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फिर भी भाषाशास्त्र की दृष्टि से ओम् की व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा है, "ओम् अ, ऊ, म् से मिलकर बना है। जो क्रमशः अनंतता, ऊर्जा और महानता का परिचायक है, इसमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश समाए हुए हैं। ओम् का 'अ' जहाँ जैनों के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का, मुसलमानों के अल्लाह का सूचक है; वहीं ओम् का 'म' अंतिम तीर्थंकर महावीर और अंतिम पैगम्बर मोहम्मद साहब का द्योतक है; एक ओम् का जप करने से सभी तीर्थंकरों, अवतारों और पैगम्बरों की वंदना एक साथ हो जाती है।" श्री चन्द्रप्रभ की ओम से जुड़ी यह विराट दृष्टि सभी धर्मों की विभेदता को दूर करती है।
ध्यान-साधना में भी मंत्रों का विशेष महत्व है। सभी ध्यान - परम्पराओं में मंत्रों की साधना को स्वीकार किया गया है। वर्तमान में ध्यान की भूमिका के रूप में ओम्, सोऽहम्, कोऽम्, अर्हम् जैसे कई मंत्रों का उपयोग करवाया जाता है। संबोधि साधना मार्ग में मंत्र-साधना को विशेष महत्व दिया गया है। एक ध्यान विधि तो पूरी तरह मंत्र से जुड़ी हुई है जिसमें 'ओम्' का श्वास निःश्वास के साथ विशेष विधि से जाप व ध्यान करवाया जाता है। मंत्र ध्यान में कुछ बातों का विशेष रूप से ध्यान देना आवश्यक है। इस संदर्भ में चन्द्रप्रभ का दृष्टिकोण है, " मंत्र - साधना में शरीर शुद्धि, मुख-शुद्धि, उच्चारण-शुद्धि, स्थानशुद्धि और हृदय-शुद्धि ये पंच शुद्धियाँ अनिवार्य हैं। शरीर शुद्धि के लिए स्नान करें, मुख-शुद्धि के लिए दुर्व्यसनों का त्याग करे, ज्ञानी गुरु से उच्चारण शुद्ध करें, स्वच्छ और शांत स्थान में बैठें, आसन पर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुँह करके बैठें, शुद्ध हृदय और पवित्र भावना के साथ मंत्र का जाप करें। "
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संबोधि-साधना के अंतर्गत मंत्र- ध्यान के संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, " ओम् ध्यान की मौलिक ध्वनि है, ओम् का ध्यान हम चार चरणों में पूरा कर सकते हैं। पहला चरण पाठ दूसरा चरण जाप, तीसरा चरण अजपा और चौथा चरण अनाहद है। उन्होंने मंत्र- ध्यान के निम्न परिणामों का उल्लेख मुख्य रूप से किया है अनिष्ट निवारण, सद्गुणों का विकास, समृद्धि की प्राप्ति, दैवीय कृपा, शत्रु-रक्षा, पारिवारिक सुख, ग्रह-शांति, सद्गति और ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति ।" संबोधि मंत्र साधना से जुड़ी विधि की सरल व्याख्या 'आध्यात्मिक विकास' तथा 'मनुष्य का कायाकल्प' पुस्तकों में की गयी है।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि आम व्यक्ति के लिए मंत्रसाधना सरल एवं उपयोगी है। मन्त्र के माध्यम से मन जल्दी एकाग्र हो जाता है। संबोधि-साधना में निर्दिष्ट ओंकार मंत्र साधना एक विशेष विधि युक्त प्रयोग है जो शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य प्राप्ति के साथ आध्यात्मिक शक्तियों के जागरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मंत्र साधना के परिणामों को पाने के लिए पंच-शुद्धि का ध्यान रखना हर व्यक्ति के लिए आवश्यक है।
संबोधि - ध्यान और चित्त शुद्धि
कुछ दार्शनिक मन और चित्त को एक मानते हैं। महावीर ने मन व चित्त को अलग-अलग माना है। सांख्य दर्शन में 25 तत्त्वों को जगत का आधार माना गया है। जिसमें मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय माना गया है। गीता में चित्त और मन को सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत रखा गया है। चित्त की तीन अवस्थाएँ हैं स्वप्न, सुषुप्ति और तूर्यावस्था ध्यान का उद्देश्य तूर्यावस्था अर्थात् समाधि को उपलब्ध करना है। पतंजलि ने चित्त
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86 संबोधि टाइम्स
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वृत्तियों के निरोध को योग कहा है। अगर मन व चित्त की तुलना मनोविज्ञान के चेतन मन, अवचेतन मन और अचेतन मन से की जाए तो दोनों को सरलता से समझा जा सकता है। मनोविज्ञान की दृष्टि में अचेतन मन हमेशा सोया रहता है, कभी-कभी प्रकट होता है। अवचेतन मन निमित्त मिलते ही प्रकट हो जाता है और चेतन मन विचार - विकल्प के रूप में हमेशा अनुभव में आता है। इस तरह चित्त को अचेतन मन के अंतर्गत रखा जा सकता है। श्री चन्द्रप्रभ चित्त व मन की व्याख्या करते हुए कहते हैं, "चित्त व्यक्ति का सोया हुआ मन है और मन व्यक्ति का जागा हुआ चित्त है। चित्त का संबंध अतीत के साथ होता है और मन का संबंध भविष्य के साथ । "
प्रायः हमारा मन अतीत व भविष्य के ध्यान अथवा अंतर्द्वन्द्व में उलझा रहता है। भगवान महावीर ने इस स्थिति को आर्त ध्यान की संज्ञा देकर इसे अशुभ ध्यान कहा है। इस अशुभ ध्यान की वजह से मानसिक शांति, एकाग्रता और आनंददशा खंडित हो जाती है। ऐसी स्थिति में चित्त की शुद्धि करना अनिवार्य है जो कि ध्यान के प्रयोगों से संभव है। इस हेतु हमें ध्यान में चित्त शुद्धि के लक्ष्य को प्रमुखता देनी होगी। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन है, "यदि हम केवल ध्यान के प्रति ही सजग रहे, चित्त-शुद्धि के प्रति सजग न हुए तो हमारा व्यवहार कभी शुद्ध-सौम्य नहीं हो पाएगा।" इस तरह अशुद्ध चित्त से हुई ध्यान की सिद्धि स्व-पर दोनों के लिए अहितकारी होती है। दुर्वाषा ऋषि और रावण इसके प्रसिद्ध उदाहरण हैं।
संबोधि- साधना मार्ग में जहाँ चित्त शुद्धि को अनिवार्य माना गया है, वहीं विचार वृत्तियों का दमन न करने की प्रेरणा दी गई है। श्री चन्द्रप्रभ का दृष्टिकोण है, "शरीर अथवा मन की किसी भी वृत्ति को दबाना या दमन करना अहितकर है। हमें क्रिया-प्रतिक्रिया को रोकने की बजाय साक्षी भाव से द्रष्टा बनकर उन्हें देखना चाहिए। द्रष्टा ज्ञाता होते ही व्यक्ति क्रिया-प्रतिक्रिया से मुक्त होने लगता है।" संबोधि मार्ग में द्रष्टा भाव को ध्यान की आत्मा माना गया है। द्रष्टा भाव को विकसित करने के लिए श्री चन्द्रप्रभ ने संबोधि साधना के अंतर्गत साक्षी ध्यान करने की प्रेरणा दी है। 'ऐसे जिएँ' पुस्तक में इसका विश्लेषण करते हुए कहा गया है, "साक्षी ध्यान जहाँ हमें शरीर की संवेदनाओं, उसके गुणधर्मों, चित्त की वृत्ति-संस्कारों से शनै: शनै: उपरत करता चला जाता है, वहीं शरीर में समाहित सूक्ष्म-विशिष्ट शक्ति का जागरण और ऊर्ध्वारोहण करता है, व्यक्ति के आंतरिक विशिष्ट केन्द्रों को सक्रिय करता है जो हमारे तन, मन और बुद्धि को हमारे अनुकूल, स्वस्थ और स्वस्तिकर बनाते हैं।"
श्री चन्द्रप्रभ ने भगवान बुद्ध द्वारा वर्णित मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा भावनाओं को भी जीवन से जोड़ने की सीख दी है। उन्होंने चित्त शुद्धि के व्यावहारिक उपायों में सर्वप्रथम चित्त अशुद्ध करने वाले कारकों से बचने की सलाह दी है, जिसमें काम व कामनाओं को बढ़ाने वाले टी. वी., फिल्म, पत्र-पत्रिकाएँ और विज्ञापनों के दृश्य मुख्य हैं। इसके साथ श्री चन्द्रप्रभ ने चित्त-शुद्धि हेतु निम्न प्रेरणा सूत्र प्रदान किए हैं
1. वासना के परिणामों पर चिंतन करें।
2. प्राणायाम युक्त ध्यान के प्रयोग करें।
3. स्वपति-स्वपत्नी संतोष व्रत जैसे नैतिक मूल्यों को महत्त्व दें। 4. सात्विक आहार लें।
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