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‘रूपान्तरण' पुस्तक में ध्यान के प्रयोगों के साथ जीवन में अपनाए जाने वाले नियमों व मन-वचन-कायागत दोषों की शुद्धि के कारकों का विस्तृत विश्लेषण किया है।
श्री चन्द्रप्रभ ने औरों को पीड़ा पहुँचाना, मारपीट करना, व्यभिचार करना, किसी की चीज़ चुराना, अपवित्र रहना, व्यर्थ चेष्टाएँ करना शरीरगत दोषों के अंतर्गत रखे हैं। इन दोषों से बचने के लिए गुरुजन, ज्ञानीजन, माता-पिता और औरों की सेवा करना, सात्विक भोजन लेना, योगासन-प्राणायाम करना और परमार्थ भाव से जीवन जीने की प्रेरणाएँ दी हैं। उन्होंने झूठ बोलना, किसी की निंदा करना, चुगली करना, कड़वा बोलना, गाली-गलौच करना, हेकड़ी हाँकना, व्यर्थ बातें करने को वाणीगत दोष स्वीकार किए हैं और इनसे बचने के लिए उद्वेग रहित और हितकारी व प्रिय सत्य बोलने की प्रेरणा दी है। उन्होंने भेदभाव करना, निर्दयता के भाव रखना, चिंता व तनाव में जीना दूषित और अपवित्र बातें सोचना, मन के प्रवाह में बहना आदि मनोगत दोष माने हैं। इन दोषों से बचने के लिए श्री चन्द्रप्रभ ने सहजता से जीने, सदाबहार प्रसन्न व शांत रहने, सोच को सत्य - शिव व सौन्दर्यमय बनाने, कल्याणकारी विचारों व भावों को विकसित करने की प्रेरणा दी है। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन बताता है, “शारीरिक, वैचारिक और मानसिक पवित्रता के साथ ध्यान-योग को जीना आत्मिक पवित्रता, मानसिक शांति व क्षुद्रवृत्तियों के दुष्चक्र से मुक्ति पाने के लिए आधार सूत्र हैं।" कभी अतीत में महावीर और बुद्ध ने जहाँ जीवन-शुद्धि के लिए पंचव्रत और पंचशील को अपनाने की बात कही थी वहीं पतंजलि ने यम-नियम को जीवन में आत्मसात् करने की प्रेरणा दी थी।
श्री चन्द्रप्रभ का दृष्टिकोण है, "अगर ध्यान को जीवन में आत्मसात करना है तो व्यक्ति शांत और निरपेक्ष जीवन का स्वामी बने।" जीवन - विकास व ध्यान सिद्धि के लिए चित्त का शांत होना और चेतना से जागृत होना जरूरी है। श्री चन्द्रप्रभ जीवन में मैत्री व करुणा भाव को विकसित करने के लिए 'ध्यान साधना और सिद्धि' पुस्तक में एक प्रयोग करने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं, " प्रात: और संध्या काल में ध्यान करने से पूर्व अपने जीवन में किए गए समस्त पापों के लिए अपनी अंतर्भ्रात्मा से क्षमा माँगें, हृदय से उन्हें बाहर उलीचकर निर्धार हो जाएँ और समस्त प्राणीमात्र के प्रति करुणा और मैत्री भाव का विकास होता हुआ देखें ।"
श्री चन्द्रप्रभ के ध्यान और जीवन-निर्माण दर्शन के विश्लेषण से यह ज्ञात होता है कि उनका ध्यान दर्शन जीवन सापेक्ष है। उन्होंने जीवन के समग्र विकास के लिए ध्यान को आवश्यक माना है। अगर व्यक्ति कर्मयोग के साथ ध्यान योग को अपनाए तो वह जीवन के हर पल को आनंद और उत्साहपूर्ण बना सकता है। श्री चन्द्रप्रभ का ध्यान दर्शन आम इंसान को ध्यान के करीब लाने में सफल हुआ है। उन्होंने ध्यान की दुरूहता समाप्त कर उसे जो जीवन के लिए उपयोगी व सरल बनाया है उसके लिए अध्यात्म उनका ऋणी रहेगा।
संबोधि - ध्यान और प्रेम
ध्यान और प्रेम एक-दूसरे के पूरक हैं। ध्यान प्रेम का आध्यात्मिक रूप है तो प्रेम ध्यान का व्यावहारिक रूप है। ध्यान प्रेम को आध्यात्मिकता प्रदान करता है और प्रेम ध्यान को व्यावहारिकता देता है। श्री चन्द्रप्रभ ध्यान के साथ प्रेम के भी पक्षधर हैं। उन्होंने ध्यान के
84 > संबोधि टाइम्स
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साथ प्रेम मार्ग की महत्ता प्रतिपादित की है। उनका प्रेम ध्यान की आभा लिए हुए है । वे कल्याण के दो मार्ग बताते हैं : पहला है प्रेम और दूसरा है ध्यान ध्यान और प्रेम के संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन है, "प्रेम धर्म का सार है और ध्यान अध्यात्म का । ध्यान अपने लिए है और प्रेम औरों के लिए। जिस प्रेम का उदय ध्यान के धरातल से हुआ, उसका कोई मुकाबला नहीं। वह निर्मल प्रेम है, पवित्र प्रेम है, विराट प्रेम है।" प्रेम को विराटता प्रदान करने के लिए उन्होंने ध्यान की पूर्णता के समय अपने हाथों को ऊपर उठाकर समूचे विश्व के प्रति मंगल मैत्री लाने, सारे संसार के दुःखों को अपने हृदय में लेने व हृदय की सारी मंगलकामनाएँ, सारी करुणा और प्रेम इस संसार में बिखेरने की प्रेरणा दी है। उनका मानना है, "इससे बड़ा करिश्मा होगा। हृदय में आते ही वे दुःख सुख में बदल जाएँगे और सुख के रूप में हमारे हृदय से लौटेंगे। संसार के प्रति हमारी ओर से यह महान करुणा होगी, महान मंगलदायी ध्यान होगा।"
स्वार्थ और विकार शुद्ध प्रेम के बाधक तत्त्व हैं। श्री चन्द्रप्रभ का दर्शन कहता है, "प्रेम अगर विकृत हो जाए तो वह व्यक्ति के लिए वासना बन जाता है और वही प्रेम संस्कारित हो जाए तो भक्ति और श्रद्धा बन जाता है।" ध्यान का मूल मंत्र है- काम को एकाग्रता से पूरा करना और भक्ति का मूल मंत्र है- काम को तन्मयता से पूरा करना । ध्यान और भक्ति के अंतसंबंध को उजागर करते हुए श्री चन्द्रप्रभ ने लिखा है, "ध्यान से जहाँ भक्ति का जन्म होता है, वहीं भक्ति से ध्यान की सिद्धि होती है। भक्ति हृदय की भावना है, जबकि ध्यान भावना का गहराई से स्पर्श है।"
आम तौर पर महावीर और मीरा के मार्ग को अलग-अलग माना जाता है। महावीर ध्यानमार्गी हैं तो मीरा प्रेममार्गी । महावीर ने ध्यान से स्वयं को उपलब्ध किया और मीरा ने प्रेम से प्रभु को पाया, पर श्री चन्द्रप्रभ दोनों मार्गों के प्रति समन्वयात्मक दृष्टिकोण रखते हैं। वे दोनों को परस्पर सहयोगी प्रतिपादित करते हुए कहते हैं, "ध्यान हम इसलिए करें ताकि हम यह पहचान सकें कि हमारे अंतरमन की कैसी दशा है, भीतर कैसी अराजकता है, चित्त में पर्त-दर-पर्त किस तरह का नरक जमा है । चित्त की पहचान के लिए ध्यान है। जब तक हम भीतर की अराजकता को नहीं पहचानेंगे, तब तक अपने पापों को परमात्मा के चरणों में समर्पित कैसे कर सकेंगे? ध्यान स्वयं से प्रेम है और भक्ति परमात्मा से प्रेम । जो स्वयं से प्रेम न कर पाया वह परमात्मा से कैसे प्रेम कर पाएगा? ध्यान हमें भीतर से अलग करता है और भक्ति हमें हृदय में लीन करती है। इसलिए दोनों मिलकर ही प्रियतम का परम पद का प्रकाश उपलब्ध करवाते हैं।'
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इससे स्पष्ट होता है कि चन्द्रप्रभ का दर्शन ध्यान और प्रेम का समन्वय करता है। वे प्रेम की झील में ध्यान के फूल खिलाते हैं। उनकी दृष्टि में, "प्रेम के साथ ध्यान और ध्यान के साथ प्रेम से बढ़कर कोई मार्ग नहीं है, स्वर्ग का सेतु नहीं है, मुक्ति की मंज़िल का प्रस्थान बिन्दु यहीं से प्रारंभ होता है।" संबोधि - ध्यान और धर्म
धर्म का स्वरूप अत्यन्त विराट है। धर्म कोई पंथ या सम्प्रदाय नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला है । जीवन को अधिक नैतिक और मानवीय मूल्यों के साथ कैसे जिया जाए? धर्म इस संदर्भ में हमारा मार्गदर्शन करता है। ध्यान धर्म का प्रायोगिक रूप है। ध्यानरहित धर्म
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