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________________ वैश्विक समस्याओं से मुक्ति दिलाने में पूर्णतः सक्षम है। संबोधि ध्यान और शक्ति रूपांतरण संबोधि ध्यान का मूल उद्देश्य है मनुष्य को पूरा मनुष्य बनाना। यह तभी संभव है जब व्यक्ति को स्वयं के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो और वह उस स्वरूप को विघटित करने के लिए प्रयत्नशील हो । संबोधि ध्यान इसमें सहयोगी की भूमिका निभाता है। इससे पूर्व यह समझना आवश्यक है कि जीवन और जगत का वास्तविक स्वरूप क्या है ? वैज्ञानिक मानते हैं कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ऊर्जामय है। श्री चन्द्रप्रभ कहते हैं, " ऊर्जा के सघन हो जाने का नाम ही जीवन है और जीवन की ऊर्जा का विस्तृत होना ही जगत है। फर्क सिर्फ ऊर्जा के विस्तार और संकुचन का है।" व्यक्ति संबोधि ध्यान के प्रयोगों के द्वारा स्वनिहित ऊर्जा को जागृत एवं रूपान्तरित करके अपनी चेतना का विस्तार कर सकता है और जीवन में दिव्यताओं को उपलब्ध हो सकता है। श्री चन्द्रप्रभ का दृष्टिकोण है, "हमारे भीतर जितनी शक्ति एवं ऊर्जा है, उसमें दस प्रतिशत भी अभी सक्रिय नहीं है। ध्यान का उपयोग यही है कि व्यक्ति की निष्क्रिय चेतना सक्रिय हो जाए।" शरीर विज्ञान के अनुसार मस्तिष्क में दस अरब स्नायु तंतु हैं जिसमें नौ अरब तो सुषुप्त रहते हैं। विज्ञान के पास उन्हें जागृत करने का कोई विशेष उपाय नहीं है। यह उपाय योग-विज्ञान के पास है। उन्हें ध्यान व साधना के द्वारा जागृत किया जा सकता है। श्री चन्द्रप्रभ के अनुसार, जीवन की मूल ऊर्जा व शक्ति नाभि व मस्तिष्क के आस-पास छिपी है। जीवन का निर्माण नाभि से व जीवन का संचालन मस्तिष्क से होता है। जहाँ शरीर का निर्माण नाभि के पास रहने वाली ऊर्जा से होता है, वहीं परमात्मा से साक्षात्कार मस्तिष्क के आस-पास रहने वाली ऊर्जा से होता है। मनुष्य वस्तुतः एक शुद्ध ऊर्जा, शुद्ध शक्ति है। इस ऊर्जा ऊर्ध्वारोहण भी होता है और अधोरोहण भी। श्री चन्द्रप्रभ ने ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण करने की प्रेरणा देते हुए कहा है, "यदि हमारी ऊर्जा ऊपर की ओर न चढ़ पाई तो अनिवार्यत: वह नीचे की ओर गिरेगी। यदि हमारी ऊर्जा ऊपर की तरफ चढ़ जाए तो वहीं प्रज्ञा की ऊर्जा बन जाती है और अगर नाभि की तरफ गिर जाए तो काम और क्रोध की ऊर्जा बन जाती है। अतः हमारी ऊर्जा विध्वंस का रूप धारण करे, वह खर्च हो, बूँद-बूँद रिसकर बेकार हो, उससे पहले हम उसका अमृतपान कर लें।" उन्होंने जीवनी-शक्ति का गुणात्मक व रचनात्मक बने रहना अनिवार्य माना है। गुणात्मकता और रचनात्मकता के लक्ष्य के अभाव में शक्ति मानवता के लिए हानिकारक बन जाती है। उनका मानना है, "मन की शक्ति, तन की शक्ति, वचन और धन की शक्ति, समाज और समूह की शक्ति जब तक गुणात्मक और रचनात्मक बनी रहे, तभी तक वह संसार के लिए हितकर है। यदि वह आपाधापी, गलाघोंट संघर्ष, निंदा और विध्वंस से जुड़ जाए, तो जो शक्ति प्रकृति से मनुष्य को वरदान स्वरूप प्राप्त हुई है, वह मानवता के लिए ही अभिशाप बन जाती है । " I संबोधि ध्यान जीवनी ऊर्जा को सम्यक् दिशा देने का आधार स्तंभ है संबोधि ध्यान शक्ति का ऊर्ध्वारोहण कर तन-मन को रूपांतरित करता है। श्री चन्द्रप्रभ 'रूपान्तरण' को जीवन की वास्तविक दीक्षा मानते हैं। वे कहते हैं, " ध्यान आधार है, रूपांतरण का ध्यान आयाम है, शक्ति के सृजन का ।" ध्यान धरने की प्रेरणा देते हुए उन्होंने कहा है, संबोधि टाइम्स "हम अंतर्मन में उठती बैठती ऊर्जा तरंग का ध्यान धरें। निमित्तों के उपस्थित हो जाने पर चित्त में उठने वाले संवेग उद्वेग पर ध्यान धरें, इससे चित्त की उलटवाँसियाँ मौन हो जाएँगी।" उन्होंने शक्ति रूपांतरण और ऊर्जा के ऊर्ध्वारोहण के लिए निम्न सूत्र दिए हैं1. ध्यान द्वारा भीतर उतरें । 2. भीतर की उच्छृंखलताओं को पहचानें । 3. उच्छृंखलताओं को अपने से अलग देखें। 4. स्वयं को रूपांतरित करने का आत्मविश्वास जगाएँ । 5. भीतर के कषायों को शांत करें। 1 6. मौलिक शांति को बढ़ाकर आत्मनिजता को उपलब्ध करें । इस विवेचन से स्पष्ट होता है कि मनुष्य शक्ति और ऊर्जा का पिंड है उस शक्ति और ऊर्जा को सम्यक दिशा देना अति आवश्यक है। सम्यक् दिशा देकर ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण किया जा सकता है। जहाँ ऊर्जा का अधोरोहण पतन का कारण है वहीं ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण श्री जीवन निर्माण एवं संसार सृजन के लिए उपयोगी है। चन्द्रप्रभ ने ऊर्जा के ऊर्ध्वारोहण का सरल एवं वैज्ञानिक मार्ग देकर मानवता पर उपकार किया है। उन्होंने शक्ति के रूपांतरण के लिए न केवल संबोधि ध्यान की उपयोगिता का विवेचन किया है वरन् ध्यान का प्रायोगिक मार्ग भी बताया है। संबोधि ध्यान और विश्व का भविष्य विश्व निरंतर प्रगतिशील है। व्यक्ति पहले से अधिक अर्थ एवं सुविधासम्पन्न हुआ है। वैज्ञानिक आविष्कारों के चलते दुनिया सिमट - सी गई है। जहाँ एक तरफ विश्व की भौगोलिक दूरियाँ कम होती जा रही हैं वहीं दूसरी तरफ व्यक्ति व्यक्ति के बीच आपसी दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं। पहले की बनिस्बत अब लोगों के दिल छोटे हो गए हैं। महोपाध्याय ललितप्रभसागर महाराज कहते हैं, "पहले लोगों के पास मकान छोटे होते थे, पर दिल बड़े, इसलिए चार-चार भाई भी साथ रह लेते थे और आज व्यक्ति ने मकान तो बड़ा बना लिया, पर दिल छोटा कर लिया। परिणाम, अब दो भाई भी साथ रह नहीं पा रहे हैं।" इस तरह आज देश और विश्व कल्याण के बारे में सोचने वाला मनुष्य केवल पति, पत्नी और पुत्रों के हित तक सीमित हो गया है। श्री चन्द्रप्रभ इस संदर्भ में कहते हैं, “पुराने जमाने में अकेले माता-पिता अपनी दस-दस संतानों का पालन-पोषण कर लेते थे, पर वर्तमान में अकेले माता-पिता का पालन-पोषण संतान के लिए भारी हो गया है। भाईभाई आपस में लड़ और बँट रहे हैं, घर-घर में महाभारत मचा हुआ है।" वर्तमान युग का दूसरा सत्य यह है कि भौतिक विकास एवं सुविधाओं के बेहिसाब विस्तार के चलते व्यक्ति की इच्छाएँ असीमित होती जा रही हैं। आज का व्यक्ति किसी भी क़ीमत पर मन की हर इच्छा पूरी करना चाहता है परिणाम, वह उचित-अनुचित का विवेक भूलता जा रहा है, जिसकी वजह से उसकी मानसिक शांति प्रभावित हो रही है। दया, करुणा, मैत्री, प्रसन्नता, परकल्याण जैसी पवित्र भावनाओं का ह्रास हुआ है। वह शारीरिक और मानसिक परेशानियों से ज़्यादा घिर चुका है। इसका समाधान तभी होगा जब व्यक्ति असंयम की बजाय संयमित जीवन को महत्व देगा। इस संदर्भ में श्री चन्द्रप्रभ दृष्टिकोण है, "आज मन मनुष्य का मालिक बना हुआ है, मन का For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003893
Book TitleSambdohi Times Chandraprabh ka Darshan Sahitya Siddhant evam Vyavahar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantipriyasagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2013
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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