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आचरण करना बौद्धों का ही नहीं, हम सबका कर्तव्य है; स्थितप्रज्ञ, जग जाए, लौ लग जाए तो वह तुझमें है, मुझमें है, सारे जहाँ में है, अनासक्त और जीवन-मुक्त होना हिंदुओं का ही नहीं, हर एक का अन्यथा वह कहीं नहीं है। जैसे पानी का मूल्य प्यास में है वैसे ही हमारी अधिकार है; छुआछूत को दूर करके जीने का दायित्व मुसलमानों का प्यास, हमारी दृष्टि, हमारी भाव-दशा ही हमें उस तक ले जाएगी, ही नहीं, हम सबका है; प्रेम और सेवा के वशीभूत होकर सारी मानवता परमात्मा से साक्षात्कार करवाएगी।" श्री चन्द्रप्रभ ने जागो मेरे पार्थ, में परमात्मा को देखना ईसाइयों का ही नहीं, हम सबका धर्म है। मूल चेतना का विकास, धर्म में प्रवेश, योगमय जीवन जिएँ, रूपांतरण, दृष्टि में, मूल सिद्धांत में कहीं कोई भेद नहीं है इसलिए व्यक्ति जीवन बेहतर जीवन के बेहतर समाधान, चार्ज़ करें ज़िंदगी आदि पुस्तकों में से जुड़े हुए हर महापुरुष से प्रेरणा ग्रहण करे।"
परमात्मा-प्राप्ति के मार्ग का विस्तार से विवेचन किया गया है। श्री चन्द्रप्रभ ने परमात्मा के मंदिर को व्यक्ति, समाज या परम्परा निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में विशेष से जोड़ने को अनुचित कहा है। वे कहते हैं, "भगवान विष्णु का परमात्म-तत्त्व की विवेचना विराट नज़रिये से हुई है। सृष्टि के कणमंदिर बनाते हो और नाम देते हो बिड़ला मंदिर। महावीर का मंदिर कण में व प्राणीमात्र में परमात्मा को निहित मानकर श्री चन्द्रप्रभ ने बनाते हो और उसे कहते हो जैन मंदिर। क्या राम के मंदिर में जैनों को सम्पूर्ण जगत को परमात्ममय सिद्ध किया है जो व्यक्ति को 'सबसे प्रेम जाने की मनाही है? महावीर के मंदिर में क्या हिंदू को जाने का निषेध व सबकी सेवा' करने के सिद्धांत को अपनाने की प्रेरणा देता है। उन्होंने है? हम मंदिरों की व्यवस्थाएँ सँभालें, पर उसके मालिक न बनें। हर परमात्मा को नाम, रूप आकार से मुक्त देखने की प्रेरणा देकर धार्मिक मंदिर का मालिक अंतत: वही होता है जो सबका मालिक है। भगवान सद्भाव व सर्वधर्म-समन्वय की दृष्टि उजागर की है। उनके द्वारा प्रभुके मंदिर का द्वार तो सबके लिए खुला रहना चाहिए।" श्री चन्द्रप्रभ ने प्रार्थना व प्रभु-प्राप्ति के संदर्भ में दिया गया मार्गदर्शन भी हर व्यक्ति के जहाँ व्यक्ति को मंदिर जाने की प्रेरणा दी है, वहीं उसे सावधान करते लिए उपयोगी है। इस तरह श्री चन्द्रप्रभ का परमात्म-तत्त्व संबंधी हुए कहा है, "लोग मंदिर जाते हैं क्योंकि आज व्रत या उपवास है दृष्टिकोण मानवमात्र को नई सोच और सार्थक दिशा देने में सफल हुआ अथवा वहाँ सुंदर झाँकी लगी है, छप्पन भोग हो रहे हैं या अंगरचना है। बहुत अच्छी हुई है। व्यक्ति के लिए भगवान गौण, छप्पन भोग का
आत्मदर्शन व मोक्ष लड्डू मूल्यवान बन गया है। व्यक्ति भगवान के लिए, उसे पाने के लिए मंदिर जाए, तभी उसका जाना सार्थक हो पाएगा।" इस तरह श्री
सभी भारतीय धर्म दर्शनों का एक ही लक्ष्य है : मोक्ष की प्राप्ति। चन्द्रप्रभ ने व्यक्ति को सर्वधर्म-सद्भाव के साथ परमात्मा के प्रति
स्वर्ग-नरक का विवेचन तो विश्व के अनेक धर्म-दर्शनों में प्राप्त होता विराट नज़रिया अपनाने की प्रेरणा दी है। उनके दर्शन में प्रभु-प्रार्थना के
है, पर मोक्ष विशुद्ध रूप से भारतीय मनीषियों की खोज है। संदर्भ में निम्न बातों का मार्ग-दर्शन दिया गया है -
आध्यात्मिक साधना का परिणाम है मोक्ष । मोक्ष अर्थात् मुक्ति, निर्वाण, 1. प्रभु से प्रार्थना हेतु किसी औपचारिकता की ज़रूरत नहीं है, जब
परमधाम की प्राप्ति, जन्म-मरण के बंधनों से छुटकारा। भगवान चाहें, जहाँ चाहें, प्रभु-प्रार्थना की जा सकती है।
महावीर ने कहा है, "जहाँ से सारे स्वर लौट आते हैं, जहाँ तर्क का 2. प्रभु से ज़्यादा शिकायतें या मिन्नतें न करें । दिल से प्रार्थना करें व
प्रवेश नहीं है, जिसे बुद्धि ग्रहण नहीं कर सकती, जो ओज-प्रतिष्ठानउसे पूरा करने का दायित्व प्रभु पर छोड़ दें।
खेद रहित है, वही मोक्ष है।" इस तरह उन्होंने मोक्ष को व्याख्यातीत 3.प्रभु-भक्ति का अर्थ है कि हम हर रोज़ प्रभु को याद करें,साथ ही
बताया है। भगवद्गीता में मोक्ष के संदर्भ में कहा गया है, "वहाँ न सूर्य
का प्रकाश है, न चन्द्रमा का और न अग्नि का, जहाँ जाने के बाद फिर व्यावहारिक जीवन में प्रभु की आज्ञाओं का पालन करें।
लौटना नहीं पड़ता है, वही परम धाम मोक्ष है।" न्याय दर्शन कहता है, 4.प्रभु को माइक पर नहीं,मन में पुकारें।
"दु:ख से सदा के लिए छुटकारा पाए जाने को अपवर्ग 'मोक्ष' कहते 5. प्रार्थना करते समय अज्ञान, उत्तेजना और मूर्छा में हुए पापों के लिए प्रायश्चित्त के आँसू समर्पित करें।
हैं।" इस प्रकार मोक्ष को पूर्णत: दुःख-मुक्ति माना गया है। 6. प्रभु से अच्छा स्वभाव, मेहनत की कमाई, परोपकार, भाई-भाई
श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में 'मोक्ष' की समय-सापेक्ष एवं जीवनमें प्रेम और कष्टों को झेलने की ताक़त माँगें।
सापेक्ष व्याख्या हुई है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "मोक्ष स्वर्ग-नरक,
सुख-दुःख दोनों के पार है। मोक्ष चैतन्य की विशुद्ध दशा का नाम है। श्री चन्द्रप्रभ ने प्रभु-प्रार्थना के साथ परमात्म-प्राप्ति हेतु निम्न बातों
जहाँ न जन्म है न मृत्यु, यह शाश्वत शांति एवं चिरसौख्य का आस्वादन को जीवन के साथ जोड़ने की प्रेरणा दी है -
है। वस्तुतः आत्म-पूर्णता ही मोक्ष है।"'आयारसुत्तं' के अंतर्गत श्री 1.मैं अर्थात् कर्ता-भाव को परमात्मा के चरणों में समर्पित कर दें।
चन्द्रप्रभ ने 'मोक्ष' की व्याख्या करते हुए कहा है, "मोक्ष चेतना की 2.मन को शांत कर उसे भक्ति से शृंगारित करें।
आखिरी ऊँचाई है। उसके बारे में किया जाने वाला कथन प्राथमिक 3. भगवत्-प्राप्ति का आत्म-संकल्प मज़बूत करें।
सूचना है। मोक्ष तो सबके पार है। भाषा, तर्क, कल्पना और बुद्धि के 4.अंतरहृदय में अभीप्सा जगाएँ।
चरण वहाँ तक जा नहीं सकते। वहाँ तो है सनातन मौन, निर्वाण की 5. परमात्मा को सबमें,सब जगह देखने की कोशिश करें।
निर्धूम ज्योति।" 6. अन्तरात्मा की आवाज़ को सुनें व उसे जिएँ।
इस तरह उन्होंने एक तरफ मोक्ष को जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख, इस प्रकार श्री चन्द्रप्रभ भगवत्-प्राप्ति हेतु अंतरहृदय की प्यास को
शब्द-बुद्धि से परे बताया है वहीं दूसरी तरफ उसे स्वयं को दी जाने सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उनकी दृष्टि में, "प्रभु शोर में नहीं,
वाली पूर्णता कहा है। निर्वाण, मुक्ति, मोक्ष पर्यायवाची शब्द हैं। शांति में है; किताबों में नहीं, आत्मा के अहसासों में है। प्रभु का भाव
सामान्यतया मोक्ष को मरणोत्तर अवस्था अथवा स्वर्ग से भी ऊपर स्थान
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