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मैं मुस्कुरा रहा हूँ। वर्तमान के हर क्षण का आनंद ले रहा हूँ....। हर क्षण विचार-विकल्पों की प्रेक्षा-अनुप्रेक्षा करे। तीसरे चरण में नाभि व नाभि को आनंदमय बना रहा हूँ .......। इस प्रयोग से हम थोड़ी देर में ही के नीचे पाँवों के अंगूठे तक प्रत्येक अंग पर ध्यान केन्द्रित करे, चौथे तनाव रहित प्रसन्न चित्त और शांति युक्त स्वभाव का अनुभव कर चरण में चेतना का ठेठ मस्तिष्क तक ऊर्ध्वारोहण करे। ध्यान की यह लेंगे।"
प्रक्रिया हमारे तन-मन की सुप्त शक्तियों को सक्रिय करेगी।" ध्यान वास्तव में जीवन को ऊर्जावान, उत्साहयुक्त एवं आनंदपूर्ण जीवन विकास के लिए जहाँ एक ओर शारीरिक-मानसिक बनाने की कला है। ध्यान किसी स्वर्ग को पाने या नरक से बचने के ग्रंथियों से, आलस्य और प्रमाद से, अशांति और तनाव से छुटकारा लिए नहीं है, यह तो जीवन में पलने वाले नरक से बचने और स्वयं को पाना ज़रूरी है वहीं भीतर की मौलिक क्षमताओं को उजागर करना भी स्वर्ग बनाने के लिए है। यह सत्य है कि ध्यान निवृत्ति का मार्ग है, पर आवश्यक है। इसके लिए भी संबोधि ध्यान के प्रयोग उपयोगी सिद्ध इसके प्रयोगों से तन-मन निष्क्रिय होने की बजाय और अधिक सक्रिय हुए हैं। वह स्मरण शक्ति, ग्रहण शक्ति और विवेचन शक्ति भी देता है। व सशक्त होते हैं। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "जो ध्यान हमें जीवन से श्री चन्द्रप्रभ का मानना है, "जो नियमित रूप से आधा घंटा ध्यान का विमुख करे वह लोक-कल्याणकारी ध्यान नहीं हो सकता। ध्यान तो प्रयोग करता है वह दिनभर प्रसन्न और सौम्य रहता है, उसके जीवन में जीवन को आनंद व उल्लास से जीने की अन्तर्दृष्टि देता है इसलिए स्वत: ही धार्मिकता का उदय हो जाता है।" उन्होंने यह भी कहा है, ध्यान जीवन-निर्माण करने वाला सरल विज्ञान है।"प्रायः लोग ध्यान "जिनकी स्मरण शक्ति कमज़ोर है, बुद्धि मंद है, पढ़ने या काम करने को जटिल मानते हैं, पर ऐसा नहीं है। ध्यान यानी कुछ करना नहीं है, में मन नहीं लगता, वे ध्यान में मन लगाएँ, जीवन में स्वत: त्वरा और वरन् भीतर जो उमड़-घुमड़ चल रही है उसे शांतिपूर्वक देखना- प्रखरता आएगी।" ध्यान के भीतर भाग्य को बदलने की ताकत है या समझना है और स्वयं को उससे अलग करना है। बेहतर जीवन के नहीं? प्रश्न का समाधान ध्यान का विज्ञान' नामक पुस्तक में देते हुए बेहतर समाधान' पुस्तक में श्री चन्द्रप्रभ का यह ध्यान-दर्शन प्रतिपादित श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "ध्यान में भाग्य को भी पलटने की ताकत है, हुआ है, "ध्यान मनुष्य के अतीत को सँवारने का, वर्तमान को बनाने ध्यान से वास्तुदोष का निवारण होता है। ध्यान करने वाला व्यक्ति का और भविष्य को सुधारने का धरातल है। ध्यान का अर्थ है लगना। अपनी कार्यक्षमता और उत्पादन क्षमता को स्वत: ही बढ़ा हुआ महसूस अपने आप में लगना । अपनी शांति में विश्राम करना, यही ध्यान है। हम करता है। लोग ध्यान नहीं करते इसलिए वे आलसी और प्रमादी बने रह जीवन को जीवन के भाव से जीएँ, आनंदभाव से जीएँ, बस यही ध्यान जाते हैं।"
जीवन की परा-शक्तियों का विकास भी ध्यान से संभव है। मनुष्य जीवन विकास के लिए कर्मयोग अपरिहार्य है। भगवान श्रीकृष्ण के शरीर में पाँच प्रकार के कोष अर्थात् चैतन्य केन्द्र हैं : अन्नमय कोष, ने भी गीता में निष्काम कर्मयोग की प्रेरणा दी है। सामान्य तौर पर ध्यान प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष और आनंदमय कोष। व्यक्ति को गुफावास की ओर ले जाता है, किन्तु श्री चन्द्रप्रभ ने ध्यान अन्नमय कोष का स्थान नाभि है। योगासन से अन्नमय कोष स्वस्थ को जीवन और समाज से जोड़ा है। वे ध्यान को कर्मयोग से जोड़ते हैं। रहता है। हृदय से लेकर नासिका तक प्राणमय कोष होता है। प्राणायाम ध्यान की पहली प्रेरणा है हर कार्य को तन्मयतापूर्वक करें, ध्यानपूर्वक करने से यह कोष स्वस्थ और सचेतन होता है। शेष तीन कोष - भौंहों करें। जितनी आवश्यकता चेतना के ध्यान की है उतनी ही हर कार्य को के मध्य मनोमय कोष, ललाट के मध्य विज्ञानमय कोष और ऊर्ध्व ध्यानपूर्वक करने की है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "मैं अपने हर कार्य को, मस्तिष्क अर्थात् शिखा प्रदेश की ओर आनंदमय कोष है, जो कि ध्यान हर गतिविधि को ध्यानपूर्वक करता हूँ। मेरा यह करना कर्मयोग है और से अधिक स्वस्थ सक्रिय और सशक्त होते हैं। श्री चन्द्रप्रभ ध्यान और ध्यानपूर्वक करना साधना है।" व्यापार और समाज भी जीवन के पंचकोषों की स्वस्थता के संदर्भ में मार्गदर्शन देते हुए कहते हैं,"हम अनिवार्य पहलू हैं। जीवन को इनसे अलग समझना असंगत है। ध्यान जब भी ध्यान धरें तो पहले पाँच मिनट नाभि प्रदेश पर ध्यान केन्द्रित मनोयोगपूर्वक व्यापार करने व समाज में जीने की कला सिखाता है। श्री करें, नाभि पर ध्यान धरने से सम्पूर्ण शरीर में उसकी ऊर्जा का विस्तार चन्द्रप्रभ के ध्यान-दर्शन की सिखावन है,"ध्यान को जीने का मतलब होता है। दूसरा हृदय के मध्य क्षेत्र में, तीसरा दोनों भौंहों के मध्य एक यह नहीं है कि हम समाज में नहीं जाएँगे, सामाजिक गतिविधियों में इंच भीतर, चौथा ललाट के एक इंच भीतर और अंत में पाँच मिनट भाग नहीं लेंगे अथवा व्यवसाय या उत्पादन नहीं करेंगे। ध्यान तो ऊर्ध्व मस्तिष्क में ध्यान केन्द्रित करें। केवल पच्चीस मिनट का यह इसलिए है कि हम उत्पादन भी ध्यानपूर्वक करेंगे। ध्यानपूर्वक उत्पादन प्रयोग जहाँ तन को स्वस्थ और ऊर्जावान करेगा वहीं अंतर्मन को शांत, करने से हिंसा भी कम होगी और व्यक्ति उन लोगों के जीवन-मूल्यों शक्तिशाली और आनंदपूर्ण बनाएगा।" का भी ध्यान रखेगा जो उसकी उत्पादकता का उपयोग करेंगे।"
श्री चन्द्रप्रभ ध्यान का विज्ञान' पुस्तक में मन की शांति के लिए जीवन विकास के लिए मानसिक एकाग्रता का विकास करना हृदय पर ध्यान को स्थिर करने, प्रेम और करुणा से जीवन के सरोवर को ज़रूरी है। जहाँ मन का बिखराव जीवन के विकास में बाधा है वहीं मन लबालब करने के लिए समग्र अस्तित्व के साथ एकाकार होने और का समीकरण जीवन के विकास का आधार है। मनुष्य का सामान्य मन चिर आनंद के लिए स्वयं के सच्चे स्वरूप में अंतरलीन होने की प्रेरणा तो क्रियाशील रहता ही है, किंतु असाधारण मन का स्वामी हुए बगैर देते हैं। जीवन विकास के लिए जहाँ हमें एक ओर ध्यान के प्रयोगों को मनुष्य असाधारण पुरुष नहीं हो सकता। इस हेतु को साधने में ध्यान जोड़ने की ज़रूरत है वहीं दूसरी ओर मन-वचन-काया की शुद्धि भी उपयोगी है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, "जीवन की सक्रियता बढ़ाने के आवश्यक है। मन, वाणी और शरीर जीवन के अभिन्न अंग हैं। इन्हें लिए व्यक्ति संबोधि ध्यान के अंतर्गत पहले दस मिनट मनोदृष्टि को संस्कारित कर जीवन को विकास के नए आयाम दिए जा सकते हैं। नासिका पर केन्द्रित करे अर्थात् ध्यान का ध्रुवीकरण, फिर श्वासों की, जीवन-शुद्धि और ध्यान की पूर्व भूमिका के रूप में श्री चन्द्रप्रभ ने
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