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केवल क्रियाकांड बन जाता है, पर धर्म के साथ यदि ध्यान जुड़ जाए तो वह धर्म का आध्यात्मिक स्वरूप बन जाता है। श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यान पर इतना ज़ोर दिया है कि उनकी दृष्टि में धर्म महज उपदेश न रहकर जीवन का आध्यात्मिक प्रयोग और पथ बन गया है। वे धर्म का सम्बन्ध चित्त-शुद्धि से लगाते हैं। उनका दर्शन कहता है, "विकार - विजय ही धर्म है और स्वयं का स्वभाव-परिवर्तन ही धर्म की दीक्षा है।" आज व्यक्ति के सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि वह अपने स्वभाव को कैसे बदले ? भीतर के काम-क्रोध, वैर विरोध, द्वेष दौर्मनस्य से कैसे मुक्त हो? व्रत नियम, पूजा-पाठ धार्मिक उन्नति में सहयोगी हैं, पर भीतर में उतरे बिना अंतर-शुद्धि संभव नहीं है। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन इस संदर्भ में कहता है, "व्यक्ति अगर ध्यान की शरण में आ जाए तो वह शांत मन, निर्मल चित्त, सुकोमल हृदय और प्रखर बुद्धि का संवाहक बन सकता है।" ध्यान का उद्देश्य है व्यक्ति को होश एवं बोधपूर्वक जीवन जीने की कला प्रदान करना और धर्म का उद्देश्य है : व्यक्ति को अहिंसा-सत्यमय नैतिक जीवन जीने का रास्ता प्रदान करना। जो ध्यानपूर्वक जीवन की हर गतिविधि सम्पादित करेगा वही धार्मिक मूल्यों का सही तरीके से पालन कर पाएगा। प्रवचन सार कहता है, "जीव मरे अथवा जिए, प्रमादी को हिंसा निश्चित है किंतु जो समितिवाला (सावधानीपूर्वक जीने वाला) है उसे प्राणी की हिंसा होने मात्र से कर्मबंध नहीं है।" इससे स्पष्ट होता है कि अहिंसा आदि धर्मों का संबंध जीव को मारने या न मारने से कम प्रमाद- अप्रमाद से ज़्यादा है। ध्यान का आधार है : अप्रमाद । ध्यानी व्यक्ति अप्रमाद में, जागरूकता में जीता है इसलिए ध्यानी स्वयमेव धार्मिक हो होता है।
जब तक व्यक्ति ध्यान को जानेगा नहीं, समझेगा नहीं, तब तक वह धर्म की मूल आत्मा को जी नहीं पाएगा। धर्म जीवन की आभा तभी बन पाएगा जब उसके साथ ध्यान की आभा जुड़ी हुई रहेगी। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन कहता है, "जब तक मनुष्य ने ध्यान को जाना और जीया नहीं, तब तक उसके जीवन में अहिंसा, सत्य और अचौर्य पैदा नहीं होंगे।" आज इंसान ने क्रियाकांडमूलक धर्म अपना लिया है। धर्म-कर्म सब ऊपर-ऊपर चलते हैं। व्यक्ति की चेतन में कहीं कोई रूपान्तरण नहीं हो पाता । व्यक्ति धर्म को जिए, पर उसके साथ ध्यान को भी जोडे। श्री चन्द्रप्रभ धर्मक्रिया के साथ ध्यान क्रिया को अपनाने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं, “सामायिक करना सौभाग्य की बात है, पर सामायिक के बाद व्यक्ति पन्द्रह मिनट ही सही स्वयं में उतरे, व्यक्ति प्रेम से मंदिर जाए, मगर कुछ देर ही सही, उस परम तत्त्व ध्यान अवश्य करे तभी उसका मंदिर जाना सार्थक होगा। महावीर या बुद्ध का भक्त होना यह किताबों का अनुसरण हुआ, पर ध्यान मार्ग पर चलकर स्वयं महावीर-बुद्ध हो जाना जीवन में धर्म का सर्वोदय हुआ। " श्री चन्द्रप्रभ ने धर्म के प्रदर्शन और राजनीतिकरण को अनुचित ठहराया है। उन्होंने तप और व्रत को कायक्लेश तक सीमित कर देने की बजाय उसे मनोशुद्धि के साथ जोड़ने की प्रेरणा दी है। उनकी दृष्टि है, "राग, द्वेष, मोह विकार के काँटे तो मन में हैं अंतस् अगर बदल जाए तो आचरण अपने आप बदल जाएगा और इस अंतस् परिवर्तन के लिए ध्यान का मार्ग अपेक्षित है। चाहे विपश्यना हो या सक्रिय ध्यान, चाहे संबोधि ध्यान हो या प्रेक्षाध्यान, अब धर्म की नई शुरुआत हो।"
ध्यान और धर्म से जुड़े श्री चन्द्रप्रभ के दर्शन का विश्लेषण करने से स्पष्ट होता है कि वे ध्यान की आभा लिये हुए धर्म को अपनाने के
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पक्षधर हैं। उनके ध्यान दर्शन में धर्म का विराट एवं आध्यात्मिक स्वरूप प्रतिपादित हुआ है। व्यक्ति अगर क्रियाकांडमूलक धर्म अपनाने की बजाय प्रायोगिक धर्म अपनाए तो श्री चन्द्रप्रभ की दृष्टि में जीवन का कायाकल्प हो सकता है। श्री चन्द्रप्रभ का ध्यान दर्शन धर्म को पंथ-परम्पराओं से मुक्त करता है जो सामाजिक एकता की दृष्टि से उपादेय है। उन्होंने धार्मिक अनुसरण की बजाय वैज्ञानिक अनुसंधान की तरह आगे बढ़ने की प्रेरणा देकर मनुष्यता के विकास का मार्ग सुझाया है। भौतिकता की ओर बढ़ रही दुनिया को भीतरी रूपांतरण की ओर सावचेत कर श्री चन्द्रप्रभ ने जो बेहतर वर्तमान की नींव रखी है उसके लिए आने वाला कल उनका ऋणी रहेगा। संबोधि ध्यान और मंत्र-विज्ञान
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मंत्र-विज्ञान में प्रवेश से पूर्व शब्द-विज्ञान पर एक दृष्टि डालते हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि सृष्टि के जन्म के समय पहले विद्युत पैदा हुई जबकि भारतीय मनीषी कहते हैं कि सबसे पहले ध्वनि निर्मित हुई, पर दोनों ही एकमत से स्वीकारते हैं कि विद्युत और ध्वनि दोनों ही ऊर्जा के रूप हैं। श्री चन्द्रप्रभ 'स्वयं से साक्षात्कार' पुस्तक में स्वदृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं, "न तो सबसे पहले ध्वनि पैदा हुई और न पहले विद्युत पैदा हुई, सबसे पहले घर्षण हुआ। जब दो पत्थर आपस में टकराते हैं तो ध्वनि भी पैदा होती है और बिजली भी । घर्षण से मात्र ध्वनि ही नहीं, विद्युत भी पैदा होती है। "
श्री चन्द्रप्रभ ने हिमालय यात्रा के दौरान वहाँ रहने वाले संतों की जीवनशैली को जाना, उनसे तत्त्व- चर्चाएँ भी कीं। 'स्वयं से साक्षात्कार' पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ ने इस संदर्भ में लिखा है कि "हिमालय में रहने वाले संत बाबा ध्वनि-विज्ञान से परिचित हैं। वे वहाँ भयंकर बफीलीं सदी में भी नग्न रह लेते हैं। वे ध्वनि से उच्चताप पैदा करने की प्रक्रिया जानते हैं। जब श्वासोच्छ्वास के साथ ध्वनि का गहनतम मंथन होता है तो सर्दी में भी शरीर से पसीना आ जाता है। " यह ध्वनि या शब्द- विशेष ही पारम्परिक भाषा में मंत्र कहा जाता है। भारतीय शास्त्रों में विशेषकर वेदों में मंत्र-विज्ञान विस्तृत रूप से वर्णित है। मंत्र शब्द का अर्थ है : जो हमारे मन का त्राण करे, उसका उद्धार करे, उसे मंत्र कहते हैं। मंत्र चैतन्य स्वरूप होते हैं। मंत्रयोग पूर्णतया वैज्ञानिक और तर्क पर आधारित है। यह ध्वनि-विज्ञान से संबंधित है। प्रत्येक अक्षर एक ध्वनि उत्पन्न करता है, जो कम्पन अथवा स्पन्दन का ही रूप है। इन अक्षरों को मिलाकर ही मंत्रों का निर्माण होता है। इसे मनीषियों ने शब्द ब्रह्म कहा है। यह चैतन्यमय स्पन्दन अथवा कंपन ही इस स्थूल सृष्टि का निर्माता है। इसीलिए मंत्रों को मंत्र - शास्त्रों में सृष्टि का मूल तथा चैतन्यमय परमपिता परमात्मा का वाचक माना जाता है। मंत्रों की साधना अगर विधिपूर्वक की जाए तो उनसे चमत्कारी परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं।
हर धर्म-परम्परा में मंत्रों के महत्व को स्वीकार किया गया है। जैन धर्म में नवकार महामंत्र, हिन्दू धर्म में गायत्री मंत्र, बौद्ध धर्म में बुद्ध शरणं गच्छामि, मुस्लिम धर्म में अल्लाह हो अकबर, सिख धर्म में एक ओंकार सत् नाम का मुख्य स्थान है। पतंजलि ने योगसूत्र में 'तस्य वाचकः प्रणवः' कहकर प्रणव अर्थात् ओम् को ईश्वर का वाचक बताया है। शास्त्रों में ओम् को सृष्टि का जनक, प्रथम स्वर व सभी मंत्रों का सृजनकर्ता माना गया है। श्री चन्द्रप्रभ ने ओम् को अखण्ड माना है, संबोधि टाइम्स 85
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