________________
5. अच्छी पुस्तकें पढ़ें।
6. स्वयं को सदा व्यस्त रखें व हर समय प्रसन्न रहें ।
7. अतीत अथवा भविष्य में खोए रहने की बजाय वर्तमान में जीएँ । 8. विषय वासनाओं से युक्त चिंतन से बचें।
9. इच्छा पूर्ति की बजाय आवश्यकता पूर्ति में विश्वास रखें। 10. सबके प्रति मांगल्य-भाव लाएँ ।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि सुखी जीवन के लिए चित्त शुद्धि होना ज़रूरी है चित्त में वृत्तियों व संस्कारों का प्रगाढ़ घनत्व होता है। जिसे एकदम काटा नहीं जा सकता, फिर भी ध्यानयोग के मार्ग के साथ श्री चन्द्रप्रभ द्वारा प्रदत्त छोटे-छोटे सूत्रों को अपनाकर चित्त-शुद्धि के करीब पहुँचा जा सकता है जो कि योग का मुख्य उद्देश्य है। चित्त शुद्धि ध्यान की प्रथम आवश्यकता और महत्त्वपूर्ण परिणति है। संबोधि- ध्यान और हृदय-विज्ञान
श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में अंतर- हृदय को संसार के पवित्रतम तीर्थं की उपमा दी गई है। प्रायः व्यक्ति मन एवं बुद्धि में जीता है। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन है, "मन में जीना तनाव को जन्म देना है और बुद्धि में जीना पांडित्य में वृद्धि करना है, पर जीवन को उत्सवपूर्ण एवं आनंदपूर्ण बनाने के लिए हमें हृदय से जीना होगा।" श्री चन्द्रप्रभ की दृष्टि में मौलिक व्यक्तित्व का स्वामी बनने के लिए हमें हृदय-विज्ञान को समझना आवश्यक है। उन्होंने व्यक्तित्व को महज चिंतक बनाने की बजाय हृदयवान बनाने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं, " व्यक्ति के लिए मनीषी व चिंतक होना पहला चरण है, हृदयवान होना दूसरा और आत्मवान होना तीसरा चरण है। जीवन को गहराइयों तक जाकर जीना है तो हृदय विज्ञान को आत्मसात् करके ही व्यक्ति सही अर्थों में मौलिक व्यक्तित्व का स्वामी बन सकता है।" मनोविज्ञान पश्चिमी चिंतन की देन है। वर्तमान में मनोविज्ञान का विस्तार भी तेजी से हो रहा
है । आज व्यक्ति मनोविज्ञान को जानने के लिए उत्सुक भी है। वर्तमान पर गौर करें तो मन से जुड़े तनाव मनुष्य के लिए बहुत बड़ी समस्या बन गये हैं। मनो-मस्तिष्क से जुड़े रोगों में निरंतर वृद्धि हो रही है। इससे जुड़ी दवाइयाँ भी व्यक्ति को स्वस्थ करने की बजाय मूर्च्छा देती हैं।
श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में मन की समस्याओं के समाधान हेतु हृदय से जुड़ने की सलाह दी गई है। इस संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, ' " मन के रोगों का समाधान मन में नहीं हृदय में है। हृदय स्वास्थ्य का, चेतना और प्राणों का केन्द्र है। मन का रोगी हृदय में उतरे, मन का हृदय में स्थित होना ही मन की सम्यक् चिकित्सा है।" चिंता, तनाव, मानसिक एकाग्रता में कमी, अनिंद्रा, सिरदर्द आदि रोग मन-बुद्धि में ज्यादा जीने के परिणाम हैं। श्री चन्द्रप्रभ मानते हैं, "मनुष्य का तनाव यदि हृदय में आ जाए तो वह शांत हो सकता है, स्वयं को तनावमुक्त और प्रसन्नचित्त अनुभव कर सकता है।" अनिद्रा के रोग से मुक्ति पाने के लिए श्री चन्द्रप्रभ ने हृदय पर ध्यान धरते हुए सोने की सलाह दी है। महावीर, बुद्ध, याज्ञवल्क्य, अरविंद, रमण आदि महापुरुषों ने भी अंतर हृदय में परमज्योति का साक्षात्कार होना माना है। जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र के रूप में मोक्ष मार्ग प्रतिपादित हुआ है जिसमें सम्यक् दर्शन को नींव कहा गया है। इसका संबंध सत्य के प्रति श्रद्धाभाव से है। यह श्रद्धा भी हृदय की ही निष्पत्ति है इसलिए श्री चन्द्रप्रभ सम्यक दर्शन का अर्थ 'हृदय की आँख से देखना बताते
Jain Education International
हैं। श्री चन्द्रप्रभ ने ' ध्यान योग' पुस्तक में स्व-अनुभव बताते हुए माना है कि मेरे भीतर अनासक्ति 'सबका त्याग' करने के भाव की बजाय 'सबको अपनाने' के भाव से साकार हुई है। उन्होंने 'अंतर्यात्रा' पुस्तक में लिखा है, "पहले मैं बुद्धि, शास्त्र और तर्क से जीता था, पर प्रभु कृपा से मेरा 'बुद्धिभाव' टूट गया। अब मेरे पास हृदय ही प्रधान है, मैं हृदय से जीता हूँ और हृदय में ही प्रेम, करुणा, होश, बोध, अपरिसीम आनंद और परम शांति देखता हूँ ।"
श्री चन्द्रप्रभ ने हृदयवान व्यक्ति के लक्षण बताते हुए कहा है, "उसे सृष्टि के कण-कण में परमात्म तत्त्व की अनुभूति मनुष्यों साथ पेड़-पौधों, फूल-पत्तों में ही नहीं झरनों में भी प्रभु की मूरत दिखाई देती है।" श्री चन्द्रप्रभ ने 'इंसानियत' का अर्थ भी हृदयपूर्वक जीवन जीना बताया है। श्री चन्द्रप्रभ ने हृदय को नाभि व मस्तिष्क का सेतु कहा है। उसे 'जीवन का मध्य केन्द्र, जीवन की धुरी, आनन्द केन्द्र' आदि नामों से अभिहित किया है। वे कहते हैं, "हृदय वह तत्त्व है जो पुरुष हो या स्त्री, पशु हो या पुण्य हर तत्त्व में स्थित आत्माअस्तित्व के बोध तक हमें ले जाता है।" श्री चन्द्रप्रभ फेफड़ों और धड़कन को शारीरिक अंग- उपांग मानते हैं, हृदय नहीं उनकी दृष्टि में, "हृदय सूक्ष्म शरीर की अन्तर स्थिति का नाम है।" वे कहते हैं, 'मनुष्य मस्तिष्क से जीता है, लेकिन जीवन हृदय से मिलता है अर्थात् हृदय न दाएँ है न बाएँ है, दोनों बाजुओं के मध्य का पूरा प्रदेश ही हृदय है। हृदय वास्तव में हमारा प्राण क्षेत्र है, आत्म-क्षेत्र है। जैसे ही इस क्षेत्र पर ध्यान की गहराई बनेगी, हमें हमारे वास्तविक स्वरूप की साक्षात्
अनुभूति हो जाएगी।”
:
श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन में हृदय-विज्ञान के बारे में 'ध्यान का विज्ञान', ' ध्यान योग', 'ध्यान साधना और सिद्धि', 'अंतर्यात्रा' आदि पुस्तकों में विस्तार से चर्चा हुई है। उन्होंने हृदयवान बनकर जीवन जीने हेतु मुख्य रूप से अपने प्रेम का प्राणीमात्र के लिए विस्तार करने, करुणावान बनने और सदा आनंदित रहने के प्रेरणा सूत्र प्रदान किए हैं। संबोधि साधना मार्ग में हृदय पर ध्यान धरने को विशेष महत्व दिया गया है। उसकी सारी ध्यान विधियाँ किसी-न-किसी रूप में हृदय से अवश्य जुड़ी हुई हैं। संबोधि साधना में बोधि और अंतर्दृष्टि के द्वार खोलने के लिए मनोविकारों और मनोकषायों से मुक्त होने के लिए हृदय पर ध्यान धरने की प्रेरणा दी गई है। इस संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, " ध्यान का सार इतना सा है कि मन से मुक्त होकर हृदय में उतरो और भीतर के आकाश में आत्मलीन रहो, इसी में शांति, सिद्धि और मुक्ति के नित नए द्वार खुलते जाएँगे।" श्री चन्द्रप्रभ ने 'ध्यान : साधना और सिद्धि' नामक पुस्तक में हृदय पर ध्यान धरने की सरल विधि का भी विस्तार से उल्लेख किया है।
इस विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि हृदय आध्यात्मिक विकास का मुख्य आधार है। जीवन के समस्त दिव्य सद्गुण हृदय में ही निहित होते हैं, जिनका जागरण हृदय पर ध्यान धरने व हृदयपूर्वक जीवन जीने से सहज होता है। जिस तरह से आज मनुष्य मन के प्रवाह में बहता जा रहा है और तनाव, अवसाद, अनिद्रा, विस्मृति जैसी नित नई समस्याओं में उलझता जा रहा है ऐसे में हृदय-विज्ञान महत्त्वपूर्ण समाधान बन सकता है। श्री चन्द्रप्रभ द्वारा प्रस्तुत 'हृदय-विज्ञान' वर्तमान मानव के लिए बेहद उपयोगी है और अनेक तरह की शारीरिक, मानसिक और
संबोधि टाइम्स 87g
For Personal & Private Use Only