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हृदय में मीराभाव अर्थात् समर्पण का प्रकट होना अनिवार्य मानते हैं। जलाई, कुछ तंत्र बोले और चाकू लेकर श्री चन्द्रप्रभ के पास पहुँचा। उन्होंने मन की मृत्यु को मुक्ति माना है। वे संन्यास से ज्यादा अनासक्ति तांत्रिक चाकू उनके शरीर से स्पर्श करने वाला ही था कि न जाने एवं विरक्ति को महत्त्व देते हैं। उन्होंने आध्यात्मिक साधना के दो मार्ग श्री चन्द्रप्रभ को कौनसी अतीन्द्रिय प्रेरणा मिली, उन्होंने तांत्रिक को जोर बताए हैं : पहला संकल्प का, दूसरा समर्पण का। पहले में स्वयं का से धक्का दिया और ललितप्रभ जी के साथ तेजी से दौड़ते हुए स्वस्थान स्वयं पर विश्वास है तो दूसरे में स्वयं का ईश्वरीय चेतना पर विश्वास आ गए। श्री चन्द्रप्रभ ने यह घटना आश्रम के गादीपति को बताई तो है। उनकी दृष्टि में, "संकल्प जिनत्व और बुद्धत्व को पाने की उन्होंने कहा- अगर वह तांत्रिक तुम्हारे खून की एक बूंद भी निकाल आधारशिला है और समर्पण भक्त से भगवान होने का मार्ग है।" लेता तो तुम हमेशा के लिए उसके गुलाम बन जाते। आज तुम्हारी रक्षा उन्होंने अपने आध्यात्मिक अनुभवों से जुड़ी घटनाओं का जिक्र इस अतीन्द्रिय शक्ति के कारण हुई। प्रकार किया है -
अतीन्द्रिय शक्ति का संकेत - श्री चन्द्रप्रभ ने अपने आदरणीय जिज्ञासा बनी अभीप्सा- कुछ वर्ष पहले जब मैं प्रवचन दिया पिता-संत गणिवर श्री महिमाप्रभ सागर जी महाराज के साथ करता तो हजारों-हजार लोग एकत्र हुआ करते थे। तब मैं बहुत उत्तरकाशी में चातुर्मास करने का निश्चय किया। काफी कोशिशों के धुआँधार बोला करता था, जिसके आगे आज कुछ नहीं बोलता। अब बाद उन्हें चातुर्मास करने हेतु बिड़ला हाउस मिला। वे वहाँ पहुँचे। तो वही उद्गार मुँह तक आता है, जिसका अनुभव भीतर तक गया हुआ चातुर्मास लगने में कुछ दिन बाकी थे। वे बिड़ला हाउस में ठहरे हुए थे, है। अगर किसी पहलू का अनुभव भीतर नहीं हुआ है तो वह कभी पर श्री चन्द्रप्रभ का वहाँ बिल्कुल भी मन नहीं लग रहा था। उन्होंने अभिव्यक्ति में नहीं आएगा। जीवन में कभी यह जिज्ञासा जगी थी कि अन्य संतों को यह बात बताई। तीन दिन तक लगातार ऐसी स्थिति बनने मैं लोगों को आत्मा के कल्याण की, परमात्मा का ध्यान करने की बात के कारण उन्हें अनहोनी होने जैसा अनुभव हुआ। अंतत: उन्होंने वह कहता हूँ, क्या आत्मा-परमात्मा है भी या नहीं? जीवन में उठने वाली स्थान छोड़ने का मानस मनाया। वे वहाँ से ऋषिकेश आ गए। एक माह यह जिज्ञासा, यह शंका अभीप्सा बन गई, साधक अन्तधिक बन बाद ही इतना भयंकर भूकंप आया कि वह बिड़ला हाउस नींव सहित गया। जब संन्यास लिया तो गृहस्थ से मुक्ति पाई और जब आत्मज्ञान मलबे में बदल गया, वहाँ रहने वालों में एक भी बच नहीं पाया। जब पाया तो रूढ़ संन्यास से भी मुक्ति मिल गई। तब गृहस्थ और संन्यास- श्री चन्द्रप्रभ को यह खबर मिली तो भविष्य के पूर्व संकेत से जुड़ी दोनों ही भावों से वीतराग होने का अवसर मिल गया।
वास्तविकता उन्हें ज्ञात हो गई। दैवीय-शक्ति का चमत्कार - श्री चन्द्रप्रभ हिमालय यात्रा के इष्ट शक्ति ने दी सहायता - श्री चन्द्रप्रभ अपने पिता संत श्री दौरान उत्तर काशी की ओर जा रहे थे। अचानक मौसम बदल गया, महिमाप्रभ सागर व लघु भ्राता संत श्री ललितप्रभ सागर के साथ चारों तरफ घनघोर काले बादल आ गए, बिजलियाँ जोरों से कड़कने फिरोजाबाद की यात्रा पर थे। वे विहार करते हुए फिरोजाबाद से 14 लगीं। उनकी टकराहट से बड़े-बड़े ग्लेशियर टूटकर नीचे गिरने लगे। किलोमीटर दूरी पर एक गाँव में पहुँचे। उस दिन अयोध्या कांड होने से रास्ता पूरा बंद हो गया।चेहरे तक नज़र नहीं आ रहे थे। उनको लगा कि दंगे भड़क गए थे। वह क्षेत्र जाति-विशेष बहुल था। उनके लिए आहार आज उनका अंतिम समय निकट है। उन्होंने पिता एवं भ्राता संत को आया। श्री चन्द्रप्रभ ने कहा- मेरा यहाँ मन नहीं लग रहा है, लगता है 'उवसग्गहरं स्तोत्र' का जाप करने को कहा। केवल कुछ मिनटों में कुछ अनहोनी हो सकती है। हमारा यहाँ रुकना ठीक नहीं है। वे आगे स्तोत्र का ऐसा चमत्कार हुआ कि एक सरकारी बस उनके पास आकर बढ़ने की बजाय वापस फिरोजाबाद शहर की ओर रवाना हो गए। वे रुकी। एक व्यक्ति नीचे उतरा और उन्हें चढ़ने के लिए कहा। भगवान कुछ किलोमीटर चले होंगे कि दूर से सैकड़ों लोग हाथों में अस्त्र-शस्त्र द्वारा भेजी हुई सहायता मानकर वे बस में चढ़ गए। बस ने उन्हें अगले लेकर उनकी ओर आने लगे। उनको लगा आज प्राणान्त संकट सामने गाँव में चाय के ढाबे के पास उतारा। वहाँ पर एक व्यक्ति पास के है। वे मंत्र-जाप में लीन हो गए। लोग निकट पहुँचने वाले ही थे कि मकान की चाबी लिए खड़ा मिला। सभी उस घर में चले गए। श्री अचानक वहाँ एक सैनिकों की गाड़ी पहुँची। जल्दी से अधिकारी नीचे चन्द्रप्रभ ने रहस्योद्घाटन करते हुए कहा कि उस स्तोत्र के प्रभाव से उतरे, उनको सुरक्षा के घेरे में लिया और उन्हें सुरक्षित स्थान तक पहुँचा कोई दैवीय-शक्ति जाग्रत हुई, उसी ने बस ड्राइवर को प्रेरणा दी, बस दिया। दूसरे दिन अखबारों में पढ़ने में आया कि 14 किलोमीटर आगे में केवल चार लोग ही थे। हमारा भतीजा, जो पिछले गाँव से आहार गाँव के जिस मकान में वे ठहरे थे उसे अराजक तत्त्वों ने रात में ही लाने के लिए बस की इंतजारी कर रहा था, ड्राइवर, कंडक्टर व एक जलाकर राख कर दिया। अजनबी पुरुष। ऐसी घनघोर स्थिति में, जहाँ एक वाहन सड़क पर मौनको बनाया जीवनका महावत नहीं, उस स्थिति में भी वह बस हमारे लिए सहायता रूप में आई और
श्री चन्द्रप्रभ प्रखर वक्ता ही नहीं, मौन साधक भी हैं । वे बोलने को हमें सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। बस में बैठा वह अजनबी पुरुष और
चाँदी और चुप रहने को सोना बताते हैं। उन्होंने मौन साधना के प्रेरक के चाय के ढाबे पर चाबी लिए खड़ा युवक भी न जाने कुछ ही देर में कहाँ
रूप में संत श्री अमिताभ को माना है। उन्होंने मौन से जुड़े अनुभवों को गायब हो गए।
'ऐसी हो जीने की शैली' नामक पुस्तक के अन्तर्गत उल्लेखित किया जिज्ञासु-वृत्ति - श्री चन्द्रप्रभ पूज्य गणिवर महिमाप्रभ सागर
है। वे लगभग 20 वर्षों से लगातार सूर्यास्त से लेकर सूर्योदय तक मौनमहाराज के साथ हिमालय की यात्रा के दौरान गंगोत्री में प्रवासरत थे। वे
व्रत को जी रहे हैं। उनसे प्रेरित होकर पिताजी महाराज महिमाप्रभ तांत्रिक साधना के संदर्भ में एक तांत्रिक के आश्रम में पहुँचे। तांत्रिक ने
सागर महाराज ने भी पौने तीन वर्ष अखंड मौन-व्रत की साधना की थी। उन्हें तंत्र-साधना का कुछ ज्ञान दिया और एक प्रयोग करते हुए आग
उनके द्वारा मौनधर्म की महिमा पर रचित गीत प्रेरणादायक है - 32 » संबोधि टाइम्स
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