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है।
का मार्ग भक्ति से जुड़ा है और जागरण का मार्ग ध्यानयोग से संबंधित हर प्राणी में महाप्राण का, तत्त्व समाया है अनजान।
पहचानें उस परम तत्त्व को, ऐसी दृष्टि दो भगवान।। इससे स्पष्ट है कि कैवल्य-दशा साधना की उच्च परिणति है, हम सब हैं माटी के दीये, सब में ज्योति एक समान। अध्यात्म जगत् का परम साध्य है। इसे प्राप्त करने पर आत्मा परमात्म
सबसे प्रेम हो, सबकी सेवा, ऐसी सन्मति दो भगवान ।। स्वरूप को उपलब्ध हो जाती है। श्री चन्द्रप्रभ ने कैवल्य-दशा का इस प्रकार श्री चन्द्रप्रभ की दृष्टि प्राणीमात्र में प्रभु को देखने से विशद् विवेचन किया है। उनके द्वारा कैवल्य दशा हेतु भौतिक जगत के __ जुड़ी हुई है। उन्होंने परमात्मा की जिन विशेषताओं का उल्लेख किया संबंधों के साथ धार्मिक जगत के संबंधों से भी उपरत होने की दी प्रेरणा है वे इस प्रकार हैंग्रहणीय है। उन्होंने भक्ति और ध्यान दोनों मार्गों का समर्थन कर उदार 1.परमात्मा सर्वत्र व्यापक है। दृष्टि का परिचय दिया है। इस तरह यह कहना युक्ति-संगत होगा कि 2. परमात्मा हम सबके साथ है, हमारे पास है। वह हर नाम, भेद, श्री चन्द्रप्रभ के आत्म-दर्शन में विवेचित 'कैवल्य दशा' अध्यात्म जगत ढंग और आकार से ऊपर है। के लिए महत्त्वपूर्ण है।
3. परमात्मा देहातीत और इन्द्रियातीत स्थिति है। आत्मदर्शन व ईश्वर-प्राप्ति
7. परमात्मा 'मैं'व'तू' के पार है। सभी भारतीय धर्म-दर्शन परमात्म-तत्त्व की प्राप्ति के लिए
किसी ने परमात्मा की अनुभूति 'अहं ब्रह्मास्मि - मैं ब्रह्म हूँ' के प्रयत्नशील हैं। इस हेतु सभी धर्म-दर्शनों में ईश्वरीय तत्त्व का विस्तृत
रूप में तो किसी ने 'तत्त्वमसि - तू ही है' के रूप में की है। श्री चन्द्रप्रभ विवेचन प्राप्त होता है। किसी ने आत्मा को ही परमात्मा माना है तो
र ने 'तू-मैं' के भाव से ऊपर उठने की प्रेरणा देते हुए कहा है, "जहाँ तू
न तू-म के भान किसी ने प्रकृति के, सृष्टि के कण-कण में परमात्मा को निहित बताया
भी गिर जाए, मैं भी गिर जाए, उसका अहसास वहीं है।" है। तो कोई परमात्मा को आसमान में स्थित बताते हैं। श्री चन्द्रप्रभ के श्री चन्द्रप्रभ ने परमात्मा के नाम, रूप, आकार की भिन्नता को दर्शन में प्रकति के कण-कण में व हर आत्मा में परमात्मा की सत्ता लेकर पैदा हुई धार्मिक संकीर्णता का सख्त विरोध किया है। उन्होंने स्वीकार की गई है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "भगवान का नर और प्रकृति परमात्मा के नाम पर साम्प्रदायिक राजनीति करना अनुचित माना है। का प्राण धरती के हर ठौर, हर डगर, हर नगर में है। जहाँ-जहाँ जीवन उन्होंने सबको संकीर्णता त्यागकर सर्वधर्म-सद्भाव अपनाने की सीख है, वहाँ-वहाँ चेतना है और जहाँ-जहाँ चेतना है, वहाँ-वहाँ परमात्मा दी है। वे कहते हैं, "परमात्मा तो नाम-रहित, नाम मुक्त है। सारे नाम का वास है। जीवन का आधार प्रकृति है, तो जीवन का विकास आरोपित हैं, स्थापित हैं। नाम से अगर परमात्मा को मुक्त कर दिया परमात्मा है।"
जाए, तो दुनिया भर में भगवानों के नाम पर जो वाद-विवाद-लड़ाइयाँ श्री चन्द्रप्रभ ने परमात्मा को अस्तित्व की सर्वोपरि सत्ता माना है। होती हैं वे सब समाप्त हो जाएँगी। लोग जितने भगवान के नाम पर उनकी दृष्टि में, “अस्तित्व और परमात्मा के बीच एक पुलक भरा
लड़ते हैं, उतना किसी और नामों पर नहीं। 'इस्लाम ख़तरे में या संबंध है। परमात्मा किसी दर्शनशास्त्र की अवधारणा नहीं, वरन् उसकी
हिन्दुत्व ख़तरे में' जैसे मुद्दे उठते ही चारों तरफ हिंसक माहौल बन जाते आभा चारों ओर है, सर्वत्र है।" प्रायः व्यक्ति परमात्मा को मंदिरों में,
हैं। हम परमात्मा के नामों में उलझने की बजाय भीतर में व्याप्त तीर्थों में, पहाड़ों में, जंगलों अथवा अन्य बाहरी स्थानों में खोजता है,
परमात्म-चेतना में उतरने की कोशिश करें।" ढूँढता है, पर श्री चन्द्रप्रभ परमात्मा को अंतर्घट में देखने की प्रेरणा देते परमात्मा को निराकार बताते हुए श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "हिन्दुओं हैं। वे कहते हैं, "ढूँढना परमात्मा को नहीं है, ढूँढना तो उन आँखों को का भगवान, मुसलमानों के अल्लाह से अलग नहीं है। जैन और बौद्धों है,जो उस परमात्मा को पहचान सकें।" श्री चन्द्रप्रभ ने जगत में,मनुष्य के भगवान भी अलग नहीं हैं। हम अलग-अलग हो सकते हैं, पर में, फूल-पेड़-पौधे सभी में परमात्मा की सत्ता स्वीकार की है, पर वे भगवान नहीं। हम ही लोग फ़र्क और फिरके खड़े करते हैं। फ़र्क दीयों सबसे पहले अन्तर्हृदय में परमात्मा को देखने की बात कहते हैं। उनका में हो सकता है, पर ज्योति सबकी एक है। मूल्य दीये का नहीं, ज्योति मानना है कि परमात्मा को खोजने की नहीं, जीने की, पाने की नहीं, का है। किसी के लिए राम-रहीम, कृष्ण-करीम, महावीर-मोहम्मद में पीने की आवश्यकता है। व्यक्ति पहले शांत-चित्त होकर अपने मौन फ़र्क हो सकता है, पर जब वे स्वयं ही निराकार हो चुके हैं तो उनके हृदय में परमात्मा को देखें। अगर भीतर में परमात्मा के दर्शन हो गए तो आकारों को लेकर झगड़े क्यों?" परमात्मा की मूर्तियों के भेद से ऊपर उसके लिए सर्वत्र परमात्मा है। तब ऊँच-नीच, वर्ण-सुवर्ण व जाति- उठने की प्रेरणा देते हुए वे कहते हैं, "चाहे महावीर की मूर्ति हो या राम पाँति का भेद न होगा और जीव में परमात्मा की आभा सहज रूप से की प्रतिमा, इनमें दिखाई देने वाला अंतर मूर्तिकारों द्वारा पत्थरों को दिखाई देगी। श्री चन्द्रप्रभ ने काव्यात्मक ढंग से परमात्मा की सर्वत्रता दिया गया अलग-अलग रूप है। मूल रूप में सभी मूर्तियाँ पत्थर से ही का विवेचन करते हुए 'संबोधि-साधना गीत' पुस्तक के अंतर्गत गीत निर्मित हैं लेकिन हम कुछ चिह्नों अथवा प्रतीकों से उन प्रतिमाओं में में लिखा है -
भेद कर लेते हैं। सच्चा मंदिर तो तभी निर्मित होगा जब हम ये सारे मानव स्वयं एक मंदिर है, तीर्थ रूप है धरती सारी।
बाहरी भेद गिरा देंगे।" मूरत प्रभु की सभी ठौर है, अंतरदृष्टि खुले हमारी॥
श्री चन्द्रप्रभ ने महापुरुषों और उनके संदेशों को पंथ-परम्परा तक श्री चन्द्रप्रभ ने सबमें परमात्म-तत्त्व को देखने की प्रार्थना करते सीमित न मानने की सीख दी है। महापुरुषों की प्रेरणाओं को हुए समदर्शी-गीत में लिखा है -
सार्वजनिक बताते हुए वे कहते हैं, "वीतराग, वीतद्वेष, वीतमोह होना सब में देखू श्री भगवान।
जैनों का ही नहीं, सबका दायित्व है, शील समाधि और प्रज्ञा का 102 » संबोधि टाइम्स
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