तो उस पर अमल करो अन्यथा उससे निरपेक्ष रहो। साधना व अध्यात्म की अंतिम पराकष्ठा माना है। मोक्ष पाना आम इंसान के मूल्य सत्य का होना चाहिए, व्यक्ति विशेष या परम्परा-विशेष का लिए वश की बात नहीं है। इसलिए वे जन्म-मरण से मुक्त होने से पहले नहीं।" व्यक्ति को बराइयों से, बुरी आदतों से और अंधविश्वासों से मुक्त होने की जैन धर्म की दिगम्बर परम्परा के अनसार स्त्री मोक्ष नहीं जा प्रेरणा देते हैं। वे मोक्ष को व्यक्ति के भीतर मानते हैं और उसे परिणाम' सकती, मोक्ष जाने के लिए निर्वस्त्र होना अनिवार्य है। श्री चन्द्रप्रभ ने नहीं, व्यक्ति का वास्तविक स्वरूप कहते हैं। उनकी दृष्टि में, "अपनी इस मान्यता का भी खण्डन करते हुए कहा है, "मोक्ष आत्मा का होता है इच्छाओं से मुक्त होना ही मोक्ष है।" शरीर अथवा स्त्री या पुरुष का नहीं। आत्मा न स्त्री है न पुरुष, आत्मा श्री चन्द्रप्रभ का कहना है कि मुक्ति और मोक्ष की बातें तो बहुत होती बस आत्मा है। जब तक व्यक्ति की नज़रों में स्त्री-पुरुष का भेद बना हैं,पर सब ऊपर-ऊपर। व्यक्ति पहले स्वयं से पूछे कि क्या वह वास्तव में रहेगा तब तक ब्रह्मचर्य और मोक्ष की बातें निर्मूल्य हैं।" उनकी दृष्टि मुक्ति पाना चाहता है? उसका जितना विषयों के प्रति रस है क्या उतना में,"निर्वस्त्र होना साधुता और वीतरागता नहीं है। व्यक्ति को भीतर में मुक्ति का भाव है? जब तक व्यक्ति विषयों में उलझा रहेगा तब तक बंधन पलने वाली राग-द्वेष की गाँठों के आवरण को उतारना चाहिए क्योंकि बना रहेगा। मोक्ष या मुक्ति तप और त्याग में नहीं, विषयों से निर्विषयी होने आत्मा का आत्मा में जीना ही अध्यात्म है, आत्म-मुक्ति है, स्वतंत्रता में है। अष्टावक्र गीता में भी विषयों से विरसता को मोक्ष कहा गया है और और मोक्ष है।" इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने मोक्ष से जुड़ी अर्थहीन अध्यात्म उपनिषद् में भी मोक्ष का अर्थ वासना का नाश हो जाना बताया मान्यताओं का खण्डन किया है और वर्तमान में मोक्ष नहीं है इस गया है। इस प्रकार श्री चन्द्रप्रभ मोक्ष से पहले मोक्ष की कामना व विषय- सिद्धांत को अवैज्ञानिक, विसंगतिपूर्ण, पुरुषार्थ-विरोधी और विरक्ति को आवश्यक मानते हैं। अध्यात्मवाद के विपरीत बताया है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में मोक्षश्री चन्द्रप्रभ ने मोक्ष से जुड़ी अनेक प्रचलित मान्यताओं का भी प्राप्ति हेतु ध्यान-योग को मुख्य रूप से जीवन के साथ जोड़ने की प्रेरणा खण्डन किया है। मोक्ष से संबंधित पहली मान्यता है; वैदिक आचार्यों दी गई है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "ध्यान से मोक्ष नहीं मिलता, वरन् के अनुसार कलियुग में और जैनाचार्यों के अनुसार पंचम आरा ध्यान में जीना ही अपने आप में मोक्ष को उपलब्ध करना है।" उन्होंने (वर्तमान युग) में मोक्ष संभव नहीं है। श्री चन्द्रप्रभ के अनुसार मोक्ष 'संबोधि-सूत्र' में मोक्ष व ध्यान के संदर्भ में काव्यात्मक विवेचना करते कोई समय नहीं है। वह समयातीत है, कालातीत स्थिति है। मोक्ष तो हुए लिखा है - हमारा होता है, हम मुक्त होते हैं। जब हम ही समय से ऊपर उठ जाते हैं मोक्ष सदा सम्भव रहा, मोक्षमार्ग है ध्यान। तब तो कोई काल भी नहीं बचता। दूसरा तर्क देते हुए श्री चन्द्रप्रभ ने भीतर बैठे ब्रह्म को, प्रमुदित हो पहचान ।। कहा है, "भगवान श्रीकृष्ण के समय में भी नारी का चीरहरण हुआ, वे __ श्री चन्द्रप्रभ की दृष्टि में, "बुरा मन नरक है और अच्छा मन स्वर्ग। लोग भी थे जो भरी सभा में देखते रह गए। भगवान श्रीराम के समय में मोक्ष मन से मुक्ति है, विचारों का निर्वाण है। ध्यान मोक्ष को जीने व भी रावण जैसे लोग हुए,सीता जैसी सतियों का अपहरण हुआ। बचाने मोक्ष तक जाने का मार्ग है। जीते-जी मोक्ष और 'महाशून्य' की वाले अब भी हैं और न बचाने वाले तब भी थे। अच्छी संभावनाएँ आज अनुभूति करा देना ही ध्यान का मुख्य लक्ष्य है।" ध्यान के अतिरिक्त भी हैं और बुरी संभावनाएँ तब भी थीं। हम स्वयं को समय से न जोड़ें। श्री चन्द्रप्रभ ने मोक्ष पाने हेतु निम्न प्रेरणा सूत्र दिए हैं - हमारा अच्छा-बुरा होना ही समय का अच्छा-बुरा होना है।" तीसरा 1.सही रास्ते पर चलें, नीयत साफ रखें, इंसान होकर इंसान के काम तर्क देते हुए वे कहते हैं, "जो अतीत में संभव था, वह वर्तमान में आएँ, मन के विकारों पर विजय प्राप्त करें। असंभव है, ऐसा कहना अव्यावहारिक है। जब पहले की तरह आज भी बंधन होता है तो पहले की तरह आज भी मोक्ष क्यों नहीं हो सकता। 2. विषयों से उपरत रहें, बुद्धि को सात्विक बनाएँ, मुमुक्ष-भाव जैसे जन्म के साथ मृत्यु, खिलने के साथ मुरझाना, संयोग के साथ जागृत करें। वियोग, उदय के साथ अस्त अवश्य होता है वैसे ही बंधन के साथ मोक्ष 3. पुरुषार्थव प्रयास करें, समय का आध्यात्मिक उपयोग करें। 104 > संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Jain Education Internation Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.संसार के स्वरूप को समझें,कर्ता-भाव व राग-द्वेष से ऊपर उठे। पंछियों से प्रेरणा लो, मंदिर पर गुटर-गूं करते हैं और मस्जिद पर भी 5. धैर्यपूर्वक ध्यानयोग की साधना करें। गीत गाते हैं। निश्चय ही, श्री चन्द्रप्रभ ने प्रभु-प्रार्थना एवं प्रभु-प्राप्ति इस प्रकार श्री चन्द्रप्रभ मोक्ष को आज. अभी. यहीं. जीते-जी का जो सरल मार्ग दिया है वह प्राणीमात्र के लिए उपयोगी सिद्ध हआ घटित करने के पक्षधर हैं एवं इसके लिए विषयों से उपरत होने और है। ध्यान में जीने को आधार बताते हैं । इस विवेचन से स्पष्ट है कि 'मोक्ष' भारतीय धर्म दर्शनों के केन्द्रबिन्दु 'मोक्ष' पर श्री चन्द्रप्रभ द्वारा दी आध्यात्मिक साधना का परम लक्ष्य है। श्री चन्द्रप्रभ ने 'मोक्ष' को गई जीवन सापेक्ष दृष्टि अद्भुत है। वे देहमुक्ति की बजाय जीवनमुक्ति समय-मुक्त कर वर्तमान सापेक्ष स्वरूप दिया है। मोक्ष की प्रचलित में अधिक विश्वास रखते हैं। वे जैन परम्परा के इस मत से सहमत नहीं धारणाओं का तार्किक एवं वैज्ञानिक ढंग से खण्डन कर इस सिद्धांत को हैं कि आज मोक्ष नहीं है। उन्होंने 'आज मोक्ष संभव नहीं है' के सिद्धांत नए स्वरूप में प्रतिपादित करना श्री चन्द्रप्रभ की मौलिक विशेषता है। का तार्किक एवं मनोवैज्ञानिक रूप से खण्डन कर मानव समाज को नई उन्होंने मोक्ष को समय व नियति की बजाय पुरुषार्थ का परिणाम दिशा दी है। उन्होंने जैन धर्म की दिगम्बर परम्परा की इस मान्यता का बताकर साधकों को नई दिशा दी है। उनके दर्शन में मोक्ष के आधार- भी खंडन किया है कि 'स्त्री को मोक्ष नहीं मिलता।' वे मोक्ष को स्तंभ के रूप में 'ध्यानमार्ग' प्रतिपादित हुआ है। इस तरह श्री चन्द्रप्रभ सर्वकालिक और लिंगमुक्त मानते हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने आत्म-दर्शन और का 'मोक्ष' संबंधी मार्गदर्शन आत्म-साधकों के लिए प्रकाश-स्तम्भ आत्म-विकास के लिए ध्यानयोग पर विशेष जोर दिया है। वे ध्यान को एवं मील का पत्थर साबित होता है। अध्यात्म का प्रथम व अंतिम द्वार मानते हैं। इस तरह श्री चन्द्रप्रभ का आत्मदर्शनकानिष्कर्ष आत्मदर्शन भारतीय दर्शन जगत एवं आत्म-जिज्ञासुओं के लिए मील के पत्थर की तरह मार्गदर्शक है। श्री चन्द्रप्रभ द्वारा प्रस्तुत आत्मदर्शन से सम्बन्धित विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि श्री चन्द्रप्रभ ने आत्मा को शरीर से भिन्न माना है एवं आत्मा को 'जीवनी (चैतन्य) शक्ति' कहा है। उन्होंने 'जीवन यात्रा' सम्पूर्ण अध्याय के अनुशीलन से स्पष्ट होता है कि श्री चन्द्रप्रभ का पुस्तक में आत्मा को तर्कों के द्वारा सिद्ध करने की कोशिश की है, पर सिद्धांत एवं विचार-दर्शन दर्शन क्षेत्र में नई दृष्टि एवं चिंतन को स्थापित 'स्वअनुभूति ' को वे सबसे बड़ा प्रमाण मानते हैं। उन्होंने 'कोहं' करता है। उसमें आदर्शवाद, यथार्थवाद, मनोवैज्ञानिकता एवं अर्थात् 'मैं कौन हूँ?' को आत्मअनुभव हेतु मुख्य साधना मंत्र कहा है। तार्किकता का वैज्ञानिक दृष्टि से संगम एवं समन्वय हुआ है। श्री वे आत्मा के बंधन का मूल कारण संसार को नहीं, अंतर्मन में पलने चन्द्रप्रभ ने जहाँ एक ओर भारतीय दर्शन में छिपे सैद्धांतिक एवं वाली आसक्ति को मानते हैं। उन्होंने अध्यात्मकपरक साहित्य में न व्यावहारिक सत्य को युगीन संदर्भो में प्रस्तुत किया है वहीं दूसरी ओर केवल आसक्ति के विभिन्न रूपों की विस्तार से चर्चा की है, वरन् उससे मूल्यहीन परम्पराओं को नकारा है। उन्होंने जीवन-जगत पर सूक्ष्म रूप मुक्त होने के सरल सूत्र भी बताए हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने आध्यात्मिक से दृष्टिपात कर नये जीवन-दर्शन की स्थापना की है जिसमें वर्तमान विकास के लिए संन्यास अथवा संसार की अनिवार्यता का खण्डन जीवन से जुड़ी समस्याओं का प्रभावी समाधान है तो जीवन को किया है। उन्होंने आत्म-शुद्धि हेतु चित्तशुद्धि पर बल दिया है। वे ऊँचाइयाँ देने का मार्गदर्शन भी। चित्तशुद्धि के लिए निम्न मार्गदर्शन देते हैं - श्री चन्द्रप्रभ ने धार्मिक एवं आध्यात्मिक दर्शन को नई दृष्टि से 1.क्रोध की बजाय प्रेम और प्रसन्नता को जीवन से जोड़ें। परिभाषित किया है। तत्त्वदर्शन की रूढ़ता एवं दुरूहता को दूर कर उसे 2. मैं शरीर में रहता हूँ, पर शरीर नहीं हूँ, इस मनोदशा को गहरा करें। वर्तमान उपयोगी बनाया है। उन्होंने भारतीय संस्कृति में प्रवेश कर रही 3. राग और द्वेष से ऊपर उठकर सहज-निर्लिप्त जीवन जिएँ। विकृत संस्कृति पर तीखी प्रतिक्रियाएँ दी हैं और राष्ट्रीय उन्नयन में 4.समता और समरसता को बढ़ाएँ। अवरोधक नीतियों के कारण पैदा हुई समस्याओं का सरल और प्रभावी 5.जीवन-बोध के साथ मृत्यु का बोध बनाए रखें। समाधान दिया है। 6.विपरीत लिंग के आकर्षण में न उलझें। श्री चन्द्रप्रभ का विचार-दर्शन मुख्यत: जीवन सापेक्ष है। उन्होंने श्री चन्द्रप्रभ के आत्मदर्शन में 'ईश्वर','ब्रह्म' और 'परमात्मा' जीवन को सुखी, सफल, समृद्ध एवं मधुर बनाने के लिए सरल सूत्रों तत्त्व पर भी अनुभवजनित विवेचन हुआ है। वे ईश्वरीय सत्ता में का विस्तृत रूप से विवेचन किया है। उन्होंने जीवन-मूल्यों से जुड़ा विश्वास करते हैं। उन्होंने प्राणिमात्र में व प्रकृति के कण-कण में ईश्वर धर्म-दर्शन देकर भारतीय दर्शन को समृद्ध किया है। उनका ध्यान एवं का नूर निहारने की प्रेरणा दी है। वे स्वयं भी प्राणीमात्र को 'प्रभु' अध्यात्म दर्शन भी वर्तमान सापेक्ष है। दर्शन को जीवन की भाषा में कहकर संबोधित करते हैं। उन्होंने परमात्म-अनुभूति के लिए चित्त का प्रस्तुत करना उनके सिद्धांत एवं विचार दर्शन की मुख्य विशेषता है। शांत व हृदय का सरल होना जरूरी माना है। उन्होंने ईश्वर के नाम, रूप, इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन-दर्शन देकर भारतीय दर्शन को नई दृष्टि आकार, संदेशों को लेकर पैदा हुई धार्मिक संकीर्णताओं को दूर किया और विकास के नये आयाम दिए हैं। है, उनकी उदार-दृष्टि धार्मिक सद्भाव को जन्म देती है। उन्होंने राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, जीसस, मोहम्मद को पंथ-परम्पराओं से मुक्त करने का साहस दिखाया है एवं उनके उपदेशों की सार्वजनिक उपयोगिता प्रतिपादित की है। उन्होंने भगवान के मंदिरों को पंथों से मुक्त करने की प्रेरणा देते हुए इस बात की ओर आगाह किया है कि उन संबोधि टाइम्स -105.org For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INDomanomenamentaHINI सदियों से अनेक मनीषियों एवं महान् दार्शनिकों के द्वारा इस बात को लेकर चिंतन-मनन होता रहा है कि जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिए और उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को किस तरह जीना चाहिए। इसी चिंतन के परिप्रेक्ष्य में भारत एवं अन्य देशों में अनेक दर्शनों का उदय होता रहा है। मानव-समाज में इस बात को लेकर सदैव जिज्ञासा बनी रही कि इन सब में से अधिक उपयोगी कौन है? फलस्वरूप उन सबकी व्यवस्थित रूप से तुलनात्मक एवं समालोचनात्मक अध्ययन करने की आवश्यकता महसूस हुई ताकि मानवीय जीवन के लिए उनकी उपयोगिता को निश्चित किया जा सके। 'मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना' की उक्ति के अनुसार जितने लोग होते हैं, उतने ही विचार एवं मत-मतान्तर होते हैं। व्यक्ति, विचार, वाणी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चलते मतभेदों का होना स्वाभाविक है किंतु जब हम 'अनेकांत' का दृष्टिकोण अपनाते हैं, तो हमें विविधता में भी एकता और समरूपता का अहसास होता है। यह एकता और समरूपता ही हमें'दर्शन' के व्यावहारिक पक्ष से जोड़ती है। पहले जीवन में 'दर्शन' की महत्त्वपूर्ण भूमिका हुआ करती थी, पर अब जीवन 'विज्ञान' पर केन्द्रित होता जा रहा है। जीवन में दर्शन व विज्ञान दोनों को महत्त्व दिया जाना चाहिए। दर्शन और विज्ञान दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। जीवन के संसाधन जुटाने के लिए जहाँ विज्ञान उपयोगी है, वहीं जीवन को दिशा देने के लिए दर्शन का सहारा लेना चाहिए। चूँकि भारतीय दर्शन अध्यात्म प्रधान रहा है इसलिए यहाँ के विचारकों ने जीवन-जगत की आध्यात्मिक व्याख्याएँ की, पर वैज्ञानिक प्रभाव के चलते वर्तमान में हुए दार्शनिकों ने प्राचीन संस्कृति को सुरक्षित रखते हुए वैज्ञानिक ढंग से दार्शनिक दृष्टि को आगे बढ़ाने का उपयोगी कार्य किया। वर्तमान संदर्भ में देखें तो जिन मनीषियों एवं दार्शनिकों ने जीवन, जगत एवं अध्यात्म की व्याख्याओं एवं उसके प्रायोगिक स्वरूपों को नए ढंग से विश्व के सामने प्रस्तुत किया उनमें कुछ नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं - स्वामी विवेकानंद, महात्मा गाँधी,महर्षि अरविंद, जे. कृष्णमूर्ति, डॉ. राधाकृष्णन, महर्षि रमण, ओशो, आचार्य महाप्रज्ञ, श्री रविशंकर, सत्यनारायण गोयनका, डॉ. अब्दुल कलाम, आइंस्टीन, टॉलस्टाय, स्वेट मार्डन, जेम्स एलन आदि। दार्शनिकों की इसी श्रृंखला में श्री चन्द्रप्रभ ऐसे दार्शनिक हुए जिन्होंने न केवल जीवन जगत् एवं अध्यात्म से जुड़े प्रश्नों के तात्त्विक एवं तार्किक समाधान तलाशे, बल्कि दर्शन जैसे गूढ़ विषय को भी जीवन का व्यावहारिक पक्ष बना दिया। उन्होंने वर्तमानकालीन व्यवस्थाओं से उत्पन्न समस्याओं का मनोवैज्ञानिक समाधान दिया और उन्नत भविष्य की रूपरेखा भी प्रस्तुत की। इस अध्याय के अंतर्गत श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन का अन्य दार्शनिकों श्री चन्द्रप्रभ की अन्य दार्शनिकों के साथ तुलना 106> संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के साथ तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक विवेचन किया जाएगा और सम्पूर्ण शिक्षा और बुद्धिमत्ता पर अहंमन्य एवं राज्याश्रय प्राप्त व्यक्तियों उसकी वर्तमान संदर्भो में उपयोगिता पर भी चर्चा की जाएगी। का एकाधिकार रहा है। यदि हमें उत्थान करना है तो शिक्षा को जनसाधारण में फैलाना होगा।" उन्होंने आत्मविश्वास के विकास के स्वामी विवेकानंद एवं श्री चन्द्रप्रभ लिए भी शिक्षा को अनिवार्य माना है। इस संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ ने । आधुनिक भारतीय दार्शनिक विचारधारा निरक्षरता और गरीबी को देश के लिए अभिशाप मानते हुए कहा है, को नूतन दिशा प्रदान करने में स्वामी "हम शिक्षा के प्रति जितने गंभीर होंगे हमारा विकास भी उतना ही तीव्र विवेकानंद एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन का होगा।" श्री चन्द्रप्रभ ने प्रतिभा को जीवन की सबसे बड़ी ताक़त कहा महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। स्वामी विवेकानंद है और शिक्षा को प्रतिभा की नींव बताया है। वे शिक्षा और रोजगार में 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जन्मे तब भारत पल रहे जातिगत आरक्षण को देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए एवं परतंत्र था और श्री चन्द्रप्रभ 20वीं शताब्दी के सरकारों को सचेत करते हुए कहते हैं, "अगर सरकार ने शिक्षा और | उत्तरार्ध में जन्मे तब भारत स्वतंत्र था। देश की प्रतिभाओं पर गौर नहीं किया तो विकसित राष्ट्र का सपना तत्कालीन स्थितियों को देखकर स्वामी विवेकानंद ने भारतीय धूमिल हो जाएगा।" श्री चन्द्रप्रभ ने अभिभावकों से लड़कियों को जनमानस में हिन्दुत्व के कर्मयोग धर्म का शंखनाद किया था और आज दहेज में धन देने की बजाय शैक्षणिक योग्यता देने की, अमीरों से शिक्षा श्री चन्द्रप्रभ जनमानस को कर्मयोग धर्म के साथ जीने की कला का के मंदिर बनाने की और शिक्षित लोगों से शिक्षा को आगे से आगे प्रायोगिक प्रशिक्षण दे रहे हैं। एक तरह से श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन और विस्तार करने की अपील की है। विवेकानंद का दर्शन समान विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। नारी उत्थान के संदर्भ में भी दोनों दर्शनों में समान दृष्टिकोण स्वामी विवेकानंद के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विश्लेषण से ज्ञात उजागर हुआ है। स्वामी विवेकानंद ने राष्ट्र निर्माण के लिए नारी उत्थान होता है कि वे वेदांत दर्शन के प्रति पूर्णतः समर्पित थे। उन पर मिल, पर विशेष बल दिया है। उन्होंने बाल-विवाह को गलत व विधवाकांट, हेगेल आदि दार्शनिकों के विचारों का और विज्ञान, उदारतावाद व विवाह को उचित कहा है। उन्होंने नारी को मातृ-शक्ति के रूप में पश्चिमी समाज के जनतांत्रिक स्वरूप का प्रभाव पड़ा। उन्होंने शंकर देखने और उनके साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार करने की प्रेरणा दी है। वे के अद्वैत वेदांत को सरल व वर्तमान युग के लिए उपयोगितापूर्ण भाषा विवाह-बंधन को पवित्रता के साथ जीने की सीख देते हैं। उन्होंने नारी में प्रस्तुत किया। उन्होंने जैन-बौद्ध-ईसाइयों के निष्क्रियता पूर्ण मुक्ति जाति को भारतीय संस्कृति व धर्म में पूर्ण श्रद्धा रखने, तेजस्वी व के सिद्धांत को वर्तमान संदर्भो में अप्रासंगिक बताते हुए गीता के शिक्षित बनने और लज्जा को छोड़ नारीत्व के प्रति स्वाभिमान रखने की निष्काम कर्मयोग को जीवन से जोड़ने की प्रेरणा दी। उन्होंने ही सबसे प्रेरणा दी है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में भी विकसित भारत के निर्माण के पहले 'दरिद्रनारायण' अर्थात् 'गरीबों की सेवा' का आदर्श स्थापित लिए महिलाओं को पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ने किया। वे मानव जाति के विकास के लिए स्वतंत्रता के प्रत्यय को भी की सीख दी गई है। वे कहते हैं, "पढ़ी-लिखी महिलाओं पर देश का महत्त्वपूर्ण मानते हैं। विवेकानंद दर्शन में राष्ट्रीय एकता की भावना, भविष्य टिका है। उन्हें स्वयं को घर की चारदीवारी में कैद कर नहीं नारी उत्थान, शिक्षा-विस्तार, जातिगत भेदभाव से मुक्ति, कर्मयोग, रखना चाहिए और अपने ज्ञान का उपयोग चूल्हे-चौके में करने के साथ सबसे प्रेम, सबकी सेवा, युवा संगठन, विराट धर्म, त्याग-भावना, आने वाली पीढ़ी के उज्ज्वल भविष्य निर्माण हेतु कटिबद्ध रहना गरीबी से मुक्ति जैसे विषयों पर भी विस्तार से विवेचन हुआ है। इस चाहिए।" वे नारियों को सीता के साथ समय पड़ने पर दुर्गा बनने की प्रकार विवेकानंद दर्शन मानवतावाद, निष्काम कर्मयोग पर केन्द्रित है। भी सलाह देते हैं। उन्होंने लड़कियों को दहेज की व्यवस्था खुद अपने स्वामी विवेकानंद के नारी उत्थान एवं शिक्षा विस्तार के संदेश भी हाथों से करके जाने और पाँवों पर खड़ी होने से पहले शादी के बारे में न वर्तमानोपयोगी हैं। उनका दर्शन राष्ट्र को समग्र उन्नति प्रदान करता है। सोचने की प्रेरणा दी है। विवेकानंद दर्शन एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन की तुलनात्मक समीक्षा स्वामी विवेकानंद की तरह श्री चन्द्रप्रभ भी गीता के निष्काम की जाए तो पता चलता है कि श्री चन्द्रप्रभ व स्वामी विवेकानंद के कर्मयोग में आस्था रखते हैं। स्वामी विवेकानंद का कहना है, "भारत विचारों में काफी समानता दिखाई देती है। दोनों दार्शनिकों ने राष्ट्र- दोबारा तभी उठ सकेगा, जब सैकड़ों विशाल हृदय, युवक-युवतियाँ विकास के लिए युवा पीढ़ी को आगे आने की प्रेरणा दी है। युवाओं को सुखोपभोग की समस्त कामनाओं को तिलांजलि दे दरिद्रता व अज्ञान से संबोधित करते हुए स्वामी विवेकानंद कहते हैं, "उठो, जागो और घिरे अपने करोड़ों देशवासियों के कल्याण हेतु अपनी पूरी शक्ति लगाने लक्ष्य तक पहुँचे बिना ठहरो मत, यही मेरा हर भारतवासी के लिए का संकल्प लेंगे।" श्री चन्द्रप्रभ ने निष्काम कर्मयोग को 'वर्क एज गुरुमंत्र है।" ऊर्जावान बनने की प्रेरणा देते हुए श्री चन्द्रप्रभ युवा पीढ़ी वर्शिप' के रूप में परिभाषित करते हुए कहा है, "व्यक्ति अपने कठिन से कहते हैं, "स्वयं को साहसी बनाओ, पहला साहस करो कोशिश पुरुषार्थ से महान् बनता है। ईश्वर भी उन्हीं का साथ देता है जो करने का, दूसरा साहस करो संकल्प करने का और तीसरा साहस करो कर्मयोगी होते हैं। भारत को स्वर्ग बनाने के लिए हमें प्रमाद को त्याग जोखिम उठाने का। यदि आप जोखिम नहीं उठाएँगे तो पुराने ढर्रे की कर कर्म हेतु आगे आना होगा और 'चरैवेति-चरैवेति' के मंत्र को ज़िंदगी जीने को मज़बूर रहेंगे।" अपनाना होगा।" __स्वामी विवेकानंद के दर्शन में राष्ट्र-उत्थान के लिए एवं श्री विवेकानंद-दर्शन की तरह श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन भी राष्ट्रीयता की चन्द्रप्रभ के दर्शन में जीवन-उत्थान हेतु शिक्षा-विस्तार पर बल दिया भावना से परिपूर्ण है। स्वामी विवेकानंद ने राष्ट्र के विघटन का मुख्य गया है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं, "भारत के पतन का मुख्य कारण कारण लोगों के मन में एक-दूसरे के प्रति पलने वाली जातिगत For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स 8107org Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मगत ईर्ष्या को बताया। अपने धर्म और महापुरुषों को ही सही मानने आंदोलन चलाया वहीं आज श्री चन्द्रप्रभ नई पीढ़ी के जीवन स्तर को वालों की धारणा को गलत बताते हुए श्री विवेकानंद ने कहा है, "ऐसा ऊँचा उठाने के लिए प्रयासरत हैं। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जहाँ मानने वालों को धर्म का क-ख-ग भी नहीं आता। धर्म तत्त्वचर्चा, महात्मा गाँधी ने सत्य और अहिंसा जैसे परम्परागत मूल्यों को सैद्धांतिक मतवाद या बौद्धिक स्वीकृति का नाम नहीं है। धर्म तो ईश्वर आधुनिक परिस्थितियों में लागू कर भारत को स्वतंत्रता दिलाई और से तद्रूपता व उसका अंत:करण में साक्षात्कार है।" उन्होंने राष्ट्र को इन्हीं मूल्यों को आधार बनाकर उन्नत भविष्य की रूपरेखा प्रस्तुत की, ऊँचा उठाने के लिए तीन बातों की प्रेरणा दी है - "सौजन्य की शक्ति वहीं आज श्री चन्द्रप्रभ विश्वप्रेम, मानसिक विकास, लक्ष्य-सिद्धि और में विश्वास, ईर्ष्या और संदेह का अभाव एवं धर्मपथ पर चलने वाले व आध्यात्मिक उन्नति के द्वारा वर्तमान विश्व की अनेक समस्याओं का सत्कर्म करने वालों की सहायता करना।" श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में समाधान करने की एवं उन्नत जीवन जीने का बेहतरीन प्रशिक्षण दे रहे राष्ट्रीयता की भावना को धर्म से भी सर्वोपरि माना गया है। राष्ट्रभक्त हैं। बनने की प्रेरणा देते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "व्यक्ति धर्मभक्त बनने महात्मा गाँधी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विवेचन से स्पष्ट होता से पहले राष्ट्रभक्त बने, नहीं तो वह मंदिर-मस्जिद से जुड़ा धार्मिक तो है कि नैतिकता एवं सामाजिकता के सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप देना बन जाएगा, पर जीवन का धार्मिक नहीं हो पाएगा।" व्यक्ति को जैन, उनके दर्शन की महत्त्वपूर्ण देन है। महात्मा गाँधी का देश-प्रेम अदभत हिंदू, बौद्ध, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई होने से पहले राष्ट्र की संतान होने था। वे राष्ट्रीय उत्थान के प्रति पूर्व सजग थे। उनके दर्शन में तत्त्वका गौरव होना चाहिए। उन्होंने भगवान के मंदिरों से भी ज़्यादा नीति के मीमांसा के अंतर्गत ईश्वर का मुख्य स्थान है। उन्होंने ईश्वर के स्वरूप मंदिरों की आवश्यकता पर जोर दिया और पश्चिमी ईमानदारी, व उसकी सिद्धि पर विस्तार से प्रकाश डाला है। जीवन के उत्तरार्ध में नैतिकता, राष्ट्रभक्ति जैसे मूल्यों से प्रेरणा लेने की बात कही है। उन्होंने ईश्वर व सत्य को एक-दूसरे का पर्याय माना। महात्मा गाँधी के इसी तरह विवेकानंद एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में मूर्तिपूजा का दर्शन में नैतिक मीमांसा के अंतर्गत अहिंसा, अपरिग्रह, सत्याग्रह, समर्थन, सर्वधर्म-सद्भाव, सेवा, प्राणिमात्र से प्रेम, स्वधर्म-पालन साधन-शुद्धि, व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसे सिद्धांतों का प्रमुखता से और पश्चिमी अंधानुकरण के दुष्परिणाम जैसे बिन्दुओं पर भी सम- विश्लेषण हुआ है। महात्मा गाँधी का समाज-दर्शन भी उपयोगी है। दृष्टिकोण प्रकाशित हुआ है। श्री चन्द्रप्रभ ने इसके अतिरिक्त वर्तमान उन्होंने इसके अंतर्गत वर्ण-जाति व्यवस्था, श्रम-प्रतिष्ठा, औद्योगिक में उत्पन्न आतंकवाद, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार, जातिगत आरक्षण, प्रगति, शिक्षा, स्वराज्य, सर्वोदय, ग्रामोद्योग व ग्रामोत्थान, अस्पृश्यतादलगत राजनीति, अनैतिकता, धार्मिक संकीर्णता, चरित्रहीनता, निवारण, गौरक्षा, खादी, सफाई-चिकित्सा, राष्ट्रभाषा, स्त्री-शक्ति, देशद्रोह, काम-चोरी, साम्प्रदायिक टकराव, नशाखोरी, गंदगी, संतति-नियमन, शराबबंदी जैसे सिद्धांतों पर महत्त्वूपर्ण प्रकाश डाला भ्रूणहत्या, मांसाहार, दहेज हत्या, पर्यावरण प्रदूषण, फैशन-परस्ती है। इस प्रकार गाँधी दर्शन नैतिक व सामाजिक मूल्यों पर आधारित है। और प्रतिस्पर्धा से उत्पन्न चिंता-तनाव जैसी समस्याओं के समाधान पर महात्मा गाँधी एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन की तुलनात्मक समीक्षा भी विस्तार से प्रकाश डाला है। करने से पता चलता है कि दोनों दर्शन भारतीय संस्कृति व राष्ट्र इस विवेचन से सिद्ध होता है कि विवेकानंद एवं श्री चन्द्रप्रभ का कल्याण के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित हैं। इसी दृष्टि को उजागर करते हुए दर्शन एक-दूसरे के काफी निकट है। स्वामी विवेकानंद ने राष्ट्रीय महात्मा गाँधी कहते हैं,"भारत मेरे लिए दुनिया का सबसे प्यारा देश उत्थान से जुड़े पहलुओं पर बल दिया और श्री चन्द्रप्रभ ने स्वतंत्रता के है। मैंने इसमें उत्कृष्ट अच्छाई का दर्शन किया है।" उन्होंने भेदभाव बाद उपजी समस्याओं का समाधान करने की कोशिश की। जिस तरह रहित, नशीली चीज़ों से मुक्त, स्त्री-पुरुषों के समान अधिकारों से विवेकानंद ने वेदांत दर्शन की सकारात्मक व्याख्या की उसी तरह श्री युक्त, शोषण की भावनाओं से दूर और सर्वहित की कामना जैसी चन्द्रप्रभ ने न केवल राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, जीसस, नानक, विशेषताओं से युक्त भारत के निर्माण की पहल की है। श्री चन्द्रप्रभ के मोहम्मद के सिद्धांतों एवं विभिन्न शास्त्रों की सकारात्मक विवेचना की साहित्य में भी भारतीय संस्कृति का गुणगान हुआ है। वे कहते हैं, वरन् उन्हें एक-दूसरे के निकट लाने की कोशिश की। सार रूप में श्री "हमें स्वयं के भारतीय होने का गौरव होना चाहिए। हम उस संस्कृति चन्द्रप्रभ को इक्कीसवीं सदी का विवेकानंद कहा जाए तो अतिशयोक्ति के संवाहक हैं, जिसने सारे संसार को विश्व-मैत्री, विश्व-प्रेम और न होगी। विश्व-बंधुत्व का संदेश दिया है। भारत की आत्मा ताजमहलों या कुतुबमीनारों में नहीं वह तो इस देश की सहिष्णुता और शूरवीरता में, महात्मा गाँधी एवं श्री चन्द्रप्रभ शांति और मर्यादा में, अहिंसा और करुणा में मिलेगी।" श्री चन्द्रप्रभ ने आधुनिक भारतीय विचारकों में महात्मा वैश्विक समस्याओं के समाधान के लिए पुनः इन्हीं मूल्यों को विश्व के गाँधी एवं श्री चन्द्रप्रभ का अनन्य स्थान है। कोने-कोने तक पहुँचाने की आवश्यकता बताई है। यद्यपि वे शास्त्रीय दार्शनिक नहीं हैं, तथापि श्री चन्द्रप्रभ व महात्मा गाँधी के दर्शन में ईश्वर के अस्तित्व को इन्होंने जीवन-जगत को देखकर एवं अतीत में स्वीकार किया गया है। महात्मा गाँधी ने ईश्वर सिद्धि के परम्परागत हुए महापुरुषों द्वारा प्रतिपादित जीवनोपयोगी तर्क देते हए अंतआत्मा की आवाज़ को ही ईश्वर की आवाज़ माना है। मूल्यों को ग्रहण कर उसे वर्तमान संदर्भो में उन्होंने ईश्वर को सत्य और प्रेम के रूप में अनभव करने की प्रेरणा देते विवेचित किया है जिससे उनका नवीन हए कहा है."ईश्वर के अस्तित्व के प्रति श्रद्धा का अर्थ है : जगत के दार्शनिक दृष्टिकोण प्रतिपादित हुआ है। जहाँ नैतिक शासन और नैतिक नियमों को स्वीकार करना अर्थात् सत्य एवं महात्मा गाँधी ने भारत की परतंत्रता से आहत होकर स्वतंत्रता का प्रेम के नियम की सर्वोच्चता में विश्वास रखना।" महात्मा गाँधी ने 108 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवता में ईश्वर का निवास माना है। वे कहते हैं, "यदि मैं यह परिग्रह को ईश्वरीय नियमों के विरुद्ध मानते हैं। उन्होंने परिग्रह पर विश्वास कर पाता कि ईश्वर मुझे हिमालय में मिलेगा तो मैं तुरंत वहाँ संयम करने के लिए ट्रस्टीशिप का सिद्धांत अपनाने की प्रेरणा दी। पहुँचता, पर मैं उसे मानवता से पृथक् नहीं कर सकता।" बाद में ट्रस्टीशिप का सिद्धांत अनावश्यक परिग्रह को समाज कल्याण में गाँधीजी ने 'सत्य ही ईश्वर है' कहकर ईश्वर से ज़्यादा सत्य को महत्त्व । उपयोग करने की सीख देता है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में गरीबी को दिया। इस तरह गाँधी जी ने ईश्वरीय मान्यताओं में समग्र जीवन-दृष्टि जीवन का अभिशाप मानते हुए सबको समृद्ध होने का आत्मविश्वास लाने की कोशिश की। जगाया गया। वे कहते हैं, "हर व्यक्ति समृद्ध बने,समाज में गरीबों को श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में ईश्वर के अस्तित्व को सर्वत्र स्वीकार कोई नहीं पूछता। अपरिग्रह का सिद्धांत अमीरों के लिए है,गरीबों के किया गया है। श्री चन्द्रप्रभ की दृष्टि में, ईश्वरीय अनुभति अंतर्घट में लिए नहीं।" उन्होंने आवश्यकतानुसार वस्तुओं का संग्रह करने की उसके प्रति जगने वाली प्यास है। वे कहते हैं, "ईश्वर हमारी छाया की प्रेरणा दी है व झूठ-चोरी-रिश्वतखोरी-भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं का तरह हमारे साथ है, हमारे इर्द-गिर्द गज़र रही हवाओं में भी उसी की मूल कारण परिग्रह-बुद्धि को माना है। उन्होंने महात्मा गाँधी द्वारा दिए स्पर्शना है, हमारे आस-पास खिल रहे फूलों में भी उसी की सवास है। गए अपरिग्रह व्रत की प्रशंसा करते हुए कहा, "महावीर के बाद गाँधी आँखों के आगे से गुज़र रहे हर रूप के साथ उसी का अहसास है. बस ने अपरिग्रह को चरितार्थ किया।अब फिर से गाँधी की ज़रूरत आ पडी वह प्यास, दृष्टि, हार्दिकता, संवेदनशीलता, सजगता चाहिए जो हमें __ है जो गरीबों की, ज़रूरतमंदों की पीड़ा को समझे और देश के चरित्र को उसका सुखद अहसास दे सके।" इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ईश्वर को अपरिग्रह का चरित्र बनाए।" इसी तरह श्री चन्द्रप्रभ एवं महात्मा गाँधी खोजने की बजाय उस शक्ति को पहचानने पर बल देते हैं। उन्होंने के दर्शन में साधन शुद्धि, श्रम प्रतिष्ठा, शराबबंदी, अस्पृश्यता निवारण, अनेक ईश्वरीय रूपों में एक रूप देखने की और हर कर्म को प्रभु-पूजा सफाई व्यवस्था, गौरक्षा के सिद्धांतों पर भी वैचारिक समानता दिखाई मानते हुए करने की प्रेरणा दी है। वे दु:खी, रोगी, अपाहिज की सेवा व देती है। स्वार्थ के त्याग को भी प्रभु-पूजा तुल्य मानते हैं। इस तरह स्पष्ट है कि महात्मा गाँधी एवं श्री चन्द्रप्रभ भारतीय श्री चन्द्रप्रभ व महात्मा गाँधी के दर्शन में नैतिक मूल्यों को जीवन संस्कृति के मूल तत्त्वों में बेहद आस्था रखते हैं और उन्हें राष्ट्रीय में अपनाने पर विशेष बल दिया गया है। महात्मा गाँधी ने नैतिक मूल्यों उत्थान एवं जीवन-निर्माण के आधार स्तंभ के रूप में प्रस्तुत करते हैं। के अंतर्गत अहिंसा व सत्य को सर्वोच्च स्थान दिया है। वे कहते हैं, जहाँ महात्मा गाँधी प्राचीन मूल्यों को वर्तमान देश की परिस्थितियों के "जब आप सत्य को ईश्वर के रूप में जानना चाहो तो उसका एकमात्र साथ पूर्णरूपेण लागू करना चाहते हैं वहीं श्री चन्द्रप्रभ उन्हें उपयोगिता उपाय है प्रेम और अहिंसा।" महात्मा गाँधी ने अहिंसा के सकारात्मक के आधार पर अपनाने के समर्थक हैं। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में ईश्वर भाव पर विस्तार से प्रकाश डाला है। वे अहिंसा को स्वीकारात्मक, संबंधी विचार अनेकता में एकता व विराटता के रूप में प्रस्तुत हुआ है। वीरों का सिद्धांत, कर्मठता का दर्शन, विरोधियों को परास्त करने का जहाँ महात्मा गाँधी ने प्राणिमात्र में ईश्वरीय तत्त्व की विद्यमानता आधार व राष्ट्र-निर्माण करने वाली शक्ति बताते हैं। स्वीकार की वहीं श्री चन्द्रप्रभ ने सृष्टि के कण-कण में ईश्वरीय तत्त्व श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में नैतिक मूल्यों के अंतर्गत अहिंसा, प्रेम, का अस्तित्व माना है। दोनों दर्शन अहिंसा को राष्ट्र-रक्षा की नींव मानते शांति, सहयोग, व्यसनमुक्ति को विशेष स्थान प्राप्त हुआ है। श्री हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने अपरिग्रह सिद्धांत का समर्थन करते हुए भी समृद्ध चन्द्रप्रभ कहते हैं, "समृद्धि का कितना ही अंबार क्यों न लग जाए बगैर बनने की प्रेरणा दी है जो कि उनके वर्तमान अनुभवों का परिणाम है। नैतिक मूल्यों के व्यक्तित्व का निर्माण, सामाजिक मूल्यों का विकास व सार रूप में कहा जाए तो श्री चन्द्रप्रभ व महात्मा गाँधी के विचारों में देश का उत्थान नहीं हो सकता है। हमने अब तक धर्म-मज़हबों को काफी हद तक समानता होते हुए भी वर्तमान भारत के स्वरूप से श्री स्थापित करने के लिए जितना प्रयास किया, उतना प्रयास नैतिक मूल्यों चन्द्रप्रभ ज़्यादा संतुष्ट हैं। के लिए किया गया होता तो आज भारत का स्वरूप कुछ और ही श्री अरविंद एवं श्री चन्द्रप्रभ होता।" वे अहिंसा को सारे संसार की सुरक्षा का आधार और उसका अर्थ प्राणिमात्र के प्रति मंगल मैत्री साधने को बताते हैं। उन्होंने श्री अरविंद एवं श्री चन्द्रप्रभ दोनों ही आतंकवाद, उग्रवाद, दुर्व्यसन, मांसाहार जैसी समस्याओं से निजात अध्यात्म एवं योग-परम्परा से सम्बद्ध हैं। जैसे पाने व विश्वशांति की स्थापना हेतु अहिंसा, प्रेम एवं शांति जैसे नैतिक श्री अरविंद का दर्शन दर्शन के मूल तत्त्वों की मूल्यों को जन-जन में प्रसारित करने की पहल की है। श्री चन्द्रप्रभ ने व्याख्या करने में, आंतरिक जीवन के विकास अहिंसा के अंतर्गत मानसिक, वाचिक एवं कायिक हिंसा का त्याग को नई दिशा देने में और मानवता के उज्ज्वल करने की प्रेरणा दी है। श्री चन्द्रप्रभ ने 'यह है रास्ता इंसान के जीवंत धर्म भविष्य की रूपरेखा प्रस्तुत करने में सक्षम सिद्ध का','महावीर : आज की व आपकी हर समस्या का समाधान' नामक हुआ है, वैसे ही श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन दार्शनिक पुस्तकों में अहिंसापरक मूल्यों पर विस्तार से प्रकाश डाला है। तत्त्वों की युगीन संदर्भो में व्याख्या करने, आध्यात्मिकता को नई दिशा श्री चन्द्रप्रभ एवं महात्मा गाँधी के दर्शन में अपरिग्रह को र दन एव सुखा, र देने एवं सुखी, सफल और मधुर जीवन जीने का प्रायोगिक मार्गदर्शन सामाजिक उत्थान के लिए अपरिहार्य बताया गया है। महात्मा गाँधी ने प्रदान करने के कारण आधुनिक विश्व में समादृत हुआ है। एक तरह से स्वयं अपरिग्रह को पराकाष्ठा के साथ जिया, जो कि विश्व के लिए दोनों दर्शन भौतिकता से आपूरित मानवता को आध्यात्मिक समृद्धि आदर्श रूप था। वे अपरिग्रह को सुख, शांति व संतोष का आधार व प्रदान करने में सफल रहे हैं। संबोधि टाइम्स -109.org For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अरविंद के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विवेचन से स्पष्ट होता है श्री चन्द्रप्रभ ने योग साधना के अंतर्गत निम्न बिंदुओं को जीवन में कि वे सदैव परम सत्य व विश्व-प्रेम के उदात्त मानवीय आदर्शों से आत्मसात् करने की प्रेरणा दी हैप्रेरित रहे हैं। उन्होंने दर्शन से जुड़े पाश्चात्य एवं प्राचीन भारतीय 1.सात्त्विक भोजन लें। वाङ्गमय का गहन अध्ययन किया। उन्होंने योग-साधना के साथ 2.विचारों को स्वस्थ व सकारात्मक रखें। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी रुचि दिखाई, पर वे धीरे-धीरे राजनीति 3.विपरीत निमित्तों में शांति बनाए रखें। की बजाय आध्यात्मिक साधना की ओर उन्मुख होते चले गए। श्री 4.हर परिस्थिति में प्रसन्न रहें। अरविंद ने भारतीय दर्शन की मूलभूत समस्याओं को सुलझाने में व 5.जीवन को सुव्यवस्थित करें। प्राचीन सांस्कृतिक प्रतीकों की व्याख्या करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका 6. प्रत्येक कार्य को परमात्मा की प्रार्थना मानकर उत्साहभाव से करें। निभाई। उन्होंने न केवल भारतीय चिंतन की विपरीत धाराओं के बीच ध्यान की एकाग्रता साधने के संबंधी प्रश्न के संदर्भ में जहाँ श्री सामंजस्य स्थापित किया वरन् उनकी आधुनिक पाश्चात्य चिंतन के अरविंद ने हृदय केन्द्र पर ध्यान करना उत्तम माना है, वहीं श्री चन्द्रप्रभ मूल्यवान तत्त्वों के साथ समन्वयात्मक समीक्षा भी प्रस्तुत की। वे ज्ञान ने हृदय व मध्य ललाट पर ध्यान एकाग्र करने को उपयोगी कहा है। श्री प्रक्रिया के अंतर्गत वृद्धि-तत्त्व को विशेष स्थान देते हैं। उन्होंने ब्रह्म अरविंद कहते हैं, "उच्चतर सत्य की प्राप्ति हेतु हृदय पर एकाग्र होना विषयक निषेधात्मक व्याख्या को भावात्मक रूप दिया। श्री अरविंद का । सबसे अधिक उत्तम है।" हमें हृदय को केन्द्र बनाने के साथ भक्ति विकासवाद का सिद्धांत दर्शनशास्त्र में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। और अभीप्सा द्वारा चैत्य पुरुष को सामने लाना होगा और भगवत् शक्ति श्री चन्द्रप्रभ एवं श्री अरविंद के दर्शन की तुलनात्मक समीक्षा के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित करना होगा, जिससे साधना अच्छे काम करने से स्पष्ट होता है कि इन दोनों दर्शनों ने योग-साधना पर विस्तार देना आरंभ कर देगी। ध्यान की एकाग्रता के परिणामों का विवेचन से प्रकाश डाला है। श्री अरविंद एवं श्री चन्द्रप्रभ ने देहगत प्रकृति से करते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "हृदय अथवा दोनों भौंहों के मध्य ऊपर उठने व विश्वव्यापी चेतना अथवा समाधि को घटित करने के ललाट के तिलक प्रदेश पर ध्यान केन्द्रित करना साधना में विशेष लिए ध्यान-योग की अनिवार्यता प्रतिपादित की है। श्री अरविंद के सहयोगी है। जहाँ हृदय शांति, समर्पण व प्रसन्नता का दिव्य केन्द्र है अनुसार पूर्ण योग (अतिमानस का अवतरण) एवं श्री चन्द्रप्रभ के वहीं मस्तिष्क पर ध्यान धरने से संकल्प, विश्वास और चिंतन शक्ति अनुसार आध्यात्मिक शांति एवं संबोधि की प्राप्ति योग साधना का मुख्य का जागरण होता है।" उद्देश्य है। इस संदर्भ में श्री अरविंद कहते हैं, "अभी मनुष्य चेतना के श्री अरविन्द एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में परस्पर विरोधी सिद्धांतों ऊपरी तल तक सीमित है। वह मन-इन्द्रियों के द्वारा ही सब कुछ की त्रुटियों का परिमार्जन कर नए सिद्धांत की प्रस्तुति देने के तत्त्व भी समझता-जानता है, पर योग के द्वारा मनुष्य में एक ऐसी चेतना खुल दृष्टिगोचर होते हैं। जहाँ पाश्चात्य विकासवादियों का दृष्टिकोण सकती है जो जगत के चेतना के साथ एक हो जाती है। मनुष्य प्रत्यक्ष बौद्धिक व वैश्विक था वहीं पूर्वी विकासवादियों का सिद्धांत रूप में एक विश्वव्यापी पुरुष के विषय में सचेतन हो जाता है जिसमें आध्यात्मिक व व्यक्तिपरक था। श्री अरविंद ने विकासवाद के दोनों वह विश्वगत स्थितियों, शक्ति व सामर्थ्य, विश्वव्यापी मन, प्राण और सिद्धांतों की एकांतिकता को हटाकर अतिमानव के विकासवाद का जड़-तत्त्व को जान जाता है तथा इन सब चीज़ों के साथ सचेतन संबंध नया सिद्धांत प्रस्तुत किया और श्री चन्द्रप्रभ ने धर्मागत व ध्यानगत स्थापित करके विश्वव्यापी चेतना अर्थात विराट जीवन को प्राप्त कर संकीर्णताओं का परिमार्जन कर उदार दृष्टिकोण देने की पहल की। लेता है।" धार्मिक-संकीर्णता को त्यागने की प्रेरणा देते हुए श्री चन्द्रप्रभ ने कहा, "दुनिया के हर धर्म, पंथ, मज़हब में महान् से महान् सिद्धांत हैं, विचार श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में योग को स्वास्थ्य से समाधि तक का सफर हैं, चिंतक व महापुरुष हैं। हम अपनी दृष्टि को उदार बनाएँ ताकि हम माना गया है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "व्यक्ति स्वास्थ्य से योग की हर पंथ-परम्परा की विशेषताओं से लाभान्वित हो सकें।" शुरुआत करता है, मानसिक शांति को उपलब्ध करता हुआ दिमाग के श्री चन्द्रप्रभ ने विभिन्न महापुरुषों एवं धर्मशास्त्रों के संदेशों को तनाव व बोझ से मुक्त होता है। आत्मा के साथ अपने संबंध जोड़कर परम्परा विशेष तक सीमित रखने का विरोध करते हुए कहा है, "गीता शांति, समाधि व प्रज्ञा की सर्वोच्च स्थिति को उपलब्ध करना ही योग में वर्णित कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग की बात क्या केवल की परिपूर्णता है।"दोनों दर्शनों में साधना-सिद्धि हेतु अनेक सहयोगी हिंदुओं के लिए है? महावीर का अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांत का बातों का उल्लेख किया गया है। श्री अरविंद ने निम्न प्रेरणाएँ दी हैं - सिद्धांत क्या केवल जैनों के लिए है? जात-पाँत व छुआछूत से ऊपर 1.अच्छी चीज़ों को पढ़ें। उठने से जुड़ा मोहम्मद साहब का सिद्धांत क्या केवल मुसलमानों पर ही 2.व्यवहार में संयम लाएँ। लागू हो? ईश्वर में अपने प्रेम को स्थापित करने व प्राणिमात्र की सेवा 3. वस्तुओं के उपयोग में सावधानी रखें। करने का जीसस का उपदेश क्या केवल ईसाइयों के लिए है? नहीं, 4.दूसरों को ठेस पहुँचाने वाली बातों से बचें। महापुरुष सबके हैं, उनके संदेश प्राणिमात्र के लिए हैं। हमें महापुरुषों 5.आलोचना से जुड़ी चर्चाओं में भाग न लें। 6. झगड़े के माहौल में शांत रहें और बिना सोचे-विचारे कुछ न की अच्छाइयों को ग्रहण करना चाहिए।" बोलें। __भारतीय धर्म-दर्शनों में मुक्ति हेतु किसी ने ज्ञानयोग को महत्त्व 7.साधना के प्रति समर्पण रखें और आत्मविश्वास में दृढ़ता लाएँ।। नाम दिया, किसी ने भक्तियोग को, किसी ने कर्मयोग को महत्त्व दिया तो 8. संसार की निस्सारता समझें डर हटाएँ और भगवत्ता की ओर किसी ने ध्यानयोग को मुख्य मार्ग बताया। व्यक्ति इनमें से किस मार्ग उन्मुख रहें। को अपनाए, इस दुविधा को दूर करने के लिए श्री चन्द्रप्रभ ने सभी 110» संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धाराओं में समन्वय स्थापित करते हुए कहा, "हृदयवान लोगों के लिए मौन रहना और कर्मयोग में मग्न रहना।" श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में भक्तियोग का, बुद्धिप्रधान लोगों के लिए ज्ञानयोग का और श्रमप्रधान भगवान की सत्ता मनुष्य के हृदय में व सृष्टि में सर्वत्र मानी गई है। श्री लोगों के लिए कर्मयोग का मार्ग है, पर इन सभी मार्गों को पूर्णता देने के चन्द्रप्रभ कहते हैं, "प्रभु हम सबके पास हैं, प्राणिमात्र में उसी प्रभु का लिए ध्यानयोग का मार्ग है।" इस तरह उन्होंने धर्म व साधना के संदर्भ निवास है जिसमें अनन्य भक्ति होती है, वह प्रभु को पहचान जाता में नये दृष्टिकोण उजागर किए हैं। है।" वे प्रभु से अच्छा स्वभाव, औरों की भलाई व दायित्वों का पालन निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि दोनों दर्शन ध्यानयोगमार्गी हैं। श्री करने की शक्ति देने की प्रार्थना करने की सीख देते हैं। उन्होंने प्रभुअरविंद ने पांडिचेरी में व श्री चन्द्रप्रभ ने हम्फी की गफाओं में साधना भक्ति के लिए समय निकालने व हर परिस्थिति में प्रभु पर विश्वास करके आत्म-प्रकाश को उपलब्ध किया व प्राणिमात्र को योग से जडा रखने की प्रेरणा दी है। सरल मार्ग प्रदत्त किया। दोनों दार्शनिकों की समन्वयात्मक एवं उदार आचार्य विनोबा भावे एवं श्री चन्द्रप्रभ ने नैतिक जीवन जीने पर दृष्टि वर्तमान विश्व के विकास के लिए बहुत उपयोगी है। संक्षेप में बल दिया है। विनोबा भावे ने नैतिक मूल्यों के अंतर्गत अहिंसा, सत्य, जहाँ श्री अरविंद ने आध्यात्मिक एवं दार्शनिक तत्त्वों को चेतनागत निर्भयता, ब्रह्मचर्य, सत्यप्रियता, शिष्ट वाणी, क्षमा, सद्व्यवहार, विकासवाद के दृष्टिकोण से विवेचित किया वहीं श्री चन्द्रप्रभ ने अपरिग्रह आदि को जीवन में आत्मसात करने का मार्गदर्शन दिया है। जीवनगत दृष्टिकोण से विवेचित कर उन्हें सर्वजन उपयोगी बनाने में उन्होंने इन पर अच्छा प्रकाश डाला है। श्री चन्द्रप्रभ नैतिक मूल्यों को योगदान दिया। समाज व राष्ट्र के निर्माण की नींव मानते हैं। वे कहते हैं, "देश की तरक्की केवल चौड़ी सड़कों और पुलों के निर्माण से नहीं, सत्य व विनोबा भावे एवं श्री चन्द्रप्रभ ईमान की प्रतिष्ठा करने से होगी।" उन्होंने भगवान के मंदिरों से ज़्यादा वर्तमान दार्शनिकों की श्रृंखला में विनोबा नीति के मंदिरों की आवश्यकता बताई है। वे पंथ-परम्परा के मूल्यों की भावे एवं श्री चन्द्रप्रभ का विस्तार-दर्शन समाज बजाय राष्ट्र-मूल्यों को महत्त्व देने व रूढ़िवाद की बजाय राष्ट्रीय को नई दिशा प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण स्थान भावनाओं पर विचार करने की प्रेरणा देते हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने नैतिक रखता है। दोनों दार्शनिकों ने न केवल मूल्यों के अंतर्गत निम्न सूत्रों को अपनाने पर जोर दिया है - आध्यात्मिक तत्त्वों की व्याख्या की वरन् उसे 1.औरों का दिल न दुःखाएँ। व्यावहारिक जीवन में आत्मसात् करने का 2. रक्तशोषण न करें। मार्गदर्शन भी दिया। जहाँ विनोबा भावे का 3. चोरी-बेईमानी से बचें। जीवन गाँधीवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने, भूदान आंदोलन का विस्तार करने व सामाजिक विकास के लिए समर्पित रहा वहीं श्री 4. चरित्र के प्रति निष्ठाशील रहें। चन्द्रप्रभ का दर्शन धार्मिक एकता स्थापित करने, जीवन-निर्माण व 5. ज़रूरतमंद लोगों का सहयोग व दुर्व्यसनों का त्याग करें। व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करने पर केन्द्रित है। विनोबा भावे के विनोबा भावे एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में कर्मयोग को विशेष दर्शन की समीक्षा करने से स्पष्ट होता है कि वे आद्य शंकराचार्य, संत स्थान प्राप्त है। दोनों दर्शन गीता के निष्काम कर्मयोग में आस्था रखते ज्ञानेश्वर व विशेष रूप से गाँधीवादी दर्शन से प्रभावित हैं । विनोबा भावे हैं। विनोबा भावे ने प्रत्येक कार्य को पूजा की भावना से करने की सीख महात्मा गाँधी के पहले सत्याग्रही साधक थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा दी है। वे कहते हैं, "हाथ से काम हो और हृदय में भक्ति हो तभी कार्य महात्मा गाँधी के आश्रम में हुई। उन्होंने गाँधीवादी दर्शन को आगे पूजा करना कहलाएगा। पूजा की भावना के बिना काम समर्पण नहीं बढ़ाया और भूदान आंदोलन कर देश में नई क्रांति की। वे आध्यात्मिक बनेगा।" उन्होंने कर्म को आनंदपूर्ण बनाने के लिए हार-जीत को दृष्टिकोण से साम्यवादी थे और राजनीतिक दृष्टिकोण से समाजवादी समान समझने और सबको साथ लेकर काम करने का मार्गदर्शन दिया थे। उन्होंने प्रभु भक्ति, अध्यात्म-साधना, गुरुदीक्षा, कर्मयोग, धर्म, है।श्री चन्द्रप्रभ कड़ी मेहनत करने के समर्थक हैं। वे किस्मत का फल चित्त-शुद्धि, विकार-मुक्ति, सत्य-अहिंसा, आत्मज्ञान व विज्ञान, पाने के लिए भी पुरुषार्थ करना ज़रूरी मानते हैं। वे कहते हैं, "जब ब्रह्मचर्य, वाणी-विवेक, क्षमा, शिक्षा, गौरक्षा, सेवा, प्राकृतिक जूतों का काम करके कोई बाटा बन सकता है और लोहे का काम करके चिकित्सा, अपरिग्रह, खादी, भूदान-ग्रामदान आदि बिन्दुओं पर भी कोई टाटा बन सकता है फिर हम ऊँचाइयों को क्यों नहीं छू सकते हैं।" विस्तार से चर्चा की है। उन्होंने कर्म-योग की व्याख्या इस प्रकार की है - विनोबा भावे एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन की तुलनात्मक विवेचना 1. हर कर्म प्रभु को समर्पित करें। करने से स्पष्ट होता है कि दोनों दर्शनों में ईश्वर के प्रति निष्ठा व्यक्त की 2.किसी भी कार्य को छोटा न समझें। गई है और प्रभु-प्रार्थना पर जोर दिया गया है। विनोबा भावे ने प्रभु 3. पूर्ण लगन से कार्य करें और हर कार्य को पूर्णता देकर ही प्रार्थना को दैववाद व प्रयत्नवाद का समन्वय किया है। वे प्रार्थना का विश्राम लें। अर्थ अहंकार रहित प्रयत्न बताते हैं और प्राणिमात्र में हरिदर्शन करना 4.असफलताओं से कभी भी विचलित न होवें।। भी मानते हैं। उन्होंने प्रभु से असत्य से सत्य, अंधकार से प्रकाश और मृत्यु से अमृतत्व ओर ले जाने की प्रार्थना करने की प्रेरणा दी है। उनकी आचार्य विनोबा भावे व श्री चन्द्रप्रभ का धर्म-दर्शन वर्तमान विश्व दृष्टि में, "प्रभु-प्रार्थना में तीन बातों का विवेक रखना चाहिए - दूसरों के लिए उपयोगी है। विनोबा भावे सर्वधर्म-सद्भाव के समर्थक हैं। क को दिखाने के लिए न करना, दूसरों के दोषों को न देखना, दिख जाए तो उनकी दृष्टि में, "जिससे समाज में प्रेम बढे, समाज निर्वेर बने, वही संबोधि टाइम्स > 111 For Personal & Private Use Only , Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म है।'' उन्होंने ' सर्वोदय' को सर्वोत्तम धर्म बताते हुए उसे सभी धर्मों की अच्छाइयों का समन्वय बताया है। श्री चन्द्रप्रभ ने हर धर्म को सत्यानुरागी व सत्याग्राही बनकर समझने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, "हर धर्म में दो अच्छी बातें हैं और हर महापुरुष में दो अच्छाइयाँ हम अच्छी बातों को ग्रहण करें व अच्छाइयों का सम्मान करें।" उन्होंने धर्म परिवर्तन करने या धर्मानुयायी बनने की बजाय अच्छा इंसान बनने का पाठ पढ़ाया है। वे क्रियाकांड की बजाय जीवंत धर्म को जीने की प्रेरणा देते हैं। इसके अंतर्गत पारिवारिक दायित्वों को निभाना, माता-पिता की सेवा करना, मानवता का सहयोग करना, हर कार्य को सजगता व अहिंसक तरीके से करना, सत्यनिष्ठ जीवन जीना, ज़रूरत भर संग्रह करना और सबके साथ सकारात्मक व्यवहार करना मुख्य हैं। विनोबा भावे एवं श्री चन्द्रप्रभ ने आध्यात्मिक विकास हेतु चित्तशुद्धि एवं विकार मुक्ति पर विशेष जोर दिया है। विनोबा भावे ने चित्त-शुद्धि व विकारों से मुक्त होने के लिए निम्न सूत्र दिए हैं - 1. परमात्मा को भीतर व बाहर देखें । 2. आसक्ति की बजाय विश्व से प्रेम बढ़ाएँ । 3. चित्त के प्रति साक्षी भाव लाएँ और प्रतिदिन आत्म-निरीक्षण करें। 4. ध्यान, स्वप्न और नींद के दौरान अपने चित्त को परखते रहें। 5. 'मैं मन से अलग हूँ', इसका सतत स्मरण रखें। 6. परमेश्वर का जाप करें और गुणग्राहक दृष्टि अपनाएँ । श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में जीवन-शुद्धि हेतु चित्त-शुद्धि को आवश्यक माना गया है। श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यानयोग को चित्त-शुद्धि का आधार स्तंभ कहा है। ध्यान के साथ उन्होंने चित्त शुद्धि के लिए निम्न सूत्रों का मार्गदर्शन दिया है 1. मन की चंचलता को शांत करें। 2. सांसारिक विषयों के चिंतन से बचें। 3. इच्छाओं पर संयम लाएँ व सबके प्रति मैत्री भाव रखें । आचार्य विनोबा भावे एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में शिक्षा पर भी महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त हुए हैं। विनोबा भावे ने शिक्षा को बुद्धि एवं अर्थप्रधान के साथ ' सच्चिदानंद' से युक्त करने की सलाह दी है। उनकी दृष्टि में, "हमारी शिक्षा का मूलमंत्र 'सच्चिदानंद' होना चाहिए। सत् है कर्मयोग, जिसके बिना जीवन टिकता ही नहीं, चित् है ज्ञानयोग, जिसके बिना जीवन जड़ बन जाता है और 'आनंद' के बिना जीवन में कोई रस नहीं रहता।" वे यौन शिक्षा देने के समर्थक नहीं हैं। उन्होंने विद्यार्थियों को शरीर से मजबूत बनने, पौष्टिक आहार लेने व इन्द्रियों पर संयम रखने की बात कही है। श्री चन्द्रप्रभ ने सफल कॅरियर बनाने के लिए बेहतरीन शिक्षा प्राप्त करने की प्रेरणा दी है। श्री चन्द्रप्रभ ने वर्तमान शिक्षण पद्धति का समर्थन किया है, पर साथ ही उसमें जीवन-दृष्टि व विचारों को बेहतर बनाने वाली शिक्षा का समावेश करने की सलाह दी है। वे शिक्षा में चल रहे जातिगत आरक्षण को गलत मानते हैं। उन्होंने शिक्षा स्तर को ऊपर उठाने के लिए छोटे परिवार को उचित बताया है। उन्होंने अभिभावकों को शिक्षा क्षेत्र में लड़के-लड़की के बीच भेदभाव न करने की और युवाओं को कॅरियर बनाने के बाद ही शादी के बारे में सोचने की प्रेरणा दी है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि दोनों दर्शन जीवन निर्माण और मानवीय उत्थान के करीब हैं। दोनों दार्शनिकों ने सामाजिक एवं 112 > संबोधि टाइम्स आध्यात्मिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। दोनों दर्शन भिन्न-भिन्न होते हुए भी एक-दूसरे के प्रतीत होते हैं । जे. कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ वर्तमानकालीन दार्शनिकों में जीवन और अध्यात्मपरक तत्त्वों को नए ढंग से प्ररूपित करने में जे. कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ का महत्त्वपूर्ण योगदान हैं। जे. कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ ने अपने दर्शन में बाह्य परिवर्तन की बजाय आंतरिक परिवर्तन पर बल दिया है। उन्होंने धर्म-अध्यात्म से जुड़ी परम्परागत मान्यताओं का खण्डन किया। उन्होंने पंथ-परम्पराओं का अनुयायी बनने की बजाय सत्य प्रेमी बनने की प्रेरणा दी। वे स्वबोध और सजगतापूर्वक जीवन जीने में विश्वास रखते हैं। दोनों दार्शनिकों ने ध्यान योग को जीवन के समग्र विकास के लिए आवश्यक बताया। इस तरह दोनों दर्शन भिन्न होते हुए भी निकटता लिए हुए हैं। जे. कृष्णमूर्ति के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि वे संबुद्ध स्थिति को उपलब्ध थे। वे पूर्व एवं पश्चिम की संस्कृतियों एवं परिस्थितियों से पूरी तरह परिचित थे। वे डॉ. एनीबेसेंट के निर्देशन में स्थापित 'आर्ट ऑफ दि स्टार' संस्था के प्रमुख थे, पर सत्य प्राप्ति के पश्चात् इन्होंने इस संस्था का विलय कर दिया। जे. कृष्णमूर्ति अनुयायी बनाने के पक्ष में नहीं थे। इन्होंने पंथ, धर्म, दर्शन की स्थापना की बजाय सत्य ज्ञान के विस्तार पर ज़ोर दिया। इन्होंने सुधार एवं विकास के लिए स्थापित विभिन्न धार्मिक, सामाजिक और आध्यात्मिक संगठनों को भी विकास विरोधी बताया जे. कृष्णमूर्ति के दर्शन में जीवन तत्त्व, आंतरिक क्रांति, धर्म, मुक्ति, सत्य, हिंसा, भय, ध्यान, संगठन, अहं, प्रेम, शिक्षा, मृत्यु जैसे बिन्दुओं पर प्रभावी मार्गदर्शन प्राप्त होता है। जे. कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन की तुलनात्मक विवेचना से स्पष्ट होता है कि दोनों दर्शनों में जीवन तत्त्व को महत्त्व दिया गया है एवं जीवन को आनंदपूर्ण तरीके से जीने की प्रेरणा दी गई है। जे. कृष्णमूर्ति ने परम सत्ता को जीवन तत्त्व के रूप में अभिहित किया है। उन्होंने इसे नाम, रूप, आकार के बंधनों से और पंथ, जन्म, मृत्यु, नरनारी आदि सभी भेदों से परे माना है। साथ ही इसका अस्तित्त्व प्राणीमात्र में प्रकृति में सर्वत्र स्वीकार किया है। वे कहते हैं, " सर्वत्र मैं स्वयं ही हूँ । अखिल जीवन मेरा ही स्वरूप है, वह मुझी में है - यह व्यापक स्व- शून्य अनुभूति ही साक्षात्कार का रूप लेती है।" उन्होंने प्राणिमात्र में जीवन तत्त्व को देखने व सभी तरह के बंधनों से मुक्त होने का मार्गदर्शन दिया है। 44 श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन को प्रकृति प्रदत्त सर्वश्रेष्ठ उपहार माना है और इसका पल-पल आनंद लेने की सिखावन दी है। उन्होंने जीवन और जगत को धरती के सबसे बड़े शास्त्र माने हैं। वे कहते हैं, “पुस्तकें मनुष्य के प्रबुद्ध होने में सहायक बनती हैं, पर किताबें अंतिम सीढ़ी नहीं हैं। सीखने, पाने और जानने की ललक हो, तो सृष्टि के हर डगर पर वेद, कुरआन, बाइबिल के पन्ने खुले और बोलते हुए नज़र आएँगे।" उन्होंने जीवन को आनंदपूर्ण बनाने के लिए निम्न प्रेरणाएँ दी हैं For Personal & Private Use Only . Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. प्रकृति के सान्निध्य में रहें। हृदयवान होकर जीने के सूत्र दिए हैं। 2. सहजतापूर्वक जीवन जीएँ। जे. कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ ने सत्य पर भी उपयोगी प्रकाश 3.जीवन में घटने वाली हर घटना का मनन कर सीख लेने की डाला है। जे.कष्णमर्ति सभी पंथों, धर्मों मार्गों और संगठनों को सत्यकोशिश करें। विरोधी मानते हैं। वे कहते हैं,"सत्य एक पथहीन भूमि है और उसके जे. कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में जीवन के विकास के पास किसी मार्ग से, धर्म या पंथ से पहुँच नहीं सकेंगे। सत्य संगठित लिए एवं धर्म को आत्मसात करने हेतु निर्भय होने की कला सिखाई गई नहीं किया जा सकता, न कोई संगठन आज तक किसी को सत्य की है। जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं, "जब तक मन भय से पूर्णतः मुक्त नहीं हो प्राप्ति करवा पाया है। सत्य को नीचे नहीं उतारा जा सकता, उसके जाता तब तक हर प्रकार की क्रिया, दुःख व अशांति उत्पन्न करती है।" बदले व्यक्ति को ही उस ऊँचाई तक पहुँचने का प्रयास करना होगा।" उन्होंने भय को जीतने के लिए व्यक्ति को भय को देखने, भय का श्री चन्द्रप्रभ ने सत्य के स्वरूप को व्यावहारिक शैली में प्रस्तुत किया सामना करने व भय के परिणामों का चिंतन करने की सीख दी है। श्री है। वे कहते हैं, "सत्य के फूल जीवन के हर क़दम पर खिले हुए हैं। चन्द्रप्रभ के दर्शन में निर्भयता को धर्म-अध्यात्म की पहली सीढ़ी माना जीवन और जीवन के परिवेश को ध्यानपूर्वक, सजगतापूर्वक देखते गया है। वे भय और प्रलोभन के द्वारा लोगों को धर्म से जोड़ने के विरुद्ध रहना सत्य के फूलों को पहचानने की दूरबीन है।" उनकी दृष्टि में, हैं। उनकी दृष्टि में, "भय से धर्म का कोई संबंध नहीं है। धर्म का "सत्य का आविष्कार तभी होता है, जब असत्य को जान लिया जाता शुभारंभ अभय से है। भय सत्य नहीं, असत्य है, मन की कमज़ोरी है। है।" उन्होंने सही सोच, सही दृष्टि,सही वाणी और सही व्यवहार के श्रद्धा का अभाव है। भयभीत करके हम किसी को धार्मिक और नैतिक रूप में सत्य को जीने का मार्ग बताया है। नहीं बना सकते। इससे धम का आरापण भर हा ता जाएगा, धम जे.कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में हिंसा के स्वरूप पर भी नसागक हो, इसके लिए भय नहा, समझ चाहिए; प्रलाभन नहा, विवेचन किया गया है। दोनों दर्शनों में हिंसा के कारण व निवारण पर आस्था चाहिए।" चर्चा की गई है। जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं, "जब तक किसी भी पुरुष में जे. कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ ने आध्यात्मिक विकास के संदर्भ में 'मैं' का अस्तित्व है तब तक हिंसा मौज़द रहेगी।" उन्होंने हिंसा के निम्न मार्गदर्शन दिया है। जे. कृष्णमूर्ति ने तो सामाजिक एवं लिए भीतर में छिपे क्रोध, कंठा, प्रतिरोध जैसे नकारात्मक तत्त्वों को आध्यात्मिक विकास के उद्देश्य से निर्मित हुए संगठनों का विरोध किया उत्तरदायी ठहराया है। हिंसारहित जीवन जीने के लिए उन्होंने होश एवं है। वे कहते हैं, "आध्यात्मिक हेतु से निर्माण किया गया संगठन सजगता को अपनाने की सीख दी है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में आतंक व्यक्ति को अपंग बना डालता है, उसके विकास को अवरुद्ध करता है। हिंसा. उग्रवाद का कारण अचेतन मन में छिपी विक्षिप्तताओं को माना व्यक्ति की विशेषता इसी में है कि वह स्वयं उस परम सत्य को खोज गया है। इनसे मक्त होने के लिए श्री चन्द्रप्रभ ध्यान करने, भीतर के ले।" उनकी दृष्टि में, "समाज के भीतर परिवर्तन का महत्त्व गौण है, कषायों को पहचानने, जातिगत स्वार्थ की बजाय मानवीय दृष्टिकोण इसका आगमन अनिवार्यत: सहज रूप से होगा, जब एक मानव के रूप अपनाने, धर्म-मज़हब को राजनीति से दर रखने और श्रेष्ठ साहित्य का में हम स्वयं अपने भीतर यह परिवर्तनले आएँगे।" वर्तमान में प्रचलित विस्तार करने के सूत्र देते हैं। उन्होंने आतंकवाद की समस्या के पंथ-परम्परा, धार्मिक सिद्धांतों एवं दर्शनों को अस्वीकार करते हुए समाधान के रूप में निम्न बातें कही हैंउन्होंने कहा है, "जिस क्षण हमने किसी व्यक्ति का, पंथ का, धर्म का, 1.सरकार आतंकवाद को उखाड़ने की दृढ़ इच्छा-शक्ति पैदा करे। सिद्धांत या दर्शन का अनुयायी बनना स्वीकार किया, उसी क्षण हमने 2. आतंकवादियों में खौफ पैदा किया जाए। सत्य का अनुगमन करना छोड़ दिया। मानव को मुक्त करना ही एक 3.प्रबुद्ध लोग विश्व में अहिंसा का प्रचार-प्रसार करें। मात्र अति आवश्यक हेतु मेरे लिए महत्त्वपूर्ण है।" 4.व्यक्ति धर्म-भक्त बनने से पहले राष्ट्र-भक्त बने। श्री चन्द्रप्रभ ने भी आध्यात्मिक विकास हेतु अंतर्दृष्टि को सम्यक् 5.राजनेता त्याग के आदर्श प्रस्तुत करें। बनाने पर बल दिया है। वे कहते हैं, "परमात्मा आसमान से उतरकर जे. कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म के संदर्भ में बेहतरीन नहीं आएगा। हमें उस दृष्टि को उपलब्ध करने की ज़रूरत है जिससे मार्गदर्शन प्रदान किया है। जे. कृष्णमूर्ति धर्म के वर्तमान स्वरूप से हम उसे यहीं पहचान सकें। मैं परमात्मा नहीं देता, मेरे पास तो केवल असंतुष्ट हैं। वे कहते हैं, "धर्म अब प्रचार और निहित स्वार्थ की बात वह दृष्टि है, वे आँखें हैं, जिससे मूर्छा में अंधा हुआ व्यक्ति चक्षुष्मान __ बन गई है, इसके चारों ओर संपत्ति और जायदाद खड़ी हो गई है। धर्म हो सके। अंतर्दृष्टि खुलते ही आप स्वयं अपने गुरु हो जाएँगे, स्वयं के मत, सिद्धांत, विश्वास और कर्मकांड तक सीमित होकर रह गया है, तीर्थंकर हो जाएँगे।" इस तरह जे. कृष्णमूर्ति व्यक्ति को अनुयायी न इसका दैनिक जीवन से पूर्णत: संबंध विच्छेद हो चुका है।" उन्होंने बनने की और श्री चन्द्रप्रभ अंतर्दृष्टि को उजागर करने की प्रेरणा देते हैं। धर्म की वास्तविकता समझने के लिए पहले सभी मतों का परित्याग जे. कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में 'मैं' अर्थात् अहंकार करने की बात कही है। वे धर्म का अभिप्राय मन व हृदय की गुणवत्ता से को समस्या की जड़ माना गया है। जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं, "जब जोड़ते हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने उसी धर्म को सार्थक माना है जो वर्तमान तक 'अह' माजूद ह तब तक द्वन्द्व रहगा।" उन्हान अह स जीवन की समस्याओं का समाधान देने में सक्षम हो। वे कहते हैं, छुटकारा पाने हेतु प्रयासमुक्त होने, कार्यरत अवस्था में 'अहं' का वर्षों तक का अनसण करने पर भी मन के विकार शांत निरीक्षण करने व सजग रहने के मंत्र दिए हैं। श्री चन्द्रप्रभ मुक्ति हेतु वह धर्म किस काम का! धर्म जीवित तभी हो पाएगा जब उसका 'मैं' अर्थात् कर्ताभाव से मुक्त होना अनिवार्य मानते हैं। उन्होंने परिणाम कल की बजाय आज मिलना शुरू हो।" उनकी दृष्टि में, कत्ताभाव से ऊपर उठन क लिए साक्षा भाव का विकास करन व "इंसान होकर इंसान के काम आना पहला धर्म है और भीतर की संबोधि टाइम्स113 For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमियों व कमजोरियों पर विजय पाना इंसान का दूसरा धर्म है।" इस महर्षि रमण एवं श्री चन्द्रप्रभ तरह दोनों दर्शनों में धर्म की नई दृष्टि प्रकाशित हुई है। महर्षि रमण इस शताब्दी के महान् जे. कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ ध्यान के गहरे साधक रहे हैं। आध्यात्मिक गुरु रहे हैं और श्री चन्द्रप्रभ ने उन्होंने ध्यान से 'तत्त्व' को उपलब्ध किया। ध्यान के स्वरूप व महत्त्व अध्यात्म के साथ जीवन-प्रबंधन का मार्ग भी पर प्रकाश डालते हुए जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं, "यदि आपके पास ध्यान प्ररूपित किया है। जहाँ महर्षि रमण ने जीवन जैसी अद्भुत चीज़ है तो यही सब कुछ है, तब आप ही गुरु हैं, शिष्य को आध्यात्मिक तरीके से जीने की बातें हैं, पड़ोसी हैं, बादलों का सौंदर्य है और यही प्रेम है।" उनकी ध्यान सिखाईं वहीं श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन को पद्धति कुंडलिनी' से जुड़ी हुई है। उन्होंने इसे 'गूढ प्रक्रिया के नाम से | आनंदपूर्ण तरीके से जीने का मार्गदर्शन दिया। प्रतिपादित किया। उन्होंने शब्द, मंत्र अथवा किसी वाक्य का जप करने दोनों दार्शनिकों ने आध्यात्मिक शिक्षाओं को सरल रूप देने की कोशिश को ध्यान नहीं माना है। उन्होंने ध्यान में विचार मुक्ति को साधने के की। महर्षि रमण का दर्शन आत्म-साक्षात्कार के लक्ष्य पर केन्द्रित रहा साथ विचारों को विवेकपूर्ण, तर्कसंगत, वस्तुगत, अव्यवस्थित और और श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन सहज सचेतन जीवन जीने की कला पर भावुकता रहित बनाने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, "जीवन में कार्य आधारित है। महर्षि रमण के दर्शन का समीक्षात्मक अध्ययन करने से करने के लिए विचार का प्रयोग भी करना चाहिए। हमें मन की विकृति स्पष्ट होता है कि उन्होंने आत्म-साक्षात्कार की साधना हेतु आंतरिक के समस्त भाव से मुक्त होकर सत्य क्या है? परम पुनीत और पवित्र चीज़ क्या है? इसका भी पता लगाना चाहिए।" इस तरह उनके दर्शन जिज्ञासा को महत्त्वपूर्ण माना। 'मैं कौन हूँ' यह जिज्ञासा उनके आत्म दर्शन का केन्द्रबिन्दु रही और उन्होंने इसका निरंतर चिंतन करने की में विचार-प्रक्रिया का उपयोग तथा विचार-मुक्ति, इन दोनों के बीच प्रेरणा दी है। वे अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों के समर्थक थे इसलिए उन्होंने संगति और सामंजस्य स्थापित करने की बात कही गई है। श्री चन्द्रप्रभ शुद्ध सत्ता को आत्मरूप व सर्वोच्च माना। वे स्वयं भी आत्म-अन्वेषण के दर्शन में ध्यान को अंतर्मन की शांति और अतीन्द्रिय शक्तियों की से समाधि को उपलब्ध हुए और उन्होंने दूसरों को भी आत्म-अन्वेषण ओर ले जाने वाल प्रवेश-द्वार माना गया है। वे ध्यान-योग से रहित करने की प्रेरणा दी। धार्मिक परम्पराओं को क्रियाकांड भर मानते हैं। श्री चन्द्रप्रभ की दृष्टि में, 'स्व' पर ध्यान देना ही ध्यान की मूल आत्मा है। उन्होंने ध्यान के महर्षि रमण एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन की तुलनात्मक विवेचना तीन चरण बताए हैं करने से स्पष्ट होता है कि दोनों दर्शनों में आत्म-जिज्ञासा को अध्यात्म की नींव माना गया है। दोनों दार्शनिकों ने आत्म-जिज्ञासा में मुख्य रूप 1.मन को पहचानना। से 'मैं कौन हूँ' प्रश्न पर बल दिया है। महर्षि रमण कहते हैं, 'मैं कौन 2. मन को सम्यक् दिशा प्रदान करना। हूँ' इस तत्त्व को पहचानो, परमात्मा को जानने से पहले स्वयं को जानो, 3.मन को मौन करना। भूत और भविष्य के जंजाल में न पड़कर वर्तमान को सँवारो।सुख और श्री चन्द्रप्रभ ने प्रारंभिक स्तर पर ध्यान के लिए मंत्र, शब्द, पद, अमृत हमारे चारों ओर बरस रहा है। मैं कौन हूँ' की व्याख्या करते हुए विधि को महत्त्व दिया है। इस तरह दोनों दर्शन ध्यान की उपयोगिता उन्होंने कहा है, 'मैं' या 'आत्मा' शरीर नहीं है, न ही यह पाँच स्वीकार करते हैं। इसके अतिरिक्त जे. कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ के ज्ञानेन्द्रियाँ, इन्द्रिय पदार्थ, कर्मेन्द्रियाँ हैं। यह प्राण, मन और प्रगाढ़ निद्रा दर्शन में प्रेम की विराटता को जीवन में जोड़ने, शिक्षा को समग्र की स्थिति भी नहीं है। इन सबका निषेध करने पर जो 'मैं यह नहीं हूँ' व्यक्तित्व के निर्माण में उपयोगी बनाने, मृत्युबोध प्राप्त करने जैसे शेष रहता है वही 'मैं' है और वही चैतन्य है। उनकी दृष्टि में, 'मैं कौन बिन्दुओं पर उपयोगी विचार प्रस्तुत हुए हैं। हूँ' का निरंतर चिंतन एवं आंतरिक अन्वेषण करके व्यक्ति अपने इस तरह कहा जा सकता है कि जे. कृष्णमूर्ति एवं श्री चन्द्रप्रभ के स्वरूप एवं मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। दर्शन में जीवन एवं जीवन का ऊर्ध्वारोहण करने वाले सभी बिन्दुओं पर श्री चन्द्रप्रभ भी अनुभवमूलक अध्यात्म हेतु एवं भीतर के अंधकार से दृष्टिकोण प्रतिपादित हुआ है। जहाँ जे. कृष्णमूर्ति ने जीवन से जुड़े लड़ने के लिए कोहं' अर्थात् 'मैं कौन हूँ' के प्रश्न को महत्व देते हैं। उनकी तत्त्वों को आध्यात्मिक दृष्टि से विवेचित किया, वहीं श्री चन्द्रप्रभ ने दृष्टि में,"स्वचैतन्य-बोध के लिए इस प्रश्न का उठना ज़रूरी है।" उन्होंने उन्हें व्यावहारिक स्वरूप प्रदान किया। जे. कृष्णमूर्ति के विपरीत श्री इस प्रश्न के समाधान में प्राप्त परम्परागत उत्तरों से भी सावधान रहने की चन्द्रप्रभ ने व्यक्तिगत सुधार के साथ सामाजिक सुधार, मानवीय प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, "मैं आत्मा हूँ, परमात्मा हूँ, ईश्वरीय अंश हूँ, कुछ राष्ट्रीय कल्याण से जुड़े संगठनों को स्वीकार किया। जे. कृष्णमूर्ति ने भी नहीं हूँ, जैसे सुने-सुनाए, रटे-रटाए, आरोपित उत्तरों को शांत करना वर्तमान में प्रचलित सभी धर्म, पंथ-परम्पराओं से मुक्त होने की बात होगा और भीतर के नीरव को निर्विकल्प वातावरण में स्वयं जो उत्तर कही और श्री चन्द्रप्रभ ने सभी धर्म-परम्पराओं में सामंजस्य स्थापित आएगा वही तुम्हारा सत्य होगा।"उन्होंने संबोधि साधना गीत के अंतर्गत करने की कोशिश की। जे. कृष्णमूर्ति की ध्यान से जुड़ी गूढ़ प्रक्रिया मुक्ति सूत्र में काव्य रूप में लिखा हैकी बजाय श्री चन्द्रप्रभ का 'संबोधि ध्यान-योग' वर्तमान मनुष्य के चिंतन करें, मैं कौन हूँ, आया यहाँ किस लोक से? लिए सरल है। यद्यपि जे. कृष्णमूर्ति का दर्शन आध्यात्मिक विशुद्धता क्या है यथार्थ स्वरूप मेरा, जान निज आलोक से॥ लिए हुए है तथापि श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन वर्तमान व्यक्ति के लिए अर्थात् वे स्वयं में सत्य खोजने की प्रेरणा देते हैं। इस तरह दोनों अधिक बोधगम्य है। दर्शन जिज्ञासा को आत्मज्ञान की प्राप्ति का मुख्य चरण मानते हैं। Ja114) संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महर्षि रमण एवं श्री चन्द्रप्रभ ने बाहरी त्याग की बजाय आंतरिक त्याग को जीने पर ज़ोर दिया है। श्री रमण के अनुसार सच्चा परित्याग मन में है । वे वेश-परिवर्तन या गृहत्याग की बजाय इच्छाओं, वासनाओं और आसक्तियों के परित्याग में विश्वास रखते हैं। उन्होंने आसक्ति रूपी बंधनों से ऊपर उठने के लिए हृदय को विशाल कर समस्त सृष्टि से प्रेम करने की प्रेरणा दी है। श्री चन्द्रप्रभ बाहरी त्याग की बजाय भीतरी त्याग को कठिन मानते हैं। वे व्यक्ति को तन की बजाय मन से संन्यासी बनने और घर में रहते हुए संत की तरह जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। उनके अनुसार, "कर्त्तव्यों का पालन करते हुए भी जो व्यक्ति संसार में अनासक्त बना रहता है वह घर में रहते हुए भी संत पुरुष है ।" इस प्रकार दोनों दार्शनिक मनो-परिवर्तन को उत्तम मानते हैं । श्री रमण एवं श्री चन्द्रप्रभ ने समान रूप से अकर्ता भावपूर्वक कर्म सम्पादित करने की दृष्टि प्रदान की है। श्री रमण की दृष्टि में, "व्यक्ति स्व-बोध को बरकरार रखकर बंधन से बच सकता है। वे अकर्ता का अर्थ कार्य के प्रति उदासीनता से नहीं, बल्कि कार्य में अहं का हस्तक्षेप न करना बताते हैं।'' वे कहते हैं, "मैं काम करता हूँ, यह भावना ह बाधा है। 'मैं' से मुक्त होकर कार्य करने पर कार्य तुम्हें बंधन में नहीं डालेगा, यह स्वत: जारी रहेगा।" श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में कर्म के प्रति आसक्ति को बंधन का मूल कारण माना गया है। श्री चन्द्रप्रभ ने अकर्ताभाव के पोषण के लिए साक्षीत्व की साधना करने और हर कृत्य परमात्मा की पूजा मानते हुए करने की प्रेरणा दी है। महर्षि रमण एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में साधना एवं सक्रिय जीवन को परस्पर सहयोगी माना गया है। वे ध्यान को सक्रिय जीवन में बाधक नहीं मानते हैं। श्री रमण की दृष्टि में, " ध्यान का अभ्यास कर्त्तव्य का सम्यक् पालन करने सहयोगी की भूमिका निभाता है। ध्यान करने वाले व्यक्ति का हर ध्यान की आभा लिए हुए होता है।" श्री चन्द्रप्रभ ध्यान-योग और कर्म-योग को परस्पर सापेक्ष मानते हैं। उन्होंने आत्म-तत्त्व का ध्यान करने को जितना महत्व दिया है उतना ही ध्यानपूर्वक कर्म करने की प्रेरणा दी है। दोनों दार्शनिक ध्यान-साधना की भूमिका के रूप में प्राणायाम को उपयोगी मानते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि दोनों दार्शनिकों की आध्यात्मिक दृष्टि परस्पर समरूपता लिए हुए है। श्री रमण ने जहाँ ज्ञान-योग पर विशेष बल दिया वहीं श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यान-योग, ज्ञानयोग और कर्मयोग की महत्ता समान रूप से प्रतिपादित की है। ओशो एवं श्री चन्द्रप्रभ वर्तमान जगत की दार्शनिक धारा को नया मोड़ देने में ओशो एवं श्री चन्द्रप्रभ का स्थान महत्त्वपूर्ण है। 20वीं शताब्दी में जन्मे इन दोनों महान् दार्शनिकों ने दर्शन को नए स्वरूप में स्थापित करने में जो योगदान दिया वह इन्हें पूर्ववर्ती दर्शन- धाराओं से अलग स्थापित करता है । यद्यपि दोनों दार्शनिकों ने कृष्ण, महावीर, बुद्ध, जीसस, कबीर सरीखे महापुरुषों के जीवंत संदेशों एवं उनकी साधना पद्धतियों को वर्तमान संदर्भों में प्रस्तुत किया, परंतु जहाँ ओशो ने धर्म दर्शन की वर्तमान में प्रचलित रूढ़ परम्पराओं को अस्वीकार किया वहीं श्री चन्द्रप्रभ ने प्रचलित धर्म परम्पराओं की रूढ़ताओं एवं नकारात्मकताओं को कम कर उन्हें जीवन के समग्र उत्थान के रूप में व्याख्यायित करने की पहल की इस तरह ओशो क्रांतदर्शी दार्शनिक रहे और श्री चन्द्रप्रभ जीवन-द्रष्टा सिद्ध हुए। 1 ओशो के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विवेचन से स्पष्ट है कि वे विशेष अर्थों में नकारात्मक दृष्टिकोण के व्यक्ति थे। उन्होंने सभी धर्मों की नकारात्मकताओं को उजागर कर उन पर प्रहार किया। उनका मिशन था गलत का विरोध करना । वे साधारणतः जहाँ विरोध नहीं दिखता वहाँ भी विरोध खोजते और वाद-प्रतिवाद द्वारा संवाद को जन्म देने की कोशिश करते। इस तरह वे अतीत की वर्तमानगत धार्मिक परम्पराओं एवं श्रृंखलाओं से असंबद्ध प्रतीत होते हैं ओशो का एक और मुख्य उद्देश्य था - विराट ध्यान आंदोलन को जन्म देना। वे ध्यान को जीवन को सार्थकता देने वाला मुख्य आयाम मानते थे। उन्होंने अध्यात्म एवं विज्ञान के समन्वय पर बहुत अधिक बल दिया। उन्होंने लोगों को नव-संन्यास प्रदान कर नए मनुष्य को जन्म देने की कोशिश की। I ओशो ने अपने प्रवचनों में मानव चेतना के विकास से जुड़े हर पहलू को विवेचित किया । कृष्ण, महावीर, बुद्ध, शिव, शांडिल्य, नारद के साथ आध्यात्मिक जगत के महान पुरुषों आदिशंकराचार्य, कबीर, नानक, मलूकदास, रेदास, गोरख, दरियादास, मीरा और सहजोबाई के पदों पर विस्तृत व्याख्याएँ दीं। योग, तंत्र, ताओं, झेन, हसीद, सूफी जैसी विभिन्न साधना पद्धतियों के गूढ़ रहस्यों को प्रकट किया। राजनीति, कला, विज्ञान, गरीबी, जनसंख्या विस्फोट, पर्यावरण, लोकतंत्र संभावित परमाणु युद्ध, विश्वशांति, राजनीति, नारी शिक्षा आदि विषयों पर उनकी क्रांतिकारी जीवन-दृष्टि उपलब्ध है। इस तरह ओशो ने जीवन, जगत और अध्यात्म के हर बिन्दु को नए दृष्टिकोण से व्याख्यायित करने में भूमिका निभाई है। श्री चन्द्रप्रभ एवं ओशो के दर्शन की परस्पर तुलनात्मक समीक्षा करने से ज्ञात होता है कि दोनों दर्शन मुख्य रूप से ध्यान एवं सचेतन साधना से जुड़े हुए हैं। श्री चन्द्रप्रभ एवं ओशो ने ध्यान-योग को विशेष महत्त्व दिया है और जीवन के कायाकल्प हेतु ध्यान को अनिवार्य बताया है। ओशो कहते हैं, "ध्यान चेतना की विशुद्ध अवस्था है। साधारणतया हमारी चेतना विचारों से विषयों से, कामनाओं से आच्छादित रहती है। यह अध्यान की अवस्था है। जब कोई विचार नहीं चलते और कोई कामना सिर नहीं उठाती, सारा ऊहापोह शांत हो जाता है और हम परिपूर्ण मौन में होते हैं। वह परिपूर्ण मौन ध्यान है और इसी परिपूर्ण मौन में सत्य का साक्षात्कार होता है।" उन्होंने साक्षी को ध्यान की आत्मा कहा है। साक्षी भाव के अंतर्गत उन्होंने भावभंगिमाओं के प्रति, विचारों के प्रति, अनुभूतियों और भावदशाओं के प्रति होशपूर्ण होने की बात कही हैं ओशो ने ध्यान-विज्ञान नामक पुस्तक में ध्यान की 115 विधियों का जिक्र किया है जिसमें सक्रिय एवं कुंडलिनी ध्यान ऊर्जा जागरण की दो शक्तिशाली विधियाँ मानी गई हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने समग्र मानव जाति के बौद्धिक एवं आध्यात्मिक कायाकल्प के लिए 'संबोधि ध्यान साधना पद्धति प्रतिपादित की। वे कहते हैं, "जीवन की समस्त गतिविधियों को होश और बोधपूर्वक संपादित करना संबोधि साधना की पहली व अंतिम प्रेरणा है। " संबोधि ध्यान अपने आपसे धैर्य और शांतिपूर्वक मुलाकात करने का नाम है। श्री चन्द्रप्रभ ने 'संबोधि साधना का रहस्य' पुस्तक में संबोधि संबोधि टाइम्स - 115.org I For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना के अंतर्गत ध्यान की पाँच विधियाँ प्रतिपादित की हैं। उन्होंने करना, सारी मानव जाति को एक सूत्र में बाँधना-पिरोना। टूटे हुए दिलों संबोधि ध्यान को महावीर, बुद्ध और पतंजलि तीनों की ध्यान पद्धतियों को आपस में जोड़ना ही धर्म है।" श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "धर्म वक्तव्य का सामंजस्य भी माना है। श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यान-योग, संबोधि, ध्यान : नहीं, मनुष्य का आचरण है।धर्म स्वयं सुख से जीने तथा औरों को सुख साधना एवं सिद्धि नामक पुस्तकों में संबोधि साधना के संदर्भ में से जीने देने की कला है। ऐसा होने पर ही धर्म मानवता की मुंडेर पर विस्तार से विवेचना की है। मोहब्बत का जलता हुआ चिराग बन पाएगा।" उन्होंने भी धर्म को श्री चन्द्रप्रभ एवं ओशो दर्शन में समाधि पर चर्चा हुई है। ओशो ने वैज्ञानिक बनाने का समर्थन किया है और 'बगैर वैज्ञानिकता के धर्म मन की मृत्यु को समाधि कहा है। श्री चन्द्रप्रभ ने एकांत, मौन और जो अंधविश्वास से ज़्यादा कुछ नहीं है ' माना है। ध्यान को समाधि के तीन चरण कहे हैं। उनके अनुसार, "एकांत व श्री चन्द्रप्रभ व ओशो ने शिक्षा पर भी वर्तमान सापेक्ष दृष्टि दी है। संसार से मौन अभिव्यक्ति से मुक्ति है और ध्यान विचारों से निवत्ति है। ओशो कहते हैं, "तकनीकी ज्ञान, साइंस और ध्यान- ये भारतीय शिक्षा के ये तीनों मिलकर समाधि के द्वार बनते हैं।" श्री चन्द्रप्रभ एवं ओशो ने आधार बन जाएँ।ध्यान और विज्ञान का संतुलन बने ताकि विज्ञान खतरा न ध्यान-समाधि के लिए 'अप्रमाद' को साधने पर भी बल दिया है। जहाँ बन जाए।" श्री चन्द्रप्रभ का कहना है, "शिक्षा ऐसी हो जो सृजनात्मक हो, ओशो ने अप्रमाद को साधना की नींव और अहिंसा-सत्य-अस्तेय- रटाऊ कम और समझाऊ ज़्यादा हो। अब सीधे कम्प्यूटरों से पढ़ाई होनी ब्रह्मचर्य-असंग्रह को जीवन में अप्रमाद को घटित करने का आधार चाहिए। हमारी शिक्षा ऐसी हो जो हमें बेहतरीन इतिहास की जानकारी दे, माना है वहीं श्री चन्द्रप्रभ अप्रमाद अर्थात् सचेतनता को संबोधि व वैज्ञानिक विषयों की खोज करवाए, जीने की कला सिखाए, सृजन और मुक्ति की आत्मा कहते हैं। कला को बढ़ावा दे, ताकि अपराध और आतंक में कटौती आए और मनुष्य श्री चन्द्रप्रभ एवं ओशो के दर्शन में योग पर भी विस्तार से प्रकाश प्रेम और सम्मान से सबके बीच जीने का अवसर पा सके।" डाला गया है। ओशो ने योग को परम सत्य तक पहुँचने का मार्ग बताया लोकतंत्र के संदर्भ में दोनों दर्शनों में मौलिक विचार प्रस्तुत हुए हैं। है और योग की शरुआत खोज जिज्ञासा व अन्वेषण से मानी है। श्री ओशो वर्तमान लोकतंत्र की पद्धति से असंतुष्ट हैं और उसमें चन्द्रप्रभ के दर्शन में योग शब्द का प्रयोग ध्यान की पर्व भमिका का आमूलचूल परिवर्तन चाहते हुए कहा है, "जो तुम्हारे पास वोट माँगने स्व-पर से जडने के अर्थ में हआ है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं."योग कोई आए, उसे वोट मत देना। जिसे तुम वोट देने योग्य समझो. उसे पंथ-परम्परा नहीं है। अधिक स्वस्थ, अधिक संतुलित और अधिक समझाना-बुझाना कि तुम खड़े हो जाओ, हम तुम्हें वोट देना चाहते हैं। ऊर्जावान जीवन जीने की कला का नाम योग है।" उन्होंने जो तुम्हारे वोट की भीख माँगने आता है, वह दो कौड़ी का है। जिसकी मनोयोगपूर्वक कर्म करने, मनोयोगपूर्वक ध्यान करने, मनोयोगपूर्वक कोई क़ीमत है, आत्मा है, स्वाभिमान है, वह तुमसे कभी भीख माँगने प्रेम और भक्ति करने, मनोयोगपूर्वक सचेतन प्राणायाम व ध्यान करने नहीं आएगा।" श्री चन्द्रप्रभ ने लोकतंत्र को जाति व दलगत राजनीति से तथा इंसानियत की सेवा करने को भी योग के अंतर्गत माना है। वे योग मुक्त कर मानवीय मूल्यों को महत्व देने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, का संबंध स्वास्थ्य, प्राण ऊर्जा का जागरण, मानसिक शद्धि. मानसिक “अगर हम चाहते हैं कि हमारे देश का विकास हो तो हमें जातिगत शक्ति, आत्म-समाधि और प्रभ-प्रेम से जोडते हैं। वे स्वास्थ्य से लेकर और दलगत राजनीति से ऊपर उठना होगा और हमें उस व्यक्ति का समाधि तक के सफर को योग कहते हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने द योग, योग राष्ट्र के लिए उपयोग करना होगा जो स्वयं में किसी विशिष्टता की अपनाएँ ज़िंदगी बनाएँ ध्यान सत्र और आध्यात्मिक विकास नामक संभावना लिए हुए है। हमारे लिए जातीयता का नहीं, इंसानियत का पुस्तकों में योग की विस्तार से व्याख्या की है। मूल्य हो, मानवता की कद्र हो।" श्री चन्द्रप्रभ व ओशो के दर्शन में धर्म के संदर्भ में भी नवीन दष्टि श्री चन्द्रप्रभ एवं ओशो ने विश्वशांति की स्थापना पर भी मार्गदर्शन उजागर हई है। जहाँ ओशो ने वर्तमान में चल रहे परम्परागत धर्मों को मत दिया है। ओशो ने विश्व शांति हेतु भीतर से धार्मिक बनने, राजनीति का चट्टान की उपमा दी है और धर्म की बजाय धार्मिकता का पाठ पढाया है। मूल्य कम करने व सरल-साफ हाथों में जीवन की बागडोर देने का सझाव वे कहते हैं, "मेरी दष्टि में धर्म एक गण है.गणवत्ता है. कोई संगठन नहीं दिया है और श्री चन्द्रप्रभ ने विश्वशांति हेतु प्रबुद्ध एवं शांति-प्रधान लोगों कोई सम्प्रदाय नहीं। पृथ्वी पर कोई तीन सौ धर्म हैं। वे सब मर्दा चटटानें हैं। को पूरी धरती पर फैल जाने की प्रेरणा दी है, साथ ही उन्होंने किसी को वे बहते नहीं, वे बदलते नहीं वे समय के साथ चलते नहीं।"ओशो ने धर्म दुःख न पहुँचाने, साम्प्रदायिक सद्भाव का माहौल बनाने और मांसाहारी और विज्ञान के समन्वय पर जोर देते हुए कहा है, "भारत ने केवल आत्मा को शाकाहारी बनाने के संकल्प लेने का अनुरोध किया है। परमात्मा, स्वर्ग, नरक की फिक्र की जिससे शरीर का, बाहर का जगत श्री चन्द्रप्रभ एवं ओशो के दर्शन में परिवार के संदर्भ में भिन्न निरंतर दरिद्र होता गया। ऐसा करके हमने भीतर कुछ पा लिया हो ऐसा नहीं दृष्टिकोण उजागर हुआ है। ओशो ने विवाह-प्रधान पारिवारिक लगता। प्रारंभ में उठाए गए गलत कदमों के कारण हम सर्वथा भटक गए व्यवस्था को प्रेम-प्रधान बनाने की पेशकश की है। वे कहते हैं, और पश्चिम भी केवल बाहर-बाहर रोशन है, भीतर कुछ भी नहीं। उन्होंने "परिवार की बुनियाद में हमने प्रेम को काट दिया है इसलिए परिवार भी प्रारंभ में जो कदम उठाए वे सुनिश्चित रूप से गलत थे, वर्तमान स्थिति एक व्यवस्था है, प्रेम की घटना नहीं, जिससे आत्मा के विकास की उसकी साक्षी है। अब जीवन पथ को बाहर-भीतर दोनों ओर से आलोकित संभावना क्षीण हो जाती है।" उन्होंने अंतर्जातीय और अंतर्देशीय करने के लिए धर्म-विज्ञान का समन्वय आवश्यक है।" विवाह व्यवस्था का समर्थन करने के साथ विवाह से पहले एक-दूसरे श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में धर्म की नई परिभाषा देते हए कहा गया है. को परखने, साथ में जीने और सोच-समझकर विवाह करने की प्रेरणा "जो धर्म मानवता को बाँटता है.वह धर्म धर्म नहीं इंसानियत के कंधे दी है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में घर-परिवार को मंदिर बनाने व धर्म की पर ढोया जाने वाला जनाजा भर है। धर्म का काम है मानवता को एक शुरुआत घर से करने की प्रेरणा दी है। श्री चन्द्रप्रभ ने घर-परिवार को 1.116 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखी बनाने के लिए रामायण को आदर्श बनाने की सिखावन दी है। वे आचार्य श्रीराम शर्मा के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विश्लेषण से स्पष्ट कहते हैं,"आज राम का नाम जपने और पूजा करने की ज़रूरत कम है, होता है कि वे सदा भारतीय संस्कृति के उन्नयन के लिए समर्पित रहे। ज़्यादा जरूरत रामायण को जीवन से जोड़ने की है तभी घर को पवित्र उन्होंने प्रखर स्वतंत्रता सेनानी की भूमिका निभाने के साथ समाज सुधार, बनाया जा सकता है।" उन्होंने पारिवार में मिठास घोलने के लिए प्रेम धर्म उद्धार, मानव-एकता, नारी कल्याण में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। व त्याग का मंत्र अपनाने की बात कही है। उनका पारिवारिक दर्शन घर वे ऋषि परम्परा के बीजारोपण करने वाले युग निर्माता, गायत्री तीर्थ व को कैसे स्वर्ग बनाएँ, माँ की ममता हमें पुकारे, चार्ज करें जिंदगी नामक ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के संस्थापक, वैज्ञानिक अध्यात्मवाद के समर्थक पुस्तकों में सुंदर तरीके से विवेचित हुआ है। थे। उन्होंने वेद, उपनिषद, स्मृति, आरण्यक, ब्राह्मण योग, मंत्र-तंत्र पर श्री चन्द्रप्रभ एवं ओशो ने समाज निर्माण पर भी बेहतरीन दष्टि आधारित विपुल साहित्य की रचना की। उन्होंने इक्कीसवीं सदी को नारी प्रदान की है। ओशो पूँजीवाद के समर्थक हैं। उन्होंने गरीबी को सभी सदी बताया। उन्होंने बड़े स्तर पर अखण्ड ज्योति पत्रिका का प्रकाशन समस्याओं की जड़ माना है। वे नए समाज और नए मनुष्य का निर्माण किया। उन्होंने सहस्रादि यज्ञ का आयोजन करवाया। गायत्री मंत्र विज्ञान, करना आवश्यक मानते हैं। वे कहते हैं."आदमी को बदले बिना साधना पद्धतियों का रहस्य, चेतन-अचेतन-सुपर चेतन मन, अध्यात्म व समाज को बदला नहीं जा सकता और आदमी को बदलने के लिए विज्ञान, यज्ञ, षोडश संस्कार, भारतीय संस्कृति का स्वरूप, तीर्थउसके पुराने मन को बदलना होगा।" उन्होंने इसके लिए सर्वसुख पाने उपयोगिता, स्वास्थ्य, नारी-उत्थान, शिक्षा-विद्या, सामाजिक-नैतिकव सबको सुख पहुँचाने की प्रेरणा दी है। श्री चन्द्रप्रभ स्वस्थ समाज का बौद्धिक क्रांति, वैज्ञानिक धर्म, ईश्वर, विवाह, गृहस्थ जीवन, राष्ट्रोत्थान आधार नैतिकता, अहिंसा, सौहार्द व एक-दूसरे के काम आने की आदि विविध बिन्दुओं पर विस्तार से मार्गदर्शन प्रदान किया। भावना को मानते हैं। उन्होंने समाज-दर्शन में अमीरों को अपरिग्रह आचार्य श्रीराम शर्मा एवं चन्द्रप्रभ के दर्शन की तुलनात्मक सिद्धांत अपनाकर गरीब भाइयों का उत्थान करने की प्रेरणा दी है। वे विवेचना से स्पष्ट होता है कि जहाँ आचार्य श्रीराम शर्मा ने गायत्री मंत्रसमाज में बढ़ रहे पैसे के महत्त्व को लेकर एवं संतों द्वारा केवल अमीरों साधना पर बल दिया वहीं श्री चन्द्रप्रभ ने संबोधि ध्यान साधना के को सम्मान देने की भावना को लेकर चिंतित हैं। उन्होंने समाजोत्थान अंतर्गत ओंकार मंत्र साधना को महत्त्व दिया। आचार्य श्रीराम शर्मा ने हेतु शिक्षा को फैलाने, आपस में संगठित करने, धार्मिक समन्वय बनाए साधना द्वारा गायत्री महाविद्या को पुनर्जीवित किया और गायत्री रखने व एक-दूसरे को आगे बढ़ाने का मार्गदर्शन दिया है। तपोभूमि की स्थापना की। वे कहते हैं, "गायत्री मंत्र प्राणऊर्जा की उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि श्री चन्द्रप्रभ एवं ओशो का अधिष्ठात्री शक्ति है। आज का सबसे बड़ा संकट है आत्मबल की विचार-दर्शन पूर्ववर्ती दार्शनिक धाराओं से हटकर है। जहाँ ओशो ने कमी, मानव की अशक्ति । इस आस्था संकट से पीड़ित मानव जाति को वर्तमान सामाजिक-धार्मिक-राजनैतिक व्यवस्थाओं की अनुपयोगिता जिस संजीवनी जीवन बूटी की आवश्यकता है वह गायत्री महामंत्र के सिद्ध की है और नई व्यवस्थाओं के निर्माण हेतु नया विचार-दर्शन रूप में विद्यमान है।" उन्होंने गायत्री मंत्र का गुह्य विवेचन, उसके प्रस्तुत किया है वहीं श्री चन्द्रप्रभ ने वर्तमान व्यवस्थाओं को स्वीकार चमत्कार, उसके साधना क्रम, गायत्री मंत्र की पंचकोशी साधना व किया है साथ ही उन्हें और अधिक बेहतर बनाने के लिए सकारात्मक उसकी वैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर विस्तृत विवेचन किया है। मार्गदर्शन दिया है। इस तरह ओशो का ध्यान-अध्यात्म संबंधी श्री चन्द्रप्रभ ने ओंकार मंत्र साधना की विस्तार से विवेचना की है। दष्टिकोण विश्व के लिए उपयोगी साबित हआ है. पर अन्य क्षेत्रों में उनको दृष्टि में,"आम् ध्वनि-विज्ञान की पराध्वनि है। ओम में हस्व. उनका विचार-दर्शन विशेष परिवर्तन नहीं ला पाया और श्री चन्द्रप्रभ के दीर्घ और प्लुत-भाषा के तीनों स्तर समाए हुए हैं। त्रैलोक्य की समस्त विचार-दर्शन से परिवार, समाज, धर्म, अध्यात्म एवं विश्व का प्रत्येक दिव्यताएँ ओम् में समाविष्ट हैं। यह ब्रह्म बीज है, मंत्रों का मंत्र है। क्षेत्र लाभान्वित हो रहा है। विशेषकर उनकी जीवन-निर्माण से जुड़ी अंतर्मन की शांति और शक्ति को जगाने का प्रकाशपुंज है।" श्री दृष्टि युवा पीढ़ी को विशेष रूप से प्रभावित कर रही है। चन्द्रप्रभ ने संबोधि साधना के अंतर्गत चैतन्य ध्यान की व्याख्या में कहा है, "यदि हम श्वास और शब्द में, चेतना और ओम् में एक सघन आचार्य श्रीराम शर्मा व श्री चन्द्रप्रभ अंतरमंथन करें तो प्रकाश के साक्षात्कार में बहुत मदद मिल सकती वर्तमान भारतीय दार्शनिकों की श्रृंखला में है।" उन्होंने ओंकार मंत्र साधना की विधि का उल्लेख '7 दिन में कीजिए स्वयं का कायाकल्प' नामक पुस्तक में किया है। श्री चन्द्रप्रभ जिन दार्शनिकों ने धर्म को वैज्ञानिक स्वरूप ने ईशवंदना में नवकार मंत्र, गायत्री मंत्र व शांति मंत्र का संयुक्त उपयोग प्रदान कर उसे जनोपयोगी बताया उसमें आचार्य श्रीराम शर्मा एवं श्री चन्द्रप्रभ का मुख्य किया है जो कि उनके उदार दृष्टिकोण का परिचायक है। स्थान है। दोनों दार्शनिकों ने युगानुरूप धर्म आचार्य श्रीराम शर्मा एवं श्री चन्द्रप्रभ ने मन के अनेक स्तरों की प्रस्तुत किया। आचार्य श्रीराम शर्मा ने व्याख्या की है। आचार्य श्रीराम शर्मा ने चेतन मन, अचेतन मन व सुपर | परम्परागत धर्म में आई विकृतियों को दूर कर चेतन मन की व्याख्या की है और श्री चन्द्रप्रभ ने चित्त और मन का विवेचन उसे नया स्वरूप दिया और श्री चन्द्रप्रभ ने परम्परागत धर्म की बजाय किया है। आचार्य श्रीराम शर्मा ने व्यक्तित्व के विकास के लिए अचेतन मन जीवन-उत्थान से जुड़े धर्म का मार्ग प्रशस्त किया। जहाँ आचार्य श्रीराम के सुधार पर बल दिया है। उन्होंने सुपर चेतन के प्रगटीकरण हेतु अन्तः शर्मा का दर्शन यज्ञादि विधि-विधान, गायत्री मंत्र साधना व धर्म-शास्त्रों करण की पवित्रता तथा प्रेम-भाव के विस्तार को अनिवार्य बताया है। चित्त के विशद विवेचन पर केन्द्रित रहा वहीं श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन सुखी, और मन की विवेचना करते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "चित्त व्यक्ति का सफल एवं मधुर जीवन के निर्माण पर केन्द्रित है। सोया हुआ मन है और मन व्यक्ति का जागा हुआ चित्त है। चित्त का संबंध For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स >117 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत के साथ व मन का संबंध भविष्य के साथ है।" उन्होंने मन की आचार्य श्रीराम शर्मा एवं श्री चन्द्रप्रभ ने 'धर्म' पर उपयोगी मार्गदर्शन बज़ाय चित्त शुद्धि पर ज़ोर दिया है और चित्त शुद्धि को आत्म साक्षात्कार का दिया है। आचार्य श्रीराम शर्मा ने धर्म को दुराग्रह युक्त मान्यताओं, आधार माना है। उन्होंने चित्त शुद्धि के लिए ध्यान साधना करने व सद्गुणों अंधविश्वासों, रूढ़िवादिताओं, कर्मकाण्डी-कट्टरताओं और शोषणको बढ़ाने की प्रेरणा दी है। उत्पीड़न से मुक्त कर विज्ञान-सम्मत, सदाशयपूर्ण, परमार्थ-परायण व आचार्य श्रीराम शर्मा एवं श्री चन्द्रप्रभ ने यज्ञादि कर्म के स्वरूप पर संवेदनशील बनाने की कोशिश की है। उन्होंने धर्म का मर्म नीतिमत्ताप्रकाश डाला है। आचार्य श्रीराम शर्मा ने यज्ञ के तीन अर्थ बताए हैं - शालीनता को माना है। वे धर्म के अंतर्गत निम्न बिंदुओं को जीने की प्रेरणा देवपूजन, परमार्थ व सुसंगति। देवपूजन अर्थात् व्यक्ति अपने भीतर में देते हैं - सत्य, विवेक, संयम, कर्त्तव्यपरायणता, अनुशासन, व्रतधारण, निहित देवशक्तियों को यथोचित सम्मान देते हए उन्हें बढ़ाए, परमार्थ स्नेह-सौजन्य, पराक्रम, सहकार व परमार्थ। अर्थात् भावनाओं में सत्प्रवृत्ति का समावेश होता चला जाए और सुसंगति श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में धर्म की शुरुआत मंदिर, मस्जिद, चर्च, अर्थात् सज्जनों का संगठन व राष्ट्र को समर्थ-सशक्त करने वाली सत्ताओं गिरजाघर या धर्म स्थानों से करने की बजाय घर-परिवार व जीवन से का एकीकरण ।श्री चन्द्रप्रभ ने यज्ञ का संबंध भीतर में ज्ञानाग्नि प्रकट करना करने की प्रेरणा दी गई है। उन्होंने धर्म के अंतर्गत चार प्रेरणाएँ दी हैं - एवं उसमें अज्ञान की आहूति देने से माना है। वे कहते हैं, "सच्चा यज्ञ अपने कर्तव्यों का पालन करना, इंसान होकर इंसान के काम आना, अपने भीतर की ज्ञानाग्नि में पशुत्व की आहूति देना है।" इस तरह श्रीराम अपने मन की कमजोरियों पर विजय पाना और सभी धर्मों व महापुरुषों शर्मा ने यज्ञ को बाह्य शुद्धि के साथ अंत:करण की शुद्धि से जोड़ा है और श्री का सम्मान करना। इस तरह दोनों दार्शनिकों ने धर्म को क्रियाकांडों से चन्द्रप्रभ ने उसे ज्ञानयोग से संबंधित बताया है। मुक्त करने का मार्ग प्रशस्त किया है। आचार्य श्रीराम शर्मा एवं श्री आचार्य श्रीराम शर्मा एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में स्वास्थ्य पर विस्तार चन्द्रप्रभ अपने दर्शन में विज्ञान एवं अध्यात्म के समन्वय की, धर्म को से मार्गदर्शन प्राप्त होता है। आचार्य श्रीराम शर्मा ने स्वास्थ्य का संबंध वैज्ञानिक बनाने की, शिक्षा को संस्कार युक्त करने की, गृहस्थ जीवन आहार, खानपान व रहन-सहन की आदतों के साथ जोड़ा है। उन्होंने को संत की तरह जीने की, नारी जाति को आगे बढ़ने की और स्वास्थ्य हेतु संयमित व सात्त्विक आहार लेने की व नियमित रूप से राष्ट्रोत्थान के लिए युवापीढ़ी को आगे आने की प्रेरणा देते हैं। योगासन-प्राणायाम करने की विशेष प्रेरणा दी है। उन्होंने बीमारी में घरेलू निष्कर्षत:कहा जा सकता है कि जहाँ एक तरफ आचार्य श्रीराम शर्मा चिकित्सा करने को प्राथमिकता दी है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में सदाबहार ने वैदिक धर्म-दर्शन को विस्तार दिया, उसे वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया स्वस्थ रहने हेतु सात्त्विक,संयमित व संतुलित आहार लेने; ध्यान-योग को और गायत्री मंत्र विद्या को आधार बनाकर यज्ञ-हवन आदि क्रियाएँ करने अपनाने व सदा प्रसन्न रहने की प्रेरणा दी गई है। की प्रेरणा दी। इस तरह उनके दर्शन का धर्म व राष्ट्र के उत्थान में विशेष आचार्य श्रीराम शर्मा एवं श्री चन्द्रप्रभ ने परिवार पर महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। वहीं दूसरी तरफ श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन-मूल्यों को विचार प्रकट किए हैं। श्रीराम शर्मा ने सशक्त परिवार को समाज का आत्मसात् करने का सरल मार्गदर्शन देकर व्यक्तित्व को ऊपर उठाने की मेरूदण्ड माना है और उसके पाँच आधार-स्तंभ माने हैं - श्रमशीलता, कोशिश की। स्वर्ग-नरक को घर-परिवार व जीवन के उत्थान-पतन के सुव्यवस्था, मितव्ययता, शालीनता और सहकारी उदारता। उन्होंने रूप में व्याख्यायित किया, धर्म को क्रियाकांडों से मुक्त कर जीवंत बनाया पारिवारिक बिखराव को राष्ट्र के लिए खतरनाक बताया है। उन्होंने और व्यक्ति को सभी पंथ-परम्पराओं का सम्मान करना सिखाया जो कि संयुक्त परिवार का समर्थन किया है। उन्होंने 'समाज का मेरूदण्ड : सामाजिक व नैतिक विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। सशक्त परिवार तंत्र' पुस्तक में परिवार निर्माण पर विस्तार से प्रकाश डाला है। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन 'परिवार-निर्माण' के प्रति विशेष आचार्य महाप्रज्ञ एवं श्री चन्द्रप्रभ सजग है। श्री चन्द्रप्रभ ने 'परिवार' को दुनिया का आठवाँ वार कहा है दर्शन के क्षेत्र में आचार्य महाप्रज्ञ एवं श्री और सातों वारों को सुखी बनाने के लिए परिवार को सुधारने की प्रेरणा चन्द्रप्रभ इन दोनों दार्शनिकों का महत्त्वपूर्ण दी है। उन्होंने स्वर्ग-नरक की परिवार के संदर्भ में व्याख्या करते हुए स्थान है। दोनों दार्शनिकों ने जीवन-जगत के कहा है, "जिस घर में भाई-भाई के बीच प्रेमभाव होता है, सुबह विविध तत्त्वों को नए ढंग से व्याख्यायित किया, उठकर सभी माँ-बाप को प्रणाम करते हैं और सास-बहू साथ-साथ उन्हें प्रायोगिक रूप से प्रस्तुत कर जीवन और मंदिर जाते हैं वह घर धरती का स्वर्ग है और जहाँ भाई-भाई के बीच दर्शन को नई दिशा प्रदान की। आचार्य महाप्रज्ञ कोर्ट केस चलते हैं, माँ-बापको अपने हाथों से खाना बनाना पड़ता है, देवरानी-जेठानी एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को देखें तो पता वह घर धरती का जीता-जागता नरक है।" उन्होंने वर्तमान में राम का चलता है कि वे तेरापंथ जैन धर्म संघ के प्रभावशाली आचार्य रहे हैं। नाम लेने व पूजा करने से ज़्यादा रामायण को जीवन से जोड़ने की प्रेरणा उन्होंने जैनागमों पर शोध किया, विस्तृत व्याख्याएँ की और उनकी दी है। उन्होंने परिवार को स्वर्गनुमा बनाने के निम्न सूत्र दिए हैं - अन्य दर्शनों के साथ तुलनात्मक विवेचना कर उन्हें वैज्ञानिक स्वरूप देने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में जीवन1. एक-दूसरे का सहयोग करें। विज्ञान' और साधना के क्षेत्र में 'प्रेक्षाध्यान' जैसे उपयोगी अवदान 2.आपस में संगठन रखें। दिए। उन्होंने 'अहिंसा यात्रा' के माध्यम से लोगों को अहिंसा का 3.किसी के सम्मान में कमी न आने दें। प्रशिक्षण भी दिया। 4.त्याग के लिए तत्पर रहें। आचार्य महाप्रज्ञ ने स्वरचित साहित्य में शरीर, आत्मा, प्राण, मन, 5.स्वच्छता अपनाएँ चित्त, लेश्या, कर्म, धर्म, मंत्र-ध्यान, अध्यात्म-विज्ञान, विचार118 »संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्विचार, प्रवृत्ति-निवृत्ति, प्रेक्षा-अनुप्रेक्षा, राजनीति, लोकतंत्र, समाज, निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि इन दोनों दार्शनिकों ने अपनेजैन-धर्म दर्शन, अन्य दर्शन आदि विभिन्न बिंदुओं पर विस्तार से अपने ढंग से दर्शन को नया स्वरूप दिया। जहाँ आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रकाश डाला है। उन्होंने जीवन-जगत के सभी तत्त्वों को धर्म-अध्यात्म के हर बिन्दु की विवेचना की वहीं श्री चन्द्रप्रभ ने आध्यात्मिक-वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान की है। वे चेतना के ऊर्ध्वारोहण जीवन-जगत के हर तत्त्व की व्याख्या की है। यद्यपि दोनों दार्शनिक को जीवन का मुख्य लक्ष्य बनाने की प्रेरणा देते हैं। उन्होंने एक-दूसरे से कम प्रभावित रहे फिर भी अध्यात्म के कुछ तत्त्वों पर आध्यात्मिक-वैज्ञानिक व्यक्तित्व के निर्माण की विशेष पहल की। दोनों के विचारों में सामंजस्य देखा जा सकता है। श्री चन्द्रप्रभ ने उनकी दृष्टि में, "हर व्यक्ति वैज्ञानिक और आध्यात्मिक बने, वह अध्यात्म से दो क़दम आगे बढ़कर जीवन निर्माण से जुड़ा दर्शन देकर कोरा वैज्ञानिक अथवा आध्यात्मिक न बने। आध्यात्मिक और दर्शन की दुरूहता को कम किया है और जिससे आम व्यक्ति के लिए वैज्ञानिक इन दोनों का योग की वर्तमान समस्या का समाधान है।" इस उपयोगी सिद्ध हुआ है। तरह आचार्य महाप्रज्ञ का दर्शन मुख्यतः अध्यात्म-सापेक्ष रहा है। उन्होंने दर्शन को वैज्ञानिक स्वरूप देने में सफलता अर्जित की है। उनके श्री रविशंकर एवं श्री चन्द्रप्रभ द्वारा प्रतिपादित जीवन-विज्ञान और प्रेक्षाध्यान ने वर्तमान समाज को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारतीय शिक्षा-साधना के संदर्भ में नया मार्ग दिया है। दार्शनिकों में श्री रविशंकर एवं श्री चन्द्रप्रभ का श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन की आचार्य महाप्रज्ञ के दर्शन से तुलनात्मक दर्शन जीवन का नव-निर्माण करने में, विवेचना करने पर स्पष्ट होता है कि दोनों समकालीन दार्शनिक रहे हैं। श्री युवाशक्ति को ऊर्जाभरा मार्गदर्शन प्रदान करने चन्द्रप्रभ ने अध्यात्म की बजाय जीवन-सापेक्ष दृष्टिकोण को दर्शन में में प्रकाशज का काम कर रहा है। श्री प्रस्तुत किया। वे जीवन लक्ष्य के रूप में चेतना के ऊर्ध्वारोहण के स्थान पर रविशंकर एवं श्री चन्द्रप्रभ ने प्राचीन भारतीय जीवन-निर्माण पर जोर देते हैं। आचार्य महाप्रज्ञ ने जहाँ जीवन-विज्ञान में आध्यात्मिक व दार्शनिक ज्ञान संपदा का शरार, श्वास, प्राण, मन, भाव, कर्म और चेतना इन सात तत्त्वो को शिक्षित सरलीकरण किया, उसे आम व्यक्ति के लिए उपयोगी बनाया और करने की प्रेरणा दी है वहीं श्री चन्द्रप्रभ जीवन में शरीर, मन, आत्मा, जीवन जीने की नई राह प्रदान की। दोनों दार्शनिक व्यक्ति के बाहरी परिवार, व्यापार और समाज इन छ: तत्त्वों में संतुलन साधने की सीख देते एवं भीतरी व्यक्तित्व को ऊपर उठाने के लिए प्रयत्नशील हैं। श्री हैं। वे कहते हैं, "इंसानका जीवन छहतार वाले गिटार की तरह है।शरीर, रविशंकर 'आर्ट ऑफ लिविंग के माध्यम से एवं श्री चन्द्रप्रभ संबोधि मन,आत्मा, घर, व्यापार और समाज इन सारे तारों को साधिए और उनमें साधना' तथा 'द वे ऑफ गुड लाइफ' के द्वारा विश्व जनमानस को संतुलन बैठाइए, आप सफलता के संगीत का पूरा आनंद ले सकेंगे।" सम्यक् मार्गदर्शन दे रहे हैं। आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रेक्षाध्यान की उपसंपदा के अंतर्गत भावक्रिया, प्रतिक्रिया विरति, मैत्री, मितभाषण और मिताहार के पंचसूत्र दिए हैं और श्री रविशंकर एवं श्री चन्द्रप्रभ द्वारा किए गए योग साधना, श्री चन्द्रप्रभ ने संबोधि ध्यान की नींव सहजता, सकारात्मकता, सचेतनता सत्साहित्य-सृजन, सामाजिक सेवा एवं मानवीय कल्याण से जुड़े और निर्लिप्तता को बताया है। कार्यों की समीक्षा करने से स्पष्ट होता है कि श्री रविशंकर ने प्राचीन श्री चन्द्रप्रभ व आचार्य महाप्रज्ञ के धर्म संबंधी दृष्टिकोण की वैदिक ज्ञान को युगीन-संदर्भो में प्रस्तुत किया। उन्होंने 'आर्ट ऑफ तुलनात्मक विवेचना में स्पष्ट होता है कि आचार्य महाप्रज्ञ वर्तमान लिविंग' संस्था के माध्यम से देश व देश के बाहर हर उम्र व हर क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्तियों को योग, प्राणायाम और ध्यान का प्रशिक्षण धार्मिक-सामाजिक-राजनीतिक-शैक्षणिक संरचना में पूर्ववर्ती धर्मअध्यात्म परम्परा का समन्वय चाहते हैं और श्री चन्द्रप्रभ वर्तमान दिया। उन्होंने तनाव-मुक्ति के लिए श्वास से जुड़ी 'सुदर्शन क्रिया' नामक विधि प्रतिपादित की। इस विधि से तन-मन में होने वाले जीवन का समर्थन करते हुए व्यक्ति को सकारात्मक अंतर्दृष्टि से युक्त करना चाहते हैं। इसी अंतर्दृष्टि को उजागर करते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते परिवर्तनों का वैज्ञानिक अनुसंधान भी हुआ। उनके 'आर्ट ऑफ हैं, "स्वर्ग कहीं आसमान में नहीं है और नरक कहीं पाताल में छिपा लिविंग' के अंतर्गत बेसिक कोर्स, एडवांस कोर्स, सहज समाधि, दिव्य हुआ नहीं है। मनुष्य का अंतर्मन ही स्वर्ग के सुमन खिलाता है और वही समाज निर्माण, आर्ट एक्सल, यश प्लस आदि अनेक योग-प्रशिक्षण नरक का दावानल भी। जहाँ प्रेम, शांति, भाईचारा, सहयोग, कार्यक्रम चलते हैं। वे सरकारी कर्मचारियों के लिए शासनिक सकारात्मकता - ये सब स्वर्ग के रास्ते हैं, वहीं आपसी नफरत,स्वार्थ, कार्यक्रम, प्रबंधन-कर्मचारियों के लिए अपेक्स कोर्स, शिक्षकों के हिंसा, वैर-विरोध, क्रोध, खीझ नरक की पगडंडियाँ हैं। जीवन को लिए टीटीसी कोर्स, गाँवों के लिए फाइव एच प्रोग्राम व नव चेतना स्वर्ग या नरक के आयाम देना मनुष्य के अपने हाथ में है।" शिविर, हिंसक युवाओं की मानसिकता में बदलाव लाने हेतु आचार्य महाप्रज्ञ ने जहाँ धर्म का सार आत्म-साक्षात्कार को बताया अनाक्रमण कार्यक्रम, कैदियों के लिए प्रिजन स्मार्ट, किशोर सुधारगृह है वहीं श्री चन्द्रप्रभ धर्म को मानवीय एकता का आधार व सुख से जीने हेतु वैप कार्यक्रम संचालित करवाते हैं। सुनामी, भूकंप, चक्रवात, की कला मानते हैं। उनका मानना है, "जो धर्म मानवता को बाँटता है बाढ़, आतंकी हमले जैसी विपदाओं में उनके सेवा कार्य चलते हैं। वह धर्म, धर्म नहीं, इंसानियत के कंधे पर ढोया जाने वाला जनाजा भर उन्होंने किसानों के लिए स्वावलंबन कार्यक्रम, नेत्रहीन, विकलांग और है। धर्म का काम है सारी मानव जाति को एकसूत्र में पिरोना।""धर्म कुलियों के लिए अपराजित प्रोजेक्ट चलाए हैं। श्री रविशंकर ने शिक्षा स्वयं सुख से जीने तथा औरों को सुख से जीने देने की कला है। ऐसा विस्तार हेतु अनेक विद्यालय, महाविद्यालयों की भी स्थापना करवाई होने पर ही धर्म मानवता की मुंडेर पर मोहब्बत का जलता हुआ चिराग है। उन्होंने सर्वधर्म-शिक्षा व सर्वधर्म-सद्भाव पर भी बल दिया है। बन जाएगा।" उन्होंने जीवन, सफलता, शिक्षा, प्रेम, ज्ञान, धर्म, ध्यान, योग, अध्यात्म, For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स-1190g Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वर भक्ति, मोक्ष, नैतिकता, राजनीति, आतंकवाद आदि बिन्दुओं पर बैंक में लंबी-चौड़ी रकम को मैं सफलता नहीं मानता, मेरे लिए भी उपयोगी मार्गदर्शन दिया है। सफलता की परिभाषा है - चेहरे पर कभी न मिटने वाली मुस्कान और श्री चन्द्रप्रभ के सान्निध्य में अंतर्मन की शांति एवं अतीन्द्रिय ऐसा विश्वास जो कभी ख़त्म नहीं हो।" उन्होंने सफलता का संबंध शक्तियों के जागरण से जुड़े संबोधि ध्यान एवं योग प्रशिक्षण के सैकड़ों जीवन की स्वतंत्रता, वर्तमान में जीना, दूसरों के लिए उपयोगी जीवन, शिविर आयोजित हो चुके हैं। जिसमें अब तक छत्तीस कौम के लाखों मानवता के प्रति प्रेम से भी जोड़ा है। लोगों ने भाग लेकर स्वयं का कायाकल्प किया है। उन्होंने बच्चों एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में सफलता की व्याख्या के साथ सफलता युवापीढ़ी के संस्कार निर्माण व व्यक्तित्व विकास के लिए 'द वे ऑफ पाने के बेहतरीन गुर बताए गए हैं। वे कॅरियर बनाने के साथ जीवन में गुड लाइफ' के अनेक शिविर करवाए हैं। उनके द्वारा स्थापित जितयशा भी सफल होने की कला सिखाते हैं। उनकी दृष्टि में, "जिस तरह पानी फाउंडेशन ने जीवन-निर्माण से जुड़ी तीन सौ से अधिक पुस्तकें को भाप बनने के लिए उबलना पड़ता है वैसे ही सफलता की ऊँचाइयों प्रकाशित की हैं। उन्होंने संबोधि सेवा परिषद, संबोधि महिला मण्डल, को पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। जो 36% शक्ति लाएँगे वे संबोधि बालिका मण्डल जैसी संस्थाएँ गठित की हैं जो सिलाई-कढाई केवल पास होंगे, जो 60% शक्ति लाएँगे वे फर्स्ट क्लास आएँगे, पर जो प्रशिक्षण केन्द्र मेडिकल रिलिफ सोसायटी.मनस चिकित्सा, गौ रक्षा. 100% शक्ति लगा देंगे वे टॉप टेन में पहुँचने में सफल हो जाएँगे।" प्राकृतिक आपदा सहयोग, सरकारी अस्पतालों की देखरेख, संबोधि उन्होंने 'सफल होना है तो ...' पुस्तक में सफलता का राज़ ऊँचा लक्ष्य, जल मंदिरों की स्थापना जैसी सेवाएँ संचालित कर रही है। उनके महान सोच व बेहतर कार्यशैली के समन्वय को बताया है। उन्होंने निर्देशन में प्रतिवर्ष गरीब बच्चों के लिए अल्पमोली पस्तिकाओं का कैसे बनाएँ अपना कॅरियर' पुस्तक में सफल कॅरियर के छ: मंत्र दिए वितरण होता है। कैदियों एवं कच्ची बस्तियों के लोगों का जीवन स्तर हैं - बेहतरीन शिक्षा, कड़ी मेहनत, तन्मयता से कार्य करना, निरंतर ऊपर उठाने के लिए सुधार अभियान चलते हैं। उन्होंने सर्वधर्म- अभ्यास, स्वयं पर विश्वास, बेहतरीन प्रस्तुतीकरण। जीवन में सद्भाव के लिए सभी धर्म शास्त्रों एवं महापुरुषों के संदेशों को यगीन सफलता पाने का मार्गदर्शन देते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "सफलता संदर्भो में प्रस्तुत किया है। इस तरह दोनों दार्शनिक राष्ट्र के चहुँमुखी का संबंध महज़ व्यापार या कॅरियर से नहीं है। सबके साथ विनम्रता उत्थान के लिए प्रयासरत हैं। और मिठास से पेश आना, रिश्तेदारों के साथ सहयोग करना और श्री रविशंकर एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन की तुलनात्मक विवेचना से स्वार्थों से ऊपर उठकर गैर इंसानों के काम आना, गलत और विपरीत स्पष्ट होता है कि दोनों में जीवन जीने की कला पर विशद विवेचन किया वातावरण बन जाने पर ख़ुद पर संयम और धैर्य रखना भी सफलता के गया है। श्री रविशंकर एवं श्री चन्द्रप्रभ ने मुस्कुराते हुए जीवन जीने की हा अलग-अलग आयाम ह ही अलग-अलग आयाम हैं।" प्रेरणा दी है। श्री रविशंकर ने मुस्कुराने को प्रभु की भक्ति भी माना है और श्री रविशंकर एवं श्री चन्द्रप्रभ ने तनाव, क्रोध और अहंकार जैसे जीवन की सफलता भी। वे कहते हैं, "भगवान चाहते हैं कि हम मुस्कराएँ, नकारात्मक तत्त्वों से मुक्त होने का मार्गदर्शन भी दिया है। श्री रविशंकर हँसें। यह समष्टि चाहती है ऐसी मुस्कुराहट, ऐसी हँसी जो हमारे रोम-रोम ने तनावमुक्ति हेतु भूत-भविष्य की चिंता न करने, वर्तमान क्षण में जीने से निकले और कण-कण में समा जाए। हँसो, मस्त हो जाओ यही भक्ति और तनाव के परिणामों पर चिंतन करने के सूत्र दिए हैं। श्री चन्द्रप्रभ है।" उन्होंने सफलता व मुस्कान का अंतर्संबंध उजागर करते हुए कहा है, की दृष्टि में, "कुछ बुरा होने के बाद दिमाग में रहने वाला खिंचाव ही "सफलता का सूचक है चेहरे पर हमेशा थिरकती मुस्कान, जीवन पर तनाव है।" उन्होंने तनाव मुक्ति के लिए जीवन में कुछ खास बातों को भरोसा और यह जानना कि सारे लोग अपने हैं।" जीने की सलाह दी हैश्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में जीवन को स्वभाव को संदर बनाने का 1.सदा हँसने-मुस्कुराने की आदत डालें। पहला मंत्र दिया गया है - हर पल मुस्कुराओ, मुस्कान दो और मुस्कान 2. संगीत सुनने, पैदल चलने और योगासन-प्राणायाम करने की लो। श्री चन्द्रप्रभ ने हर दिन की, हर कार्य की शुरुआत मुस्कुराकर करने आदत डालें। की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, "हर दिन की, हर कार्य की शुरुआत 4.अच्छी नींद लें। मुस्कान से कीजिए। आपकी मुस्कान ईश्वर को चढ़ाए गए फूल के 5. प्रतिदिन ध्यान के प्रयोग करें। समान है।" उन्होंने चिंता, तनाव, क्रोध से मुक्त होने के लिए मुस्कान 6. मन को आशा, उमंग, उत्साह से भरा रखें। को बढ़ाने की सलाह दी है। उनकी दृष्टि में, "सुबह उठते ही तबीयत 7.मेल-मिलाप बढ़ाएँ व हर कार्य शांतिपूर्वक संपादित करें। से मुस्कुराए जीवन में ज्यों-ज्यों मुस्कान के फूल खिलेंगे चिंता, क्रोध, श्री रविशंकर ने क्रोध-मुक्ति का मार्गदर्शन देते हुए कहा है, "जब भी तनाव के काँटे स्वतः निष्प्रभावी होते जाएँगे।"उन्होंने मुस्कान से जुड़े क्रोध आए गाना गाओ, गाकर डाँटो। क्रोध में हम लय,छंद,ताल विहीन हो प्रयोग को जीवन से जोड़ने की सीख देते हुए कहा है, "सुबह-शाम जाते हैं। गायन इस छंद को वापस लौटाता है।" श्री चन्द्रप्रभ ने गुस्से को तीन-तीन मिनट बैठ जाइए और आती हुई श्वास के साथ अनुभव करते जीतने के निम्न सूत्र दिए हैं - कल पर टालने की आदत डालें, धैर्य रखें, जाएँ, 'मैं अंतर्मन को शांतिमय बना रहा हूँ और जाती हुई श्वासों के एक घंटा मौन रखें, क्रोध के वातावरण वाले स्थान से हट जाएँ, माफी माँगें साथ मैं मुस्कुरा रहा हूँ' यह छोटा सा प्रयोग गुस्सा, चिड़चिड़ापन और या माफ कर दें और स्वयं को समझाएँ - हे जीव! शांत रह। श्री रविशंकर नकारात्मक भावों से मुक्त करने में उपयोगी साबित होगा।" अहंकार की विवेचना करते हुए कहते हैं, "विश्रांति की स्थिति में नहीं होना श्री रविशंकर एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में सफलता पर भी ही अहंकार है। सहज, सरल और अपने स्वभाव में होने पर अहंकार नहीं मार्गदर्शन प्राप्त होता है। श्री रविशंकर सफलता को धन से नहीं जोड़ते होता।" श्री चन्द्रप्रभ ने अहंकार की तुलना सोडावाटर की शीशी की गोली हैं। उनकी दृष्टि में, "लंबे लटके चेहरे और तनावग्रस्त मन के साथ से की है.जो दसरों की विशेषताओं को अंदर जाने नहीं देती और अंदर की 1120 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषताओं को बाहर निकलने नहीं देती। उन्होंने अहंकार को जीतने के लिए जीवन को सरल, विनम्र और मधुर बनाने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, "जो लकड़ी सीधी होती है वह राष्ट्रध्वज को लहराने का गौरव प्राप्त करती है। टेढ़ी-मेढ़ी लकड़ियाँ तो मात्र चूल्हे में ही जलाई जाती हैं।" उन्होंने नम्रता को जीने के लिए तीन मंत्र दिए हैं 1. कड़वी बात का जवाब मिठास से दो। 2. क्रोध आने पर चुप रहो। 3. दंड देते समय कोमलता रखो। श्री रविशंकर एवं श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में मोह को त्यागने व प्रेम के धर्म को जीवन में आत्मसात करने की प्रेरणा दी गई है। दोनों दार्शनिकों ने मोह को बंधन व प्रेम को मुक्ति माना है। श्री रविशंकर ने वासना और प्रेम की तुलना करते हुए कहा है, “वासना तनाव है और प्रेम विश्राम। वास प्रयत्न है और प्रेम प्रयत्नहीन । वासना जकड़ती है और प्रेम स्वतंत्रता देता है।" इस प्रकार उन्होंने वासना से निकलकर प्रेम की ओर यात्रा करने का मार्गदर्शन दिया है। श्री चन्द्रप्रभ ने प्रेम को पूजा और परमात्मा की संज्ञा दी है। वे प्रेम से बढ़कर कोई धर्म नहीं मानते हैं। उन्होंने आज के युग में मर्यादा, कर्मयोग, अहिंसा से ज़्यादा प्रेम के धर्म की आवश्यकता को बताया है। उनकी दृष्टि में, " प्रेम के बिना जीवन सूना है और धर्म अधूरा प्रेम की शुरुआत इंसानों से होती है, उसका विस्तार पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों पर होता है और उसकी पराकाष्ठा परमात्मा पर जाकर होती है।" उन्होंने प्रेम को जीने के लिए निम्न सिखावन दी है 1. घर में आई रिश्तों की टूटन को दूर करें। 2. दीन-दुखियों की सेवा करें। 3. प्रेम को वासना से मुक्त करें। 4. प्रेम को सार्वजनिक करें। 1 श्री रविशंकर एवं श्री चन्द्रप्रभ ने प्रार्थना के संदर्भ में भी चर्चा की है श्री रविशंकर कहते हैं, "जहाँ कुछ माँगने की इच्छा नहीं उठे। जो कुछ मिला है, प्रकृति की ओर से उसके प्रति एक असीम तृप्ति का भाव, कृतज्ञता का भाव रखना सच्ची प्रार्थना है।" श्री चन्द्रप्रभ ने 'चार्ज करो ज़िंदगी' पुस्तक में लिखा है- परमपिता परमेश्वर पर विश्वास करना, जब चाहें - जहाँ चाहें प्रभु की प्रार्थना कर लेना, प्रार्थना मह शब्दों का खेल न बनने देना, संकट की घड़ी में भी उस पर विश्वास रखना, उनके प्रति शिकवा - शिकायत न पालना, मुस्कुराना, आभार प्रकट करना और की गई प्रार्थना को पूरा करने का दायित्व प्रभु पर छोड़ देना ही सच्ची प्रार्थना है। 44 श्री रविशंकर एवं श्री चन्द्रप्रभ ने अध्यात्म के बारे में भी मार्गदर्शन दिया है। आध्यात्मिकता की विवेचना करते हुए श्री रविशंकर ने लिखा है, “प्रेम, प्रसन्नता, परम आनंद, करुणा, सौन्दर्य, उत्साह, ये सभी आत्मा से जुड़े हुए हैं इन्हें सजीव करना आध्यात्मिकता है।" उन्होंने व्यावसाय को भी अध्यात्म से परिपूर्ण बनाने की प्रेरणा दी। उनकी दृष्टि में आध्यात्मिकता हृदय है और बिजनेस हमारे पैर हैं। इन दोनों के बिना व्यक्ति व समाज अपूर्ण है। बिजनेस से भौतिक सुविधा आती है। और आध्यात्मिकता हमारी मनोभावना में विश्रांति लाती है। दोनों में सहयोग से ही जीवन नीतिपूर्ण बन सकता है।" श्री चन्द्रप्रभ ने अध्यात्म के अंतर्गत जीवन को जागरूकतापूर्वक जीने की कला सिखाई है। वे मानसिक विकारों पर विजय प्राप्त करने और होश व बोधपूर्वक जीवन को जीने को आध्यात्मिक धर्म कहते हैं। उन्होंने व्यक्ति को गृहस्थ संत - बनकर सभी दायित्व निभाने की प्रेरणा दी है। जीवन में साधुता लाने के लिए वे चार बिन्दुओं को जीने की प्रेरणा देते कहते हैं, "सहजता, सकारात्मकता, सचेतनता और निर्लिप्तता को जीवन से जोड़ा जाए। पहले दो बिंदु व्यावहारिक जीवन से जुड़े हुए हैं, अगले दो बिंदु आध्यात्मिक जीवन से चारों को एक साथ जोड़कर जीवन को शांतिमय, सुखमय, आनंदमय और प्रज्ञामय बनाया जा सकता है।" श्री रविशंकर एवं श्री चन्द्रप्रभ ने 'मोक्ष' के बारे में चर्चा की है। श्री रविशंकर मोक्ष का अर्थ शाश्वत शांति और मस्ती बताते हैं। उनकी दृष्टि में, “जब हर तरह की प्यास से हम शांत हो जाएँ, हमारे भीतर किसी भी तरह की बाधा, चिंता, बोझ न हो ऐसी स्थिति मोक्ष है।" श्री चन्द्रप्रभ ने अन्तर्मन और अन्तरात्मा की निर्मल स्थिति को मोक्ष माना है। उन्होंने मोक्ष को जीते-जी उपलब्ध करने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, "दृष्टि सम्यक् हो, सोच सम्यक् हो, ज्ञान और चारित्र सम्यक् हो, आत्म-स्मृति सम्यक् हो, कर्म और भाव सम्यक् हो। सम्यक्त्व और जीवन की शुद्धता का परिणाम है मोक्ष।" इस तरह मोक्ष पाने हेतु श्री रविशंकर स्वयं को शांत करने व श्री चन्द्रप्रभ जीवन को निर्मल तथा हर गतिविधि को सम्यक् बनाने का मार्ग दर्शाते हैं । श्री रविशंकर एवं श्री चन्द्रप्रभ ने ईश्वर के स्वरूप पर भी प्रकाश डाला है। श्री रविशंकर कहते हैं, "धरती-सा धीरज, आग सी चमक, वायु- सा हल्का, जल-सा नम्र और आकाश की तरह सर्वव्याप्त, जिनमें ये गुण हैं वही ईश्वर है।" उन्होंने ईश्वर को सर्वत्र देखने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, "स्वयं में ईश्वर को देखना ध्यान है, दूसरे में ईश्वर को देखना प्रेम है, सर्वत्र ईश्वर को देखना ज्ञान है और ईश्वर की अभिव्यक्ति है सचेत कार्य" श्री चन्द्रप्रभ ने ईश्वर के अस्तित्व को सर्वत्र स्वीकार किया है। उनकी दृष्टि में, उसे अपने में, अपने आसपास उसका अहसास करना ही उसे पाने का मार्ग है। उन्होंने आत्मा की शुद्ध निर्मल दशा को भी परमात्मा माना है। श्री चन्द्रप्रभ के अनुसार, " भीतर - बाहर के द्वैत से, अंतर- द्वन्द्व से मुक्त चेतना की निर्मल दशा ही परमात्मा है।" उन्होंने परमात्म प्राप्ति के लिए मैं - तू के भाव से ऊपर उठने और भीतर में उसके प्रति प्यास जगाने की प्रेरणा दी है। श्री रविशंकर एवं श्री चन्द्रप्रभ ने वर्तमान युग में नैतिक क्रांति की आवश्यकता पर बल दिया है। श्री रविशंकर ने नैतिकता के ह्रास का कारण जातिवाद, भ्रष्टाचार, दलगत राजनीति और संकीर्ण मनोभाव को माना है। उन्होंने अध्यात्म और विवेक को नैतिकता की नींव कहा है। उनकी दृष्टि में, "जो हमारी चेतना को जगा दे वही नैतिकता है।" श्री चन्द्रप्रभ ने नैतिक मूल्यों को राष्ट्र की असली ताक़त बताया है। उन्होंने अनैतिकता का कारण सुस्त न्याय प्रणाली, वोटों की राजनीति, गरीबी और भोग-विलास की बढ़ती तृष्णा को बताया है। उन्होंने नैतिकता को स्थापित करने के निम्न सुझाव दिए हैं 1. जन्म से ही धर्म की बजाय राष्ट्र प्रेम के संस्कार दिए जाएँ । 2. नैतिकता की प्रेरणा देने वाले मंदिर खड़े किए जाएँ । 3. पश्चिम की ईमानदारी, नैतिकता व राष्ट्रभक्ति के मूल्यों से प्रेरणा ली जाए। 4. भ्रष्टाचारियों, रिश्वतखोरों और देशद्रोहियों के खिलाफ युवा संगठित हों । 5. पहले व्यक्ति खुद नैतिक बने फिर औरों को नैतिक बनाने का संकल्प ले। संबोधि टाइम्स 12.7org For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. समाज सच्चरित्र व सेवा करने वालों को महत्व दे और गरीबों के दुःख-दर्द को दूर करने के लिए सदा तत्पर रहें। श्री रविशंकर एवं श्री चन्द्रप्रभ ने जातिगत आरक्षण को अनुचित ठहराया है। श्री रविशंकर ने इस संदर्भ में कहा है, "जाति के आधार पर आरक्षण सामाजिक अंतर को मिटा नहीं सकता है। पिछड़े और गरीब लोग हर जाति वर्ग में हैं. सभी की आर्थिक उन्नति जरूरी है। भारत की मुख्य ज़रूरत हर स्तर पर लोगों को एक करना है। जातीयता के आधार पर आरक्षण न केवल देश को बाँटेगा, बल्कि लोगों के आत्मविश्वास भी चोट पहुँचाएगा। राजनीतिज्ञों को चाहिए कि वे जाति-धर्म के नाम पर भेदभाव व आंतरिक कलह को बढ़ावा नहीं दें।" श्री चन्द्रप्रभ जातिगत आरक्षण को देश का दुर्भाग्य बताया है। उनका मानना है, 'आरक्षण से देश का विकास कम, बँटवारा ज़्यादा हुआ है। इसका लाभ गरीबों की बजाय जाति विशेष को मिल रहा है। अगर आरक्षण के नाम पर देश की प्रतिभा पर ध्यान नहीं दिया गया तो इसका असर भारत के विकास पर पड़ेगा।" उन्होंने जातिगत आरक्षण का विरोध करने, सरकारों पर योग्यता व गुणवत्ता से जुड़े मापदण्ड लागू करने का दबाव बनाने का मार्गदर्शन दिया है। श्री रविशंकर एवं श्री चन्द्रप्रभ सर्वधर्म सद्भाव का वातावरण बनाने के लिए एकमत एवं प्रयत्नशील हैं। दोनों दार्शनिकों की प्रेरणा से समय-समय पर विराट सर्वधर्म सम्मेलन हुए हैं। श्री रविशंकर ने भिन्न-भिन्न धर्मों एवं विचारों के लोगों द्वारा एक स्थान पर बैठकर आपस में विचार-विमर्श करने को सभ्य समाज का लक्षण माना है। श्री चन्द्रप्रभ ने उसी धर्म को धर्म माना है जो मानवता को एक करता हो, टूटे दिलों को जोड़ता हो । उनकी दृष्टि में, " धर्म का काम है सारी मानव जाति को एक सूत्र में बाँधना। जो धर्म मानवता को बाँटता है वह धर्म, धर्म नहीं इंसानियत के कंधे पर ढोया जाने वाला जनाजा है।" उन्होंने सभी धर्मों का सम्मान करने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, "दुनिया के हर धर्म, पंथ, मजहब में महान् से महान् सिद्धांत हैं, विचार हैं, चिंतक एवं चमत्कारी महापुरुष हैं। हम उनके प्रति अपनी दृष्टि को विशाल एवं उदार बनाएँ ताकि हर परम्परा, पंथ और संत से लाभान्वित हो सकें।" इस तरह दोनों दार्शनिकों ने विभिन्न धर्मों को निकट लाने की कोशिश की। श्री रविशंकर एवं श्री चन्द्रप्रभ ने आतंकवाद की समस्या के कारण व निदान पर भी विचार रखे हैं। श्री रविशंकर ने आतंकवाद के निम्न कारण बताएँ हैं - लक्ष्य प्राप्ति में निराशा व उससे उत्पन्न उग्रता; पुण्य, स्वर्ग व ईश्वर के विषय में भ्रमपूर्ण धारणा, जीवन के प्रति सम्मान का अभाव और मानव मूल्यों को भूला देना। उन्होंने आतंकवाद की समस्या का समाधान करने हेतु निम्न मार्गदर्शन दिया है - 1. मदरसों में सभी संस्कृतियों की शिक्षा दी जाए। 2. बच्चों को विशाल दृष्टिकोण अपनाने व मानवीय मूल्यों की स्थापना हेतु प्रोत्साहन दिया जाए। 3. जातिभेद- लिंगभेद न किया जाए। 4. धर्मगुरु दूसरी धर्म - संस्कृति को जानें। 5. विचारों की विविधता स्वीकार की जाए। 6. पूरे संसार के प्रति अपनापन का भाव महसूस किया जाए। - 7. अहिंसा शांति को स्थापित करने का आत्मविश्वास पैदा करें व आतंकवादियों के प्रति दया व सहानुभूति का भाव लाएँ। Ja122 > संबोधि टाइम्स श्री चन्द्रप्रभ ने आतंकवाद का मुख्य कारण आर्थिक शोषण, गलत वातावरण, दमित वृत्तियाँ और अचेतन मन के संस्कारों को माना है। उन्होंने इस समस्या का समाधान करने के लिए जो सिखावन दी है वह इस प्रकार है - 1. कारागृहों को सुधारगृह बनाया जाए। 2. आर्थिक विकेन्द्रीकरण किया जाए। 3. औरों के प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाया जाए। 4. श्रेष्ठ साहित्य और सात्विक विचारों का विस्तार किया जाए। 5. छिछली राजनीति को समाप्त करने की कोशिश की जाए। इस तरह श्री रविशंकर एवं श्री चन्द्रप्रभ ने सामाजिक एकता, राजनीति व धर्मनीति का समन्वय ध्यान योग का विस्तार, युवा वर्ग का नैतिक उत्थान करने के लिए विस्तार से मार्गदर्शन प्रदान किया है। उनका जीवन स्तर को ऊंचा उठाने में महत्त्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने जीवन, व्यक्तित्व, समाज, धर्म, अध्यात्म, राष्ट्रोत्थान से जुड़े विभिन्न बिन्दुओं पर सकारात्मक मार्गदर्शन देकर बेहतर वर्तमान एवं उज्वल भविष्य की नींव रखी है। दोनों दार्शनिकों का चिंतन आध्यात्मिकता एवं व्यावहारिकता का निचोड़ लिए हुए हैं। सार रूप में श्री रविशंकर ने जहाँ योग एवं ध्यान के मार्ग को विश्व स्तर पर फैलाया और मानवीय उत्थान से जुड़े विविध सेवा कार्य किए वहीं श्री चन्द्रप्रभ ने जनमानस में वैचारिक क्रांति लाकर सुखी, सफल एवं मधुर जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त किया। निष्कर्ष श्री चन्द्रप्रभु के दर्शन का अन्य दार्शनिकों के साथ किए गए तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि श्री चन्द्रप्रभ एवं अन्य दार्शनिकों के विचार काफी हद तक निकटता लिए हुए हैं। पर श्री चन्द्रप्रभ ने जो नई जीवन-दृष्टि आमजन को प्रदान की है वह उन्हें सबके निकट खड़ा करता है। उनके दर्शन की निम्न विशेषताएँ, जो उन्हें न केवल अन्य दार्शनिकों से भिन्न करती हैं वरन् नए रूप में प्रस्तुत भी करती हैं 1. श्री चन्द्रप्रभ ने दार्शनिक तत्त्वों की व्याख्या से जुड़ी दुरूहता को कम किया है। 2. श्री चन्द्रप्रभ ने सभी धर्मों के सिद्धांतों एवं महापुरुषों के संदेशों को निकट लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 3. श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन पूर्ववर्ती दार्शनिकों के अनुसरण की बजाय जीवन के अनुभवों पर आधारित है। 4. श्री चन्द्रप्रभ ने दर्शन को जीवन सापेक्ष स्वरूप देकर जो दार्शनिक दृष्टि प्रतिपादित की है वह अद्भुत है। उनका दर्शन मुख्य रूप से जीवन-निर्माण एवं जीवन-विकास में बाधक समस्याओं के समाधान पर अवलम्बित है। 5. श्री चन्द्रप्रभ ध्यानमार्गी होते हुए भी सभी मार्गों को स्वीकार करते हैं। 6. श्री चन्द्रप्रभ ने सकारात्मक वैचारिक क्रांति पर मानवता को मानसिक समृद्धि प्रदान की है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में सभी दर्शनों का सार युगानुरूप ढंग से समाहित है। पूर्ववर्ती सभी दार्शनिक परम्पराओं को सार-सरल स्वरूप में समझने के लिए एवं जीवन को आनंद उत्सवपूर्ण बनाने के लिए श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन शत प्रतिशत उपयोगी सिद्ध हुआ है। Box For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 श्री चन्द्रप्रभ धर्मानुशास्ता, समाज-निर्माता एवं राष्ट्र-भावना से ओतप्रोत हैं। उन्होंने अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से धर्म, समाज और राष्ट्र को नई दिशा-नई दृष्टि प्रदान की है। उनकी दृष्टि में, समाज एवं राष्ट्र एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के उत्थान में दूसरे का उत्थान एवं एक के पतन में दूसरे का पतन निहित है। धर्म का अर्थ पंथ-परम्परा से लिया जाता है। यद्यपि पंथ-परम्पराओं ने बिखरे हुए लोगों को समूहबद्ध बनाने में योगदान दिया, पर उससे धर्म रूढ़ मान्यताओं एवं क्रियाकाण्डों में सिमट गया। परिणामस्वरूप धर्म जीवन के उत्थान का द्वार बनने की बजाय दीवार बन गया। श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म को पंथपरम्परा और क्रियाकाण्डों से ऊपर उठाकर उसे जीवन मूल्यों और नैतिक मूल्यों के साथ जोड़ा। उन्होंने धर्म को मानवीय मूल्यों के रूप में प्रस्तुत किया और उसे जीवन-निर्माण का आधार-स्तंभ बनाया। अतीत में तीर्थंकर महावीर और तथागत बुद्ध जैसे महापुरुषों ने भी धर्म के नाम पर बने हुए बाहरी क्रियाकाण्डों का विरोध कर अहिंसा, सत्य-सदाचार और शील-प्रधान धर्म की स्थापना की थी। समाज का अर्थ सामान्य तौर पर किसी जाति के समूह से लिया जाता है। सामाजिक समूह होने से परस्पर लेन-देन, वाणी-व्यवहार और सहयोग-समर्थन आदि कार्यों में सुविधा रहती है। कभी-कभी मानसिक संकीर्णता, परम्परागत कट्टरता की भावना के कारण अथवा अधिकारों की लड़ाई के चलते ये समूह परस्पर एक-दूसरे के विरोधी बन जाते हैं, जिससे सामाजिक दूरियाँ बढ़ जाती हैं। मानव-समाज के लिए सामाजिक एकता बने रहना परम आवश्यक है, यह तभी संभव है जब व्यक्ति समाज से ऊपर उठा हुआ हो और सर्वकल्याण का चिंतन रखता हो। श्री चन्द्रप्रभ किसी समाज विशेष के दायरे तक सीमित नहीं है। उन्होंने सभी समाजों को आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है। श्री चन्द्रप्रभ साम्यवाद से चार कदम आगे की सोच रखते हैं। जहाँ साम्यवाद अमीर-गरीब की भेदरेखा से मुक्त समाज की स्थापना पर बल देता है वहीं श्री चन्द्रप्रभ प्रत्येक व्यक्ति और समाज की समृद्धि के पक्षधर हैं। श्री चन्द्रप्रभ की राष्ट्रीय दृष्टि भी नई दिशा दिखाती है। वे राष्ट्र को मात्र जमीनी सीमाओं के बीच नहीं देखते हैं। उनकी दृष्टि में, "राष्ट्र एक संस्कृति, सभ्यता और विचारधारा का नाम है।" इस तरह श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन धर्म, समाज एवं राष्ट्र की परम्परागत धारणा से ऊपर है। उन्होंने मानव-जाति के उत्थान से जुड़ा दर्शन प्रस्तुत किया है। श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म को नया स्वरूप देने में, समाज को प्रगतिशील बनाने में और राष्ट्रीय उन्नयन में महत्त्वपूर्ण योगदान समर्पित किया है। श्री चन्द्रप्रभ के द्वारा धर्म, समाज और राष्ट्र को दिए गए अवदान का आगे विस्तार से विवेचन किया जा रहा है - संबोधि टाइम्स > 123 For Personal & Private Use Only श्री चन्द्रप्रभ की धर्म, समाज एवं राष्ट्र को देन Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रप्रभ की धर्म को देन श्री चन्द्रप्रभ का धर्मदर्शन भारतीय दर्शन जगत में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। उन्होंने धर्म की वर्तमान दशा को सुधारकर उसे सम्यक दिशा प्रदान की है। उन्होंने एक ओर जहाँ धर्म में आई विकृतियों पर चोट की है वहीं दूसरी ओर धर्म के व्यावहारिक एवं जीवन-सापेक्ष स्वरूप पर प्रकाश डाला है। वे धार्मिक अंधानुकरण के विरोधी हैं। वे धर्म की विराटता एवं जीवंतता में विश्वास रखते हैं। उनकी धर्मदृष्टि आग्रहदुराग्रह से मुक्त है। उन्होंने धर्म को सरल एवं सरस बनाया। वे धर्म के उन्हीं पहलुओं को अपनाने के समर्थक हैं, जो हमारी जीवन की समस्याओं के समाधान से जुड़े हुए हैं। उन्होंने व्यक्ति को मार्ग देने की बजाय मार्गदृष्टि दी ताकि व्यक्ति धर्म के विभिन्न मार्गों को देखकर दिग्भ्रमित होने से बच सके। जो धर्म दो-चार क्रियाओं तक सीमित हो गया था और कुछ पंथ-परम्पराओं में सिमट गया था, उन्होंने उसे सार्वजनिक व सर्वकल्याणकारी बनाया। उनके धर्मदर्शन में धर्म, उसके अर्थ, स्वरूप, साम्प्रदायिक विभेदता, धार्मिक समन्वय, समरसता, धर्म का परिवार, समाज और राष्ट्र से सम्बन्ध, महापुरुषों की धर्मदृष्टि, धार्मिक एकता, वर्तमान की आवश्यकता आदि विविध बिन्दुओं पर मौलिक चिंतन प्रस्तुत हुआ है। श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म के क्षेत्र में कौन-सी क्रांति की, धर्म को कौनसी नई दिशा प्रदान की, उसका विवेचन आगे किया जा रहा है धर्म का स्वरूप- श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म के स्वरूप की नए ढंग से व्याख्या की है। अब तक धर्म को मात्र आत्म-कल्याण के पथ से अथवा क्रियाओं से जोड़ा गया। श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म की व्याख्या संकीर्णताओं से ऊपर उठने व एक-दूसरे के निकट आने के रूप में की। वे कहते हैं, "टूटे हुए इंसानों और टूटे हुए रिश्तों को जोड़ने की कला का नाम धर्म है। धर्म हमें कभी आपस में लड़ना और लड़ाना नहीं सिखाता। जो लड़ना और लड़ाना सिखाए, वह धर्म न होकर पंथ और संप्रदाय की संकीर्णता है।" श्री चन्द्रप्रभ ने धार्मिक संकीर्णता का कारण पंथ-परम्परा के बंधन को माना है। उनकी दृष्टि में, "जब से व्यक्ति ने धर्म के बुनियादी तत्त्वों को समझने से किनारा किया है और धर्म के नाम पर बने पंथ और संप्रदाय से स्वयं को बाँधना शुरू किया है, तब से धर्म संकुचित होकर रह गया है।" उन्होंने धर्म को न केवल व्यावहारिक बनाया अपितु उसे सोच-समझकर धारण करने की शिक्षा भी दी। उनका मानना है, "मनुष्य को अधिकार है कि वह धर्म के ग्रंथों को पढ़े, समझे और उसके बाद जिस धर्म की अच्छाइयाँ उसे प्रभावित करे, व्यक्ति उस मार्ग पर चल पड़े।" वे कहते हैं, "धर्म को अगर दो-चार किताबों के साथ जोड़ लेंगे तो जीवन में धर्म न होगा, केवल अंधविश्वास होंगे, लकीर के फकीर होने की आदत होगी। स्वयं भी सुख से जीओ, औरों को भी सुख से जीने दो, इसी का नाम धर्म है और यही धर्म का व्यावहारिक स्वरूप है।" उन्होंने कथनी-करणी की एकरूपता को धर्म की नींव माना है। वे सार्वजनिक छवि से अधिक निजी छवि की पवित्रता को महत्व देते हैं। उनके अनुसार, "जब तक धर्म व्यक्ति के श्वास और हृदय तक में न उतर जाए, तब तक व्यक्ति के भीतर और बाहर एकरूपता नहीं आ सकती। हर व्यक्ति अपने आपको धार्मिक कह 124 » संबोधि टाइम्स लेगा, पर निजी जीवन में झाँका जाए तो पता चलेगा उसका 'प्राइवेट फेस' अलग है, और 'पब्लिक फेस' अलग। आदमी की सार्वजनिक छवि भी उज्ज्वल होनी चाहिए, लेकिन उससे भी अधिक जरूरी यह है कि व्यक्ति की निजी छवि भी स्वच्छ और सौम्य हो।" इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म को नई पहचान देकर उसे मानवीय प्रेम, आत्म-विवेक और आंतरिक-शुद्धि के साथ जोड़ा है। धर्म सदाचार और सदविचार से संबंधित है, पर मनुष्य ने धर्म को जन्म से संबंधित मान लिया, जिसके चलते धर्म जातिगत रूप ले बैठा। श्री चन्द्रप्रभ धर्म को खून और पैदाइश से जोड़ने के विरोधी हैं । वे कहते हैं, "हम राम की मर्यादा को जीएँ या न जीएँ, फिर भी हिन्दू तो कहला ही लेंगे। चाहे महावीर के संयम को जीवन में आत्मसात कर पाएँ या न कर पाएँ, मगर फिर भी जैन तो कहला ही लेंगे। सेवा और प्रेम के मार्ग पर बढ़ें या न बढ़ें, पर ईसाई तो हो ही गए। सामाजिक समता को समाज में बरकरार रख सकें या न रख सकें, मुसलमान कहने से कोई रोक नहीं सकता, क्योंकि हमने धर्म का संबंध मनुष्य के जन्म के साथ जोड़ दिया है। आदमी जन्मजात ही जैन, जन्मजात ही हिन्दू है, फिर उसे कर्म करने की क्या जरूरत है?" इस तरह उन्होंने धर्म को जन्म की बजाय कर्मप्रधान बनाने की प्रेरणा दी है। धर्म का उदय जीवन का उत्थान व मानवता के कल्याण के लिए हुआ था, पर व्यक्ति धर्म के इस मूल लक्ष्य से भटक गया और सम्प्रदाय के कल्याण में अपना कल्याण समझ बैठा। इसी संकीर्ण दृष्टि ने मनुष्य को मनुष्य का दुश्मन बना दिया। श्री चन्द्रप्रभ की दृष्टि में, "दुनिया के जिन महापुरुषों ने धर्म को पैदा किया अथवा बढ़ाया, उन्होंने इंसान के हाथ में जलती हुई मशाल थमाई थी, लेकिन हम लोगों ने मशाल की आग को तो बुझा दिया और खाली डंडे लेकर नारेबाजी करते रहे और अपने-अपने धर्म की डफली बजाते रहे। अगर मशाल जली हुई होगी तो मनुष्यता अँधेरे में भी रास्ते ढूँढ लेगी, पर यदि मशाल बुझ गई तो बचे हुए डंडे लड़ने और लड़ाने के सिवा और क्या काम आएँगे।" धर्म और एकता- जो धर्म मानवता को एक करने के लिए पैदा हुआ था, इंसान की छोटी सोच ने उसे बाँट दिया, धर्म के साथ, समाज, परिवार और व्यक्ति भी बँट गया। श्री चन्द्रप्रभ ने इंसान की इस सोच पर व्यंग्य किया है। वे कहते हैं, "धर्म हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई के बँटवारे तक ही सीमित रहता तो ठीक था, किन्तु हिन्दू बँटकर वेदांती हो गए, आर्यसमाजी हो गए, ईसाई कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट हो गए, मुसलमान शिया और सुन्नी बन गए, जैन श्वेताम्बर और दिगम्बर हो गए। इतने में शायद बात नहीं बनी और फिर सौ-सौ रूपान्तरण हो गए। लोगों ने धर्म से जीवन के कल्याण के रास्ते कम खोजे हैं, आपस में बँटने और बँटाने के रास्ते ज्यादा पा लिए हैं। छोटी-छोटी बातें, छोटी-छोटी सोच, छोटे नजरिए, इन सबने मिलकर इंसान को भी छोटा बना दिया।" व्यक्ति धर्म के नाम पर जितना संकीर्ण हुआ, उतना अन्य किसी के नाम पर नहीं हुआ। इसी संकीर्णता ने मानव जाति का विकास अवरुद्ध किया और मारकाट जैसी स्थितियाँ पैदा की। यह इस धरती का कड़वा यथार्थ है कि पिछले 2500 सालों में केवल धर्म के नाम पर 5000 युद्ध लड़े गए। अगर व्यक्ति सम्प्रदाय की संकीर्ण सोच में सीमित होने की For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बजाय धर्म का मर्म समझने की कोशिश करता तो धरती का स्वरूप आज कुछ और ही होता श्री चन्द्रप्रभ ने धार्मिक संकीर्णता की कटु आलोचना की और धर्म के नाम पर नफरत या दूरी बढ़ाने के बजाय प्रेम और शांति को प्रसारित करने की शिक्षा दी। वे कहते हैं, "हमने पिछले 2500 सालों तक मंदिर मजहब के नाम पर लड़-लड़कर खोया ही खोया, अगर आने वाले 25 सालों तक हम एक हो जाएँ तो हम 2500 सालों में न कर पाए वो हम मात्र 25 सालों में कर लेंगे। यह हमारा दुर्भाग्य है कि अमुक गली से रामनवमी पर राम की शोभायात्रा नहीं जा सकती तो अमुक गली से मोहर्रम पर ताजिया नहीं निकल सकता, पर उन दोनों गलियों से नगरपालिका का कचरे से भरा ट्रेक्टर तो आसानी से निकल जाता है, जिस पर हमें किंचित् भी आपत्ति नहीं होती। हम धर्म के नाम पर नफरत घोलने के बजाय प्रेम घोलें।" इस तरह श्री चन्द्रप्रभ धर्म के नाम पर हमें एक-दूसरे के निकट आने का दृष्टिकोण दिया है। धर्म और क्रियाकांड - धर्म और क्रियाकांड परस्पर जुड़े हुए हैं। जब धर्म केवल क्रियाकांड बन जाता है तो उसकी मूल आत्मा खो जाती है। वर्तमान में धर्म क्रियाकांड मूलक विभेदता में उलझ गया है। श्री चन्द्रप्रभ ने इस संदर्भ में क्रांतिकारी टिप्पणी करते हुए कहा है, "सौ वर्ष बाद मकान गिरा देना चाहिए और हजार वर्ष बाद हर धर्म मिटा देना चाहिए। ऐसा इसलिए कि तब धर्म अपने मूल स्वरूप से विछिन्न होकर मत, सम्प्रदाय और क्रियाकांड का रूप ले लेता है।" उन्होंने धर्म को क्रियाकांड से मुक्त कर उसे नई पहचान दी है। धर्म के क्रियागत स्वरूप में आई विभेदता पर चर्चा करते हुए हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "कोई धर्म कहता है सिर मुंडा कर रखो, दूसरा कहता है जटा बढ़ा कर रखो। कोई कहता है चोटी रखो, कोई कहता है चोटी मत रखो। अब चोटी में भी अलग-अलग रूप। कोई दाढ़ी में धर्म मानता है, पर उसमें भी अलग-अलग रूप। कोई चंदन का तिलक लगाता है, कोई भस्म का, तो कोई कुंकुम का। फिर मालाओं की झंझट - तुलसी की, चंदन की या रुद्राक्ष की पहनें। अब झगड़ा वस्त्रों का कहीं पीताम्बर, कहीं श्वेताम्बर, कहीं वस्त्रों का ही निषेध भोजन करना है तो कहते हैं पात्र में या कर - पात्र में, पात्र में भी लकड़ी का, लौह का या ताम्र पात्र का। चलना है तो कोई वाहन यात्रा स्वीकार करता है, तो कोई पदयात्रा में धर्म मानते हैं, धर्म का बाह्य स्वरूप इतना बिगड़ गया है कि मूल आत्मा तो कहीं खो ही गई है। " इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने बाहरी क्रियाकांडों पर चोट की है और उनसे मुक्त होकर सच्चे धर्म को खोजने और जीने की प्रेरणा दी है। उन्होंने मनुष्यों को अंतर्मन को निर्मल करने की प्रेरणा दी है, उनका मानना है, "हमारा जन्म किसी बनी-बनायी लकीरों पर चलते रहने के लिए नहीं हुआ है। अंतर्मन उज्ज्वल न हो, काम-क्रोध-कषाय तिरोहित न हो, तो उस धर्माचरण का मतलब ही क्या है? हम किसी की पूजापाठ के लिए नहीं जन्मे हम स्वयं पूज्य पावन बनें, ऐसा प्रयास व पुरुषार्थ हो।'' इस तरह श्री चन्द्रप्रभ धर्म के बने-बनाए ढर्रे पर चलने के कम समर्थक हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने धार्मिक जड़-क्रियाओं से बचने और सार्थक तथा उद्देश्यपूर्ण धर्म - क्रियाओं को जीने की सलाह दी है। उनका मानना है, "लोग धर्म के नाम पर जड़वादी हो गए हैं। मैं धार्मिक क्रियाओं का विरोध नहीं करता, जब तक मनुष्य उन क्रियाओं के अर्थ और उद्देश्य को न समझ ले तब तक क्रिया केवल क्रिया है। जैसे सामायिक करना क्रिया है और शांति-समता रखना धर्म है, प्रतिक्रमण करना क्रिया है, लेकिन पाप नहीं करना धर्म है, प्रार्थना करना क्रिया है, पर प्रभु से प्रेम करना धर्म है।" वे कहते हैं, "मुस्लिम रमजान में रोजे रख लेते हैं, ईद को गले मिल लेते हैं, जैनी संवत्सरी पर क्षमापना कर लेते हैं। यह एक ढर्रा - सा बन गया है। अच्छा होगा पहले व्यक्ति एकांत में बैठकर सालभर का चिंतन करे तभी कुछ करना सार्थक होगा।" इस प्रकार कहा जा सकता है कि श्री चन्द्रप्रभ ने धार्मिक क्रियाओं को जीवंत करने की प्रेरणा दी है। धर्म और मूर्तियाँ - श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में मंदिर और मूर्तियों से जुड़ी धर्म-परंपरा पर भी नई दृष्टि प्रदान की गई है। आज धर्म की तरह मंदिर भी बँट गए हैं। मंदिरों में मूर्ति से जुड़े भेद भी बढ़ गए हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने इन भेदों को अर्थहीन बताया है और भेदों से पार होने का मार्गदर्शन दिया है। वे कहते हैं, "मंदिरों में मूर्तियों के भेद भी निराले हैं, किसी मूर्ति के हाथ में धनुष टाँग दिया तो वह राम की मूर्ति हो गई और उसी हाथ में चक्र रख दिया तो वह कृष्ण में बदल गई। किसी मूर्ति के कंधे पर दुपट्टा रख दिया तो उसे बुद्ध समझ लिया और दुपट्टा हटा दिया तो वे महावीर बन गए। अगर आज का मनुष्य पत्थर पर उकेरी गई दो-चार रेखाओं के आधार पर अपने आपको बाँट बैठा, तो फिर उसकी बुद्धि वैज्ञानिक कहाँ हुई, उसमें दिमागी परिपक्वता कहाँ आई?" इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने मनुष्य की संकीर्ण बुद्धि को वैज्ञानिक बुद्धि बनाने की पहल की है। श्री चन्द्रप्रभ नेमंदिरों के साथ परम्परा विशेष और व्यक्ति विशेष के नाम जोड़े जाने पर भी आपत्ति उठाई है। वे कहते हैं, "मंदिर पर तो भगवान का स्वामित्व होता है, लेकिन हमने अपने पंथों का मालिकाना हक उस पर थोप दिया है। अब तो लक्ष्मी या विष्णु के मंदिर नहीं, बिड़ला मंदिर बनते हैं; महावीर या पार्श्वनाथ के मंदिर नहीं, जैन मंदिर कहलाते हैं। सब अपने-अपने नामों के मंदिर बना रहे हैं, सब अपनी ही पूजा-आराधना में लगे हैं, परमात्मा की फिक्र ही किसे है?" श्री चन्द्रप्रभ ने अल सुबह मंदिरों के शिखरों पर स्पीकर लगाकर भजन चलाना, कोई न होने के बावजूद उसे जोर से चलाते रहने को अनुचित माना है। उन्होंने मनुष्य को मंदिर में भौतिक इच्छाओं की परिपूर्ति के लिए जाने के बजाय जीवन में नैतिकता व आध्यात्मिक शांति पाने के लिए जाने की सलाह दी है। इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने मंदिरों से जुड़ी अर्थहीन धारणाओं से बचने की प्रेरणा दी है। श्री चन्द्रप्रभ ने मंदिरों के प्रतिरा महोत्सव के नाम पर होने वाले अनियंत्रित खर्चों पर भी अंकुश लगाने पर जोर दिया है, वे इसे धर्म और त्याग परम्परा के विरुद्ध मानते हैं। उनका मानना है, "मंदिर की प्रतिष्ठा के अवसर पर हैलीकॉप्टर या हवाई जहाज से फूलों की वर्षा करना, दो-दो सौ, पाँच-पाँच सौ रुपये मूल्य की महँगी पत्रिकाएँ छपवाना, प्रतिस्पर्द्धा में करोड़ों के चढ़ावे बोलना धर्म की कौन-सी मर्यादा और महोत्सव है ? अब प्रतिष्ठा रात-दिन भगवान की पूजा करने वाले व्यक्ति के बजाय करोड़ों का चढ़ावा बोलने वालों से करवाई जाती है। इससे तो लोग धर्म, मर्यादा, नैतिकता और ईमान से दूर होंगे और जैसे-जैसे संबोधि टाइम्स porg ➤ 125 For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमीर बनना चाहेंगे।" श्री चन्द्रप्रभ ने धर्मक्षेत्र में बढ़ रहे पैसे के प्रभाव कभी गीता भी। आप शास्त्रों के नहीं, अच्छाइयों के पुजारी बनिए। पर कुठाराघात किया है। वे कहते हैं, "मनुष्य कितने ही गलत तरीकों दुनिया के किसी भी महापुरुष ने हमें लड़ना-लड़ाना नहीं सिखाया। से धन कमाए, पर समाज में धर्म के नाम दो-चार लाख का चढ़ावा सब हमें प्रेम और मानवता का पाठ पढ़ाते हैं। इसलिए हमें सभी बोलते ही सारे पाप ढक जाते हैं। समाज ऐसे चढ़ावे लेने वाले लोगों को महापुरुषों का सम्मान करना चाहिए और हर धर्म की अच्छी बातों को भाग्यशाली भी घोषित करता है, माला-तिलक पहनाता है, मगर यह ग्रहण करने की कोशिश करनी चाहिए।" कोई नहीं पूछता कि यह दान-चढ़ावा ईमानदारी से आया है या बेईमानी इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने एक ओर व्यक्ति को धार्मिक संकीर्णता से से। अर्जित धन से केवल अवसर विशेष के धर्मात्मा होते हैं। ऐसे लोग ऊपर उठाया है, वहीं दूसरी ओर उसे अच्छा इंसान बनने की शिक्षा दी केवल दिखावटी धर्म करते हैं।" इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म में आई है। उनकी दृष्टि में, एक अच्छा और नेक इंसान बनना अपने आप में विकृतियों के प्रति समाज को जागरूक किया है और धर्म तथा धार्मिक एक अच्छा हिंदू, एक अच्छा जैन, एक अच्छा मुसलमान खुद ही बन मूल्यों को शुद्ध रूप से जीने तथा स्थापित करने पर जोर दिया है। जाना है। एक अच्छा मुसलमान बनने का अर्थ यह नहीं है कि तुम एक धर्म और विराटता - श्री चन्द्रप्रभ ने न केवल धर्म को विराट अच्छे इंसान बन गए, पर यदि तुम अपने आप ही एक अच्छे इंसान बन बनाया वरन् धर्म के नाम पर बनी दूरियों को पाटने के लिए महापुरुषों जाओ, तो तुम अपने आप ही एक अच्छे जैन, एक अच्छे हिन्दू और एवं धर्मशास्त्रों में भी निकटता स्थापित की। धरती पर ऐसे अनेक एक अच्छे मुसलमान बन जाओगे, क्योंकि तब तुम्हारे जीवन में कोई महापुरुष हुए जिन्होंने इंसान को निर्मल और पवित्र जीवन जीने का विरोधाभास न होगा।" इस प्रकार श्री चन्द्रप्रभ ने आज के इंसान को मार्ग दिखाया। मनुष्य महापुरुषों द्वारा दिखाए संदेशों को तो भूल गया है धर्म की नई सोच, नई जीवन दृष्टि प्रदान की है। और उनके नाम पर अनेक धार्मिक संगठन खड़े कर बैठा है। जिससे धर्म और जीवन सापेक्षता - श्री चन्द्रप्रभ के अनुसार दर्शन की महापुरुष बँट गए, उनके संदेश बँट गए और दूरियाँ बढ़ गईं। श्री सबसे बडी देन धर्म को जीवन-सापेक्ष स्वरूप प्रदान करना है। वे चन्द्रप्रभ ने महापुरुषों को सीमित दायरों से बाहर निकाला और उनके जीवन से जुड़े हुए धर्म-अध्यात्म को अपनाने के समर्थक हैं। उन्होंने प्रति सकारात्मक दृष्टि लाने का बोध दिया। उन्होंने कहा है, "संसार में जीवन-निर्माण में सहयोगी बनने वाले धर्म की विवेचना की है, वे अनेक धर्म, पंथ और सम्प्रदाय हैं। ये सब एक उपवन में खिले हुए कहते हैं, "धर्म हो या अध्यात्म, मुक्ति हो या निर्वाण, मेरी तो उसी में अलग-अलग रंग और खुशबू के फूलों की भाँति हैं लेकिन एक बात तो आस्था है. जो जीवन-सापेक्ष है। कार्य आज किया है तो परिणाम भी तय है कि फूल खिलने का तरीका सबका एक ही है । हर धर्म , पंथ, आज ही आना चाहिए। ध्यान किया और शांति मिली; मंदिर गए और सम्प्रदाय के महापुरुषों का एक ही उद्देश्य इंसान को बेहतर बनाना रहा परमात्मा की याद आई; दान दिया और भीतर सौभाग्य और आनंद है। मंदिर में टंगने वाले चित्रों के आधार पर महापुरुषों को नहीं बाँटना जाग्रत हुआ; सत्संग सुना और मन में शांति, करुणा साकार हुई तो चाहिए लेकिन हमने चित्रों और चारदीवारी में महापुरुषों को बाँटा और समझना कि किया गया धर्म-कर्म सार्थक हुआ।" वे पारलौकिक धर्म महापुरुषों को बाँटकर मानव-समाज को भी बाँट डाला।" इस तरह श्री में कम विश्वास रखते हैं। उन्होंने स्वर्ग पाने या नरक से बचने के लिए चन्द्रप्रभ ने महापुरुषों के प्रति विराट नजरिया रखने की प्रेरणा दी। धर्म करने की प्रेरणा नहीं दी है। उनका मानना है, "जो लोग केवल श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म को जाति तक सीमित करने को अनुचित परलोक के लिए, परलोक की गति सुधारने के लिए धर्म करते हैं, उन्हें बताया है और हर महापुरुष से जीवन जीने से जुड़ी रोशनी प्राप्त करने जान लेना चाहिए कि धर्म परलोक को सुधारने का साधन नहीं है, वरन् का संदेश दिया है। वे कहते हैं, "जब-जब इंसान जैन, हिंदू, मुसलमान मनुष्य के वर्तमान जीवन को सुव्यवस्थित करने की प्रयोगशाला है।" और एक जाति का प्रतीक बना लेगा तब-तब धर्म सिमटेगा और वह श्री चन्द्रप्रभ ने स्वर्ग-नरक को जीवन के साथ जोड़कर प्रस्तुत एक पंथ या सम्प्रदाय का प्रतीक बन जाएगा। हम अपने नजरिये को किया जो कि उनका मौलिक चिंतन है। वे आसमान के स्वर्ग को पाने बेहतर, विराट और विशाल बनाएँ ताकि हिन्दू भी महावीर से कुछ की बजाय जीवन को ही स्वर्ग बनाने की शिक्षा देते हैं। उनकी दृष्टि में, सीख सकें, जैन भी राम से कुछ न कुछ ग्रहण कर सकें। दुराव देखेंगे "मनुष्य के जीवन में ही स्वर्ग है और मनुष्य के जीवन में ही नरक हैं। दराव दिखाई पड़ेगा और समन्वय बनाना चाहेंगे तो समन्वय स्थापित प्रेम और शांति के क्षणों में स्वर्ग है,आक्रोश और उत्तेजना के क्षण नरक होगा। व्यक्ति अपने कैनवास को बड़ा बनाए ताकि वह बड़े चित्र उकेर है। हम प्रेम. करुणा, समता, क्षमा, आत्मीयता और भाईचारे से जिएँ,ये सके।" सब स्वर्ग के सोपान हैं।" श्री चन्द्रप्रभ व्यक्ति के मरने के बाद उसकी श्री चन्द्रप्रभ सर्वधर्म-सदभाव में विश्वास रखते हैं। वे धार्मिक सद्गति के लिए होने वाली श्रद्धांजलि सभाओं को भी अर्थहीन मानते एकता के समर्थक हैं, उन्होंने सभी धर्मों, महापुरुषों और शास्त्रों को हैं। उन्होंने व्यक्ति को जीते-जी अपनी सद्गति की व्यवस्था करके जाने निकट लाने का प्रयास किया है। साम्प्रदायिक दृष्टि के चलते अपने की प्रेरणा दी है। धर्मशास्त्रों तक सीमित रहने वाले मनुष्य को उन्होंने सम्यक् दृष्टि प्रदान पारिवारिक धर्म - श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में पारिवारिक धर्म का की है। उनका मानना है, "दुनिया के हर धर्म ने इंसानियत को एक संदर प्ररूपण हआ है। उनका परिवार-दर्शन बेजोड़ है। उन्होंने अच्छी किताब दी है। आप महावीर के उपदेशों को भी पढ़िए और पारिवारिक कर्तव्यों के निर्वाह को धर्म की नींव कहा है। वे संन्यास लेने मोहम्मद साहब के उपदेशों को भी। कभी बाइबिल को पढ़ने का समय से भी ज्यादा कठिन माता-पिता की सेवा-सुश्रूषा करने को मानते हैं। भी निकालिए तो कभी उपनिषदों को भी। कभी रामायण को पढ़िए तो उनका पारिवारिक रिश्तों. वसीयतनामा, कर्तव्य निर्वाह एवं माँ की Ja126 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममता पर व्यक्त किए गए प्रभावी विचार मनुष्य की अंतत्मिा को शिक्षा दी है। झकझोर देते हैं। श्री चन्द्रप्रभ के परिवार निर्माण पर हुए वक्तव्य से धर्म और गहस्थ जीवन - श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में मनुष्य को हजारों टूटे परिवार जुड़े हैं, रिश्तों में पैदा होने वाला खटास समाप्त हुआ गृहस्थ-संत बनने की प्रेरणा दी गई है। उनका मानना है, "हर आदमी है, परस्पर प्रेम और मिठास बढ़ा है, घर में युवा पीढ़ी कर्तव्य-पालन संसार को छोडकर नहीं निकल सकता, लेकिन हर कोई संसार में रहते के प्रति सजग हुई है और घर में बड़े-बुजुर्गों के प्रति सम्मानजनक हए भी संसार से निर्लिप्त अवश्य रह सकता है। इंसान बाहरी तौर पर व्यवहार में अभिवृद्धि हुई है। स्वयं को संन्यासी भले ही न बना पाए, लेकिन अपने हृदय को साधु श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म की शुरुआत मंदिर-मस्जिद से करने की बजाय जैसा अवश्य बनाए।" उन्होंने संन्यास के नाम पर जीवन में चलने घर से करने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, "जिस घर में हम तेईस घंटे वाली विसंगतियों को भी उजागर किया है। वे कहते हैं, "आदमी साधु रहते हैं, वहाँ तो हो-हल्ला करते हैं, और जिस मंदिर-स्थानक में __ बन जाएगा, पर लोक एषणा में उलझ जाएगा। नाम कमाने की चाहत, केवल आधा या एक-घंटा बिताते हैं, वहाँ बड़े शांत रहते हैं। कितना शिष्यों को बढ़ाने की तृष्णा पैदा हो जाएगी। पुत्र-पुत्री, पत्नी, धन की अच्छा हो कि हम घर को अपना मंदिर मानना शुरू कर दें और धर्म की ऐषणा का त्याग करना आसान है, मगर लोक-एषणा, नाम-यश की शुरुआत मंदिर-मस्जिद से करने की बजाय धर्म से करना शुरू कर दें तो चाहत का त्याग करना कठिन है। नाम, रूप, रुपाय बदल लेना आसान हमारे 24 घंटे धन्य हो जाएँगे।" श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म का पहला चरण है, पर भीतर की आसक्तियों को, राग और मूर्छा को तोड़ना कठिन कर्तव्यपालन माना है। उनका कहना है, "जिन माता-पिता ने हमें जन्म है।" उन्होंने संन्यास वेश के हो रहे व्यवसायीकरण को भी अनुचित दिया है, जिन भाई-बहिन-पत्नी के साथ हम रहते हैं, जिन बच्चों को ठहराया है। वे साधु-साध्वियों के बीच स्त्री-पुरुष का भेदभाव रखने हमने जन्म दिया है, जिन लोगों से हम सेवाएँ लेते हैं, अपने जिन को अनुचित मानते हैं। उन्होंने धर्मसंघ में पुरुष-प्रधान दृष्टि रखने की पड़ोसियों के बगल में हम रहते हैं, उनके प्रति रहने वाले कर्तव्यों का बजाय गुण-प्रधान दृष्टि रखने की प्रेरणा दी है। पालन करना हमारा पहला धर्म है।" धर्म और मध्यम मार्ग- श्री चन्द्रप्रभ अतितप और अतिभोग की श्री चन्द्रप्रभ ने रामायण के धर्म को सबसे पहले जीने की प्रेरणा दी बजाय मध्यम मार्ग के समर्थक हैं। उन्होंने केवल शरीर या केवल है। उनकी दृष्टि में, "जिसने रामायण के धर्म को जी लिया वही बुद्ध आत्मा को महत्व देना एकांगी दृष्टिकोण माना है। वे दोनों के सामंजस्य और महावीर के धर्म को निभा पाएगा। धर्म का प्रारम्भ घर-परिवार से को अपनाने की सीख देते हैं। उनका कहना है, "पाश्चात्य संस्कृति हो। समाज में खड़े होकर पाँच लाख का दान देने से पहले देख लें कि अकेले शरीर को महत्व देती है और भारतीय संस्कृति एकमात्र आत्म कहीं आपका छोटा भाई या पड़ोसी भूखा तो नहीं है। जो भाई, भाई का तत्त्व को अहम मानती है। इस दृष्टि से दोनों संस्कृतियाँ अपने आप में साथ न दे सके क्या वह दानवीर या धार्मिक कहलाने का हकदार है?" परिपूर्ण नहीं हैं । शरीर का भी अपना मूल्य है और आत्मा का भी अपना उन्होंने धर्म के दूसरे चरण में इंसान होकर इंसान के काम आना बताया मूल्य है। दोनों संस्कृतियों के बीच एक सामंजस्य और संतुलन है। वे कहते हैं, "कर्मचारी को बतौर मदद के इतना आटा हर माह चाहिए।" श्री चन्द्रप्रभ ने उपवास के संदर्भ में नया दृष्टिकोण दिया है। जरूर दें जिससे वह कभी भूखा न रहे। सड़क पर यदि कोई अपरिचित उन्होंने आहार के प्रति रहने वाली आसक्ति को दूर करने को उपवास व्यक्ति घायल पड़ा है तो मदद देकर अस्पताल पहुँचाएँ। हर व्यक्ति कहा है। वे कहते हैं, "उपवास का अर्थ चौबीस घंटे भोजन न करना कमाई का ढाई प्रतिशत धन दीन, दुःखी और गरीबों के लिए जरूर नहीं, बल्कि आहार के प्रति रहने वाली आसक्ति का समाप्त होना है। निकाले। आप डॉक्टर हैं तो गरीबों को फिजिशियन सेम्पल नि:शुल्क हिन्दू लोग एकादशी के व्रत को द्वादशी की दादी बना लेते हैं, वैसे ही दवा दें, नाई हैं तो सप्ताह में एक दिन झोपड़-पट्टी में चार घंटे जैनी लोग उपवास को पहले-पीछे के रूप में चार गुना खाने के बराबर निःशुल्क सेवा दें।" इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म को कर्तव्य-पालन व कर लेते हैं। उपवास के पहले दिन भी हल्का-फुल्का भोजन लें और इंसानियत की सेवा से जोड़ा है। उपवास-व्रत के अगले दिन भी हल्का-फुल्का ही। वास्तव में इन्द्रियों श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म के नाम पर जीवन में चलने वाली विसंगति पर का, मन के उद्वेगों का शमन ही उपवास है।" इस तरह उन्होंने उपवास भी चोट की है। वे कहते हैं, "मनुष्य पत्थर की प्रतिमा को भगवान को अनासक्ति से विश्लेषित कियाहै। मानकर पूज लेता है, मंदिर के बाहर खड़े गरीब में भगवान को निहार श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में अहिंसा पर परम्परागत दृष्टिकोण से नहीं पाता। माँ-बाप के मरने के बाद उनके चित्रों पर धूप-दीप और हटकर नई व्याख्या हुई है। उन्होंने अहिंसा को हिंसा न करने तक फूल चढ़ाना तो जानता है, लेकिन जीते-जी उनकी सेवा नहीं कर पाता। सीमित नहीं माना है। उनकी दृष्टि में, "अहिंसा का अर्थ केवल रात-दिन प्रभु का स्मरण करने वाला इंसान भी दो कड़वे शब्द सुनकर नकारात्मक नहीं है कि हिंसा मत करो, वरन् सकारात्मक भी है कि आग-बबूला हो जाता है। वर्षों तक धर्म का अनुसरण करने पर भी मन व्यक्ति एक-दूसरे से प्रेम करे। किसी को तकलीफ न पहुँचाना अच्छी के विकार शांत न हुए तो वह धर्म किस काम का! धर्म जीवित तभी हो बात है, मगर किसी को सुख पहुँचाना - यह उससे भी अच्छी बात है। पाएगा जब उसका परिणाम कल की बजाय आज मिलना शुरू हो।" जैसे-जैसे हम प्रेम से भरते जाएँगे, क्रोध-आक्रोश-वैमनस्य-कषाय इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने मनुष्य को धर्म के रूप में माता-पिता की सेवा स्वतः कम होते चले जाएँगे।" इस तरह उन्होंने अहिंसा को प्रेम के करने, पारिवारिक कर्तव्यों को निभाने, रिश्तों में मिठास बढ़ाने, साथ जोड़ा है। इंसानियत के काम आने और मन की कमजोरियों पर विजय पाने की अध्यात्म और विज्ञान - श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में अध्यात्म और For Personal & Private Use Only संबोधि टाइम्स » 127 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान को परस्पर विरोधी नहीं,सहयोगी माना गया है। उन्होंने दोनों के और स्वरूप, समाज और मानवता, समाज-निर्माण में सेवाभावी समन्वय पर जोर दिया है। वे कहते हैं, "विज्ञान भौतिकता से जुड़ा है संस्थाओं का योगदान, समाज की वर्तमान विसंगतियाँ और सामाजिक और अध्यात्म भगवत्ता से जुड़ा है। जीवन में खोज की पूर्णता तभी उत्थान, समानता, संगठन और समन्वय के महत्त्व पर विस्तार से आती है, जब भौतिकता और भगवत्ता - दोनों की खोज पूर्ण होती है। विवेचन हुआ है। श्री चन्द्रप्रभ ने समाज को क्या दिया, समाज को सामान्यतया धर्म परम्पराओं ने भौतिकता की, भौतिकता ने धर्म- कौनसी क्रांति दी इत्यादि बिन्दुओं का आगे विवेचन किया जा रहा है। अध्यात्म की उपेक्षा की है, पर मैं दोनों को समान महत्व देता हूँ।" समाज का स्वरूप - श्री चन्द्रप्रभ ने समाज को नए अर्थ एवं धर्म और ध्यान - श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म और ध्यान को परस्पर पूरक स्वरूप में परिभाषित किया है। वे समाज को मात्र जाति विशेष का मानते हुए ध्यानयुक्त धर्म को आत्मसात करने की शिक्षा दी है। उनका समूह कहना उचित नहीं मानते हैं। उनकी दृष्टि में, "समाज उसे नहीं मानना है, "जब तक व्यक्ति ध्यान को उपलब्ध नहीं होता, धर्म का कहा जाता है, जहाँ मनुष्यों का समूह रहता है, बल्कि समाज तो उसे जन्म नहीं हो सकता। ध्यान धर्म की आत्मा है, धर्म की कुंजी है, धर्म कहा जाता है, जिसके सदस्यों के द्वारा मानवीय और सामाजिक मूल्यों की वास्तविकता है। जिस धर्म का प्राण ध्यान है, उस धर्म का वट-वृक्ष को अपने जीवन के साथ जिया जाता है। वह समाज, समाज होता है, दुनिया को शीतल छाँह देता है। ध्यानविहीन धर्म प्रदर्शन भर है। जीवन जहाँ इंसान, इंसान के काम आता है, जहाँ पर एक इंसान दूसरे के की हर गतिविधि, हर कार्यकलाप ध्यानपूर्वक संपादित होता चला दःख-दर्द में मदद का हाथ बढ़ाता है, एक-दूसरे के साथ संगठित जाए, तो हर कार्य अपने आप में धर्म का स्वस्थ आचरण होगा।" इस होकर अपना आत्म-विकास देखा करता है।" इस तरह उन्होंने परस्पर तरह उन्होंने ध्यान को धर्म की नींव बनाने की आवश्यकता सिद्ध की है। सहयोग एवं संगठन को समाज निर्माण के लिए आवश्यक माना है। श्री चन्द्रप्रभ ने विवेक को धर्म की आत्मा बताया है और प्रत्येक सामान्यतया व्यक्ति मानव समाज से अधिक ईंट-चूने-पत्थर से निर्मित कार्य विवेकपूर्वक करने की प्रेरणा दी है। उनका कहना है, "खाना- मंदिरों और तीर्थों से पहले मानव समाज को रखते हैं, और उसे धरती पीना, उठना-बैठना सभी धर्म से जुड़े हुए हों, अस्पताल से गुजरते हुए का जीता-जागता मंदिर और तीर्थ कहते हैं। उनका मानना है, "मनुष्य दीवार पर पीक गिराना या पीकदान में, सिगरेट लोगों के बीच जाकर से बढकर कोई मंदिर और मानवता से बढ़कर कोई तीर्थ नहीं।" पीना या किनारे जाकर, चूल्हा जलाने से पहले बर्नर में बैठे जीवों को अतीत में महावीर-बुद्ध जैसे महापुरुषों ने भी मानव समाज को, हटाया या नहीं, इन्हीं सब छोटी-छोटी बातों में धर्म के प्राण समाए रहते साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ को धर्म-संघ और हैं।" उन्होंने धर्म को जीने के लिए चार सूत्र दिए हैं - सत्यनिष्ठ जीवन तीर्थ की उपमा दी थी। श्री चन्द्रप्रभ ने भी मंदिरों का निर्माण करने वालों जीएँ, जरूरत से ज्यादा संग्रह न कर वक्त-बेवक्त औरों के काम आने की बजाय मानव-समाज का कल्याण करने वालों को महान माना की भावना रखें, अपने शील, चरित्र और प्रामाणिकता पर दृढ़ता से है।" उन्होंने एक तरफ समाजोत्थान से जुड़ी सेवा-संस्थाओं का कायम रहें और अपने विचारों को किसी पर न थोपें। यदि कोई बुरा अभिनंदन किया है, तो दूसरी तरफ लक्ष्य से भटक चुकी सामाजिक व्यवहार कर दे, तब भी अपनी ओर से सदा सकारात्मक व्यवहार संस्थाओं को जागरूक भी किया है। वे कहते हैं, "मैं रेडक्रॉस, रोटरी करें।" इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म को व्यावहारिक बनाया है और उसे क्लब, महावीर इंटरनेशनल, लॉयन्स क्लब जैसी सेवा संस्थाओं, जीवन की प्रत्येक गतिविधि के साथ जोड़ा है। उन्होंने छोटी-छोटी संगठनों और समूहों का अभिनंदन करना चाहूँगा, जिन्होंने मानव बातों में भी धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि रखते हुए जीवन को समाज के दुःख-दर्द को कम करने के लिए अनेक कार्य किए हैं और धर्ममय बनाने का संदेश दिया है। मनुष्य को एक मंदिर मानते हुए नर की सेवा में नारायण की सेवा श्री चन्द्रप्रभ की समाज को देन स्वीकार की है।" उन्होंने मंदिरों और बैंक-बैलेन्सों की व्यवस्थाएँ सोनोवास करने तक सिमट चुकी सामाजिक संस्थाओं को समाज का कल्याण दर्शन में सामाजिक उत्थान के अनेक नए पहलू उजागर हुए हैं। श्री करने का भी मार्गदर्शन दिया है। उनका मानना है, "निश्चय ही मंदिर चन्द्रप्रभ समाज-निर्माण के प्रति जागरूक हैं। उन्होंने समाज को भगवान का पूजास्थल है, पर उनका निवास अनाश्रित, बेसहारा लोगों विकासमूलक दिशा देने की कोशिश की है। उन्होंने समाज में प्रचलित के पास है। मंदिरों में भगवान कभी-कभी साकार होते हैं, पर अंधेअर्थहीन परम्पराओं का निर्भीक होकर खण्डन किया है। विद्यालय बहरों-गूगों, अनाश्रितों और गौशालाओं में तो उन्हें खड़ा ही रहना और चिकित्सालय जैसे सेवापरक कार्य करने की बजाय केवल मंदिर पड़ता है, ताकि उन बेसहारों को सहारा दिया जा सके।" बेसहारों का स्थानक-धर्मशाला बनाने, जीमणवारियाँ करने और बैंक-बैलेंसों की सहारा बनना ही ईश्वर की सेवा बताते हुए उन्होंने दूसरों के काम आने सहारा बनना व्यवस्थाओं में सिमट चुके समाज को श्री चन्द्रप्रभ ने झकझोरा है। की सीख दी है। उन्होंने समाज को धार्मिक दृष्टि से ऊपर उठाने के साथ आर्थिक, सामाजिक विसंगतियाँ- श्री चन्द्रप्रभ ने वर्तमान समाज में आ सामाजिक, राजनैतिक और शैक्षणिक स्तर से भी ऊपर उठाने का चुकी अनेक विसंगतियों का विरोध किया है। उन्होंने समाज में चल मार्गदर्शन दिया है। वे वर्तमान समाज को भगवान महावीर द्वारा स्थापित रहा निरर्थक धार्मिक परम्पराओं पर प्रश्नचिह्न खड़ा किया है धर्मसंघ से तुलना करते हुए आदर्श समाज के अनेक प्रतिमान प्रस्तुत समाज के निचले तबके को ऊपर उठाने की प्रेरणा देते हैं। उन्होंने गरीब करते हैं। उन्होंने सामाजिक उत्थान के अंतर्गत कमजोर वर्ग को ऊपर भाइयों का भला करने व समाज के कड़वे सच को उजागर करते हए उठाने की विशेष प्रेरणा दी है। उनके समाज दर्शन में समाज का अर्थ कहा है, "आज सारे संत भागवत कथा वाचन में, मंदिर-स्थानक 128 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनाने में, संघ प्रतिष्ठा करवाने में लगे हुए हैं। समाज में एक तरफ 'सहधर्मी वात्सल्य' को लड्डू-पेड़े-सिक्के-वस्तुएँ बाँटने और जीमणों और पत्थरों पर करोड़ों का खर्चा हो रहा है, तो दूसरी तरफ जीमणवारी अर्थात् भोजन प्रसादी करने से जोड़ लिया है। लोगों को दो समय की रोटी और सोने के लिए छप्पर भी नसीब नहीं हो परिणामस्वरूप ये सिद्धांत समाजोत्थान में सहयोगी बनने की बजाय रहे हैं। हम मंदिरों का पैसा बैंकों में डालने की बजाय मानव-हित में प्रलोभन और फिजूलखर्ची भर बनकर रह गए हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने लगाएँ। हम पत्थरों में भले ही करोड़ों खर्च करें, पर गरीब भाइयों को प्रभावना' और 'सहधर्मी वात्सल्य' जैसे सिद्धांतों का मूलार्थ ऊपर उठाने में खर्च करने का बड़प्पन अवश्य दिखाएँ, नहीं तो हमारे समझाकर इनसे जुड़ी वर्तमान व्यवस्थाओं को अर्थहीन व अनुचित भाई अपने धर्म से दूर हो जाएँगे और दूसरे धर्मों को अपना लेंगे।" बताया है। उनका कहना है, "लोगों ने सहधर्मी वात्सल्य को __आर्थिक दौर के इस युग में अर्थ का प्रभाव बहुत बढ़ चुका है। जीमणवारी के साथ जोड़ दिया है। प्रभावना शब्द को भीड़ इकट्ठी समाज में भी सम्पन्न लोगों का प्रभाव दिनोंदिन बढ़ रहा है। श्री चन्द्रप्रभ करने लिए लड्डू या पेड़े बाँटने के साथ संकुचित कर दिया है। ने पैसे की महत्ता को समाज के लिए घातक माना है। इस संदर्भ में चिंता प्रभावना के नाम पर धार्मिक प्रलोभन बढ़ गया है। सहधर्मी वात्सल्य जाहिर करते हुए वे कहते हैं, "नाम खुदवाने के चक्कर में मंदिर पर का अर्थ है : धर्म-मार्ग पर चलने वाले सज्जन लोगों के साथ प्रीति मंदिर बनते जा रहे हैं, प्रतिष्ठा के समय सालभर प्रभुभक्ति करने वाला तो निभाना और उनके प्रति सहयोग की भावना रखना।" कोने में रह जाता है, और पैसा लगाने वाला एक दिन में समाज का श्री चन्द्रप्रभ ने 'जीवित महोत्सव' के नाम पर जीमणवारियों में सिरमौर बन जाता है। उससे पूछो क्या वह 365 दिनों में 65 दफा भी पच्चीस-पचास लाख रुपये खर्च कर लेने भर को धर्म की इतिश्री मान मंदिर जाता है? पैसा लगाने वालों और इकट्ठा करवाने वालों की तो लेना अनुचित बताया है। वे समाज में चंदा एकत्रित कर चार-पाँच समाज में पूछ होती है, लेकिन चरित्रवान और ज्ञानी लोगों को कोई नहीं मिठाइयों का जीमण करने को गलत मानते हैं। उनकी दृष्टि में,"भोज पूछता।" उन्होंने धन से ज्यादा चरित्र को महत्व देने की प्रेरणा दी है। और जीमणवारी केवल सामाजिक व्यवस्था है। यह धार्मिक व्यवस्था उन्होंने चढ़ावा लेने वालों की चारित्रिक प्रामाणिकता पर प्रश्नचिह्न तो तब होगी, जब हम इनका उपयोग गरीब और जरूरतमंद लोगों के खड़ा करते हुए कहा है, "जब समाज में किसी तरह का चढ़ावा या लिए करेंगे।" उन्होंने किसी भाई-बहिन के भूखा सोने या शिक्षा और बोलियाँ बोली जाती हैं, तो चढ़ावा लेने वाले को समाज के पदाधिकारी चिकित्सा से वंचित रहने को समाज के लिए कलंक माना है। वे भाग्यशाली घोषित करते हैं, मगर यह तफ्तीश नहीं करते कि वह दान उदाहरण के माध्यम से सहधर्मी वात्सल्य और प्रभावना का अर्थ बताते या चढ़ावा कितनी ईमानदारी या कितनी बेईमानी से आया है। कुछ हुए कहते हैं, "आप जिस मोहल्ले में रहते हैं, उसमें कुछ परिवार ऐसे लोग केवल दिखाने के लिए, किए गए पापों को ढकने के लिए अथवा हैं, जो कमाने में अक्षम हैं, उनके घरों में कमाने वाला कोई नहीं है, समाज में नाम कमाने के लिए धर्म के नाम पर चढ़ावा या बोली बोलते अथवा वे नहीं के बराबर कमा पाते हैं, ऐसी स्थिति में मोहल्ले वालों के द्वारा उन घरों को गोद लेकर उनके भोजन, शिक्षा, चिकित्सा की आजकल संतों के द्वार पर भी अमीरों को जगह मिलने लगी है। वे व्यवस्था की जवाबदारी लेना सच्चा 'सहधर्मी वात्सल्य' और अमीरों से घिरे रहते हैं, उनका ध्यान गरीबों की ओर कम ही जाता है। 'प्रभावना' है। और यही समाज में सामाजिक मूल्यों को लागू करने का इस संदर्भ में महोपाध्याय श्री ललितप्रभसागर ने विचार प्रस्तुत करते वास्तविक तरीका है।" इस तरह उन्होंने समाजोत्थान की जीवंत हुए कहा है, "संत अमीरों को सम्मान जरूर दें, पर गरीबों को व्याख्या कर नई क्रांति लाने की कोशिश की है। नजरअंदाज कदापि न करें। अमीरों के बल पर सत्संग का आयोजन तो श्री चन्द्रप्रभ ने समाज की विविध संस्थाओं के पदाधिकारियों को हो सकता है, पर उसकी सफलता मध्यम और गरीब लोगों के आने से चुनने के लिए होने वाले चुनावों को भी अनुचित ठहराया है। वे कहते ही होगी।अमीर तो हर जगह सम्मान पा लेगा, पर कम से कम संतों का हैं, "समाज सेवा के लिए है, नेतागिरी के लिए नहीं। समाज में कोई द्वार तो ऐसा होना चाहिए, जहाँ गरीबों को भी सम्मान मिल सके उन्हें लड्डू खाने को मिलते हैं, जो तुम आगे आकर चुनाव में खड़े होते हो? भी महसूस हो कि उनका भी समाज में महत्व है। संत लोग अमीरों के समाज में यह व्यवस्था होनी चाहिए कि समाज के पच्चीस वरिष्ठ लोग साथ गरीबों को भी आशीर्वाद दें ताकि वे भी आगे बढ़ सकें। मंच पर मिलें और रिटायर्ड, अनुभवी, सेवाभावी अथवा समय का भोग देने केवल अमीरों का ही सम्मान न हो, गरीबों को भी अवसर दिए जाएँ, वाले व्यक्ति के पास जाकर कहें कि आप हमारे समाज के अत्यन्त ताकि उन्हें कभी धर्म के द्वार पर अपमान न महसूस करना पड़े।" आदरणीय व्यक्ति हैं। हम चाहते हैं कि अब समाज का मुखिया पद ___ अतीत में कभी भगवान महावीर ने समाजोत्थान के लिए आप सँभालें। जहाँ चुनावी रणनीति को अपनाकर मुखिया पद हासिल व्यसनमुक्ति, अहिंसा, सहयोग और सहभागिता के सिद्धांतों को करना किसी-न-किसी स्वार्थ का बहाना है, वहीं समाज के लोग अनिवार्य बताया था। उन्होंने स्वस्थ समाज की संरचना के लिए किसी व्यक्ति को निवेदन करते हैं और वह व्यक्ति अगर संघ का अपरिग्रह का सिद्धांत अपनाने की भी प्रेरणा दी थी, ताकि अमीर लोग मुखिया बनता है तो उसका मुखिया बनना गरिमापूर्ण है।" इस तरह परिग्रह-बुद्धि का त्यागकर जरूरतमंद भाइयों को सहयोग देकर उन्हें उन्होंने चुनाव-व्यवस्था के संदर्भ में नई नीति प्रदान की है। आत्मनिर्भर बनाने में योगदान दे सकें। इसी को दूसरे शब्दों में श्री चन्द्रप्रभ समाजों में होने वाली अति मीटिंगों के भी कम 'प्रभावना' और 'सहधर्मी वात्सल्य' भी कहा जाता है। वर्तमान में ये समर्थक हैं। वे मीटिंगों को केवल नेतागिरी और समय की बर्बादी शब्द अपना मूलार्थ खो चुके हैं। संतों और लोगों ने 'प्रभावना' और मानते हैं। उनका कहना है, "लोग समाज में केवल मीटिंगें करते हैं। संबोधि टाइम्स »1290 For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मीटिंग यानी नेतागिरी। समाज में ज्यादा मीटिंग होनी ही नहीं चाहिए। बराबर हों, न कोई छोटा हो, न कोई बड़ा। समाज में एक ही नारा होमीटिंग का मतलब है : तू-तू, मैं-मैं ; बात का बतंगड़। अगर मीटिंग हम सब साथ-साथ हैं । आज हिन्दुस्तान में अगर हिन्दू-मुस्लिम लड़ना करनी ही हो तो पहले यह निर्णय लेकर मीटिंग में उतरना चाहिए कि छोड़ दें, वे हिन्दुओं को भी खुदा का बनाया हुआ और मुसलमानों को काम को कैसे मूर्त रूप दिया जाए। अच्छी मानसिकता के साथ मीटिंग भी ईश्वर का बनाया हुआ स्वीकार कर लें तो हिन्दुस्तान का भाग्य ही करोगे तो अच्छे परिणाम आएँगे, नहीं तो मीटिंग का परिणाम केवल सँवर जाए।" इस तरह श्री चन्दद्रप्रभ ने समाज के लिए समानता के हो-हल्ला भर होगा। समाज में वही व्यक्ति आकर पंचायत करे, जो सिद्धांत को अनिवार्य बताया है। सक्रिय और सकारात्मक नजरिया रखता हो।" इसी तरह श्री चन्द्रप्रभ3.संगठन और समन्वयका सिद्धांत - श्री चन्द्रप्रभ ने सामाजिक ने तपस्या, सत्संग, भीड़ इकट्ठी करने के नाम पर हवाई जहाज से फ विकास के लिए समाज में एकता, संगठन व समन्वय होना आवश्यक लों को बरसाना और अहिंसा का नारा लगाने वालों के द्वारा की जा रही बताया है। वे सामाजिक एकता के लिए निम्न सूत्र अपनाने का भ्रूण हत्याओं को न केवल गलत माना है, वरन् उन्हें समाज के लिए मार्गदर्शन देते हैं - चिंताजनक भी बताया है। 1.समाज में ऐसी संस्थाएँ स्थापित हों जो सामाजिक एकता का कार्य श्री चन्द्रप्रभ ने समाज की कड़वी सच्चाइयों को उजागर किया है, करती हों। अनुचित परम्पराओं को अस्वीकार किया है। साथ ही समाज को नई 2. मंदिर वाले स्थानक में व स्थानक वाले मंदिर में जाएँ, जैनी राम दिशा देने व समाज के प्रत्येक व्यक्ति को ऊपर उठाने के लिए जिन के मंदिर में व हिन्दू महावीर के मंदिर में जाना शुरू करें । कभी मस्जिद सिद्धांतों को समाज में लागू करने की प्रेरणा दी है,वे इस प्रकार हैं - के आगे से गुजरें तो भी सिर झुकाकर चलें। 1.सहयोगका सिद्धांत - श्री चन्द्रप्रभ ने सामाजिक उत्थान के लिए 3.संत भी आपस में निकट आएँ, परस्पर विनम्रता भरा व्यवहार करें। सहयोग के सिद्धांत को अपनाने का मार्गदर्शन दिया है। उनका कहना है, 4. समाज का हर कार्य सर्वसम्मति से हो। ऐसा कोई भी काम न करें, "हम सौ मंदिर नहीं बना सकते तो कम-से-कम दस लोगों को पाँवों पर जिससे लोगों के दिलों को ठेस पहुँचती हो। खडा तो कर ही सकते हैं। समाज के कमजोर लोगों को योग्य बनाना ईश्वर 5.अमीर और गरीब व्यक्ति की बेटी की शादी समान तरीके से हो। की सच्च्ची सेवा और तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन करना है।" उन्होंने कमजोर इस विवेचन से स्पष्ट होता है कि श्री चन्द्रप्रभ समाज के लोगों को ऊपर उठाने के लिए निम्न सूत्र दिए हैं - सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं से पूरी तरह सुविज्ञ हैं। 1.हर समाज प्रतिवर्ष धर्म के नाम पर इकटठा होने वाले चंदे में उन्होंने समाज की हर परिस्थिति का पक्षपात-मुक्त होकर विवेचन से दस प्रतिशत भाग अलग निकालकर रख दे और उस राशि से बैंक किया है। वे न केवल समाज के यथार्थ पहलुओं से अवगत करवाते हैं, बनाकर जरूरतमंद भाइयों को बिना ब्याज के ऋण की सुविधा दे, शिक्षा वरन् सामाजिक उत्थान के लिए सरल एवं जीवंत मार्गदर्शन भी देते हैं। हेतु छात्रवृत्ति दे, विधवा औरतों और विकलांगों को छोटे-मोटे घरेलू उनके द्वारा समाजोत्थान के लिए दिए गए सहयोग, समानता, संगठन व उद्योगों के लिए प्रोत्साहन दे। समन्वय के सिद्धांत बहुत उपयोगी हैं। 2. हर सम्पन्न व्यक्ति एक कमजोर परिवार को गोद लेकर उसे श्री चन्द्रप्रभ की राष्ट्र को देन पाँवों पर खड़ा करने का संकल्प ले। 3. यदि कोई अमीर नहीं है, पर पढ़ा-लिखा है तो गरीब, होनहार श्री चन्द्रप्रभ का राष्ट्र-दर्शन दर्शन-जगत एवं भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है। उनके राष्ट्र-दर्शन ने राष्ट्रीय उत्थान में महत्त्वपूर्ण बच्चों को नि:शुल्क पढ़ाए अथवा कोई कार्य विशेष में दक्ष है तो अपना हुनर दूसरों को सिखाकर सामाजिक उत्थान में सहयोगी बने। भूमिका निभाई है। श्री चन्द्रप्रभ राष्ट्र-भक्त हैं। वे भारतीय संस्कृति से अगाध प्रेम रखते हैं। उन्होंने भारतीय संस्कृति के विलुप्त हो रहे नैतिक 4.हर समाज अपने विद्यालय और महाविद्यालय जरूर बनाए, मूल्यों को नई दृष्टि से प्रसारित किया है। वे नैतिक मूल्यों को नए ढंग से गरीब एवं कमजोर छात्रों को आगे पढ़ने में पूरी सहायता करे। अगर आम जनता के सामने रखते हैं। जनमानस को नैतिक मूल्यों की ओर समाज में सौ बेहतर अधिकारी एवं प्रबुद्ध लोगों का निर्माण होता है, तो आकर्षित कर पाने में वे सफल हुए हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने भारतीय संस्कृति यह सौ मंदिरों बनाने जितना पुण्यकारी होगा। की उज्ज्वल परम्परा एवं वर्तमान भारत की तुलनात्मक विवेचना कर 5. हर समाज अपना एक अस्पताल बनाए। अगर कोई गरीब नई दृष्टि देने की कोशिश की है। पक्षपात मुक्त होकर राष्ट्र की बड़ा ऑपरेशन नहीं करवा पाए तो समाज उसका सहयोगी बने। समस्याओं पर दिए गए उनके बहुमूल्य विचार हर व्यक्ति को सोचने 6. आपके मोहल्ले में किसी गरीब विधवा महिला की बेटी की और जीवन में परिवर्तन लाने के लिए प्रेरित करते हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने शादी हो तो कन्यादान करने का लाभ जरूर लें। भारतीय संस्कृति का स्वरूप, भारत देश की समस्याएँ, समस्याओं का ___7. हर पुरुष प्रतिदिन 10 रुपये और हर महिला दो मुट्ठी आटा कारण एवं समाधान के उपायों पर जो चर्चा की है उसका इस अध्याय निकाले और उससे औरों का अथवा पशु-पक्षियों का पेट भरें। में विस्तार से विवेचन किया जा रहा है - 2. समानता का सिद्धांत - श्री चन्द्रप्रभ ने सामाजिक उत्थान के श्री चन्द्रप्रभ ने भारत, हिन्दुत्व, राष्ट-प्रेम जैसे शब्दों को युगीन लिए दूसरे सिद्धांत के रूप में समानता को अपनाने की बात कही है। वे संदर्भो में परिभाषित किया है। उन्होंने व्यक्ति के भीतर भारतीयता पर कहते हैं, "समाज समानता के धरातल पर कायम हो, समाज में सब गौरव करने की भावना जागृत की है। कहते हैं, "हम भारतीय हैं, हमें 130 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ है।" स्वयं के भारतीय होने पर गौरव होना चाहिए। गौरव इसलिए नहीं कि के स्वरूप का भी चित्रण किया है। उन्होंने पाश्चात्य संस्कृति की केवल यह हमारी मातृभूमि है बल्कि इसलिए कि हम उस संस्कृति के बुराई करने के बजाय उसकी अच्छाइयों से प्रेरणा लेने की सीख दी है। संवाहक हैं, जिसने सारे संसार को विश्व-मैत्री, विश्व-प्रेम और वे कहते हैं, "यद्यपि विदेशों में लोग सेक्स और शराब का खुलकर विश्व-बन्धुत्व का संदेश दिया है।" यद्यपि भारत में आइंस्टीन जैसे उपयोग करते हैं, पर वहाँ की सड़कें हमारी तरह टूटी-फूटी नहीं हैं, वैज्ञानिक या सिकन्दर जैसे सम्राट पैदा न हुए फिर भी भारत विश्वगुरु यहाँ गली-गली में गंदगी है और वहाँ सब जगह सफाई है, कहलाया। भारत के विश्वगुरु कहलाने के पीछे क्या कारण थे? भारत प्रामाणिकता है, समय की पाबंदी है, विकसित सोच है, प्रतिभा का की आत्मा क्या है? इसकी विवेचना करते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, सम्मान है, जात-पाँत का भेद नहीं है। अगर हमारे देश में इन कमियों "भारत को विश्वगुरु का दर्जा इसलिए प्राप्त है, क्योंकि इसने विश्व को और अव्यवस्थाओं को दूर कर दिया जाए तो भारत संसार में श्रेष्ठ बन राम के रूप में मर्यादा और शौर्य प्रदान किया है, कृष्ण के रूप में उदात्त जाएगा। हम दूसरे देशों की अच्छाइयाँ यहाँ लाएँ और यहाँ की कर्मयोग की शिक्षा दी है, महावीर के रूप में अहिंसा का अमृत प्रदान अच्छाइयाँ पूरी मानवता तक पहुँचाएँ।" वे न केवल भारत की वर्तमान किया है, बुद्ध के रूप में महाकरुणा दी है। भारत की आत्मा ताजमहलों विकृतियों पर कुठाराघात करते हैं, वरन् उनके कारण और निवारण का या कुतुबमीनारों में नहीं, वह तो इस देश की सहिष्णुता और शूरवीरता भी व्यावहारिक मार्ग देते हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने भारत की समस्याओं का जो में,शांति और मर्यादा में, अहिंसा और करुणा में मिलेगी।" भारत की समाधान दिया है वह इस प्रकार हैमुख्य विशेषता का विवेचन करते हुए उन्होंने कहा है, "भारत ही एक 1. जातिगत संकीर्णता - भारतीय संस्कृति में वर्ण-व्यवस्था ऐसा देश है, जो अहिंसा, शांति और भाईचारे की नींव पर टिका हुआ विद्यमान रही है। यहाँ चार वर्णों की अवधारणा दी गई - ब्राह्मण, क्षत्रिय, है? यहाँ पर सभी धर्मों को पल्लवित एवं पुष्पित होने का अधिकार वैश्य और शूद्र । यह वर्ण-व्यवस्था जन्म की बजाय कर्म-प्रधान थी।धीरेमिला है। इसी समन्वयमूलक दृष्टि के चलते भारत पूरे विश्व में समादृत धीरे वर्ण-व्यवस्था कर्म की बजाय जन्म से जुड़ गई, परिणामस्वरूप वर्ण व्यवस्था ने जातिगत संकीर्णता का रूप धारण कर लिया। भारत की श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में भारत का अभिप्राय किसी जमीन के सरकारों ने जातिगत संकीर्णता को दूर करने और निचली जातियों को ऊपर टुकड़े से नहीं जोड़ा गया है। वे भारत को एक महान विचार और एक उठाने के अनेक कदम उठाए, पर राजनेताओं ने जातिगत राजनीति करके महामार्ग के रूप में देखते हैं। उनका कहना है, "भारत किसी क्षेत्र- राष्ट्रीय भावना को बहुत क्षति पहुँचायी।वर्तमान में जातिगत संकीर्णता देश विशेष का नाम नहीं है। भारत अपने आप में एक विचार है। यह एक के सामने बहुत बड़ी चुनौती बन गया है। परम्परा, एक संस्कृति और प्रबल पुरुषार्थ का नाम है। भारत भले ही श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में जातिगत संकीर्णता पर समग्रता से चिंतन चन्द्रलोक तक न पहुँचा हो, लेकिन जहाँ पहुँचा है, वहाँ दुनिया का हुआ है। उन्होंने जाति को जीवन से जोड़ने की बजाय केवल पहचान कोई भी देश न पहुँच पाया और वह व्यक्ति का स्वयं का सत्य है।"अब भर से जोड़ने की सीख दी है। वे कहते हैं, "जन्म से कहीं कोई भेद तक हिन्दू शब्द को एक विशेष धर्म या सम्प्रदाय तक सीमित माना गया, नहीं होता, जो भेद होते हैं, वे सब जातिगत हैं। जाति मात्र हमारी पर श्री चन्द्रप्रभ ने हिन्दुत्व की नई परिभाषा देते हुए कहा है, "हिन्दू पहचान के लिए है, न कि जीवन-निर्धारण के लिए।" उन्होंने जातीय कोई धर्म नहीं वरन् एक विचार है, एक परम्परा है, संस्कृति, संस्कार समीकरणों से ऊपर उठने और इंसानियत से प्रेम करने की प्रेरणा दी है। और जागरण का संदेश है। जो अपनी हीनताओं को दूर करे वह व्यक्ति उनका कहना है."जातियाँ केवल हमारी सामाजिक व्यवस्था के लिए . हिन्दू है।" इस तरह हिन्दू केवल सनातनी या आर्यसमाजी व्यक्ति ही हैं। अच्छा होगा हम स्वयं को जातीय समीकरणों से ऊपर लाएँ और नहीं, वरन् जैन, बौद्ध, मुसलमान, सिक्ख और ईसाई व्यक्ति भी हिन्दू अपनी प्रतिभा का सम्पूर्ण राष्ट्र और समाज के लिए उपयोग करें। हर हो सकता है। कोई एक-दूसरे का भाई है, फिर चाहे वह हरिजन हो या वैष्णव, श्री चन्द्रप्रभ भारतीय संस्कृति का संबंध केवल आत्मकल्याण बाह्मण हो या क्षत्रिय हमारे लिए जातीयता या रंग का नहीं, इंसानियत करने की प्रेरणा देने वाली संस्कृति से नहीं जोड़ते वरन् वे उसे का मूल्य हो,मानवता की पूजा हो।" आत्मरक्षा का पाठ करने वाली संस्कृति भी मानते हैं। उन्होंने प्रत्येक श्री चन्द्रप्रभ ने प्राणीमात्र की समानता को लोकतंत्र का आधारव्यक्ति को एक हाथ में माला तो दूसरे हाथ में भाला रखने की सिखावन स्तंभ माना है। उनकी दृष्टि में, "लोकतंत्र का अर्थ यही है कि हर दी है। उनके अनुसार, "हर आदमी के एक हाथ में माला और दूसरे सामान्य और असामान्य मनुष्य समान है। सामान्य से सामान्य व्यक्ति हाथ में भाला रहना ही चाहिए। माला इसलिए कि तुम अपनी आत्मा को भी ऊँचे पद, वैभव और सफलता की मीनारों को छूने का अधिकार का कल्याण कर सको, निरंतर परमात्म-शक्ति से प्रेरित रहो, ताकि है। केवल ऊँची जाति में जन्म लेने मात्र से कोई ऊँचा या नीचा नहीं हो तुम्हारी नैतिकता सदैव तुम्हें मार्ग दिखाती रहे और भाला इसलिए ताकि जाता है।" श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में जातिगत आरक्षण को देश का कोई तुम्हारे देश की सरहद पर, तुम्हारे पवित्र स्थलों पर, तुम्हारी बहू- दर्भाग्य कहा गया है। उन्होंने जातिगत आरक्षण को प्रतिभा-हनन का बेटियों पर गलत नजर न डाल पाए।" मुख्य कारण बताया है। वे कहते हैं, "आरक्षण से देश का विकास कम, इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने भारतीय संस्कृति की महानता को प्रकट ___ बँटवारा ज्यादा हुआ है। इसका लाभ गरीबों की बजाय जाति विशेष किया है। उन्होंने एक ओर भारतीय संस्कृति के उज्ज्वल पक्ष को गरिमा को मिल रहा है। न्यायपालिका, राज्यसभा और लोकसभा इस बिन्दु पर के साथ रखा है, तो दूसरी ओर अनेक समस्याओं से घिरे वर्तमान भारत सोचे और सुधार करे। जहाँ पर प्रतिभाओं का निर्माण और सम्मान होता संबोधि टाइम्स » 131 For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, वह राष्ट्र विकास की बुलंदियों को छूता है। पूरे विश्व में सबसे ज्यादा लिया था, अब भ्रष्टाचार के रावण को समाप्त करने के लिए अन्ना हजारे प्रतिभाएँ भारत में हैं। अगर आरक्षण के नाम पर देश की प्रतिभाओं पर ने जन्म लिया है। कभी महात्मा गाँधी के रूप में भगवान महावीर का ध्यान नहीं दिया गया तो इसका असर भारत के विकास पर पड़ेगा। हम पुनर्जन्म हुआ है। आज अन्ना के रूप में महात्मा गाँधी का पुनर्जन्म आरक्षण पर अंकुश लगाएँ और विकसित भारत के निर्माण में योगदान हुआ है। मैं अन्ना के नेतृत्व में हो रहे भ्रष्टाचार के विरुद्ध अहिंसक दें।" इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने देश के विकास के लिए जातिगत-दलगत आंदोलन को देखकर खुश हूँ। अगर भारत से 15 प्रतिशत भ्रष्टाचार भी राजनीति से ऊपर उठना और हर प्रतिभावान व्यक्ति को प्रोत्साहित कम होता है तो यह हमारी बहुत बड़ी जीत कहलाएगी। अब हर करके उसका उपयोग समाज, संस्कृति और राष्ट्र के लिए करना व्यक्ति, हर बच्चा राम बने तभी भ्रष्टाचार का अंत हो सकेगा।" आवश्यक माना है। श्री चन्द्रप्रभ भ्रष्ट लोगों को धरती पर जीने का अधिकार देने के 2. भ्रष्टाचार - वर्तमान में भ्रष्टाचार भारत की सबसे बड़ी खिलाफ हैं। उन्होंने धरती को स्वर्ग बनाने के लिए भ्रष्टाचारियों को समस्या है। भ्रष्टाचार की जड़ें देश में इस तरह व्याप्त हो चुकी हैं कि खदेड़ने और भ्रष्टाचार का भाँडा फोड़ने की प्रेरणा दी है। उनका मानना सरकार और प्रशासन का कोई भी विभाग इससे अछूता नहीं रह पाया है,"जैसे कृष्ण ने कंस का संहार किया था, वैसे ही हमें भी भ्रष्टाचार है। भ्रष्टाचार के चलते आम आदमी पर आर्थिक बोझ बढ़ा है। इसके के कंस का संहार करना होगा। भ्रष्ट लोगों को धरती पर जीने का कोई चलते भारत की व्यवस्था और प्रगति दोनों प्रभावित हुए हैं। भारत की अधिकार नहीं है। भ्रष्टाचार होने के बावजूद भारत ने इतनी प्रगति कर सरकार भ्रष्टाचार को मिटाने की प्रति ढुलमुल रवैया अपनाती है। ली है ; सोचो, अगर भ्रष्टाचार न होता तो आज भारत अमेरिका की सरकारें भ्रष्टाचार को मिटाने का भाषण तो देती हैं, पर उसे मिटाने के तुलना में होता। हमारा जन्म लेना तभी सार्थक होगा जब हम भ्रष्टाचार प्रति गंभीर नहीं हैं। भ्रष्टाचार के विरुद्ध बने कानून सशक्त नहीं हैं। का भाँडा फोड़ डालेंगे। अगर हम सबने मिलकर भ्रष्टाचारियों को भ्रष्टाचारियों को कठोर सजा नहीं मिलती, परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार खदेड़ डाला तो जो प्रगति हमने पिछले 65 सालों में की है, वह प्रगति दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। हम मात्र 15 सालों में कर लेंगे।" श्री चन्द्रप्रभ ने भ्रष्टाचार को मिटाने ___ श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में साम्प्रदायिकता और जातिगत संकीर्णता से का तरीका बताते हुए कहा है, "भारत से भ्रष्टाचार हटाने का एक भी बढ़कर आज की मूल समस्या भ्रष्टाचार को माना गया है। उन्होंने सशक्त तरीका यह हो सकता है, हर सरकारी दफ्तर में सरकार की ओर भारत जैसे आध्यात्मिक एवं धार्मिक देश में भ्रष्टाचार का होना चिंता से एक बोर्ड लगाया जाए जिस पर लिखा हो : रिश्वत देना या रिश्वत का विषय माना है। भारतीयों के दोहरे चरित्र पर व्यंग्य करते हए वे लेना अपराध है। यदि आपसे कोई रिश्वत माँगे तो ..... नंबर पर कहते हैं, "भारत में राम का नाम तो लिया जाता है, मगर राम की भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो से संपर्क करें।" इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने मर्यादा चली गई है। कृष्ण की पूजा तो जारी है, किन्तु कृष्ण का भ्रष्टाचार के स्वरूप, परिणाम और निवारण पर विस्तृत एवं क्रांतिकारी कर्मयोग छूट गया है। व्यक्ति भले ही माल की चोरी न करता हो, मगर विचार प्रगट किए हैं। कामचोर जरूर है। हमारे यहाँ महावीर की अहिंसा का नारा तो है, पर 3.गरीबी- गरीबी भी भारत की समस्याओं में प्रमुख समस्या है। मन में हिंसा का तांडव मिटा नहीं है। यहाँ नैतिकता मिटी है, और यद्यपि भारत में चारों ओर आर्थिक समृद्धि बढ़ी है, फिर भी गरीबी की भ्रष्टाचार बढ़ा है। भारत की मूल समस्या साम्प्रदायिकता या जातीयता समस्या पूर्णत: हल नहीं हुई है। गरीबी अनेक समस्याओं की जन्मदाता नहीं है, अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार है।" उन्होंने दिन-ब-दिन उजागर है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में गरीबी को विश्व का अभिशाप कहा गया है। हो रहे घोटालों पर चिंता जाहिर की है। वे कहते हैं, "सी.आर.बी. वे कहते हैं, "धन-सम्पत्ति की निंदा करने वाले यह क्यों नहीं समझते घोटाला, हवाला काण्ड, दवा घोटाला, बैंक घोटाला, चारा घोटाला, कि गरीबी से बढ़कर कोई अभिशाप नहीं।" हर व्यक्ति को सम्पन्न यूरिया घोटाला, शेयर घोटाला, चाहे जो घोटाला हो हर घोटाले में पैसों बनने की प्रेरणा देते हुए उन्होंने कहा है, "गरीबी परिवार, समाज और का घोटाला ही छिपा हुआ है। चाहे कोई भी व्यक्ति हो, हर किसी को देश के लिए अभिशाप है। हर व्यक्ति पहले सम्पन्न बने फिर अपरिग्रह प्रदेश या राष्ट्र का मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री होने का पूरा-पूरा हक है, को जिए। समाज में अमीरों को सबसे पहले पूछा जाता है।" उन्होंने किन्तु सत्ता का शोषण करना, भ्रष्टाचार और घोटालों में लिप्त होना, अपरिग्रह के सिद्धांत से गरीबी की तुलनात्मक विवेचना भी की है। वे भारत की आत्मा पर कुठाराघात है, यह मानवता के समस्त मापदण्डों कहते हैं, "मैं अपरिग्रह का समर्थक हूँ, पर अपरिग्रह के सिद्धांत को की धज्जियाँ उड़ाना है।" सम्पन्नता की मौलिक समझ के साथ स्वीकार किया जाए। गरीब व्यक्ति श्री चन्द्रप्रभ ने रावण के पुतलों को फूंकने की बजाय राम बनकर के लिए संतोष या अपरिग्रह खतरनाक है। पहले वह सम्पन्न बने और भ्रष्टाचार के रावण को फूंकने की प्रेरणा दी है। उन्होंने समाज-सेवी फिर त्याग के मार्ग को अपनाए। गरीब आदमी अगर संतोष धारण कर अन्ना हजारे द्वारा 16 अगस्त 2011 को भ्रष्टाचार के विरुद्ध किए गए लेगा तो अपने जीवन की ऊँचाइयों को छूने से वंचित रह जाएगा, वहीं अहिंसक आंदोलन का न केवल समर्थन किया वरन उन्हें महात्मा गाँधी अमीर के लिए संतोष उसके जीवन की शांति और सम्पूर्णता के लिए का पुनर्जन्म बताया है। उनका मानना है, "अब घर-घर में रावण पैदा सहयोगी है। अगर वह व्यर्थ की लालसाओं में पड़कर जीवन के अंतिम हो गए हैं जो घर और समाज को तोड़ रहे हैं, और संसद में बैठे रावण चरण तक पैसा ही पैसा करता रहेगा तो यह उसके लिए हानिकारक हो भ्रष्टाचार फैला रहे हैं। लंका का रावण तो मर गया, पर भ्रष्टाचार का जाएगा।" रावण पैदा हो गया। पहले रावण को मारने के लिए राम ने अवतार श्री चन्द्रप्रभ ने धर्मनीति और गरीबी के अंतर्संबंध की विवेचना की 1132 संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। वे गरीबी को दूर करने के लिए एकमात्र धर्मनीति को पर्याप्त नहीं किया है। वे कहते हैं, "भारत में धर्म के नाम पर दुनिया की सबसे मानते। उनकी दृष्टि में,"अकेले धर्मनीति से गरीबी को दूर नहीं किया ज्यादा सत्संग-सभाएँ व धर्म-कथाएँ होती हैं, पर क्या धर्म के पास जा सकता। धर्मनीति के द्वारा अर्थ पुरुषार्थ पर अंकुश तो लगाया जा आतंकवाद, भ्रष्टाचार, गरीबी मिटाने का समाधान है? संत-मौलवी सकता है, पर अर्थ पुरुषार्थ के लिए एकमात्र धर्मनीति काम नहीं आ लोग जनता को केवल मंदिर-मस्जिद में जाकर इबादत करने की ही सकती। धर्मपूर्वक अर्थ कमाया जाए और अर्थ अर्जित करते हुए भी प्रेरणा न दें, वरन् शांति के पैगाम को पूरे मुल्क में फैलाएँ। आतंक की व्यक्ति धर्म का विवेक रखे।" इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने गरीबी के प्रति घटनाओं में किसी एक मजहब का नाम आना शर्म की बात है। ऐसे परम्परागत धारणाओं से हटकर विचार रखे हैं। उन्होंने गरीबी को दूर आतंकवादियों को धर्म से बहिष्कृत करने की हिम्मत दिखानी चाहिए, करने के लिए कुछ विशिष्ट सूत्र प्रदान किए हैं - तभी भाईचारे के नारे सार्थक होंगे।" उन्होंने मौलवियों से विशेष रूप 1.ग्रामीण व आदिवासी जनता को शिक्षित किया जाए। से निवेदन करते हुए संदेश दिया है, “हिन्दुस्तान में हिन्दू-मुस्लिम 2. माता-पिता बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाएँ। भाई-भाई के रूप में सदियों से रहते आए हैं। मुस्लिम मौलवियों को 3.लड़कियों को लड़कों के समान अधिकार दिए जाएँ। इस देश की जनता को विश्वास में लेना चाहिए कि देश में आतंकवाद न 4. शिक्षा को रोजगारमूलक बनाया जाए। हो, पर फिर भी आतंक का जोर रहता है तो कम-से-कम मन मोल रोगों को विकसित करने के लिए आतंकवादियों की फेहरिस्त में कोई मुसलमान तो न ही हो।" अधिकाधिक प्रोत्साहन दें। श्री चन्द्रप्रभ ने आतंकवाद को मिटाने का मार्गदर्शन देते हुए कहा 6. हर समृद्ध व्यक्ति एक गरीब आदमी को आत्मनिर्भर बनाने के है, "अगर आतंकवादी शक्ति का उपयोग बिगाड़ने की बजाय दुनिया लिए गोद ले। को बनाने में लग जाए तो सौ सालों में किया जाने वाला विकास दस 7. हर व्यक्ति अपना हुनर दूसरों को सिखाए। सालों में किया जा सकता है। इंसान मौत का सौदागर बनने की बजाय इंसानियत का फरिश्ता बने। सरकार आतंकवाद को उखाड़ने की 8. शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाए। मजबूत इच्छाशक्ति पैदा करे। आतंकवादी हमसे ज्यादा शक्तिशाली नहीं 9. देश के जितने भी धार्मिक ट्रस्ट हैं वे आय का 25 प्रतिशत मानव हैं। आतंकवादियों में ऐसा खौफ पैदा किया जाना चाहिए ताकि वे सेवा के कार्यों में खर्च करें। दुबारा आतंक फैलाने का साहस न कर सकें।" उन्होंने मानसिक 10. हर समाज सामाजिक बैंक बनाकर निर्धन व जरूरतमंद लोगों आतंक को समाप्त करने के लिए औरों के प्रति मानवीय दृष्टि अपनाने, को ब्याजमुक्त ऋण दे। प्रतिदिन ध्यान करने, शांति को महत्त्व देने, सत्-साहित्य का विस्तार इन बिन्दुओं से स्पष्ट होता है कि श्री चन्द्रप्रभ राष्ट्रीय समस्याओं के करने, जाति या धर्मगत स्वार्थों को महत्त्व न देने की प्रेरणा दी है। वे प्रति जागरूक हैं। उन्होंने गरीबी जैसी समस्या का समसामयिक वर्तमान आतंकवाद को मिटाने के लिए राजनीतिक समाधान ढूँढ़े जाने समाधान देकर राष्ट्रोत्थान को नई दिशा देने की कोशिश की है। के भी पक्षधर हैं। इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने आतंकवाद के प्रति सशक्त 4.आतंकवाद - आतंकवाद न केवल भारत की अपितु विश्व की मार्गदर्शन दिया है। धर्म और संतों-मौलवियों को भी आतंकवाद के प्रमुख समस्या बन चुका है। भारत में आए दिन आतंकी हमले हो रहे । निरसन के लिए खुलकर सामने आने की प्रेरणा देना उनका साहसिक हैं। लोग इससे संत्रस्त हैं, पर सरकार इस समस्या को सुलझाने में कदम है। सफल नहीं हो पा रही है। घटिया राजनीति, कमजोर आंतरिक सुरक्षा 5. राजनीति - राजनीति लोकतंत्र का प्रमुख अंग है। स्वस्थ स्थिति और राष्ट्र-भावना की कमी के चलते यह समस्या दिनोंदिन लोकतंत्र के संचालन के लिए स्वस्थ राजनीति का होना अनिवार्य है। बढ़ती जा रही है। पाकिस्तान आतंकवाद का प्रमुख केन्द्र बन चुका है। राजनीति विश्व में सदियों से चली आ रही है। जब-जब राजनीति धर्म आतंकवादी बेखौफ होकर देश में तबाही मचा रहे हैं। ऐसी स्थिति में और नैतिकता शून्य हुई है, तब-तब लोकतंत्र को इसका मोल चुकाना आतंकवाद को समूल नष्ट करना एक बहुत बड़ी चुनौती है। श्री पड़ा है। राजनीति नैतिकतापूर्ण हो, यह प्रत्येक देश व राज्य के लिए चन्द्रप्रभ के दर्शन में आतंकवाद पर समसामयिक चिंतन प्रस्तुत हुआ अपेक्षित है। वर्तमान भारत की राजनीति धर्म और नैतिकता से अर्थ है। श्री चन्द्रप्रभ ने विश्वशांति और विश्व-प्रेम की स्थापना के लिए। और काम की ओर गतिशील हो चुकी है। परिणामस्वरूप भारत को आतंकवाद को समूल नष्ट करने पर बल दिया है। वे कहते हैं, अनेक समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। "आतंकवाद वह विषैली गैस है, जिसे निष्प्रभावी किये बगैर विश्व प्रेम और शांति की साँस नहीं ले सकेगा।" उन्होंने आतंकवाद के पीछे श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में जहाँ एक ओर राजनीतिक स्वरूप में निम्न कारणों का उल्लेख किया है - प्रकाश डाला गया है, वहीं दूसरी ओर वर्तमान राजनीतिक स्वरूप में सुधार लाने की पहल की गई है। राजनीति की व्याख्या करते हुए श्री 1.आनुवंशिकता 2.वातावरण 3.आर्थिक शोषण 4.मानसिक विकृतियाँ चन्द्रप्रभ कहते हैं, "राज्य की लोक- कल्याणकारी नीतियों की 5.मानसिक दमन व आत्मदमन। प्रशासनिक व्यवस्था का नाम राजनीति है।" उन्होंने अधिकारपरस्त राजनीति की बजाय समाज-सुधार से जुड़ी राजनीति को उचित बताया श्री चन्द्रप्रभ छिछली राजनीति और धार्मिक-साम्प्रदायिक है। उनका मानना है, "समाज सुधार के लिए की जाने वाली राजनीति संकीर्णता को भी आतंकवाद के मुख्य आधार बताते हैं। उन्होंने कभी निन्दनीय नहीं रही है। अधिकारपरस्त राजनीति ही हर उठापठक आतंकवाद के परिप्रेक्ष्य में धर्म एवं संत-समाज को भी कठघरे में खड़ा संबोधि टाइम्स > 133 For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की जड़ है।" श्री चन्द्रप्रभ आदर्शयुक्त राजनीति के समर्थक हैं, उन्होंने मार्गदर्शन दिया गया है - आदर्शहीन होती जा रही राजनीतिक स्थिति की कटु आलोचना की है। 1.राजनीति और धर्मनीति के बीच रामसेतु का निर्माण हो। वे कहते हैं, "राजनीति अब देश-भक्ति नहीं रही, वरन् नाम और पैसा 2. नेता लोग राजनीति के नाम पर बुराइयों को पनपाने की बजाय कमाने का जरिया बन चुकी है।""राजनीति समाज-सेवा की बजाय अच्छाइयों को पनपाएँ ताकि राष्ट्रीय गौरव को पुनःस्थापित किया जा सके। समाज के साथ व्यापार बन गई है। वर्तमान में राजनीति से बढ़कर कोई 3.हर व्यक्ति धर्मभक्त बनने से पहले राष्ट्रभक्त बने। आशावान व्यवसाय नहीं है।" उनका मानना है,"कोई अच्छा आदमी 4.युवा राजनैतिक पार्टियों को जिताने की बजाय भारत को जिताएँ। राजनीति में आकर और अच्छा बन जाए, यह मुमकिन नहीं है। 5. कांग्रेस-भाजपा अपनी-अपनी रोटी सेकने की बजाय दोनों राजनीति तो अच्छे मनुष्य को और बुरा बनाती है और जो बुरा है, उसे पार्टियाँ देशहित में एक हों। और भी जघन्य बना देती है।""राजनीति तो वह युद्ध है, जिसमें आम इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने राजनीति से जुड़े विभिन्न महत्त्वपूर्ण पहलुओं का युद्ध की तरह रक्तपात तो नहीं होता, पर बाकी कुछ बचता नहीं है।" सटीक विश्लेषण कर राष्ट्र निर्माण में अहम भूमिका निभाई है। वर्तमान राजनीतिक स्थिति का चित्रण करते हुए श्री चन्द्रप्रभ ने 6.नारी उत्थान- विश्व के चहुंमुखी विकास के लिए नारी-जाति कहा है, "अब राजनीति नीति-रहित होती जा रही है, पक्ष वाले जैसे- का उत्थान आवश्यक है। श्री चन्द्रप्रभ नारी-जाति के विकास के पूर्ण तैसे करके सत्ता बचाए रखने में लगे हैं, और विपक्ष वाले उसे गिराने में। समर्थक हैं। उन्होंने न केवल नारी-जाति को आगे बढ़ने की प्रेरणा दी सांसदों की खरीद-फरोख्त हो रही है। शस्त्र के बल पर सत्ता पाने की है. वरन नारी-उत्थान के अनेक कार्य भी किए हैं। उन्होंने न केवल कोशिश हो रही है।" उन्होंने राजनीति में प्रवेश करने वाले संतों को नारी को पुरुष से महान बताया है, बल्कि उसका दायित्व क्षेत्र भी पुरुष सावधान करते हुए कहा है, "संतों द्वारा आध्यात्मिक ज्ञान के प्रचार- से अधिक माना है। वे नारी को नरक की खान बताने वालों का विरोध प्रसार हेतु राजनीति के मंच का उपयोग करना कोई अर्थ रखता है, किंतु करते हैं। उनका मानना है, "नारी नरक की खान नहीं, ममता का सत्ता-सुख और प्रतिष्ठा के लिए उसका उपयोग करना संत के वेश में महासागर है।" नारी की प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा है, "नारी घर महत्वाकांक्षा का ही पोषण है।" निश्चय ही श्री चन्द्रप्रभ ने वर्तमान की लक्ष्मी है। नारी घर की शोभा है। जिस घर में नारी की इज्जत नहीं, राजनीति के गिरते स्तर पर चिंता व्यक्त की है। वह घर अवनति की ओर चल पड़ता है।" उन्होंने पुरुषों को नारी का श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में राजनेताओं की स्थिति का भी चित्रण सम्मान करने, प्रेम देने और शिक्षित कर आगे बढ़ाने की प्रेरणा दी है। वे किया गया है, उन्होंने राजनेताओं को राजनीति के क्षेत्र में आदर्श पेश नारी को पुरुष के समकक्ष न मानने की परम्परा का खण्डन करते हैं। करने का मार्गदर्शन दिया है। आज के नेताओं की स्थिति का विवेचन उन्होंने नारी की योग्यता पर प्रकाश डालते हुए कहा है, "स्त्री में करते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "यदि एक राजनेता को अपना पद अनादिकाल से ही ऊँचाइयों को छूने की अद्भुत क्षमता रही है। सृष्टि में बचाने के लिए सारी दुनिया को भी कुर्बान करना पड़े तो वह वैसा करते जब-जब भी नारी को विकास का मंच मिला है, शांत नारी ने अपनी हुए दो ट्रक भी हिचकिचाता नहीं है।""अवसरवादिता, पदलोलुपता, विलक्षण शक्ति को भी प्रदर्शित किया है। जिस युग ने नारी को उसकी घोटालेबाजी ये सब तो एक ऊँचा राजनेता होने के लिए सर्वमान्य बातें स्वतंत्रता और सम्मान दिया, नारी ने उस युग को सदैव गौरवान्वित हो गई हैं।" उन्होंने राजनेताओं को गाँधीजी से प्रेरणा लेने व सच्चा किया है। जिस युग ने नारी को अपमान, उपेक्षा और कलंक दिया, वह राजनीतिज्ञ बनने की सीख दी है। उनकी दृष्टि में, "गाँधीजी ने राजनेता युग इतिहास का काला अध्याय बन गया।" होकर भी त्याग के आदर्श को जीवंत किया था, यद्यपि भारत आज श्री चन्द्रप्रभ नारी में विश्व का उज्ज्वल भविष्य देखते हैं। वे नारी प्रगति के शिखर पर है, फिर भी घटिया राजनीति के कारण अनेक अनक जाति को अनुसरण की बजाय स्वयं का पथ निर्मित करने की सीख देते विकट समस्याओं से जूझ रहा है। नेता लोग चुनाव तो जीतना चाहते हैं, रोमादा आने वाला विएत नारी कामलों पर देश का संचालन करना नहीं जानते। परिणामस्वरूप राजनीति पैसा ने युगों-युगों तक नारी का दमन किया है। आने वाले समय में पुरुषों को ऐंठने का शुद्ध व्यापार बन गई है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन विदा होना पड़ेगा और नारी नए विश्व के निर्माण और विकास की भारत भिखमंगा हो जाएगा।" उन्होंने राजनेताओं को चाणक्य, महात्मा आधारशिला होगी।" उन्होंने महिलाओं को चारदीवारी से बाहर गाधा, जयप्रकाश नारायण, राम मनाहर लोहिया, वल्लभभाई पटल, निकलने की सीख दी है। वे महिलाओं को पुरुषों के साथ कंधे से कंधा अन्ना हजारे जैसे राजनीतिज्ञों को आदर्श बनाने की सीख दी है। मिलाकर आगे बढ़ने व अपने ज्ञान का उपयोग चूल्हे-चौके में करने की राजनीतिज्ञ के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते बजाय आने वाली पीढी के उज्ज्वल भविष्य के निर्माण के लिए करने हैं. सच्चा राजनीतिज्ञ वह है जो राजनेताओं के मायाजाल में नहीं फँ की सलाह देते हैं। वे नारी में रहने वाले ममता, प्रेम, वात्सल्य, सता। राजनेता अपने को सदा पद से जोड़ना चाहता है, जबकि सहनशीलता. मर्यादा, गंभीरता, शील-भावना, निर्व्यसनी जीवन जैसे राजनीतिज्ञ पद को केवल खुद की लोलुपता मानता है, चाणक्य महान सदगणों को विश्व-शांति, विश्व-बन्धुत्व और विश्व रक्षा का आधार राजनीतिज्ञ हए, पर राज्य अधिकारों से सदा निवृत्त रहे, महात्मा गाँधी मानते हैं। उन्होंने नारी-जाति को अपनी मर्यादा और गरिमा के प्रति पदलोलुपता की प्रतिस्पर्धा में कभी सम्मिलित न हुए।" इस तरह विशेष रूप से सावधानी बरतने की सीख दी है। इस तरह श्री चन्द्रप्रभ श्री चन्द्रप्रभ ने राजनेताओं को राजनीति करते हुए राजनीतिज्ञ बनने की विश्व-निर्माण में नारी की भमिका को निर्विवादित रूप से स्वीकार सलाह दी है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में राजनीतिक सुधारों के निम्न करते हैं एवं उसे निरंतर आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। उन्होंने आने वाले Ja134> संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल की नींव महिलाओं को बताकर नारी-जाति को बहुत बड़ा लिए खतरनाक सिद्ध किया है। वे कहते हैं, "दुनिया के किसी भी दायित्व सौंपा है। महादेव को धरती को मिटाने के लिए तीसरी आँख खोलने की जरूरत 7. अहिंसा और विश्वशांति - अहिंसा विश्वशांति की नहीं पड़ेगी। दुनिया के पास इतने अणु-परमाणु, हाइड्रोजन बमों का आधारशिला है। यह विश्व की संरक्षिका है। हिंसा, आतंक, उग्रवाद, भंडार इकट्ठा हो चुका है कि दुनिया को एक बार या सात बार नहीं, साम्प्रदायिक संकीर्णता और भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं से घिरे भारत के सौ-सौ बार खत्म किया जा सकता है।" उन्होंने अणुबमों के निर्माण में लिए अहिंसा एक सकारात्मक समाधान है। अहिंसा और प्रेम जैसे लगने वाले धन को मानवीय उत्थान में लगाने की सीख देते हुए कहा सिद्धांतों से ही विश्व-शांति और विश्व-बंधुत्व का सपना साकार हो है, "आधुनिक टैंक को खरीदने में जितनी कीमती लगती है, उतनी सकता है। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में आतंकवाद के दौर में अहिंसा और कीमत से एक लाख लोगों को आठ दिन तक भोजन करवाने अथवा अणुबम के युग में अणुव्रत की स्थापना पर बल दिया गया है। श्री तीस हजार बच्चों को स्तरीय शिक्षा दिलवाने की व्यवस्था की जा चन्द्रप्रभ ने अहिंसा की वर्तमान संदर्भो में व्याख्या कर न केवल सकती है। लड़ाकू विमान के एवज में 40 हजार गाँवों को भोजनअहिंसक लोगों को जगाया है, वरन् अहिंसा के सकारात्मक पहलुओं स्वास्थ्य सुविधाएँ और परमाणु पनडुब्बी के एवज में 23 विकासशील को आम इंसान तक पहुँचाने की कोशिश भी की है। देशों के 60 लाख बच्चों को सारी सुविधाएँ दी जा सकती हैं। शस्त्र श्रीन टीन में अहिंसा कोना स्वरूप में व्यायायित निर्माण में लगने वाला धन दुनिया के विकास में लगा दिया जाए तो किया गया है। उन्होंने अहिंसा को हिंसा न करने के अर्थ तक सीमित 1000 वर्षों में होने वाला विकास मात्र 10 सालों में हो जाएगा।" नहीं रखा है। उनका कहना है,"अहिंसा का अर्थ केवल इतना ही नहीं श्री चन्द्रप्रभ ने अणुबमों के आधार पर स्वयं को सुरक्षित समझने है कि हिंसा मत करो। अहिंसा का अर्थ है प्राणिमात्र के प्रति अपनी वाले देशों को सावधान किया है और इंसानियत के धर्म को विस्तार देने मंगल मैत्री साधो। अहिंसा यानी अनंत प्रेम । अहिंसा हमें सिखाती है की जरूरत बताई है। वे कहते हैं, "दुनिया में कोई भी देश सुरक्षित नहीं कि अगर तुम किसी इंसान को जीवन नहीं दे सकते हो तो तुम्हें किसी है,न भारत, न पाकिस्तान न अमेरिका । ये जब तक सुरक्षित हैं तब तक का भी जीवन छीनने का कोई अधिकार नहीं है।" हम अपनी ओर से सुरक्षित हैं और जिस दिन कोई गलत कदम उठ गया, उस दिन कोई न किसी मछली को मारने की बजाय उसे पानी में तैरते हुए देखने, बचेगा। धरती पर एकमात्र इंसानियत का धर्म जीवित रहे बाकि सब आसमान में उड़ती किसी बुलबुल को निशाना बनाने की बजाय उसे भूल जाएँ। अगर इंसानियत रहेगी तो धरती पर स्वर्ग के रास्ते खुले हुए उड़ते हुए देखने, हिरणों को अपना शिकार बनाने की बजाय उन्हें होंगे, अन्यथा शेष क्या रहेगा?" दौड़ते हुए देखने का आनंद लें। श्री चन्द्रप्रभ ने अहिंसा का विस्तार श्री चन्द्रप्रभ ने इंसानियत का धर्म फैलाने के लिए संतों की करने के लिए हिंसक लोगों को अहिंसा का प्रशिक्षण देने की प्रेरणा दी आवश्यकता पर बल दिया है। उनका मानना है, "आज दुनिया में है। वे कहते हैं, "अगर आपका पड़ौसी मांस खा रहा है और आप उसे दाऊद और लादेन से 100 गुना ज्यादा जरूरत संतों की है, जो धरती पर छोड़ने की प्रेरणा नहीं देते तो आप भी दोषी हुए। जैसे मंदिर बनाना विस्तार लेकर शांति का संदेश फैला सकें । उन्होंने विश्व शांति स्थापित पुण्य की बात है, वैसे ही इंसान को अहिंसा के मार्ग पर प्रवृत्त करना सौ करने में इस्लाम की भूमिका निभाने का अनुरोध किया है। उनका तीर्थों की यात्रा करने से भी ज्यादा कल्याणकारी होता है।" मानना है, "इस्लाम का अर्थ है : शांति । इस्लाम का भी विश्व में शांति श्री चन्द्रप्रभ ने अहिंसक लोगों को चुप बैठने की बजाय पूरी स्थापित करने में उतना ही दायित्व है, जितना अन्य धर्मों का है। अगर दुनिया में फैलने और अहिंसा के साधनों को फैलाने की प्रेरणा दी है। कोई इस्लाम का सच्चा अनुयायी है तो वह पहले शांति का हिमायती उन्होंने शांति और अहिंसाप्रिय लोगों के सामने कर्त्तव्यपालन को लेकर बने। जो अमन के खिलाफ है वह मजहब के खिलाफ है और जो प्रश्नचिह्न खड़ा किया है। उनकी दृष्टि में, "तबाही के पुजारी अपना । मजहब के खिलाफ है वह खुदा का बंदा कैसे हो सकता है।" उन्होंने काम कर रहे हैं और शांति के पुजारी चुप बैठे हैं। शराब, अंडों का अहिंसा के प्रशिक्षण केन्द्रों को खोलने की प्रेरणा देते हुए कहा है, प्रचार करने वाले पूरी दुनिया में फैल चुके हैं, और इनका निषेध करने "जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों के प्रशिक्षण केन्द्र चल रहे हैं। अगर वाले स्थान विशेष में बैठकर दो-चार बातें करके चुप हो जाते हैं। हिंसा दुनिया को खत्म करने का प्रशिक्षण पाकिस्तान देता है तो दुनिया को के शस्त्र तो बेहिसाब बन रहे हैं और अहिंसा के शास्त्र अलमारियों में कैसे जीवित रखा जाए, इसका प्रशिक्षण भारत दे।" वे युद्ध को सभ्यता दीमकों की खुराक बन रहे हैं। ऐसे वक्त में शांतिप्रिय, प्रेम और अहिंसा व संस्कृति की हत्या करने वाला बताते हैं। उन्होंने युद्ध को में आस्था रखने वाले लोगों को चाहिए कि वे सोचें कि उनके क्या महत्त्वाकांक्षाओं का संघर्ष माना है। वे कहते हैं, “विगत दो हजार कर्त्तव्य होते हैं?" सालों में शांति और मातृभूमि के नाम पर विश्व में पाँच हजार युद्ध हो श्री चन्द्रप्रभ ने अणुबम के इस युग में अणुव्रत की उपयोगिता को चुक हाजिस सभ्यता आर सस्कृति कानमाण म कसा दश का बास उजागर किया है। उनका मानना है, "दुनिया में कोई भी राज्य केवल साल लगते हैं, पर उसे नष्ट करने में युद्ध को बीस दिन भी नहीं लगते।" बम के बल पर न तो अपना संचालन कर सकता है, और न ही किसी श्री चन्द्रप्रभ ने विश्वशांति और विश्वमैत्री का दायित्व अहिंसक प्रकार की मजबूत अर्थव्यवस्था प्रदान कर सकता है। धरती पर जब भी लोगों को सौंपा है। यद्यपि दुनिया में अहिंसक लोग कम हैं, फिर भी किसी संस्कृति को पालन-पोषण मिलता है, तो उसके पीछे किसी-न- चन्द्रप्रभ कहते हैं, "मुट्ठीभर सेना भी अगर जीत का जज्बा अपने किसी अणुव्रत की ही भूमिका रही है।" श्री चन्द्रप्रभ ने अणबम के भीतर जगा ले तो सारी बाजी पलट सकते हैं। अहिंसा में निष्ठा रखने निर्माण पर होने वाले खर्चों को अव्यावहारिक बताते हुए उसे विश्व के वाले लोग भले ही अरबों न हों, पर करोड़ों अहिंसक अहिंसा को विश्व संबोधि टाइम्स -135 For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में विस्तारित करने का संकल्प जगा लें तो विश्व में शांति और सुरक्षा किया गया उतना प्रयास राष्ट्रीय मूल्यों के विकास के लिए किया होता का नया सवेरा लाया जा सकता है।" उन्होंने 'महावीर : आपकी एवं तो आज भारत का स्वरूप कुछ और ही होता। देश के संतों, मठाधीशों, आज की हर समस्या का समाधान','कैसे पाएँ मन की शांति', 'शांति शंकराचार्यों, पादरियों, मौलवियों को अपने-अपने धर्म की तो चिंता है, पाने का सरल रास्ता' नामक पुस्तिकों में विश्वशांति की स्थापना के पर देश की नहीं। राम, कृष्ण, महावीर जैसे महापुरुषों का देश आज लिए निम्न सूत्र दिए हैं - भ्रष्टाचार, बेईमानी, चोरी, चरित्रहीनता, अनैतिकता के बोझ से दबता 1. प्रबुद्ध एवं शांतिप्रिय लोग सारे विश्व में फैल जाएँ। जा रहा है। आज भगवान के मंदिरों से ज्यादा नीति के मंदिरों की जरूरत 2. अहिंसा का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार किया जाए। है। पश्चिम की आलोचना करने वालों को चाहिए कि वे उनकी 3.अहिंसक लोग हर माह एक मांसाहारी को शाकाहारी बनाने का ईमानदारी, नैतिकता, राष्ट्रभक्ति जैसे मूल्यों से प्रेरणा लें।" उन्होंने संकल्प लें। नैतिक मूल्यों के रूप में दूसरों को दुःख देने, रक्तशोषण न करने, 4.व्यक्ति प्रतिक्रियाओं से बचे व सहजता से जीवन जिए। जरूरतमंद की सेवा करने, चोरी-बेईमानी न करने और चरित्र के प्रति 5. प्रत्येक बिन्दु पर हम अनेकांतवाद की दृष्टि से सोचें। निष्ठाशील रहने के संकल्प लेने की प्रेरणा दी है। 6. हर परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार रहें। इस प्रकार कहा जा सकता है कि श्री चन्द्रप्रभ ने देश को धर्म और 7. हर समय सौम्यता व प्रसन्नता से भरे रहें। मजहब से ऊपर रखकर राष्ट्रीय भावना को विकसित करने का प्रयास 8.जीवन को आरोपित, कृत्रिम व बनावटी बनाने से बचें। किया है। भारत एक ऐसा देश है, जहाँ सभी धर्मों, पंथों और परम्पराओं 9.अतीत को भूलें और भविष्य के ख्वाब न देखते रहें। को अपने तरीके से पूजा-आराधना करने का अधिकार है। ऐसी स्थिति 10. मन में शांति का चैनल चलाते रहें। में सबके बीच सद्भाव रखते हुए राष्ट्रीय आदर्शों को महत्त्व देना ही हर इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने अहिंसक चेतना के विस्तार के द्वारा हिंसा भारतीय का कर्तव्य है। का सामना करने का प्रभावी मार्गदर्शन दिया है। 9. अन्य - श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में इन प्रमुख बिन्दुओं के 8. नैतिक मूल्य - किसी भी राष्ट्र की धरोहर उसके नैतिक मूल्य अतिरिक्त परिवार नियोजन, शिक्षा-प्रौद्योगिकी, धर्मांतरण, सफाई, होते हैं। नैतिक मूल्यों के अभाव में राष्ट्र की उन्नति पर प्रश्नचिह्न लग शराब-निषेध जैसे पहलुओं पर भी नया दृष्टिकोण प्रतिपादित किया जाता है। राष्ट्रोत्थान के लिए नैतिक मूल्यों का पालन जरूरी है। श्री गया है - चन्द्रप्रभ के दर्शन में धर्म से ज्यादा नैतिक मूल्यों को आत्मसात करने पर परिवार नियोजन - श्री चन्द्रप्रभ ने देश के लिए परिवार नियोजन बल दिया गया है। वे धर्मभक्त बनने से पहले राष्ट्रभक्त बनने की प्रेरणा को विकासवाद का अनिवार्य अंग माना है। वे जनसंख्या में हो रही देते हैं । नैतिक मूल्यों की महत्ता उजागर करते हुए वे कहते हैं, "नैतिक अतिवद्धि को विश्व के लिए खतरा मानते हैं। वे कहते हैं, "छोटा मूल्यों की नींव से ही समाज व राष्ट्र का निर्माण संभव है। समृद्धि का परिवार सखी परिवार का आधार है। परिवार में सदस्य सीमित होंगे तो कितना ही अंबार क्यों न लग जाए, बगैर नैतिक मूल्यों के व्यक्तित्व का आय का कम व्यक्तियों के लिए अधिक उपयोग हो सकेगा। परिवार निर्माण व देश का उत्थान नहीं हो सकता। दूसरे राष्ट्रों के सामने सीना नियोजन से सख-समृद्धि के साधनों में अभिवृद्धि हुई है, ऊर्जातानकर खड़ा होने का गौरव नैतिक मूल्य ही प्रदान किया करते हैं । देश अपव्यय पर अंकुश लगा है और पुरुषार्थ का संचय हुआ है।" की तरक्की चौड़ी सड़कों और पुलों के निर्माण से नहीं, सत्य और ईमान शिक्षा प्रौद्योगिकी - श्री चन्द्रप्रभ राष्ट-निर्माण में शिक्षा एवं की प्रतिष्ठा करने से होगी।" उन्होंने राष्ट्रभक्त बनने की आवश्यकता पर प्रौद्योगिकी को महत्त्वपर्ण मानते हैं। वे आधनिक शिक्षा का विस्तार जोर देते हुए कहा है, "आज की सबसे बड़ी माँग यह है कि इंसान करने और नई प्रौद्योगिकी का आविष्कार करने के पक्षधर हैं। शिक्षा के धर्मभक्त बनने से पहले राष्ट्रभक्त बने, नहीं तो वह मंदिर का धार्मिक तो संदर्भ में उनका कहना है, "शिक्षा ऐसी जो सृजनात्मक हो, रटाऊ कम बन जाएगा, पर जीवन का धार्मिक नहीं हो पाएगा। नैतिक मूल्यों से समझाऊ ज्यादा हो। अब तो सीधे कम्प्यूटरों से पढ़ाई होनी चाहिए। गद्दारी करने वाला कभी सच्चा धार्मिक नहीं हो सकता। व्यक्ति को इंटरनेट और कम्प्यूटर से पढ़ाई के विविध आयाम विकसित कर लिये हिन्दू, बौद्ध, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई होने से पहले राष्ट्र की संतान होने जाएँ ताकि छोटे और अविकसित देश भी ऊँची-से-ऊँची शिक्षा की का गौरव होना चाहिए।" सुविधा पा सकें।" शिक्षा का स्तर कैसा हो इस संदर्भ में वे कहते हैं, श्री चन्द्रप्रभ जन्म से ही बच्चों को राष्ट्रप्रेम का संस्कार देने की "हमें बेहतरीन इतिहास की जानकारी दे, वैज्ञानिक विषयों की खोज अपील करते हैं। उनका मानना है,"हर इंसान को जन्म से ही धर्म से करवाए, जीने की कला सिखाए, सृजन और कला को बढ़ावा दे, ज्यादा राष्ट-प्रेम के संस्कार देना आवश्यक है। धर्म के नाम पर अपराध और आतंक में कमी हो और मनुष्य प्रेम व सम्मान से सबके इंसानियत को बाँटा जा रहा है। मंदिर-मस्जिद के झगड़ों में इंसानियत बीच जीने का सौभाग्य प्राप्त कर सके। श्री चन्द्रप्रभ ने इस प्रकार शिक्षा का मंदिर ढह रहा है। गिरे हुए मंदिर-मस्जिद तो दुबारा खड़े हो जाएंगे, को उच्च-स्तरीय बनाने का मार्गदर्शन दिया है।" पर इसके बीच पिस रहे इंसान का क्या होगा?" श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म से धर्मांतरण - श्री चन्द्रप्रभ धर्मांतरण के विरुद्ध हैं। उन्होंने धन या ज्यादा राष्ट्रीय मूल्यों को स्थापित करने, नीति के मंदिरों को बनाने और । सुविधाओं के लालच में धर्मान्तरण करना या करवाने को अनुचित माना पश्चिम के राष्ट्र-प्रेम से प्रेरणा लेने की सीख दी है। उनका मानना है, है। वे कहते हैं, "धर्म के बदल लेने भर से हम थोड़े ही बदल जाते हैं। "धर्म-मजहबों को स्थापित करने के लिए अब तक जितना प्रयास जरूरत घाटों को बदलने की नहीं वरन पानी में उतरने और पीने की 136 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * है।"वे धर्मांतरण के साथ संकीर्णता को भी गलत मानते हैं । वे धर्म को सुबह उठकर प्रार्थना और मंत्र-पाठ किया करते थे, अब लोग सुबह मानने की बजाय जीने की प्रेरणा देते हैं। उनकी दृष्टि में, "व्यक्ति हिन्दू उठते ही सिगरेट का कश लेते हैं। अब लोग राम की बजाय रम्मी, व से हो, बौद्ध हो, ईसाई हो, इस्लाम हो या जैन, ऐसा होने में कोई खतरा नहीं विष्णु की बजाय व्हिस्की और श से शंकर की बजाय शैम्पियन कहने है, पर वह साम्प्रदायिक न हो। सम्प्रदाय रहे, पर साम्प्रदायिकता की लग गए हैं।" श्री चन्द्रप्रभ ने दुर्व्यसनों से छुटकारा पाने के लिए कुछ संकीर्णता मानव मन को संकीर्ण न बनाए। महत्व इस बात का नहीं है महत्त्वपूर्ण सूत्र दिए हैं - कौन व्यक्ति किस धर्म का अनुयायी है, वरन् अर्थवत्ता इस बात की है 1. अच्छी आदत के लिए आप अपने बच्चों को अच्छे मित्र कि धर्म के कितने अंशों का मनन और आचरण कर रहा है।" इस तरह दीजिए। श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म की नई दृष्टि उजागर की है। 2. घर-परिवार का वातावरण अच्छा रखिए। गंदगी व दुर्व्यसन - भारत में गंदगी भी एक आम समस्या है। 3. बच्चों को अच्छी कहानियाँ सुनाइए। गली-गली में बिखरी गंदगियाँ बीमारियाँ को जन्म देती हैं। श्री चन्द्रप्रभ 4. टी.वी. पर वही फिल्में और धारावाहिक चलाइए जो ने इस समस्या से निजात पाने के लिए सरकार, प्रशासन, नगरपालिका पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों से जुड़े हों, जिनमें व्यक्तित्व विकास के साथ आम नागरिकों को जागरूक किया है। उन्होंने सभी से भारत की बातें हों। को स्वस्थ और स्वच्छ बनाने की अपील की है। उनका कहना है, 5. घर में अच्छी किताबों की लाइब्रेरी बनाइए। "व्यक्ति घर के साथ मोहल्लों को भी स्वच्छ रखे। पूरे देश में युवाओं 6. संकल्प-शक्ति को मजबूत बनाइए। को सफाई अभियान चलाना चाहिए। हर मोहल्ले में विकास समिति 7. नशा-मुक्ति का संदेश देने वाले विज्ञापनों का प्रसार होना गठित करके आपसी सहयोग द्वारा सफाई की पहल की जानी चाहिए। चाहिए।" 8. गुटखा खाने वाले गुटखे के शब्द से टी को साइलेंट करके श्री चन्द्रप्रभ ने सरकारों से शराब, सिगरेट, गुटखा जैसे मादक। बोलें, फिर भी जी करे तो खाएँ। पदार्थों, थैलियों पर भी पूर्णरूपेण प्रतिबंध लगाने की प्रेरणा दी है। वे 9. आदतों को बदलने के लिए योग और ध्यान कीजिए। कहते हैं, "जिस तरह से प्लास्टिक की थैलियों का चलन बढ़ा है, आने श्री चन्द्रप्रभ ने इस तरह भारत को गंदगी एवं दुव्यर्सनों से मुक्त वाले कल के लिए खतरा बढ़ा है। अतीत में कभी सिंध घाटी की करने पर पूर्ण बल दिया है। सभ्यता की खुदाई में 3000 वर्ष पुराने मिट्टी के कलात्मक बर्तन मिले गौरक्षा - श्री चन्द्रप्रभ गायों की रक्षा के समर्थक हैं। गायों को हैं, पर अगर 3000 वर्ष के बाद खुदाई हुई तो प्लास्टिक की थैलियों के भारतीय संस्कृति में विशेष महत्त्व दिया गया है, पर आधुनिकता के अलावा कुछ नहीं मिलेगा।" उन्होंने पशुओं की मौत का मुख्य कारण चलते लोग गौरक्षा के प्रति उदासीन हुए हैं। उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति के भी प्लास्टिक की थैलियों को बताया है। भीतर गौरक्षा का जोश जगाया है। गौ-हत्या के खिलाफ नारेबाजी करने विश्व में मादक पदार्थों के सेवन का प्रचलन भी बहत बढा है। वालों को आईना दिखाते हुए उन्होंने कहा है, "गौ-हत्या के खिलाफ मादक पदार्थों के चलते अपराध बढ़े हैं, आर्थिक विपन्नता की स्थिति नारेबाजी करने वालों में कितने लोग ऐसे हैं, जिन्होंने घर में एक भी बनी है, दुर्घटनाओं में अभिवृद्धि हुई है,सरकारें चेतावनियाँ तो लिखाती गाय पाल रखी है। हमारे पास कार रखने की जगह है, गाय रखने की हैं, पर राजस्व के चक्कर में इन पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगातीं। नहीं। गाय से ज्यादा कार मूल्यवान हो गई है, पर सारे विश्व के कल्याण परिणामस्वरूप मादक पदार्थों के सेवन में अभिवृद्धि हुई है। इस संदर्भ की कामना और प्राणिमात्र के अभ्युदय से ही हिंदुत्व पुनर्जीवित होता में महोपाध्याय ललितप्रभसागर ने लिखा है, "हमारे देश का यह है।" श्री चन्द्रप्रभ प्रतिवर्ष गौशालाओं में सहयोग भिजवाते हैं। उनके दुर्भाग्य है कि सरकारें नशे की वस्तुओं का निर्माण करने व बेचने का गौशालाओं में कार्यक्रम भी आयोजित होते रहते हैं। इस तरह वे गौसेवा लाइसेंस भी देती हैं और 'नशा करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है' के लिए जनमानस को जागृत करते रहते हैं। यह वैधानिक चेतावनी लिखने के लिए कम्पनियों को बाध्य भी करती निष्कर्ष हैं। इतना ही नहीं, उन्हीं के द्वारा दिए गए टेक्स से नशे से होने वाली उक्त अध्ययन से स्पष्ट होता है कि श्री चन्द्रप्रभ राष्ट्र के प्रति दुर्घटनाओं और बीमारियों की रोकथाम करती हैं। ऐसा करना स्वास्थ्य सकारात्मक एवं क्रांतिकारी सोच रखते हैं। उन्होंने राष्ट्र के अच्छे-बुरे के साथ खिलवाड़ है। केवल चेतावनियाँ लिखने से समस्या का दोनों पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला है। विभिन्न समस्याओं से समाधान नहीं हो सकता। सरकार जन व संत सहयोग से इन पर पूर्ण जूझ रहे भारत को उन्होंने समस्याओं से ऊपर उठने के सहज, सरल एवं प्रतिबंध लगाए। अगर सरकारों को आर्थिक तंगी का सामना करना व्यावहारिक समाधान दिए हैं। राष्ट्रहित को सर्वोच्चता देना उनकी राष्ट्रपड़ेगा तो हम जैसे संत भक्तों के माध्यम से इस क्षतिपूर्ति को पूरा करने भावना को व्यक्त करती है। राष्ट-प्रेम, विश्व-शांति और नैतिक विकास के लिए सदा तैयार रहेंगे। से जुड़ा उनका मार्गदर्शन राष्ट्र और विश्व के लिए एक अनमोल निधि श्री चन्द्रप्रभ ने जनमानस को दुर्व्यसनों के दुष्चक्र से बाहर निकलने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, "जो पढ़े-लिखे होकर भी वैधानिक चेतावनियों को दरकिनार करते हैं, वे बुद्धि की दृष्टि से कोमा में हैं।" वर्तमान परिवेश पर व्यंग्य करते हुए उन्होंने कहा है, "पहले लोग रात को दूध पीकर सोते थे, अब शराब पीकर सोते हैं। पहले लोग संबोधि टाइम्स > 137 है। For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार की बात कहूँ तो श्री चन्द्रप्रभ का जीवन एवं दर्शन विश्व की अमूल्य धरोहर है। उनका दर्शन न केवल भारतीय दर्शन जगत में वरन् सम्पूर्ण विश्व के दर्शन जगत् में विशेष स्थान रखता है। जितना उनका दर्शन अनुपम और अतुलनीय है उतना ही उनका जीवन भी आदर्श एवं प्रेरणास्तंभ स्वरूप है। श्री चन्द्रप्रभ का जीवन प्रेम और ध्यान से ओतप्रोत है। वे ऋजुप्राज्ञ हैं। प्रज्ञा से वे जितने महान हैं हृदय से उतने ही सरल हैं। उनकी दया और करुणा प्राणीमात्र के लिए है। उनकी वाणी में गजब का सम्मोहन है। मनुष्य मात्र को 'प्रभु' कहकर संबोधित करना उनकी महान दृष्टि का द्योतक है। चाहे बाल हो या वृद्ध, युवक हो या युवती, संत हो या गृहस्थ उनसे मिलकर प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। उनसे मिलकर, चर्चा कर व्यक्ति को जो अनुपम आनंद, ज्ञान और सुकून मिलता है वह उसे आजीवन भुला नहीं पाता है। श्री चन्द्रप्रभ के साहित्य में एक विशेष आकर्षण है जो उनको एक बार पढ़ लेता है वह उनकी जीवन-दृष्टि का कायल हो जाता है। वे जहाँ जाते हैं, उन्हें सुनने के लिए छत्तीस कौम के हजारों लोग बेताब रहते हैं। देश के लगभग हर बड़े शहर के मैदानों में उनकी प्रवचनमालाएँ हुई हैं और उनके प्रवचनों में बीस से पच्चीस हजार तक की जनसमुदाय की उपस्थिति देखी गई है जो कि किसी कीर्तिमान से कम नहीं है। उनके द्वारा दिया गया 'माँ की ममता हमें पुकारे, सोचो अगर माँ न होती...' पर प्रवचन तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुआ है। उस प्रवचन की अब तक लाखों वीसीडी बिक चुकी हैं। यही कारण है कि विश्वभर में उन्हें सुनने-पढ़ने वाले लाखों पाठक और श्रोता हैं। क्रांतिकारी राष्ट्र-संत मुनि श्री तरुणसागरजी कहते हैं, "आम तौर पर लोग मुझसे प्रभावित होते हैं, पर मैं श्री चन्द्रप्रभ से प्रभावित हूँ। उनका भ्रातृत्व प्रेम भी देशभर में आदर्श बना हुआ है। श्री चन्द्रप्रभ जी लिखते भी सुंदर हैं, बोलते भी सुंदर हैं और दिखते भी सुंदर हैं। ये ही ऐसे संत हैं जो सिर्फ बोलते ही नहीं, बल्कि जैसा बोलते हैं वैसा जीते भी हैं।" श्री चन्द्रप्रभ काव्य, कहानी और गीतों के सृजन में भी सिद्धहस्त हैं। उन्होंने विश्व के हर धर्म और हर महापुरुषों पर अपने प्रभावी विचार रखे हैं। उनका मानना है, "दीये भले ही अलग-अलग हों, पर ज्योति सबकी एक जैसी है। दुनिया के हर धर्म में महापुरुष हुए हैं, हर धर्म में विचारक एवं चिंतक और चमत्कारी महापुरुष हुए हैं। गुणानुरागी बनकर हम हर धर्म और महापुरुष से कुछ-न-कुछ अवश्य सीख सकते हैं।" श्री चन्द्रप्रभ ने अनुसंधानपरक साहित्य भी लिखा है। उनके द्वारा जीवन-निर्माण, व्यक्तित्व-विकास, पारिवारिक-प्रेम, श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन का सार-संक्षेप Ja138-संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-निर्माण, धर्म, अध्यात्म, ध्यान-योग, शिक्षा, नारी उत्थान, राष्ट्रप्रेम, विश्व-कल्याण पर प्रस्तुत किए गए सिद्धांत एवं विचार अमूल्य हैं। उन्होंने धर्म, अध्यात्म, समाज, राष्ट्र और विश्व को जो दिया है वह उन्हें महान दार्शनिकों की श्रेणी में स्थापित करता है। श्री चन्द्रप्रभ झरने सा बहता जीवन नामक पहले अध्याय के विवेचन से स्पष्ट होता है कि श्री चन्द्रप्रभ जैन संत हैं, पर वे किसी भी धर्म विशेष के दायरे तक सीमित नहीं हैं। उन्हें छत्तीस कौम की जनता प्रेम से पढ़ती और सुनती है इसलिए वे जैन संत कम, जन संत अधिक हैं। वे राजस्थान के बीकानेर में 10 मई 1962 को जन्मे । जन्म से पूर्व मातुश्री जेठी देवी ने स्वप्न में शीतल चन्द्रमा को धरती पर उतरते हुए देखा। यह स्वप्न किसी महापुरुष के धरती पर अवतरण लेकर सारी दुनिया को शीतलता प्रदान करने का शुभ संकेत दे रहा था । प्राचीन साहित्य और इतिहास के महान विद्वान अगरचंद नाहटा उनके नानाजी थे। ज्ञान रश्मियों से परिपूर्ण नानाजी के घर पर उनका जन्म होना अपने आप में उज्ज्वल भविष्य की सूचना दे रहा था। उनका नाम 'पुखराज' रखा गया। उनके तीन बड़े भाई व एक छोटा भाई है। वे बचपन से ही मेधावी, साहसी और संस्कारशील रहे हैं। श्री चन्द्रप्रभ पन्द्रह वर्ष के हुए, तो उनके पिता-माता एवं छोटे भाई ने जैन धर्म में संन्यास ले लिया। माता-पिता की सेवा, भ्रातृत्व प्रेम और आध्यात्मिक जीवन जीने के लिए उन्होंने भी 17 वर्ष की किशोरवय में संन्यास (दीक्षा) जीवन अंगीकार कर लिया। पुखराज से वे मुनि चन्द्रप्रभसागर महाराज बन गए। लगभग तीन वर्ष पश्चात् उनके पितासंत उन्हें शास्त्रीय अध्ययन करवाने के लिए बनारस ले गए। बनारस में श्री चन्द्रप्रभ ने अनेक सुयोग्य विद्वानों के मार्गदर्शन में विभिन्न धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया। उन्होंने वहीं पर राजस्थान के महान कवि और साहित्यकार समयसुंदर के व्यक्तित्व और कृतित्व पर शोध-प्रबंध भी लिखा। श्री चन्द्रप्रभ के ओजस्वी व्यक्तित्व और कृतित्व के चलते संघ - समाज एवं विश्वविद्यालयों द्वारा उन्हें समय-समय पर अनेक सम्माननीय उपाधियों से अलंकृत किया गया। उन्होंने हम्फी और माउंट आबू की गुफाओं में साधना की और वहाँ उन्हें आत्मप्रकाश उपलब्ध हुआ। आत्मज्ञान होने के पश्चात् उन्होंने अपनी समस्त पदवियों और उपाधियों का त्याग कर दिया। साधना को गहराई देने के लिए वे सन् 1992 हिमालय चले गए। वहाँ उन्होंने लगभग डेढ़ वर्ष तक साधना की। उन्होंने जोधपुर में आध्यात्मिक साधना के लिए 'संबोधि धाम' का निर्माण करवाया जो आज हर जाति और पंथपरम्परा के लिए राष्ट्रीय स्तर का साधना केन्द्र बन चुका है। इसके अलावा श्री चन्द्रप्रभ के सान्निध्य में सम्मेतशिखर जी तीर्थ पर जैन म्यूजियम, कलकत्ता में श्री जितयशा फाउंडेशन, जोधपुर में जय श्री देवी मनस चिकित्सा केन्द्र, गुरु महिमा मेडिकल रिलीफ सोसायटी, जोधपुर एवं भीलवाड़ा में संबोधि महिला मण्डल, बाड़मेर में संबोधि बालिका मंडल, नीमच में गुरु महिमा पक्षी चिकित्सालय, इंदौर में संबोधि नारी निकेतन आदि अनेक सेवा संस्थाओं का गठन हुआ। श्री चन्द्रप्रभ ने हजारों भाई बहिनों को संबोधि साधना' की दीक्षा प्रदान की और स्वयं मुझे भागवती दीक्षा (संन्यास) प्रदान की। श्री चन्द्रप्रभ ने सदाचार और सद्विचारों को जनमानस में फैलाने के लिए देश के कोने-कोने तक पदयात्रा की। यद्यपि वे पैदल चलते हैं, पर उन्होंने वाहन यात्रा का समर्थन किया है। अब तक अलग-अलग शहरों में उनके 32 चातुर्मास हो चुके हैं। उन्होंने गुजरात में दो, दिल्ली में एक, उत्तरप्रदेश में तीन, पश्चिम बंगाल में एक, तमिलनाडू में दो, महाराष्ट्र में एक, मध्यप्रदेश में तीन और राजस्थान में अठारह चातुर्मास किए हैं। श्री चन्द्रप्रभ बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। उन्होंने जीवन और अध्यात्म से जुड़े विविध पहलुओं पर विशाल साहित्य सृजित कर न केवल कीर्तिमान स्थापित किया है बल्कि जीवन जीने की सही राह दिखाई है। वे स्वभाव से सरल, आत्म-दृष्टि से ओतप्रोत एवं विरक्त हैं। उनकी दृष्टि जीवन - सापेक्ष है । उनकी भारतीय धर्मशास्त्रों पर मजबूत पकड़ है। उन्होंने युगीन संदर्भों में युगीन धर्म को प्रस्तुत किया है। वे धर्म के उद्धारक होने के साथ महान जीवन द्रष्टा, मानवता के महर्षि, ज्ञान के शिखर पुरुष, विशाल साहित्य के सर्जक, शोध मनीषी, गीता मर्मज्ञ, देश के शीर्षस्थ प्रवचनकार, मनोवैज्ञानिक शैली के जन्मदाता, हर समस्या के तत्काल समाधानकर्ता, जीवंत काव्य के रचयिता, शब्दों के जादूगर, सहज जीवन के मालिक, सौम्य व्यवहार के धनी, सदाचार और मर्यादा की जीवंत मूर्ति, प्रेम की साक्षात प्रतिमा, परम मातृभक्त, भ्रातृत्व प्रेम की मिसाल, नये परिवार एवं समाज के निर्माता, राष्ट्रीय चेतना के उन्नायक निष्काम कर्मयोग के प्रेरक, क्रांति के पुरोधा, सफल मनोचिकित्सक, सफलता के मंत्रदृष्टा, सत्य के प्रतिष्ठाता, सर्वधर्म के महान प्रवक्ता, सर्वधर्मसद्भाव के प्रणेता, आध्यात्मिक चेतना के धनी, मौन धर्म के सहज उपासक, संबोधि साधना मार्ग के प्रवर्तक, शांतिदूत, गीतकार एवं आम जनता के करीब हैं। श्री चन्द्रप्रभ का जीवनमूलक एवं व्यावहारिक साहित्य नामक दूसरे अध्याय के विवेचन से कहा जा सकता है कि श्री चन्द्रप्रभ एक महान साहित्यकार और चिंतक हैं। मानव समाज के लिए उनका साहित्य एवं चिंतन प्रकाश स्तंभ का काम करता है। उनकी पुस्तकें यानी जीवन की हर समस्या का समाधान | श्री चन्द्रप्रभ यानी नई उम्मीद, नया उत्साह, नई ऊर्जा इंसान की मूर्च्छित चेतना को जगाने के लिए श्री चन्द्रप्रभ का साहित्य और दर्शन एक तरह से इंकलाब का पैगाम है। नई उम्मीद और आत्मविश्वास से भरा उनका साहित्य नई पीढ़ी के लिए वरदान स्वरूप है। उन्होंने चिंतन, दर्शन, काव्य, कथा, अनुसंधान आदि वाङ्गमय के समस्त अंगों पर साहित्य लिखकर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है। उनका साहित्य जीवन-जगत के वास्तविक सत्य को उद्घाटित करने वाला है भारतीय एवं विश्वस्तर के साहित्य निर्माताओं में श्री चन्द्रप्रभ का नाम गौरव के साथ लिया जाता है। " - For Personal & Private Use Only श्री चन्द्रप्रभ का साहित्य तीन भागों में बाँटा गया है। 1. व्यावहारिक साहित्य 2. सैद्धांतिक साहित्य व 3. अन्य साहित्य। दूसरे अध्याय में श्री चन्द्रप्रभ द्वारा लिखे गए व्यावहारिक साहित्य का समावेश किया गया है। व्यावहारिक साहित्य की श्रेणी में जीवननिर्माणपरक, व्यक्तित्व निर्माणपरक और राष्ट्र एवं विश्व संबोधि टाइम्स 139 . Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्माणपरक साहित्य को रखा गया है। हर साहित्य रचना के प्रकाशक, प्रकाशन वर्ष, पृष्ठ संख्या, अध्याय संख्या एवं पुस्तक के संपादन आदि का नामोल्लेख प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक के हर अध्याय की समीक्षा करने के साथ पुस्तक का निष्कर्ष भी प्रस्तुत किया गया है। श्री चन्द्रप्रभ के जीवन-निर्माणपरक साहित्य में जीवन जीने की कला का विस्तार से मार्गदर्शन प्रस्तुत हुआ है। वे जीवन प्रेमी दार्शनिक हैं। उन्होंने जीवन को सुखी, सफल और मधुर बनाने का जो सरस मार्ग दिखाया है वह अद्भुत है। उनके जीवन-निर्माणपरक साहित्य में स्वास्थ्य, शांति और समृद्धि पाने के कीमिया सूत्र दिए गए हैं। माँ ममता, पारिवारिक प्रेम, तनाव मुक्ति, सदाबहार प्रसन्न रहने की कला, सकारात्मक सोच, आत्मविश्वास, बच्चों के संस्कार, बुढ़ापे का आनंद, घर का स्वर्ग जैसे ढेर सारे बिंदुओं पर बेहतरीन मार्ग प्रस्तुत किया गया है। उन्होंने 'बातें जीवन की जीने की' एवं 'बेहतर जीवन के बेहतर समाधान' नामक पुस्तक में जीवन से जुड़ी 45 तरह की जिज्ञासाओं का मनोवैज्ञानिक एवं व्यावहारिक समाधान दिया है जो कि युवाओं के लिए रामबाण औषधि की तरह है। इन समाधानों के बारे में प्रसिद्ध कवि एवं लेखक बाल कवि वैरागी कहते हैं, " श्री चन्द्रप्रभ के संवाद नये युग के लिए नई संजीवनी की तरह है। " " , श्री चन्द्रप्रभ के व्यक्तित्व-निर्माणपरक साहित्य में समग्र व्यक्तित्व का निर्माण करने एवं जीवन में सफलता की ऊँचाइयों को पाने के प्रभावी सूत्र दिए गए हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने लक्ष्य को पाने, औरों का दिल जीतने प्रतिक्रियाओं से ऊपर उठने, भय से मुक्त होने, स्वस्थ सोच के स्वामी बनने, समय को बेहतर बनाने, मुस्कान को बढ़ाने, शांति पाने, सहज और सजग जीवन जीने, ध्यान से स्वयं को जानने, आनंददायी धर्म का अनुसरण करने, कामयाबी पाने, आत्मविश्वास जगाने, तनाव घटाने, निश्चिंत जीवन जीने, सहानुभूति अपनाने, आशावान बनने, स्वभाव में सौम्यता लाने, प्रेमपथ अपनाने, स्वयं को सार्थक दिशा देने, योगासन-प्राणायाम और ध्यान करने, लेश्याएँ बदलने, सुख से जीने, क्रोध से बचने, अंतर्मन को मजबूत बनाने, मन की शांति पाने, केरियर का निर्माण करने, दिमाग को अच्छा बनाने, बोलने की कला सीखने, मानसिक विकास करने, सफल होने, आहार में छिपे आरोग्य को बताने के प्रभावी विचार प्रस्तुत किए हैं। श्री चन्द्रप्रभ के राष्ट्र एवं विश्व निर्माणपरक साहित्य में भारतीय संस्कृति के उदात्त मूल्यों का विवेचन किया गया है एवं राष्ट्र व विश्व की युगीन समस्याओं का बेहतरीन समाधान दिया गया है। श्री चन्द्रप्रभ का सैद्धांतिक एवं अन्य साहित्य नामक तीसरे अध्याय से सिद्ध होता है कि उनका सैद्धांतिक साहित्य धर्म या जाति विशेष की सीमाओं से ऊपर है, वह सभी दिशाओं और विद्याओं में गतिशील रहा है । वे प्रगति और परिणाम में विश्वास रखते हैं । गतानुगतिक होकर चलना उन्हें रास नहीं आता। उन्होंने रूढ़ क्रियाकांडों, सामाजिक आडम्बरों और पंथवाद का खुलकर विरोध किया है। उनका साहित्य एकदेशीयता अथवा साम्प्रदायिक संकीर्णता से मुक्त है। उनके विचार सार्वभौम, सार्वजनीन और सार्वकालिक हैं। उन्होंने सभी धर्मों एवं महापुरुषों पर लिखा है। उनका साहित्य हर Ja 140 संबोधि टाइम्स जाति- कौम के संतों और लोगों के द्वारा बहुतायत मात्रा में पढ़ा एवं मनन किया जाता है। श्री चन्द्रप्रभ वास्तव में मानवता के संत हैं । वे सर्वधर्म सद्भावी एवं अध्यात्मनिष्ठ दार्शनिक हैं। वे दार्शनिक व चिंतक होने के साथ महान काव्यकार, गीतकार एवं कहानीकार भी हैं। उनका बहुआयामी साहित्य उनके महान व्यक्तित्व एवं कृतित्व को प्रकट करता है। महाकवयित्री महादेवी वर्मा, प्रसिद्ध समालोचक डॉ. प्रभाकर माचवे और राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी ने उनकी काव्यप्रतिभा की खुलकर प्रशंसा की है। श्री चन्द्रप्रभ ने भगवान श्री महावीर के आगमों एवं सूत्रों पर, भगवान श्री बुद्ध के धम्मपद पर भगवान श्रीकृष्ण की गीता पर, कठोपनिषद् पर, आचार्य कुंदकुंद, योगीराज आनंदघन और श्रीमद् राजचन्द्र के पदों पर विवेचना कर उनमें छिपे गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित किया है। श्री चन्द्रप्रभ ने अपने साहित्य लेखन के शुरुआती चरण में कुछ अनुसंधान मूलक लेखन भी किया है। उन्होंने आगम शास्त्र आयार सुतं का अनुवाद एवं उस पर चिंतन प्रस्तुत किया है। उन्होंने प्राकृत भाषा एवं हिन्दी भाषा की सूक्तियों का विशाल संग्रह तैयार कर उन्हें प्राकृत एवं हिन्दी के विश्वकोश के रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने 'महोपाध्याय समयसुंदर व्यक्तित्व एवं कृतित्व' विषय पर शोध प्रबंध लिखकर महामहोपाध्याय की उपाधि प्राप्त की थी। खरतरगच्छ के इतिहास पर किया गया उनका अनुसंधान एवं लेखन इतिहास पाठकों के लिए दीपशिखा का काम करता है। भगवान महावीर के उपदेश अलग-अलग आगमों में संकलित हैं। उनका स्वरूप इतना विशाल है कि आम आदमी उससे लाभान्वित नहीं हो सकता। श्री चन्द्रप्रभ को यह कमी खली । उन्होंने आगम-शास्त्रों का आलोड़न करते हुए उनके प्रमुख सूत्रों का उपयोग किया और 'जिनसूत्र' के नाम से महावीरवाणी को सम्पादित किया। जैसे हिन्दुओं का सार-संदेश गीता में है वैसे ही जैन धर्म का सार - संदेश जिनसूत्र में है । जिनसूत्र यानी समस्त जैन आगमों की कुंजी, जैन धर्मशास्त्रों का प्रवेश-द्वार । इसी तरह श्री चन्द्रप्रभ की काव्य-कविताएँ गागर में सागर की तरह हैं। बड़ी बात को कुछ पंक्तियों में समेट कर उनमें कबीर और रहीम की गहराई भर देना उनके काव्य की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। उन्होंने अंतर्मन की संवेदनशीलता को युगीन छवि के साथ पेश किया है । उनकी काव्य-कविताओं में अतीत के आदर्श, वर्तमान की सच्चाई और भविष्य की आशा का अद्भुत समावेश है। उनकी कविताएँ दार्शनिकता के साथ धार्मिक एवं नैतिक पक्ष को भी उजागर करती हैं। इसलिए उनके गीत एवं कविताएँ हर आम आदमी के लिए उपयोगी हैं । श्री चन्द्रप्रभ का कहानीकार का स्वरूप भी उल्लेखनीय है। उन्होंने कहानियों की पाँच किताबें लिखी हैं। सभी कहानियों में नैतिक जीवन जीने की प्रेरणाएँ दी गई हैं। भाव एवं भाषा की दृष्टि से कहानियों में नयापन है, जीवंत चित्रण है जो जीवन एवं समाज को नई दिशा प्रदान करता है । श्री चन्द्रप्रभ महान गीतकार एवं महान गायक भी हैं। उन्होंने जितने रसभीने भजन बनाए हैं वे उन्हें उतनी ही सरसता से गाते भी हैं। For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनमें कुछ भजन तो राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चित हुए हैं। आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नरक, मोक्ष से जुड़े विचार-दर्शन को उनके भजन लोगों की जबान पर रहते हैं, कुछ पंक्तियाँ तो मोबाइल की प्रतिपादित करने की बजाय जीवन से जुड़ा सिद्धांत एवं विचार-दर्शन टॉन भी बनी हुई हैं। जब वे भजन गाते हैं तो जनता झूमने को विवश हो प्रस्तुत किया है जो उनकी मौलिक दृष्टि को उजागर करता है। जाती है। उन्होंने शताधिक भजनों की रचना की है। हर भजन में नई श्री चन्द्रप्रभ ने न केवल जीवन को सर्वाधिक महत्त्व दिया है वरन् चेतना और नई प्रेरणा है। उन्होंने हिन्दी में अनेक स्तोत्रों और इकतीसों उसे धरती का पहला जीवित शास्त्र भी माना है। सभी संत धर्मशास्त्रों की रचना की है जो आज घर-घर में सुबह की आराधना में गाए और को पढ़ने और परमात्मा से प्रेम करने की प्रेरणा देते हैं, पर उन्होंने पढ़े जाते हैं। अष्टावक्र गीता के अठारह अध्यायों को मात्र अठारह धर्मशास्त्रों से पहले जीवन का पारायण करने और परमात्मा से पहले श्लोकों में आबद्ध कर लेना उनकी ऋतम्भरा प्रज्ञा का परिणाम है। जीवन से प्रेम करने की प्रेरणा देकर नई पहल की है। वे जीवन को धर्म उन्होंने जैन धर्म के महान स्तोत्र भक्तामर पर हिन्दी में प्रभावशाली और संन्यास से भी ऊपर रखते हैं। अब तक धर्म को जीवन से श्रेष्ठ चौपाइयाँ लिखी हैं। उन्होंने जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों पर चौबीस माना गया और सम्प्रदायवाद के नाम पर जीवन को कुचल दिया गया। स्तुतियों एवं गीतों की भी रचना की है। इसलिए तो कहा जाता है - ऐसी परिस्थिति में श्री चन्द्रप्रभ का यह कहना बहुत मायने रखता है, संत चन्द्रप्रभसागर तुमने, "धर्म का जन्म मनुष्य के लिए हुआ है न कि मनुष्य का जन्म धर्म के गीतों में क्या कमाल किया है। लिए।" उन्होंने जीवन की महत्ता सिद्ध करने के साथ खुशनुमा जीवन वाणी में वीणा सरसाती, जीने की कला भी सिखाई है। भौतिकता की अंधी दौड़ में मनुष्य ने तबले जैसा ताल दिया है। सुविधाओं को तो बटोर लिया, पर उसकी हँसी और खुशी गायब हो गई वास्तव में, श्री चन्द्रप्रभ की दार्शनिक दृष्टि एवं लिखा गया है। ऐसी स्थिति में श्री चन्द्रप्रभ ने हँसते-मुस्कुराते हुए जीवन जीने के साहित्य अनुपम और बेजोड़ है। साहित्य एवं ज्ञान की विपुलता एवं अनेक कीमिया मंत्र बताकर मानवजाति को जीवन जीने का सही - सार्थक रास्ता दिया है। विस्तार की दृष्टि से देखा जाए तो श्री चन्द्रप्रभ अपने आप में एक चलते-फिरते एनसाइक्लोपीडिया हैं। श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में शारीरिक स्वास्थ्य के साथ मानसिक एवं श्री चन्द्रप्रभ का सिद्धांत एवं विचार-दर्शन नामक चौथे अध्याय से भावनात्मक स्वास्थ्य के सूत्र भी प्राप्त होते हैं। वे स्वस्थ जीवन हेतु तप एवं भोग की अतिवादिता से बचने और इन्द्रिय संयम तथा मानसिकपता चलता है कि श्री चन्द्रप्रभ का सिद्धांत एवं विचार-दर्शन सशक्त, शुद्धि पर जोर देते हैं। एक तरह से वे मध्यम मार्ग सिद्धांत के पक्षधर हैं। वैज्ञानिक, तर्कयुक्त, परिमार्जित एवं सकारात्मकता की आभा लिए हुए है। श्री चन्द्रप्रभ के जीवन में महावीर की साधना, बुद्ध की मध्यम श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन की यह विशेषता है कि वे इंसान की आध्यात्मिक समृद्धि के साथ उसकी भौतिक समृद्धि में भी विश्वास दृष्टि, कबीर की क्रांति, मीरा की भक्ति और आइंस्टीन की वैज्ञानिक रखते हैं। उनके जीवन-दर्शन में भौतिक ऊँचाइयों को छूने का सच्चाई है। उन्होंने उन्हीं सिद्धांतों एवं विचारों को प्रतिपादित किया है मार्गदर्शन भी विस्तार से प्राप्त होता है। प्रायः संत या धर्मगुरु जो वर्तमान जीवन को सुखी, सफल और मधुर बनाते हैं एवं उज्ज्वल आध्यात्मिक विकास का मार्ग बताते हैं, पर श्री चन्द्रप्रभ ने सफलता भविष्य की नींव तैयार करते हैं। उन्होंने धार्मिक एवं आध्यात्मिक पाने और समृद्ध बनने की प्रेरणा देकर क्रांतिकारी पहल की है। समाज मूल्यों को युगीन भाषा में प्रस्तुत किया है, साथ ही अनुपयोगी तथ्यों को की कड़वी सच्चाइयों को उजागर करते हुए वे कहते हैं, "मैं धन छोड़ने नकारने का साहस दिखाया है। की बजाय धनवान बनने की प्रेरणा देता हूँ। आज के समाज में केवल श्री चन्द्रप्रभ के विचार-दर्शन की सबसे खास बात यह है कि अमीरों की इज्जत होती है। संत लोग भी पैसे वालों को तवज्जो ज्यादा उन्होंने धर्म शास्त्रों की व्याख्या करने की बजाय जीवन-जगत् के सूक्ष्म देते हैं। मंदिर की प्रतिष्ठा के समय प्रतिदिन प्रभ-पूजा करने वाले को रहस्यों को सरलता एवं उपयोगिता के साथ प्रस्तुत किया है। उन्होंने तो किनारे बिठा दिया जाता है और चढावा देने वालों को सर्वेसर्वा बना भौतिकता के बढ़ते प्रभाव से उत्पन्न समस्याओं का व्यावहारिक दिया जाता है। इसलिए हर व्यक्ति समृद्ध बने। अपरिग्रह का सिद्धांत समाधान दिया है। उन्होंने जीवन, व्यक्तित्व, स्वास्थ्य, परिवार, धर्म, अमीरों के लिए है, गरीबों के लिए नहीं।" इस तरह उन्होंने समय समाज, अध्यात्म, राष्ट्र, विश्व से जुड़े हर पहलू पर मौलिक चिंतन सापेक्ष विचार प्रस्तुत कर परम्परागत ढर्रे से स्वयं को मुक्त किया है। . दिया है। साथ ही उनके सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों पक्षों को उन्होंने कॅरियर और कामयाबी से जुड़ी एक दर्जन से अधिक पुस्तकें उजागर कर विश्व के नव निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लिखकर धर्मसमाज के सामने नया आदर्श प्रस्तुत किया है। देश का श्री चन्द्रप्रभ का जीवन-दर्शन वर्तमान युग के लिए वरदान स्वरूप युवावर्ग उनके सफलता से जुड़े साहित्य को बड़े चाव से पढ़ता है और है। उन्होंने जीवन के अनेक सक्ष्म रहस्यों को उद्घाटित कर आम उन्हें धर्मगुरु के साथ प्रबंधन गुरु के रूप में अधिक देखता है। श्री व्यक्ति के जीवन स्तर को ऊपर उठाने की कोशिश की है। जीवन चन्द्रप्रभ की कॅरियर और कामयाबी से जुड़ी कुछ खास पुस्तकें इस सबको प्रिय है। चाहे कोई आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नरक को माने या प्रकार हैं - 1. लक्ष्य बनाएँ, पुरुषार्थ जगाएँ। 2. क्या करें कामयाबी के माने, पर जीवन का सत्य सबके समक्ष है। हर कोई जीवन को आनंद लिए। 3. आपकी सफलता आपके हाथ। 4. सकारात्मक सोचिए उत्सव पूर्ण बनाना चाहता है और रोजमर्रा के जीवन में आने वाली सफलता पाइए। 5. कैसे बनाएँ अपना कॅरियर। 6. सफल होना है समस्याओं से छुटकारा पाना चाहता है। इन दोनों लक्ष्यों को साधने में पाना चाहता है। इन दोनों लश्यों को मामले में ता... तो...। उन्होंने इन पुस्तकों के अंतर्गत सफलता पाने के निम्न सूत्र दिए श्री चन्द्रप्रभ का जीवन-दर्शन खरा साबित हुआ है। श्री चन्द्रप्रभ ने संबोधि टाइम्स -141 For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1.लक्ष्य का निर्धारण करें। इस तरह उन्होंने इंसान को सुखी-समृद्ध, पर सहज-सरल और 2. इच्छा-शक्ति का जागरण करें। निष्पृह जीवन जीने की प्रेरणा दी है। 3.आत्मनिर्भरता को प्राथमिकता दें। नैतिक मूल्यों और मानवीय मूल्यों पर जोर देने के साथ श्री 4.आशा और आत्मविश्वास से भरे रहें। चन्द्रप्रभ पारिवारिक मूल्यों को भी महत्त्व देते हैं। पारिवारिक विघटन 5.सकारात्मक सोच के मालिक बनें। की समस्या को रोकने के लिए एवं रिश्तों में मिठास घोलने के लिए श्री 6. समय-प्रबंधन करें। चन्द्रप्रभ का परिवार-दर्शन किसी चमत्कार से कम नहीं है। घर में 7.परिस्थितियों को चुनौती के रूप में स्वीकार करें। मंदिर बनाने की बजाय घर को मंदिर बनाना और धर्म की शुरुआत 8.कठोर मेहनत करें। मंदिर-मस्जिद से करने की बजाय घर से करने की प्रेरणा देना उनके 9.समय-समय पर कार्ययोजना बनाएँ। दर्शन की नई देन है। उन्होंने भगवान के मंदिरों से ज्यादा बच्चों का 10. बेहतरीन शिक्षा प्राप्त करें। नवनिर्माण करने वाले मंदिरों को बनाने की आवश्यकता पर जोर देकर 11. उग्रता से बचें। समाज को उद्देश्यपूर्ण मार्गदर्शन दिया है। वे माता-पिता में ईश्वर का नूर 12. हर परिस्थिति में प्रसन्न रहें। देखते हैं और भाई-भाई को रामायण से जीवन जीने की कला सीखने 13. सफलता के नये द्वार तलाशते रहें। की प्रेरणा देते हैं। भाई अगर भाई का साथ दे, तो भाई जैसा कोई मित्र श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में जीवन को स्वर्गनुमा बनाने के लिए नहीं और भाई अगर भाई को दगा दे जाए तो भाई जैसा कोई शत्रु नहीं। बेहतरीन मार्गदर्शन दिया गया है। भारतीय धर्मशास्त्र स्वर्ग-नरक की वे कहते हैं, "समाज में दान या चंदा लिखाने से पहले अपने उस भाई व्याख्याओं से भरे पड़े हैं, पर श्री चन्द्रप्रभ ने स्वर्ग-नरक को का सहयोग करो जो आर्थिक रूप से कमजोर हो। जो भाई भाई का पारलौकिकता से मुक्त करने का साहसी कदम उठाया है। उन्होंने साथ देता है वह अगर बड़ा है तो पिता के समान है और छोटा है तो पुत्र स्वर्ग-नरक की जीवन-सापेक्ष व्याख्या कर भारतीय दर्शन को नया के समान।" श्री चन्द्रप्रभ ने सुखी-स्वस्थ-सुरक्षित बुढ़ापे और आयाम प्रदान किया है। वे कहते हैं."स्वर्ग-नरक कोई आसमान या वसीयतनामे के बारे में जो मार्गदर्शन दिया है, वह संजीवनी औषधि की पाताल के नक्शे नहीं है, वरन् ये दोनों ही जीवन के पर्याय हैं। शांत तरह है। श्री चन्द्रप्रभ के प्रवचनों से प्रेरित होकर हजारों टूटे परिवार चित्त स्वर्ग है, अशांत चित्त नरक, प्रसन्न हृदय स्वर्ग है, उदास मन आपस में जुड़े हैं, यह किसी भी विचारक की बहुत बड़ी सफलता है। नरक। हर प्राप्त में आनंदित होना स्वर्ग है, व्यर्थ की लालसाओं में धार्मिक संकीर्णता को कम करने और साम्प्रदायिक सद्भाव का उलझे रहना नरक है। यह व्यक्ति पर निर्भर है कि वह अपने आपको वातावरण निर्मित करने में श्री चन्द्रप्रभ के धर्मदर्शन ने महत्त्वपूर्ण नरक की आग में झुलसाए रखना चाहता है या स्वर्ग के मधुवन में भूमिका निभाई है।श्री चन्द्रप्रभ ने न केवल धर्म को वैज्ञानिक रूप दिया आनंदभाव से अहोनृत्य करना चाहता है।"उन्होंने मधुर जीवन जीने के वरन् उसे जीवन के साथ जोड़ा और जीवन की समस्याओं को समाधान लिए निम्न सूत्र जीवन से जोड़ने की प्रेरणा दी है - के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने धर्म के तीन चरण स्वीकार किए - 1.चित्त की प्रसन्नता। पहला : कर्तव्य-पालन, दूसरा : नैतिक आचरण, तीसरा : आत्मिक 2.जीवन-शैली में निखार उन्नति । उनकी दृष्टि में, "पारिवारिक सदस्यों के प्रति रहने वाले 3.स्व-प्रबंधन कर्तव्यों का पालन करना इंसान का पहला धर्म है। इंसान होकर इंसान 4.सरल स्वभाव के काम आना इंसान का दूसरा धर्म है। भीतर की कमियों और 5. तनाव-मुक्ति कमजोरियों पर विजय पाना इंसान का तीसरा धर्म है और दुनिया के हर 6.सकारात्मक मनोदशा धर्म और महापुरुष का सम्मान करना चौथा व अंतिम धर्म है।" उन्होंने 7.मधुर वाणी घर-परिवार के लिए राम व रामायण को, व्यापारिक समृद्धि के लिए 8.सौम्य व्यवहार 9.प्रेमी हृदय श्रीकृष्ण को और आत्मिक उन्नति के लिए महावीर को आदर्श बनाने 10.ईश्वर में विश्वास की प्रेरणा देकर धार्मिक सद्भाव की अनूठी मिसाल पेश की है। श्री चन्द्रप्रभ के जीवन-दर्शन की यह मुख्य विशेषता है कि उन्होंने श्री चन्द्रप्रभ का धर्मदर्शन सामाजिक उत्थान के लिए नींव का जीवन में सफलता के साथ शांति पाने की कला भी सिखाई है। शांति और काम करता है। उन्होंने एक ओर जीमणवारी और पत्थरों पर हो रहे असीमित खर्चों को अनुचित ठहराया है वहीं दूसरी ओर अमीर लोगों सफलता सामान्यतौर पर विपरीत ध्रुव हैं, दोनों को पाना आम व्यक्ति के लिए मुश्किल है, पर श्री चन्द्रप्रभ ने दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने को गरीब भाइयों को ऊपर उठाने का पाठ पढ़ाकर स्वस्थ समाज की का बेजोडरास्ता दिखाया है। उन्होंने शांति पाने हेतु निम्न सूत्र बताए हैं संरचना में योगदान दिया है। उन्होंने गरीब भाइयों को रोजगार दिलाने के 1.चिंतामुक्त रहें। लिए सामाजिक बैंकों की स्थापना की है। जहाँ से बगैर ब्याज के धन 2.क्रोध पर नियंत्रण करें। लेकर घरेलू लघु उद्योग प्रारम्भ किये जा सकते हैं। 3. मन को शांत और प्रसन्न रखें। श्री चन्द्रप्रभ ने विविध धर्मों के सिद्धांतों एवं महापुरुषों की 4.सहज जीवन जिएँ। सकारात्मक व्याख्या कर उनमें निकटता स्थापित करने में सफलता पाई 5.प्रतिक्रियाओं से बचे रहें। है। उन्होंने धर्म को रूढ़ मान्यताओं और क्रियाओं से ऊपर उठाकर उसे 16142 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवीय मूल्यों के साथ जोड़कर मानवता के लिए कल्याण-मित्र की चाहता है। ऐसी स्थिति में ध्यान के प्रयोगों को सरल, संक्षिप्त बनाने एवं भूमिका अदा की है। धर्म को राजनीति से अलग रखने व राजनीति पर चमत्कारी परिणाम देने के रूप में सिद्ध करने की आवश्यकता है। अगर धर्मनीति का अंकुश लगाने की उनकी प्रेरणा भटकती राजनीति को संबोधि साधना के मार्ग में ऐसे प्रयोग आविष्कृत होते हैं तो यह मार्ग सार्थक दिशा-दर्शन है। उन्होंने अपने धर्मदर्शन में नारी को विकास के मानवता के लिए और अधिक उपयोगी बन सकता है। अधिकाधिक अवसर देने, शिक्षा को अर्थ के साथ संस्कारशील बनाने, भारतीय दर्शन में आध्यात्मिक तत्त्वों की विस्तार से विवेचना हुई धर्म और विज्ञान में परस्पर संतुलन बिठाने, पर्यावरण-रक्षा के प्रति है, पर परम्परागत दुरूहता के चलते आम व्यक्ति का आध्यात्मिकता से सजग होने और ध्यान-योग के द्वारा तन-मन को स्वस्थ और निर्मल जडाव कम हो पाया है। इस संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ का आत्मदर्शन आम बनाने के सटीक सूत्र दिए हैं। उन्होंने युवाओं की धर्मभावना की प्रशंसा व्यक्ति के काफी करीब है। उन्होंने आध्यात्मिक तत्त्वों को करते हुए उन्हें व्यसन और फैशन से बचने और राष्ट्रनिर्माण में सदैव व्यावहारिकता एवं वैज्ञानिकता के साथ जोड़कर प्रस्तुत किया है। तत्पर रहने के लिए उत्साहित किया है। श्री चन्द्रप्रभ का धर्मदर्शन उन्होंने अध्यात्म को पारलौकिक शक्ति के साथ जोड़ने की बजाय निश्चित रूप से नये युग के लिए अत्यन्त वैज्ञानिक, तार्किक एवं आंतरिक शक्ति के साथ सम्पर्क साधने के रूप में स्थापित किया है। वे व्यावहारिक है। आध्यात्मिक साधना के लिए एकांतवास से ज्यादा स्वयं की ध्यान और योग साधना हमारी आध्यात्मिक संस्कृति के प्राण हैं। मानसिकता को शांतिमय व आनंदम बनाने पर बल देते हैं। उन्होंने श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन से ध्यान-योग और साधना का मार्ग समृद्ध हुआ आत्मतत्त्व की सिद्धि के लिए शास्त्रोक्त उद्धरण देने की बजाय स्वयं में है।आधुनिक जीवन शैली से उपजी चिंता और तनावजनित मानसिक उतरकर स्वअनुभव को महत्त्व दिया है। उन्होंने स्वयं से मैं कौन हूँ', समस्याओं के निवारण के लिए एवं स्वयं की आंतरिक शक्तियों को 'कहाँ से आया हूँ','यहाँ से कहाँ जाऊँगा' जैसे प्रश्न भी करते रहने जागृत करने के लिए ध्यान हर जागरूक व्यक्ति के लिए अनिवार्य है। की प्रेरणा दी है। वे आत्मविकास के लिए निम्न सूत्रों को अपनाने की ऐसी स्थिति में श्री चन्द्रप्रभ ने वर्तमान जीवन के लिए उपयोगी 'संबोधि प्रेरणा देते हैं - ध्यान योग साधना' का मार्ग प्रतिपादित कर मानवता को सार्थक प्रयोग 1. जीवन और जगत् को अंतर्दृष्टिपूर्वक देखें और उसके यथार्थ प्रदान किया है। संबोधि ध्यान का मार्ग जहाँ एक ओर आँख बंद कर को समझें। भीतर की प्रज्ञा को जागृत करने के सरल प्रयोग सिखाता है वहीं दूसरी 2. मन की वृत्तियों पर सम्यक् समझ और संयम द्वारा विजय प्राप्त ओर जीवन की हर गतिविधि को खुली आँखों से होश और बोधपूर्वक करें। करने का प्रशिक्षण देता है। इस तरह संबोधि साधना प्रायोगिक भी है 3. देह के क्षुद्र गुणधर्मों को समझतकर आसक्ति और अभिमान और व्यावहारिक भी। का त्याग करें। श्री चन्द्रप्रभ ने संबोधि ध्यान साधना पर विस्तार से प्रकाश डाला 4.वैराग्य का वेश पहनने की बजाय अनासक्ति को महत्त्व दें। है। उनकी ध्यान साधना पर अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं जिसमें 5. अपने सम्प्रदाय का आग्रह रखने की बजाय सबके प्रति कछेक के नाम उल्लेखनीय हैं - 1. संबोधि साधना का रहस्य। गुणानुरागी बनें। 2. ध्यानयोग, 3. ध्यान : साधना और सिद्धि,4. ध्यान का विज्ञान, 6.जीवन-बोध और मृत्य-बोध दोनों को गहरा करें। 5. आध्यात्मिक विकास, 6. मनुष्य का कायाकल्प, 7. ध्यान को श्री चन्द्रप्रभ ने मोक्ष, मरने की कला और आत्मविकास की क्रमिक गहराई देने वाले ध्यान सूत्र आदि। संबोधि ध्यान व्यक्ति को शारीरिक साधना के संदर्भ में परम्परागत धारणा से मुक्त होकर जो सरल एवं स्वास्थ्य के साथ मानसिक शांति, बौद्धिक विकास और आध्यात्मिक सटीक मार्गदर्शन दिया है वह दर्शनशास्त्र और आत्मसाधकों के लिए समृद्धि भी प्रदान करता है। जो कि समग्र व्यक्तित्व निर्माण के अनिवार्य वरदान स्वरूप है। चरण हैं। इस तरह श्री चन्द्रप्रभ का सिद्धांत एवं विचार दर्शन मौलिक, संबोधि ध्यान महावीर की अनुप्रेक्षा, बुद्ध की विपश्यना, पतंजलि चिंतनप्रधान और वर्तमान युग के लिए उपयोगितापूर्ण है। उन्होंने का अष्टांग योग एवं षट्चक्र साधना का अनुभवजन्य मिश्रण है। जीवन, परिवार, धर्म, ध्यान एवं आत्मा से जुड़ा वैज्ञानिक चिंतन प्रस्तुत संबोधि साधना में मंत्र साधना, श्वास साधना, शरीर साधना, पंचकोश कर भारतीय दर्शन एवं विश्व दर्शन को समृद्ध बनाने में एक सिद्ध योगी साधना और षट्चक्र साधना के प्रयोग करवाए जाते हैं । संबोधि साधना और विचारक की भूमिका अदा की है। का मुख्य उद्देश्य है : स्वस्थ शरीर, शांत मन, निर्मल चित्त, प्राण ऊर्जा श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन का अन्य दार्शनिकों के साथ तुलनात्मक का विस्तार और ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से सम्पर्क। श्री चन्द्रप्रभ ने संबोधि अध्ययन नामक पाँचवें अध्याय से निष्कर्ष निकलता है कि भारत एवं साधना को जीवन-निर्माण, चित्त-शुद्धि, प्रतिभा निखार और विश्व में चल रही दार्शनिकों की प्रवाहमान धारा में श्री चन्द्रप्रभ वर्तमान सृजनात्मक शक्ति के साथ जोड़कर सभी दृष्टिकोणों से उपयोगी सिद्ध युग के महान दार्शनिक हुए हैं। उन्होंने जो दर्शन मानव-समाज को कर दिया है। दिया वह न केवल अन्य दार्शनिकों से भिन्न और नया है वरन् मौलिक ___ निश्चय ही, श्री चन्द्रप्रभ का संबोधि ध्यान दर्शन मनुष्य के भौतिक भी है। उन्होंने अपने दर्शन में धरती पर स्वर्ग निर्माण की जो पहल की है और आध्यात्मिक उत्थान में कीमिया संजीवनी का काम करता है। वर्तमान वह आने वाली पीढ़ी के लिए प्रकाश शिखा का काम करेगी। श्री मनुष्य के पास समय की कमी है। वह कम समय में अधिक परिणाम पाना For Personal Private Use Only संबोधि टाइम्स 143 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रप्रभ महान जीवन-दृष्ट्रा संत हैं । उनका दर्शन जीवन-सापेक्ष है जो दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। यही कारण है कि वर्तमान पीढ़ी श्री चन्द्रप्रभ तार्किक, मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक है। श्री चन्द्रप्रभ ने एक ओर की पुस्तकें बेहद चाव से पढ़ती है और अपने जीवन के लिए सार्थक प्राचीन भारतीय संस्कृति के आदर्शों को नवीनता के साथ पेश किया है दिशा प्राप्त करती है। तो दूसरी ओर वर्तमान की आवश्यकता से जुड़े मौलिक सिद्धांतों एवं श्री चन्द्रप्रभ एवं आचार्य विनोबा भावे के दर्शन की परस्पर तुलना विचारों को आविष्कृत किया। उन्होंने युगीन समस्याओं का करने से ज्ञात होता है कि दोनों दर्शन जीवन-निर्माण और मानवीय मनोवैज्ञानिक समाधान दिया और विश्व के उज्ज्वल भविष्य की उत्थान से संबंधित हैं। दोनों दार्शनिकों ने निष्काम कर्मयोग पर विशेष रूपरेखा प्रस्तुत की। बल दिया है। दोनों संत सामाजिक एवं आध्यात्मिक विकास की प्रेरणा इस अध्याय में श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन की स्वामी विवेकानंद, देते हैं। यद्यपि दोनों में दार्शनिक भिन्नता है, फिर भी उनमें काफी महात्मा गाँधी, श्री अरविंद, आचार्य विनोबा भावे, जे. कृष्णमूर्ति, निकटता देखी जा सकती है। महर्षि रमण, आचार्य श्रीराम शर्मा, आचार्य महाप्रज्ञ और श्री रविशंकर श्री चन्द्रप्रभ एवं जे. कृष्णमूर्ति के दर्शन के अन्वेषण से सिद्ध होता के दर्शन से तुलनात्मक विवेचना की गई है। है कि उन्होंने जीवन, धर्म और अध्यात्म को परम्परागत रूढ़ मान्यताओं श्री चन्द्रप्रभ एवं स्वामी विवेकानंद के दर्शन पर दृष्टिपात करने से से हटाकर नए स्वरूप में प्रस्तुत किया। दोनों दार्शनिकों ने मनुष्य को स्पष्ट होता है कि स्वामी विवेकानंद ने परतंत्र भारत की परिस्थितियों से पंथ प्रेमी बनने की बजाय सत्य प्रेमी बनने एवं जीवन में ध्यानयोग को प्रभावित होकर जनमानस को कर्मयोग और मानवतावाद की शिक्षा दी अधिकाधिक जीने की प्रेरणा दी। जे. कृष्णमूर्ति ने जीवन में और श्री चन्द्रप्रभ ने स्वतंत्र भारत को स्वर्ग सरीखा बनाने के लिए लोगों आध्यात्मिक विकास के पक्ष को मजबूती के साथ रखा और श्री को सुखी-समृद्ध एवं मधुर जीवन जीने के प्रायोगिक सूत्र सिखाए। चन्द्रप्रभ ने आध्यात्मिकता के साथ व्यावहारिक विकास के पक्ष को भी दोनों दार्शनिकों ने राष्ट्र की समस्याओं के समाधान से जुड़े प्रासंगिक महत्त्व दिया। जे. कृष्णमूर्ति ने धार्मिक पंथ-परम्पराओं को त्यागने की विचार रखे एवं राष्ट्रीय उत्थान हेतु युवापीढ़ी को विशेष रूप से जबकि श्री चन्द्रप्रभ ने उनमें समन्वय स्थापित करने की बात कही। उत्साहित किया। स्वामी विवेकानंद ने वेदांत दर्शन की सकारात्मक यद्यपि जे. कृष्णमूर्ति का दर्शन आध्यात्मिक से ओतप्रोत है, पर उसमें व्याख्या कर उसे सरल ढंग से प्रतिपादित किया और श्री चन्द्रप्रभ ने क्लिष्टता है जबकि श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन व्यावहारिक, सरल एवं सभी धर्मों के सिद्धांतों की परस्पर सकारात्मक व्याख्या कर धार्मिक बोधगम्य है। सद्भाव की नींव खड़ी की। एक तरह से श्री चन्द्रप्रभ स्वामी विवेकानंद श्री चन्द्रप्रभ एवं ओशो के विचारों का अध्ययन करने से स्पष्ट से दो कदम आगे बढ़कर राष्ट्र और विश्व को और अधिक नई ऊर्जा होता है कि दोनों दार्शनिकों ने दर्शनधारा को नया मोड़ देने की कोशिश देने में सफल हुए हैं। की।ओशो ने वर्तमान में चल रही धर्मदर्शन से जुड़ी परम्पराओं को पूरी श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन की महात्मा गाँधी के दर्शन के साथ समीक्षा तरह से नकार दिया वहीं श्री चन्द्रप्रभ ने प्रचलित धर्म परम्पराओं में करने से स्पष्ट होता है कि महात्मा गाँधी राष्ट्रीय चेतना के शिखर पुरुष आई संकीर्णताओं को दूर कर धार्मिक सद्भाव स्थापित करने की हैं। स्वयं श्री चन्द्रप्रभ महात्मा गाँधी के त्याग, तपोमय और सादगीपूर्ण कोशिश की और जीवन से जुड़ा धर्मदर्शन प्रस्तुत किया। दोनों जीवन से प्रभावित हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने भले ही किसी स्वतंत्रता संग्राम में दार्शनिकों ने ध्यान मार्ग को फैलाया। ओशो ने सक्रिय ध्यान को हिस्सा न लिया हो, पर वे स्वयं भी राष्ट्रवादी संत हैं और हर भारतीय के स्थापित किया और श्री चन्द्रप्रभ ने संबोधि ध्यान का मार्ग दिया। दोनों दिल में भारतीयता का जज्बा जगाते हैं। महात्मा गाँधी और श्री दार्शनिकों का धर्म, ध्यान, योग, अध्यात्म, समाज, नैतिकता, राष्ट्र, चन्द्रप्रभ दोनों नैतिक मूल्यों के समर्थक हैं और दोनों ही सदाचार, विश्व से जुड़े सभी पहलुओं पर विशाल साहित्य प्रकाशित हुआ है। सद्विचार और सच्चरित्रता में विश्वास रखते हैं। महात्मा गाँधी ने ओशो वर्तमान की सभी व्यवस्थाओं से असहमत थे। उन्होंने अपरिग्रह सिद्धांत पर विशेष रूप से बल दिया, जबकि श्री चन्द्रप्रभ व्यवस्थाओं को बदलने के लिए तार्किक विचार रखे जबकि श्री गरीब और मध्यमवर्गीय लोगों को समृद्ध होने का पाठ सिखाते हैं। चन्द्रप्रभ ने वर्तमान व्यवस्थाओं को बेहतर बनाने के लिए व्यावहारिक उन्होंने गरीबी को जीवन का अभिशाप माना और उसे दूर करने की विचार प्रस्तुत किए। जहाँ ओशो का ध्यान-अध्यात्म दर्शन सदियों तक प्रेरणा दी। सार रूप में महात्मा गाँधी का दर्शन राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय उपयोगी बना रहेगा, पर अन्य विचार परिस्थितियों को बदलने में सफल समस्याओं को सुलझाने में सक्षम है और श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन घर- नहीं हो पाए हैं वहीं श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन वर्तमान पारिवारिक, परिवार और जीवन को सुख-शांतिपूर्ण बनाने में खरा उतरता है। सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों के लिए वरदान साबित हुआ है और श्री चन्द्रप्रभ एवं श्री अरविंद के दर्शन की तुलनात्मक विवेचना से युवा पीढ़ी उनसे जीवन एवं व्यक्तित्व निर्माण को लेकर विशेष रूप से स्पष्ट होता है कि दोनों दार्शनिक योग परम्परा से जुड़े हुए हैं। दोनों लाभान्वित हो रही है। दार्शनिकों का विपुल साहित्य उपलब्ध है। यद्यपि श्री अरविंद द्वारा की श्री चन्द्रप्रभ एवं आचार्य श्रीराम शर्मा के दर्शन की परस्पर समीक्षा गई विवेचना में गहराई है, पर भाषा दुरूह होने के कारण वे आम से निष्कर्ष निकलता है कि दोनों दार्शनिकों ने धार्मिक विकृतियों को दूर जनमानस में स्थापित नहीं हो पाए। श्री चन्द्रप्रभ ने इस दुरूहता को कर धर्म का वैज्ञानिकीकरण किया। जहाँ श्रीराम शर्मा ने यज्ञकर्म एवं सरलता में बदलने की कोशिश की। श्री अरविंद का दृष्टिकोण चेतना गायत्री मंत्र साधना पर विशेष बल दिया वहीं श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यान के विकास से जुड़ा रहा वहीं श्री चन्द्रप्रभ ने जीवन के विकास से जुड़ा साधना का महत्त्व प्रतिपादित किया। आचार्य श्रीराम शर्मा ने धर्मशास्त्रों 144 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का विशद् विवेचन कर विपुल साहित्य की रचना की और श्री चन्द्रप्रभ बताता है कि श्री चन्द्रप्रभ धर्मगुरु, समाज सुधारक एवं राष्ट्रवादी चेतना ने जीवन-निर्माण, व्यक्तित्व विकास और धार्मिक सद्भाव से जुड़े के मालिक हैं। उन्होंने परम्परागत एवं रूढ़िवादी धार्मिक मान्यताओं पहलुओं पर विस्तृत साहित्य लिखा । इस तरह आचार्य श्रीराम शर्मा से को बदलने की क्रांतिकारी पहल की। जनमानस के सामने उन्होंने धर्म वैदिक धर्म-दर्शन को पूर्ण विस्तार मिला है जबकि श्री चन्द्रप्रभ ने न का वह स्वरूप प्रस्तुत किया जो मनुष्य को मनुष्य के निकट आने और केवल सभी धर्मों को निकट लाने में योगदान दिया बल्कि सामाजिक एक-दूसरे के दुःख-दर्द में सहयोगी बनने की प्रेरणा देता है। श्री और नैतिक उत्थान से जुड़े धार्मिक सिद्धांतों को भी सरल रूप में प्रस्तुत चन्द्रप्रभ वास्तव में मानवतावादी संत हैं। उन्होंने लोगों की धर्म के प्रति किया है। बन चुकी संकीर्ण एवं साम्प्रदायिक दृष्टि को विराट एवं गुणानुरागी श्री चन्द्रप्रभ एवं आचार्य महाप्रज्ञ का दर्शन आधुनिक भारतीय बनाने की कोशिश की। वे एक ओर धर्म को वर्तमान समस्याओं का दर्शन में विशेष स्थान रखता है। दोनों दार्शनिक समकालीन रहे हैं। समाधान देने की चुनौती देते हैं तो दूसरी ओर अनुपयोगी बन चुकी आचार्य महाप्रज्ञ का दर्शन मुख्यतः अध्यात्म-केन्द्रित है। उन्होंने धार्मिक मान्यताओं को नकारने की हिम्मत भी दिखाते हैं। उन्होंने धर्म जीवन-जगत के हर बिन्दु को आध्यात्मिक-वैज्ञानिक दृष्टि से का जो सरल, व्यावहारिक एवं जीवन-सापेक्ष स्वरूप प्रस्तुत किया, विवेचित किया। उन्होंने वर्तमान जीवन से जुडी धार्मिक, सामाजिक व उसके लिए धर्मजगत उनका आभारी है। संक्षिप्त में श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म राजनीतिक व्यवस्थाओं में आध्यात्मिक सूत्रों का समावेश कर उन्हें के क्षेत्र में जो नई पहल की, वह इस प्रकार हैश्रेष्ठतम बनाने की प्रेरणा दी। जबकि श्री चन्द्रप्रभ ने चेतना का 1.धर्म को पारलौकिकता से हटाकर इहलौकिक बनाया। ऊर्ध्वारोहण की बजाय जीवन के ऊर्ध्वारोहण से जुड़ा दर्शन प्रतिपादित 2.धर्म को आत्मा-परमात्मा की बजाय जीवन से जोड़ा। किया, वर्तमान व्यवस्थाओं को बदलने की बजाय उन्हें सकारात्मकता 3. धार्मिक सम्प्रदायों के प्रति संकीर्ण मानसिकता रखने वालों का से युक्त करने की कोशिश की। इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने आत्मविकास विरोध किया। के साथ जीवन विकास का मार्गदर्शन देकर आम व्यक्ति को जीने की 4. पारिवारिक परम्परा से मिले धर्म को धारण करने की बजाय मधर राह दिखाई है। आचार्य महाप्रज्ञ ने एक पंथ के दायरे में रहकर सोच-समझकर धर्म को धारण करने की सीख दी। जनमानस को तत्त्व बोध प्रदान किया है. जबकि श्री चन्द्रप्रभ ने पंथ- 5.धर्मक्रियाओं से ज्यादा मानसिक शुद्धि साधने पर बल दिया। परम्परा से चार कदम आगे बढ़कर लोगों को जीवन जीने की कला 6.सभी धर्मों, धर्मशास्त्रों और महापुरुषों के प्रति आदरभाव रखने सिखाई है। कुल मिलाकर, ये दोनों ही दार्शनिक ऐसे हुए हैं जिनका का प्ररणा दा। साहित्य मानव मात्र को जीवन और अध्यात्म के रास्ते पर मार्गदर्शन 7.धर्म के नाम पर एक-दूसरे के निकट आने की सिखावन दी। प्रदान करता रहेगा। 8. मंदिर-मूर्तियों को पंथ विशेष तक सीमित करने को धर्मविरुद्ध श्री चन्द्रप्रभ व श्री रविशंकर के दर्शन को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें बत तो ज्ञात होता है दोनों दार्शनिक युवावर्ग के समग्र जीवन निर्माण हेतु 9. धर्म के नाम पर होने वाले अनावश्यक खर्चों को कम करने के बेहतरीन मार्गदर्शन दे रहे हैं। उन्होंने ध्यान एवं योग को जीवन के सूत्र दिए। अनिवार्य अंग के रूप में जोड़ने की प्रेरणा दी है। दोनों दार्शनिकों के 10. धर्म की शुरुआत मंदिर-मस्जिद से नहीं, परिवार से करने की सान्निध्य में मानवीय कल्याण एवं विश्व-निर्माण से जुड़े अनेक सीख दी। कार्यक्रम संचालित हो रहे हैं। चिंता, तनाव एवं प्रतिस्पर्धा से घिरे इस 11. गृहस्थ जीवन को संत-जीवन की तरह जीने की प्रेरणा दी। 12. अतितप व अतिभोग के स्थान पर मध्यम मार्ग का समर्थन युग में उन्होंने लोगों को हँसते-मुस्कुराते हुए जीने एवं सफलता की किया। ऊँचाइयों को छूने का प्रशिक्षण दिया है। दोनों दार्शनिकों का राष्ट्र 13.अध्यात्म और विज्ञान को परस्पर सहयोगी माना। निर्माण से जुड़ा साहित्य विपुल मात्रा में उपलब्ध है। इस तरह श्री 14.धर्म के साथ ध्यान को जोड़ने की अनिवार्यता प्रतिपादित की। रविशंकर ने दर्शन को आध्यात्मिकता से व्यावहारिकता प्रधान बनाने की कोशिश की और श्री चन्द्रप्रभ ने सेवा, सत्संग और साधना को इस तरह श्री चन्द्रप्रभ की धर्मदृष्टि समग्रता एवं समन्वय-भावना आधार बनाकर जनमानस में जीवन का कायाकल्प करने की पहल की लिए हुए है। श्री चन्द्रप्रभ सामाजिक विकास एवं मानवीय उत्थान के लिए सदा इस तरह श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन वर्तमान चिंतनधारा के दार्शनिकों जागरूक एवं प्रयत्नशील रहे हैं। वे सामाजिक परिस्थितियों के प्रति के बीच बेहद समादृत हुआ है। उनका दर्शन अनुसरण की बजाय गहरी पकड़ रखते हैं। उनके पास समाज से जुड़े खट्टे-मीठे अनुभवों अनुसंधान पर आधारित है। उन्होंने अन्य दार्शनिकों से सीखा भी है और का खजाना है। उन्होंने एक ओर समाज की अर्थहीन परम्पराओं का अपनी ओर से नया दर्शन दिया भी है। वे बीसवीं और इक्कीसवीं विरोध किया तो दूसरी ओर समाज के कमजोर तबके को ऊपर उठाकर शताब्दी में हुए दार्शनिकों में जीवन का नव-सृजन करने वाले महान उनके दुःख-दर्द को कम करने की कोशिश की। उन्होंने अपने यहाँ दार्शनिक सिद्ध हुए हैं और आने वाली शताब्दियाँ उनका अनुसरण अमीरों से ज्यादा गरीबों एवं मध्यमवर्गीय लोगों को महत्त्व दिया। वे करने के लिए स्वतः प्रेरित रहेंगी। समाज के कमजोर वर्ग को समृद्ध बनाने का मार्ग सिखाते हैं और श्री चन्द्रप्रभ की धर्म,समाज एवं राष्ट्र को देन नामक छठा अध्याय अमीरों को सामाजिक विकास में सहभागिता निभाने की प्रेरणा देते हैं। संबोधि टाइम्स > 145 For Personal & Private Use Only लिएएहा Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे कहते हैं, "पहले पेट भरो, फिर समृद्ध बनो और तत्पश्चात् समाज कि "कमजोर तबके के लोगों को जरूर आगे बढ़ाया जाए, पर सही की सेवा करो।" श्री चन्द्रप्रभ ने स्वयं को समाज विशेष तक सीमित न पात्र को पीछे न धकेला जाए।" रखा वरन् उन्होंने हर समाज से खुद को जोड़ा और सामाजिक सद्भाव 6.अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार को भारत की मूल समस्या बताया। की मिसाल कायम की। उनके मार्गदर्शन में अनेक सामाजिक संस्थाओं 7. भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए हर व्यक्ति को का गठन हुआ जो आज भी सफलतापूर्वक अपने कार्य सम्पादित कर जागृत किया। रही हैं। संक्षिप्त में सामाजिक उत्थान के लिए श्री चन्द्रप्रभ ने निम्न 8.राजनीति को नैतिकतापूर्ण बनाने की सीख दी। पहल की है 9.युवाशक्ति को भारत-निर्माण हेतु आगे आने का आह्वान किया। 1. मंदिरों के निर्माण से अधिक मानव समाज के उत्थान पर बल 10. गरीबी को देश का अभिशाप बताकर समृद्ध होने का रास्ता दिया। दिखाया। 2. लायन्स क्लब, रोटरी क्लब, महावीर इंटरनेशनल, भारत 11.नारी जाति को आगे बढ़ने का हौंसला दिया। विकास परिषद्, विद्या भारती जैसी सामाजिक कल्याण से जुड़ी 12. आतंकवाद के कारणों की चर्चा की और अहिंसा को संस्थाओं को मानवता के लिए वरदान स्वरूप बताया। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फैलाने का मार्गदर्शन दिया। 3. सामाजिक विसंगतियों को दूर करने में उल्लेखनीय सहयोग 13. नैतिक मूल्यों की आवश्यकता एवं उपयोगिता प्रतिपादित दिया। की। 4. संतों और मुनियों को गरीबों का सम्मान करने के लिए प्रेरित 14. परिवार नियोजन, शिक्षा, प्रौद्योगिकी, धर्मांतरण, गंदगी, किया। व्यसनमुक्ति आंदोलन, गौरक्षा पर समय-सापेक्ष चिंतन प्रस्तुत किया। 5. धर्म और समाज में बढ़ रहे धन के प्रभाव से उपजे अच्छे-बुरे इस तरह श्री चन्द्रप्रभ ने राष्ट्रीय गौरव को बढ़ाने एवं राष्ट्रीय परिणामों का विश्लेषण प्रस्तुत किया। समस्याओं से निजात पाने के लिए सक्रिय भूमिका निभाई है। 6. प्रभावना, सहधर्मी वात्सल्य और जीवित महोत्सव के नाम पर सातवे अध्याय से कहा जा सकता है कि श्री चन्द्रप्रभ भारतीय बढ़ रहे आडम्बरों को अनुचित ठहराकर इनकी वास्तविक व्याख्या संस्कृति एवं दर्शन जगत् के उज्ज्वल नक्षत्र हैं जिन्होंने एक ओर प्रस्तुत की। भारतीय संस्कृति के मूलभूत तत्त्वों को युगीन संदर्भो में प्रस्तुत कर 7.समाज में बढ़ रही राजनीति को समाप्त करने की प्रभावी पहल । विश्व का ध्यान उसकी ओर खींचा है और भटकती युवा पीढ़ी को नई की। दिशा दी है वहीं दूसरी ओर दर्शन की दुरूहता को दूर कर नया 8. सामाजिक उत्थान के लिए सहयोग, समानता, संगठन और कीर्तिमान स्थापित किया है। समन्वय जैसे सिद्धांतों को लागू करने पर जोर दिया। निःसंदेह, श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन के अध्ययन, मनन और विश्लेषण इस तरह श्री चन्द्रप्रभ का सामाजिक कल्याण से जुड़ा मार्गदर्शन से सिद्ध होता है कि श्री चन्द्रप्रभ के व्यक्तित्व में बहुआयामी कृतित्व समाज के लिए मील के पत्थर का काम करता है। के दर्शन होते हैं। जीवन, जगत और अध्यात्म का शायद ही ऐसा कोई श्री चन्द्रप्रभ राष्ट्रप्रेमी हैं। उन्होंने भारत के स्वरूप पर नये तरीके से पहलू होगा जो उनके दर्शन में अछूता रहा हो। जीवन में सफलता और प्रकाश डाला है। राष्ट्रीय मूल्यों को स्थापित करने के लिए वे काफी मधुरता का सृजन करना और धरती पर स्वर्ग निर्माण की पहल में वर्षों से प्रयत्नशील हैं। उन्होंने राष्ट्र को धर्म से ऊपर रख राष्ट्रीय गौरव योगदान देना उनके जीवन-दर्शन का मुख्य ध्येय है। उनका साहित्य को बढ़ाया है। उन्होंने अहिंसा, सत्य, सदाचार, शील, व्यसनमुक्ति से भाषा, भाव और प्रस्तुति - तीनों दृष्टि से प्रभावी और समृद्ध है। उनकी जुड़े नैतिक मूल्यों को इतना सरल एवं उपयोगिता पूर्ण ढंग से जनमानस अनेक कृत्तियाँ राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित रहीं। वर्तमान में के सामने रखा कि लोग उन्हें अपनाने के लिए स्वत: आत्मप्रेरित हो जितने भी दार्शनिक हैं उनसे उनकी तुलना करना अथवा किसी के उठते हैं । राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान के लिए उनके द्वारा दिया गया समकक्ष दिखाना अनपेक्षित है क्योंकि वे स्वयं अतुलनीय और अनुपम मौलिक चिंतन हमारे देश के लिए दीपशिखा का काम करता है। हैं। उनके दर्शन का अध्ययन-मनन किये बिना भारतीय और पाश्चात्य संक्षिप्त में, उन्होंने राष्ट्र के बारे में कुछ खास बातें दीं,जो इस प्रकार हैं दर्शन का अध्ययन अपूर्ण रहेगा। 1. आत्मकल्याण के लिए एक हाथ में माला और आत्मरक्षा के लिए दूसरे हाथ में भाला रखने का सिद्धांत दिया। 2. विदेशी संस्कृति की आलोचना करने की बजाय उनकी अच्छाइयों से प्रेरणा देने की सीख दी। 3. भारतीय लोगों को दोहरा आचरण करने की बजाय एक स्वस्थ, स्वच्छ और समृद्ध भारत को साकार करने के लिए प्रेरित किया। 4.जाति की बजाय इंसानियत को महत्त्व देने का पाठ सिखाया। 5.जातिगत आरक्षण को देश का दुर्भाग्य बताया। उनका कहना है 146 » संबोधि टाइम्स For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाइफ हो तो ऐसी! Page:148Rs.50/ लाइफ हो तो ऐसी!0- श्री चन्द्र महान चिंतक पूज्य श्री चन्द्रप्रभ की पोपुलर तकों का सेट अपने कक्ष में बनाएँ अपनी लाइब्रेरी सभी पुस्तकें लागत से कम मूल्य पर बीguN सकारात्मक सोचिए सफलता घरको कैसे ऐसी हो जीने की पाए स्वर्ग WHATोजनका होगा बनाएँ Page : 124 Rs.30/ घर को कैसे स्वर्ग बनाएँ सीट Page:108 Rs.25/ क्वाकर कामयावा Page : 116 Rs.30/ Page : 180 Rs.30/ अब भारतको जगना होगा Page : 92 Rs.30/ Page : 172 Rs.30/ मुक्ति का पान मनोविज्ञान बीवन्द्र श्रीमा ध्यानका विज्ञान पाका जिदना कैसे जिएँ क्रोधएवं चिंतामुक्त जीवन महावीर महावीर. ऐसे जिएँ सामोश या मार्गदर्शन आपाआजा oder NIES/Paripa OopyApA Page : 116 Rs.30/ s Page : 124Rs.30/ Page : 108 Rs.25/ Page : 334Rs.50/ Page : 108 Rs.25/ RANCCaew Page : 118Rs.30/ चार्जक जिंदगी धर्म में प्रवेश थाrcUH श्री चन्द्रप्रभ भी कला श्रीशम शातिपाने का યોગ जागे सो महावीर सरल रास्ता सफल होना है तो... माहेरी पाने का भाव नाका iheयोग कैसे बनाएं अपना Page : 100 Rs.25/ Page : 132Rs.30/ Page : 100 Rs.25/ Page : 198Rs.40/ Page : 254Rs.50/ Page : 124 Rs.30/ केरियर mararjla HINDHIRDIN शानदार जीवन दमदार नुस्खे gry LATE Ghe विपश्यना स्वयसेसावकारका दिला मार्ग CAREATRA REATMpmar जागी. मेरे पार्थ श्रीचन्दUH HOW TO ENJOY ANGER AND ANXIETY FREE HarIENTINAR Page : 160Rs.30/ सोनिकाले रीतन्न LIFE Page:176 Rs.40/ Page : 132Rs.40/ शांति, सिद्धि और मुक्ति पाने का सरत रास्ता कैसे खोलें किस्मत के ताले Page : 260Rs.50/ Page : 124 Rs.30/ जागा मेरे पार्थ बनना है तो बनो Page 124Rs.40/ श्री चन्दन धनका भीवादUN 24 पुस्तकों का यह सेट आप अपने घर बैठे डाक द्वारा SRIJITYASHA SHREE FOUNDITION प्राप्त कर सकते है। सेट का मूल्य है मात्र 750/ B-7, ANUKAMPA SECOND, M.I. ROAD, JAIPUR (RAJ.). मनीऑर्डर भेजकर सेट प्राप्त करें। Ph.: 0141-2364737, 94142-55471 संबोधि टाइम्स / सम्पादक : प्रकाश दफ्तरी/ प्रबंध सम्पादक : योगिता/कला : संजय गहलोत / सदस्यता शुल्क : 200/- द्विवार्षिक, 700/- आजीवन सदस्यता-शुल्क मनीऑर्डर द्वारा श्री जितयशा श्री फाउंडेशन, बी-7, अनुकम्पा द्वितीय, एम. आई. रोड, जयपुर (राज.) फो. 0141-2364737 मो. 94145-41978 के पते पर भिजवाएँ। संबोधि टाइम्स >147 For Personal & Private Use Only Jain Education Interational Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R.N.I. No.RAJHIN/2004/12261 संबोधि टाइम्स 6-7 मई, 2013 पोस्टल रजिस्ट्रेशन नं. jodhpur/215/2011-2013 पितृ देवो भव मातृ देवो भव समाज-रत्न स्व. श्री जसवंतराज जी पाररव श्राविका-रत्न श्रीमती शांतिदेवी पाररव श्री जसवंतराज-शांतिदेवी पाररव ट्रस्ट अशोक-मधु, प्रवीण-अंजना, अभिषेक-आयुषा साक्षी, सलोनी,संयम, प्रिय पाररव पाररव प्रोपर्टीज / पाररव बिल्ड इन्वेस्ट चौथी सी रोड, सरदारपुरा, जोधपुर (राज.) मो. 98290-22249,93147-14949 Email Id : propertiesparakh@gmail.com चौधरी मापसेर प्रा.लि.-02942584071,2486784TISTO स्वत्वाधिकारी, मुद्रक व प्रकाशक प्रकाश दफ्तरी के लिए भारत प्रिण्टर्स, (प्रेस) जोधपुर से मुद्रित एवं LADERGAON जितयशा फाउंडेशन, संबोधि-धाम, कायलाना रोड़, जोधपुर फो. 0291-2060352 द्वारा प्रकाशित। सम्पादक : प्रकाश दफ्तरी। deliony ord